________________ 85 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी लिए बाहरगाँव जाना हो तब उस प्रतिमाको संघके देरासरमें स्थापित करे / बादमें पुनः घर वापस लायी जा सके अतः उस मूर्तिकी 'स्थिर प्रतिष्ठा' हो नहीं सकती / जिसने भगवान (प्रतिमा) निर्माणका लाभ लिया हो, उसका नाम मर्तिकी बैठकके नीचे पट्टी पर लिखा जाय / जिसने प्रतिष्ठाका लाभ लिया हो उसका नाम श्रीसंघ निश्चित कर उस स्थान पर अंकित किया जाय या लिखा जाय / उसका नाम बैठकके नीचे नहीं आ सकता / / जिनप्रतिमा निर्माण निमित्त जो रकम मिले, उसे कल्पित देवद्रव्यमें जमा की जाय अर्थात् उस रकमका उपयोग देरासरजी विषयककेसर, बरास आदि एवं पूजारीके वेतन आदिमें दी जाय और नूतन जिनमंदिर निर्माण, जीर्णोद्धार तथा प्रभुके आभूषण आदिमें किया जाय / / प्रश्न : (53) स्वप्नद्रव्य विषयमें कोई शास्त्रपाठ नहीं है, फिर भी इतने विवादके पीछे क्या रहस्य है ? उत्तर :- भाई, सीधा शास्त्रपाठ नहीं, इसी लिए तो विवादोंको मौका मिल जाता है / ये उछामनियाँ थोडे वर्षों से ही शुरू हुई हैं, अतः उसका सीधा शास्त्रपाठ कहाँसे प्राप्त हो ? ऐसी बातोंमें तो अनेक गीतार्थ आचार्य सर्वसंमतिसे जो निर्णय दे, उसे मान्य रखा जाय / इस पुस्तकमें इस विषयमें अनेक बातें बतायी हैं, जिसका सार यह है कि इस बोलीकी रकमें कल्पित देवद्रव्यनामक देवद्रव्यमें जमा की जायँ / आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग, देरासरविषयक संचालन खर्च में किया जाय / यथासंभव श्रावक ही स्वद्रव्यका उपयोग करें; जिससे उनकी धनमूर्छा दूर होनेका लाभ भी प्राप्त हो / लेकिन ऐसी संभावना न हो तो, श्रीसंघ द्वारा की गयी व्यवस्थानुसार कल्पित देवद्रव्यमेंसे अथवा पूजादेवद्रव्यमेंसे उपर निर्देशानुसार उपयोग किया जाय / जो हाल विद्यमान नहीं, ऐसे निकट भूतकालके ही महागीतीर्थ धुरंधर आचार्य-स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् सागरानंद सूरीश्वरजी म. सा. तथा स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् रविचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा., (स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.के शिष्यरत्न) आदिने इस बातका समर्थन किया है (देखे परिशिष्ट), उतना ही नहीं, परन्तु वि.सं. 2044 के सालमें अहमदाबादमें हुए संमेलनमें कई गीतार्थ आचार्योने सर्वानुमतिसे इस बातका