________________ धार्मिक-वहीवट विचार करने नहीं देता / बार बार चेरिटी कमिश्नरसे शिकायत करता रहता है / ऐसी परिस्थितिमें सारे अच्छे ट्रस्टी, उकताकर राजीनामा पेश करते अतः ट्रस्टीमंडलकी प्रथम पसंदगी पूरे सोचविचारके बाद ट्रस्टके प्रणेताको करनी चाहिए / ऐसे लोंगोको दूर हटानेके लिए ही, पाँच साल पूरे होने पर, दो-दो ट्रस्टियोंकी अनिवार्य निवृत्तिके नियमका ट्रस्ट-डीडमें समावेश करना चाहिए / ट्रस्टी कौन बन पाये, उसका उल्लेख पहले हो चुका है / अतः यहाँ उसका पुनरावर्तन करना उचित नहीं / ट्रस्टके ट्रस्टियोंकी पसंदगी के समान, गंभीर बात ट्रस्टके उद्देश निश्चित करनेकी है; क्योंकि उद्देश निश्चित हो जाने पर, बादमें उसमें कोई परिवर्तन करना मुश्किल बन जाता है / ट्रस्टके संविधानके नियम, भारत सरकारके ट्रस्ट विषयक संविधानके साथ संगत न हों तो उन्हें चेरिटी कमिशनर आदि भविष्यमें विवाद उपस्थित होने पर, फैसला देते समय, ट्रस्टके संविधानके नियमोंको मान्य नहीं रखते / उदाहरणार्थ, भारतीय संविधानमें ट्रस्टोंके किसी भी निर्णयको ट्रस्टियोंके बहुमतसे लेनेका निर्णय घोषित किया गया है / . अब कोई ट्रस्टीमंडल, जैनशास्त्रोंसे विरुद्ध निर्णय, भारी बहमतसे करे - ज्ञानबहीकी रकम स्कूलमें देनेका निर्णय करे - तो क्या किया जाय ? इस समय किसी व्यक्तिका - मुनिराज या, सद्गृहस्थका - वीटोपावर (लवादनामा) ट्रस्ट-डीडमें समाविष्ट किया गया हो और उस सत्ताके आधार पर वह व्यक्ति अपना मत, उस निर्णयके विरुद्ध दे तो चेरिटी कमिशनर, ऐसे लवादनिर्णयको मान्य रखनेके लिए प्रतिबद्ध नहीं है / वे तो बहुमतके निर्णयको ही मान्य रखेंगे / इस प्रकार लवादनामाका कोई अर्थ नहीं रहता अथवा भारतीय संविधान में धार्मिक स्वातंत्र्यकी(पच्चीसवीं) कलम है, उसके बल पर प्रत्येक धर्मको, उसके शास्त्रानुसार आचरण करनेकी स्वतंत्रता दी गयी है / इस मुद्देके आधार पर 'द्रव्यसप्ततिका' आदि जैन शास्त्रविरुद्ध जानेवाले किसी भी निर्णयका उदा. ज्ञानबहीकी रकमका शालामें दान करनेका निर्णय - अवश्य पडकारा जा सकता है / अन्यथा 'लवाद' आदि बातोंका उपयोग तो, समुचा ट्रस्टीमंडल नियमानुसार कार्य करता हो तो ही होता है / ऐकाध भी ट्रस्टी यदि नटखटपन करे तो लवादकी सत्ता निरर्थक बन पाती है / अतः मुनि-महात्माओंको लवादके रूपमें किसी भी ट्रस्टमें अपना नाम दर्ज करानेकी संमति देना, हितावह नहीं है / उपरान्त यदि उसी महात्माका