________________ 176 धार्मिक-वहीवट विचार दीक्षादाता गुरु आसक्त नहीं होते / उसकी व्यवस्था भी नहीं करते / उस रकम को साधु-वैयावच्च विभागमें ले जाकर, उसका संचालन श्रावकसंघ करे, ऐसा ठरावमें अभिप्रेत है / इस प्रकार आसक्तिका निवारण करना ही चाहिए / अन्यथा मिष्टान्न भोजनादिमें भी साधुके लिए आसक्तिका प्रसंग उपस्थित होता है, तो क्या श्रावक तद्विषयक भक्ति ही समाप्त कर दें ? उपरान्त यदि गुरुचरणोंमें समर्पित धनमें आसक्ति पैदा होनेका भयस्थान है तो तो स्त्रियों द्वारा बिल्कुल नजदिक आकर ही संपन्न होनेवाले नवाँगी गुरुपूजनमें तो कामासक्ति पैदा होनेका छोटे साधुओमें बडा भयस्थान है, अतः बंद करने लायक तो वह पूजन है / अब प्रश्न रहा परंपरा का भाई ! परंपरा तो दोनों प्रकारको लम्बे समयसे चली आ रही है / गुरुद्रव्यको रकमको देवद्रव्यमें ले जानेकी परंपरावाले श्रमण समुदाय भी हैं / उपरान्त, पूज्यपाद स्वर्गस्थ लब्धिसूरीश्वरजी म. साहबके समयसे उनके समग्र समुदायमें लूंछन रूपमें ही गुरूपूजन किया जाता है और इसी कारण उस रकम शास्त्रानुसार साधु-वैयावच्च आदिमें ले ली जाती है (यह बात सर्वमान्य है / ) अब गुरुपूजन (सीधा या लंछन रूपमें) साध वैयावच्चमें ले जानेवाला वर्ग जब बड़ा है तब मनि संमेलनने गुरूपूजनके द्रव्यको जीर्णोद्धारमें (उपरी विभाग होनेके कारण) और वैयावच्चमें ले जानेके दोनों विकल्प खुले रखे हैं। __यदि गुरुपूजनकी रकमको साधु वैयावच्चमें ले जानेसे श्रमण संस्थामें पारावार शिथिलाचार बढ जानेकी संभावना होती तो, वह कभी का इन के गणवश बढ गया होता / क्योंकि इसी परंपराका वर्ग बडा है / उपरान्त, उसका विरोध आज तक क्यों नहीं किया ? / . वस्तुतः शिथिलाचार व्यापक हुआ है / तो उसमें दूसरे अनेक गंभीर कारण है, जिसमें सबसे मुख्य, कतिपय अपात्र दीक्षाएँ, पदवियाँ और शिष्योंका साधुत्व विकास करनेकी बातमें गुरुवर्गकी अध्ययन और वाचनादानकी बाबतमें अधिक उपेक्षा भी है / फिर भी मान लें कि साधु-वैयावच्चमें गुरुपूजनकी रकम जानेसे उस धनमें आसक्ति पैदा होगी, तो इसकी अपेक्षा अधिक गंभीर कक्षाकी अनेक प्रकारकी आसक्तिको पैदा करनेवाले उपधान और यात्रा संघोंके तथा भक्तोंके आधाकर्मी रसोईघरके भोज्य पदार्थ और उन