________________ वि. सं. 2044 के संमेलनीय ठराव क्रमांक - 17 जिनपूजाके विषयमें श्रावकोंको मार्गदर्शन पं. चंद्रशेखरविजयजी ठराव : 'जैन शासनमें परमात्माकी भक्ति यह उत्कृष्ट आराधनाका अंग है। जिनेश्वरदेवकी द्रव्य और भावपूजा, यह श्रावकका मुख्य कार्य है और श्रावक लोगको उस प्रकार परमात्माकी पूजा नियमित करनी चाहिये / ' हालमें यह पूजाकार्य नौकरोंको सौंप दिया गया है, जिससे अनेक प्रकारकी घोर आशातनाएँ उपस्थित हुई हैं / उसे जानकर और देखकर हृदयमें कंपकंपी हो उठती है / इसीलिए श्रमण संमेलनने प्रस्ताव किया कि 'श्रावक लोग स्वयं ही परमात्माकी अंगपूजा करें, नौकरोंके द्वारा न करायें / __जहाँ श्रावकोंकी आबादी बिलकुल न हो, वहाँ,वासक्षेप और अग्रपूजासे संतोष माने / प्रतिमाके अंग-उपांगोको जरा भी घिसाई न पहुँचे, उस ढंगसे पूजा करें / ' संमेलनके श्रमणोंने विहार दरम्यान और चातुर्मासके क्षेत्रोमें अनेक स्थानों पर देखा है कि श्रावक स्वयं जिनपूजा नहीं करते / इनेगिने श्रावक श्राविकाएँ संपूर्ण जिनभक्ति स्वयं करते हैं / जैसे स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनी चाहिए वैसे स्वयं जिनपूजा करनी चाहिए / अपने आर्थिक आदि कारणवश, समयादिके अभावके कारण श्रावक पूजारीको. ही थोडी पूजा तो सौंप देते हैं / पूजारी भी अर्थलक्षी नौकर है, यह कोई मुमुक्षु आत्मा नहीं / अतः उसकी नजरोंमें हमारे भगवान, प्रायः 'भगवान के रूपमें अत्यन्त उपास्य महसूस नहीं होते / भूतकालमें तो पूजारी वंशपरंपरागत रहते थे / वे हमारे भगवानको अपने इष्टदेवसे भी अधिक उपास्य समझते / भगवानके साथ समरस हो जाते लेकिन आज तो पूजारी बननेके लिए अत्यंत अयोग्य समझी जाय ऐसी व्यक्ति भी जिनमंदिरमें पूजारी बन पाता है / ऐसे मनुष्योंके पास परमात्माकी पूजनक्रिया विधिवत् हो और बिना आशातना की हो, ऐसी अपेक्षा हम कैसे रख सकते हैं ? अब तो कई स्थानों पर इससे भी बात आगे बढ चूकी है / जिनमंदिरमें चोरी-जारीके प्रसंग खडे होने लगे हैं / भूतकालीन वंशपरंपरसगत पूजारियोंकी तो बात ही निराली थी /