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________________ परिशिष्ट-३ 235 रोगवाले गृहस्थको नीरोगी बननेके लिए कहा है, परंतु उससे द्रव्यवान द्रव्य द्वारा भक्ति करे उतना अर्थ होता है कि अपने द्रव्य द्वारा भक्ति करे ऐसा भी अर्थ हो सकता है ? अपने द्रव्य द्वारा भक्ति करे उसी प्रकार दूसरेके द्रव्य द्वारा भी भक्ति करे तो द्रव्यस्तव कहा जाय या नहीं ? आपने एक बार कहा था कि प्रभुपूजा यह समकितकी करनी है / जैसे द्रव्यरोगनिवारण करनेका हेतु द्रव्यस्तवमें रहा है उसी प्रकार सम्यक्त्व निर्मल करने का आशय भी रहा है और प्रभुपूजनमें मुख्य वह हेतु है. / द्रव्य प्रतिकी मूर्छा उतारने का हेतु भी रहा है, लेकिन वह गौण है / एक समकितका विषय है दूसरा चारित्र्यका विषय है / समकितकी निर्मलता निश्चयसे परमात्मतुल्य आत्मस्वरूपका निर्धार करनेमें रहा है और वह हेतु सिद्ध करनेके लिए, मुख्यतया प्रभुपूजा विहित है / यदि ऐसा हो तो जो लोग स्वद्रव्यसे पूजा न कर पाये ऐसे हों, अगर कृपणतादिके कारण भी करनेके भाववाले होते न हो, वे परद्रव्य द्वारा द्रव्यसत्व करें, तो प्रतिमादर्शन और प्रतिमा पूजन आदि शुद्ध आलंबन द्वारा समकितका लाभ प्राप्त करनेवाले होंगे या नहीं ? यदि हों तो फिर ऐसे विशिष्ट आलंबनमें कि जिस प्रकार * लोग ज्यादा शामिल हों, उस प्रकार शास्त्रसे अबाधित, देशकालका रूप कोई रास्ता निकलता हो तो, उसे ढूँढने में हर्ज क्या है ? इस प्रकारका आपका अभिप्राय मुझे रुचिकर लगा है / सेवक भद्रंकरकी कोटिशः वंदना /
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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