________________ 218 धार्मिक-वहीवट विचार विवरण करना भी आवश्यक समझकर विवरण किया / इसका कारण स्पष्ट है कि 'आदि' शब्दसे कनकादिको गुरुद्रव्यमें समावेश करनेका स्वयं सूचन करेंगे, अत: तुरंत कोई प्रश्न उपस्थित करेगा कि सुवर्णादि द्रव्यतो यतिसत्क (साधु संबंधी) हो, यह कैसे संभवित है ? जबकि वस्त्रादिका समावेश करनेका स्वयं सूचन करेंगे तब कोई ऐसा प्रश्न उपस्थित करेगा नहीं / ऐसा वृत्तिकारका समझना है अतः सुवर्णादि द्रव्य तो यतिसत्क हो, यह कैसे संभवित होगा ? ऐसे संभवित प्रश्नका उत्तर वृत्तिकारने विवरण द्वारा वहीं दे दिया कि 'भाईसाहब, तुम्हारी बात सही हैं, सामान्यसे तो सुवर्णादि यतिसत्क होनेका संभव नहीं. लेकिन कदाचित् श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि म.के जैसे प्रसंगमें उसका संभव होता है / ' वस्त्रादिके लिए ऐसे किसी विवरणकी आवश्यकता महसूस नहीं हुई / वे बताते हैं कि वस्त्रादि यतिसत्क हों, वे उन्हें स्वाभाविक-साहजिक अकादाचित्क मालूम होता है, जब सुवर्णादि ऐसे स्वाभाविक नहीं लगते, अतः सुवर्णादि कादाचित्क होने से, उसके बारेमें स्पष्ट विवरण करना आवश्यक बन गया / (4) श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराजका दृष्टान्त देकर वृत्तिकारने 'इत्यादि प्रकारेण' ऐसा कहा है, लेकिन किसी विधायक शास्त्रपाठ द्वारा 'तदनुसारेण' इत्यादि नहीं कहा / इससे फलित होता है कि शास्त्रविहित रूपसे उत्सर्ग पदमें सुवर्णादि गुरुद्रव्य रूप होना संभवित नहीं, लेकिन कभी राजादिकी मुग्धावस्थादिके कारण उत्पन्न ऐसे प्रसंगसे अपवाद स्वरूप वह संभवित होता है / जबकि वस्त्रादिका तो स्थान स्थान पर शास्त्रोंमें विधान है / अतः वह उत्सर्गपदमें गुरुद्रव्यरूपमें होता है / अतः ये दो विभाग औत्सर्गकत्व और आपवादिकत्व धर्मको अग्रसर बनाकर हो, यह भी संभवित श्रा. जी. वृत्तिके इस अधिकार पर उहापोह करने पर, दूसरी अन्य महत्त्वकी बातें भी जानने मिलती हैं / "सुवर्णादिद्रव्य यतिसत्क होना, संभव कैसे ? ऐसे संभवित प्रश्नकी वृत्तिकारके मनमें रही आशंका और ऐसी आशंकाका समाधान देनेकी वृत्तिकारकी आवश्यकता यह भी सूचित करती है कि इस वृत्तिकारके समयमें भी वस्त्रादिसे ही गुरुपूजा प्रचलित थी, कभी भी सुवर्णादिसे नहीं / यदि वह भी ऐसी (वस्त्रादि जैसी) प्रचलित होती तो, जैसे 'वस्त्रादि गुरुसत्क होना कैसे संभवित होते ? ऐसी आशंका पैदा