SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 216 धार्मिक-वहीवट विचार या सामान्य विशेष शब्दोंके प्रयोग, उनके मनके अभिप्रायोंका प्रतिविम्ब पेश करते हैं / हम लोग उस प्रतिबिंबको समझनेकी कोशिश करें / (1) मुहपत्ति आदि भी वस्त्ररूप होने पर भी उसमें उतना प्रत्यर्पण नहीं कहा / उससे स्पष्ट होता है कि वह परिभोग एकाद स्वकार्य करने तक इत्वरकालीन हो और पुनः गुरुके उपयोगमें आने वाला ही हो / यदि वह पुनः गुरुके उपयोगमें आ सके ऐसा न हो तो वस्त्रादिकी तरह उसमें भी उतने ही द्रव्यका प्रत्यर्पण समझें / ऐसा मानना उचित लगता (2) वस्त्रादि और कनकादि उन दोनोंमें आदिशब्दग्राह्यत्व होने पर भी, वृत्तिकारने कनकादिका जो अलग उल्लेख किया है, वह सूचित करता है कि उन्हें कनकादिको वस्त्रादिसे अलग करने हैं / इन दोनों कक्षाकी चीजोंका विभाजन किन धर्मों के कारण है ? अर्थात् यहाँ विभाजक उपाधि कौन कौन हैं ? यह ढूँढ निकालना चाहिए / - कतिपय विद्वानोंकी कल्पना यह है कि अठारहवीं शताब्दीमें रचित 'धर्मसंग्रह, द्रव्यसप्ततिका आदि ग्रन्थोंमें वस्त्रादि और कनकादिके गुरुद्रव्यका भोगार्ह और पूजार्हके रूपमें विभाग दिखाये हैं / अतः श्रा. जी.के वृत्तिकारने भी इसी अभिप्रायसे उन दोनोंको विभक्त दिखाये हैं, ऐसा मानना चाहिए / अर्थात् भोगार्हत्व और पूजार्हत्व इन दोनोंको यहाँ विभाजक उपाधिके रूपमें स्वीकार्य करने चाहिए / . लेकिन, यह कल्पना योग्य जचती नहीं, क्योंकि इन दोनोंको विभाजक उपाधिके रूपमें माननेका आधारबीज क्या है ? द्रव्यसप्ततिकार आदि द्वारा किया गया विभाजन इसका बीज-आधार बन नहीं सकता, क्योंकि श्रा. जी. वृत्तिके वृत्तिकार, उनसे भी पहले भूतकालमें हो गये हैं कि जब गुरुद्रव्यमें भोगार्हत्व और पूजार्हत्व धर्म अप्रसिद्ध थे / श्रोतावर्गमें अप्रसिद्ध ऐसे भी धर्मका अभिप्राय शायद ग्रन्थकारके मनमें उत्पन्न हुए हों और उससे यह विभाजन हुआ हो, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे भी निर्देश दिया होता / प्रश्न : श्रा. जी. वृत्तिकारने इन दोनोंका जो पृथग् उपादान किया है, उसके फलस्वरूप ही द्रव्यसप्ततिकाकारने यह विभाजन किया है / अतः द्रव्यसप्ततिकाके शब्द ही, उसका बीज नहीं है क्या ?
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy