________________ परिशिष्ट-१ करना उचित है / उपदेश पद, 'न खलु जिनप्रवचनवृद्धिजिनवेश्मविरहेणभवति, न च तद् द्रव्यव्यतिरेकेण प्रतिदिनं प्रतिजागरितुं जीर्णं विशीर्ण वा पुनरुद्धर्तुं पार्यते / तथा तेन पूजामहोत्सवादिषु श्रावकैः .. कियमाणेषु ज्ञानदर्शनचारित्रगुणाश्च दीप्यन्ते, यस्माद् अज्ञानिनो अपि 'अहो तत्त्वानुगामिनी' बुद्धिरेतेषां, इति उपळह्य क्रमेण ज्ञानदर्शन-चारित्रगुणलाभभाजो भवन्ति / ' ' अर्थ : सचमुच ही, जिनमंदिरके बिना जिनप्रवचनकी वृद्धि नहीं होती और बिना द्रव्य उस मंदिरकी प्रतिदिन देखभाल की नहीं जाती / उपरान्त जीर्ण, विशीर्ण होने पर पुनरुद्धार नहीं किया जाता तथा उसके द्वारा श्रावकोंसे किये जाने वाले पूजामहोत्सव आदिमें ज्ञानदर्शन और चारित्रगुण देदीप्यमान होते हैं / क्योंकि अज्ञानी लोग भी प्रशंसा करते हैं कि 'अहो, इन लोगोंकी बुद्धि तत्त्वानुसारी है / ' परिणामवश वे क्रमशः ज्ञान, दर्शन और चारित्रगुणके लाभको प्राप्त करते हैं / - दर्शनशुद्धि टीका / 'तद्विनाशे कृते सति बोधिवृक्षमूलेऽग्निर्दत्तः / तथा सति पुनर्नवाऽसौ न भवति इत्यर्थः / अत्र इदं हार्दम्, चैत्यादिद्रव्यविनाशे पूजादिलोपः, . ततस्तद्हेतुकप्रमोदप्रभावनाप्रवचनवृद्धेरभावः ततो वर्धमानगुणशुद्धिरोधः ततो मोक्षमार्गव्याघातः / कारणाभावे. कार्यानुदयात् / . . अर्थ :- उसका विनाश करनेसे (चैत्य द्रव्यका) बोधिवृक्षके मूलमें अग्निस्थापना होती है / ऐसा होनेसे पुनः वह नया नहीं बन पाता, ऐसा अर्थ होता है / यहाँ रहस्य यह है चैत्यादि द्रव्यका विनाश होने पर पूजा आदिका लोप होता है / परिणामतः उससे उत्पन्न प्रमोद, प्रभावना एवं प्रवचनवृद्धिका अभाव होता है / उससे गुणशुद्धिकी वृद्धिमें रुकावट आती है / उससे मोक्षमार्गका व्याघात होता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्य संपन्न नहीं होता / - द्रव्य सप्ततिका