________________ परिशिष्ट-२ 219 नहीं होती वैसे 'सुवर्णादि गुरुद्रव्यके रूपमें होना, कैसे संभवित होते ? ऐसी आशंका भी कैसे पैदा हो ? उपरान्त, ऐसी आशंकाके समाधान स्वरूप, उन्होंने केवल उदाहरण बताकर, 'इत्यादि प्रकारेण केनापि'..... इत्यादि कहा है उससे स्पष्ट होता है कि 'सुवर्णादिसे गुरुपूजा करना यह शास्त्रविहित है' ऐसा वृत्तिकारको भी स्वीकार्य नहीं / ___ इस प्रकार श्रा. जी. वृत्तिकारने वस्त्रादि और कनकादिको जो अलग किये हैं, वह एक भोगार्ह और दूसरा पूजार्ह हैं इसलिए किये हैं, ऐसा मानना योग्य नहीं, यह स्पष्ट होता है और इसीलिए "कनकादि तो पूजार्ह गुरुद्रव्य है, भोगार्ह नहीं / अतः साधुके उपभोगमें वैयावच्चमें वह जा नहीं सकता / अतः उसका प्रायश्चित्त वस्त्रादिके बराबर नहीं हो सकता / अतः वस्त्रादिमें रहे 'आदि' शब्दसे कनकादिका ग्रहण हो नहीं सकता / अतः वस्त्रादिके प्रायश्चित्तमें जो गुरुकार्यमें उतने द्रव्यका प्रत्यर्पण सूचित किया है, उसमें कनकादिके प्रायश्चित्तका समावेश न होनेके कारण उपलक्षणसे कनकादिका प्रायश्चित्त समझना चाहिए / उपरान्त, भोगार्हके रूपमें उसका निषेध है / अतः वह गुरुके क्षेत्रमें तो जाता नहीं / अतः उसकी अपेक्षा ऊँचे ऐसे देवद्रव्यमें उतना प्रत्यर्पण करना, ऐसा समझना चाहिए / उपरान्त, द्रव्यसप्ततिकाकारने 'गौरवार्हस्थाने प्रयोक्तव्यम् जीर्णोद्धारे नव्यचैत्यकरणादौ च.....' इत्यादि कथन द्वारा भी देवद्रव्य क्षेत्रका जो निर्देश दिया है, उससे भी यह सूचित होता है / " "इत्यादि कल्पनाएँ योग्य नहीं / उसका कारण स्पष्ट है कि कनकादि भोगार्ह न होनेसे वस्त्रादिकी अपेक्षा भिन्न है, ऐसा श्रा. जी. वृत्तिकारका अभिप्राय नहीं, यह आगे देख गये हैं / अतः प्रत्यर्पणका जो विधि दिखाया गया है, उसमें 'वस्त्रादि' में रहे 'आदि' शब्दसे कनकादिका भी ग्रहण समझ लें / . . प्रश्र : 'वस्त्रादि में रहे 'आदि' शब्दसे सुवर्णादिका ग्रहण हो नहीं सकता, अतः वृत्तिकारने उसका पृथग् उल्लेख किया है / तो आप क्यों उसका ग्रहण करनेका आग्रह करते हैं ? उत्तर : 'जलन्नाइसु' पदमें रहे 'आदि' शब्दसे गुरुद्रव्यके रूपमें जिसकी संभावना हो, उसका ग्रहण करना है / उसमेंसे वस्त्रादिकी गुरुद्रव्यके रूप में संभावना जैसी प्रसिद्ध है ऐसी कनकादिकी प्रसिद्धि न होने से, उसके लिए उसका पृथग् सविवरण उल्लेख किया है / इस प्रकार एक बार उसमें