________________ परिशिष्ट-२ 215 से ही हाथ ऊँचे उठाकर धर्मलाभ कहने पर श्री सिद्धसेनसूरिको राजाने कोटिद्रव्य दिया / ऐसी कई बातें प्रबंधग्रन्थोंमें जो सुनी जाती है, उस प्रकार किसीने भी सुवर्णादि द्रव्यको गुरुसंबंधी बनाया हो अथवा तो द्रव्यलिंगीके पास जो द्रव्य रहा हो, उसको कनकादिके रूपमें गुरुद्रव्यरुप समावेश हुआ समझ लें / ये जल आदि गुरुद्रव्य उपभुक्त किये गये हों तो क्रमशः गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्लघु समझें / अर्थात् गुरुसंबंधी जलका उपयोग हुआ हो तो गुरुमास, अन्न उपभुक्त हुआ हो तो चतुर्लघु, वस्त्रादि उपयुक्त किये गये हों तो चतुर्गुरु और कनकादिका उपयोग हुआ हो तो षड्लघु प्रायश्चित्त समझें / यतिद्रव्यका उपभोग होने में इस प्रकार प्रायश्चित्त विधि समझें / उपरान्त, यहाँ भी वस्त्रादिके विषयमें आगे कहे जानेवाले देवद्रव्यके अनुसार समझें / अर्थात् जहाँ गुरुद्रव्यका उपभोग हुआ हो वहाँ या अन्यत्र साधुके कामकाजके लिए वैद्यादिको देना या कैद आदिमेंसे छुडानेके लिए, उतनी किंमतके वस्त्रादि (या उतने पैसों )को समर्पित करना और उपर कथानानुसार तप करनेका प्रायश्चित्त दें / श्राद्धजितकल्प-वृत्तिके इस अधिकारमें निम्ननिर्दिष्ट विशेषताएँ उल्लेखनीय : (1) मुहपत्ति आदिमें व्यक्तिगत परिभोगमें मात्र तपप्रायश्चित्त है / उतने द्रव्यका प्रत्यर्पण नहीं है / (2) मूल पाठमें आये 'जलन्नाइसु' शब्दमें जो 'आदि' शब्द रहा है, उससे जिसका ग्रहण करना है उस वस्त्रादि और कनकादिका वृत्तिकारने अलग अलग जिक्र किया है / (3) वस्त्रादिके लिए कोई विवेचन किया नहीं लेकिन कनकादिके लिए विवेचन किया है / / . (4) उस विवेचनमें 'इत्यादि प्रकारेण' शब्दका उल्लेख है / (5) 'वत्थाइसु देवदव्वं व' ऐसे अधिकारके बारेमें वृत्तिकारने 'कनकादौ'का पृथग् उल्लेख किया नहीं / इन उल्लेखनीय विशेषताओंका विचार करने से पहले एक बात स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि ग्रन्थकार अपने मनमें रहे अभिप्रायोंको व्यक्त करनेके लिए ग्रन्थात्मक शब्दोंका उच्चारण करते हैं / उपरान्त, वे शब्दप्रयोग करनेमें एकदम चौक्कस होते हैं / अतः उनके द्वारा किये गये थोडे-बहुत