________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण - आग्रह नहीं है। जब तीनों प्रकारके देवद्रव्यसे जिनपूजा (पूजारूप, आभूषण चढानेके स्वरूप, अजैन पूजारीको वेतनादि देनेके रूपमें)हो सकती है, तब स्वद्रव्यसे ही - देवद्रव्यसे नहीं और परद्रव्यसे भी नहीं-पूजा करनेका या वेतन देनेका आत्यन्तिक आग्रह रखना, यह उचित मालूम नहीं होता / यहाँ एक बात का ख्याल रखें कि गुरखा, पूजारी, वकील आदिको जिस देवद्रव्यसे वतन देनेकी बात कही है वह, केवल 'अजैन' हो, उन्हींसे संबद्ध है / जैन यदि देवद्रव्यका स्वीकार करेंगे तो, उन्हें मानसिक त्रास होगा / उससे उनकी परिणति निष्ठुर हो जायेगी और परिणतिकी रक्षा करना, यह तो सबसे बडा धर्म है। . वर्तमानकालीन जैनाचार्यों के लिए इस प्रकारका निर्णय लेनेका और आचरण कराने का समय हो गया है कि देवद्रव्यके तीन विभागों का संचालन व्यवस्थित करें। बिना अवधारण, देवद्रव्य संभवित नहीं। _. 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रन्थ (दूसरी गाथा) में बताया गया है कि देवको समर्पित करनेके लिए कल्पित द्रव्य आदि वस्तुएँ तभी देवद्रव्य मानी जायेगी, जब उसका संकल्प द्रढ हो, सामान्य स्तरका न हो / 'यह धन या नैवेद्यमैं देवको समर्पित करने के लिए बना रहा हुँ / ' ऐसा संकल्प सामान्य स्तरका है / द्रढसंकल्प तो तभी कहा जाय, जबकि उसमें गर्भित या स्पष्ट रूपसे स्व-उपभोगका निषेध किया गया है / 'मैं अपने लिए इस वस्तुका विनियोग नहीं करूंगा।' ऐसे नकारात्मक अभिगमपूर्वक देवसमर्पित करने का जो संकल्प किया जाय, उसे द्रढसंकल्प कहा जाता है / केवल सामान्य संकल्पवाली वस्तु, देवद्रव्यकी चीज नहीं बन पाती / ___ मृग नामक श्रावकने अपनी घरवालीसे तीर्थयात्राके समय स्थान-स्थान पर भगवानको समर्पित करनेके लिए नैवेद्य तैयार करनेके लिए कहा / नैवेद्य तैयार हो गया / उसी समय कोई मुनिमहाराज घर पर वहोरने आ पहुँचे / उन्हें उस नैवेद्य को वहोराया / मुनि और वह विप्र श्रावक, दोनों स्वर्गमें गये / इस नैवेद्यमें सामान्य संकल्प था, लेकिन स्वयं उसका उपयोग नहीं * करना, ऐसा गर्भित संकल्प जरा भी नहीं था / अत: वह देवद्रव्य न बन पाया, इसी लिए वे मुनि और विप्र श्रावक दुर्गति प्राप्त न हुए / इससे यह समझ लें की आंगीमें चढानेके लिए दिये जानेवाले हीरोंके हार धा.व.-२