Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/538006/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या ------- काल न० खण्ड Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * PREMIES % 3 ESED नीतिदिरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर वर्ष ६, किरण अगस्त १९४३ भाद्रपद, वीरनिर्माण मं० २४६६, विक्रम सं. २००० समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ १४ ] श्रीभनन्तजित्-जिन-स्तोत्र अनन्तदोषाशय-विग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तववरचौ प्रसीदता स्वयानोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥१॥ 'जिसका शरीर अनन्त दोषोंका-गग-ट्रेप-कामक्रोधादि अगणित विकागेका-आधारभूत है (और इसी लिये अनन्त संसार-परिभ्रमणका कारण है) ऐसा मोहमयी ग्रह-पिशाच, जो निरकालसे हृदयमें चिपटा हुआ था-श्रात्माके साथ सम्बद्ध होकर उस पर अपना अातंक जमाए हुए था--- वह चूँकि तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करने वाले आपके द्वारा पराजित-निर्मूलित-किया गया है इस लिये श्राप भगवान 'अनन्तजित हुए हैंश्रापकी 'अनन्तजित्' यह संशा मार्थक है।' कषायनाम्नां विषतां प्रमाधिनामशेषयन्नाम भवान शेषवित । विशोषणं मन्मथ-दर्मदाऽऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणव्येलीनयत् ॥२॥ (हे भगवान्) आप कषाय नामके पीडनशील शत्रुओंका (हृदयमें) नाम निःशेष करते हुए.-उनका श्रात्मासे पूर्णत: सम्बन्ध विच्छेद करते हुए-अशेपवित्-सर्वज्ञ-हुए हैं। और आपने कामदेवके दुरभिमान रूप अातंकको, जो कि विशेष रूपसे शोषक-संतापक है, समाधिरूप-प्रशस्त ध्यानात्मक-औषधके गुणोंसे विलीन किया है-- विनाशित किया है।' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ परिश्रमाम्बुर्भयवीचिमालिनी स्वया स्वतृष्णा-सरिदार्य शोषिता । प्रसङ्ग-धर्मार्क-गभस्ति-तेजसा परं ततो निवृतिधाम तावकम् ॥ ३ ॥ 'जिसमें परिश्रमरूप जल भरा है और भय रूप तरंग-मालाएँ उठती हैं उस अपनी तृष्णा नदी को हे आर्य (अनन्तजित् ) ! आपने अपरिग्रह-रूप ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणों के तेजसे सुखा डाला है. इस लिये मापका निवृत्ति-तेज उत्कृष्ट है।' (इस परसे स्पष्ट है कि तृष्णाको जीतनेका अमोघ उपाय अपरिग्रह व्रतका भलेप्रकार पालन है। पारग्रहके रहते तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ा करती है, जिससे उसका जीतना प्राय: नहीं बनता।) सुहत्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते द्विषमस्वयि प्रत्ययवत प्रलीयते। भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥४॥ हे भगवन ! जो आपमें अनुराग-भक्तिभाव रखता है वह श्रोविशिष्ट सौभाग्यको-ज्ञानादि-लक्ष्मीके श्राधिपत्य श्रादिको-राप्त करता है और जो आपमें द्वेषभाव रखता है वह प्रत्ययकी तरह-व्याकरण शास्त्रमें प्रमिद्ध 'विप्' प्रत्ययके सम्गन अथवा क्षणस्थायी इन्द्रियजन्य ज्ञान के ममान-विलीन (नष्ट) होजाता है-नरकादिक. दुर्गनियोंमें जा पड़ता है। परन्तु थप अनुरागो (मित्र) और द्वेषा (शत्रु) दोनों में अत्यन्त उदासीन रहते हैंकिमीका नाश चाहते हैं और न किसीकी श्रीवृद्धि; फिर भी मित्र और शत्रु स्वयं ही उक्त फलको प्राप्त हो जाते है-, यह आपका ईहित-चरित्र-बड़ा ही विचित्र है-अद्भुत माहात्म्यको प्रगट करता अथवा गुप्त रहस्यका सूचक है। स्वमीहशसताहश इत्ययं मम प्रलापलेशोऽल्पमतेमहामुने।। अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः॥५॥ (हे भगवन् !) आप ऐसे हैं-वैसे हैं-श्रापक ये गुण हैं-बे गुण हैं-,इस प्रकार मुझ अल्पमतिका-यथाबत् गुणोंके परिज्ञान से रहित स्तोत का-यह-स्तुतिरूप थोड़ासा प्रलाप है। (तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं) अमृत समुद्र के अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याण-कारक होता है उसी प्रकार हे महामुने! आपके अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोडासा प्रलाप आपके गुणोंके संस्पर्शरूप होनेसे कल्याणका ही हेतु है। जैन-साहित्यमें अनूठे प्रकाशन । सुप्रसिद्ध लेखक--श्री 'भगवत्' जैनकी मनोरंजक साहित्यिक कृतियाँ उस दिन [अतीतकी कहानियां]- चाँदनी [अन्तरङ्गमें आलोक भरने वाली कविताएँ] मूल्य क्रमशः १) तथा ।।3) दोनों के लिए मय पोष्टेज पौने दो रुपये भेजने चाहिए। पयूषणके अवसरपर 'उसदिन' की यथाशक्ति प्रतियाँ अजैन विद्वानों, लायनेरियों और शिक्षा-संस्थानोंको भिजवाइये पता- व्यवस्थापक 'भगवत् भवन' पो० ऐत्मादपुर (आगरा) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त-रस-लहरी [बहुत दिनोंसे मेरा विचार अनेकान्त-रस-लहरी' नामकी एक लेखधारा अनेकान्तमें प्रारम्भ करनेका था, जिसके द्वारा अनेकान्त-जैसे गंभीर विषयको ऐसे मनोरंजक ढंगसे सरल शब्दोंमें समझाया जाय जिससे बच्चे तक भी उसके मर्म को श्रासानी से समझ सकें, वह कठिन दुर्बोध एवं नीरस विषय न रहकर सुगम सुग्यबोध तथा रसीला विषय बन जायबातकी बान में समझा जासके-और जनसाधारण सहजहीमें उसका रसास्वादन करते हुए उसे हृदयंगम करने, अपनाने और उसके आधारपर नत्वज्ञान में प्रगति करने, प्राप्त ज्ञानमें समीचीनता लाने, विरोधको मटाने तथा लोक-व्यवहारमें सुधार करने के साथ-साथ अनेकान्तको जीवनका प्रधान अंग बनाकर सुख-शान्तिका अनुभव करने में समर्थ होसकें। परन्तु अनवकाशसे लगातार घिरा रहने और अपनी कुछ अयोग्यता के कारण मैं अब तक इसका प्रारम्भ नहीं कर सका-दो एक बिद्वानोंसे भी इस प्रकारका सरल और सरस साहित्य तय्यार करनेके लिए निवेदन किया गया परन्तु उन्होंने प्रार्थना पर कुछ ध्यान नहीं दिया । आज भी मैं अनवकाशसे उसी तरह घिरा हुआ हूँ और मेरी अयोग्यताएँ भी बनी हुई हैं, फिर भी यह सोचकर कि और कब तक इसे टलाया जाय, अाज मैं इस लेखधाराको इस श्राशासे प्रारम्भ कर रहा हूँ कि दूसरे विद्वान इसकी उपयोगिताको महसूस करेंगे, अपना भी कुछ कर्तव्य समझेंगे और अधिक अच्छे एवं हृदयग्राही दंगसे इस रसधाराको बहाकर अनेकान्त-विषयका विपुल सरलसाहित्य प्रस्तुत करने मेरा हाथ बटाएँगे। श्राशा है साहित्यकलाकार योग्य विद्वान शीघ्र ही इस ओर अपना ध्यान आकर्षित करके दृढ संकल्पके साथ प्रकृत साहित्यके निर्माणमें तत्पर होंगे और मुझे आभारका अवसर प्रदान करेंगे। इस योजनाके अनुरूप जिन विद्वानांक लेख प्राप्त होंगे वे इस स्तम्भक नीचे उनके नाम के साथ प्रकाशित किए जायँगे । जिनके नाच किमीका भी नाम नहीं होगा--स्थान निर्देशक लिए चीरसेवामन्दिरका नाम रहेगा, उन्हें सम्पादकीय समझा जाय। -सम्पादक । [१] बडी?' विद्यार्थी कुछ असमंजसमें पका और आखिर तुरन्त ही कह उठा--'यह तो अब छोटी हो गई है।' छोटापन और बड़ापन छोटी कैसे होगई? क्या किसी ने इससे कोई टुकका एक दिन अध्यापक वीरभद्रने, अपने विद्यार्थियोंको तोका है या इसके किसी अंशको मिटाया है ?--हमने तो नया पाठ पढ़ानेके लिए, बोर्ड पर तीन इंचीकी लाइन खींच इसे बुना तक भी नहीं। अथवा तुमने इसं जो पहले बड़ी कर निद्यार्थीसे पूछा-'बतलाओ यह लाइन छोटी है या कहा था वह कहना भी तुम्हारा गलत था?' अध्यापकने बडी?' विद्यार्थीने चटसे उत्तर दिया-'यह तो छोटी है।' पूछा। इसपर अध्यापकने उस लाइनके नीचे एक इंचीकी दूसरी 'पहले जो मैंने इसे 'बहीं कहा था वह कहना मेरा बाहन बनाकर फिरसे पूछा-'अब लीक देखकर बतजामो पालत नहीं था और न उस साइनमें किसी ने कोई तुकडा कि ऊपरकी र' लाइन नं.१ तोबा है या उसके किसी अंशको मिटाया है-वह तो ज्योंकी बढी है या छोटी? विद्यार्थी देखते ही बोल उठा--यह तो त्यों अपने तीन इंचीके रूप में स्थित है। पहले मापने इसके साफ बड़ी नज़र आती है।' नीचे एक इंचीकी लाइन बनाई थी, इससे यह बदी नज़र प्र०-अभी तुमने इसे छोटी बतलाया था? माती थी। और इसी लिये मैंने इसे बड़ी कहा था, अब वि०-हाँ, बतलाया था, वह मेरी भूल थी। मापने उस एक इंचीकी लाइनको मिटाकर इसके उपर इसके बाद अध्यापकने, प्रथम लाइनके ऊपर पाँच इंची पाँच ईचीकी साइन बनादी है, इससे यह तीन इंचीकी की लाइन बनाकर और नीचे वाली एक इंचीकी लाइनको लाइन छोटी हो पदी-छोटी नजर आने लगी, और इसी मिटाकर, फिर से पूछा--'अच्छा प्रब बतलायो' नीचेकी से ममेकहमा पहा कि 'यह वोभव छोटी हो गई।' साइनमै०१ -3 ,छोटी है या विद्यार्थीने उत्तर दिया । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ अध्यापक-अच्छा, सबसे पहिले जो तुमने इस तीन ग्हते उसी प्रकार छोटापन और बदापन दोनों गुणों (धर्मों) ची लाइनको छोटी कहा था उसका क्या कारण था? के एक साथ रहने में क्या विरोध नहीं पाएगा? विद्यार्थी-उस समय मैंने देखकर कि बोर्ड बहुत बड़ा यह सब सनकर विद्यार्थी का मो.नी और यह लाइन उसके एक बहुत छोटेसे हिस्सेमें भाई और मन-ही-मन उत्तरकी खोज करने लगा इतनेमें अध्याहै,इसे 'बोटा' कह दिया था। पकजी उसकी विचार-समाधिको भंग करते हुए बोल उठे'अध्यापक--फिर इसमें तुम्हारी भूल क्या हुई। यह इसमें अधिक सोचने-विचारनेकी बात क्या है? एक तो ठीक ही है-यह लाईन बोर्ड से जोटी है इतना ही क्यों हीचीजकी छोटी बड़ी दोनों कहने में विशेष तो तब माता यह तो टेविक्षसे भी छोटी है, कुर्सीसे भी छोटी है, इस है जब जिम दृष्टि अथवा अपेक्षासे किसी चीजको छोटा कमरेके किवाइसे भी छोटी ६, दावारस भी छोटा है और कहा जाय उसी दृष्टि अथवा अपेक्षासे उसे बड़ा बतलाया तुम्हारी-मेरी लम्बाईसे भी छोटी है। जाय। तुमने मध्यकी तीन इंची लाइनको ऊपरकी पाँचहुंची विद्यार्थी-इस तरह तो मेरे कहने में भूल नहीं थी लाइनसे छोटा बतलाया है, यदि पाँच इंच वाली लाइनकी भूल मान लेना ही भूल थी। देशा ही उसे बड़ा बतला देते तो विरोध प्राजाता, परन्तु अब अध्यापक महोदयने उस मिटाई हुई तुमने ऐसा न करके उसे नीचेकी एक इंचवाजी लाइन 3- एक इंची लाइनको भी फिर हो बड़ा बतलाया है, फिर विरोधका क्या काम ' विरोध से नीचे बना दिया और सवाल किया कि तीनों लाइनों वहीं भाता है जहाँ एक ही दृष्टि (अपेक्षा) को लेकर विमिन कीस स्थितिमें तुम बीचकी उसी नम्बर १ वाली खाइनको प्रकारके कथन किए जायें, जहाँ विभिन्न प्रकारके कथनोंके छोटी कहोगे या बबी?' लिये विभिन्न दृष्टियों-अपेक्षाओंका धाश्रय लिया जाय वहीं विद्यार्थी-2तो अब ये कहंगा कि यह ऊपर वाली विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। एक ही मनुष्य साइन नं.३से छोटी और नीचे वाली लाइन नं.२ अपने पिताकी हाटसे पुत्र है और अपने पुत्रकी रष्टिसे पिता से बनी। है--उसमें पुत्रपन और हितापनके दोनों धर्म एक साथ अध्यापक-अर्थात इसमें छोटापन और बदापन दोनों रहते हुए भी जिस प्रकार दृष्टिभेद होनेसे विरोधको प्राप्त और दोनों गुण एक साथ हैं? नहीं होते उसी प्रकार एक दृष्टिसे किसी वस्तुका विधान विद्यार्थी-हों, इसमें दोनों गुण एक साथ है। करने और दूसरी दृष्टिसे निषेध करने अथवा एक अपेक्षासे अध्या०-एक ही चीजको छोटी और बड़ी कहने में। 'हो' और दूसरी अपेक्षासे 'ना' कहने में भी विरोधकी कोई क्या तुम्हें कुछ विरोध मालूम नहीं होता ? जो वस्तु छोटी बात नहीं है। ऐसे ऊपरी अथवा शब्दोंमें ही दिखाई परने बाबही नहीं कहलाती धीर जो बदी। वह छोटी नहीं वाले विरोधको विरोधाभास कहते हैं-वह वास्तविक कही जाती। एक ही वस्तुको छोटी कहकर फिर यह कहना अथवा अर्थकी दृष्टिसे विरोध नहीं होता, और इस लिए किचोटी नही-बड़ी है, यह कथन तो लोक-व्यवहारमें पर्वापरविरोध तथा प्रकाश-मन्धकार-जैसे विरोधके साथ विरुद जान पडेगा ! लोकव्यवहारमें जिस प्रकार 'हाँ' कह उसकी कोई तुलना नहीं की जासकती। और इसी लिये कर 'ना' कहना अथवा विधान करके निषेध करना परस्पर तुमने जो बात कही वह ठीक है। तुम्हारे कथनमें ढ़ता विरून असंगत और अप्रामाणिक समझा जाता है उसी जानेके लिए ही मुझे यह सब स्पष्टीकरण करना पड़ा है। प्रकार तुम्हारा यह एक चीजको छोटी कहकर बड़ी कहना माशा है अब तुम इस छोटे-बडेके तत्वको खूब समझ गये अथवा पक ही वस्तुमें बोटेपनका विधान करके फिर उसका होंगे। निषेध कर डालना-उसे बदी बतखाने सगना-पया परस्पर विद्यार्थी -हाँ, खूब समझ गया, अब नहीं भूलंगा। विल्द, असंगत और अप्रामाशिक नहीं समझा जायगा ? अध्यापक--अच्छा, तो इतना और बतखामो-इन और जिस प्रकार अंधकार तथा प्रकाश दोनों एक साथ नहीं उपर नीचेकी दोनों बड़ी-छोटी लाइनोंको यदि मिटा दिया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] अनेकान्त-रस-लहरी जाय और मध्यकी उस नं. १ वाली लाइनको ही स्वतन्त्र ही होते हैं, स्वाभाविक नहीं। बोटेके अस्तित्व विना बड़ापन रूपमें स्थिर रखा जाय दूसरी किसी भी बड़ी-छोटी चीज और बड़े अस्तित्व विना छोटापन कहीं होता ही नहीं। के साथ उसकी तुलना या अपेक्षा न की जाय. तो ऐसी एक भपेचासे जो वस्तु बोटी है वही दूसरी अपेक्षासे बड़ी हालतमें तुम इस लाइन नं. १ को स्वतन्त्र भावसे-कोई है और जो एक अपेक्षासे बदी है वही दूसरी अपेक्षासे छोटी मी अपेक्षा अथवा दृष्टि साथ न लगाते हुए-छोटी कहोगे है। इसी लिए कोई भी वस्तु सर्वथा (विना अपेक्षाके) या बही?' छोटी या बद्दीन तो होती है और न कही जासकती है। विद्यार्थी--ऐसी हालतमें तो मैं इसे न छोटी कह किसीको सर्वथा छोटा या बड़ा कहना 'एकान्त' है-एक दृष्टि सकता है और न बड़ी! से छोटा और दूसरी दृष्टिसे बड़ा कहना 'अनेकान्त' है, जो अध्यापक--अभी तुमने कहा था 'इसमें दोनों (छोटा- मनुष्य किसीको सर्वथा छोटा या बड़ा कहता है वह उसको पन और बड़ापन) गुण एक साथ हैं फिर तुम इसे छोटी सब पोरसे अवलोकन नहीं करता-उसके सप पहलचों या बद्दी क्यों नहीं कह सकते? दोनों गुणोंको एक साथ अथवा अंगोंपर दृष्टि नहीं डालता- सबोरसे उसकी कहनेकी वननमें शक्ति न होनेसे यदि युगपत् नहीं कहसकते तुलमा ही करता है, सिक्केकी एक साइड (Sida)को तो क्रमसे तो कह सकते हो ये दोनों गुण कहीं चले तो देखनेकी तरह वह उसे एक ही ओरसे देखता है और इस नहीं गये? गुणोंका तो प्रभाव नहीं हुआ करता-भले ही लिये पूरा देख नहीं पाता। इसीये उसकी दृष्टिको सम्यग् तिरोभाव (भारवादन) हो जाय, कुछ समयके लिये उनपर दृष्टि नहीं कह सकते और न उसके कथनको सबा कथन पदों पड़जाय। ही कहा जासकता है। जो मनुष्य वस्तुको सब ओरसे विद्यार्थी फिर कुछ रुका और सोचने लगा ! अन्तको देखता है, उसके सब पहलुओं अथवा अंगोंपर दृष्टि डालता उसे यही कहते हुए बन पड़ा कि-'बिना अपेक्षाके किसी है और सब ओरसे उसकी तुलना करता है वह अनेकान्तको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है? पहले जो मैंने दृष्टि है--सम्यगष्टि है। ऐसा मनुष्य यदि किसी वस्तुको इस लाइनको 'छोटी' तथा 'बदी' कहा था, वह अपेक्षासे छोटी कहना चाहता है तो कहता है-'एक प्रकारसे छोटी ही कहा था, अब आप अपेक्षा को बिल्कुल ही अलग है, 'अमुककी अपेक्षा छोटी है, 'कथंचित् छोटी है अथवा करके पूछ रहे हैं तब मैं इसे छोटी या बड़ी कैसे कह 'स्यात् छोटी है। और यदि छोटी-बड़ी दोनों कहना चाहता सकता है, यह मेरी कुछ भी समझ नहीं पाता ! आप हैतो कहता है-'छोटी भी है और बड़ी भी' एक प्रकारसे ही समझाकर बतलाइये।' छोटी है-दूसरे प्रकारसे बड़ी है, अमुककी अपेक्षा छोटी और अध्यापक--तुम्हारा यह कहना बिल्कुल ठीक कि अमुककी अपेक्षा बही है' अथवा कथंचित् छोटी और बड़ी 'बिना अपेक्षाके किसीको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है?' अर्थात् नहीं कहा जासकता । अपेक्षा ही छोटापन या दोनों है। और उसका यह वचन-व्यवहार एकान्त-कदाप्राह बड़ेपनका मापदण्ड है-मापनेका गज़ है? जिस अपेक्षा की ओर न जाकर वस्तुका ठीक प्रतिपादन करने के कारण गज़से किसी वस्तुविशेषको मापा जाता है वह गज़ यदि उस १ सच कहा जाता है। मैं समझता हूँ अब तुम इस विषयको वस्तुके एक अंशमें भाजाता है-उसमें समाजाता है तो और अच्छी तरहसे समझ गये होगे। विद्यार्थी-(पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए) हाँ, बहुत वह वस्तु बबी' कहलाती हैं। और यदि उस वस्तुसे बढ़ा अच्छी तरहसे समझ गया है। पहले समझने में जो कचाई रहता-बाहरको निकता रहता है तो वह वस्तु 'छोटी रह गई थी वह भी भव भापकी इस व्याख्यासे दूर होगई कही जाती है। वास्तव में कोई भी वस्तु स्वतन्त्ररूपसे अथवा है। आपने मेरा बहुत कुछ अज्ञान दूर किया है, और इस स्वभावसे छोटीया बदी नहीं है-स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभाव लिये मैं आपके भागे नत-मस्तक से छोटी या बड़ी होनेपर बह सवालोटीया बनी ही रहेगी। अध्यापक वीरभद्रजी भभी इस विषयपर और भी का क्योंकि स्वभावका कमी प्रभाव नहीं होता। और इस लिये प्रकाश डालना चाहते थे कितनेमें चंय बज गया और किसी भी वस्तुमें छोटापन और बबापन ये दोनों गुण परतन्त्र, उन्हें दूसरी कक्षामें जाना पड़ा। पराश्रित, परिकल्पित, भारोपित सापेक्ष अथवा परापेक्षिक वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०३१-८-४३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म क्या है ? (लेखक-श्री ६० वंशीधर व्याकरणाचार्य) मेरे जेलकी झंझटोंसे बाहर आते ही 'अनेकान्त' प्रतिदिन अनुभवमें श्रानेवाली बात है। और तब 'पत्रके व्यवस्थापक श्री बाबू कौशलप्रसादजीके तकशास्त्रियों के दिमारा में सहसा यह कल्पना उठती है श्रामपणे पत्रोंको पाकर मैं इस विचारमें पड गया कि चूंकि विकार पर-निमित्तक है इसलिये वह नष्ट किया कि इस वक्त क्या लिखू ? इस वक्त कुछ भी लिखने जा सकता है, और इस कल्पनाके आधारपर ही वे की अपनी असमर्थताको मैं बतलाने वाला ही था कि उसके नष्ट करनेका उपाय सोचते हैं। बस, इसी उपाय समीपमें आते हुए दशलक्षण (पर्युषण) पर्वका ख्याल का नाम जैनधर्म में 'धर्म' कहा गया है। यही कारण हो पाया और मैने स्थिर किया कि धर्मकी व्याख्या है कि स्वामी समन्तभद्र धर्मका लक्षण "संसारकरनेका यह उपयुक्त अवसर है, इसलिये इसके विषय दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे" के रूप में हमारे में ही कुछ प्रकाश डाला जाय। सामने रख रहे हैं। मुझे इस समय यह लेख बहुत ही संक्षिप्त रूपमें उल्लिखित विकार क्रियाके-प्रयत्नके द्वारा ही नष्ट पाठकोंके सामने रखना है इसलिये जितना महत्व- किया जा सकता है, इसलिये प्रयत्नको ही मुख्यधर्म पूर्ण यह लेख होना चाहिये उतना तो नहीं होसकेगा, समझना चाहिये। इस प्रयत्नको ही जैनधम में करव्य, फिर भी विश्वास है कि यह धमके रहस्यको समझने पुरुषार्थ, व्यापार, आचरण या चारित्र आदि संज्ञा में एक मार्ग-दर्शकका काम करेगा और इसलिये दी गई है। परन्तु केवल प्रयत्न ही धर्म है ऐसा जैनपाठकोंको कम रुचिकर नहीं होगा। धर्म नहीं मानता । जैनधर्मका दृष्टि में बह प्रयत्न र्याद "वत्थुसहाओ धम्मो” अर्थात् प्रत्येक वस्तुका निरुष्टि है या दूषित उद्देश्यको लेकर किया गया है स्वतंत्र निजभाव-परनिमित्त-निरपेक्ष परिणमन(अव- तो वह कदापि धर्म नहीं हो सकता । उस प्रयत्नका स्थान) ही उस उस यस्तुका धर्म है, यह जैनधर्मकी उद्देश्य समीचीन होना चाहिये, तभी वह धर्म कहा जा मान्यता है । इम मान्यताके अनुसार जगतकी चेतन सकता है। उद्देश्यकी समीचीनताकी पहिचान आत्मामें (श्रात्म) अचेतन (अनात्म) सभी वस्तुएँ कोई-न-कोई क्रममे १प्रशम, रास्तिक्य, ३अनुकंपा और संवेग इन स्वतंत्र धर्मवाली सिद्ध होती हैं और इसीलिये आत्मा चार गुणोंके आविर्भावसे होती है। इनमेंसे प्रशम गुण (चेतन) नामकी वस्तुका भी अनात्म (अचेतन) वस्तु- (परमतसहिष्णुता) एकान्तमिथ्यात्व (हटग्राहिता) के ओंसे प्रथक् स्वतंत्र धर्म सिद्ध होता है । परन्तु जब अभावमें, आस्तिक्य गुण, (स्वपरभेदविज्ञान अथवा हम आत्माको मनुष्य, पशु, पक्षी आदि एक दूसरीसे सर्वप्राणिसट्टाव) संशय मिथ्यात्व (अस्थिरचित्तता) बिल्कुल विलक्षण योनियोमें कभी सुख और कभी के अभावमें, अनुकम्मा गुण (श्रात्मकल्याणकी इच्छा दुखके सागरमें गोता लगाते हुए पाते हैं तो यह मान अथवा दूसरे प्राणियोंको कष्ट न पहुँचाकर उनके उपकार लेना पड़ता है कि श्रात्माका निजधर्म विकारी बना की इच्छा) विनयमिथ्यात्व (चापलूसी-मायाचारी) के हुआ है और उसीका यह परिणाम है कि असीम सुख अभावमें और संवेग गुण (पर पदार्थों में अनासक्ति) का अनुभव करते करते ही हम अकस्मात् एक प्रक- विपरीतमिथ्यात्वके (शरीरको ही आत्मा समझना, ल्पित दुखके सागरमें गोता लगाने लगते हैं, यह दसरे प्राणियोंको सतानेमें आनन्द मानना या इसी कोई नई बात नहीं है-यह तो प्रत्येक मनुष्यके प्रकारकी और भी विविध प्रकारसे होनेवाली उलटी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - किरण १] धर्म क्या है होना, इस भावनाको सफल बनाने के लिये विकारको बुद्धिके) अभावमें पैदा होता है। जो इन चार गुणों नष्ट करनेके साधनोंका तथा उनके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र के प्रगट हो जानेपर कर्तव्य करनेके लिये तैयार होता काल और भावका अपनी बुद्धि (दिमाग) द्वारा 'नर्णय है वह समीचीन उद्देश्यवाला माना जाता है और ऐसे करना और फिर उन साधनोंपर अपनेको चलाना ये लोगोंको ही जैनधर्म में 'सम्यग्दृष्टि' कहा गया है। यह तीनों अविभाज्य अंग हैं। परन्त जैसा कि समीचीन उद्देश्य वाला याने सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यदि कुमति, हम पहिले कह पाये हैं, उद्देश्यके अनुकूल साधनों पर कुश्रन और विभंग तथा ज्ञानाभावरूप अज्ञान पूर्वक चलना ही मुख्य धर्म मानना चाहिये; कारण कि श्राद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर योग्य-अयोग्य त्मकल्याण की भावना और उसके साधनभूत उपायों का विचार किये बिना ही-कोई कर्तव्य करनेको तयार का परिशान रहते हझा भी जब तक इन उपायों होता है तो उसका वह काव्य सफल नहीं हो सकता। को अमलमें नहीं लाएगा तब तक वह आत्मकल्याण इसलिये कतव्य करनके पहिले उल्लिखित अज्ञान को प्राप्त नही हो सकता।यही सब है कि धमके मिथ्यात्वके अभावमें पैदा होनेवाले सम्यग्ज्ञानका भेदोंका वर्णन कतव्य या चारित्रको ही धर्म मानकर अपने समीचीन उद्देश्यके साधक उपायों के परिज्ञान- किया गया है। का तथा उन उपायोंपर अमल करनेके लिये योग्यतम धर्मके भेद, जिनके आधार पर दशलक्षणपर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके परिज्ञानका होना भी दि० जैन समाज में प्रचलित है, क्षमा,मादेव, आजव, अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि स्वामी सम- सत्य, शीच, मंयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मन्तभद्रने धर्मका लक्षण कर चुकनेके बाद उसकी व्या- चर्य येश और ये सब क्रमसे विकसित होनेख्या "सहष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः" के वाली चारित्रकी ही विशेष अवस्थाएँ हैं। लेकिन जिस रूपमें की है। प्रकार क्षमाका उलटा क्रोध(करता)करना,मार्दवफा सल्टा किसी भी प्रकारकी सफलताके लिये समीचीन मान (अहंकार) करना, आजेवका उल्टा माया (छलउद्देश्यरूप सम्यग्दर्शन, उम उद्दश्यकी पूर्तिके साधनभूत कपट) करना, सत्यका उलटा असत्य बोलना, शौचका उपायोंका तथा उन उपायोंको योग्यतन रीतिमे अमल उलटा लोभ(यात्मभिन्न पदार्थों में तृष्णा) करना, में लानेके लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी व्यव संयम का उलटा असंयम (पांचों इन्द्रियोंकी स्वच्छन्द स्थाका परिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और उन उपायोंको प्रवृत्ति) करना, तपका उल्टा शरीरको सुषुमार(कष्टअमलमें लानेरूप सम्यकचारित्र इन तीनोंकी एकवा सहनके अयोग्य) बना लेना, त्यागका उलटा पर क्यता (संगठन) जिस प्रकार उपयुक्त रीतिसे जैनधर्म पदार्थों का संग्रह करना, आकिंचन्यका उल्टा ऐश-आराम में बतलाई है उसी प्रकार दूसरे मतावलंबी भी प्रका की चीजोंमें ममत्व रखना, और ब्रह्मचर्यका उल्टा रान्तरसे इस बातको स्वीकार करते हैं। कर्तव्यवादियों कुशीलमें प्रवृत्त होना अर्थात इन्द्रिय-विषयों में आसक्त की ईश्वरमें क्रमसे इच्छा, ज्ञान और कृतिकी मान्यता रहना (मर्यादाके बाहिर पाचों इन्द्रियों के विषयोंका जैनधर्मकी उल्लिखित मान्यतासे सर्वथा भिन्न नहीं सेवन करना), इन सबको अधर्म कहा गया है उसी कही जा सकती । सूक्ष्म विचार करनेपर मालूम होगा प्रकार निरुद्दिष्ट अथवा दूषित उद्देश्यको लेकर-द्रव्य, कि इन दोनों मान्यताओंमें प्रायः शब्दभेद ही है क्षेत्र, काल और भावका सम्यक् विचार किए विना अर्थभेद नहीं है। ही-इन्हीं दश धर्मोंका पालन करना भी अधर्म माना इस तरह यद्यपि आत्मनिष्ठ विकारको नष्ट करके गया है। कभी-कभी मनुष्य बिना प्रयोजन ही क्षमा, आत्माके स्वतंत्र निजधर्मको प्राप्त करनेरूप आरम- मार्दव आदि रूप प्रवृत्ति करता है और कभी कभी अल्याण के लिये विकारको नष्ट करनेकी या यात्म- वह दूषित उद्देश्य को लेकर भी करता है। मान-बड़ाई कल्याण करनेकी भावनाका प्राणियोंके हृदयमें जाग्रत के लिए दानादि देना, व्रत-उपवास करना तो बहुतायत कप्टो लोभ(आत्मभिम (पांचों इन्द्रिमामार(का Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ देखने में आता हमारा ध्यान कभारण करना के साथ देखने में आता ही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और मान और मायाको क्रमसे घटायें, फिर लोभको घटाने भावकी व्यवस्था पर तो हमारा ध्यान कमी पहुँचता ही के लिय सत्य बोलनेका अभ्यास कीजिये, इसके बाद ही नहीं है। किसके प्रेत हमें क्षमा धारण करना लोभ घट जानेपर इन्द्रियोंकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको चाहिये किसके प्रति नहीं, किसके प्रति हमें मृदु वनना रोकिये, फिर शरीरको कष्ट-सहनके योग्य बनाइये, चाहिए, किसके प्रति नही, किसके साथ हमें सरल तत्र कहीं अपने आरामके लिये संग्रहीत वस्तुओंका बर्ताव करना चाहिये और किसके साथ शाम, दाम, दान (त्याग) कीजिये और अन्तमें अकिंचन बनकर दण्ड तथा भेद रूप नीतिका बर्ताव करना चाहिये, अर्थात् ऐश-आरामकी चीजोंमें ममत्व घटाकर पांचों किसके प्रति हम सच बोलें क्सिके प्रति नहीं, इत्यादि इन्द्रियों के विषयोंसे सर्वथा विरक्त हो जाइये; बस प्रकारसे दश धर्मोंके पालनमें हम द्रव्यको और इसी आपकी आत्माका विकार नष्ट हो जायगा और वह प्रकार स्थान, समय और अपनी शक्तिको बिल्कुल अपने स्वाभाविक धर्मको पाकर चमक उठेगा। धर्मउपेक्षितकर बैठते हैं। यही कारण है कि अहिंसक पालन करनेका मकसद (उद्देश्य) भी सिर्फ इतना ही और क्षमाधारी जैनी कायर और बुज़दिल कहे जाते है। इस लिये यदि दरअसल हम इस मकसद तक हैं। यही बात बाकीके नौ धर्मों के विषयमें भी है। पहुँचना चाहते हैं तो हमें ऊपर बत्तलाई हुई दर्शन और इसीका परिणाम है कि केवल धर्मका ढांचा ही ज्ञान-चारित्रमय धामिक व्यवस्थाको अपनानेका पूरा हमारे पास रह गया है उसमें सात्विकता अथवा प्राण प्रयत्न करना चाहिये। इसीसे व्यक्तिका, समाजका नाम मात्रको भी अवशेष नहीं हैं। साथ ही इन दशों और देशका भला होगा , आजका निष्पारण थोथा धर्म धों के विकासक्रमको भी हम भुला चुके हैं, हम दश- ही हमारे लिये समाजके लिये और देशके लिये भी लक्षण पर्वमें एकाशन, उपवास व नीरस भोजन करके अभिशाप बना हुआ है और इसीसे हम, हमारा शरीरको कांटा सा तो बना डालेंगे लेकिन कषायोंकी समाज और हमारा देश सभी पतनके गर्त में गिरते मात्रामें नाम मात्रकी भी कमी नहीं आने देंगे! जा रहे हैं। यह दशा अब और अधिक सा (क्राबिल वास्तवमें धर्मके भेदोंको जिस क्रमसे गिनाया बर्दाश्त) मालूम नहीं होती, इसका शीघ्र अन्त होना गया है वह बड़ा ही महत्पूर्ण है। पहिले श्राप क्रोध, चाहिये। कीके नी धर्मोके विषका ढांचा ही ज्ञान-चारना चाहिये । इसीसे व्यापण थोथा धर्म अन्तर [रचयिताः-जैन मुनि अमृतचन्द्रजी 'सुधा'] मानस मानसमें अन्तर है। बड़ी खड़ी है आज हमारे सन्मुख कैसी जटिल समस्या । झंकृत था जोवर देश कभी अपने गौरवके गानोंसे । सुलझनसकती अरे कहो क्या? विफल हुई सम्पूर्ण तपस्या । वह श्राज शून्य होता आता नित नितके नव अपमानोंसे । सुप्त पड़ी है वही भूमिका जिसपर उन्नति पथ निर्भर है। नाम हमारा कभी अपर था काम हमाग आज अपर है। मानस मानसमें अन्तर है। मानस मानस में अन्तर है । रह करके परतन्त्र हमारा क्या कुछ जीनेमें है जीना । वीरोंका वह खून अरे क्या? निकल गया बन पतित पसीना। कही प्राज पास्तित्व हमारा क्योंकर तुलालचरता पर है। मानस मानसमें अन्तर है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैव और पुरुषार्थ [ले०-पुरशोत्तमदास मुरारका साहित्यरत्न] . देवसे यहां हामरा तात्पर्य माक्षात् परमात्म्ग अथवा कल्पना माधुर्यमें अविश्वास करना एवं उसे अकर्मण्यता ईश्वरसे नहीं, हमें इसे अधिक व्यापक दृष्टिकोण अर्पण कर प्रदान करना है। इसकी अनुभूति प्राप्त करना होगी। देवमें वे ममस्त अदृश्य मनुष्य के दैव उसके पुरुषार्थके अधीन है। दैव मनुष्य शक्तियाँ तथा प्रेरणाएं एवम् विशेषताएं अंतर्भूत होती हैं का दास है। देवत्व मनुष्यकी चेरी है। मनुष्यका देवत्वमें जिनका संबंध स्पष्टतः मनुष्यकी कृतिसे नहीं। देवका तात्पर्य विकास होता है। शक्तिशाली मनुष्य दैवत्वके विश्शस पर भाग्यसे भी है। मनुष्य जीवन में उसके जीवनकी सफलता बैठ अपनी शक्तियोंका लोर करनेकी मूर्खता नहीं करते । अथवा असफलता, उसका उत्थान और पतन, उसकी संमार में महान्से महान् मनुष्य जो आज देवत्वकी उपाधिसे उन्नति अथवा अवनति कुछ तो उसके भाग्य पर अवलं बिन विभूषित किए गए है, वे मनुष्य ही थे। उन्हें भी हमारे रहती है और कुछ उसके पुरुषार्थ पर। परंतु यदि सूक्ष्म जैसा ही हदय था, मस्तिष्क था, गग-द्वेष थे, काम, क्रोध, दृष्टिसे तथा वास्तविक परिस्थितियोंका अवलोकन तथा लोभ मोह इत्यादि विभिन्न प्रकारके विकारोसे ये भी परिपूर्ण अध्ययन किया जाय तथा संसारके इतिहासमें वर्णित उन थे. परन्त उन्होंने अपने परुषार्थ के बल पर, अपनी असामहान् श्रात्माश्रोके चारित्रिक विकासका अध्ययन किया धारण लगन तथा असामान्य अध्यव्यवसायके द्वारा परिस्थिजाय जिन्होंने केवल अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपनी श्राध्या-तियोंको अपने अनुकल बना लिया और देवत्व के दिव्य त्मिक एवं मानमिक शक्तियोंके बल पर समस्त विश्वसे देव आसन पर श्रारूढ़ हो विश्व ही नहीं अखिल मानवताके नामक किसी भी शक्तिका--देव नामकी किसी भी अदृश्य लिए ग्राह्य श्रादर्श बन गए। वे परिस्थिातयों द्वारा प्रभासमर्थताका नाम शेष की कर दिया, उसका विलोप ही कर वित नहीं होते अपितु परिस्थितियाँ उनके अनुरूप प्रभावित दिया, तब कहना पड़ता है कि देवकी अपेक्षा पुरुषार्थ होती है। ऐसी शक्ति है इस मानवकी, उसके पुरुषार्थकी, सामथ्य-सम्पन्न है। उसके अध्यव्यवसाय, लगन तथा जान-तकी । मनुष्य शक्तिसंमारमें दैव नामक किसी भी विभिन्न शक्तिका अस्ति- शाला होकर भी अपनी शक्तियोंस अपरिचित है, अपने में स्व है अथवा नहीं, इस सम्बन्धमें भिन्न २ विचारधाराएँ सामर्थ्य रखकर भी दुर्भाग्यसे अाज उसे विस्मृत कर बैठा है दृष्टिगोचर हती है। मानव-समुदायका अधिकांश भाग दैव- और भाग्यके भगेसे बैठ, अकर्मण्यताका परिधान धारणकर, वादी है। सत्य तो यह है कि देव अथवा भाग्यको ही सब श्रालस्यको निमंत्रित कर, अपने स्वर्णतुल्य जीवनकी राखकुछ मानना मनुष्यकी दैविक शक्तियोंको ही लांछित करना गेली कर रहा है। आज वह दैवत्व में ही अपने समस्त है । यह मनुष्यका, उसकी बौद्धिक प्रतिभा ता.मानसिक कायौंका आरोप करता है । श्रास्तिकताके इस विषने विकाशका ही अपमान है। देवनामक कार्यकी उत्पत्ति तथा साम्राज्योंको खण्डहरों में परिणत कर दिया, प्रसादोंके प्रासाद उपयोग भी यदि मनुष्यकके लिए है तो यह भी स्वीकार मिट्टीमें मिला दिए, संसारसुख और श्रानन्द त्याग विरक्तिकरना होगा कि वे उसीका आधिपत्य स्वीकार करती हैं। मय तथा जीवनशूल्य जीवन व्यतीत करनेका आदेश और यदि भाग्यके ही विश्वास पर रहा जाय तो विश्व यह अक- उपदेश दे जीवन के प्रति तिरस्कारको प्रोत्साहित किया तथा मण्य मनुष्योंका, आलसी पुरुषोंका तथा जंगली मनुष्योंका अपने विषैले प्रभावसे मनुष्यको नशेमें चूर कर उसे जमघट हो जाएगा। क्यों कि देव पर विश्वास मनुष्यकी पतनोन्मुख बना रहा है । श्राज श्रावश्यक है कि हम अपनी स्वाभाविक शक्तियों तथा उसकी विकसित बुद्धि और सच्ची और वास्तविक शक्तियों को पहचाननेका प्रयास करें। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनेकान्त [ वर्ष ६ हमें भी गर्जन के लिए उत्साहित करेगा । हिमालय से पर्वतों को लांघना तथा सिधुनदी को पार करना हमारे लिए नगण्यकार्य रह जाएँगे । विश्व में सब स्थानोंमें हमें एक अपनी शक्तिका यों ही व्यय तथा अपव्यय न करें। मनुष्यके हाथ में ही है देव व उसका उसका पुरुषार्थं उसे देवत्व ही नहीं, देवत्व के देवत्व की दिग्विजय करा सकता है— चाहिए उसमें शक्ति तथा सामर्थ्य, दृढ़ निश्चय, अडिग विश्वास, कार्य करने की असाधारण शक्ति तथा मानवताके कुछ गुण ! फिर देखिए दैवत्व उसके चरणों पर सिर नवाता है अथवा नहीं । मान भी लें देवत्व हमारी परिस्थितियोंको अधिकाँश में प्रभावित करता है, फिर भी उन परिस्थितियोंको कार्यरूपमें परिणत करने के लिए तो पुरुषार्थ ही की आवश्यकता होगी । तात्पर्य यही है कि देव अकेला कुछ भी नहीं कर सकता । वह भारतकी विधवा हिन्दू नारी है, जो पुरुषके बिना निष्प्रयोजन है तथा निरुपयोगी है। भारतकी हिन्दू नारी बड़ी पतिव्रता मानी जाती है, सतीत्वसे उसका सौभाग्य श्रक्षुण्ण माना जाता है, वह पूज्यताकी देवी मानी गई है, वह पापके पास भी नहीं फटकता; परन्तु एक पुरुषके बिना उसी श्रद्वितीय नारीके समस्त गुणोंका विलोप होजाता है और उतने ही दोष भी जाते हैं। बिना एक पुरुषके उसके रक्षकके वह मूल्य शून्य तिरस्कृत तथा भारस्वरूप हो उठती है । उसका अस्तित्र भी समाजको कुटुम्बको घातक, उसके सम्मानको संदिग्धावस्था में रखता है । यही अवस्था देवत्वकी है, उसका भी पुरुषार्थ के बिना विधवातुल्य कोई मूल्य नहीं, कोई कीमत नहीं । पुरुषार्थ मानों देवत्वका रक्षक है । पुरुपार्थं देवत्वकी वाटिकाका माली तथा कर्ता धर्ता है, जो उसके सम्मान तथा उसके सौंदर्य की रक्षा कर उसकी सुषमा वृद्धि करता है । हमें हमारे पुरुषार्थ ही पर विश्वास रखना चाहिए। केवल दैवके भरोसे बैठ हम अपनी शक्ति और सामर्थ्य को खा देंगे, हमारा जीवनरस सूख जाएगा, जीवन श्रानन्दरहित हो जायगा । उसका अंत भी असंभव नहीं । क्यों कि सब कुछ देवत्वकी देन होनेसे तो हमें कार्य करने के लिए कुछ भी शेष न रहेगा । और, हम विश्वके श्रद्गभुतालयमें रखे हुए एक दर्शनीय श्रद्भुत जन्तुसे अधिक कुछ भी न रह जाएंगे। वहीं यदि हम अपने पुरुषर्थको पहचान लेंगे, उसकी अपरिमित शक्तियोंको जान लेंगे, उसके विस्तृत प्रभाव तथा उसके असाधारण महत्वको शिरोधार्य कर लेंगे तो हमारे जीवन कोयलकी कूक, उसका पंचम स्वर सुधारस की दृष्टि करती दृष्टिगोचर होगी । संसारका गंभीर गर्जन द्वतीय श्रानन्द, उत्साह, उमंग, श्राशाका अविरल स्त्रोतसा प्रवाहित होता दृष्टिगोचर होगा, जिसमें डुबकियाँ लगा दम हमारे जीवन के कलुष, उसकी निराशा, वेदना, व्यथा, विरक्ति का परिहार कर इसी लोक में स्वर्गीय लोककी अनुभूति प्राप्त कर जीवनका सात्विक श्रानन्द पासकेंगे । इतिहासके स्वर्णाक्षरोंके पृष्ठ हमें मनुष्यकी दैवत्व पर विजय पद २ पर दिखलाते हैं। भगवान गौतमबुद्ध अपनी कठिन तपस्या तथा साधना के कारण देवत्वको प्राप्त हो चुके थे । नागयण वासुदेव, राम और कृष्ण, महावीर स्वामी तथा भगवान् पार्श्वनाथ आदि भी मनुष्यकी योनि में ही उत्पन्न हुए थे। लेकिन महान् श्रात्माएँ समयकी राह कभी नहीं देखतीं । शुभ कार्योंके लिए तथा महान् मनुष्यों के लिए, जो अपने विचारों पर कटिबद्ध है, जिन्हें अपनी शक्ति, योग्यता और हढ़ना पर विश्वास है, जो अपने लक्ष्य के लिए जीवनका मूल्य भी नगण्य समझते हैं, भाग्य, देव और ईश्वरकी समस्त शक्तियां उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाती हैं । उनके लिए सदा सर्वदा शुभ ही शुभ है । वे पराजयका तथा असफलताका तो स्वप्न में भी विचार नहीं करते । क्यों कि असफलता तो हमारे विचारों की शिथिलताका प्रदशनमात्र है । दृढ़प्रतिज्ञ मनुष्यों को असफलताका कभी मुंह भी नहीं देखना पड़ता । और पराजय क्या है ? पराजय सदैव अंतस्थ होती है, वह अबाह्य वस्तु है, बाह्य नहीं। हम कभी किसीसे पराजित नहीं होत, पराजित हम स्वयं अपनेस ही होते हैं। पराजय हमारी अपनी द्वारका चिन्ह है, और हार हमारी शिथिलता, विचारोंकी दृढ़ना तथा कटिबद्धताका ज्वलंत प्रमाण है । इस लिए पुरुषार्थी मनुष्य पराजय और असफलताका विचार भी नहीं करते, वे किसी भी कार्यका प्रारम्भ उसकी सफलताको दैवके विश्वास पर रखकर नहीं करते; क्यों कि वे समझते हैं सफलता दैवत्व नहीं देगा, वह उन्हींका पुरुषार्थ और अध्यव्यवसाय है जो उन्हें सफलता और विजयके गौरवमय प्रदेश में अधिष्ठापित करेगा । ." तात्पर्य यह कि, जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] सत्ताका अहकार कवल दैव निष्प्रयजनीय है, अर्थात् बिना एक दूमरेके वे में उतारेंगे तभी हमारे वादविवाद और झगड़े विलीन पंगु ही रहते है; अतः यह स्पष्ट है कि मानवी जी नमें होगे-'कोई भी इष्टानिष्ट कार्य यदि अबुद्धिपूर्व अथवा दोनों ही की नितान्त आवश्यकता है, फिर भी उन्हें किस श्रम-रहित सिद्ध होता है तो उसे देव-प्रधान मानना चाहिए समय किस रूपमें स्वीकार करें, यही न समझनेके कारण और मैसा ही कोई कार्य यदि बुद्धि-पूर्वक सम्पन्न होता है संसारमें मतविभिन्नता चली श्रारही है। इसी लिए, ईसाकी तो उसे पुरुषार्थ प्रधान मानना चाहिए।' प्रथम शताब्दीके प्रकाण्ड दार्शनिक स्याद्वादी श्राचाय-पुगव स्वामी समन्तभद्रका देवागभ-गत यह मूल वाक्य हम प्रकार समन्तभद्र स्वामीने अपने सारभून शब्दोंमें उनका महत्व, स्थान और श्रादर्श उपस्थित कर हमें भ्रममुक्त करनेका अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टाऽनिष्टं स्वदैवतः। प्रयास किया है। जब हम उनके इन शब्दोंको अपने जीवन बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टाऽनिष्टं स्वपौरुषात् ॥ सत्ताका अहङ्कार (ले०-श्री पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ) तेरा भाकार बना कैसे सागर ! पतला इतना विशाल ! है बिन्दु-विन्दुमें अन्तहित, तेरी सत्ताका क्या स्वरूप, तेरा गाम्भीर्य अपार प्रतल । इन बिन्दु-बिन्दुसे है विभिन्न ! इनकी समधि यदि बिखरे तो, तुम हो अज्ञात अपरिचितसे, दीखे न कहीं वसुधामें जल ।। इस दिग्य तथ्यसे महंमन्य ।। तेरा स्वरूप तब हो विलुप्त जोमाज बना इतना कराव! श्रेय बता किनको उनका जो कुछ भी हैं तेरे कमाल! एकेक बिन्दुने मा भाकर, तेरा भाकार बनाया है। अपने तनको तुमको देकर . तेरा गाम्भीर्य बढ़ाया है। जीवन तत्व तुम्हारे है, ज्यों पट जीवन है तन्तु जान । जिनसे इतना वैभव पाया, इनके विनाशमैं नाश, औरउनको मत फेंको हो प्रमत्त । इनके संरक्षण में रखा। तुम हमसे बने न ये तुमसे, तेरी है सागर - निराबाद, इनको क्या " तेरा प्रदत्त, बह जीवन - रसकी शिक्षा। सब हँसते है ये देख देख, उपहासजमक तेरी उचाल! मान, निरापद यह पथ होगा, इससे तूही निहाल ! Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र की अहनक्ति (लेन्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) Desk भगवान महावीरके बाद जैनशासनके प्रभावक कांशरूपमें एक परीक्षा-प्रधानी महान तार्किक ही एवं प्रमारक आचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका एक खास जानते हैं, उन्हें अस्त के रूपमें कम पहचानते हैं। स्थान है। उनके वचनोंको वीरभगवानके वचनों इसका कारण शायद यह है कि वे उनके पूरे साहित्यसे जैसा प्रकट किया गया है और उन्हें वीरभगवानके . परिचित नहीं हैं । समन्तभद्रके उपलब्ध साहित्यमें शासनकी हजार गुणी वृद्धि करने वाला कहा गया है। स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन और जिनस्तुतिशतक महान् जैन तार्किक अकलंकदेव उन्हें कलिकालमें सर्व- (स्तुतिविद्या) ये तीन ग्रन्थ तो ऐसे हैं, कि जिनका पदाथे-किषयक स्याद्वाद रूप कल्याणकारी महासमुद्रके प्रचार और प्रसार (पठन-पाठन, स्वाध्यायादि) बहुत तीर्थका प्रभावक कहते हुए गौरव एवं गर्वका अनुभव ही कम होनेसे वे परिचयमें नहीं के बराबर पा रहे करते हैं और उनके प्रति श्रद्धासे प्रणामाञ्जलि अर्पित हैं। वस्तुतः इन्हीं में समन्तभद्रकी स्तुति-विद्याके पूरे करते हैं। इस तरह स्वामी समन्तभद्रको जो गौरव दर्शन होते हैं। शेषके दो ग्रन्थ देवागम और रत्नप्रतिष्ठा प्राप्त है वह अवर्णनीय है। उन जैसा गारव- करण्डश्रावकाचार ऐम हैं जिनसे क्रमशः परीक्षाप्रधा और प्रतिष्ठा उनके उत्तरवर्ती अन्य किसी आचार्यको नता अथवा वस्तुनिरूपणकी दिशा और आचार-मार्ग प्रायः प्राप्त नहीं है। का परिचय ही प्राप्त होता है। समन्तभद्र कितने और मा० समन्तभद्र परीक्षा-प्रधानी और तार्किक तो कैसे ऊँचे दरजेके अईक्त थे, इस बातका यथेष्ट स्पष्ट थेही. पर वे मच्चे और महान आईडत भी पता इन दो ग्रंथोंसे प्रायःनहीं चलता और यही वजह है कि अद्भक्ति उनकी नस नसमें समाई हुई थी । यही आजकलके हमारे कितने ही बंधु समन्तभद्रकी परीक्षा कारण है कि उन्होंने प्रायः तमाम ही कृतियाँ अन्त प्रधानताकी ओर ही लक्ष्य देते हैं और उसके सहारे के स्तवनमें रची हैं और अपनेको 'सुस्तुत्यां व्यसनं भक्ति, स्तुति, पूजन आदिको अनावश्यक और अनुपजैसे शब्दों द्वारा उत्तम-उत्तम स्तुतियोंके रचनेका योगी कहकर उनकी ओर उपेक्षाभाव रखते हुए नज़र व्यसनी प्रकट किया है। साथमें उन सभी स्तुतियों में आते हैं। इसमें एक प्रकारसे उनका दोष भी नहीं है। तार्किकताका पुट देते हुये जैनसिद्धान्तके तत्वोंका समन्तभद्रके 'स्तुतिविद्या' एवं अईक्तिसे पूर्णफलबाबहुत ही सुन्दर मार्मिक निरूपण किया है। लब भरे हुए-उपर्युक्त ग्रन्थ यदि सुन्दर सम्पादन और हमारे कितने ही भाई स्वामी समन्तभद्रको अधि- तलस्पशी अनुवादादिके साथ उन्हें स्वाध्यायके लिये १'बचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजभते' (जिनसेनाचार्य) मिलते तो वे समन्तभद्रके प्रन्थोंपर से ही अर्हक्ति , २ देखो, वेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नं०१७, जो शक स्तुति तथा पूजादिकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं सं. १०५६ में उत्कीर्ण किया गया है (E. C. ) तथा महत्ताको अच्छी तरह हृदयंगम कर सकते और साथ 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० ४६ ही परीक्षा-प्रधानी रहते हुए सान्तभद्रकी ही तरह ३ तीर्थ सर्वपदार्थ तत्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे, अहमक्ति, स्तुति आदिके योग्य व्यसनी बन जाते। भन्यानामकलकभावकृतये प्रामावि काले कलौ। - अकलकुदेवने प्राप्तकी परीक्षा करने में उद्यत परीक्षक येनाचार्यसभन्नभद्रय तना तस्मै नमः संततं। (अष्टशती) के लिये श्रद्धा और गुणलता इन दो गुणोंसे युक्त Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्रकी अहक्ति होना आवश्यक एवं अनिवार्य बतलाया है' । यदि धारण करके विहार करते हुए काशी पहुँचे थे, वहाँ प्राप्त-विषयक श्रद्धा न हो तो पराक्षा नहीं बन सकती, राजा शिवकोटिके यहाँ शिवायतनमें रहकर उन्होंने इसी तरह यदि गुणशताने हो तो भी परीक्षा नहीं बन शिव-नैवेद्यसे अपने रोगको शान्त किया था। राजा सकती। अतः आप्त-परीक्षकको गुणज्ञत न साथ श्रद्धालु शैव था, उसे किसी तरह समन्तभद्रके जैन होनेका होना परम आवश्यक है । समन्तभद्र जैस परीक्षक थे, पता चल गया था और इस लिए उसने समन्तभद्रसे वैसे ही वे श्रद्धालु-अर्हक्त और गुणज्ञ भी थे। उन शिवको मूर्तिको नमस्कार करने के लिए आग्रह किया की वह अद्भक्ति कैसी और कितनी उच्च तथा प्रशस्त था। उस समय समन्तभद्र चौवीस तीर्थकरोंकी स्तुति थी इसका कुछ आभास कराना ही मेरे आजके इस करते हुए जब आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी स्तुतिमें लेखका विषय है। प्रवृत्त हुए थे और गद्गद होकर भक्तिमें लीन होगए थे यह बात मैं पहिले बता आया हूँ कि समन्तभद्रने तब शिवकी मूतिमेंसे चन्द्रप्रभकी मूर्ति प्रकट हुई थी, स्वयम्भू स्तोत्र, जिन शतक और युक्त्यनुशासन ये तीन उसे ही उन्होंने नमस्कार किया था। इस कथापरसे, अन्य अहंन्तकी स्तुतिमें ही रचे हैं। आप्तमीमांसामें अन्य बातोंको छोड़कर, इतना तो जरूर प्रतीत होता अन्य-योग व्यवच्छेदपूर्वक अर्हन्त जिनको सर्वज्ञ है कि समन्तभद्र अहेन्तके ही परमभक्त और उपासक सिद्ध किया है और जिनशासनका तात्त्विक निरूपण थे-अन्य देवके नहीं।' किया है। इसीसे प्राप्तमीमांसा (देवागम) भी समन्त- शंभव जिनकी स्तुति करते हुए समन्तभद्र अपने भद्रका एक प्रकारसे स्तुतिग्रन्थ कहा जाता है। को 'अज्ञ' औ 'स्तुतिमें असमर्थ प्रकट करते हये परन्तु इतना जरूर है कि समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनके कहते हैं आदिम पद्यमें 'अद्य' पदका प्रयोग करके-जिसका शक्रोप्यशक्तस्तव पुण्यकीर्तेः स्तुत्या प्रवृत्त: किमु मा । श्रा० विद्यानन्दने 'परीक्षावसानसमये' अर्थ किया है- तथापि भक्त्या स्तुतपादपमो ममार्य देया शिवतातिमुवैः ।। आप्तमीमांसाको 'परीक्षामन्थ' प्रकट किया है और हे आर्य संभव जिन ! महान शक्तिका धारक उसके अनन्तर रचे गये 'युक्त्यनुशासन' को स्तुति इन्द्र भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ है तो हम प्रन्थ स्वीकृत किया है। अस्तु । जैसे अल्पज्ञ और अल्पसामर्थ्यवान् प्राणी आपकी इन स्तुति ग्रन्थोंमसे स्वयम्भू स्तोत्रमें ऋषभ आदि स्तुति कैसेकर सकते हैं ? फिर भी मेरी अनन्य भक्ति वर्तमान चौवीस तीर्थकरोंका स्तवन किया गया है। आपमें ही है इसीसे आपके चरणकमलोंकी स्तुति प्रचलित कथासे यह तो विदित ही है कि जिस समय फरता हूँ, मुझमें कल्याण-परम्पराके प्राप्त करने की समन्तभद्रको भस्मक रोग होगया था और वे गुरुके सामर्थ्य पैदा हो। भादेशको पाकर रोगोपशमनके निमित्त अन्यवेष पप्रभ जिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए भी वे इसी बातको कहते हैं:१ देवागमेत्यादि...."परीक्षामुपक्षिपतेव स्वयं श्रद्धागुणज्ञता गुणाम्धुधे विघुषमप्यजन' नाखरखस: स्तोतुमकं तवः। लक्षणं प्रयोजनमाक्षिसं लक्ष्यते तदन्यनरामयेऽर्थस्यानुपपत्तेः। प्रागेव मारणिमुतातिभक्ति मी बालमाजापयतीवमित्यत् ।। -अष्टशती पृ.२ हे पदप्रभ जिन! आप गुणों के समुद्र है, आपके २'कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तकृतिः' गुणलेशको इन्द्र पहले ही स्तुत करने में समर्थ नहीं -अष्टशती ३ कीर्त्या मइत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वं । १इसीसे वे स्वयं कहते है: भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । निनीषवःस्मो वयमद्य वीरं विशीर्णदोषाशयपाशबन्धं ॥ प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥३०॥ -युक्त्यनुशासन का.. रत्नकरण्डश्रावकाचार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनेकान्त [वर्ष ६ हुया है तो फिर मेरे जैसा असमर्थ कैसे समर्थ हो हार्दिक गान करने में प्रवृत्त हुए। और यही वजह है सकता है ? यह आपकी अनुपम भक्ति ही है जो मुझ कि उनके वादके आचायोंन उन्हें 'स्तुतिकार' और बालक को स्तुति करनेके लिये प्रेरित कर रही है। 'श्राद्य-स्तुतिकार' के रूपमें स्मरण किया है।' आगे चलकर भगवान् अरकी स्तुति करते हुये समन्तभद्र में अद्भक्ति इतने उत्कट रूपमें थी, कि उन्होंने अपने आपको उसी में उत्सर्ग कर दिया था गुणस्तोकं सदुल्वंध्य तत्वकथा स्तुतिः । और वे यह अनुभव करने लगे थे कि मैं बहुत तेजस्वी, भानन्यात गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ।। सुजन और पुण्यवान हूँ। इसीसे वे अपनी रचना तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । 'जिनस्तुतिशतक' के अन्तमें लिखते हैं:पुनाति पुण्यकीतें नस्ततो जयाम किशन || सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि स्वरयर्चनं चापि ते, 'हे मुनीन्द्र १ थोड़ेसे गुणोंका बढ़ा चढ़ाकर बहुत हस्तावंजलये कथाननिरतः कोऽशि संप्रेक्षते(णे)। प्रकट करने को स्तुति कहते हैं । आपके तो अनन्त सुस्तुत्या व्यसनं शिरो नतिपर सेवेशी येन ते, गुण हैं, उनको बढ़ाकर प्रकट करना अशक्य है तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेज:पते । संभव नहीं है-सब बापकी बह--उक्तलक्षण स्तुति कैसे बन सकती है? तथापि है पुण्यकति ? आपका 'हे जिन! आपके मतमें-शासनमें-मेरी सुश्रद्धा है--सम्यकश्रद्धा है, अन्धश्रद्धा या अन्धभक्ति नहीं पुण्य नामोचारण भी हमें पवित्र करता है। अतः मैं है। स्मरण भी मैं आपका ही करता हूँ। मैं अर्चनकुछ कहता हूँ।' नमिनाथ भगवानकी स्तुतिमें तो स्तुतिको स्वा पूजन भी आपका ही किया करता हूँ। मेरे दोनों हाथ धीनरूपसे मोक्षका सुलभ पथ बतलाते हुये कहते हैं-- भी आपको ही जुड़े रहते हैं। मेरे श्रोत्र आपकी ही स्तुतिः स्तोतुः साचोः कुशवपरिणामाय स तदा, कथा सुनने में लगे रहते है-मैं किसी भी प्रकारकी भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। विकथाओं में उन्हें नहीं लगाता। मेरी दोनों चक्षुयें किमेवं स्वाधीनमाजगति सुलमे आयसपये, भी आपके ही रूपाविलोकनमें लीन रहती हैं-कुस्सित स्तुयान वा विद्वान् सततमभि(पि) पूज्यं नमिजिनम् ॥ अन्य तमाम रूपोंके देखने में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। अ 'हे नमि जिन ! स्तुत्य-स्तुति किया जाने वाला " मुझे व्यसन भी आपकी उत्तम उत्तम स्तुतियोंके रचने स्तोताके सामने विद्यमान हो चाहे न हो और उससे का है और अन्य प्रकारका कोई व्यसन नहीं है। अपनी स्तुतिका फल भी प्राप्त हो, चाहे न हो । पर मेरा मस्तक भी आपको ही नमस्कार करने में उद्यत यह अवश्य है कि साधु स्तोताकी स्तुति शुभपरिणामों रहता है-अन्य किसीको भी नहीं। चंकि इस प्रकार की उत्पादक होती है और वह शुभ परिणाम श्रेयके की मेरी सेवा है-आपके प्रति मेरी अगाधभक्ति है। कल्याणके कारण होते हैं। इस प्रकार जव जगतमें - इसीसे हे तेजानते ! मैं अपनेको तेजस्वी, सुजन और स्वाधीनतासे श्रायसपथ-कल्याणमार्ग-सुलभ है- १ पुण्यशाली अनुभव करता हूँ। अपनी स्तुतिके द्वारा ही वह प्राप्त किया जा सकता है पाठक, देखा, समन्तभद्रने स्वपं अपनी अद्भक्ति तो कौन बुद्धिमान व्यक्ति है जो आपकी स्तुति नहीं को कैसे सच्चे एवं उच्च उद्गारों द्वारा प्रकट किया है। करेगा? अर्थात् करेगा ही।' जिससे यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि वे पूरे इस तरह समन्तभद्रकी उपर्युक्त स्तुतियोंके थोड़े १ स्तुतिकारोप्याह (हेमचन्द्राचार्य) श्राद्यस्तुतिकारोऽप्याह से नमूने इस बातको पुष्ट और सिद्ध करनेके लिये (ग्रा. मलयगिरि) पर्याप्त एवं पुष्कल प्रमाण है कि समन्तभद्र एक सच्चे २ इसीसे आप कहते हैं:-'अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते और महान् अद्रक थे। तभी वे अर्हन्तके गुणोंका नृपतीन' -रत्नकरण्ड ०४८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्रकी अद्रिक्ति अहद्भक्तथे-बनावटी या अधूरे नहीं । उनके अर्हत्सेवा न पूजयार्यस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। का ही एकमात्र व्रत था और उमके द्वारा वे स्वयं तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्त दुरिताअनेभ्यः ।। अर्हन्त बननेकी पूरी कामना और भावना रखते थे। समन्तभद्रसे जब यह पूछा गया कि पूज्य-अई साथमें वे वैसा आचरण भी करते थे और इसीसे वे न्तकी पूजाके लिये भक्तपूजकको प्रारंभ करना पड़ेगा यह कहत ह कि “जनाश्रय म भगवान् विषताम और उमसे कुछ न कुछ हिंसादि सावद्यलेश-पाप अजित जिन ! अहंन्तपद मुझे प्राप्त हो ।मैं तो समझता जरूर होगा तब उनकी पूजासे पापका दूर होना तो हूँ कि समन्तभद्रको जो गौरव एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है दूर रहा, पापका बंध ही ठहरेगा, ऐसी हातलमें अर्ह उसमें उनकी असाधारण अद्भक्ति भी एक खास त्पूजा न करना ही अच्छा है? समन्तभद्र इस प्रश्न कारण है। निःसन्देह उनकी यह विवेकवती भक्ति का कितना सुन्दर समाधान करते हुये कहते हैं:और श्रद्धा उनके अचिन्त्य प्रभावकी द्योतक है। पूज्यं जिन स्वार्चयतो जबस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी। इसी 'जिनस्तुतिशतक' मैं अहक्तिका माहात्म्य दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुरासौ। प्रकट करते हुए वे दूसरोंको भी अहेद्भक्त बनने और उसके फलको प्राप्त करनेकी सूचना करते हैं: हे जिन ! आपकी पूजा करनेवाले भक्तजनोंको यद्यपि आरंभजन्य सावधलेश-कुछ पाप जरूर होता रुचं विभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः । है पर वह पाप इतना थोड़ा है और पूजास होनेवाली वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः ।। ६.॥ पुण्यराशि इतनी विशाल है कि उसके सामने वह 'हे नाथ! आपकी भक्ति करने वाला मनुष्य थोड़ा सा पाप कुछ भी दोष-बिगाड़ पैदा नहीं करता। उत्कृष्ट कान्तिको-आत्मप्रकाशको-धारण करता है जिस प्रकार कि थोडी सी विषकी कमी कल्याणकारी और अत्यन्त स्पष्ट निर्मल ज्ञानको पाता है तथा उसके शीतजलसे भरे हुये अथाह समुद्र में डाल दी जाये तो वचन यथार्थताको लिए हुए गंभीर एवं दिव्य होजाते वह समुद्र को यिषमय नहीं बनाती। अतः यह समझ हैं। जिस प्रकार कि लोहा पारस मणिके स्पर्शस फर कि 'अहत्पूजासे सावमलेश होता है, इसलिये मोना होजाता है और उसमें कान्ति आजाती है तथा पजा, स्तति आदि नहीं करना चाहिये',ठीक नहीं है। बहुमूल्यमारभूत पदाथे समझा जाने लगता है। अर्हत्पूजासे शुभ परिणाम होकर जो महान् पुण्य__अद्भक्तिका यह कितना उच्च फल तथा माहात्म्य संचय होता है वह उस थोड़ेसे पापको तो दूर कर ही बतलाया है और लोगों के लिये उसकी कितनी उप- देता है, साथमें भक्तकी कामनाओं और भावनाओं योगिता तथा आवश्यकता प्रकट की गई है। को भी पूरी करता है और उसे अहन्त जैसे पदका यद्यपि अरहन्त भगवान भक्तकी भक्तिसे प्रसन्न अधिकारी बना देता है। क्योंकि “यो यद्गुणलब्ध्यर्थी होकर उसे कुछ देते नहीं हैं और अभक्त-निन्दककी स तं वंदमानो दृष्टः'-गुणार्थी ही गुणीकी वंदना निन्दासे अप्रसन्न होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं करते पूजा-स्तुति-स्मरण करता हुआ देखा गया है। और हैं। क्योंकि वे वीतराग हैं और वीतवैर है-राग और इस लिए एक-न-एक दिन वे गुण उसको अवश्य प्राप्त द्वेष दोनोंको ही उन्होंने जीत लिया है। इसलिये उन होजाते हैं जिनके लिये वह सच्चे हृदयसे सतत् में राग-द्वेष-जन्य प्रसन्नता और अप्रसन्नता संभव नहीं स्तवनादि करता है। और इस कथनसे यह भी स्पष्ट है तथापि उनका पुण्यस्मरण स्तोताके शुभ परिणामों होजाता है कि स्तुतिकी तरह पूज्यकी पूजा भी भात्ममें निमित्त होता है और उन शुभ परिणामोंसे उमका हितके लिये-श्रेयोमार्गको प्राप्त करने के लिये-एक बड़ा पापमैल जरूर ही दूर होजाता है इस बातको भी सबल निमित्त है और वह स्तुतिका ही एक प्रकार है स्वामी समन्तभद्रने बड़ेही स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया है- अथवा भक्तिका ही एक मार्ग है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनेकान्त इस तरह समन्तभद्र के उल्लिखित स्तुति ग्रंथों के गहरे अध्ययनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट होजाती है कि वे (समन्तभद्र) जैसे तार्किक एवं परीक्षा प्रधानी थे, वैसे ही वे पूरे अईद्भक्त भी थे । और उनकी यह अर्हद्भक्ति 'सुश्रद्धा' – सम्यक् श्रद्धा थी -अन्धभक्ति या अन्धश्रद्धा नहीं । मुख्तार श्री० पं० जुगलकिशोरजी सा० ने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' में बिल्कुल ठीक हो कहा है कि "वास्तव में समन्तभद्र ज्ञानयोग, कर्मयोग [ वर्ष ६ और भक्तियोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे ।" निःसंदेह स्वामी समन्तभद्रकी कृतियां उन्हें त्रियोग अथवा त्रिरत्न ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) की मूर्ति सिद्ध करती हैं । मैं समझता हूँ समन्तभद्रकी अद्भक्तिका थोड़ा सा परिचय पाठकोंको उपरोक्त पंक्तियों से जुरूर हो सकेगा। अन्तमें मैं उन जैसी अद्भक्तिकी हम सबको प्राप्ति होने की कामना और भावना करता हूँ । वाह रे, मनुष्य ... ! (ले० - महावीरप्रसाद जैन बी० ए० ) सड़ककी धूल में पड़ा उसका अर्थ-मृतक शरीर पीडाले एक बार फिर हिल उठा, और एक हल्की सी "भू" उसके फटे हुए जबड़ोंसे अनायास ही निकल पड़ी ! "क्या मेरे उपकारोंका यही बदला है ? सारी २ रात जाग कर मुहल्ले भरकी चौकीदारी ! उसदिन जान जोखिममें डाल कर सावन की वर्षा से भीगी हुई काली रात में इतने चोले अकेले मुकाबला! और यह सब कुछ बस केवल चन्द झूठे, थाली में लाकर छोड़े हुए टुकड़ोंके बदले !! अपनी गीजी कातर आंखोंको मेरे चेहरे पर जमा कर मानों वह पूछने लगा - क्या मनुष्य उपकारका बदला यूं ही दिया करते हैं ?" उस कुत्तेकी छटपटाती देहको देख कर मैं सोचने लगा - जिस रोटीमें जहर मिला कर इसके सामने फेंका गया होगा उसको कितनी प्रसन्नतासे लपक कर ऊपरसे ऊपर ही उचक लेनेकी चेष्टाकी होगी इसने ! फिर उस मृत्यु-ग्रासको हलकसे नीचे उतार यह उत्कण्ठा-पूर्वक ढातार के सामने खड़ा हो कृतज्ञताले पूछ हिलाने लगा होगा !---- और दातार ? उसके मुँह पर एक पैशाचिक मुस्कुराहट खेल गई होगी ज्ञा-मर साले सारी रात भूकता था !" यह उसने ऐसे भावसे कहा होगा जैसे उसने हिटलरका सिर काट लिया हो ! सचमुच मनुष्यता और पशुता उस विपरीत चोलोंमें दिखाई पड़ रही होंगी !! समय अपने सम्वाददाताओं से क्षमा 'अनेकान्त' में छपनेके लिये बहुत से ऐसे साधारण समाचार भेज देते हैं, जो साप्ताहिक पत्रोंके योग्य होते हैं, मासिक पत्रमें और खासकर ऐसे साहित्यिक पत्रके लिये उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती । अतः ऐसे समाचारोंके लिये हम क्षमा चाहते हैं । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवालियरमें जैनशासन ( संकलनकर्ता-श्री. प्रभुलाल न 'प्रेम' ) गवालियरका किला भारतवर्ष के प्रति प्रसिद्ध प्राचीन मिहिरकुल हूणने छटी शताब्दीके श्रारम्भमें बनवाया था। दुर्गोमंसे है। उंची पहाड़ीपर बनाये जानेके कारण इसकी दूसरा महत्वपूर्ण लेग्व चतुर्भुज मन्दिरमें है। इसका स्थिति बड़े ऐतिहासिक महत्वकी है। दक्षिण-पथपर स्थित निर्माण-काल सम्बत् ६३२ है, और इसको कनौज नरेश होने के कारण यह दक्षिण भारतका द्वार कहा जाता है। भुनदेव परिहारने बनवा | था । दशवीं शताब्दीमें इस पुरातन कालसे ही दक्षिण के लिये गवालियर होकर ही दुर्गको कछवाहोंने जीन लिया। उनको परिहारोंने इराकर जाना पड़ता है। मुसलमान इतिहासकारोंने इसे भारतके ग्यारहवीं शताब्दी में अपना श्राधिपत्य इस किलेपर जमा किलोके हारका मोती कहा है । यह दुर्ग यथार्थमें ही इम लिया । सन् ११६६ में कुतुबुद्दीनने परि दागेको हराकर कथनकी एक जीती जागती प्रतिमा है। पहिले इसे गोपाद्रि, गवालियरको दिल्ली-राज्यमें मिला लिया । मन् १२३२ ईसवी गोरगिरि, गोपाचल, गोलगढ़ तथा गवालियार कहते में अल्तमश बडी विशाल सेना एकत्रिनकर फिर गवालियर आये हैं। ये ही नाम पुगनी कृतियों तथा शिलालेखों में पाये पर चढ़ पाया । गजा सारंगदेवने यथाशक्ति इम अपार जाते हैं । यी भारतकी चार बड़ी देशी रियासतोंमें इसका सेनाका सामना किया, पर अन्तमें उसे नीचा देखना पड़ा। चतुर्थ नम्बर है, पर सैम्पशक्ति में यह अपनी सानी नहीं किलेकी स्त्रियाँ "जोदर" करके जल मरी । इम भयानक रखता है। जौहरका स्मृनिस्वरूप जौहर-तालाब अब तक किलेम इस दुर्गके निर्माण के विषयमें अनेक दनकथायें विद्यमान है। प्रचलित है। उनमें से सर्वाधिक विश्वसनीय किम्बदन्ती सन् १३६८ ई. तक यह दुर्ग तुक बादशाहाके हाथ में महाराज सूर्यसेन वाली घटना है। कहा जाना है कि किले रहा। उनके शामनके समय में यह श्रानी ऐमी दृढ़ स्थितिके वाली पाडीपर एक समय गानब ऋषि तपस्या करत थे। कारण राजकीय बन्दी-गृह था । इममे भाग निकलना ऋपिकी तपस्थलीके पास ही शीतल और मीठे जल का एक असम्भव था । किन चारों ओर से पूर्ण सुरक्षित था। बहुत सोता था। इसका जल बड़ा स्वास्थ्य-प्रद था। कुष्ट रोगसे से सच्चे सीधे और भोले-भाले गजकुमाराको इसका पानी पीड़ित राजा सूर्यसेन आखेट खेलते हुए एक दिन उधर पीना पड़ा, और अपने जीवनको अन्तिम घड़ियाँ गिननी जा निकले। महर्षिने उसका कुष्ठ जलाशयके साधारण जल पड़ीं। तैमूरके श्राक्रमाने भारतके इतिहामका परदा ही के उपयोगसे ही ठीक कर दिया। दयाल ऋषिने राजाको बदल दिया । देश में अनेक छोटे २ राज्य स्थापित होगये। आशीर्वाद देकर जलके सोतेको चौड़ा करने तथा उस वीरसिहदेवने गवालियरपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। पहाडीपर एक विशाल दुर्ग बनानेकों कहा । धनाभावकी इस वंशमें डूंगरसिंह बहुत प्रसिद्ध गजा हुए। बे सैन्यसमस्याको हल करनेके निमित्त राजाको एक सुवर्ण थेली संचालन में अद्वितीय समझे जाने थे । उन्होने भुजानाके भी प्रदान की और ऋषि अन्तर्धान हो गये। राजाने ऋषि बलसे ही नरवर जीन लिया और दूर तक अपने राज्यका की आज्ञाका पालन किया । सोतेको जलाशयमें परिणतकर विस्तार किया। गासिंह जैन थे। किले में प्रात जैन मूर्तियां दिया, जो सूर्यकुंड कहलाने लगा और गढ़का नाम उन्हीके समयकी हैं। अनेक प्रकारकी छोटी बड़ी मूनियां "गोपाद्रि" रखा गया। ईसाकी तीमरी शतान्दी में इस किले पहाड़ीमें बनी हुई है । मुमलमान बादशाहोंने मूर्तियों का की नीव पड़ी थी। विध्वंस करके प्राचीन भारतीय कानाको घोर धक्का पहुँचाया किले में सर्वप्रथम प्राचीन शिलालेख सूरजकुण्डके पूर्वी है। इन पहाड़ों की सुन्दर, सुडौल तथा विशाल मूर्तियाँ किनारेपर स्थित सूर्यमन्दिरमें मिलता है। इस मन्दिरको प्राचीन कालकी श्रेष्ठता तथा राजाओंके ललित-फलानोंके Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनेकान्त [वर्ष ६ प्रति प्रेमको परिचायक हैं। भगवान पार्श्वनायकी एक मूर्ति सुन्दर आँगन है। भालकल इसमें गवालियर-पुरातत्वतो ५७ फीट ऊँची है, उसका भी मुखाग्र भाग खंडित हो विभागका प्रदर्शिनी-भवन है। जानेसे उसकी सुन्दरता कम होगई है। महाराज मानसिंहकी दूसरी प्रसिद्ध रचना मान-मन्दिर प्रतिवर्ष जेनियोंका किलेमें एक मेला होता है । सम्पूर्ण है। यह ठेठ गवालियर दरवाजेके ऊपर है। इसकी भव्यता भारतके जेनी उस समय यहाँ एकत्रित होते हैं। कुछ भव्य और विशालनाका अाभास दूरसे ही होने लगता है। इसका मूत्तियोंको सुधरवा लिया है। सबसे बड़ी मूर्तिका भी मुस्खाग्र बाहरी दीवार १०० फीट ऊंची और ३०० फीट लम्बी है। भाग ठीक कर लिया गया है। परन्तु श्राजकलके कलाकार उसपर अति सुन्दर विभिन्न रंग मिश्रित वेलबूटे खिंचे हुए उसे उतना भव्य और स्वाभाविक बनाने में सफल नहीं हुए. _ हैं। इस महल में तीन खन हैं। दो वन पृथ्वीके अन्दर हैं। जितने कि हमारे पूर्वज ये। नये पुरानेपनका अन्तर प्रत्यक्ष सबसे नीचेके वन में एक जलाशय है । अन्य दर्शनीय दृष्टिगोचर होजाता है। मूर्तियों के कारण गवालियर किलेका वस्तुत्रों में पूजा-गृह और उसकी छोटी २ जालियाँ, आँगन गौरव अधिक बढ़ गया है। गवालियरका किला जैनियोंका अंपुर श्रादि हैं। कहते हैं महल मेंसे दिल्ली, आगरा, तीर्थ स्थान बन गया है, अन्य धर्मावलम्बियांक लिए भी ये नरवर आदि नानेकी सुरंगें हैं। मूर्तियां दर्शन'य है । वे ललित-कलाश्रोम अपने पूर्वजोंके सन् १५२६ में हुमायूँ ने गवालियरको जीतकर मुग़ल हस्तकला-कौशल तथा उनकी पहँच और औजारोंक उचित राज्यमें मिला लिया और १७६१ तक मुग़लोका दुर्गपर प्रयोगकी सफलता प्रदर्शित करती हैं। अधिकार रहा । सन् १७६१ में गोहदाधीश राना लोकेन्द्रडूंगरसिंह के अवशेष कार्यको उनके प्रतापशाली पुत्र सिंहजीने किलेपर अपना अधिकार कर लिया, पर वे अधिक समय तक गढ़को अपने श्राधीन न रख सके । सन् १७६५ कर्णसिंहनं पूरा किया। राजा कर्णसिंह भी पिताके समान में प्रपशाली महाराज महादजी सेंघियाने राना लोकेन्द्रसिंह तेजस्वी योद्धा निकले। उनके समयमें गवालियरकी धाक को हराकर गढ़पर मरहठोंका झण्डा फहरा दिया; उस चितौड़के समान जम गई थी। किंकर्तव्य विमूद दिल्ली समयसे आज तक किले पर सेंधिया वंशका ही अधिकार है। नरेशोंको गवालियर-नरेशका कृपाभिलाषी बनना पड़ा था। इन ऐतिहासिक घटना-चक्रों के संकलन और अन्वेषण महाराज मानसिंह इस वंशमें सबसे प्रसिद्ध राजा हुए से यह स्पष्ट नया प्रमाणित हो जाता है कि सन् १३६८ से है। आप बड़े न्याय-प्रिय तथा उदार थे । वीरना, बन, १५२८ तक १३० वर्ष गवालियर जैन धर्मावलम्बी शासकों. वैभवमें श्राप अद्वितीय थे। इन्होने अपनी गनी मृगनयनाके । द्वारा शासित रहा है। लिए जो महल बनवाया था वह अब भी गूजरी महलके सन् १३६८ से पूर्व गवालियरमें जैनियोंकी कितनी नामसे प्रसिद्ध है। यह महल बड़ा सुन्दर है। इसमें भीतर ___ मान्यता रही है, यह ऐतिहासिक विशेषज्ञांकी सम्मतियों, जानेका केवल एक ही मार्ग है। दरवाजेके ऊपर छज्जेपर प्राचीन शिलालेखों तथा पुरातत्व विभागकी रिपोर्टोके एक भीमकाय हाथीकी प्रतिमा रक्खी हैं ! भीतर एक बड़ा आधारपर पुनः लिखनेका प्रयत्न करूँगा। सहारा ! (ले०-राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश' आयुर्वेदाचार्य) दुनियांमें दुनिया वालोंने देख मुझे दुत्कारा! मेरे उरमें दुख श्यामल धन सा बन कर छा जाता देख रहा हूं, रोती आँखोंसे दुनियांका मेला और व्यथाकी बिजलीकी मैं चमक न उसमें पाता हैं अभाव मेरे साथी पर फिर भी सदा अकेला गला घोटनी सीमाती है वह मुझमें व्याकुलता अपमानोंने याद भुनादी क्या देखा ! क्या पाया! मैं तिल तिल कर प्रति क्षण ही हैं,बस प्रदीप सा जलता अरमानों की धुघली सी बस एक शेष है छाया बहने लग जाती है परवश हाय ! हगोंसे धारा मिल जाये मैं हूँद बाहूं कोई मेरा प्यारा मुके न कहीं सहारा ! मुझे न कहीं सहारा! Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीका प्रथम आत्म-चरित [ लेखक-पं० बनारमीदास चतुर्वेदी] - - सन् १६४९-- शरीरको जीवित रखने में समर्थ होगी। कोई तीनसौ वर्ष पहिलेकी बात है। एक भावुक कविवर बनारसीदासके माम-चरित 'अर्धकथानक' को हिन्दी कविके मनमें नाना प्रकारके विचार उठ रहे थे। माद्योपान्त पढ़ने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं जीवनके अनेक उतार चढ़ाव वे देख चुके थे। अनेकों कि हिन्दी साहित्यके इतिहासमै इस ग्रन्थका एक विशेष संकटोंसे वे गुजर चुके थे, कई बार बाल-बाल बचे थे। स्थान तो होगा ही. साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति कभी चोरों डाकुचोंके हाथ जान माल खोने की आशंका थी विद्यमान है जो इसे अभी कई सौ वर्ष और कीवित रखने तो कभी शूली पर चढ़नेकी नौबत आने वाली थी और कई में सर्वथा समर्थ होगी। सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता निरभिबार भयंकर बीमारियोंसे मरणासन्न होगये थे। गाई स्थिक मानता और स्वाभाविकताका ऐसा जबर्दस्त पुट इसमें दुर्घटनाओं का शिकार उन्हें अनेकों बार होना पड़ा था. एक विद्यमान है, भाषा इस पुस्तककी इतनी सरल है और के बाद एक उनकी दो पत्नियों की मृत्यु हो चुकी थी और साथ ही यह इतनी संक्षिप्त भी है, कि साहित्यको चिरउनके नौ बरचाममे एक भी जीवित नही रहा था! अपने स्थायी सम्पत्तिमें इसकी गवाना अवश्यमेव होगी। हिन्दी जीवन में उन्होंने अनेकों रंग देखे ये-तरह तरहके खेल का तो यह सर्वप्रथम प्रामचरित है ही, पर अन्य भारतीय खेले थे-कभी वे पाशिकीके रंगमें सराबोर रहे थे तो कभी भाषाओं में इस प्रकारकी और इतनी पुरानी पुस्तक मिलना धार्मिकनाकी धुन उनपर सवार थी और एक बार तो श्रा- आसान नहीं। और सबसे अधिक माश्चर्यकी बात पर है ध्यात्मिक फिटके वशीभूत होकर वर्षों के परिश्रमसे लिखा कि कविवर बनारसीदाम्पका दृष्टिकोण प्राधुनिक प्रारमति. अपना नवरसका अन्ध गोमती नदीके हवाले कर दिया था! लेखकोंके दृष्टिकोगासे बिल्कुल मिलता जुलता है। अपने तत्कालीन साहित्यिक जगतमें उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा मिल चारित्रिक दोषोंपर उन्होंने पदों नहीं डाला है, बल्कि उन चुकी थी और यदि किम्बदन्तियों पर विश्वास किया जाय का विवरण इस खूबीके साथ किया है कि मानों कोई तो उन्हें महाकवि तुलसीदासके सत्पङ्गका सौभाग्य ही प्राप्त वैज्ञानिक तटस्थवृत्तिसे कोई विश्लेषण कर रहा हो। नहीं हुया या बल्कि उनसे यह सार्टीफिकेट भी मिला था मारमाकी ऐसी चीर फाड कोई अत्यन्त कुशल साहित्यिक कि आपकी कविता मुझे बहुत प्रिय लगी है। सुना है कि मर्जन ही कर सकता था और यद्यपि कविवर बनारसीदास शाहजहाँ बादशाहके साथ शतरज खेलनेका अवसर भी जी एक भावुक व्यक्ति थे-गोमती में अपने ग्रन्थको प्रवाहित उन्हें प्रायः मिलता रहा था। सम्बत् १६० (सन् १६४१) कर देना और सम्राट अकबरकी मृत्युका समाचार सुनकर में अपनी तृतीय पत्नीके साथ बैठे हुए और अपने चित्र मूर्षित हो जाना उनकी भावुकताके प्रमाण हैं-तथापि विचित्र जीवन पर रष्टिनाते हुए यदि उन्हें किसी दिन प्रात्म- इस यात्मचरितमें उन्होंने भावुकताको स्थान नहीं दिया। चरितका विचार सूझा होतो उसमें आश्चर्यकोई बात नहीं। अपनी दो पत्नियों, दो लड़कियों और सात लडकों की नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोइ । मृत्युका जिक्र करते हुए उन्होंने केवल यही कहा है:ज्यों तरवर पतझार है, रहें हूँठसे होइ॥ तत्त्वदृष्टि जो देखिये, सत्यारथकी भांति। अपने जीवनके पतझड़के दिनों में लिखी हुई इस छोटी ज्यों जाको परिगह घटै, त्यों तौ उपसांनि । सी पुस्तककसे यह माशा उन्होंने स्वम में भी न की होगी यह दोहा पदकर हमें ग्रिन्स क्रोपाटकिनकी प्रादर्श कि वह कई सौ वर्ष तक हिन्दी जगतमें उनके यशः लेखशैलीकी याद मा गई। उनका प्रारमचरित उन्नीसवीं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ शताब्दीका सर्वोत्तम प्रामचरित माना जाता है । उसमें हुये इसके कई कारण हैं, उनमें एक तो यह है कि उनके उन्होंने अपने अत्यन्त प्रिय श्रमजसी मृत्युका जिक्र केवल जीवनकी घटनाएँ इतनी वैचित्र्यपूर्ण हैं कि उनका यथा एक वाक्यमें किया था:-- विधि वर्णन ही उनकी मनोरंजकताकी गारंटी बन सकता "A dark cloud hung upon our है। और दूमग कारण यह है कि कविवरमें हास्यरसकी cottage for many month." प्रवृत्ति श्र-छी मात्रामें पाई जाती थी। अपना मज़ाक उदाने अर्थात् "किन ने । महीनों तक हमारी कुटी पर दुःख का कोई मौका नहीं छोडना चाहते । कई महीनों तक की घटा छाई रही।" आप एक कचौड़ी वाले से दुबका कचौड़ियां खाते रहे थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि ऐलेगजेण्डर प्रोपाट फिर एक दिन एकान्तमें पापने उससे कहाकिन ज्योतिर्विज्ञानके बड़े पण्डित थे. जारकी रूसी नौकर तुम उधार कीनी वहुत, आगे अब जिन देहु । शाहीने निरपराध ही उन्हें साइबोग्यिाके लिये निर्वासित मेरे पाम किछू नहीं, दाम कहाँ सौं हु॥" कर दिया था और वहांसे लौटते समय उन्होंने ग्रामघात पर कचौड़ीवाला भला श्रादमी निकला और उसने कर लिया था ! उत्तर दिया-- अपने चारित्रस्खलनोंका वर्णन उम्होंने इतनी स्पष्टता कहै कचरीवाल नर, बीस रुपैया स्वाहु । से किया है कि उन्हें पढ़कर अराजकवादी महिला ऐमा तुम को उन कछु कहै, जहाँ भात्रै तहाँ जाहु ॥" गोल्डमैनके प्रारम-चरितकी याद आ जाती है । अंग्रेजीके आप निश्चिन्त होकर 2 मात महीने तक दोनों वक्त एक माधुनिक प्रात्मचरितमें उसकी लेखिका ऐथिल मिनिन भ पेट कचौडियो ग्वाते रहे और फिर जब पैसे पास हुए ने अपने पुरुष-सम्बन्धोंका वर्णन निःसंकोच भावसे किया तो चौदह रूपए देकर हिसाब भी साफ कर दिया । चकि है पर उसे इस बातका क्या पता कि तीनसी वर्ष पहिले हम भी श्रागरे जिलेके ही रहने वाले हैं. इस लिये हमें एक हिन्दी कविने इस मादर्शको उपस्थितकर दिया था। इस बातपर गर्व होना स्वाभाविक है कि हमारे यहाँ ऐसे उनके लिये यह बड़ा प्रासान काम था कि वे भी "मोसम दूरदर्शी श्रद्धालु कचौड़ीवाले विद्यामान थे जो साहित्य कौन मधम खल कामी" कहकर अपने दोदो धार्मिकताके सेवियों को छह-सात महीने तक निर्भयतापूर्वक उधार दे पमें छिपा देने । जन दिनों ग्रामचरित लिखनेकी सकते थे। कैसे परितापका विषय है कि कचौडी वालेकी रिवाज़ भी नहीं थी-याजकल तो विनायनमें चोर राकू वह परम्परा अब विद्यमान नहीं, नहीं तो आजकल के महँगी और वेश्याग भी प्रारमचरित लिखलखकर प्रकाशितकर के दिनों में वह गरेके साहित्यिकोंके लिये वही लाभदायक रही है--और तत्कालीन सामाजिक अवस्थाको देखते हुए सिद्ध होती। कविवर बनारसीदासजीने सचमुच बडे दुःसाहसका काम कविवर बनारसीदासजी दई बार बेवकूफ बने थे और किया था । अपनी हरकबाजी और सज्जन्य पातशक अपनी मूर्वताओं-1 उहोंने बड़ा मनोहर वर्णन किया है। (सिफलिस) का ऐसा खुल्लमखुला वणन करने में माधुनिक एक बार निसी धूत सन्यासीने आपको चमका दिया कि लेखक भी हिचकिचावेंगे। मानों तीन सौ वर्ष पहिले अगर तुम मुक मंत्रका जाप पूरे सालभर तक बिल्कुल बनारसीदासजीने तत्कालीन समाजको चुनौती देते हुए कहा गोपनीय दंगस पास्थाने में बैठकर करोगे तो वर्ष बीतनेपर या "जो कुछ मैं हूं, भापके सामने मौजूद है. न ममे घरके दर्वाजेपर एक अशर्फी रोज़ मिला करेगी। मापने इस भापकी घृणाकी पर्वाह है और न श्रापकी श्रद्धाको चिन्ता" कल्पद्रम मन्त्र का जाप उस दुर्गन्धित वायुमण्डलमें विधिलोक-जउमाको भावनाको ठुकरानेका यह नैतिक बन सहस्राम वत् किया पर सुवर्ण मुद्रा तो क्या आपको बानी कौडी एकाध लेखकको ही प्राप्त हो सकता है। भी न मिली ! कविवर बनारसीदासजी मारमचरित लिखनेमें सफल बनारसीदासजीका पारमचरित पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] हिन्दीका प्रथम आत्म-चरित होता है कि मानों हम कोई सिनेमा फिल्म देख रहे हैं। 'पन्ध्याके समय कांवमें लाठी दबाये और सिर पर कहीं र आप चोरोंके ग्राममें लुटनेसे बचनेके लिए तिलक बोझ लिये हुए कोई किसान नदीके किनारे किनारे घरको लगाकर ब्राह्मण बनकर चो कि चौधरीको भाशीर्वाद दे हे लौट रहा हो। अनेक शताब्दियों के बाद यदि किसी प्रकार हैं त कहीं आप अपने साथी-संरियोंकी चौकड़ी में नंगे नाच मंत्र-बलसे अतीतके मृत्यु-राज्यसे वापस बुलाकर इस रहे हैं या जूत-पैजारका खेल खेल रहे हैं। किसानको मूमिान दिखला दिया जाय, तो आश्चर्य चकित "कुमती गरि मिले मन मेल खेला पैजारका खेल ।। होकर अमीम जनता उसे चारों ओ.से घर लेगी और सिरकी पाक लँहि सत्र छीन । एक एक म रहितीन॥" उसकी प्रत्ये कहानीको उम्सुका-पूर्वक सुनेगी। उसके एक बार घोर वर्षाके समय इटावके निकट प्रापको सुख-दुःस्व. प्रेम-स्नेह, पास-पड़ोसी, घर-द्वार, गाय-बैल, एक उदण्ड पुरुषकी खाट के नीचे टाट बिछा कर अपने खेत-खलिहान त्यादि की बातें सुनने-सुनते जनता प्रधायेगी दो साथियों के साथ लेटना पड़ा था। उस गवार धूर्त ने नहीं। आज जिसके जीवनही कथा हमें तुच्छतम दीख इनसे कहा था कि मुझे तो स्वाटके बिना चैन नही पड़ पड़ती है वह शत शताब्दयों के बाद कावस्वकी तरह सकती और तुम इस फटे हुए टाटको मेरी खाटके नीचे सुनाई पड़ेगी।" बिछा कर शयन करो। संध्या बेला लाटि काँखे बोभा बहि शिरे । एवमस्तुपनारसी कहै । जैमी जाहि परै मो मोह । नदीनारे पल्लीनाली घर जाय फिरे ।। जैमा काने तमा कुनै। जैसा बोवै तैमा लुने । शत शताब्दी परे यदि कोनो मते । पुरुप खाट पर सोया भले । न.नों जने ग्वाट के तले । मन्त्र बले, अनीतर मृत्युराज्य हैते॥ एक बार गरेको काटते हुए कुर्ग नामक ग्राममें पई चापी देखा देय ६'ये मृर्तिमान । श्राप और आपके साथियों पर झूठे सिक्के चनानेका भयंकर पई लाठि काँखे लये विम्मित नयान । अपराध लगा दिया गया था और आपको तथा श्रारके अन्य चारि दिके धिरि तारे असीम जनता । अठारह साथी यात्रियों को मृदरड देनेके लिये शूली भी काडाकाड़ करि लवे तार प्रति फथा । तैयार करकी कई थी! उस संबटका योग भी रोंगटे खड़े नार सुख दुःख यत तार प्रेम स्नेह । करने वाले नि.सी नाटक जैसा है। उस वर्णनमें भी आपने तार पाड़ा प्रतिवेशी, तार निजगह ।। अपनी हास्य प्रवृत्तिको नहीं छोड़ा। तार क्षेत तार गरु तार चाग्ब वास । सबसे बड़ी खूबी इस माम-चरितकी यह है कि वह शुने शुने बिछु तेइ मिटवे न पाश । तीनसौ वर्ष पहले के साधारण भारतीय जीवनका दृश्य आजि जारि जीवनर कथा तुच्छतम । ज्यांका त्यों उपस्थित बर देता है। क्या ही अच्छा हो यदि से दिनशुनाके ताहा कत्त्वेिग मम । हमारे कुछ प्रतिभाशाली साहिस्टिक इस दृष्टान्तका अनु मान लीजिये यदि आज हमारी मातृभाषाके बीम करण कर हार चरित लिख डालं । यह कार्य उनके लिये पच्चीस लेम्बक विस्तारपूर्वक अपने अनुभवको लिपिबद्ध और भारी जनता के लिये भी बड़ा मनोरंजक करदें तो सन २२४३ ईस्वी में वे उसने ही मनोरंजक और बकौन 'नवीन' जी-- मास्यपूर्ण बन जावंगे कितने मनोरंजक कविवर बनारसी भामरूप वर्शनमें सुख है, मृदु भाकर्षण-लीजा है दासजीके नुभव हमें भाजप्रीतहो । पादरको हुए और विगत जीवन-संस्मृति भी स्वात्मप्रदर्शनशीला है। अभी बहुन दिन नहीं हुए। प्रभ हमारे देश में ने व्यक्ति दर्पणमें निज बिब देख कर यदि हम सब खिंच जाते हैं. मौद हैं जिन्होंने सन् १८५७ का ग़दर देखा था । इस तो फिर संस्मृति तो स्वाभावत: नर-हय-हर्षणशीला" ग़दरका अांखों देखा विवरगा एक महाराणाश्री श्रीयुत स्वर्गीय कविवर श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरने तालिमें 'सामान्य विष्णु भटने किया था और सन् १९०७ में सुपसिद्ध इनिलोक' शीर्षक एक कविता लिखी है जिसका सारांश यह है:- हासकार श्री चिन्तामणि विनायक वैराने इसे लेखकके वंश Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनेक.न्त [वर्ष ६ कोंके यहाँ पका हुमा पाया था। उन्होंने उसे प्रकाशित भी पढ़े अलमम्त रहते हैं युही दिनको विताते हैं । करा दिया। उसकी मूल प्रति पूनाके 'भारत इतिहास संशो- न देखें हम तरफ उनकी जो हमसे नेक मुँह फेरें। भक प्रयत' में सुरक्षित है। जब विष्णु भटको पूनामें जो दिलसे हमसे मिलते हैं झुक उनको देख जाते हैं यह खबर मिली कि श्रीमती बायजाबाई सिंधिया मधुरामें नहीं रहती फिकर हमको कि लावें तेल औ लकड़ी। सर्वतोमुख या करानेवाली हैं तो आपने मथुरा मानेका मिले तो हलवे छन जावें नहीं झूरी उड़ाते हैं। निश्चय किया। पिताजीसे आज्ञा मांगी तो उन्होंने उत्तर सुनो यागे जो सुख चाहो तो पचड़ेसे गृहस्थीके । दिया "उधर अपने लोग बहुत कम हैं, मागं कठिन है, छुटी फक्कड़ ना लेला यही हम तो सिखाते हैं। लोग भोग और गाँजा पीनेवाले हैं और मथुराकी त्रियाँ हम मत भूलना यारो बसे हम पास 'मनमोहन ।' मायावी होती हैं।" हुई है देर, जाते हैं, तुम्हारा शुभ मनाते हैं। नियोंकि मायावी होनेकी बात पढ़कर हैंसी पाये बिना नहीं यदि स्वर्गीय द्विवेदीजीने अपना जीवनचरित लिख रहती। दक्षिणवालोंके लिये मथुराकी खियाँ मायावी होती दिया होता तो हमें दौलतपुरसे ३६ मील दूर रायबरेलीको हैं औ र उत्सरवाना लिये बंगालकी थियौँ जादूगरनी पाटा दाल पीठपर लादे हुए पैदल जाने वाले उस तपस्वी होती है, जो भादमीको बैल बना देती हैं और बंगालियोंके बालकके औ. भी वृतान्त सुननेको मिलते, जोरोटी बनालिये कामरूप (प्रासाम) की खिया कपटी और भयंकर ना नहीं जानता था और जो इस लिए दाल हीमें पाटेकी होती हैं। बंगाल में पूरे ग्यारह वर्ष रहनेके बाद भी हम टिकियों डालकर और पकाकर खालिया करता था। बखियाकेताऊ नहीं बने, मनुष्य ही बने रहे, यही इस संसार दुःस्वमय है और उसमें निरन्तर दुर्घटनाएँ घटा बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ये बाते कोरी गप हैं। ही करती हैं। यदि कोई मनुष्य हृदयवेदनाको चित्रित कर दे हो तो विष्णुभटको मथुराकी मायावी स्त्रियोंसे सुरक्षित तो वह बहुत दिनों तक जीवित रह सकती है। कोई बारह रखने के लिये उनके चाचा भी साथ हो लिये थे और इन्हीं सौ वर्ष पहलेके पोचई नामक किसी चीनी कविने अपनी चाचा भतीजेका यात्रा-वृत्तान्त आज E७ वर्ष बाद एक तीन वर्षकी स्वर्गीय पुत्री स्वर्ण-घंटीके विषय में एक कविता ऐतिहासिक ग्रन्थ बन गया है! लिखी थी. वह अब भी जीवित है। क्या ही अच्छा होता यदि हिन्दीके धुरंधर विद्वान् जब कविवर शकरजीने कौर सुदी ३ संवत् ११८१ को मागे मानेवाली संतानके लिये अपनी अनुभूतियोंको सुर- अपनी डायरी में निम्नलिखित पंक्तियों लिखी थीं उस समय चिस रखते । कितने पाठकोंको यह मालूम है कि महामना की उनकी हार्दिक वेदनाका अनुमान करना भी कठिन हैमालवीयजीने भाजसे ६०-६२ वर्ष पहले कालेजके दिनों में "महाकाल कद्र देवाय नमः" एक प्रहसन लिखा था जिसमें मकदसिंहके रूपमें अपना हाय आज कार सुदी ३ सं० ११ वि० बुधवारको चित्रण किया था ? मालवीयजीकी कविता सुन लीजिये दिनके १ बजेपर प्यारा ज्येष्ठ पुत्र उमाशंकर मुझ बूढ़े वापसे अपने सम्बन्धमें पहिले ही स्वर्गको चला गया। हाय बेटा, अब मेरी क्या गरे जूहीके हैं गजरे पड़ा रङ्गी दुपट्टा तन । दुर्गति होगी। प्यारा पुत्र पाँच माससे बीमार था। बहुतेरा भला क्या पूछिए धोती तो ढाकेसे मँगाते हैं। इलाज किया कराया कुछ नी लाभ न हुभा । प्यारे पुत्रका कभी हम वारनिश पहिनें, कभी पंजाबका जोड़ा। क्रोध बढ़ता ही गया, बहुतेरा समझाया, कुछ फल न मिला। हमेशा पास डण्डा है ये 'झाड़सिंह' गाते हैं। मरनेके दिन अच्छा भला बातें कर रहा है। यकायक साँस न ऊधोसे हमें लेना न माधोका हमें देना। बढ़ने लगा । चि. हरिशंकर और श्यामलाल ऋषिने करें पैदा जो खाते हैं व दुखियोंको खिलाते हैं। बोलते बोलते ही अचेत होनेपर जमीनपर ले लिया। केवल नहीं डिप्टी बना चाहैं न चाहैं हम तसिल्दारी। दो मिनट चुप रहा, दम निकल गया । हाय बेटा ! Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] हिन्दीका प्रथम श्रात्मचरित उमाशंकर अब कहाँ ! आज उमाशंकर सुत प्यारा, हाय मेरे अनुज स्वर्गीय रामनारायण चतुर्वेदी एम. ए. हुधा हम सबसे न्यारा। । (अध्यापक श्रागरा कालेज)की माकस्मिक मृत्युपर महात्मा १-१०-२४ गांधीजीने सेगाँव वर्धासे लिखा था"हे शंकर कविराज सुख संकटद्वारा छिना। "जो रास्ते रामनारायण गये वही रास्ते हम सब निरख दिवाली आज, हाय उमाशंकर बिना ।।" को जाना होगा । समयका ही फरक है। उसमें शोक संसारमें न जाने कितने अभागे पिताघोंपर यह वज्रपात क्या , होता है और पुत्रविहीन कितनी दिवालियाँ उन्हें अपने निस्सन्देह जिस रास्ते उस चीनी कषिकी पुत्री स्वर्णजीवनमें देखनी पड़ती हैं। घंटी' भाजसे बारहसौ वर्ष पहले गई थी, उसी रास्ते भाई जब स्वर्गीय पण्डित पसिंहजी शर्माने महाकवि प्रक- उमाशंकरजी गये, वहीं महाकविका प्यारा पुत्र हाशम गया, बरके छोटे सबके हाशमकी बेवक्त मौतपर समवेदनाका पत्र उसी धामको हेमचन्द्र और रामनारायण गये और उसी भेजा था तो उनके जवाबमें अकबरसाहबने लिखा था:- लोककी यात्रा की कविवर बनारसीदासके नौ बालकोंने । "अगरचे हवादसे आलम (सांसारिक विपत्तियों केवल मुक्तभोगी ही अनुमानकर सकते हैं दुःखके उस की दुर्घटनाएँ) पेशे नज़र रहते हैं और नसीहत । स्रोतका, जहांसे ये पंक्तियाँ निकली थी-- हासिल किया करता है, लेकिन हाशम मेरा पूरा कायम “नी बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोह। मुकाम (प्रतिनिधि, कवितामम्पत्तिका सच्चा उत्तरा- ज्यौं तरवर पतझार है, रहैं हूँठसे होइ ।।" धिकारी) तय्यार हो रहा था और तमाम दोस्तों और Inside out (अन्त:करणका प्रकटीकरण)नामक कद्र अफजाओंसे मुहब्बत रखता था। उसकी जुदाईका पुस्तकके लेखकने संमारके ढाईमी मारमचरितोंका विश्लेषण नेचरल तौरपर चेहद कलक हुश्रा." करके उक्त पुस्तक लिखी थी और अन्तमें इस परिणाम उस समय अकबरने एक कविता लिखी थी, जिसका पर पहुंचे थे कि सर्वश्रेष्ठ प्रात्मचरित के लिए तोन गुण एक पद्य यह है अत्यन्त भावश्यक हैं--(१) वे संक्षिप्त हों, (२) उनमें "आगोशमे सिधारा मुझसे यह कहनेवाला थोदेमें बहुत बात कही गई हो, (३) पक्षपातरहित हों। 'श्रब्धा ! सूनाइए तो क्या आपने कहा है। अर्धकथानक इस कसौटी पर निस्सन्देह खरा उतरता अशयार हसरत-श्रागी कहनेकी ताब किसको। है और यदि इसका अंग्रेजी अनुवाद कभी प्रकाशित हो तो अब हर नज़र है नीहा, हर सांस ममिया है।" हमें पाश्चर्य न होगा। कौन अनुमान कर सकता है उस भयर हार्दिकवेदना कविवर बनारसीदासमी जानते थे कि पात्मचरित का जिससे प्रेरित होकर इस पुस्तक 'बर्धकथानक' के लिखते समय वे कैसा असंभव कार्य हाथमें ले रहे है। सम्पादक बन्धुवर श्री नाथूराम जी प्रेमीने ये पटियां उन्होंने कहा भी था कि एक जीवकी बीस घंटेमें जितनी लिखी हैं भिन्न भिन्न दशाएँ होती है उन्हें केवली या सर्व ही जाम "जो अपनी स्वर्गीया जननी केही समान निष्कपट सकता है और वह भी टीक डीक तौरपर कह नहीं सकताऔर साधु-चरित था, जिसने ज्ञानकी विविध शाखाओं "जीवकी एक दिन दमा होइ जेतीक। का विशाल अध्ययन और मनन किया था, जो शीघ्र ही सो कहि न सके केवली, जानै यद्यपि ठीक ॥" भारती माताके चरणोंमें अनेक भेंट चढ़ानेके मनसूवे, इसी भावको माहेन नामक एक अमरीकन बेखकमे बाँध रहा था, इन शब्दोंमें प्रकट किया था:-- परन्तु जिसे देवने अकालमें ही उठा लिया, What a very little part of a perअपने उसी एकमात्र पुत्र स्व.हेमचन्द्रको।" son's life are his acts and his words ! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्षे ६ Hin real life is led in his hand und पीटनेका इलज़ाम लगाया जासकता है और यदि यह is known to none but himself! All खुल्लमखुला अपने दोषोंका हो प्रदर्शन करने लगे तो day long and every day, the mill of छिद्रान्वेषी समालोचक यह कह सकते हैं कि लेखक बनता his brain isgrindingand his thought और उसकी पारम-निन्दा मानों पाठकोंके लिए निमन्त्रण not other things, are his history. .: A है कि वे लेखककी प्रशंसा करें! His licts and bis words are merely the visible thin crust of his world, अपनेको तटस्थ रखकर अपने सत्कर्मों तथा दुकपिर with its Futtered show summits Eि डालना उनको विवेककी तराजूपर पावन तोले पाय and its reant wintes of water and रत्ती तौलना, सचमुच एक महान कलापूर्ण कार्य है। they are so trifling part of his आरमचित्रण वास्तवमें 'तरवारकी धारपै धावनो है, पर इस bulk- mere skin enveloping it. The कठिन प्रयोग अनेक बडेसे बड़े कलाकार भी फेल हो सकते most of him in hidden-it and its हैं और छोटेसे छोटे कोखक और कवि अदभुत सफलता प्राप्तvolcanic firen tai tosh and boi) कर सकते है। बहुत सम्भव है कि म. सुरूसीदासजीको को and never rest, night nor day. These कविवर बनारसीदासजीके समकालीन थे. प्रात्मचरित लिखने में are bis life and they are not written, Eevery day would make whole उतनी सफलता न मिलसी जितनी बनारसीदासजीको मिली। book of eighty thousand words यद किसी/चित्र खिंचवाने वाले को तस्वीर देते समय विशेषthure hundred and sixty five book रूपसे प्रारम-चेतना होजाय तो उसके चेहरेकी स्वाभाविकता a yeur. Biographies ure but the नष्ट ह जायगी। उसी प्रकार प्रात्मचरित लेखकका अहंभाव clothes and buttons of the man. The अथवा पाठक क्या कयाल करेंगे' यह भावना उसकी iniography of the man hinnalf can सफलताके लिए विघातक होसकती है। not be written. भारमनिया में दो ही प्रकार के व्यक्ति विशेष सफलता इसका सारांश यह है "मनुष्य के कार्य और उसके प्राप्त कर सकते हैं या तो बच्चोंकी तरहके भोलेभाले भादमी शब्द उसके वास्तविक जीवनके, जो लाखों-करोडो भावनाओं जो अपनी सरल निरभिमानतासे यथार्थ बातें लिख सकते द्वारा निर्मित होता है, अत्यल्प अंश हैं। अगर कोई मनुष्य है अथवा कोई फका जिन्हें लोक-लज्जासे कोई भय नहीं। की असली जीवनी लिखनी शुरू करे तो एक एक दिनके फर शिरोमण कविवर बनारसीदासजीने तीनसौ वर्णनके लिये कमसे कम अस्सी हजार शब्द चाहिये और वर्ष पहिले प्रारमचरित लिखकर हिन्दीके वर्तमान और इस प्रकार माल भरमें तीन सौ पैंसठ पोथे तय्यार हो भावी करडीको मार्ना न्यौता दे दिया है। यद्यपि उन्होंने जायेंगे अपने वाले जीवनचरितीको यादमीके कपड़े और विनम्रता पूर्वक अपनेको कीट पतंगोंकी श्रेणी में रक्खा है बटनं ही समझना चाहिये, किसीका सचा जीवनचरित (हमसे कीट पतंगकी बात चलावै कौन) तथापि इसमें लिखना तो सम्भव नहीं।" सन्देह नहीं कि वे भात्म-चरित-लेखकोमें शिरोमणि हैं। फिर भी बहसी पचहत्तर दोहा और चौपाइयों में कवि- एक बात और कविवर बनारसीदासजीने सं. १६७० वर बनारखीवामजीने अपमा चरित्रचित्रण करनेमें काफी में हमारे जन्म-स्थान फीरोजाबादमें गाफी भावकी थी और सफलता मासकी है और जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं इस प्रकार हमारे घरके एक मजदरको मार्थिक लाभ पहुंउनके इस अन्धमे अद्भुत संजीवनी-शक्ति विद्यमान है। चाया था। आज तीन सौ तीस वर्ष बाद उसी फीरोजाबाद उनके सामायिक प्रन्धोंसे यह कहीं अधिक जीवित रहेगा। का निवासी कलमका एक मजदूर उन्हें यह श्रद्धाञ्जलि यद्यपि हमारे प्राचीन अषि महर्षि चारमानं विद्धि' अर्पित कर रहा है। (अपनेको पहचानो)का उपदेश सहस्रों वर्षोंसे देते मा रहे फ्रीरोजाबाद जिला भागरा] बनारसीदास चतुर्वेदी पर यह सबसे अधिक कठिन कार्य है और इससे भी बालकनाथराम प्रेमी द्वारा सम्पादित 'अर्धकथानक' अधिक कठिन अपना चरित्र-चित्रण यदि लेखक अपने के साथ प्रकाशित। दोषको स्वाके अपनी प्रशंसा करे तो उसपर अपना ढोल Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरवाहा [१] दशम्यारह वर्षका बदबूदार चिथड़ोंमें लिपटा हुआ एक बच्चा रास्ते के रेतमें खेल रहा है ! शरीर से दुबला, घिनावना, बदसूरत ! और भी दो तीन बच्चे साथ हैं, ज्यादह सुन्दर वे भी नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि वे इतने दुबले, घिनावने और दयनीय नहीं है ! जितना कि अकृतपुण्य ! —— अकृतपुण्य बद्द है, जो दस ग्यारह सालका होते हुए भी सात-आठ सालसे अधिकका नहीं मालूम देता ! जबकि उसके संगी छोटे होते हुए भी, सबल आनन्दी और बड़े दिखाई देते हैं ! वह खेल रहा है ! दूसरोंकी तरह ही रेत उछालता है, मेंढ़ बनाता है, कुए खोदता है, चिलाता है, हँसता है, सब कुछ है, पर, एक बात ऐसा है जिसे वह भुलाए नहीं भूल रहा, कि वह भूखा है ! दूसरे झिड़क देते हैं और वह खड़ा रह जाता है एक आर ! अनुभव करता है शायद — कि मैं छोटा हूँ — दीन हूँ ! मेरे भीतर वह तेज नहीं है, वह उल्लास नहीं है, जो मेरे संगी-साथियोंमें है !-विवश, निरुपाय, दुखित !!! और उस खण्डहर में बैठी मिष्टदाना सोच रही है— कितना अभागा है, यह अकृतपुण्य ! गर्भ में आया कि धीरे-धीरे परिवार खत्म हुआ । सिर्फ दो ही बच रहे- मैं और इसके पिता - कामवृष्टि ! मैं अधिक दुःखित नही हुई तब ! खुश थी कि चलो 'यह' तो हैं ! और बरक़रार है इनके पास पूरे गांव का स्वामित्व ! शायद नारीकी सारी महत्याकाँक्षाएँ इन्हीं दो चीजोंपर अवलम्बित रहती हैं—-सुहाग और समृद्धि !.... [ लेखक – श्री 'भगवत्' जैन ] मेरी ही रोटियोंपर गुज़र करने वाले सुकृतपुण्य के अधिकार में चला गया ! इस दुखद परिवर्तनने तिलमिला दिया मुझे ! मैं हताश, जीवनसे विरक्त - क्रुद्ध ! चाहा कि श्रात्म-हत्या कर, भविष्य के संकटोंसे निश्चिन्त हो जाऊँ ! पर, न हो सका यह ! सीनेमें माँ का दिल धड़क रहा था। बच्चे के आर्तस्वरनं मनमें ममताका दरिया उमड़ा दिया था ! और आजमें इसी मगधदेशके अंचलपर बसे हुए भोगवती गाँव में कूट-पीसकर, मिहनत-मजदूरी कर पेट पाल रही हूँ-जहाँ एक दिन मेरा स्वामित्व सिर झुकाकर माना जाता था !........ उस समय मेरा दिल चूर-चूर होगया जब मैंने देखा कि मेरी गोदमें दुध-मुँहा बच्चा है, और मैं इतने बड़े संसार में निपट अकेली हूँ ! पासमें एक सिक्का, और रहने के लिए बालिस्त-भर स्थान भी नहीं हे ! मेरा सुहाग पुंछ चुका था ! गाँवका नामित्व आज भूखा प्यासा, नंगा-धड़ंगा, गली-गली ठोकरें खाने वाला मेरा बच्चा बदनसीब न होता तो कौन कह सकता है इन्हीं गलियों में उसके प्यार करने और गोद में उठाने के लिए लोग लालायित न होते ?.. बच्चेका दुर्भाग्य !' मिष्टदानाकी आँखें सावन-भादोंसी बरस रही हैं ! भीतरका दुख उमड़ रहा है ! वह देख रही है-दूसरे बच्चे अकृतपुण्यको मार-मारकर दूर हटा रहे हैं, और वह रो रहा है-दीन, गरीब ! मिष्टदाना दौड़कर आई-पैर जो उधर बद आए थे अपने आप शायद मनने ललकारा था उन्हें ! 'न मारो बच्चेको, इसका पिता नहीं है ! दुखिया है— बेचारा !' X x x x [ २ ] दासत्वसे स्वामित्व मिला है-सुकृतपुण्यको ! सुखी है वह, कि वह आज गाँवपति है ! जहाँ कुछ दिन पहले वह एक नोकरके रूपमें बसा था, आज वह वहाँका सर्वेसर्वा है ! नीचे से ऊपर चढ़ा है ! ग़रीबीके अनुभव, आज अमीरी में साझीदार बन रहे हैं! ग़रीबीकी अभिलाषाएँ, आज अमीरी के आँगनमें पनपनेके लिए मचल रही हैं ! लम्बा-चौड़ा कृषि कर्म आज उसके अधीन है ! 28044 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनेकान्त [वर्ष ६ पचासौ व्यक्ति उसमें काम करते हैं-आदमी, औरत, शायद अकृतपुण्यने अनुभव किया हो कि वह लड़के, लड़कियाँ ! छोटा है ! बड़प्पन भाग्यने उसकी आँखोंसे ओझल . शामका वक्त! श्रमिकोंकी छुट्टीका समय ! सुकृत- कर रखा है ! पुण्य प्राजकी संचित अन्न-राशिके समीप बैठा है! असलमें अकृतपुण्यकी दशाने सुकृतपुण्यकी सामने श्रमिकोंकी भीड़ लगी है ! बारी-बारीसे वह अमीरी पर हमला किया था! वह समृद्धिकी नश्वरता चने-पारिश्रमिक-मिहनत-देकर विदा कर रहा है! पर अवाक् हो रहा था-अतीतके कई चित्र उसके लोग लौट रहे हैं-खुशी-खुशी ! सन्तोष और मस्तिष्कमें तूफान उटा रहे थे ! और वह उन्हें सँभाल सफलमनोग्थकी म्फूर्ति लेकर ! नहीं पा रहा था, विह्वल था, दीन था ! 'कौन अकृतपुण्य ! तू यहाँ कैसे आया-बेटा!' बटुए मेंसे मुट्ठी-भर सोनेके सिक्के निकाल कर अकृतपुन्य पहले कुछ डरा! पर, यह देखकर कि अकृतपुण्यके हाथों में देते हुए वह बोला-'इन्हें ले सुकृतपुण्यकी वाणीमें कोमलता और चेहरे पर ममता जाओ बेटा-लो' । है, अभय होकर बोला-'इन बच्चोंके साथ मैं भी अकृतपुण्यने उन्हें लिया, कि वह चिल्लायाचला पाया"!' 'जला, जला! यह क्या दिये-मुझे अंगारे? आग?' 'क्यों ? क्या काम किया है तूने ?' . सुकृतपुन्यने देखा तो चकित ! सच, अकृतके हाथोंमें सोनेके सिक्के नहीं, दहकते अंगारे थे ! सुकृतपुण्य मर्माहत-सा रह गया, कुछ क्षणके अत्याश्चर्य !!! लिए ! मनमें एक द्वन्द-मा छिड़ गया था-उसके ! उसने सब सिक्के वापस ले लिए-सोचासोचने लगा-'उफ ! कैसी है-यह दुनिया ? जिमके कितना पापी जीव है यह ? कौन कर सकता है इसका बापका मैं नौकर रहा वर्षों, बही श्राज मुट्ठी-भर चनों उपकार-एक धर्मके सिवा !.... समर्थताका दावा के लिए मेरी गुलामी खरीद रहा है? करने वाला दीन, रुद्रमानव ! फिसे बना बिगाड़ • वह देखने लगा--करुणाई-दृष्टिसे ससकी ओर! सकता है? रालत...! अपने-अपने भाग्यसे सब अकृतपुण्य कांप उठा ! उसका छोटा-सा मन धक-धक् सुख-दुख पाते हैं!' करने लगा ! सोचने लगा-'सबको तत्काल चने अकृतपुण्य हथेलियोंको फूंक रहा था ! जलन मिलते हैं. मेरेलिए इतनी चिन्ता, सोच-फिक, विलम्ब पड़ रही थी-शायद ! सुखकी ठण्डक देनेवाली दौलत क्यों? काम मैंने किसीसे कुछ कम तो किया नहीं। ने भाग उगली थी, न ? अब तक देह दुख रही है, नस-नस झनझना रही है- 'जितने चने तू ले जा सके, भर कर ले जा! फिर? छुट्टी है-तुझे! और मैं कुछ नहीं कर सकता-बेटा!' सूखे मोठ! दुखितचित्त और ऊँधे कण्ठसे सुकृतपुण्यने कहा ! दयनीय भाकृति !! सुकृतपुण्यकी आँखोंसे दो बूँद आँसू टपक पड़े! भलए गलेसे वोला-'अकृतपुण्य ! कितना काम फूटा वर्तन और फूटी किस्मत दोनोंमें बहुत कुछ किया है तूने ?' समानता है! न इनके पास दुनियाका दुलार है, न . वह बोला-'बहुत ! भादर! कुछ ठहरता नहीं, लाख चेष्टाएँ की जाँय ! सकृतपुण्यने दुलारसे पीठपर हाथ फेरते हुए कहा हिकारतकी नजर और अभाव, यही दो चीजें इनके -'इतनी मिहनत मत फियाकर-बेटा ! तू अभी बाँटमें भाईहों जैसे! छोटा है' ढीली गाँठ और फटे कपड़ेके कारण रास्ते भर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] चरवाहा २१ चने फैलते आए । घर जब आया, तो मिष्टदानाकी बना-हिःह ! विधिकी विलम्बना ?' फटकार पड़ी-उसपर ! वह जो दिन-भर उसका सुकृत कुछ न समझ सका, न उसने समझनेकी इन्तजार करते-करते खीज़ उठी थी! कोशिशा की कुछ ! दिलचस्पी जो नहीं थी! वह सोच अभी सड़ी-धुनी चौखटपर पाँव भी नहीं रख रहा था-कितने चने लाया था, रह गए कितने ? पाया था कि वह चिल्लाकर बोली-'कहां रहारे, आज निस्तब्धता !!! मिष्टदाना इधर बैठी चिन्तामग्न अकृत ? यह क्या बाँध लाया है-पोटली-सी ?' है, अकृत उधर खड़ा सोच रहा है ! बीचमें चने वह गुमसुम! रखे हैं-दोनों के बीच एक समस्याकी तरह ! ... ___ माँकी आँखें जो सुर्ख हो रही थीं ! पर, क्षण-भर देर तक चुप रहने के बाद वह बोली-'प्रकृत! अब में ही तब्दीली आई! उसे चेत हुश्रा-माँकी गुस्साको इस गाँवमें हम नहीं रहेंगे! सुबह चलना तय किया वह अभी शान्तकर सकता है । बेकार थोड़ा घूमा है-बस ! गुलामकी गुलामी कराना, मुझे नहीं है-आज ! मिहनतकर अन्न लाया है खानेके लिए- सुहाता ! कितना अभागा है तू? काश! आज तेरे कुछ मज़ाक नहीं! और तब कुछ दबंगपनके साथ पिता जीवित होते..?' वह बोला-'देखो तो माँ ! पोटली में क्या है ! और वह रोने लगी-अतीतकी स्मृतियाँ जो उसे माँ चुपचाप पोटली खोलने लगी। अकृत विजयी झकझोरें डालती थी! की तरह खड़ा रहा, मुँह प्रसन्नतासे चमक रहा था! माँने पोटली खोलकर अचरजसे कहा-'चने ? [४] कहाँसे लाया, रे?' बलभद्र सात लड़कोंका पिता है। बहुत जमाना प्रकृतका मुँह उतर गया-प्रसन्नता काफूर ! देखा है उसने ! गरीबी-अमीरीकी अनेक लीलाएँ खेल अन्यमनस्कनाके साथ वह बोला-'हाँ, चने हैं! चुका है। उम्रके साथ अनुभव भी पक चुका है उसका! पर, यह थोड़े क्यों हैं ? लाया तो बहुत था मैं ! सबसे और आज उसमें यह विशेषता है, कि वह हर बात ज्यादह ! बात क्या हुई-रें........?' का गहरा अध्ययन करके आगे कदम धरता है ! और मिष्टदाना पुत्रकी विहलतासे पसीज-सी गई थी। तब उसके प्रत्येक कार्य में बुद्धिमानी, दृढ़ता और मानबोली-'ज्यादह लाया था ? कहाँ गए फिर ? कपड़ा वताका पर्याप्त सम्मिश्रण दिखाई देता है !.. तो नहीं फटा ? वह गाँव-पति है ! भाग्यने उसे वह दोनों चीजें अकृत मौन ! दी हैं, जिन्हें दुनिया वाले मरते दम तक चाहते हैसच, कपड़ा फटा ही था ! वह बोली-रहने दे, वैभव और पुत्र !....."नहीं कुछ दिया है, तो सिर्फ दुख क्यों करता है ? जितने लाया है, वह कम नहीं आखिरी-साँस तक साथ देने वाला-गृहिणी सुख !... हैं ! पर, लाया कहाँसे है, यह तो कह ?' घूमती-फिरती पुत्रको साथ लिए मिष्टदाना यहाँ अकृतने सब कह दिया! आई ! वलभदने देखा-'दुखिया-गरीबिन हैमिष्टदाना सुनती रही । फिर बोली,-स्वरमें क्रिस्मतकी सताई! अवश्य ऊँचे कुलकी है!' वेदना थी, आत्मग्लानि थी, और थी दीनता,- बोला-'बहिन कौन हो तुम ?' मिष्टदानाने 'सुकृतपुण्यके यहाँसे लाया है यह ? उसकी नौकरी की कहा-'दुखिया !' थी-तूने ?' 'नहीं, ठीक परिचय दो-बहिन !'-बलभद्रने अकृत निरुत्तर! प्राग्रह किया! वह पापही कहने लगी-'यही सुकृतपुण्य एक मिष्टदाना फिर कुछ छिपा न सकी! आग्रहकमि दिन मेरा सेवक था। और आज तू उसका सेवक जो उसे आत्मीयताके दर्शन हो रहे थे!... नहीं कुछ दिन तक चाहते हैं आखिरा-सासन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त और आज ? वर्ष से ऊपर होने आया, मिष्टदाना वलभद्रके घर रसोई बनाती है, अकृतपुण्य चरवाहे के रूपमें चैनकी बंशी बजा रहा है ! हाँ बलभद्रने दोनों को पनाह दी है, दोनों उसकी गुलामी में बँधे हुए हैं ! लेकिन गुलामी इतनी मीठी है, कि बुरी नहीं लगती - किसीको ! बात असल में यह है, कि बलभद्रका व्यवहार मनुष्यतामय है ! और इसकी वजह है, कि वह दोनोंके कामसे बेहद खुश है ! अहाँ तक बच्चों की परवरिशका सम्बन्ध है, मिष्टदानाने कुछ उठा नहीं रखा। और यों, बच्चों की बहुत कुछ फिक चलभद्रके सिर से उतर गई है ! हल्का हो गया है - वह ! अपनेको सुखी अनुभव करता है ! घरके पास ही एक झोंपड़ी बनवादी गई है, उसी में रहती है— दुखिनी मिष्टदाना और उसका बचाचकृत !... माँकी कड़ी हिदायतके बावजूद अकूत जब बलभद्रके घर पहुँच जाता है, और वहाँ सुस्वादु-भोजन बनते तथा दूसरे बच्चोंको खाते देखता है, तो मन उसका काबू में नहीं रहता ! मुँह में पानी आ जाता है ! और वह मचल उठता है, रोने लगता है ! पर माँ बहरी या वत्र हो रहती है ! जरा भी पसीजती नहीं ! कर्तव्य और ईमान जो सामने रहता है- हरयक ! एक टुकड़ा भी वह उस खानेमेंसे अकृतको देना पाप समझती है ! वह रोता है-थलभद्रके लड़के शरारत से पेश आ हैं । चिढ़ाते हैं। बाज वक्त बात का बतंगड़ बनजाता है, और वे उसे मार तक बैठते हैं ! मिष्टदाना मनमें कम मर्माहत नहीं होती उस समय। पर, चुप रहती है ! सोचती है- 'भाग्यने जब इसे ये पदार्थ नहीं दिए, तो जर्बदस्ती क्यों करता है खानेके लिए ?' समझाती है - 'बेटा! ये बड़े लोगोंके खाने की बीजें हैं। हम-तुम इन्हें नहीं खा सकते ! - समझा ? चल...! मैं कामसे निपटकर अभी घर आती हूँ [ वर्ष ६ रसोई बनाऊँगी. तब खाना -- भला ?” अकृत आँसू पोंछ लेता है-अनधिकार चेष्टाकी सज़ा-मार- खाकर ! लौटता है-शायद यह सोचता हुआ कि - 'बढ़िया खाने बड़े लोगोंके लिये होते हैं, और मैं हैं 'छोटा' ! बहुत छोटा !! शायद जीवनमें कभी 'बड़ा' न बन सकूँगा -- ऐसा !' X x x X बलभद्र चौकेमें बैठा खीर जीम रहा था ! मिष्टदाना परोस रही थी, कि बलभद्रकी नज़र अकृतपर जा पड़ी ! बोला- 'क्यों बहिन ! अकृत दुबला-सा क्यों दिखाई देता है ? क्या मिहनत ज्यादै पड़ती है ?' मिष्टदाना चुप रही ! अधिक आग्रह देखा, तो कहना पड़ा - 'खीरके लिए बहुत दिन से तरस रहा है !" बलभद्र अवाक् ! सचमुच मिष्टदाना में उसे एक महानताकी -त्याग की छाया दिखाई दी - श्राज ! न जानें क्यों, अकृत पर भी उसकी ममता थी ही! वह बोला- 'हूँ !' और रसोईके बाद उसने जो पहला काम कया, वह यह कि चावल, दूध, घी, मिश्री मिष्टदानाको देते हुए कहा- 'जाओ, घर जाकर खीर पकाओ, और बच्चेको दो ! वाह ! नाहक नादान बच्चेका दिल दुखाया इतने दिनों !" मिष्टदाना नत मस्तक हुई। उसने पहिचाना - 'बलभद्र पूंजीपति होते हुये भी मनुष्य है।' x x X x [ ५ ] 'आज खीर बनेगी, भरपेट खाऊँगा- मैं ।'यह मधुर सत्य अकृतको आज उन्मत्त बनाये दे रहा है ! सचमुच आज वह इस वास्तविकताको भूले जा रहा है, कि वह छोटा है ! उसके छोटे-से मनकी छोटी-सी दुनिया में महोत्सव होरहे हों जैसे ! वह उल्लासमय, न जानें क्या सोचता- विचारता झोंपड़ीके द्वारपर उछल-कूद मचा रहा है ! मनमें जो खुशी हलचल मचाए हुये है ! डोल, रस्सी और घड़ा लिये मिष्टदाना बाहर भाई ! Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] चरवाहा मुँह उसका भी आज प्रसन्न है-अपेक्षाकृत ! बोली- खाफर जाना-अपूर्व भोजन ! नहीं, पाँव नही 'देख, मैं कुँएसे पानी लेने जा रही हूँ ! तू यहीं छोडूंगा'...."हाँ!' रहना-बाहर ! आकर खीर खिलाऊँगी-अच्छा ?' शावास! और वह बढ़ी-एक डग, दो डग !... भाग्यशाली अकृत ! धन्य!!! फिर मुड़कर बोली-और हाँ, इस बीचमें अगर कि उसी वक्त मिष्टदाना आगई ! घड़ा उतारकर, कोई तेरे भाग्यसे साधु आजाँय, तो उन्हें ठहराना, उसने विधिपूर्वक पड़गाह लिया-उन्हें ! मैं भी अभी आती हूँ-वैसे ! जानता है-वे साधु, निर्विघ्न आहार! जो एक धजीर तक नहीं पहनते-ओढ़ते ! जो जमीन स्वर्ग-दाता महा-दान !! महापुण्य !!! सोधते हुए चलते हैं ! उन्हें खिलानेका बड़ा पुण्य अकृत देखता रहा-निर्निमेष ! और सोचता बड़ा फल होता है! समझा...?' रहा-'मेरे घर महामुनि आहार ले रहे हैं-मुझसे अकृतने प्रसन्नतापूर्वक कहा-खूब !'-शायद बढ़कर भाग्यवान कोन ? धन्य हूँ मैं, और मेरा आज बड़े-छोटेकी व्याख्या अकृत अब खच समझने लगा' का दिन! है! महा-मुनि आहार ले, तपो-भूमिको लौट गए। तो मिष्टदानाने दुलारपूर्वक अकृतको भोजन कराया, खुद नरकमें स्वर्गके दर्शन ! खाया ! और सबके खा-पी चुकनेपर देखा वो खीर पात्र जैसेका तैसा, भरा हुया ! सौभाग्य ! अचरज !!! कि कुछ ही समय उपरान्त अकृतको एक परम- लेकिन तत्काल ही मिष्टदानाको यह चेत हो गया, दिगम्बर महामुनि श्राते हुए दिखाई दिए ! उसका कि ऋषिवर अक्षीणऋद्धिके धारी थे। यह उनकी ऋद्धि मुँह खिल उठा। वह जो हर बड़ी बातको अपनानेके का प्रभाव है, चकित होने की बात नहीं, इन्द्रजाल लिये लालायित था! नहीं ! आजके दिन अगर चक्रवर्तीका सारा सेवकमासोपवासी महागज सुब्रत । पारणार्थ शायद सैनिक समुदाय भी निमंत्रित कर दिया जाय तब भी बलभद्रके घर जा रहे थे कि रास्तेमें अकृतने टोका- खीर-पात्र रीता नहीं हो सकता!' वखोंके प्रभावने उसे बतादिया था, कि यही महासाधु और तब उसने इस संयोगसे भर-पूर लाभ है, इन्हींकी चरण-शरणसे दुखियोंके दुख मिटते हैं, उठाया! छोटे बड़े बनते हैं ! 'बाबा ! माँने आज खीर पकाई बलभद्रका सारा परिवार, गाँवका बच्चा-बच्चा है, तुम खीर खाकर जाना । वह कह गई है मुझसे- उसके घर निमंत्रित हुया! लोग बर्तन भर-भरकर आती ही होगी ठहरिये दयाकर कुछ देर !' खीर अपने घर लेगए! योगीश्वरने देखा-आहारकी विधि नहीं है! ......"खुश, बहुत खुश और चकित ! वह चलने-बलनेको हुये कुछ बढ़े भी, कि अकृतने एक सिरेसे दूसरे सिरे तक प्रशंसा !! पाँव पकड़ लिये ! गिड़गिड़ाकर बोला-'जाने नहीं बलभद्र बोला-'बहिन, अकृतका अभाग्य अब दूंगा-बाबा ! खीर...१ बड़े लोगोंके खानेकी खीर साधु-चरणोंको छूकर सौभाग्यमें बदल गया है!' Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयूषण पर्व और हमारा कर्तव्य (ल-० वा० माणिकचन्द जैन बी०ए०) प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व पाता है और चला जाता है। अथवा यो कहिये कि हमारे समाजकी सामाजिक और इस वर्ष भी वह हमें कर्तव्यका पाठ पढ़ाने आ गया है। धार्मिक विचार-धाग पर कृत्रिमता और बाह्य आडंबरका यह पर्व जनमात्र के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके उप- अातंक छाया हुआ है। यही कारण है कि समाजमें धर्म लक्ष्य में हम दश धौंका चिन्नन और मनन करते हैं। के नामपर और सामाजिक रीति-रिवाजों के नामपर आयेदिन दश धर्म -उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, झगड़े होते रहते हैं; जिमका नतीजा हम स्वयं देख रहे हैं संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । ये ही हमारे कि हमारा समाज छोटा-मोटा कितनी ही टुकडियों में विभाधर्मका मर्म और सार हैं तथा जैनियोंके सारे विधि-विधान जित होगया है, अशान्ति और कलहका पुजारी बना हुश्रा प्राइन्हीं पर अवलम्बित हैं। यद्यपि अहिमा जैनधर्मका है। क्या विश्वप्रेम और अदिमा इसी का नाम है? मूल सिद्धान्त है अथवा यो कहिये कि अहिंसा जैनाचारकी इन्किलाब (परिवर्तन) उन्नतिका परिचायक है, पर जान है परन्तु वह सब इन दश धीमें बड़ी सुन्दर रीतिसे हमारे समाजके इन्किलाबने समाजको आगे न बढ़ाकर विभक्त है। इम अहिंसाको अपने प्राचार-व्यवहारमें कहाँ रूढ़ियोंका अनुगामी बना दिया है। रूड़यों और कुप्रथाओं तक ले रहे हैं? अथवा इन दश धर्मोकी हमारे जीवन में का श्राधिक्य यदि किसीको कहीं देखना हो तो वह जैन कितनी व्यापकना हे? यह एक विचारणीय प्रश्न है। समाजपर विहङ्गम दृष्टि डाले । इससे उस व्यक्ति के समक्ष इन वर्तमानमें हमारा समाज एक विचित्र वातावरण में रह रूढियों और कुप्रथाका एक हू-बहू चित्र अङ्कित हो कर अपना जीवन व्यतीन कर रहा है। हम प्रगतिशील व जायगा । वह कहने लगेगा कि जैन समाज अपने ढंगका महान परिवर्तनके युगमें रह रहे है। ऐसी हालतमें हमारे एक निराला ही समाज है, जो इस परिवर्तनके युगमें भी समाजके दृष्टिकोण और विचार-घाग पर वर्तमान समयका अपनी ऐसी निराली राग अलाप रहा है। यह है इस समाज असर होना अनिवार्य है। इस समय विश्वमै रणचण्डीको की वर्तमान दशाका चित्र! प्रचण्ड ज्वाला धधक रही है, प्रत्येक राष्ट्र अाना अभ्युदय सच पूछिये तो श्रान दिन समाजकी अत्यन्त दयनीय देखने के लिए लालायित है और अपने देशका समुत्थान अयस्था है। इस अवस्थाका वर्णन करते समय दिल दहल चाहनेवाले दूसरे देशके अधिकारों पर कुठाराघान करनेके जाता है, हृदय काँप उठता है। गरीबों अनाथो और विधलिये अातुर है। यही हाल अाज अहिंसा के प्रतिपालक जैन वाओंकी चिन्ता-अमिन अवस्था तथा दारुण व्यथाको देव समाजका है। समाजमें अहिंसा और सत्यका नाम तो है, कर तो अांखोंके आगे अंधेरा छा जाता है ! दूसरोंको विश्वपर वास्तविकताका अभाव है। हम कहनेमात्रको जैन रह प्रेमका पाठ पढ़ानेवाला समाज आज अपने ही भाइयों और गये है पर जैनत्व हमारे पास फटकता तक नहीं। अनेकान्त, बहिनोंपर दया तथा सहानुभूनिका व्यवहार नहीं कर रहा है अहिंसा और विश्व-प्रेम ये जैनत्वके मुख्य चिन्ह हैं पर उन्हींको प्यार नहीं कर रहा है। जिम समाजमें इतनी भी हमारे जीवन में इनका पता तक नहीं। इसीसे हम देख रहे उदारता नहीं वहाँ विश्वप्रेम कैसा ? अपने ही समाजकी हैं कि अहिंसा-पालक-नहीं नहीं, अहिंसागलनका दम टीका-टिप्पणी करना शायद अनुचित कहा जायगा । भरनेशन्ना समाज अाज ईर्ष्या, रेप, छल, कपट, पाखंड और पर हकीकतको छिपाना भी महा पार है । उससे उत्तरोत्तर भ्रातृद्रोहका शिकार बन रहा है। श्राहम्बर और ढोगने पापको वृद्धि होती है और सुधार होने में नहीं आता। उसकी धार्मिक प्रवृत्तियोंपर अपना अधिकार जमा लिया है पयूषण पर्व निकट ही आगया है, यह बड़ी प्रसन्नता Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण पर्व और हमारा कर्तव्य किरण १] की बात है । इन दिनोंमें घर्नकी व्याख्या की जायगी, धर्म का मर्म और रहस्य समझाया जायगा । हम बड़े श्रानन्द और चाव से षोडश कारण भावना, दशलक्षण धर्म तथा रत्नत्रयादि धर्मका मर्म सुनेंगे और सुनायेंगे, मंडल विधान आदि करेंगे, व्रत-उपवास रक्वेंगे, पर देखना यह है कि इस धर्मके महत्वको अपने जीवन में कहाँ तक उतारेंगे। इम तो बराबर देखते रहे हैं कि प्रतिवर्ष पर्यापण वर्व श्राता है, श्रष्टाहिका यादि पर्व भी आते हैं, बड़े बड़े विधान होते हैं, रथ, गजरथ निकाले जाते हैं, वेदियाँ रचाई जाती है, चिम्ब प्रतिष्ठाएँ कराई जानी है और बड़े-बड़े पंडित जन गला फाड़ फाड़ कर धर्मका मर्म समझते रहते हैं; तो भी हमारा समाज सच्चे अर्थों में हिंसाका प्रांतपालक नहीं हो पाता - धर्मको जावनका अंग नहीं बना पाता, आपसी कलह और राग द्वेषको नहीं छोड़ता, उलटा मिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रों के नाम पर हर क्षण मुकदमेबाजी करता रहता है । क्या यही धर्मध्यान, पूजा विधान, और व्रत-उपवासका फल है ? हमारा धर्म और धर्मेक सिद्धान्त यद्यपि हमें कर्तव्यकी ओर अग्रसर करते हैं, हमें मानवताका पाठ पढ़ाते हैं, हमारे हृदयसे बर्बरता और उद्दंडनाको हटाकर हमारी श्रात्माको शुद्ध और निर्मल बनाते हैं पर हम उन सिद्धान्नोंको अपने जीवन में नहीं अपनाते, अपने कर्तव्यको नहीं पहचान पाते । धर्म हमें श्रेणीबद्ध कर्तव्य की ओर अग्रसर करता है । जैन विज्ञान की आवश्यकता 'अनेकान्त ' कार्यालयके लिये पक अनुभवी विद्वान् कार्यकर्ताकी आवश्यकता है। वेतन योग्यतानुसार । आने के इच्छुक सज्जन निम्न पते पर पत्रव्यवहार करें। साथमें कार्यका अनुभव और कहाँ कार्य किया है यह भी लिखें । कौशलप्रसाद जैन प्रा० व्यवस्थापक कोर्टरोड सहारनपुर यू० पी० ३१ कुलके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है ? समाजके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है ? देश और धर्मके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है ? इत्यादिका रहस्य हमें हमारे सिद्धान्त भलीभाँति समझा देते हैं । किन्तु फिर भी हम अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर पाते, यह बड़े खेदका विषय है ! हमारा कर्तव्य है कि हम बीम और तेरह तथा श्वेनाम्बर और दिगम्बर के भेद-भाव को छोड़कर समूचे जनसमाज को सुहदरूपसे संगठित करें, समाजमें नव जीवनका संचार करें - नूतन उत्साह, स्फूर्ति और जागृति की लहरें तरंगित करे; धर्म और समाजकी रक्षा करते हुए देशोत्थान के कार्यों में पूर्ण सहयोग देवें, ममाज में वास्तविक जैन सभ्यता और संस्कृतिका प्रसार करें, सच्चे तौर से अहिंसा के प्रतिपालक बनकर विश्वको अपना कुटुम्ब समझे; बाल, अनमेल और वृद्ध विवाह आदि कुरीतियोंको समूल नष्ट करें, शिक्षका प्रचार करें, समाजकी विधवाओं और दरिद्री भाइयोंकी तन-मन-धन से सेवा करें। यही सच्चा धर्म है । जो ऐसा नहीं करते और धन-संपन्न होकर भी अपने ही समाजके उन स्त्री-पुरुषों, बालकों तथा विधवाओंों की सहायता से मुख मोड़े रहते हैं जिनके पास ब्यानेको अन्न और पहननेको वस्त्र नहीं वे निःसन्देह अपने कर्तव्य की अवहेलना कर रहे है । आशा है जैन बान्धव धर्मको दूरसे ही अर्ध न चढ़ाकर उसे जीवनका साथी बनाएँगे और इस तरह अपने कर्तव्य का पालन करके सच्चे प्रथमं पर्युषण पर्वका स्वागत करेंगे । पुराने ग्राहकोंसे समयपर ग्राहकों के पास पहुँचाने की सीक्रतावश हम कितने ही ग्राहकोंके पास यह किरण बी० पी० से नहीं भेज रहे हैं । अतः जिन बन्धुओंके पाश बी०पी० न पहुँचे उनसे चन्देके ४) रु० तुरन्त "वीरसेवामंदिर सरसावा जि० सहारनपुर के पते पर मनीआर्डरसे भेज देनेकी प्रार्थना है। जिससे उन्हें ) का लाभ रहेगा और कार्यालय भी दिक्त से बच जायगा । व्यवस्थापक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीके जैनकवि (ले०-श्री जमनालाल जैन, विशारद ) वर्तमान समयमें हिन्दी-साहित्य-संसारके भातर, अनेक कामुक बना कर पाशविक प्रवृत्तियोंका दास बना कर मानकवियोंकी अपनी चाल, विचार और प्रादर्श हैं। समा- बतासे कोसों दूर फेंक दिया, तिस पर भी हमारे तरुण खोचक महोदय भी अपने अपने दृष्टिकोणसे सबको परखने कवि यदिकी केटा करते रहते है और जिस वाद या कविको अपनी "प्रेयसि, याद है वह गीत ! विचार-चारा प्रतिकूल पाते हैं उसे मारे हाथों लेने में नहीं गोवमें तुमको लिटा कर, हिचकते हैं। कोई चायावादका उपहास करते हैं, कोई रह कंठमें उन्मत्त स्वर भर, स्वपाव पर बंग करते है, कोई प्रगतिवादको दुखत्तियाँ गा जिसे मैंने लिया था स्वर्गका सुख जीत" बगाते है तो कोई प्रतीकवावसे चिढ़ते हैं। इस समय हम गाया करें तो यह हमारा दुर्भाग्य नहीं तो और क्या देखते है, प्रगतिवाद पर बहुत कुछ चर्चा चल रही है और है? एक ओर मासूम बच्चे विधवा रमणियां और निःसहाय उस पारामें प्रवाहित होने वाले कवियोंको कोसा भी खूब पंगु लोग, क्षुधा और तृषासे पीदित हो त्राहि २ करके मारहा। जिसमें चंचल' का नाम विशेष उल्लेखनीय प्राय छोड़ रहे हैं तो दूसरी चोर हमारे कवियोंको भालिंगन, है। बाद कोई भी हों,कैसे भी हों और अपने अपने अपने चुम्बन सूझ रहे हैं! ऐसे ही कवियोंकोलचय करके कविवर रटिकीयसे चाहे जैसे हो, परन्तु जब हम देखते हैं कि इन भूधरदासजीने जैनशतकमें कहा है:वाओंकी मोटमें समाजमें भरक्षीनताका प्रसार हो रहा है राग उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई, तो बानि, खेद और सोभसे हदय फलसने क्षगता है। सीख विना नित सीखत है, विषयादिक सेवनकी सुघराई। मालूम नहीं रीति-कालीन कवियोंकी अतृप्तलालसा भाजके ता पर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई कवियोंकोपयों बालायित कर रही है, ये उस ओर क्यों अंध असूमनकी अँखियानमें, डारत हैं रज राम-दुहाई। प्रवाहित होते जारहे हैं। भाज, जब समसमें इतना विषम हिन्दीसाहित्य बेचारा एक तो पहल हीसे बदनाम परिवर्तन होगया है, एक दम हवा ही बदल गई है तब भी शृंगारियों द्वारा है, दूसरे माज हम उसी ओर और अपने हम वही राग मालापा करें यह कैसे हो सकता है। आज पापको ढकेल रहे हैं। हा! कहाँ गए वे तुलसीदास, तो मानव मानवके खुलका प्यासा हो रहा है, दोनों वक्त भर- कबीरदास और बनारसीदास ! यदि भाज वे होते, तो इन्हें पेटलानेको भी नही नसीब होता, बच्चे सोती खोती कुछ बरताते, समझाते, कि "भरे युवको! यह क्या कर रहे करते ही मां अंचलमें मुंह ढांक कर सोजाते हैं और हो, क्यों मातृ जातिका तिरस्कार, अपमान कर रहे हो, अनपच्चों-सुकुमार पोंकी दारुण और करुणास्पद स्थिति सोचो और सममो!' पर मांकी पांचोंमें मांसू भी नहीं रहे हैं, तब भी हम माज, ऐसे ऐसे गीत और कविताएं साहित्यिक पत्रमस-शिक, प्रेमी-प्रेमिकाकी असंगत राग अलापा करें, बड़े पत्रिकाओंके मुखपृष्ठों तक पर रष्टिगोचर होती हैं जिनमें न भारपर्थकी बात है! एक तो पहले ही रीतिकालीन राज्या- सौंदर्य रहता ,न लोककल्याणकी उत्कृष्ट भावनाएं रहती श्रयी कवियों, कवियों नहीं कौनों अथवा चाफ्लूसोंने है. प्राव्यहीन जीवनमें अमृतधाराकी वर्षा कर सके वह भरखीलताकी भयानक समाज, देवा और साहित्यमें शक्ति ही रहती। वार्दो वादों और अपनी आंतरिक जाकर हमारे राजमार्ग, बतिक सात्विक साम्राज्यको गंदा पशिक यौवनोन्मत्त भावनाओंकी चोटमें हमारे कवि उनमें बना दिया और हमें मानसी, अकर्मण्य, विखासी तथा ऐसे २ शब्दों और भावोंका अंकन करते है, जिन्हें पड़ना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] हमारे जैनकवि ३३ सकपुरा मालूम होता है। मा-बहनों भागे तो उन्हें जब, हिन्दीसाहित्यमें उरच माने जाने वाले कविगण पड़ना निलज्जताकी सीमाको ना कहा जा सकता है। पाशविकताका प्रचार करने में वहीन, तब जैन कमिगण उनकी कवितामें न पीडित मानवताकी पुकार है, न दवस्वकी महत्ताको भून महा गए । जनकाषयाका यह राष्ट्रीय भावोंके नन्न चिन साहसपूर्ण उत्साह संचार प्रारम्भ हीसे विशिष्ट विशेषता रही है कि प्रत्येक प्राणों में करनेकी भोजपूर्ण उक्तियां ही। मानवताका संचार किया जाय । उसे अपनी स्थिति, परिकहाँ है ये पंक्तियाँ जो माखनलाल चतुर्वेदीने कहीं, स्थिति और कर्तव्यसे परिचित किया जाय । वे स्पष्ट जानते कहां है वह दृदयविदारक माँसीकी रानी' कविता कहने हैं कि मानवका कल्याण, उद्धार, विषयमें नही, भोगमें नहीं बाजी सुभद्राकुमारीकी पंक्तियाँ और कहाँमाज हमारे में और इच्छा में भी नहीं। मानवका भादर्श मानवता है यह भावना नकि पाशविकता । देखिए 'वसंत'जीच्या कह रहे है"जिसको न निज गौरव तथा निज देशका अभिमान है. "जीवन में ज्योति जगाना है" वह नर नहीं नरपय निरा है और मृतक समान है।" ज्योति हमेशा निष्कलंक हुमा करती है, जिसमें ज्योति भाज तोक्स अंचलजीकी तानमें सान मिलाकर हम जगानी है, वह भले ही कातिमापूर्ण हो, परन्तु ज्योतिमें यही चाहते हैं -- काखिमा रह ही नहीं सकती। चाहे पाए वीरत्वकी ज्योति "गोरी बाहोंमें कस प्रियको जगाइए, साहसकी जगाइए, शान्तिकी जगाये, वह सौंदर्य कर चुम्बनसे सुरास्नान "-अपराजिता पूर्ण और कल्याणप्रद ही होगी। अंधकारका सर्वनाश ही सच में माज हिंदी साहित्यके भीतर शब्दक्षेत्रमें कति- करेगी। इसी जीवनको सर्वश्रेष्ठ जीवन मानने वाले, इसके पय कवि-श्रेष्ठोंको बोदकर अश्लीलता और गुण्डत्वकी भर-भागे कुछ भी न माननेवाले और राग-रंगमें मा रहनेवाले मार हो रही है, यदि यही रफ्तार कुछ समय तक और रही भने मनुष्यों को जरा भोलखोलकर देखना चाहिए कि-- तो, यह ढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि वह दिन अधिक "किसका कैमा गर्व, अरे ! दूर नहीं है जब हम भारतीय अकर्मण्य, आलसी और जब जीवन ही सपना, पाखण्डी बनकर नारकीय जीवन बिताने लगेंगे। उस समय हमारेमें चेतना होते हुए भी जड़ता व्यास रहेगी । उस सर्वनाशके इस निवासमेंसमय हम.माजके सौ वर्ष पूर्वके कविके शब्दोमें कौन कहां अपना!"--'कुमरेश' 'सीग 'विनु बैल है मानुष बिना विवेक।" कहां तो यह उत्तम भावना और कहाँ वह चार माल .. यदि रहेंगे तो कोई भारचर्य नहीं। मिखानेकी चणिक सुखकी बाते! दुनियाभरके रागरंग, ऐशो इतना सब कुछ होते हुए भी, हम लोगोंकी 'विनाश. भाराम, धनसम्पत्ति, मान अभिमान और कारोबार, स्थायी काले विपरीतबुद्धिः' हो रही है,अपना पतन होते हुए जान नहीं. अस्थायी ही है। क्योंकि हमने देखा है, और देख कर भी हम उन्हें बधाई दे रहे हैं, उनकी रसिकताकी रहे हैं और देखेंगे भी कि रहे। दुहाई दे रहे हैं, उन्हींका यशोगान गा रहे हैं, कितनी दुख “समयरेत पर नखर गया और ओमकी बात है ! हम बोगर्मि साम्प्रदायिकता और बों बौका पानी ।" पापातका अंकुर इस प्रकार जम गया है कि तूसरी और तब किसपर इतमा गर्व, किसपर इतना अभिमान, भांब उडाकर मी देखना नहीं चाहते, अपनी मौत-बेमौत किसपर यह नाजनगारे ! समममें नहीं पाता जीवनकी मरना मंच परन्तु दूसरेके पास यदि सुधा, अमृत समभंगुरता देखकर भी हमारे कविगण यो विषयवासना तो वह निरुपयोगी। बड़ी माश्चर्य और विस्मयकी शिकार बने उन्मत्तहोर पाग मरेकी नाई, विभित्र बात है! शक्कियोंपर मंडराया करते है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनेकान्त [वष ६ प्रगतिशील साहित्य हिमायती कहा करते है-यह साहित्यमर्मज्ञोका--सभी नहीं, कतिपयोंका कहना है किसानों का साहित्य है, यह पूजीपतियों के विरुद्ध पुकार है, कि कविको इस बातकी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि इसमें पीवित मानवता चीख रही है, परंतु यह सिर्फ भोली अपने अनुभवोंको बिल्कुल उसी रूपमें उपस्थित करें वह जनताको मुखावा मात्र है, विन दहाव भाँखों में धूल झोकना जैसे वह अनुभव करता है। परन्तु यह नहीं सोचा जाता है मात्र सभी सेवाभावना, सच्चा मार्तनाद,सरची दयाईता कि इस अनुभूतिके ही नामपर भयानक अश्लीलता जोर देखनाहोतो 'युगवीर'की पंक्तियाँ देखिए वे क्या कहरहे है-- पकड़ती जा रही है। "दीन दुखी जीवोंपर मेरे वह जीवन, जीवन नहीं कहा जासकता जिससे लोक उरसे करूया-स्रोत बहे।" कल्याण न हो, विश्वमें कुछ प्रादर्श उपस्थित न हो. सुप्त"फैले प्रम परम्पराम, प्राणों में चेतनाका संचार न हो। यदि ऐसा नहीं होता है तो ____ मोह दूर, पर, रहा करे।" कहना पड़ेगा कि वह जीवन, जीवनहीन, जनजीवन है,मार"प्रिय-कटुक-कठोर-शब्द नहि, कीय जीवनमे भी बदतर जीवन उसकी संज्ञा है। कोई मुखसे कहा करे ।" "उन्हें नरपशु कहना उपयुक, पर हमारे नवनूनन कवि 'भगवत्' जी भी मानवताके ज्ञानधनसे जी रीते हैं । परम उपासक है। इनकी कवितामें भी पीरित और सस _ न जीनेके हित खाते वह मनवको चीरकार सुनाई देती है । भापकी रचनाएँ बबी बस्कि खानेको जीते हैं"-"भगवत्" मर्मस्पशिणी, हृदयविदारक और स्पष्टतासे परिप्लावित जिनके हृदयमै कामुकताकी, विलासिताको चासना है, होती है। देशकी दयनीय दशा, समाजका करुण-रोदन, इच्छा है, उन्हें भी खाने के लिये जीते रहने वाले नर-पशु धर्मकी चीत्कार आप भूले नहीं हैं। जहाँ एक ओर हमारे नहीं कहा जाय तो क्या कहेंगे ! हिन्दीसाहित्यमें अश्लीलता,पाशविकता और कलाके नामपर घृणाका प्रचार हो रहा है, स्वानुभूतिके नामपर व्यभिचार भाज हिन्दी साहित्य में कचरसे अधर, गातसे गात, बाहुसे बाहु मिलानेके गीत प्रचुर परिमाणमें निर्मित होकर की कुरिसत भावनाओंको पाश्रय मिल रहा है वहाँ यह कवि अपनी प्रांतरिक वेदनाको छिपाने में पूर्णतया असफल पत्र-पत्रिकाओंके मुखपृष्ठोंकी शोभा बढ़ातेहुए वास्तव में हिन्दी साहित्यको कलंकित कर रहे हैं। परन्तु वे जैनकवि ही हैं, है, वह कह रहा है :-- जिनकी अध्यात्मिक गंगा निरंतर प्रवाहित ही है। वह "सोने सोने में ही तुमने अपना समय बिताया" कितना मर्म छिपा हुआ इस एक ही पंक्तिमें ! प्रभावित नहीं किसी बाद विशेषसे । - अनेकान्तको सहायताके चार मार्ग (१) २५),५०), १००) या इससे अधिक रकम देकर महायकोंकी चार श्रेण्यमें से किसीमें अपना नाम लिबाना । (२) अपनी श्रोरसे असमयौको तथा अजैन विद्वानो लायन्त्रेग्यिो एवं संस्थाको अनेकान्त फ्री (बिनामूल्य) या अर्ध मूल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोको अनेकान्तके पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा करना । (इस मद में सहायता देने वालोकी ओरसे प्रत्येक चौदह रुपयेकी सहायनाके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा पाठको अर्धमूल्य में भेजा जा सकेगा। (३) उत्सव-विवाहादि दान अवसरों पर अनेकान्नका बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता मेजना तथा भिजवाना. जिमसे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क निकाल सके, उपहार प्रन्योंकी योजना कर सके और उत्तम लेखोर मुरस्कार भी दे सके । स्वन: अपनी ओर से उपहार प्रन्योंकी योजना भी इस मद में शामिल होगी। ()अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और अनेकान्तके लिए अच्छे अच्छे लेख लिखकर मेजना, लेखों की सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होने के लिए उपयोगी चित्रांकी योजना करना और कराना। -सम्पादक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलताकी कुजी (ले०- श्री बा. उप्रमैन जैन एम० ए०, एल-एल० बी०) कोई भी किसी प्रकारकी भी संस्था क्यों न हो, जिम कार्यको हम छेड़ रहे हैं वह लाभदायक होना उमकी सफलता या असफलताका आधार उसके संचा- चाहिये। ऐसा न हो कि केवल शोर मचाने तक ही लकगण ही हुआ करते हैं। वे जैसी नीति या जैसा उसकी पूर्ति ममझ ली जावे । यदि परिश्रम किया उद्देश्य अपनी संस्थाका निश्चित करते हैं उसके अनु- जावे और उससे कोई लाभ न हो तो कार्यकर्ताओंके सार ही वे अपनी कार्यप्रणाली बनाया करते हैं। दिल बुझ जाते हैं, हिम्मत टूट जाती है। समय, द्रव्य, संस्थाका समस्त उत्तरदायित्व उन्हींके कंधोंपर हुआ तथा शक्तिका दुरुपयोग होता है, जनताका विश्वास करता है। किसी भी संस्थाके संचालकों के लिये जरूरी जाता रहता है और "अपना मरण जगतकी हँसी" है कि किसी भी कार्यको हाथमें लेनेसे पहले वे निम्न वाली कहावत चरितार्थ होती है। पहले यह विचार तीन श्रावश्यक बातोंको ध्यानमें रखें, जो सफलताकी लेना चाहिये कि यह कार्य हमारे उत्थानमें सहायक कुंजी हैं भी होगा या नहीं, हमारे उद्देश्यकी पूतिकी और हमें (क) प्रथम ही उनके दिलमें अपने उद्देश्य ले चलेगा ना नहीं । हमें इस बातसे नहीं डरना तथा कार्यके प्रति दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिये, प्रेम होना चाहिये कि वह काये कठिन है। कठिन भले ही क्यों चाहिये। ऐसा नहीं कि उस कार्यको ईर्षा या किमी न होवे उस बातका परवा नहीं । कठिनाई का कषायके वशीभूत होकर स्वार्थ-साधनके निमित्त किया तो हमें स्वागत करना चाहिये और उसके ऊपर विजय प्राप्त करनी चाहिये । मेरा कहनेका प्रयोजन जावे, किसी पालिसी । Polity ) या डिसोमेसी यह है कि शक्ति और समयका दुरुपयोग न हो और (Diplomner ) के आधार पर किया जावे; हम स्वयं या कोई और यह न कह सके कि "खोदा उसकी तहमें Honesty of Purpose अर्थात पहाड़ और निकली चुहिया।" जिस कार्यको हम करें ध्येयकी सत्यता होनी चाहिये । जब तक कार्यकर्ताओं उसका अन्तिम परिणाम जरूर अच्छा निकलना चाहिये। के दिलों में उस उद्देश्यके प्रति ऐक्यतारूपसे तथा यथा समय और शक्तिका व्यर्थ नष्ट करना किसी भी व्यक्ति थरूपसे श्रद्धा नहीं होगी वे उसकी पूर्तिमें असमर्थ तथा समाजके लिये एक बड़ीसे बड़ी हानि है। रहेंगे। कंधेसे कंधा भिड़ाकर. हाथसे हाथ पकड़े, विना (ग) तीसरे, जो कार्य हम करें प्रसन्न-वदन होकर भदभावक, हिसा आर परापकारक भावक साथ करें। एक बालकनन् निर्भय तथा निर्विकार होकर प्रेमपूर्वक यदि वे श्रद्धालु कार्यकर्ता कार्यक्षेत्रमें उतरते निस्वार्थ भावक साथ हँसते २ करें। कोई बुरा कहे हैं तो उनके मार्गमें कोई रुकावटें हाल नहीं सकता। या भला कहे, हम संक्लशित न होयें, अपने ध्येयपर कोई अड़चनें उनके सामने ठहर नहीं सकतीं । समस्त डटे रहकर अपने मार्गसे च्युत न होवें। जो सद्भावमंसार उनके प्रेम और अहिंसासे खिंच कर उनकी नायें लेकर हम पथारूढ़ हुए हैं उनको दूसरों के सामने ओर उमड़ पाता है। वे संमारको मोहित कर लेते रखते हुए चलें, जो सद्गुण दूसरोंमें जान पड़ें उनको है, या यों कहिये कि वे जनताके हृदयस्थलपर विजय सहर्ष ग्रहण करें, यदि कोई हमें हमारी त्रुटियों या प्राप्त कर लेते हैं। गलतियां सुझावे उनको शान्तिपूर्वक समझ कर (ख) दूसरे, यह बात विचारनी जरूरी है कि दूर करें, सुझाने बालेका आभार माने । एक विनय Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनेकान्त [वर्ष ६ वान श्रद्धालु जिज्ञासुकी तरह सदैव अपने ज्ञानमें नम्रता, दयालुता तथा प्रेमको अपनाएँ, सरल बढ़ोतरी करनेके लिये तय्यार रहें। अपने पथप्रदर्श- व्यवहार करें, सादा रहन सहन हो, विचार उच्च हों कोंके प्रति श्रद्धा और भक्तिका भाव बनाये रक्खें, दीन-दुखी जीवों के प्रति करुणा स्रोत बहता हो,जोबीत पारस्परिक विश्वास बनाये रखें । जैसे युद्ध-स्थल में एक गया उसका राम न करें, कलकेलिये फ्रिकरन करें,वर्त सैनिक विना किसी प्रकारकी चूंचराके अपने कमानके मानमें रहना सीखें,परिश्रमसे डरें नहीं। जैसे एक चालक हुक्मको मानकर आगे बढ़ता चला जाता है उसीप्रकार अपने खेलमें मग्न होकर रंजायमान होता रहता है एक कार्यकर्ताको अपने कप्तानकी आज्ञाका पालन ठीक उसी तरह अपने कार्य में संलग्न होकर हर्षभाव. करना चाहिये, जहाँ बह हुक्म दे जाना चाहिये, जो के माथ उसे पूरा करें, निराशाको अपने पास फटकने बह हुक्म दे बजालाना चाहिये । इस प्रकारक विश्वास न दें। यदि इन विचारों के साथ किसी संस्थाके संचातथा भाज्ञा-पालनके बिना संसारके अन्दर कोई भी लक गण कार्य करते हैं तो अवश्य सफलता उनको बड़ा कार्य कोई भी व्यक्ति तथा कोई भी संस्था नहीं प्राप्त होगी, उनकी शुभ मनोकामनायें पूर्ण होंगी और कर सकती। उनकी शुभभावनाओंकी पूर्ति ही उनका पुरस्कारहोगा। समझे, पहले सुख-दुख क्या है? दम्भ-द्वेष से कट-कट मरतेजग में सुन्दर जीवन क्या है? रक्त पान करते जो पल-पलइस छोटे से एक प्रभ की- मानवता की इस प्याली से- श्रात्म-शान के नरु पर लटकेछोटी सी परिभाषा क्या है? आओ कवि! कुछ रस बलकाएँ! उन्हें मिलेंगे यहाँ अमर-फल ! 'माया, तृष्णा-अहंकार 'दुग्व' उल्टे-पैरों आँख मीच करत्याग-तपस्या 'सुन्द' कहलाएँ ?? पश्चिम से पूरब को श्राएँ! मानवता की इस प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि! कुछ रस छलकाएँ ! श्राश्रो कवि! कुछ रस छलकाएँ! माया-मकड़ी का सा जाला श्राज विश्व-संकट फैला है, हद करता ही जाना बन्धन !. मानवता का मन मैला है। और स्याग से मिलना, मानव ! मानव ! ज्ञान कहाँ पर खोया, परमानन्द मोक्ष का साधन ! काशीगम शर्मा 'प्रफुल्लित' अंधकार का भ्रम फैला है। स्यों न दु:ख के कंटक पथ को 'बो कर बीज बबूल-खोजते, त्याग परमसुख-पथ पर श्राएँ! मीठे श्राम' कहाँ से खाएँ! मानवता की हम प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि ! कुछ रम छलकाएँ! आश्रो कवि! कुछ सुख छलकाएँ ! 'सत्य' शान्ति का सुन्दर सागर, करनी का सब फल पाते हैं, जीवन में नव-संदन भरना। पाप, पुण्य से जल जाते हैं। और 'अहिंसा' धर्म मान कर शील-क्षमाके उस विवेक सेमानव भव-सागर से तरता! दुख भी तो सुस्व बनजाते हैं! हिंसा के इस घोर कष्ट से काँटों में प्रसून हँस उठते, सारे जग का पिंड छुड़ाएँ ! पण्डित दुख में सुख झलकाएँ ! मानवता की इस प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि ! कुछ रस छलकाएँ। आयो कवि! कुछ रस छलकाएँ! Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहभद्रको वीरोपदेश* [ले०-बा० कामताप्रसाद जैन D. L., M. R. A.S.] बैशालीमें गणनायक चेटकका आवास था। मानते ? क्या मृतमांस खाना विधेय है ? भूल गये, सिहभद्र उनके पुत्र थे। वह इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थे जब तुमने बौद्ध संघके लिये मांस भोजनका प्रबन्ध और संभवतः लिच्छवि गणराज्यकी सेनाके अधि- किया, तब वैशाली में कैसा क्षोभ फैलाथा १२ वैशाली नायक थे। एकदा सिंहभद्र भ० महाबीरकी वन्दना में सड़क-सड़क और चौराहे-चौराहेपर धर्मश्रद्धालु करनेके लिये गये। उन्होंने भ० महावीरको नमस्कार जनताने उस कर्मका विरोध किया था। सबने एक स्वर किया और विनयपूर्वक पूला, "प्रभो ! लिच्छवि राज- से कहा था कि श्रमण गौतम जान बूझकर औदेशि कुमार शाक्यमुनि गौतम बुद्धकी प्रशंसा करते हैं। मांसभोजन करता है, इस लिए उस हिंसाका पातकी उनके मतको अच्छा बताते हैं, यह क्या बात है?" वही है। धर्मात्मा कभी भी जानबूझकर प्राणिवध सिंहभद्रने उत्तर में जो सुना उमका सारांश था:-“गौतम नहीं करते।" सिंहने बीचमें कहा, "नाथ ! यह कैसे? बुद्धके वचन मनको लुभाने वाले इन्द्रायण फलकी जब गौतमने प्राणिवध किया नहीं और न मुझसे बैसा तरह सुंदर है; परन्तु सिंह ! तुम कर्मसिद्धांतके श्रद्धानी करनेको कहा तो वह पातकी कैसे ?" सिंहने समझा कि श्रावक हो; तुम्हें अ.क्रयावादी गौतमके मतसे क्या "मुग्ध जीव हिंसा और अहिसाके स्वरूपको न जानने प्रयोजन ? मुग्ध लिकविकुमार इस भेदको नहीं के कारण ही ऐसा कहते हैं। सिंह ! यह बताया कि चीनते। जो कमों के फलको भोगने वाले आत्माके तुम मेरे पास कैसे आये १ऐसे ही न कि पहले तुम्हारे अस्तित्वको भी स्पष्ट नहीं बता सकता' और जो प्रकट मनमें यह भाव उदय हुआ कि चलो सातपुत्र महावीर हिंसावाद-मांसलोलुपताका संवरण नहीं कर सकता, भगवानसे इस शंकाको निर्वृति करें ? इस भावके वह गुरु कैसा? क्या तुम आत्मद्रव्यमें विश्वास नहीं अनुरूप ही तुमने कमें किया। यह तुम्हारी भावकिया रखते और क्या तुम जीवों के पातमें हिसा नहीं का स्थूलरूप था-उसकी सूक्ष्म प्रतिक्रिया तुम्हारे मानसक्षेत्रमें उस भावके उदय होते ही हो ली! अत*लेखकने जैन मित्रमंडल दिल्लीक. श्राग्रहसे भ. महा एव प्रत्येक कर्म भाव और द्रव्य रूपसे दो तरहका वीरका जीवन-चरित्र पुन: लिखा है। उस ही अप्रकाशित होता है। हिंसा और अहिंसा भी दो तरह है (१) भावहिंसा (२) और द्रव्याहिंसा। इनमें भावहिंसा पुस्तकका प्रस्तुत लेख एक अंश है। बौडग्रंथ 'विनयपिटक' में सिंह सेनापति द्वाग बौद्धसंघको मांसाहार कराने और प्रधान है । उसके होते हुये द्रव्य हिंसा की जावे, चाहे निन्ध जैनियों द्वारा उसका विरोध करनेका उल्लेख है न की जावे; परन्तु व्यक्ति हिंसाका अपराधी होजाता स्योंकि प्रमत्त चित्त-क्रोध, मान, माया, लोभके उसमें सिंहके भ. महावीरक निकट जानेका भी उल्लेख है। इस घटनाको पल्ववित-रूप देखकर लेखकने यह प्रकरण वश होकर वह अपने व अन्य प्राणीके भाव प्राणोंका लिखा है। आशा है, यह क्रम उपयोगी और रोचक प्रति हनन करता है-उसके परिणाम उतने ही फर हो भासित होगा। सिंहके निमित्तसे अहिंसा-तावका निरूपण जाते हैं, जितने कि प्राणिवध करते समय एक हत्यारे के होते हैं। सम्राट् श्रेणिककी बात, सिंह! तुमने सुनी जिनेन्द्र महावीरने किया हो तो आश्चर्य ही क्या ?-ले. १बौद्ध ग्रंथों में मात्माके अस्तित्वको 'प्रवक्तव्य' कहकर टाल होगी। राजगृहमें कालसौकरिक नामक कसाई रहता दिया गया है। २ इस समय सिंह बौद था। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनेकान्त [ वर्ष ६ व बांध चुके हो, है। तुम पहिल नरमीका फल है।' श्रेणिकने चाहा कि वह हिंसाका व्यापार छोड़दे। है और धीवरके द्रव्यहिंसा तो नहीं है, परन्तु भात्र कालसौकरिक हिंसानन्दी है--वह बोला, 'इस काममें हिंमा जटाजूट हैं । इस लिये ही वह महापापी है। दोष ही क्या है। जो मैं इसे छोड़ दूँ । इसके द्वारा “इसी कालसौकरिकका लड़का है--वह भव्य है। मैं सहस्राधिक मनुष्योंकी रसना-तृप्ति करनेका श्रेय हिंसक व्यापार वह नहीं करता! उसके सगे-संबंधियों और अर्थलाभ पाता हूँ। ऐसा अच्छा धंधा मैं नहीं न समझाया और दबाया, पर वह तो भी विचलित न छोडूंगा । श्रेणिकने लालच दिया, परन्तु वह न माना। हुआ-कसाई न बना ! उसने स्पष्ट कहा कि यदि तुम हठात् श्रेणिकने राजदंड दिया और उसे अंधकूपमें मेरा दुःस्त्र बँटालो तो मैं समझ तुम मेरे पुण्य-पापके बन्द करा दिया । वह समझ कालसौकरिक अब हिंसा भागी बनोगे ! यह कहकर उसने भैंसेके गलेपर नहीं, नहीं कर पायगा । श्रेणिक वीरसमोसरणमें आए और अपने पैरमें कुल्हाड़ी मारी और दुखसे वेहोश होगया बोले, निम्रन्थ सम्राट् ! मैंने कालसौकरिकमे हिमाछड़ा -कोई भी उसके दुखको न बँटा पाया सबको दी; अब मेरी गति क्या होगी ? उन्होंने उत्तरमें सुना अपनी अपनी करनीका फल स्वयं भुगतना पड़ता है। -राजन् ! पूर्वमें बंधे हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल उसके सगे संबंधी चुप हो चले गए। जानते हो, उदयमें अवश्य आता है । तुम पहिले नरककी श्रायुका उन्होंने क्या कर्मबंध किया ? सगे संबंधियों के बंध बांध चुके हो, इसलिए वह हट नहीं सकता। मय भाव थे, इसलिए उन्होंने पाप कमाया और कालकालसौकरिकके भी तीव्र मिथ्यात्व और चारित्र मोह- सोरिक-पुत्र दयालुहदय था-उसने अहिंसक भावोंसे नीय कर्म उदयमें आरहे हैं। इसी लिए वह हिंसाको पुण्य कमाया ! और सुनो सिंह! तुमने प्रसिद्ध वैद्यनहीं छोड़ पाता । श्रेणिक ! अंधकूपमें तुमने उसे राज जावकका नाम सुना है-वह रोगमुक्त करने के डाला अवश्य, परन्तु वहां भी उसने मिद्रास मंस बना लिए चीरफाड़ भी करते हैं। एक रोगीक उन्होंने बनाकर मारे हैं! उन मिट्टीके भैसोंको मारते समय चीरा लगाया--बिल्कुल सावधानीसे; परन्तु भाग्यभी उसके जैसे ही करभाव थे और वही हिंसानन्द था वशात् उसकी हृदयगति क्षीण होगई और वह मर जो उसे सचमुचके भैमोंको मारते समय होता था। गया ! क्या राजा जावकको अपराधी कहेगा और उसे श्रेणिकने देखा तो यह सच पाया । इस लिए सिंह प्राणदण्ड देगा ? नहीं न ? इसीलिये कि जीवकका हिंसाकी और अहिंसाकी परख मनुष्यों के भावोंसे ही भाव रोगीको मारनेका नहीं, जिलानेका था । बस, की जाती है। एक कृषक और एक धीवर है। कृषक मीलों अहिंसाके सिद्धान्तकी कुजी यही है । भावों पर ही जमीन जोत डालता है और त्रस-स्थावर जीवोंकी वह अवलम्बित है। हिंसाके भाव हों फिर प्रगट चाहे विराधना-द्रव्यहिंसा खेत जोतनेमें होती है। दूसरी हिसा करो या न करो या दूसरे से कराओ या न करा भोर धींवर बंशीडाले तालाव किनारे बैठा रहता है- या व्यक्तिको पापबंध होगा । कृत-कारितविल्कुल सावधान, जरा खटका हुया कि समझा, दना एक समान है । मांसभक्षक भले ही प्राणिवध न मछली पकड़ ली, परन्तु मछली फंसती एक भी नहीं! करते हों, परंतु उसके भोजनके लिये प्राणियोंका वध हां, उसके भाव मछली पकड़ने में ओत प्रोत रहते हैं। हाता है। इसलिये उनको कारित और अनुमोदना बतायो, उनमेंसे कौन हिंसाका अधिक पातकी है? हिसाका दोष अवश्य लगता है। अब सिंह ! बतायो किसान नहीं, धीवर ! किसानके भाव हिंसाका अभाव क्या मृतमांस खानेवाला हिंसापापका दोषी नहीं है।" सिह ने कहा, "अवश्य है नाथ ! मैं भूला था१दिगम्बरीय 'उत्तरपुराण' में कालमौकरिकका उल्लेखमात्र लिच्छवि कुमार भी भूले थे। निर्ग्रन्थ सम्राट् ! आपकी है। उसका विशेष वर्णन श्वेताम्बरीय ग्रंथोम मिलता है। बचन बर्गणाओंसे अज्ञान मिटा है।" वहाँसे ही लिखा गया है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म पर अजैन विद्वान् दमें पाश्राचार्य र महात्मा गाँ [जैनधर्मके विषयमें देश के खास खास विद्वानोंने समय समय पर बड़ेदी सुन्दर हृदयोद्गार व्यक्त किये है, जो सर्वसाधारणके जानने योग्य हैं। ये विचार इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। मेरा विचार इन्हें इस स्तम्भ के नीचे संकलित करनेका है। प्राशा है अनेकान्तके पाठक इन विचारों परसे अच्छी शिक्षा ग्रहण करते हुए सहज हीमें यह मालूम कर सकेंगे कि देशके चुने चुने विद्वान जैनधर्मको किस दृष्टि से देख रहे हैं और उसके विषयमें कैसे ऊँचे विचार रख रहे हैं। भारतके प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और महात्मा गाँधी ने विजय प्राप्त की है!आत्माको भूलकर और अनाके दाहिने हाथ-श्री प्राचार्य काका कालेलकरने अह- त्माको बढाकरके सूक्ष्म प्राचारोंका पालन किया तो मदाबादमें पयूषण पर्वमें संयोजित की गई व्याख्यान क्या और नहीं पालन किया तो क्या, आजका दिवस तो हृदय शुद्धि करनेका है । जो आत्माका बफादार माला १९३१ ई० में कहा है है, अात्माकी उन्नतिके लिये जीता है और अनात्माके "टोला धर्म (माम्प्रदायिकता-पक्षपात) जन्मसे मोहजालमें नहीं फँस जाता वही जैन है और बाकी जाति मानने वाले सनातनियों में हो तो माना भी जा सव जैनेतर हैं सकता है, यहूदियों में भी वह चल सकता है, परन्तु इम शुद्धदृष्टिसे क्या अपन मबजनेतर नहीं हैं ? जैन धर्म में यह कैसे हो सकता है ? फिर भी जैनियों में भी यह टोला धर्मका संक्रामक रोग लगा है। "आत्मपरायण कौन है और कौन नहीं, यह तो सनातनी दुसरोंको अपने धर्ममें आमंत्रित नहीं करते गनुप्यकी अन्तरात्मा ही उमसे कह सकती है। मगर हैं, पारसी भी आमंत्रित नहीं करते हैं और यहदी भी वाहा जीवन परसे मालूम होता है कि मैं भी जैनेतर आमंत्रित नहीं करते हैं। परन्तु जिनको मोक्षका मार्ग हैं और आप भी सब जैनेतर हैं। फिर भी यदि इम दिखाई दिया है निर्वाण अर्थान कैवल्यके मार्गको सभामें कोई जैन हो तो उसे मेरा नमस्कार हो।" जिन्होंने समझा है वे सभीको आमंत्रित करते हैं भारतके सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता श्रीसरदार वल्लभभाई पटेल उनके यहाँ सभीक लिय माग खुला होना चाहिये। इस धर्मकी दीक्षा मिलनेके बाद ही वास्तवमं मनुष्य "जैनधर्म पीले कपड़े पहननेसे नहीं आता। जो उस धर्मका कहा जा सकता है। जहां सबकेलिये स्थान इन्द्रियोंको जीत समझता है वही सच्चा जैन हो है वहाँ अस्पृश्यताको स्थान नहीं हो सकता । मुसलमान सकता है।" अहिंसा वीर पुरुषोंका धर्म है कायरोंका और बौद्धोंमें अस्पृश्यता नहीं है जैनोंमें भी नहीं हो नहीं। जैनोंको अभिमान होना चाहिये कि भारत-स्वासकती है। परन्तु हमें देखनेसे मालूम होता है कि तन्त्र्यके लिये काँग्रेस उनके मुख्य सिद्धान्तका अमल सनातन धर्मकी गंदगी जैनियोंमें भी घुस गई है।". समस्त भारतवासियोंसे करा रही है। जैनोंको झगदने "वास्तव में जैनियोंको यह उच्च-नीच-भाव और की जरूरत नहीं । जैनोंको निर्भय होकर त्यागका अस्पृश्यता अपनी समाजमें प्रविष्ट नहीं होने देना अभ्यास करना चाहिये।" चाहिये थी! मेरी समझमें तो जो अश्पृश्यता मानता भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति बायू राजेन्द्र प्रसादजीहै वह जातिसे भले ही जैन हो परन्तु वास्तवमें वह "मैं अपनेको धन्य मानता हूँ कि मुझे महावीर जैनेतर ही है। मोक्ष धर्ममें अस्पृश्यता कैसी" स्वामी के प्रदेश में रहनेका मौभाग्य मिलाअहिमा “एक वार मैं राम टेकके मन्दिरमें जाने लगा तो जैनोंकी विशेष सम्पत्ति है। जगतके अन्य किसी भी मुझे शखधारी पहरेदारोंने जानेसे रोक दिया। मैंने धर्ममें अहिंसा सिद्धान्त का प्रतिपादन इतनी मूक्ष्मता विचार किया कि अन्तमें जैनधर्म पर भी टोला धर्म और सफलतासे नहीं मिलता।" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनेकान्त [वर्ष ६ भर संयुक्तप्रान्तके भू० प्रधानमंत्री पं० गोबिन्दवल्लभ पन्त- उन सिद्धान्त, उत्तम नैतिक नियम और उच्च रीतियों ___“जैनधर्ममें सत्य और अहिंसास चार से भरपूर है। अब यह नहीं कहा जाता कि जैनधर्म मादर्श नहीं। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बौद्धधर्मकी शाखा है, किन्तु वह बहुत प्राचीन और सर्व सिद्धान्तों में उत्तम जैनघमके मिद्धान्त हैं।" स्वतंत्र धर्म है जिसके सिद्धान्त बुद्ध के जन्मसे पहले "प्रान्तीय काँग्रेस के पूर्वप्रधान श्रीमोहनलाल सक्सेना चले आते हैं। - इसका बड़ा भारी साहित्य जो पवित्र, सैद्धान्तिक "हिंन्दू धर्म जहां सहनशीलता सिखलाता है, और लौकिक है-अब तक यूरूपकी दुनिया के लिये सिखधर्म जहाँ बरादुरी सिखलाता है, इस्लाम धर्म एक मुहर लगी किताब है। बहुत ही कम पुस्तकें प्रकट जहां भ्रातृभक्ति सिखलाताहै, वहां जैन धर्म सत्प्रेम, हुई हैं। यदि यह अमूल्य सिद्धान्त छप जाय तो सद्भाव और अहिंसा सरस रीतिसे सिखलाता है।" विचारों में एक नया युग खिले और बहुत संभव है लाला कन्नूमल एम० ए० जज धौलपुर स्टेट- कि वर्तमान इतिहासको भी बदलना पड़े।" -व्यवस्थापक प्राचीन धर्मोमेंसे जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जो GG R525-25-26 न धार्मिक पुस्तकोंके मिलनेका अभाव होते जानेपर भीG (१)भविष्यदत्तसेट १०॥=)का८) | (२)चन्दन बालासेट ६।)का ४) । (३)सत्यमार्ग सेट ८/-)|का ६।) 3 सुरसुन्दरीनाटक सती चन्दनवाला सत्यमार्ग नवीनजिनवादी संग्रह सत्यघोषनाटक जिनवाणीसंग्रह २) । रत्नकरंडश्रावकाचार भविष्यदत्तचरित्र रत्नमाला द्रव्यसंग्रह धन्यकुमारचरित्र अंजनासुन्दरीनाटक नित्यनियमपूजा भाषा समन्तभवचरित्र पाषण पर्व व्रतकथा ऋषभदेवकी उ. सूत्रमकामर १० पु. मादी जैनपूजा जैनधर्मसिद्धान्त किरान-मजनावली २ जिनवाणीगुटके विशाल जैनसंघ वन गांव-कीर्तन हितैषी गायन मास्मिकमनोविज्ञान बारहमासा अनन्तमती नभजनसंग्रह अतिशयजैनपूजा दीपमालिकापूजन अनन्तमती-चरित्र चारचित्र हस्तनागपुर-माहात्म्य रत्नकरराषकाचार । रविवतकथा बड़ी सम्मेदशिखरपूजा बढी 1-) सहस्रनामभाषाटीका ॥)| विनती विनोद श्री पीर जैन पुस्तकालय, १०८ बी नई मंडी मुजफ्फरनगर यू.पी. नोट-नं.१ सेट दस रुपये ग्यारह पाने का पाठ रुपये में। नं. २ सेट सवाछर रुपये का पौने पाँच कायेमें । नं. सेटमाठ रुपये साढ़े पांच मानेका सवा छह रुपयेमें । एएएएएएएछर पर र । परर as. -र-र- र 35SSES र JU. र Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे वर्षमें अनेकान्तके सहायक अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंको 'विज्ञप्ति अंक' श्रादिपरसे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि जैनसमाजके लिये गौरवरूप 'अनेकान्त' पत्र त्रिमासिक न होकर बदस्तूर मासिक रूपमें ही प्रकाशित हुश्रा करेगा, पालेसे भी अब अधिक उत्साहके साथ प्रकाशित होगा, उसमें सरल साहित्यकी भी यथेष्ट योजना रहेगी और वह विद्वानोंका ही पत्र न रहकर जनताका सर्वोपयोपी पत्र बनेगा। इसलिये चारों ओरसे अनेकान्तकी सहायता और सहयोगका चर्चा सुनाई पड़ रहा हैप्रेमी जन अपने अपने योग्य सहायता और सहयोगकी बातें सोच रहे हैं, अनेकान्त-साहित्य के प्रचार एवं प्रसारके लिये अजैन विद्वानों तथा लायब्रेरियों श्रादिको अनेकान्त झी या अर्धफ्री भिजवानेकी योजनाएँ हो रही है, कितने ही विद्वानोंने खुले दिलसे सहयोगका वचन दिया है, कुछने अपने लेखादिक भेजने प्रारंभ भी कर दिये हैं और बहुतसे सज्जन इस प्रयत्नमें लगे हुए हैं कि अपने मित्रों, रिश्तेदारों, परिचित व्यक्तियों और दूसरे समर्थ महानुभावोसे अनेकान्तको अच्छी सहायता भिजवाएँ, जिससे वह इच्छानुसार उँचा उठ सके, खूब प्रगति कर सके और समाजकी सच्ची ठोस सेवा बजा सके । जो सज्जन इस प्रयत्नमें लगे हुए हैं सब वे धन्यवादके पात्र हैं। समाजकी इस हलचलको देखते हुए हमें यह श्राशा बँध रही है कि हम शीघ्र ही अपने सहयोगियों और सहायकोंकी एक अच्छी सूची प्रकट करने में समर्थ हो सकेंगे। इस प्रथम किरणके प्रकट होनेसे पहले ही जिन महानुभावोंने आर्थिक सहायताके वचन देनेमें पहल की है अथवा जिन्होंने फिलहाल कुछ सहायता भेजदी हैं उन सबके हम हृदयसे श्राभारी हैं। ऐसे सज्जनोके शुभ नाम सहायताकी रकम सहित इस प्रकार हैं६००) बाबू छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता । ५) ला• कस्तूर माणिककंदजी जैन, पेपरमचेंन्ट, आगरा १०१) ला• कपूरचन्दजी जैन रईस, कानपुर । ५)ला. जगाधरमलजी सर्राफ जैन, देहली। २८) ला• रूड़ामलजी जैन शामिलानेवाले, सहारनपुर । ५) ला• रेशमीलालजी सेठिया, इन्दौर । २५) बा. महावीरप्रसादजी जैन बी. ए. सर्धना जि.मेरठ २) गाँधी चम्पालाल मगनलाल जी बांसवाड़ा। २५) मशीरबहादुर सेठ गुलाबचंदजी टोग्या, इन्दौर * नोट-जिनके आगे * यह चिन्ह लगा है उनकी श्रीरसे २१)ला. प्रद्युम्नकुमारजी जैन गईस, सहारनपुर अनेकान्त फ्री भेजा जायगा । १४)रु. की सहायतामें चार १४) बा. मंगलकिरणजी, मल्हीपुरप्रेस, सहारनपुर को फ्री भेजा जा सकता है। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त 0000000000000000000000000000....... पुरातन-जैनवाक्य-सूची जिस पुरातन जैनवाक्य-सूची (प्राकृतपणानुक्रमणी) नामक ग्रन्थका परिचय पिछली किरणों में दिया जा चुका है और जिसकी बाबत पाठक यह जानते भा रहे हैं कि वह कुछ महीनोंसे प्रेसमें है, उसके सम्बन्धमें माज यह सूचना देते हुए प्रसवता होती है कि वह छप गया है-सिर्फ़ प्रस्तावना तथा कुछ उपयोगी परिशिष्टों का रूपमा और उसके बाद बाइंडिंगका होना बाकी है, जो एक माहसे कम नहीं लेगा। प्रस्तावना तथा परिक्षिों में प्राकृत भाषा और इतिहासादि सम्बन्धी कितने ही ऐसे महत्वके विषय रहेंगे जिनसे ग्रन्थकी उपयोगिता और भी बढ़ जायगी। पीटके उत्तम कागज पर पे हुए इस सजिल्द प्रन्थका मूल्य पोटेज से अलग ..)३० होगा, जो ग्रन्थकी तय्यारी और सपाई में होने वाले परिश्रम और कागजकी स भारी मंहगाईको देखते हुए कुछ भी नहीं है। जो सजन प्रकाशित होनेसे पहले १२). मनीमार्डर से भेज देंगे उन्हें पोटेज नहीं देना होगा--प्रकाशित होते ही अन्य डाक रजिटरीसे उनके पास पहुँच जायगा। ग्रन्थकी कुल ३०. कापियां छपाई गई, जो शीघ्र ही समास हो जायेंगी, क्योंकि कितने ही मार पहलेसे भाप हुए हैं। भत: जिन सजनों, संस्थाओं कालिज तथा सायबेरियों माविको भावश्यकता हो वे शीघ्र ही मनीमारसे रूपमा निम्न पते पर भेज देवे अथवा अपना नाम दर्ज रजिष्टर करा दे। अधिष्ठाता 'बीरसेवामन्दिर' सरसावा, जि. सहारनपुर । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGISTERED NO. A-731. TE THIWITM E NSTIPRITHARATI THIWANDIT MOCRO 'अनेकान्त' जनसमाजके गौरवको वस्तु है ! दशलक्षण पर्वमें 'अनेकान्त का प्रचार करना और सहायता भिजवाना प्रत्येक बन्धुका कर्तव्य है ! विद्या-दानका अपूर्व अवसर ममी R RANLALISATER -- जैनसमाजमें यह आवश्यकता बहुत दिनोंसे महसूस की जारही थी कि समाजमें एक ऐसा पत्र अवश्य होना चाहिये जो आपमी तूतू मैं-मैं, वादविवाद और सम्प्रदायवादसे दूर रहकर साहित्य और इतिहासकी सेवा करता हुश्रा वीर प्रभुके सन्देशका प्रचार व प्रसार करे तथा जातिमें त्याग, सेवा, धर्मसाधन और लोकहितकी भावना उत्पन्न करे । साथ ही जिसे बेधड़क किमी भी अजैन बन्धुके हाथों में देकर हम गर्व महसूस कर सकें, जिससे उस अजैन वन्धु पर भी अच्छा प्रभाव पड़े और जैनधर्मके विषय में फैली हुई गलत धारणाएँ दूर होसकें, तथा गैटअप आदिकी भी दृष्टिसे उम पत्रका स्टैंडर्ड काफी ऊँचा रहे। हर्पका विषय है कि 'अनेकान्त' जैसे उच्चकोटिके पत्रके संचालक मंडलने अब समाजकी इस कमी को पूरा करने के लिये 'अनेकान्त' को ऐसा पत्र बनानेका निश्चय कर लिया है जिस पर समाज गर्व कर सके। पर केवल संचालक मंडलके निश्चय कर लेनेसे ही यह महत्वपूर्ण कार्य पूरा नहीं होसकता है जब तक कि समाजके प्रत्येक व्यक्तिका सहयोग हमें प्राप्त न हो जाये। वह इस प्रकार होसकता है कि विद्वान् लोग सरल साहित्यका निर्माण करें। प्रत्येक जैन बन्धु, संस्था, मन्दिर और स्थानक पत्रका ग्राहक बने । दानी महानुभाव उसे आर्थिक सहयोग प्रदान करें तथा अपनी पोरसे दो-दो चार-चार अजैन संस्थाओं और विद्वानोंको मुफ्त भिजवायें। मायादसमाज सेवाकास महत्वपूर्ण कार्य में हमें समाजका पूर्ण सहयोग पास होगा। कौशलप्रमाद जैन भानरेरी व्यवस्थापक कोर्ट गेड, सहारनपुर RRIRAMA - - मुद्रक, प्रकाशक पं. परमानन्दशास्त्री बीरपेवामंदिर, सरमाबाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কাজী विधि इति उभयानुभय हष्ट . निपधाउनुभय दृष्टि समTHI LiketN अनेकान्तात्म निषेपामा यातापिस तत्व उभय ष्टि (कमार्पिता) न्या विधयानुभय उभयतत्त्व Pain मोमवर Sinks - कि ग विधय गय चा नुभयमुनय मित्रमपि नहिग प्रत्यक नियमविषयेश्या परिमिा। मता न्या चापन मकन्नभानयागा वया गीत तत्त्व बहनय विवततरक्शाता - सम्पादक, जुगलकिशोरगरतार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ८ श्राजका मे० और जै० रत्नत्रय - [कौशलप्रसाद जैन ५७ E क्या गृहस्थ के लिये य० श्रावश्यक है - [पं० रवीन्द्रनाथ ६० १० जैनधर्मकी एक झलक - [पं० सुमेरचन्द्र दिवाकर ६२ ११ जैन० सामग्रीपर विशेषप्रकाश - [श्रीनगरचंद्रनाइटा ६५ १२ कवि-प्रतिबोध (कविता) - [पं० कपूरचंद्र जैन 'इन्दु' ६८ १३ सा० सम्यक्त्व के सम्बन्ध में शा० - [प्रो० हीरालाल जे न६६ १४ वी शामनकी उत्पत्तिका समय और स्थान - [सम्पादक ७६ बीरसेवामन्दिरको सहायता १ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने -- [सम्पादक २ अनेकान्त-रस- लहरी[सम्पादक ३ कवि-कर्तव्य (कविता ) [ श्रीभगवन जैन ४ प्रतीतस्मृति (एक स्केच ) - [पं० कन्हैयालाल 'प्रभाकर' ४७ ५. स्वाधीनताकी दिव्यज्योति (कहानी) - [श्रीभगवत जैन ४६ ६ साहित्यकी महत्ता - [पं० मूलचंद 'वस्मल' साहित्यशास्त्री ५४ ७ दुखका स्वरूप - [पं पुरुषोत्तमदास मुरारका, साहित्यरत्न ५६ 米 पृष्ठ ४१ ४३ ४६ गतवर्षी १२ वीं किरण में प्रकाशित सहायता के बाद, वीरसेवामन्दिर सरसावाको अनेकान्न सहायता के अलावा जो दूसरी फुटकर सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है और इसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र है:१०१) दिगम्बर जैन समाज नजीबाबाद जि० बिजनौर | ८०) ला० सुन्दरलाल सुपुत्र ला० सुनामलजी जैन फर्म- मेसर्स रामजीदास जैन, सदर बाजार, देहली, अनित्यभावना के प्रकाशनार्थ । ५१) बा० मोतीरामजी पुत्र श्रौर श्रीमती शकुन्वला देवीजी पुत्रवधू बा० पन्नालालजी जैन श्रमवाल, देवली, मंत्री वीरसेवामंदिर ( ग्रन्थ प्रकाशनार्थ) । २५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, मालिक हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय हीराबाग, बम्बई । २१) ला० उग्रसेनजी जैन, मुजफ्फरनगर (ग्रन्थप्रकाशनार्थ) । १०) श्री कान्तीलालजी, सी० गान्धी, दोहद | १०) ला० कन्नालाल, छनालालजी सर्राफ, खुरई जि० सागर । १०) भी जैनपंचायत, मुजफ्फरनगर । ५) बा० मंगतराय नानकचंदजी जैन, खतौली जि० मुजफ्फरनगर (लायब्रेरी के लिये ) | ५) ला० बलवन्तसिंह सुमतप्रसादजी जैन बतौली (लायब्रेरीके लिये) । ५) श्री दि० जैन तेरापंथी गांठ, बडनगर (उजन ) । १) ला ईश्वरचंदजी जैन, माग्बाडी लायब्रेरी, दहली । ३२४) - अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर' पुरातन जैनवाक्य-सूची जिस पुरातन जैनवाक्य-सूची (प्राकृतपचानुक्रमवी) नामक ग्रन्थका परिचय पिछली किरणोंमें दिया जा चुका है और जिसकी बाबत पाठक यह जानते का रहे हैं कि फेड कुछ महीनोंसे प्रेस में है, उसके सम्बन्धमें आज यह सूचना देते हुए प्रसन्नता होती है कि वह रूप गया है— सिर्फ प्रस्तावना तथा कुछ उपयोगी परिशिहों का अपना और उसके बाद बाइंडिंगका होना बाकी है, जो एक माहसे कम नहीं लेगा । प्रस्तावना तथा परिशिहों मैं प्राकृत भाषा और इतिहासादि सम्बन्धी कितने ही ऐसे महत्वके विषय रहेंगे जिनसे प्रत्यकी उपयोगिता और भी बढ़ जायगी । ३६ पौंडके उत्तम कागज पर छपे हुए इस सजिल्द प्रन्थका मूल्य पोष्टेल खर्चसे अलग १२) ६० होगा, जो प्रत्यकी तय्यारी और चपाई होने वाले परिश्रम और कागजकी इस भारी मँहगाईको देव हुए कुछ भी नहीं है जो सज्जन प्रकाशित होनेसे पहले १२ ) ३० मनीआर्डर से भेज देंगे उन्हें पोटेज नहीं देना होगा—प्रकाशित होते ही प्रथ डाक रजिष्टरीसे उनके पास पहुँच जायगा। प्रन्थकी कुल ३०० कापियां पाई गई है, जो शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगी, क्योंकि कितने ही आर्डर पहलेसे आए हुए हैं। wa: जिन सज्जनों, संस्थाओं काबिज तथा खायत्रेरियों आदिको आवश्यकता हो वे शीघ्र ही मनीभाईरसे रुपया निम्न पते पर भेज देवे अथवा अपना नाम दर्ज रजिस्टर करा लेवें । अधिष्ठाता 'बीर सेवामंदिर' सरसावा, जि० सहारनपुर । 米 Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ५ १604 समन्तभव-मारतीब नमूने सम्पादक पृष्ठ ।।१. मुझेमकहींसहारा (कविता) राजेन्द्रामार'कुमरेश। अनेकान्व-रस-बहरी--[सम्पादक " हिन्दीका प्रथमग्रामचरिबिनारसीदास चतुर्वेदी, पर्भया है?-4.वंशीधर व्याकणाचार्य... १२ चरवाहा (कहानी)--श्री भगवत्' जैन २५ अन्वर (कविता)-मुनि अमरचन्द्र १५ पयूषणपर्वऔरहमाराकर्तव्य बा.माविकचन्दबी.ए... और पुरुषार्थ-4. पुरुषोत्तमदास साहिबरन । | १७ हिन्दीके जैनकवि-श्री जमनालाल जैन विशारष २२) . सत्ताका ग्राहकार (कविता)-4. चैनसुलदास " १५ सफलताकी कुंजी-बा. उग्रसेन जैन M.A. १४ • समन्तभद्रकी महमति-म्या०प० वरचारीक्षा २ १६ कविकतन्य(कविता)-पं.काशीराम शर्मा 'प्रफुलित'१६ , बाहरे, मनुष्य मा.महावीरप्रसाद बी.ए. 1 0 सिंहभत्रको वीरोपवेश--गा. कामताप्रसाद . गवालिया लापन-प्रभुबास जैन 'प्रेमी' 10|15 जैनधर्मपर मजैन विद्वान् दशलक्षणपर्वमें दानका विशेष अधिकारी वीरसेवामन्दिर जैनसमाजकी प्रसिब साहियिक संस्था वीरसेवामन्दिर, मंत्रशाल, शम्यशासौर बंदशाब आदि अनेक विषयोंपर सरसापामें स्थायी कार्यहोरहा है और होने नया प्रकाश पडेगा और कितने ही ऐसे वैज्ञानिक विषय को यह बात पिवळे 'विशाल अंक' से पाठक भने प्रकार सामने भागे जिनसे जनता अब तक अपरिचित ही रही जानपुर। यहां पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता है। और जिनसे लोकमें जैनाचार्योका गौरव म्यक होगा है कि यह संस्था पुरातन-विमर्श-विचषण पं.जुगलकिशोर और साथ ही ऐसे साहित्य प्रकारामसे जैनसमाजका मी जी मुख्तार 'युगवीर' की अध्यक्षतामे, जिन्होंने अपनी गौरव बढ़ेगा। हजारकी सम्पत्तिका बसीयतनामा भी संस्थाके नाम संक्षेपमें, संस्थाके सामने बहुत ही बड़ा तथा महत्वका लिस विचार और जो स्वयं दिन-रात चौबीसों घंटे सेवा- ठोस कार्य पाहुना है, परन्तु पंजी थोडीहै। अतः यह कार्यमें ही रत रहते है, समाजभनेक प्रसिद्ध विद्वानोंके संस्था दशलक्षण में सबसे अधिक वान पानेकी सहयोगसे शोध-खोज.नुसन्धान और प्रथनिर्माणादिका अधिकारिकी। भारी काम कर रही है। इसमें सुप्तप्राय जैनशा की खोज माशा सभी स्थानों के सजन अपने बानका अधिकी जाती,धर्मअनेक गृह और गंभीर सवोंको कई कांश भाग इस संस्थाको मेजकर इसके सत्कार्यों में अवश्य सखीसे बाजकी सरल भाषामें जनता के सामने रखा जाता अपना सहयोग प्रदान करेंगे और इस तरह अपने कर्तव्यका और कितनी ही उखमनोंको मुखमापा जावा, जिसके पालन करते हुए संचासकोकोधिकाधिक रूपसे सेवाके लिए संस्थाका मुखपत्र 'ममेकाम्स' बना काम कर रहा । लिये प्रोत्साहित करेंगे। हाखामें इस संस्थाने प्राचीन जैनाचार्यो मादिके बनाये हुए ऐसे प्रयोंके नई सैबीसे अनुवाद, सम्पादन और निवेदकप्रकासनका भारी पीया उठाया ओचमी तक साधारण पनालाल जैन अग्रवाल जनताके सामने नहीं बारहे हैं और जिनके प्रकाशनसे मंत्री बीरसेवामन्दिर' अध्यात्मशाख, ज्योतिषशाख, निमित्तशाच, प्रश्नशान, सरसावा, जि. सहारनपुर। भूत-सुधार प्रेसकी गलतीसे पु.नं. और पर प्रथम काखममें साइन बोटील गई है, जबकि बह बाइन , सेबही होनी चाहिये थी। मतः पाठक बोनों स्थानोंपर उसे नीचेको बाहन से बस बनास मूलके लिये हम सम्पादक महोरबसे समा जाते है। -काशीराम शर्मा व्यवस्थापक श्रीवास्तव प्रेस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ४) ७० नीतिविरोषसीलोकव्यवहारवर्तकसम्बन्। परमागमस्यबीज भुवनेगुरूर्जपत्यानेकान्तः वर्ष ६, किरण २४ बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर आश्विन वीरनिर्वाण सं० २४१६, विक्रम सं० २०.. सितम्बर ३ समन्तभद्र-भारतोके कुछ नमूने [ १५ ] श्रीधर्म-जिन-हतोत्र धर्मतीर्थमन, प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । कर्मकचमदहत्तपोऽग्निभिः शर्म शाश्वतमवाप शहरः॥१॥ '(हे धर्मनिन) अमषधधर्मतीर्थको-सम्यग्दर्शनादिरूप धमतीर्थको अथवा सम्यग्दर्शनाद्यात्मक धर्म के प्रतिपादक श्रागमतीर्थको--(लोकमें) प्रवर्तित करते हुए श्राप सत्पुरुषों द्वारा 'धर्म' इस सार्थक संज्ञाको लिये हुए माने गये है, । मापने (विविध) तपरूप भाग्नयोंसे कर्म-वनको जलाया है, (फलत:) शाश्वत-भवनश्वर सुख प्राप्त किया है (और इस लिये) भाप शंकर हैं-कर्मबनको दान कर अपनेको और धर्मतीर्थको प्रवर्तित कर सकल प्राणियोंको सुखके करने वाले हैं। देव-मानव-निकाय-सत्तमै रेजिये परिवृतो वृतो पुः। तारका-परिवृतोऽतिपुष्कलोव्योमनीव शशवायनोऽमतः॥२॥ .. 'जिस प्रकार पन-गटलादि-मनसे रहित पूर्णचन्द्रमा भाकाशमें ताराघोंसे परिवेष्ठित हुमा शोभता है उसी प्रकार हे धर्मजिन) माप देव और मनुष्योंके उत्तम समूहोंसे परिवेष्ठित तथा गणधरादिपुषजनोंसे परिवारित (सेविन) पुष (समवसरण सभामें) शोभाको प्रार ।' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनेकान्त प्रातिहार्य विभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोचमार्गमशिषन्नरामराज्ञापि शासन फलेषणातुरः ॥ ३ ॥ 'प्रातिहार्यो और विभवोंसे - छत्र, चमर, मिहासन, भामंडल, अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि और दिव्यध्वनिरूर आठ प्रकार के चमत्कारों तथा समत्रसरणादि विभूतियोंसे - विभूषित होते हुए भी आप उन्होंसे नहीं किन्तु देहसे भी विरक्त रहे हैं - अपने शरीरसे भी आपको ममत्व एवं रागभाव नहीं रहा । (फिर भी तीर्थकर प्रकृतिरूप पुण्यकर्मके उदयसे) आपने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिखलाया है-मुक्तिकी धामिके लिये सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप अमोघ उपाय बतलाया है । परन्तु आप शासन-फलकी पपणासे यातुर नहीं हुए-कभी श्रापने यह इच्छा नहीं की कि मेरे उपदेशका फल जनताकी भक्ति अथवा उसकी कार्यसिद्धि आदि के रूप में शीघ्र प्रकट होवे; और यह सब परिणति श्रापकी वीतरागता, परिमुक्तना और उच्चनाकी द्योतक है। जो शासन- फलके लिये आतुर रहते हैं वे ऐश्वर्यशाली होते हुए भी क्षुद्र संसारी जीव होते हैं। इसीसे वे प्राय: दम्भके शिकार होते हैं और उनसे सच्चा शासन बन नहीं सकता । कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाऽभवंस्तव सुनेश्चिकीर्षया । नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकर्मचिन्त्यमीहितम् ॥ ४ ॥ [ वर्ष ६ आप प्रत्यक्षज्ञानी मुनिके मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ उन्हें प्रवृत्त करने की इच्छासे नहीं हुई; (ब क्या श्रसमीक्ष्यकारित्व के रूप में हुई ?) यथावत् वस्तुस्वरूपको न जान कर समीक्ष्य कारित्व के रूप में भी वे नहीं हुई । इस तरह हे धीर, धमजिन ! आपका ईहित-चरित अचिन्त्य है-उसमें वे सब प्रवृत्तियाँ आपकी इच्छा और असमीक्ष्यकारिता के नीर्थंकर नामकर्मोदय तथा भव्य जीवों के अदृष्ट (भाग्य) - विशेषके वशम होती हैं ।' मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ ! परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥ ५ ॥ - स्वयम्भूस्तोत्र -हे नाथ! चूँकि आप मानुषी प्रकृतिको मानव स्वभावको प्रतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं—पूज्य है - इस लिये श्राप परम- उत्कृष्ट देवता हैं—पूज्यतम है। अतः हे धर्मेजिन ! आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, हम प्रसन्नतापूर्वक रसायन सेवनकी तरह आपका श्राराधन करके संसार-रोग मिटाते हुए अपना पूर्ण स्वास्थ्य (मोक्ष) सिद्ध करने में समर्थ होवें । भावार्थ- 'श्रेयसे प्रसीद नः--आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें ' यह श्रलंकृत भाषा में भक्त की प्रार्थना है, जिसका शब्दाशय यद्यपि इतना ही है कि श्राप इस पर प्रसन्न होनें और उस प्रसन्नताका फल हमें हमारे कल्याणके रूप में प्राप्त होवे; परन्तु वीतरागदेव किसी पर प्रमन्न या प्रसन्न नहीं हुआ करते - वे तो सदा ही श्रात्मस्वरूप में मन और प्रसन्न रहते हैं, फिर उनसे ऐसी प्रार्थनाका कोई प्रयोजन नहीं । वास्तव में यह अलंकृत भाषामय - प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है और इसका फलितार्थ यह है कि हम वीतरागदेव श्रीधर्मजिनका प्रसन्न हृदयसे प्राराधन करके उनके साथ तन्मयता प्राप्त करें और उस तन्मयताके फलस्वरूप अपना आत्मकल्याण सिद्ध करनेमें उसी प्रकार से समर्थ होतें जिस प्रकार कि रसायन के प्रसाद से प्रसन्नतापूर्वक रसायनका सेवन करनेसे--- रोग जन श्रारोग्य-लाभ करने में समर्थ होते हैं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त-रस-लहरी [इस स्तम्भके नीचे लेख लिखनेका सभा विद्वानोंको मादर आमंत्रण है। लेखका लक्ष्य वही होना चाहिये जिसका निर्देश इस स्तम्भको प्रारम्भ करते हुए पिछली किरणमें किया गया है। -सम्पादक) में लिया अपच की होगा बड़ेसे छोटा और छोटेसे बड़ा अध्यापक वीरभवने दूसरी कक्षामें पहुँच कर उस कक्षा जादूगर ही कर सकता है। के विद्यार्थियोंको भी वही नया पाठ पढ़ाना चाहा जिसे वे अध्यापक-(दूसरे विद्यार्थियोंसे) अच्छा, तुम्हारेमेंसे अभी अभी इससे पूर्वकी एक कक्षा पदाकर पाए थे. परंतु कोई विद्यार्थी इस लाइनको हमारे अभिप्रायानुसार छोटा यहाँ उन्होंने पढ़ानेका कुछ दूसरा ही ढंगफ्रितयार किया। या बड़ा कर सकता है। सप विद्यार्थी-हमसे यह नहीं हो सकता। इसे तो वे बोर्डवर तीन चीकी - कोई जादूगर या मंत्रवादी ही कर सकता है। लाइन खींच कर एक विद्यार्थीसे बोले-क्या तुम इस अध्यापक-जब जादूगर या मंत्रवादी इसे बड़ी छोटी लाइनको छोटा कर सकते हो? विद्यार्थीने उत्तर दिया कर सकता है तब तुम क्यों नहीं कर सकते? हाँ, कर सकता हूँ और वह उस लाइनको इधर-उधरसे विद्यार्थी-हमें बसे छोटा और चोटेसे बना करनेका कुछ मिटानेकी चेष्टा करने लगा। यह देख कर अध्यापक वह जातू या मंत्र माता नहीं। महोदयने कहा-'हमारा यह मतलब नहीं है कि तुम इस लाइनके सिरोंको इधर-उधरसे मिटा कर अथवा इससे 'अच्छा हमें तो वह जादू करना पाता है। बतलायो कोई टुकड़ा तोड़ कर इसे छोटी करो। हमारा भाशय यह इस लाइनको पहले छोटो करें या बदी?' अध्यापकने पूछा। है कि यह लाइन अपने स्वरूपमें ज्योंकी यों स्थिर रहे, 'जैसी भापकी इच्छा, परन्तु श्राप भी इसे छरें नहीं इसे तुम इचो भी नहीं और छोटी करदो।' यह सुन कर और इसे अपने स्वरूपमें स्थिर रखते हुए छोटी तथा बड़ी विद्यार्थी कुछ भींचक सा रह गया ! तब अध्यापकने कहा करके बतलाएँ।' विद्यार्थियोंने उत्तर में कहा। 'अच्छा, तुम इसे छोटा नहीं कर सकते तो क्या बिना छए _ 'ऐमा ही होगा' कह कर, अध्यापकजीने विद्यार्थीसे बना कर सकते हो।' विद्यार्थीने कहा-'हो कर सकता हूं' कहा-'तुम इसके दोनों भोर मार्क कर दो-पहचानका और यह कह कर उसने दो इंचीकी एक लाइन उस लाइन कोई चिन्ह बना दो, जिससे इसमें कोई तोब-जोड या बदख-सवल न हो सके और यदि हो तो उसका शीघ्र के बिल्कुल सीधमें उसके एक सिरेसे सटा कर बनादी और इस तरह उसे पांच इंचीकी लाइन कर दिया । पता चल जाय।' विद्यार्थीने दोनों चोर दो गोल गोल चिन्ह बना दिये। फिर अध्यापकजीने कहा 'फुटा रखकर इसकी इस पर अध्यापक महोदय बोल उठे-- पैमाइश भी करलो और वह इसके ऊपर लिख दो'। 'बह क्या किया? हमारा अभिप्राय यह नहीं था कि विद्यार्थीने फुटा रख कर पैमाइश की तो लाइन ठीक तीन तुम इसमें कुछ टुकवा जोब कर इसे बड़ा बनायो, हमारा चीकी निकली और वही लाइनके उपर लिख दिया गया। मन्शा यह है कि इसमें कुछ भी जोबा न जाय, लाइन अपने तीनचाके स्वरूपमें ही स्थिर रहे-पांच इंची जैसी इसके बाद अध्यापकजीने बोर्ड पर एक भोर कपड़ा न होने पाये-और बिनाए ही बड़ी कर दी जाय।' बाबकर कहा--'भब हम पहले इस लाइनको बोटी विद्यार्थी--बह से हो सकता है। ऐसा कोई समाते और बीटी होनेका मंत्र बोलते हैं। साथ ही Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे ६ - कपडेको एक पोरसे उठा कर “होजा छोटी, होजा छोटी" भी कोई बात नहीं है। का मंत्र बोलते हुए वे बोर्ड पर कुछ बनाने हीको थे कि अध्यापक-अगर कोई विद्यार्थी तबीचली इसनेमें विणार्थी बोल उठे-- को एक बार अपरकी लाइनसे छोटी और दूसरीबार ऊपर 'चा तो पर्देकी मोटमें लाइनको छूते हैं। पर्देको हटा की लाइनसे ही बड़ी बतलावे. और इस तरह इसमें छोटाकर सबके सामने इसे छोटा कीजिये।' पन तथा बडापन दोनोंका विधान करे तब भी विरोधकी अध्यापकजीने बोर्ड पर डाला हुमा कपडा हटा कर क्या कोई बात नहीं है। कहा-'अच्छा, अब हम इसे खुले बाम छोटा किये देते हैं विद्यार्थी-इसमें जरूर विरोधाएगा। एक तो उस और किसी मंत्रका भी कोई सहारा नहीं लेते।' यह कह के कथनमें पूर्वापर विरोध पाएगा, क्यों कि पहले उसने कर उन्होंने उस तीन इंची लाइनके उपर पांच इंचकी जिसको जिससे छोटी कहा उसीको फिर उससे बडीबतलाने बाइन बना दी और विद्यार्थियोंसे पूछा-- लगा। दूसरे, उसका कथन प्रत्यक्षके भी विरूद्र ठहरेगा; क्योंकि ऊपरकी नाइन नीचेकी लाइनसे साक्षात् बबी नजर भाती है, उसे छोटी बतलाना इष्ट-विरुद्ध है। काहारी मार्क की हुई नीचेकी नाहन ऊपर अध्यापक--यह क्या बात है कि तुम्हारे बड़ी छोटी की लाइनसे छोटीया कि नहीं? और बिना किसी अंश बतलाने में तो विरोध नहीं, और दसरेके बदी छोटी बतके मिटाए या तो अपने तीन इंचीके स्वरूपमें स्थिर रहते लाने में विरोध पाता है? हुए भी छोटी हो गई है या कि नहीं? विद्यार्थी-मैंने एक अपेक्षासे छोटी और दूसरी अपेक्षा सब विद्यार्थी-हो हो गई है। यह रहस्यकी बात से बड़ी बतलाया है। इस तरह अपेक्षाभेदको लेकर भिक पहले हमारे ध्यान ही नहीं पाई थी कि, इस तरह भी कथन करने में विरोध लिये कोई गंजाइश नहीं रहती। बदीसे छोटी और छोटीसे बड़ी चीज हुमा करती है। अब दूसरा जिस एक अपेक्षासे उसे छोटी बतलाता है उसी एक तो भाप नीचे छोटी लाइन बना कर इसे बदी भी करदेंगे।' अपेक्षासे बड़ी बतलाता है, इस लिये अपेक्षाभेद न होने के अध्यापकजीने तुरंत ही नीचे एक इंचकी लाइन बना कारण उसका भिव कथन विरोधसे रहित नहीं हो सकताकर उसे साक्षात् बबा करके बसला दिया। वह स्पष्टतया विरोध-दोषसे दूषित है। अध्यापक--तुम ठीक समझ गये। अच्छा अब इतना और बतलामो कि तुम्हारी इस मार्क की हुई बीचकी लाइन को एक विद्यार्थी 'छोटी ही है। ऐसा बतलाता है और दूसरा अब मध्यापक वीरभद्रने फिर उसी विद्यार्थीसे पूछा-- विद्यार्थी कहता है कि 'बबी ही है, तुम इन दोनों 'तीनों वाहनों की इस स्थिति में तुम अपनी मार्क की हुई कपनोंको क्या कहोगे? तुम्हारे विचारसे इनमेंसे कौनसा उसबीचकी लाइनको, जोबसे छोटी और छोटेसे बड़ी कथन ठीक है और क्यों कर? हुई है, क्या कहोगे-छोटी या बी?' विद्यार्थी-दोनों ही ठीक नहीं है। मेरे विचारसे जो विद्यार्थी--वह बोटी भी है और बड़ी भी। 'छोटी ही (सर्वथा छोटी) बतखाता है उसने नीचेकी एक अध्यापक-दोनों एक साथ कैसे?' रंची लाइनको देखा नहीं, और जो 'बबीही (सर्वथा बबी) विद्यार्थी--ऊपरकी लाइमसे छोटी और नीचेकी लाइन बतलाता है उसने ऊपरकी पांच लाइन पर रष्टि नहीं से बड़ी है अर्थात स्वयं तीन चीकी होनेसे पांच इंची गली। दोनोंकी दृष्टि एक तरफा होनेसे एकांगी है, एकान्त बाइनकी अपेक्षा खोटी और एक इंची लाइनकी अपेक्षा है, सिके अथवा डालकी एक ही साइर (sid-)को देख बड़ी है। और यह छोटा-बदापन दोनों इसमें एक साथ कर उसके स्वरूपका निर्वाय कर लेने जैसी है, और इसलिये प्रत्यक्ष होनेसे इनमें परस्पर विरोष तथा असंगति-जैसी सम्मगष्टि न होकर मिथ्यारष्टि है। जो अनेकान्तरष्टि होती Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] अनेकान्त-रस-लहरी - है वह वस्तुको सब मोरसे देखती है--उसके सब पहलुओं और एकची लाइनकी अपेक्षा बड़ी ही इस कहने में पर नजर गलती है-इसी लिये उसका निर्णय ठीक विरोधकी कोई बात नहीं है। विरोध नहीं पाता है जहां होता है और वह 'सम्यग्रष्टि' कहलाती है। यदि उन्होंने छोटा-बड़ापन जैसे सापेच धर्मों अथवा गुणोंको निरपेकऊपर नीचे रष्टि डाल कर भी पैसा कहा है तो कहना रूपसे कथन किया जाता है। मैं समझता हूंब तुम इस चाहिये कि वह उनका कदाग्रहहै-हठधर्मी है; क्योंकि विरोध-प्रविरोधके तत्वको भी और अच्छी तरहसे समम उपर नीचे देखते हुए मध्यकी खाइन सर्वथा छोटी या गये होगे। सर्वथा बड़ी प्रतीत नहीं होती और न स्वरूपसे कोई वस्तु विद्यार्थी-हाँ, मापने खूब समझा दिया है और मैं सर्वथा छोटी या सर्वथा बड़ी हुमा करती है। अच्छी तरह समझ गया हूँ। अध्यापक-मानलो, तुम्हारे इस दोष देनेसे बचनेके अध्यापक-अच्छा, अब मैं एक बात और पूछता लिये एक तीसरा विद्यार्थी दोनों एकान्तोंको अपनाता है-- ई-कल तुम्हारी कक्षामें जिनदास नामके एक स्थावादी-- 'छोटी ही है और बढ़ी भी है' ऐसा स्वीकार करता है, स्याद्वादन्यायके अनुयायी-माए थे और उन्होंने मोहन परन्तु तुम्हारी तरह अपेक्षावादको नहीं मानता। उसे तुम सकेको देख कर तथा उसके विषय में कुछ पूछ- साकर क्या कहोगे? कहा था "यह तो छोटा है"। नन्होंने यह नहीं कहा कि विद्यार्थी थोडा सोचने लगा, इसनेमें अध्यापकजी 'यह छोटा ही है.' यह भी नहीं कहा कि वह सर्वथा छोटा बोल उठे-'इसमें सोचनेकी क्या बात है? उसका कथन है और न यही कहा कि यह 'भमुककी अपेक्षा अथवा भी विरोध-दोषसे दूषित है; क्यों कि जो अपेक्षावाद अथवा अमुक विषयमें छोटा है' तो बतजामो उनके इस अथनमें स्याद्वाद-न्यायको नहीं मानता उसका उभय एकान्तको क्या कोई दोष भाता है। और यदि नहीं पाता तो लिये हुए कचन विरोध-दोषसे रहत हो ही नहीं सकता-- क्यों नहीं? अपेक्षावाद अथवा 'स्यात' शब्द या स्पात शब्दके भाशय इस प्रश्नको सुन कर विद्यार्थी कुछ बरसेमें पब गया को लिये हये 'कथंचित्' (एक प्रकारसे) जैसे शब्दोंका और मन-ही-मन उत्तरकी खोज करने लगा। जब उसे साथमें प्रयोग ही कथनके विरोध-दोषको मिटाने वाला है। कई मिनट होगये तो मध्यापकजी बोल उठे--'तुम तो 'कोई भी वस्तु सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं हुभा करती' बड़ी मोचमें पड़ गये ! इस प्रश्न पर इतने सोच-विचार यह बात तुम अभी स्वयं स्वीकार कर चुके हो और वह का क्या काम? यह तो स्पष्ट ही है कि जिनदास स्याद्वादी ठीक है, क्योंकि कोई भी वस्तु स्वतंत्ररूपसे अथवा स्व- है, उन्होंने स्वतंत्ररूपसे 'ही' तथा 'सर्वथा' शब्दोंका साथमें भावसे सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं है--किसी भी वस्तुमें प्रयोग भी नहीं किया है, और इस लिये उनका कथन प्रकट छोटेपन या बदेपनका व्यवहार सरेके भाश्रय अथवा रूपमें स्यात' शब्द प्रयोगको साथमें न लेते हुए भी पर-निमित्तसे ही होता है, और इस लिये उस पाश्रय स्यात्' शब्दसे अनुशासित है--किसी अपेक्षा विशेषको अथवा निमित्तकी अपेक्षाके विना वह नहीं बन सकता। लिये हुए है। किसीसे किसी प्रकारका छोटापन उन्हें विषअतः अपेक्षासे उपेक्षा धारण करने वालोंके ऐसे कथनमें चित था. सीसे यह जानते हुए भी कि मोहन भनेकॉसे सदाही विरोध बना रहता है। 'ही' की जगह 'भी' अनेक विषयों में पदा' है. उन्होंने अपने विचलित अर्थक का भी प्रयोग कर तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रत्युत अनुसार उसे उस समय 'छोटा' कहा है। इस कथनमें इसके, जो स्याद्वादन्यायके अनुयायी है--एकअपेक्षासे बोषकी कोई बात नहीं है तुम्हारे हदय में शायद यह छोटा और दूसरी अपेक्षासे बड़ा मानते हैं- साथमें यदि प्रश्न उठ रहा है कि जब मोहनमें छोटापन और बडापन ही शब्दका भी प्रयोग करते है तो उससे कोई बाधा नहीं दोनों ये सब जिमदासजीने रसे छोटा क्यों कहा, बड़ा क्यों माती-विरोधको जरा भी अवकाश नहीं मिलता, जैसे नहीं कह दिया, इसका उत्सर इतना ही है कि-'मोहन तीन इंची खाइन पांचांची खाइनकी अपेक्षा छोटी ही है उनमें, कब, स्पमें, बनमें, विद्या, चतुराई और Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनेकान्त [ वर्षे माचार-विचारमें बहुतोंसे छोटा है और बहुत से बढ़ा है। शेषका उक्त पदके माश्रयसे परिवर्जन (गौणीकरण) हो जिनदासजीको जिसके साथ जिस विषय अथवा जिन जाता है।... विषयों में उसकी तुलना करनी थी उस तुलनामें वह छोटा अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या अभी चल ही रही पाया गया, और इस लिये उन्हें उस समय उसको छोटा थी कि इतने में घंटा बज गया और वे दूसरी कक्षामें जामेके कहना ही विवपित था वही उन्होंने उसके विषय में कहा। खिये उठने लगे। यह देखकर कचाके सब विद्यार्थी एक जो जिस समय विवचित होता है वह 'मुख्य' कहलाता है दम खये हो गये और अध्यापकजीको अभिवादन करके और जो विषषित नहीं होता वह 'गौय' कहा जाता है। कहने लगे-'भाज तो मापने तत्वज्ञानकी बड़ी बड़ी मुख्य-गौणकी इस व्यवस्थासे ही वचन-व्यवहारकी ठीक गंभीर तथा सूचम बार्तीको ऐसी सरलता और सुगम रीति म्यवस्था बनती है। अत: जिनदासजीके उक्त बथनमें दोषा- से बातकी बातमें समझा दिया है कि हम उन्हें जीवनभर पत्तिक लिये कोई स्थान नहीं है। अनेकान्तके प्रतिपादक भी नहीं भल सकते । स उपकारके लिये हम भापके भ्याद्वादियोंका 'स्यात' पदका प्राश्रय तो उनके कथनमें आजन्म ऋणी रहेंगे।' अतिप्रसंग जैसा गबबब-गुठाला भी नहीं होने देता। बहुत से छोटेपनों और बहुतसे बडेपनों में जो जिस समय कहने वीरसेवामन्दिर, सरसावा, । जुगलकिशोर मुख्तार वाखेको विवचित होता है उसीका ग्रहण किया जाता - ना.३० सितम्बर १६४३ , - - कवि-कर्तव्य मानवता की इस प्यालीमें, रस है कहाँ, कि जो छलकाएँ More हमने समझा, सुख-दुख क्या है ? सिर्फ मानने ही भर का है! 'ले 'विवेक' से काम निरन्तर-' 'ज'वन' की यह परिभाषा है!! दुख-सुख दोनों ही 'बन्धन' हैकहने को कुछ भी कहलाएँ ! माया के जाले से सहसाश्राज निकलना सहज नहीं है! तनिक निकल कर देख लीजिएमक्ति नहीं, तो स्वर्ग यहीं है!! चेष्टाएँ निष्फल होतों जब कैसे हम सुख-पथ पर आएँ ? सिसक रही मानवता-मृदुतापनप रही जग में निष्ठुरता! 'सत्य' 'शान्ति'की होली जलती"हिंसा' है छू रही अमरतो !! मन दबोच रक्खा है जिननेउनसे पहले पिण्ड छुड़ाएँ! धना-साथ लेकर बढ़ते हैंहोते हैं जब उसमें असफल ! रक्त बहाने तक में उन कानहीं काँपता तच अन्तस्तल !! श्रात्म ज्ञान के बिना व्यर्थ हैं पूरब - पश्चिम की चर्चाएँ ! जो कुछ भी संकट आया है! सब, अपने उर की छाया है ! खोकर ज्ञान, अँधेरा पायावही 'अँधेर।' रंग लाया है!! मीठे-श्राम चाहती, जड़ताखाएँ या कि नहीं खा पाएँ? करनी का फल सब पाते हैं! करके ही सब पछताते है!! पहले क्यों न सोच लेते वरजो ऐसे अवसर पाते हैं! आखिर यही उचित लगता हैअपने ही को हम अपनाएँ! अनेकान्तमें प्रकाशित । - इसी शीर्षककी कविता का दूसरा पहलू] [श्री 'भगवत्' जैन] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत स्मृति ___ स्व० ला० जम्बूप्रसाद जैन रईस * श्री कन्हैयालाल मित्र सहारनपुर यू०पी० 'प्रभाकर' - - - - --HTASE NSES ('अनेकान्त' की प्रायः प्रत्येक किरण में इस स्तम्भके अन्तर्गत समाजके उन स्वर्गवासी महानुभावोंके जीवनसंस्मरण रहा करेंगे जिन्होंने अपने जीवन में धर्म, समाज, जाति और गष्ट्रकी सेवामें कुछ भी सहयोग दिया है।) "सारा समाज सोजाये, कोई साथ न दे, तब आपरेशन हुथा। मृत्यु सामने खड़ी थी, जीवन दूर भी मैं लडूंगा!" दिखाई देता था, सबने चाहा कि वे पास रहे, पर उन्हें राज्यने सम्मेद शिखरजी का तीर्थ श्वेताम्बर अवकाश न था, वे न पाये। यह उनकी धुन, उनकी समाजको बेच दिया था और उससे तीन प्रश्न लगनकी एक तस्वीर है, बहुत चमकदार और पूजाके उभर आये थे । श्वेताम्बरोंका आग्रह था कि लायक, पर यह अधूरी है यदि हम यह न जानलें कि हम दिगम्बरोंको इस तीथकी यात्रा न करने देंगें, यह तब लाला जम्बूप्रसाद किस स्थितिमें थे, जब समाजके दिगम्बरियोंका घोर अपमान था, यह पहला प्रश्न। अपमानका यह चैलेंज उन्होंने स्वीकार किया था। राज्यको तीर्थ बेचनेका अधिकार नहीं है, क्योंकि सन् १८७७ में जन्मे और १६०० में इस स्टेटमें तीर्थ कोई सम्पत्ति नहीं है, यह दूसरा प्रश्न । और दत्तक पुत्रके रूपमें आये। तब वे मेरठ कालिजके तीर्थक सम्बन्धमें दिगम्बरों के अधिकारका प्रश्न । एकहोनहार विद्यार्थी थे। १८४३ में उनका विवाह दिगम्बर समाजका हरेक आदमी बेचैन था, पर हो गया था.परहिवा हो गया था, पर विवाहका बन्धन और इतनी बड़ी कोरी बचैनी क्या करेगी? यहाँ तो आगे बढ़कर एक स्टेटकी प्राप्ति उनके विद्या-प्रमको न जीतमकी और पूरा युद्ध सिरपर लेनेकी बात थी, उसके लिये प्रायः वे पढ़ते गए, पर कुटुम्बके दूसरे सदस्य स्टेटके अधिकोई तैयार न था। इतने विशाल समाज में एक सिर कारी बनकर आये और मुकदमेबाजी शुरू हुई। उभरकर उठा, एक कदम आगे बढ़ा और एक बाणी यह जीवन-मरणका प्रश्न था, कालेजको नमस्कारकर सबके कानों में प्रतिध्वनित हुई वे इस संघर्ष में आकूदे और १६०७ में विजयी हुए। "सारा समाज सो जाये, कोई साथ न दे, तब भी स्व० पण्डित मोतीलाल नेहरू प्रिविौसिल में आपके मैं लहूंगा। यह दिगम्बर ममाजक जीवन-मरणका वकील थे और आपकी विजय, किसी विवाहित युवाके प्रश्न है। मैं इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता!" दत्तक होनेकी पहली नजीर थी । यह विजय बहुत यह सहारनपुर के प्रख्यात ईस ला० जम्यूप्रसाद बड़ी थी, पर बहुत मँहगी भी । स्टेट की आर्थिक जी की वाणी थी, जिसने सारे समाज में एक नव स्थितिपर इसका गहरा प्रभाव पड़ा था और आप चेतनाकी फुहार परमादी । मीठे बोल बोलना भले ही उमे सम्भाल ही रहे थे कि शिस्वरजीका आह्वान मुश्किल हो, ऊँचे बोल बोलना बहुत सरल है। इस आपने स्वीकार कर लिया। सरलतामें कठिनताकी सृष्टि तब होती है, जब उनके हमने ला० जम्बूप्रसादजीको नहीं देखा, पर इस अनुसार काम करनेका समय आता है। लालाजीने ऊँचे बोल बोले और उन्हें निबाहा, ५० हजार सारी स्थितिकी हम सही सही कल्पना करते हैं, तो चान्दीके सिके अपने घरमे निकालकर उन्होंने खचे एक दृढ़ आत्माका चित्र हमारे मामने बाजाता है। किये। और श्रीला० देवीसहायजी फीरोजपुर निवासी आन्धियों में अकम्प और संघर्षों में शान्त रहने वाली एवं श्री तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बईके कन्धेसे कन्धा मिला यह दृढ़ता, परिस्थितियोकी ओर न देरू.कर, लक्ष्यकी कर पूरे २॥ वर्ष तक रात दिन अपनेकोभूले, वे उसमें ओर देखने वाली यह वृत्ति ही वास्तवमें जम्यूप्रमाद जुटे रहे और तब चैनसे बैठे, जब समाजके गलेमें थी, जो लाला जम्बूप्रसाद नामके देहके भस्म होनेपर विजयकी माला पड़ चुकी। भी जीवित है, जागृत है, और प्रेरणाशील है। मुकदमेके दिनों में ही उनकी पत्नीका भयहर इस तस्वीरका एक कोना और हम मॉकलें। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ अब तक देखे तीनों कोनोंमें गहरे रंग है, दताके संस्थाओंके वे सभापति और संचालक रहे और और अकम्पके, पर चौथे कोने में बड़े 'लाइट कलर'. समाजका जो कार्य कोई न कर सके, उमके करनेकी है-हल्के हल्के झिलमिल और सुकुमार । क्षमता उनमें मानी जाने लगी। धर्मके प्रति आस्था जीवनके साथ लिये ही जैसे समाजकी यह पूजा पाकर भी, उनमें पूजाकी वे जन्मे थे।कालेजमें भी स्वाध्याय-पूजन करते और प्यास न जगी। उन्होंने जीवनभर काम किया, यशके धर्म कायों में अनुरक्त रहते । कालेजमें उन्हें एक साथी लिये नहीं, यह उनका स्वभाव था, बिना काम किये मिले ला० धूमसिंह । ऐसे साथी कि अपना परिवार वे रह नहीं सकते थे। उनकी मनोवृत्तिको समझनेके छोड़कर मृत्युके दिन तक उन्हीं के साथ रहे । ला० लिये यह आवश्यक है कि हम यह देखें कि सरकारी जम्वप्रेसादके परिवारमें इसपर ऐतराज़ हुआ, तो अधिकारियों के साथ उनका सम्पर्क कैसा रहा? बोले-मैं यह स्टेट छोड़ सकता हूँ, धूमसिंहको नहीं उनके नामके साथ, अपने समयके एक प्रतापी छोड़ सकता । और वाकई जीवनभर दोनोंने एक पुरुष होकर भी, कोई सरकारी उपाधि नहीं है। इस दूसरेको नहीं छोड़ा। उपाधिके लिये खुशामद और चापलूमी की जिन दत्तक पुत्रोंका सम्बन्ध प्रायः अपने जन्म-परिवार व्याधियों की अनिवार्यता है, वे उनसे मुक्त थे। उनके के साथ नहीं रहता, पर वे बराबर सम्पर्क में रहे और जीवनका एक कम था-भाज तो सरकारी अधिकारी सेवा करते चले। अपने भाईकी बीमारीमें १००) रु० ही अपने मिलनेका समय नियंत करते हैं, पर उन्होंने रोजपर वर्षों तक एक विशेषज्ञको रखकर, जितना स्वयं ही सायंकाल ५ बजेका समय इस कार्यके लिए खर्च उन्होंने किया, उसका योग देखकर आँखें खुली नियतकर रक्खा था। जिलेका कलकर यदि मिलने ही रह जाती हैं! माता, तो उसे नियमकी पाबन्द करनी पड़ती, अन्यथा १९२१ में, अपनी पत्नीके जीवनकाल में ही आपने वह प्रतीक्षाका रस लेनके लिये बाध्य था। ब्रह्मचयका व्रत लेलिया था और वैराग्यभावसे रहने - लखनऊ दरबारमें गवर्नरका निमन्त्रण उन्हें मिला। लगे थे। अप्रल १९२३ में वे देहलीकी बिम्बप्रतिष्टामें उन्होंने यह कहकर उसे अस्वीकृत कर दिया कि मैं तो गये और वहां उन्होंने यावन्मात्र बनस्पतिके आहारका ५ बजे ही मिल सकता हूँ, विवश, गवर्नर महोदयको त्यागकर दिया। जून १९२३ में उन्होंने अपने श्रीमन्दिर समयकी ढील देनी पड़ी।आजके अधिकांश धनियोंका की वेदी प्रतिष्ठा कराई और इसके बाद तो वे एक दम नियम तो दारोगाजीकी पुकारपर ही दम तोड़ देता उदासीन भाव-सुख दुखमें समता लिये रहने लगे। है। कई बार उन्हें आनरेरी मैजिस्टेट बनानेका, प्रारम्भसे ही उनकी रुचि गम्भीर विषयोंके प्रस्ताव माया, पर उन्होंने कहा-मुझे अवकाश ही अध्ययनमें थी-कालेजमें. बी०ए० में पढ़ते समय, नहीं है। यह उनके अन्तरका एक और चित्र, साफ लाँजिक, फिलासफी और संस्कृत साहित्य उनके प्रिय और गहरा। विषय थे। अपने समयके श्रेष्ठ जेन विद्वान श्री पन्ना- १० अगस्त १९२३ को वे यह दुनिया छोड़ चले। लालजी न्यादिवाकर सदैव उनके साथ रहे और मृत्युका निमन्त्र मानने से कुछ ही मिनट पहले उन्होंने लालाजीका अन्तिम समय तो पूर्णतया उनके साथ नये वस्त्र बदले और भूमिपर भाने की इच्छा जताई। शाखप में ही व्यतीत हुआ। उन्हें गोदमें उठाया गया और नीचे उनका शव रखा उनकी तेजस्विता, सरलता और धर्मनिष्ठाके गया जीवन और मृत्युके बीच कितना संक्षिप्त अन्तर । कारण समाजका मस्तक उनके सामने झुक गया और लाजम्यूप्रसाद, एक पुरुष, संघर्ष और शान्ति दोनोंमें समाजने न सिर्फ उन्हें 'तीर्थभक्त-शिरोमणि' की एक रस ! वेबाज नहीं है, किन्तु उनकी भावना भाज उपाधि दी, अपना भी शिरोमणि माना । भनेक भी जीवित है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म स्वाधीनताकी दिव्यज्योति Mahichipes P-(लेखक-श्री 'भगवत्' जैन)[इस शिक्षाप्रद पौराणिक ग्वण्ड-काव्यमें भगत-बाहुबलीके युद्ध और उसके परिणामका बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है-पढ़ना प्रारम्भ करके उसे छोड़नेको मन नहीं होता । अपनी इस रुचिकर रचनाके लिये लेखक महोदय धन्यवादके पात्र हैं। -सम्पादक] जिस बीरने हिंसाकी हुकूमत को मिटाया। जिस वीरके अवतारने पाखण्ड नशाया । जिस वीरने सोती हुई दुनियाको जगाया। मानवको मानवीयताका पाठ पढ़ाया । उस वीर, महावीरके कदमोंमें मुका मर । जय बोलिएगा एक बार प्रेमसे प्रियवर! | कहता हूँ कहानी मैं सुनन्दाके नन्दकी। जिसने न कभी दिल में गुलामी पसन्द की ।। नौबत भो आई भाईस भाईके द्वन्दकी। लेकिन न मोड़ा मुँह,न जुबाँबानी बन्द की। आजादी छोड़ जीना जिसे नागवार था। बेशक स्वतंत्रतासे मुहब्बत थी, प्यार था ।। करनेके लिए दिग्विजय भरतेश चल पड़े। कदमों में गिरे शत्र, नहीं रह सके खड़े ।। थी ताब, यह किसकी कि जो चक्रीसे लड़े? यों, आके मिले पाप ही राजा बड़े-बड़े ॥ फिर होगया छह-खएडमें भरतेशका शासन । पुजने लगा अमरोंसे नरोत्तमका सिंहासन ॥ या सबसे बड़ा पद जो हुकूमतका वो पाया। था कौन बचा, जिसने नहीं सिर था झुकाया ? दल देव-व-दानयका जिसे पूजने पाया। फिरती थी छहों खएडमें भरतेशकी बाया ॥ __ यह सत्य हर तरह है कि मानब महान् था। गो, था नहीं परमात्मा; पर, पुण्यवान् था। जब लौटा राजधानीको चक्रीशका दल-बल। जिस देशमें पाया कि वहीं पढ़गई हल-चल॥ ले-लेके श्राप भेंट-जवाहरात, फूल-फल । नरनाथ लगे पूलने-मरतेशकी कुशल ॥ स्वागत किया, सत्कार किया सबने मोदभर। था गंजता भरतेशकी जयघोषसे अम्बर।। - थे 'बाहुबली' छोटे, 'भरतराज' बड़े थे। छह-खण्डके वैभव सभी पैरों में पड़े थे। थे चक्रवर्ति, देवता सेवामें खड़े थे। लेकिन थे वे भाई कि जो भाईसे लड़े थे। भगवान ऋषभदेवके वे नौनिहाल थे। सानी न था दोनों हीअनुज बेमिसाल थे ! भगवान तो, दे राज्य, तपोवनको सिधारे। करने थे उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर्म के बारे ॥ रहने लगे सुख-चन से दोनों ही दुलारे। थे अपने-अपने राज्य में सन्तुष्ट बिचारे॥ इतनेमें छठी क्रान्तिकी एक भाग विर्षली। जो देखते ही देखते प्रहाण्डमें फैली। था कितनाविभव साथमें, कितनाथासैन्य-दल। कैसे करूँ बयान, नहीं लेखनीमें बल ।। हाँ, इतना इशाराही मगर काफी है केवल । सब-कुछ थामुदया,जिसे कर सकता पुण्य-फल ।। सेवक करोड़ों साथ थे, लाखों थे ताजवर। अगणित थे अख,शखा देख थरहरे कायर।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ उत्सव थे राजधानीके हर शखसके घरमें। 'रे, दूत ! अहंकारमें खुदको न दुबा तू। खुशियों मनाई जा रही थी खूब नगरमें। स्वामीकी विभव देखकर मत गर्वमें प्रातू॥ ये पा रहे चक्रोश, चक्ररत्न ले करमें। वाणीको और बुद्धिको कुछ होशमें ला तू। चर्चाएँ दिग्विजयकी थीं घर-घरमें गरमें ॥ इन्सानके जामेको न हैवान बना तू ॥ इतने में एक बाधा नई सामने आई । सेवककी नहीं जैसी कि स्वामीकी जिन्दगी । दम-भरके लिए सबको मुसीबतसी दिखाई। क्या चीज है दुनियामें गुलामीकी ज़िन्दगी।। जाने न लगा चक्र नगर-द्वारके भीतर । स्वामीके इशारे पै जिसे नाचना पड़ता। सव कोई खड़े रह गए जैसे कि हों पत्थर ।। ताज्जुब है कि वह शख्स भी,है कैसे अकड़ता? सब तक गई सवारियाँ, रास्तेको घेरकर । मुर्दा हुइ-सी रूहमें है जोश न दृढ़ता। गोया थमा हो मंत्रकी ताकतसे समुन्दर ॥ ठोकर भी खाके स्वामी के पैरोंको पकड़ता॥ चकोश लगे सोचने-'ये माजरा क्या है? वह आके अहंकारको भावाजमें बोले। है किसकी शरारत कि जो ये विघ्न हुआ है? अचरजकी बात है कि लाश पुतलियाँ खोल।। क्योंकर नहीं जाता है चक्र अपने देशको ? सुनकर ये, राजदूतका चेहरा बिगड़ गया। है टाल रहा किस लिये अपने प्रवेश को? चुपचाप खड़ा रह गया, लज्जासे गड़ गया। मानन्दमें क्यों घोल रहा है कलेश को ? दिलसे रारूर मिट गया, पैरों में पड़ गया। मिटना रहा है शेष, कहाँके नरेश को ? हैवानियतका डेरा ही गोया उखड़ गया । बाकी बचा है कौन-सा इन छहों खण्डमें ? पर, बाहूबली-राजका कहना रहा जारी । || जो डूब रहा आजतक अपने घमण्डमें ।' ___वह यों, जवाब देनेकी उनकी ही थी बारी॥ जब मंत्रियोंने क्रिक्रमें चक्राशको पाया। बोले कि-चक्रवर्तिस कह देना ये जाकर । माथा झुकाके, सामने आ भेद बताया ॥ बाहूबली न अपना मुकाएँगे कभी सर । 'बाहूबलीका गढ़ नहीं अधिकारमें आया। मैं भीतो लाल उनका हूँ हो जिनके तुम पिसर। है उनने नहीं बाके अभी शीश झुकाया ॥ | दोनों को दिए थे उन्होंने राज्य बराबर ॥ जब तक न वे अधीनता स्वीकार करेंगे। ___ सन्तोष नहीं तुमको ये अफसोस है मुझको। तब तक प्रवेश देशमें हम कर न सकेंगे' देखो, जरासे राज्य में क्या तो है मुझको । क्षण-भर तो रहेमौन,फिर ये बैन उचारा। अब मेरेराज्यपर भी है क्यों दाँत तुम्हारा ? 'भेजो अभी आदेश उन्हें दूतके द्वारा॥ क्यों अपने बड़प्पनका चलाते हो कुठारा ? आदेश पा भरतेशका तब मृत्य सिधारा। मैं तुच्छ-सा राजा हूँ, अनुज हूँ मैं तुम्हारा । लेकरके चक्रवर्तिकी भाशाका कुठारा ॥ दिखलाइयेगा मुझको न वैभवका नजारा ॥ बाचाल था, विद्वान, चतुर था, प्रचण्ड था। नारीकी तरह होती हैराजाकी सल्तनत । चक्रोके दूत होनेका उसको घमण्ड था ।। यों, बन्धुकी गृहणी वैन पद कीजिए नीयत।। 'बोला कि-'चकवतिको जा शीश झुकाओ। | छोटा हूँ, मगर स्वाभिमान मुझमें कर्म नहीं। यारखतेहो कुछ दमतोफिर मैदानमें भारो। बलिदानका बल है, अगर लड़नेका वम नहीं। मैं कह रहा हूँ उसको शीघ्र भ्यानमें लायो। 'स्वातंत्र के हित प्राण भी जाएँ तो राम नहीं। स्वामीकी शरण जामो,या वीरत्व दिखामो॥ नेकिन तुम्हारादिल हैवह जिसमें रहम नहीं। सुनते रहे बाहूबली गंभीर हो बानी । कह देना चक्रधरसे झुकेगा ये सर नहीं। फिर कहने लगे दूतसे वे प्रात्म-कहानी।। बाहूबलीके दिलपै जरा भी असर नहीं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] स्वाधीनताकी दिव्यज्योति बेचूंगा न आजादी को, लेकर मैं गुलामी। तब युद्ध तीन किस्मके होते हैं मुकर्रर । भाई हैं बराबर के,हों क्यों सेत्रकों स्वामी ? जल-युद्ध, मल्ल-युद्ध, दृष्टि-युद्ध, भयंकर ॥ मत डालिए अच्छा है यही प्यारमें खामी । फिर देर थी क्या ?लड़ने लगे दोनों बिरादर। पाऊँगा नहीं जीते-जी देनेको सलामी ।।' दर्शक हैं खड़े देखते इकटक किए नजर ।। सुन करके वचन, राज-दूत लौटके आया। कितना ये दर्दनाक है दुनियाका रबैया । भरतेशको आकर के सभी हाल सुनाया। __ लड़ता है ज.र-जमीको यहाँ भैयासे भेया । चुप सुनते रहे जब तलक, काबुमें रहा दिल। अचरज में सभी हुबे जब ये सामने पाया। पर, देर तक खामोशीपारखना हुआ मुश्किल ॥ जल-युद्ध में चक्रीको बाहूबलिने हराया ॥ फिर बोले जग जोरसे, होक्रोधसे साफिल । झुमला उठे भरतेश कि अपमान था पाया। 'मरनेके लिए श्राएगा, क्या मेरे मुकाबिल ? था सत्र, कि है जंग अभी और बनाया। छोटा है, मगर उमको बड़ा-सा रारूर है। ___ 'इस जीतमें बाहूबलीके कदकी ऊँचाई। मुझको घमण्ड उसका मिटाना जरूर है।' लोगोंने कहा-सूच ही वह काममें आई !!' फिर क्या था, समर-भूमिमें बजने लगे बाजे। भरतेशके छींटे सभी लगते थे गले पर। हथियार उठाने लगे नृप थे जो विराजे॥ बाहूबलीके पड़ते थे जा आँखके अन्दर ।। घोड़े भी लगे हीमने, गजराज भी गाजे । दुखने लगी आँखें,कि लगा जैसे हो खंजर। कायर थे, छिपा आँख वे रण-भूमिसे भाजे ॥ आखिर यों, हार माननी ही पड़गई थककर ।। सुभटोंने किया दूर जब इन्सानका जामा । ढाईमी-धनुष-दुगनी थी चक्रीशकी काया। घनघोर-से संग्रामका तब सज गया सामाँ ।। ___ लघु-भ्रातकी पश्चीस अधिक, भाग्यकी माया।। || दोनों ही पक्ष आगए, आकर अनी भिड़ी। फिर दृष्टि-युद्ध, दूसरा भी सामने आया। सवको यकीन यह था कि दोनों में अब छिड़ी।। अचरज, कि चक्रातिको इसमें भी हराया ।। इतने में एक बात वहाँ ऐसी सन पड़ी। लघु-भ्रातको इसमें भी महायक हुई काया। जिसने कि युद्ध-क्षेत्र में फैलादी गड़बड़ी ॥ सब दंग हुए देख ये अनहोनी-सी माया ॥ हाथोंमें उठे रह गए जो शख उठे थे। चक्रीशको पड़ती थी नज़र अपनी उठानी । मुँह रह गए वे मौन. जो कहनेको खुले थे। पड़ती थी जब कि दृष्टि बाहुबलिको भुकानी।। ये सुन पड़ा-न वीरोंके अत्र खून बहेंगे। गर्दन भी थकी, थक गए जब आँखके तारे। भरतेश व बाहूबली खुद आके लड़ेंगे। लाचार हो कहनाडा भरतेशको-'हारे॥ दोनों ही युद्ध करके स्व-बल आजमालेंगे। गुस्से में हुई आँखें, धधकते-से अँगारे ।। हारेंगे वही विश्वकी नजरोंमें गिरेंगे ॥ ॥ पर, दिलमें बड़े जोरसे चलने लगे पारे । दोनों ही बली, दोनों ही है चरम-शरीरी। तन करके रोम-रोम खड़ा होगया तनका । धारण करेंगे चादको दोनों ही फकीरी॥ | मुँह पर भी झलकने लगा जो क्रोध था मनका ॥ क्या फायदा है व्यर्थ में जो फौज कटाएँ ? सब काँप उठेकोध जो चक्रीशका देखा। बेकार गरीबोंका यहाँ खून बहाएँ ? चेहरे पे उभर आई थी अपमानकी रेखा । दोजनका सीन किसलिए हम सामने लाएँ ? सब कहने लगे-'अबके बदल जाएगा लेखा। क्यों नारियोंको व्यर्थ में विधवाएँ बनाएँ? रहनेका नहीं चक्रीके मन, जयका परेवा।।' दोनोंके मंत्रियोंने इसे तय किया मिलकर । चक्रीशके मनमेंथा-'विजय अबके मैं लंगा। फिर दोनों नरेशोंने दी स्वीकारता इसपर ।। । पाते ही अस्बा, उसे मद-हीन करूँगा ।।' - - - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनेकान्त [वर्ष ६ II वह वक्त भी फिर आ ही गया मीड़के भागे। 'धिकार है दुनिया कि है बमभरका तमाशा। दोनों ही सुभट लड़ने लगे क्रोधमें पागे॥ भटकाता, भ्रमाता है पुण्य-पापका पाशा ।। हम भाग्यवान् इनको कहें, या कि अभागे? कर सकते वफादारीकी हम किस तरह बाशा? आपसमें लड़ रहे जो खड़े प्रेमको त्यागे॥ है भाई जहाँ भाई ही के खूनका प्यासा ।। होती रही कुछ देर घमासान लड़ाई । चक्रीश! चक्रलोड़ते क्या यह था विचारा ? भर-पूर दाव-पेचमें ये दोनों ही भाई॥ मर जाएगा बे-मौत मेरा भाई दुलारा॥ दर्शकये दंग-देख विकट-युद्ध-थेथर-थर । भाईके प्राणसे भी अधिक राज्य है प्यारा। देवोंसे घिर रहा था समर-भूमिका अम्बर ।। दिखला दिया तुमने इसे, निज कृत्यके द्वारा।। नीचे था युद्ध हो रहा दोनोंमें परस्पर । तीनों ही युद्धमें हुआ अपमान तुम्हारा। बाहूबली नीचे कभी ऊपर थे चक्रधर ।। जब हार गए, न्यायसे हट चक्र भी मारा॥ फिर देखते ही देखते ये दृश्य दिखाया। देवोपुनीत-शत न करते हैं. बंश-घात । बाहूबलीने भरतको कन्धे पै उठाया। - भूले इसे भी, आगया जब दिलमें पक्षपात ।। यह पास था कि चक्रोको धरती पै पटक दें। मैं बच गया पर तुमने नहीं छोड़ी कसर थी। अपनी विजयसे विश्वकी सीमाओंको ढकदें। सोषो, जरा भी दिलमें मुहब्बतकी लहर थी? रण-थलमें बाहु-बलसे विरोधीको झटक दें। दिलमें था नहर, पागके मानिद नज़र थी। भूले नहीं जो जिन्दगी-भर ऐसा सबक दें। थे चाहते कि जल्द बँधे भाईकी अरथी॥ . पर, मनमें सोभ्यताकी सही बात ये आई। अन्धा किया है तुमको, परिग्रहकी चाँहने । __'आखिर तो पूज्य हैं किपितासम बड़े भाई !!' सब-कुछ भुला दिया है गुनाहोंकी छाहने । उस ओर भरतराजका मन क्रोधमें पागा। सोचो तो, बना रह सका किसका घमण्ड है? 'प्राणान्त कर, भाईका यह भाव था जागा।। जिसने किया. उसीका हुआ खण्ड-खण्डहे। अपमानकी ज्वालामें मनुज-धर्म भी त्यागा। || अपमान, अहंकारकी चेष्टाका दण्ड है। फिर चक्र चलाकर किया सोनेमें सहागा ॥ किस्मतका बदा, बल सभी बलमें प्रचण्ड है॥ वह चक्र जिसके बल' छहों खण्ड झुके थे। है राज्यकी ख्वाहिश तुम्हें लो राज्य सँभालो। अमरेश तक भी हार जिससे मान चुके थे। गद्दी पै विराजे उसे कदमोंमें झुकालो। कन्धेसे ही उस चक्रको चक्रीने चलाया। JII उस राज्य को धिकार कि जो मदमें दुबा दे। सुर-नरने तभी 'आह'से आकाश गुंजाया ।। अन्याय और न्यायका सब भेद भुलादे॥ सब सोच उठे-'देवके मन क्या है समाया ?' भाईकी मुहब्बतको भी मिट्टी में मिलादे। पर, चक्रने भाईका नहीं खून बहाया ॥ या यों कहो-इन्सानको हैवान बनादे॥ वह सौम्य हुआ, छोड़ बनावटकी निठुरता।|| दरकार नहीं ऐसे घृणित-राज्यकी मनको। देने लगा प्रदक्षिणा, धर मनमें नम्रता ।। मैं छोड़ता हूँ आजसे इस नारकीपनको ।' फिर चक्र लौट हाथमें चक्रोशके आया। यह कहके चले बाहुबली मुक्तिके पथपर। सन्तोष-सा, हर शख्शके चेहरे 4 दिखाया। सब देखते रहे कि हुए हों सभी पत्थर। श्रद्धासे पाहुबलिको सबने भाल झुकाया। भरतेशके भीतर था व्यथाओंका ववार । फिर काल-चक्र रश्य नया सामने लाया ।। स्वर मौन था, अटलथे,कि धरतीपैथी नज़र।। भरतेशको रण-भूमिमें धीरे-से उतारा । आँखोंमें भागया था दुखी-प्राणका पानी। तत्काल बहाने लगे फिर दूसरी धारा ॥ देख रहे थे खड़े वैभवकी कहानी। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] स्वाधीनताकी दिव्यज्योति उपसंहार] चाकीने तभी भालको धरतीसे लगाया । जाकरके बाहुबलिने तपोवनमें जो किया । पद-रजको उठा भक्तिसे मस्तक चढ़ाया । उस कृत्यने संसार सभी दंग कर दिया । गोया ये तपस्याका ही सामर्थ्य दिखाया। तप ब्रत किया कि नाम जहाँमें कमा लिया। पुजना जो चाहता था वही पूजने माया ॥ कहते हैं तपस्या किसे, इसको दिखा दिया । फिर क्या था, मनका द्वन्द सभी दूर होगया। कायोत्सर्ग वर्ष-भर अविचल खड़े रहे । अपनी हा दिव्य-ज्योतिसे भरपूर होगया ।। ध्यानस्थ इस क्रदर रहे,कवि किस तरह कहे? | कैवल्य मिला, देवता मिल पूजने पाए। मिट्टी जमी शरीरसे सटकर, इधर-उधर । फिर दूब उगी, बेलें बढ़ी बाँहोंपै चढ़कर ॥ नर-नारियोंने खूब ही श्रानन्द मनाए ॥ चक्री भी अन्तरंगमें फूले न समाए । वाँबी बनाके रहने लगे मौजसे फनधर ॥ मृग भी खुजाने खाज लगे हूँठ जानकर ॥ भाईकी आत्म जयपै अश्रु आँख में पाए। है वंदनीय, जिसने गुलामी समाप्त की। निस्पृह हुए शरीरसे वे आत्म-ध्यानमें वर्षाका विषय बन गए सारे जहानमें ॥ __ मिलनी जो चाहिए, वही आज़ादी प्राप्त की। पर, शल्य रही इतनी गोमटेशके भीतर। उन गोमटेश-प्रभुके सौम्य-रूपकी झाँकी। 'ये पैर टिके है मेरे चक्रीकी भूमि पर ।।' वर्षों इए कि विज्ञ-शिल्पकारने मॉकी ॥ इसने ही रोक रक्खा था कैवल्यका दिनकर। कितनी है कलापूर्ण, विशद्, पुण्यकी झाँकी । वानः वो तपस्या थी तभी जाते पाप भर । दिल मोचने लगता है, चूहाथ या टाँकी? यह बात बढ़ी और सभी देशमें छाई ।। हैश्रवणबेलगोलमें वह आज भी सुस्थित । इतनी कि चक्रवतिके कानोंमें भी आई। जिसको विदेशी देखके होते हैं चक्तिचित। सुन, दौड़े हुए आए भक्ति-भावसे भरकर । कहते हैं उसे विश्वका वे पाठवाँ अचरज । फिर बोले मधुर-बैन ये चरणों में झुका सर ।। खिल उठता जिसे देख अन्तरंगका पंकज॥ 'योगीश! उस छोड़िये जो द्वन्द है भीतर । झुकते हैं और लेते हैं श्रद्धासे चरण-रज । होजाय प्रगट जिससे शीघ्र आत्म-दिवाकर॥ लेजाते हैं विदेश उनके अक्सका काराज। हो धन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी ! वह धन्य, जिसने दर्शनोंका लाभ उठाया। प्रभु ! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी? बेशक सफल हुई है उसी भक्तकी काया। मुझसे अनेकों चक्री हुए, होते रहेंगे। ॥ उस मूर्तिसे है शान कि शोभा है हमारी। यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेंगे। गौरव है हमें, हम कि हैं उस प्रभुके पुजारी।। पर, आप सचाईपै अगर ध्यानको देंगे। जिसने कि गुलामीकी बला सिरमे उतारी। तो चक्रधरकी भूमि कभी कह न सकेंगे। स्वाधीनताके युद्धकी था जो कि चिंगारी ।। मैं क्या हूँ?-तुच्छ!भूमिकहाँ? यह तोविचारो। आजादी सिखाती है गोमटेशकी गाथा । काँटा निकाल दिलसे अकल्याएको मारो।। झुकता है अनायास भक्ति-भावसे माथा । 'भगवत्' उन्ही-सा शौर्य हो, साहस हो, सुबल हो। जिससे कि मुक्ति-लाभ लें, नर-जन्म सफल हो। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यकी महत्ता (लेखक-विद्यारत्न पं. मूलचन्द्र 'वत्सल' साहित्यशासी) ने अपने समयागी है। बहुत प्रकाश संसारमें किसी प्रकारकी प्रगति उत्पन्न करनेके लिये ग्ध हुए है और सब जैन विद्वानोंके बनाये हुए हैं। ऐसी दशा में साहित्य प्रमुख कारण होता है और किसी भी युगका सष्ट है कि हिन्दीकी उत्पत्ति और कम-विकासका ज्ञान प्राप्त निर्माण करने में साहित्यका अव्यक्तरूपसे प्रधान हाथ रहता करने के लिये हिन्दीका जैन साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। है।संसारमें जब जब जेसा युग परिवर्तन हुना। उसकी हिन्दीके जैनसाहि.यने अपने समयके इतिहास पर भी मूलमें बैंसी प्रगतिका साहित्य अवश्य रहा है। बहुत प्रकाश डाला है। कविवर बनारसीदासजीका 'श्रात्मसाहित्य वह खतम कला है जो संसारकी समस्त चरित' अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक घटनाओंसे भरा कलानों में शिरोमणि स्थान रखती है। जीवनको किसी भी हुावा अपनी कोटिकी हिन्दी साहित्यमें अकेली ही रूपमें दालनेके लिये. साहित्य एक महान साँचेका कार्य बस्तु है। अन्य कई ऐतिहासिक ग्रंथ भी जेनकवियों द्वारा करता है। साहित्य के होड़ेसे ही जीवन सुडौल बनता है लिखे गये हैं। और साहित्यके द्वारा ही प्रात्माकी आवाक संसारके प्रत्येक हिन्दी जैनसाहित्य अत्यन्त महत्वशाली होनेपर भी कोने में पहुँचती है। भारतके विद्वानोका लक्ष्य उसपर नहीं गया, इसके कई जैनसाहिल्यने प्रत्येक युगमें अपने पनित्र और विशाल प्रधान कारण हैं। जिनमें सबसे मुख्य कारण तो बंगोंद्वारा संसारको भारतीय गौरव के दर्शन कराये है- जैनियोका अपने ग्रन्थोंका छिपाये रखना है। अन्य धर्मियों प्राणीमात्रको सुखशान्ति श्रीर कर्तव्यके पथपर प्राषित । द्वारा जैनग्रन्थों को नष्ट कर देनेके आतंकने जैनोके हृदयोको किया और असंख्य प्राणियोको कल्याण-पथका पथिक अत्यन्त भयभीत बना दिया था और परिस्थिति के परिवर्तन बनाया है। हो जानेर भी हृदयोंमें जमी हुई पूर्व आशंका से वे अपने समयानुकूल साहित्यके निर्माण में जैन विद्वानोंने अपनी प्रयोको बाहर नहीं निकाल सके और न सर्वसाधारण के गौरवशालिनी प्रतिभा और विद्वत्ताका पूर्ण परिचय दिया सम्मुख पहुँचा सके। है। संस्कृत-साहित्यके निर्माणमें तो जैनाचार्योने वैराग्य, जबसे देशमें छापेका प्रचार हुना तबसे जैनसमाजको यौन्ति और तत्व निर्णयपर जो कुछ भी लिखा है वह अद्वि- भय हुश्रा कि कहीं मारे ग्रन्थ भी न छपने लगें और तीय है, किन्तु हिन्दी साहित्य के निर्माण में भी जेन विद्वान् उन्होंने जी-जानसे उन्हें न छपने देनेका प्रयत्न किया। किसी भी भारतीय कविसे पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने काव्य- इधर कुछ नवीन विद्वानों पर नया प्रकाश पड़ा और उन्होंने द्वारा अपनी जिस पवित्र प्रतिभाका परिचय दिया है वह जैन ग्रंथोके छपानेका यत्न किया जिसके फलस्वरूप जैन ग्रंथ' अत्यन्त गौरवमय है। हिन्दीका जैनसाहित्य अत्यन्त विशाल छपने लगे। ऐसी दशामें जबकि स्वयं जैनोंको ही जैनमाहिऔर महत्वशाली है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे तो उसमें कुछ त्य सुगमतासे मिलनेका उपाय नहीं था तब सर्वसाधारणके ऐसी विशेषतायें है, जो जैनेनर साहित्यमें नहीं है। निकट तो वह प्रकट ही कैसे हो सकता था? हिन्दीकी उत्पत्ति जिस प्राकृत या मागधी भाषासे दूसरा कारण जैनधर्मके प्रति सर्वसाधारणका उपेक्षामानी जाती है। उसका सबसे अधिक परिचय नैनविद्वानों भाव तथा विद्वेष है। अनेक विद्वान् भी नास्तिक और वेदको रहा है। और यदि यह कहा जाय कि प्राकृत और विरोधी प्रादि समझकर जैनसाहित्य के प्रति अरुचि या मागधी शुरूसे अबतक जेनोंकी ही संपत्ति रही तो कुछ विरक्तिका भाव रखते है और अधिकांश विद्वानोको तो यह अत्युक्ति न होगी। प्राकृत के बाद और हिन्दी बनने के पहले भी मालूम नहीं कि हिन्दीमें जैनधर्मका साहित्य भी है और जो एक अपभ्रंश भाषा रह चुकी है उसपर भी जैनोंका वह कुछ महत्व रखता है। ऐसी दशामें जैनसाहित्य अप्रकट विशेष अधिकार है। इस भाषाके अभी कांपन्य उपल- रहा और लोग उससे अनमिश रहे। जेनसमाजके विद्वानों Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] साहित्यकी महत्ता की अरचि या उपेक्षाहष्टि भी हिन्दी जैनसाहित्यके प्रकट उनका लक्ष्य मानयोकी चरम उमतिकी मोरही रहा, रहनेमें कारण है। उच्च कोटिके अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए वे पवित्र लोकोद्वारके लक्ष्यको लेकर ही साहित्य-संहारमें लोगोंकी तो इस ओर रुचि ही नहीं है, उन्हें तो इस बात अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने उस दिशामें पूर्ण सफलता का विश्वास ही नहीं कि हिन्दीमें भी उनके सोचने और प्रास की है। प्रात्म-परिचय और मानव-कर्तव्यके चित्रोंको विचार करनेकी कोई चीज मिल सकती है। शेष रहे उन्होंने बड़ी कुशलताके साथ चित्रित किया है, भक्ति, बैराग्य, संस्कृतश सज्जन सो उनकी दृष्टिमें बेचारी हिन्दी भाषाकी। उपदेश और तत्वनिरूपण-विषयक जैन-कषियोंकी कविताएं औकात ही क्या है ? वे अपनी संस्कृतकी धुनमें ही मस्त एकसे एक बढ़कर है। वैराग्य और संमारकी अनित्यता रहते हैं। पर जैसी उत्तम रचनाएँ जैन-कवियोकी है वैसी रचना हिन्दीके जैनसाहित्यकी प्रकृति शानिरस है। जैन करने में बहुत कम समर्थ हुए है। कवियोंके प्रत्येक ग्रंथमें इसी रसकी प्रधानता है। उन्होंने हिन्दी जैनसाहित्यमें चार प्रकारका साहित्य प्राप्त होता साहित्यके उच्चतम लक्ष्यको स्थिर रक्खा है। भारत के है-१ तात्विक.ग्रंथ २ पद-भजन-प्रार्थनायें। पुराणचरित्रअन्य प्रतिशत निन्यानवं कवि केवल शृङ्गारकी रचना करने कथादि, ४ पूजापाठ | जैनियोके प्रथम भणीकविवर में ही व्यस्त रहे है। कविवर तुलसीदास, कबीरदास, नानक बनारसीदास, भगवतीदास और भूधरदास आदि कवियोने भूषण आदि कुछ कवि ही ऐसे हुए है जिन्होंने भक्ति, प्राय:श्राध्यास्मिक तथा प्रास्मनिर्णयके गंभीर विषयों पर रचना अध्यात्म और वीरताके दर्शन कराये हैं। इनके अतिरिक्त की और है इन रचनामों में उन्होंने पूर्ण सफलता प्राप्त की है। हिन्दीके प्रायः सभी कवियोंने शृङ्गार और विलासकी मदिरा कविवर द्यानतराय, दौलतराम, भागचंद और बुधनन से ही अपने कापरसको पुष्ट किया है, इसके परिणामस्वरूप आदि कवि दुमरी श्रेणीके कवि हुए।नोने अधिकतर भारत अपने कर्तव्यों और श्रादर्श-चरित्रोंको भूलने लगा पद-भजन और विनतियोंकी ही रचना की है। आपके पदामें और उनमें से शक्ति और श्रीज नष्ट होने लगा । राजाओं आध्यात्मिकता, भक्ति और उपदेशोका गारा रंग है। भाषा तथा जमींदागेके आश्रित रहनेवाले शृङ्गारी और खुशामदी और भाव दोनों दृष्टियोंसे इनके पद महत्वशाली है। इनके कवियांने उन्हें कामिनीकटाक्षोमे बाहर नहीं निकलने दिया। अतिरिक्त महनों जैन कवियोंने पुगण, चरित्र, पूजा-पाठ और वास्तव में भारत के पतनमें ऐसे विलासी कवियोंने अधिक भजनोंकी रचना की है जो साहित्यिक दृष्टिमे इतनी महत्वसहायता पहुंचाई है और जनताका मनोबल नष्ट करने में ___ शाली नहीं है जितनी कि प्रादर्श और भक्ति के रूपमें है। उनकी शृङ्गारी कविताने जहरका काम किया है । साहित्य उथ श्रेणीके कवियोंका क्षेत्र आध्यात्मिक रहा. इस का प्रधान लक्ष्य जनतामें मश्चरित्रना, संयम, कर्तव्यशीलता लिये साधारण जनता उनके काव्यकं महत्व तक नहीं पहुँच और वीरत्वकी पुष्टि करना है और उन्हें पवित्र प्रादर्शकी सकी। यदि इन कवियं ने चरित्र या कथा प्रन्योकी रचना की ओर लेजाना ही काव्यका मर्वश्रेष्ठ गुग्ण है। श्रानंद और होती या भक्ति रसमें रहे होते तो आज इनका साहित्य सारे विनोद तो उसका गौण साधन है । जेन कवियोंने शृङ्गार संसारमें उच्च मान पाना, किन्तु उन्होंने जो कुछ भी लिखा और विलासरसमे पुष्ट किये जाने वाले साहित्यक बुगमें भी वह अत्यन्त गौरवकी वस्तु है। उसे भारतीय साहित्यसे उससे अपनेको सर्वथा विमुख रक्खा है यह उनकी अपूर्व अलग नहीं किया जा सकता है। आज हमाग बहुजितेन्द्रियता और सचरित्रताका परिचायक है, ये केवल विस्तृत हिन्दी जेनकाव्य-भंडार छिन्न-भिन्न पड़ा हुआ है, शृङ्गारकाव्यसे उदासीन ही नहीं थे किन्तु उसके कहर विरोधी यदि उसकी खोज की जाय जो उसमेंसे ऐसे अनेक काव्यरहे हैं। कविवर वनारसीदास, भैया भगवतीदास और रस्नोंकी प्राप्ति हो सकती है जिनसे हिन्दी साहित्यके इतिहास मुघरदासजीने अपने काव्योंमें श्रृंगाररस और श्रृंगारी में नवीनताकीद हो सकती है। साहित्यिक विद्वानोका कषियोंकी काफी निंदा की है। जैनकवियोने मानव कर्तव्य कर्तव्योकि वे म दिशामें प्रयत्नशील और प्राचीन और आत्मनिर्णयमें ही अपनी काव्य कलाको प्रदर्शित किया साहित्यके गौरवसे साहित्यिक जनताको परिचित कराएँ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुखका स्वरूप (पुग्यत्तमदास मुरारका. पाहित्यरल) - "तू भ्रम वह तम मेरा प्रियतम, प्रा सूनेमें अभिसार न कर" -महादेवी वर्मा दुखका स्वरूप अंधकारमय है तथा आनन्दका प्रकाश- हैं। साधारण दुख, विरह, आध्यात्मिक विरह आदि सब पूर्ण है। मानव-हृदयकी आदिम अवस्थासे सुख तथा दुख वेदनाकी कोटमें ही पाते हैं। भक्तोंको वेदना एक अत्यन्त उसके हृदय पर पूर्णरूपसे आधिपत्य एवं प्रभुत्व प्रस्थापित पिय साथी सी प्राचीन कालसे ही राती श्राई है। वेदनाकी करते रष्टिगोचर होते हैं। बालकके हृदयमें भी सबसे पूर्व आँचमें नप कर प्रेमविशुद्ध बन जाता है। उसका कलुषित मुख-दुखकीही अनुभूति होती है। समस्तभावों अथवा मनो- अंश, उसका मलीन भाग वेदनाकी तप्त बयार पाकर घिविकारोमै उखका अन्यतम स्थान है। वेदना ही कई लने लगता है तथा अपने स्वच्छ एवं निर्मल स्वरूपमें मिन्न प्रतीत होने वाले विकारोका मूल स्थान है। जब दृष्टिगोचर होता। विशद्धप्रेमको साकार प्रतिमा मीरा जब हम किसी भी व्यक्तिकी हीन दशासे प्रेरित हो दयावश अपने कोकिल कण्ठोंसे माधुर्य भावसे पूर्ण होकरकरुणासे प्राप्लावित होते प्रतीत होते हैं उस समय हमारे 'हेरि मैं तो प्रेम दिवाणी, मेरा दरद न जाणे कोय' हृदयके किसी अशात स्थल पर निर्मम चोट पहुंची हुई सी अपने 'प्रेम मतवालेपन' का तथा अभिनव दर्दका व्यादिखलाई पड़ती है, अथवा यदि हम किसी बदमाशसे किसी ख्यान करती थी उस समय किसी भी भावुक हृदयमें स्पंदन अबलाको छुड़ानेके लिये क्रोधसे प्रेरित होते है तब भी उस तथा चेतना व्याप्त हो जाने लगती थी। सूर भीकी विपन्न तथा असहाय दशा हमारे हृदयमें दुःख नामक "निशिदिन बरसत नैन इमारे, भावका संचार करते दृष्टिगोचर होती है। सदा रहत पावस तु हम पर दुखका स्वरूप जैमा अंधकारमय है उमी प्रकार उमका जबसे श्याम मिधारे !" श्राकार भी अत्यन्त विस्तीर्ण है। दुःखानुभूतिके ममय हम प्रीनमके वियोग में अपने नयनासे जल प्रवाहित करते इस भौतिक पार्थिव स्थलका परित्याग कर एक निर्मल एवं हुएसे दृष्टिगोचर होते हैं। निःस्वार्थ भावोंमे पूर्ण अलौकिक भूमि पर श्रावि न हो तात्पर्य यह है वि दुख अथवा वेदना प्राचीन युगमे ही जाते हैं। दुखके समय हमारी ममस्त मायाजनित शक्तियाँ भक्तोंकी बड़ी भारी संबल एवं सहायक रही है। दुखकी तथा उनके बंधन ढीले हो जाते हैं तथा हमें वैराग्य और सानभौम सत्ताको, उमकी अविच्छिा परम्पराको तथा उस विश्वप्रियताके सुन्दर सिद्धान्तोंका बोध होनासा प्रतीत होता है। की परिपूर्ण स्थिति को अस्वीकार करना भयानक मूर्खता जिस प्रकार प्रकाशका अभाव ही अंधकार है उसी होगी, केवल मिथ्या अहंकार होगा तथा तिरस्करणीय एवं प्रकार सुखका अभाव ही दुख है। दुखकी अनुभूति भी बड़ी अभिमानपूर्ण कृत्य होगा। इस विश्वके वक्षस्थल पर जन्म सोबती। उसके प्रवाहमें हमारे सब मनोविकार लेकर जिमने वेवनाको नहीं ललकाग, ऐसा अबोध अकिंचन पलायन करतेसे प्रतीत होते हैं। दुबके प्रकार भी असंख्य शायद ही कहीं दिखलाई पड़े। . अनेकान्त-साहित्यके प्रचारकी योजना अनेकान्तमें जो महत्वका उपयोगी ठोस साहित्य निकलता है, हम चाहते हैं। उसका जनतामें अधिकाधिक रूपसे प्रचार होवे। इसलिए यह योजना की गई है कि चतुर्थ वर्ष और पाँच वर्षके विशेषाहों को, जिनकी पृष्ठसंख्या क्रमशः १२० व १०४ और मूल्य ) 1)है. नाममात्रके मू०)व:) पर वितरण किया जावे। अतः दानी महाशयों को मंदिरों, लायरियों, परीक्षोत्तीर्ण विद्यार्थियों और अजैन विद्वानों मादिको भेंट करने के लिए शीघ्र ही चाहे जिसककी २५, ५०,१०० कापियां एक साथ मँगाकर प्रचारकार्य में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिये। प्रचारार्थ पोष्टज भी नहीं लिया जायगा। बीरसेवामन्दिर सरसावा जि. सहारनपुर। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज का मेस्मेरिज्म और जैनधर्मका रत्नत्रय (ले०-कौशलप्रसाद जैन व्यवस्थापक 'अनेकान्त') भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तोंका दौरा करता हुआ बिना वह अजनबी यात्री महाशय तेजीसे अपनी "मैं बिल्कुल नये स्थानकी एक धर्मशालामें कोठरीमें घुस गये और जब तक हम लोग यहां पहुंचे ठहरा हुआ था। दिसम्बरका महीना था और अन्दा- उन्होंने अपनी कोटरीके किवाड़ बन्द कर लिये। अब जन रात्रिका एक बजा होगा कि किसी स्त्रीकी करुण बाहर उनके विषयमें चर्चा होने लगी-कोई उनको चकारसे अचानक आँख खुल गई। रोनेका शब्द पास मंत्रवादी, कोई तांत्रिक और कोई २ तो सिद्ध महात्मा के कमरेसे बारहा था और क्रमशः इतना तेज आरहा कहने में भी नहीं चूके। पर एक स्थान पर शायद सब था कि जब पड़ा रहना असम्भव हो गया तो रजाईसे एक मत थे और वह था उनका हृदयपटल, जहां पर मुँह लपेट कर बाहर निकल आया। मेरी ही तरह सबको एक ही बात थी कि किसी प्रकार भी उनमे यह धर्मशालामें ठहरे हुए अन्य मुसाफिर भी बाहर विद्या उड़ाई जावे या फिर दो चार २ वरदान तो निकल आये थे और कारण जाननेका प्रयत्न कर रहे अवश्य ही मांगे जाएँ। कोई लक्ष्मी पानेका नकशा थे। उनकी बातचीतसे जो कुछ पता लगा उसका बना रहा था तो किसीकी गोदमें काल्पनिक बच्चा आशय यह था कि पासके कमरे में ठहरे हुये सद्गृहस्थ खेल रहा था। कोई मुकदमा जीतनेकी तरकीब सोच किसी अन्य रिश्तेदारीसे अपनी पत्नीको लेकर आरहे रहा था तो किसीने नौकरी पानकी अजीते थे, उन्हें पासके प्राममें अपने घर जाना था, स्त्रीको थी। मैं भी अजीब किस्मकी उधेड़ बुनमें अपनी सात मासका गर्भ था और इस समय उसको बच्चा कोठरीमें भागया और विस्तरमें पड़ कर अदभुत यात्री पैदा होनेका दर्द हो रहा था। समस्या यह थी कि के सम्बन्धमें सोचने लगा। धर्मशालामें ठहरे हुवे सभी व्यक्ति मेरी तरह वहां पौ फटी ही थी, दिन अभी अच्छी प्रकार निकला के लिये अजनबी थे और कोई डाक्टरी सहायता भी नहीं था कि मेरी आँल खुली और मैं शीघ्रतासे किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी, इधर बीका करुण अपनी कोठड़ीसे उस अद्भुत यात्रीकी ओर इस लिये कन्दन बराबर बढ़ता जारहा था। इतने में ही पासकी भागा कि कहीं वह जल्दी चला न जाय। वहां पहुँच एक और कोठरीसे एक अपरिचित सजन बाहर कर मैंने देखा कि वह अपने बिस्तर पर बैठे हुए धर्मआये-उन्नत ललाट, गौरवर्ण, आँखोमें एक अजीब शालाके अन्य यात्रियों के साथ वार्तालाप कर रहे है जो प्रकारकी चमक थी। आते ही उन्होंने भी हमारी तरह शायद मेरी ही तरह उनके पास उनके चले न जानेके प्रश्न किये और फिर एक दम स्त्रोके पास चले गये। डरसे जल्दी ही पहुँच गये थे। अपनी उत्सुकता दबा न सकनेके कारण हम लोग भी "महाराज! आप सब कुछ कर सकते हैं--प्राप उनके पीछे पीछे अन्दर चले गये। हमारे देखते २ सर्वशक्तिमान है।" बैठे हुए यात्रियों में से एकने कहा। उन्होंने स्त्रीके पेट पर दस-बीस बार हाथ फिराया। "भाई यह तुम्हारी भूल, मैं तो तुमसे भी हमारे श्राश्चर्यका ठिकाना न रहा जब बीने हमें बाहर अधिक पतित साधारण मनुष्य हूँ", उनका संक्षिप्त सा होजानेको कहा और हमारे चौखटसे बाहर पैर रखते उत्तर था। ही नवजात शिशुके रोनेकी ध्वनि हमारे कानों में पड़ी। "समी पहुँचे हुए सिद्ध महात्मा इमी प्रकार कहा अपनी प्रशंसा सुने बिना तथा अपनी सफलता देखे करते हैं, यह तो दूसरे ठगने वाले लोग ही उछला Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ करते हैं और कहा करते हैं कि मैं यह कर सकता हूँ, विचारसे कहा। वह कर सकता हूँ" एक वृद्धसे व्यक्तिके शब्द थे, जो "तो आखिर यह लोग मुझसे चाहते क्या हैं?" शायद अपनी मनोकामना पूर्ति के स्वप्न देख रहा था। उनका प्रश्न था। 'भाई ! न मैं कोई योगी हूँ न महात्मा, और न "आपके रातके किये हुए सफलताकार्यको देख ही कोई अन्य सिद्धिप्राप्त साधु, मैं तो आप लोगों कर ये लोग आपको सिद्ध, महात्मा मर्वशक्तिमान जैसा साधारण गृहस्थ हूँ। अन्तर केवल इतना है कि और न जाने क्या २ समझने लगे हैं और अब श्राप मैंने अपनी आत्मिक शक्तिको समझ लिया है और के पास यह आशा लेकर आये हैं कि आप इन सब आप लोग अपने आपको बहुत कमजोर समझे हुए की मनोकामना पूरी करदें", मैंने और स्पष्ट करने के हैं। यदि आप लोग भी अपनेको समझलो, अपनी उद्दश्यसे कहा। शक्तिको पहिचानलो तो मेरेसे भी बहुत आगे बढ़ , “मैंने तो वह कोई बहुत बड़ा कार्य नहीं किया है। सकते हो और सारे संसारकी शक्तियां तुम्हारे चरणों योगका जानने वाला तो उससे भी बड़े कार्य कर पर लोटती हुई नजर आयेंगी", ओजपूर्ण स्वरमें सकता है, वह भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालकी धाराप्रवाह वह बं:ल रहे थे। बाजानता है, इच्छानुसार प्राकृतिक कार्यों तकमें "जब तक मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तिको नहीं दखल दे सकता है। जैसे जब चाहे वर्षा रोक सकता पहिचानता है और अपने आपको कमजोर ममझता है, सूर्य छिपा सकता है, कैसे ही बीमार आदमीको रहता है तब तक वह कुछ नहीं कर सकता यह बात नीरोग कर सकता है, आकाश और जमीनके अन्दर आजकी ही नहीं है हिन्दू शास्त्रों और पुराने प्रन्थोंमें तक गमन कर सकता है, आँखोंसे अदृश्य हो इसके सैंकड़ो उदाहरण भरे पड़े हैं कि जो व्यक्ति सकता है, चाहे जिसको वशमें करके उससे जो अपने आपको कुछ नहीं समझा करते थे जब उनको चाहे कार्य लेसकता है, मृतात्माओंको बुला उनकी आत्मिक शक्तिका परिचय कराया गया तो सकता है और भी न जाने क्या २ कर सकता है। उन्होंने वह अद्भुत कार्य किये हैं कि संसारमें उनका योगके बलसे ही श्रीकृष्णजीने पालने में ही पूतना नाम अमर हो गया है। दूर क्यों जाते हैं रामायण राक्षसीको मार दिया था, बाल्यकालमें ही कसकी को ही लेलीजिये "हनुमान" जैसा वीर प्रतिभाशाली हत्या की थी, अंगुली पर गोवर्धन उठा लिया था। और विद्वान व्यक्ति ब्रामणका वेश बनाकर श्रीरामचंद्र हनुमानजी एक रातमें ही लक्ष्मणकी बेहोशी पर इतनी के पास आता है कि कहीं दुश्मनके गुप्तचर न हों पर दूरसे बूटी ले आये थे। 'बलि' अपने सामने वाले जब रामचन्द्र उसे उसकी भात्मिक शक्तिका परिचय योधाकी आधी शक्ति अपने में खींच लेता था, अहिकरा देते हैं तो वही "इनुमान" अकेला लंकामें जाकर रावण रावणके आह्वान पर पातालसे आकर राम न केवल दुश्मनके घर जाकर सीता मातासे वार्ता- लक्ष्मणको उठा ले गया था । युद्धसे दूर बैठे हुए भी लाप करता है वरन कई हजार राक्षसोंको अकेला ही संजय धृतराष्ट्रको युद्धकासारासमाचार ऐसे देते थे जैसे मार कर लंका फूक कर वापिस आता है, इसी प्रकार अपनी आखोंसे देख रहे हों। तात्पर्य यह है कि संसार के और सैंकड़ों उदाहरण दिये जामकते है"। का ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे योगी न कर सकता बात-चीत लम्बी होती जारही थी और वहां बैठे हो और मैं उसी योगके एक साधारण अंगका साधाकिसी व्यक्तिका (जो वास्तवमें ज्ञान सुनने नहीं, रण सा विद्याथी हूँ।" आप लोगोंकी मैं कोई मनोबरदान मांगने आये थे) मन नहीं लग रहा था। कामना पूरी नहीं कर सकता हूँ, इससे मेरी साधनामें “महाराज! ये लोग तो गँवार आदमी हैं ये बाधा पड़ती है। अलबत्ता भाप लोगोंको यह विद्या झानकी बातें क्या समझे ?" मैंने बात खत्म सौ करनेके बतला और समझा सकता हूँ ताकि आप भी मेरेही Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] आजका मेस्मेरिज्म और जैनधर्मका रत्नत्रय ५६ जैसे 'शक्तिमान' बन जायें और अन्य लोग स्वयं आप ही दशाओं में उनकी साधनामें बाधा पड़ती है, अतः के पास अपनी प्रार्थना लेकर आया करें"। उन्होंने आवश्यकता इस घातकी है कि योरूप और अमेरिका खुलामा किया। की तरह यहाँ भी इस विद्याका काफी प्रचार हो, "पर महाराज सुना है योगकी क्रियाएं तो बड़ी विद्वान लोग इसके विषयमें क्रियात्मक खोज करें कठिन हैं, हम जैसे गृहस्थ मनुष्य उनकी माधना कैमे और अपनी खोज आप लोगोंके सामने रखें, तभी कर सकते हैं? वे तो संसारत्यागी साधू-महात्माओंको हम समझ सकेंगे कि वास्तव में हमारे घरमें कितना ही शोभा देती हैं"। मेरी शंका थी। बड़ा खजामा था श्रीर उसे लटा कर आज हम अन्य "यह ठीक है भाई कि योगकी पूर्ण माधना बड़ी लोगोंके सामने हाथ फैला रहे हैं।" उनका कठिन है और वह किमी अच्छे गुरुक बिना हो भी समाधान था। नहीं सकती है, फिर भी उसके कुछ अंग इतने आमान "पर महागज मेस्मेरिज्मकी मूल आधार भित्ति हैं जो थोड़ा मा प्रयत्न करने पर छोटा बच्चा भी क्या है ?" मेरा प्रश्न था । आसानी से कर सकता है। उदाहरण के लिये आजका “मनकी एकाग्रता, इंद्रियोंकी इच्छाओंका निरोध मेस्मेरिज्म ही लेलीजिये, यह तो योगका एक आसान और श्रद्धा ज्ञान तथा चरित्र । खुलासा रूपमें यह कि अंग ही है, अन्तर केवल इतना है कि इसे योरूपके मन शरीरका राजा है। आवश्यकता इस बातकी है कि निवासीने अपने नामसे नवीन रूपमें जनताके सामने बह इतना बलवान हो कि सारा शरीर उसकी इच्छा रक्खा है। योरुप और अमेरिकामें साधारण लोग के अनुसार ही कार्य करे-जब २ इन्द्रियां इधर उधर इमको जानते हैं, मीग्यते हैं. और मंसारको अपने भागना चाहें तो मन अपनी एकाग्रतासे उन्हें वहीं अद्भुत करिश्मे दिखा कर आश्चर्यमें डाल देते हैं, बान्ध ले और भागने न दे। यह एक दम नहीं हो वहां इस विद्याके स्कूल हैं, सिखाने वाले हैं जो जनता मकता, इमके लिये साधनाकी आवश्यकता है और की मनोवृतिका लाभ उठा कर उससे पैसा और यश माधना होती है तब जब कि पहिले किसी वस्तु पर दोनों कमाते हैं। हमारे दुर्भाग्यसे भारतवर्ष में यह पूरा श्रद्धान हो-विश्वास हो, उसका पूर्ण ज्ञान हो विद्या अपढ़ और निम्न श्रेणीक लोगों के हाथमें पहुँच गई और उम ज्ञानका हम अपने कार्यों द्वारा उपयोग करें, हैजो विद्यासे केवल जननाको ठगनेका कार्य करते हैं, तभी हम सफलताकी मंजिल की ओर चढ़ना प्रारम्भ इसके नाम पर छोटे बच्चों स्त्रियों और लड़कियोंको कर देंगे"। उनका उत्तर था। बहका कर उनसे व्यभिचार करते हैं। अतः लोग सुनते ही मैं जैसे सोतेस जाग उठा । ओह ! यही अक्मर यही कहते सुने जाते हैं कि यह सब धोखा तो जैन धर्म है, यही जैन श्राचार्य चिल्ला २ कर हमें है और ऐसी कोई विद्या या तो हो नहीं सकती है कह रहे हैं, इसी पर तो जैन धर्म का मारा साहित्य और यदि है तो आज उसके जानने वाले नहीं हैं, पर ही खड़ा है। हमें भी तो जैन धर्मका यही उपदेश है वास्तवमें यह बात गलत है यह विद्या है और वास्तव कि जब तक सम्यकदर्शन, ज्ञान और चरित्र नहीं होगा में है तथा इसके जानने वाले भी काफी व्यक्ति मौजूद हमारी श्रात्मा ऊँचा नहीं उठ सकती-हम मोक्ष प्राप्त हैं, पर चूँकि उन लोगोंने यह विद्या अपनी आत्मिक नहीं कर सकते । ओह ! जब यह साधारणसे लोग उन्नति और आनन्दके लिये सीखी है, संसारिक लोगों जरा जरासे अंगोको जानते हुए केवल इन अकच के लाभके लिये नहीं तथा न ही अपना कोई निजी आदशों पर खड़े होनेके कारण इतने शक्तिशाली निकृष्टस्वार्थ साधने के लिये। इसीसे वे लोगन तो इस और लोकमें पूज्य हो जाते हैं तो वह तिल-तुप-मात्र का प्रदर्शन करते हैं और न किसीको यह प्रकट ही परिग्रहके त्यागी, गग-द्वेषस रहित जितेन्द्रिय जैन होने देते हैं कि हम इसे जानते हैं। क्यों कि दोनों आचार्य कितने शक्तिशाली होंगे और यदि उनके Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ चरणों में सारे संसारकी ऋद्धि-सिद्धि लौटती होंगी संसारके सामने कोई भी चमत्कार रक्खें तो सारे तो कौन आश्चर्य की बात है। आज हम अपने ऋद्धि- संसारमें आज फिरसे धर्मका डंका बज जाये। अतः धारी मुनियों के बारेमें शंका करते हैं और पूछते हैं शावश्यकता इस बातकी है कि धर्मकी व्यावहारिक कि क्या ये बातें ठीक हो सकती हैं पर जब हमारे साधनाके लिये कोई अच्छा शिक्षा स्थान हो जहां केवल सामने कोई मेस्मेरिजमका समाचार और उसको जानने खान-पीनमें ही धर्म समाप्त न समझा जाकर आत्मा वाता व्यक्ति आता है तो हम उसके कारनामों पर की शान्तिके लिये साधारण और सरल प्रयोगोंकी विश्वास कर लेते हैं, आखिर यह क्यों ? साधना पूर्ण सावधानीके साथ आरम्भ कराई जावे। ___कारण केवल एक है कि आज जैनधर्म केवल भविष्यमें मैं इस विपय अर्थात् मेस्मेरिज्मके किताबी धर्म रह गया है, प्रेक्टीकल नहीं । यदि प्रैक्टीकल रूप पर प्रकाश डालनका प्रयत्न करूंगा। व्यावहारिक रूपमें जैनधर्मकी साधनासे आज हम क्या गृहस्थके लिये यज्ञोपवीत आवश्यक है ? (ले०-५० रवीन्द्रनाथ जैन, न्यायतीर्थ) चातुर्मासमें जनेऊकी प्रथा अधिक जोर पकड़ बालक अक्षराभ्यासके योग्य होनेपर अक्षर सीखे, यज्ञोजाती है। क्योंकि त्यागीवर्ग ४ माह तक एक स्थान पवीत पहिने और मंत्रविधिसे ब्रह्मचर्यव्रत धारण पर रहते हैं। चार माह तक ऐसा नहीं हो सकता कि करे, लंगोट पहिने, भिक्षावृत्तिसे भोजन करे, शिरउनके पास न जाया जाय; ज्यों ही एकाध बार गये, मुंडन करे, गुरुकुलमें रहे इत्यादि । पर ज्योंही विद्या और जनेऊका रस्सा जबरन गले में डला! यदि उसके भ्यास पूर्ण कर चुके तो १६वीं किया 'व्रतावतार' है। डालने में जरा हिचकिचाहट की गई तो धर्म-भ्रष्ट इसमें ब्रह्मचर्य छोड़ स्वदारसंतोषी हो वे, लंगोट छोड़ समाज-भ्रष्ट आदिके असह्य दुख सामने आये! अब सुन्दर वस्त्र पहिने, मुंडन छोड़ देश-कालानुसार शिर देखना यह है कि क्या जनेऊ-प्रथा गृहस्थके लिये की शोभा करे और यज्ञोपवीत छोड़ आभूषणादि आवश्यक है जहाँ तक हमने इस प्रश्न पर विचार पहिने, क्योंकि व्रतावतारका तात्पर्य लिये हुये व्रतको किया है, हमें तो जनेऊकी प्रथा जैन गृहस्थके लिये उतार डालना है, अन्यथा गृहस्थाश्रममें प्रवेश केसे करे। भावश्यक मालूम नहीं होती। क्योंकि: इस तरह ब्रह्मचारी विद्याभ्यासके समय जिस यशो(१) भगवान आदिनाथ और उनके गृहस्थके पवीतको धारण करता है वह गृहस्थावस्थामें प्रवेश समय तक किसीने कभी जनेऊ नहीं पहना। करते समय उतार दिया जाता है, और इस लिये (२) भगवान आदिनाथने विदेहमें प्रचलित गृहस्थाश्रमके लिये यज्ञोपवीतकी जरूरत नहीं प्रथाओंको कर्मभूमिमें चलाया, परन्तु प्रामण वर्ण रहती यह साफ ध्वनित होता है। जैनोंमें और जनेऊ प्रथाको नहीं चलाया। यज्ञोपवीतकी प्रथा हमें तो सनातनी हिन्दुभोंके (३) त्रेपन कियाओं में इस क्रियाको जैसे-तैसे प्रभावयुक्त होनेसे दक्षिणसे माई हुई जान पड़ती है। जोडदिया गया है. पर उनमें भी गृहस्थके लिये क्यों कि वहाँ शैवादिसंप्रदायोंका जोर रहा है और वे आवश्यक नहीं बताया गया। लिपि-संख्यान क्रिया यज्ञोपवीतादि क्रियाथोंके धिमा जैनोंको 'वान्तः नं. १३ है उसके बाद १४ वी किया यज्ञोपवीतकी पाती' तक कहते थे, जो उस समय असम जान पड़ा। और १५ वी क्रिया प्रतचर्या (मंत्रविधि) की हैमर्थात् (४) यज्ञोपवीतकी एक बड़ी विचित्रता भी है कि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] क्या गृहस्थके लिये यज्ञोपवीत आवश्यक है ६ स्त्री जनेऊ न पहिने उपका पुरुष पहिने-अर्थात् स्त्री 'सूत्रकण्ठाः'-लेमें तागा डालने वाले-जैसे उपचाहे जितना पाप-पुण्य करे पुरुष के पुण्य करनेसे बह हासास्पद या विकारतके शब्दोंसे उल्लेखित किया है। तर सकती है । इस ग्रंथानुसार चक्रवर्तीको तो६६००० यदि उस समय तक जैनियोंमें जने का रिवाज हुआ जनेऊ पहिनना चाहिये, जिसका कहीं विधान नहीं; तब होता तो वे ब्रारूणोंके लिये ऐसे हीन पदोंका प्रयोग उसके लिये इनका ही वोझ असह्य हो जावेगा, वह न करते। उन्हींसे ढक जावेगा, कान पर किस किसको टांगेगा (८) यदि धार्मिक नियमोंके लिये यह आड़ मात्र आदि बड़ी अजीव बातें हैं। है तो आड़ तो कोई भी हो सकती है-जैसे चोटी (५) पूजामें अर्घके साथ दक्षिण प्रान्तमें जनेऊ रखना, डाढ़ी रखना, मूळे मुंडवाना इत्यादि; फिर गले भी चढ़ाया जाता है-समझ नहीं पड़ता इसका क्या में तागा डालनेकी ही क्या जरूरत है? उद्देश्य है? ऐसी हालतमें यज्ञोपवीतकी प्रथा गृहस्थ जैनोंके (६) जनेऊ प्रथाने समाजमें भयंकर फूट फैला लिये अनिवार्य न होकर निस्सार प्रतीत होती है। रक्खी है। जो जनेऊ न पहिन वह “शूद्र" ऐमा कहा अतः हमारे पूज्य त्यागीवर्गको चाहिये कि वे इस जाता है, इससे आदि प्रभु श्री ऋषभदेव पहिले शूद्र पर व्यर्थका जोर लगा कर आपसमें फूट न कहलायेंगे-तब हमें शूद्र होने में ही महान् गौरव फैलाएँ-उन्हें तो सामान्यतया मूल गुणोंका उपदेश है, क्यों ब्राह्मण बनें? देकर जैनी बनाना और पुराने जैनियोंका रक्षण (७) पद्मपुराणमें श्री रविषेणाचार्यने ब्राहाणोंको करना चाहिये। पुरुस्कार-सूचना कानपुर अधिवेशनके अवसर पर जैन परिषद्ने भगवान महावीरकी जीवनीके उत्तमोत्तम लेखकको चार हजार रुपयेका पुरुस्कार देनेका प्रस्ताव पास किया था और उसकी निर्णायक कमेटी भी बनाई गई थी। इस मोर कौन कौनसे विज्ञान प्रयत्नशील हैं, वे हमे ३० अक्टूबर तक सूचित करदें, ताकि हमको मालूम हो सके कि कितने विद्वान पुरुस्कार प्रतियोगितामें भाग ले रहे हैं। __ डालमियानगर ? अयोध्याप्रसाद गोयलीय Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी एक झलक (ले० - पं० सुमेरुचंद्र दिवाकर शास्त्रो, बी० ए० एल-एल० जी०, न्यायतीर्थ ) संसारके सभी प्राणी सुख और शान्ति चाहते हैं । आत्मघात करने वाला व्यक्ति तक इस नियमका अपवाद नहीं है; कारण वह भी ग्रात्म-संतुष्टिको लक्ष्य बना कर ही कार्य करता है। इस शान्तिके लिए प्रयत्न-शील यद्यपि तमाम दुनिया पाई जाती है, किन्तु अपने प्रयत्न में पूर्णपफल पुरुषके दर्शन नहीं होते। वैसे तात्कालिक शांति या अल्पकालीन सुख तो बहुतों को मिलता है, किन्तु वह टिकाऊ नहीं होता है । कोई कोई विश्वकी वस्तुओंकी बहुलताको सुख का कारणा मानते हैं, किन्तु विश्वका महान समृद्धिशाली हेनरी फोर्ड उन सामग्रियों के बीचमें सुखी नहीं मालूम पड़ता, इसीसे वह कहता है कि "मेरे कारखानेमें काम करने वाले श्रमजीवियोंकी निराकुलता देखकर मुझे उनके प्रति ईर्षा पैदा होती है"। संसार में अध्ययनशील महापुरुषोंने अनुभव कर यह तत्वज्ञान दिया है, कि भौतिक वस्तुओंसे यथार्थ नहीं, नकली आनन्द मिलता है । वह सुख नहीं है; सुखकी फलक है। जैसे मृग-तृष्णा ( mirage ) को असली पानीका सरोवर समझ कर पीछा करने वाले हरियाकी प्यास नहीं बुकती और वह बहुत दुःखी होता है, उसी तरह जगतके दूसरे प्राणियों की भी हालत है। इसीको मद्देनजर रखने वाला संत कवि भूधरदास कहता है : दाम बिना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देखा छान ॥+ इस सुखकी खोज करने वाले प्राणीको जो उसके ध्येयको प्राप्त करा दे उसे ही महापुरुषोंने 'धर्म' कहा है । आजकल भौतिकताकी प्रबल भक्तिके कारण कुछ लोग +पारसपुराण हिन्दी पद्यमय xसंसार- दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे - रत्नकरंडभावकाचार यतोभ्युदयनिःश्रेयसमिद्धिः स धर्म: योगसूत्र > यह समझते हैं, कि हमारे सुखोंका-उच्चतियोंका सबसे बदा शत्रु यही धर्म है । एक पश्चिमका विद्वान लिखता है"यदि हम मनुष्य जातिका कल्याण चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें धर्म और ईश्वरको गद्दीसे उतारना चाहिए । धर्म ही हत्या की जब है। कितने पशु धर्मके नाम पर रक्तके प्यासे ईश्वर के लिए संसार में काटे जाते हैं। समय आवेगा जब कि धर्म की बेहूदगी से संसार छुटकारा पाकर सुखी होगा।”+ यहां जो टीका की गई है, वह धर्मका जामा पहने हुए, किन्तु यथार्थ में, अधर्मको है। दुनिया प्रायः धर्मके सही उसूलों-- सत्य तत्वोंसे अपरिचित रहती है, और वह अंधश्रद्धा के सहारे अपने जीवनकी डोर ऐसे तत्वोंसे बांध लेती है. जो कि यथार्थ में धर्मसे उतना ही दूर रहते हैं, जितना अकाशसे पाताल । कुछ विपरीतदृष्टि तत्वज्ञ व्यक्तियोंने नामवरीके लिए भोले-भाले प्राणियोंको भुलावेमें डालनेके लिए ऐसे तरीकों और सिद्धान्तोंका अविष्कार किया. जो यथार्थ में अधर्म होते हुए भी धर्मके नाम पर जाहिर होते हैं। किन्तु चिना असलियतके नकली चीज़से कार्य सिद्ध कैसे हो सकता है ? रहीम कवि कहता है- " बड़े न हूजे गुनन विनु विरद बड़ाई पाय । कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ्यो न जाय ॥" सुवर्ण अर्थ वाले 'कनक' का कार्य उस धूतरेले नहीं निकलता है, जिसे शब्दशास्त्र में 'कनक' बताया गया है। उसका सेवन तो प्राण विनाशका कारण होगा। इसी प्रकार जो जो धर्म नामपर चीज़ विश्व के बाजार में क्ष्य पर मा विना मूल्य बेची जाती है, वह सब धर्म है, यह समीचकदृष्टि नहीं कही जा सकती । धर्म अंधविश्वासकी वस्तु नहीं है और न वह ऐसी कुम्हर बतियां हैं, जो विवेक या विचारकी 'तर्जनी' देख कर कुम्हला आयेगी । वास्तवमें धर्म एक विज्ञान है, जो + देखो प्रपंच परिचय पेज २१६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] जैनधर्मकी एक झलक सर्कणाकी कसौटी पर कसनेसे ही अपने अपनी महत्वको हुभा देख कर यह रास्ता बताया, कि यदि तुम अपने प्रकट करता है। खोटा सोना अग्नि-परीक्षणसे मय खाता अंदरसे विकारों और कमजोरियोंको हटानो तो तुमको है, किन्तु असली मोनेकी कीमत अनि परीपणसे पूर्णतया समा सुख प्राप्त हो सकता है। उसकी प्राप्ति केवल भक्तिसे. प्रकाशमें पाती है। इस प्रकार अनुभव तथा विचारणाके या ज्ञानमात्रसे अथवा कोरे क्रियाकांडसे नहीं हो सकती, द्वारा नकलीधर्माभासोंके बीचमे उस सच्चे धर्मकी खोज बल्कि विवेकपूर्ण सस्य श्रद्धा, सत्यज्ञान और सत्य भाचरथा की जा सकती है, जिससे इस जीवको सची शांति और __ रूप रत्नत्रयमयी मार्गसे हो सकती है। जिस तरह धंध, मुकम्मिल जीवनकी प्राति हो सकती है। यूरोपियन जैन पंगु और मालसी मिल कर प्रतिके संकटसे बच जाते है, महिला मिस फ्रेजरने लिखा है इसी प्रकार श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रके समीचीन समन्वयसे True religion must be a science यह प्राणी संसारके संतापसे मुक्त हो सकता है। इस स्नIt is indeed the science of sciences .मार्गकी प्रशंसा करते हुए नागपुर हाईकोर्ट के जज since it is the science of life and श्री नियोगी महाशयने गत ही महावीर जयंतीके अभिliving?" भाषण में कहा था "The happy combination सच्चे धर्मको वैज्ञानिक-विज्ञान-सम्मत होना चाहिए। of heart head and hand lends to वह तो विज्ञानका विज्ञान है कि वह जीवन और liberintion." हृदय (भक्ति), दिमाग (हान) और जीवित रहनेका विज्ञान है। हाथ (भाचरण) की मधुर एकता मुक्ति प्रदान करती है। सरचे धर्मके परीक्षण के लिए ईसाकी पहली सदीके इस रत्नत्रय मार्गमें शान, भक्ति तथा क्रियाकांडका समन्वय महर्षि स्वामी कुंदकुंदने यह बताया कि जो वस्तुका स्वभाव है, और उनका समुदाय एक दूसरेकी अटियोंका पूरक। है-निज गुण है--असलियत है. वह धर्म है, जहां वह तास्थिकरष्टिसे इस बातकी श्रद्धा जरूरी है कि मेरी है, वहां धर्म है जहां वह नहीं है. वहां धर्म भी नहीं है। श्रात्मा शरीर, मकान व भादि पदार्थोसे पृथक है--जुदी इसे दूसरे शब्दों में कहेंगे, कि स्वाभाविकता (असलियत) है। ज्ञान तथा मानंदका अक्षय भंडार है, उसमें मर्मत या उसको प्राप्त कराने वाले मार्गका नाम धर्म है । विकृति- शक्ति है। यदि मैं विकारोंसे अपनी प्रात्माको हटालू तो मैं अस्वाभाविकता, बनावटीपना अधर्मके पर्यायवाची-दूसरे भी परमात्मा बन सकता हूँ। परमात्मा मेरी मारमाकी ही नाम हैं। अनिका स्वभाव जैसे ज जना, प्रकाश देना है, शुद्ध हालत है। भास्मश्रद्धाके समान मारमशान भी जरूरी उसी प्रकार आश्माका स्वभाव समता है. शान्ति है, मोह है, हद पात्मश्रद्धा और ज्ञानवाला व्यक्ति जब मोह देष क्रोध मत्सर आदि विचारोंसे राहतपना। 'पारमाकी मोह क्रोध प्रादि दोघाँसे अपनी चित्तवृत्तिका तर कर प्रारमऔर क्रोध-नागद्वेषसे रहित परिणति ही धर्म स्वरूप में लीन हो जाता है. यह मनशान दर्शन इस मामाको क्रोध, मान. माया लोभ आदि विकारों सुख तथा शक्तिको प्रास करता है। से दूर करने पर समतामय जो मानन्द होता है, वह एक प्रत्येक मारमा रत्नत्रय (Right faith, Right साधकके शब्दोंमें 'मनुज नागनरेन्द्र नाही को। kuowboxe and Right conduct) जैन तीर्थंकरोंने विश्वके दुःखों के मध्य प्राणियोंको फंसा औषधि प्रयोगकेसे अपने मोहज्वरको दूर कर परमात्मा, जिनेन्द्र, भगवानकी प्रतिष्ठाको प्राप्त कर सकता है।परमात्म१देखा-ASeicutific Interpreattion of पद विश्वके प्रत्येक प्रयत्नशील योग्य प्राणीके द्वारा प्राप्त किया Christianity. पेज २ जा सकता है। यथार्थमें देखा जाय, तोप्रत्येक मारमा परमाश्वत्थुसहावो धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिदिहो। त्मस्वकी शक्तिपी(lutelit)है और वह प्रात्मविश्वास,पारममोहक्कोह-विहीणोपरिणामोअप्पणो हुसमो।।-कुंदकुंदाचार्य ज्ञान भाविक द्वारा अभिव्यक्त-जाहिर होती है (Putent) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनेकान्त [वर्षे ६ इस विषयमें अध्यात्म विचाके कवि मैया भगवतीदासजी कोई अन्य नहीं है, मोहवश यह जं.व अन्यको निमित्त कहते है-- घट घट अंतर जिन वसै, घट घट अंतर जैन । जानता है (और रागद्वेष करता है), यथार्थमें जैसे कर्मोंका संचय-संग्रह इसने किया है. वैसा ही फल यह पाता है। मोह-मद्यके पान सों, मतवारो समझे न ||+ एक विवेकी जैन कवि कितनी सुंदर शिक्षा देता हैजैन कोई सांप्रदायिक पद नहीं है, जो भी व्यक्ति को कार्को दुख देत है, देत करम झकझोर । मात्माको पवित्र करनेका पुरुषार्थ करता है-पारमाकी दुर्बलता पर विजय प्राप्त करता है-वह उतना जैन है। उरम सुरमै आप ही ध्वजा पवनके जोर ।।+ ऐसा मारमविकार-विजेता ब्यक्ति किसी भी देश, जाति, वर्ण, इस पात्मनिर्भरताकी तालीमका यह तात्पर्य नहीं है, वर्गका भले ही हो। इसके विपरीत जैन नामक धर्मका कि जीव स्वच्छन्द आचरण करे। इसका ध्येय है, कि यह धारी भी यदि कषायों-क्रोधादि पापाचारोंसे अपनेकोपर जीव परका अवलंबन छोड कर स्व (self)का-अपने तर मलिन करता है, तो वह वास्तव में जैन नहीं कहा जा पवित्र अंत:करणका अवलंबन करे, कारण सच्ची लौकिक सकता है। जैन शब्द ही विकार-विजेता-पने तथा उस अथवा प्रारिमक उमतिका कारण स्वावलंबन है। भोर माराधनाके भावको घोषित करता है। जब यह भारमा विकारोंके बोझसे अधिक दबी हुई इस जीवके उत्थान या पतनकी जिम्मेदारी किसी अन्य रहती, क्षण पण जरा जरासे कारण इसे लालच, घमंड, पर नहीं है। अपनी पाशविक शक्तियोंको बढ़ा कर या उन बल प्रपंच आदिसे पददलित करते हैं, तब यह एक दम के लिए प्रयत्न करते रह कर यह अपने सुखके मार्गमें दुःख भाष्म अवलंबनकी उच्च सीढ़ीपर नहीं चढ़ सकती है। के कांटोंको बोता है. और पश्चाताप करता है। कदाचित उस अवस्थामें इसे वीतरागता तथा शुद्धताके भादर्शकी यह माध्यात्मिक या देविक संपत्तियोंको उत्पन्न करता है, भाराधनाकी जरूत पड़ती है, जिससे पवित्रताका ध्येय, इस या पुण्य-विचारों तथा भाचरणसे अपनी जिंदगीको निर्मल जीवका, सदा जागृत बना रहे। करता,तो ऐसे भविष्यका निर्माण करता है, जहां सुख यह वीतराग, शान्त, प्राकृतिक वेषधारी अंत और शांतिका अखंड साम्राज्य प्राप्त होता है। 'ष्टिधारी तीर्थकरों-पूर्ण प्रारमाओंकी पूजा करता है, इस मास्मनिर्भरताकी शिक्षाके अभावमें जहाँ संकट ताकि उनके निमित्तसे इस जीवको प्रारम-स्मृति हो माने पर या मुसीवतग्रस्त होनेसे अन्य अरष्ट शक्तिकी जाय । यह यथार्थ में मूर्तिकी पूजा नहीं है। कृपाके लिए दीनतापूर्वक प्रारजू मिशत करता नजर आता __ मूर्ति तो शुद्ध भावनाका अवलंबन मात्र है। जिनेन्द्रहै, वह वैज्ञानिक धर्मका पाबक अपनी मारमशक्तिको महत तीर्थकरकी पूजाका अर्थ मूर्तिकी ( Idol) पूजा रूहानी ताकतको जागृत करता है। कारण, वह यह खूब नहीं है वह प्रादर्श (Ideal worship) की आराधना समझता है, कि मैंने ही अपने कमोसे ऐसी परिस्थिति है।आदर्श बननेका मार्ग भी संसार भरके लिए व्यापक है। निर्माण की ।'बोए पेड़ बबूलके भाम कहाँ ते होय। भाराधनाका ध्येय आदर्शका दास बनना नहीं--आदर्श उसकी यह श्रद्धा रहती है कि सुख दुःख देने वाला के समान पूर्ण और पवित्र बन जाना है। यहां पूजाका ध्येय +प्रत्येक हृदयमें जिनभगवान मौजूद, मी तरह उनका बा विशुद्ध है। देखिए महान् जैन भाचार्य उमास्वामी भक्त जैन भी है। मोहमयी शराब पीने के कारण मत्त प्राणी महाराज कितने महत्वपूर्ण शव कहते हैं:-- [कमशः] इस रहस्यको नहीं जानता। +कौन किस जीवको दुःख देता है? कर्मका वेगही दुःखका xजो कर्म शत्रुओं पर विजय लाभ करे, उसे जिन या जिनेन्द्र कारण है। देखो, ध्वजा बाके निमित्तसे स्वयं उलझती है कहते हैं। उनके पूजकोंका नाम 'जैन है। और अपने आप ही सुलझ भी जाती है इसी प्रकार यह सुखस्य दु:खस्य न कोपि दाता, परो वदातीनि कुबुद्धिरेषा। आत्मा अपने कर्मोंसे मुसीबत में फंसता है और अपने पुरु*अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रप्रथितो हि लोकः ॥ षार्थसे कमौके जालको काट कर मुक्त होता है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक सामग्री पर विशेषप्रकाश (ले०-श्री अगरचन्द नाहटा जैन) भारतीय इतिहाम-लेखनमें जैन ऐतिहासिक सामग्री (१) प्राचीन ऐतिहासिक काव्य-उक्त लेखमें बहुत ही उपयोगी होने पर भी खेद है उसका उपयोग उल्लिखित (१) ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह (२) ऐति. अभी तक बहुत ही कम किया गया है। इसके मुख्य दो गुर्जरकाव्य मंचय (३-४) ऐतिहासिक रास संग्रह भा... कारण हैं-(१) जैनेतर विद्वानोंकी सांप्रदायिकता (२) २. के अतिरिक्त जो संग्रह और प्रकाशित हुए हैं उनका और जैन ऐतिहासिक सामग्रीकी जानकारीका अभाव। परिचय इस प्रकार है:-- दूसरे कारणके लिये कुछ ज़िम्मेदारी जैन विद्वानोंकी भी १-२ ऐतिहासिक राम संग्रह भा० ३-४. प्र. यशोविजयस्वतः हो जाती है, क्योंकि उन्होंने जैनेतर विद्वानोंको ग्रन्थमाला भावनगर । परिचय करानेका कर्तव्य पालन नहीं किया। गुजरात प्रान्त ३ ऐतिहासिक समाय संग्रह, प्र. यशोविजयग्रन्थमाला, में मुनि जिनविजयजी प्रादिके भाषणों एवं लेखों द्वारा भावनगर । उप प्रान्तके जैनेतर विद्वानोंका ध्यान इस महत्वपूर्ण सामग्री ४ जैन ऐ० राममाला भा० (सं-देशाई), प्र.माध्यात्मकी ओर आकृष्ट हुआ है। अन्यथा गुजरातका इतिहास ज्ञान प्रसारकमंडल, पादग। प्रबन्धचिंतामणि श्रादि जैन ऐतिहामिक ग्रन्थोंके उपयोग ५ आनन्दकाव्यमहोदधि भा०५ों, प्र. देवचन्दलाल किये बिना बहुत कुछ अपूर्ण ही रहता। अब भी अपूर्ण भाइ पु०फंड-सूरत (हरिविजय मूरिरास ऋषभदासकृत) है। हमने अद्यावधि हमारी इस सामग्रीके प्रकाशन एवं ६ कुमारपालराम (जिनहर्पकृत). प्र. मोहनलाल दक्षखोजका भी प्रयत्न बहुत ही कम किया है। सुखराम, अहमदाबाद । इसका एक कारण ऐतिहासिक अभिरुचि रखने वाले पानंदकाव्य महोदधि भा. ८ (ऋषभदायकृत) व्यक्तियोंकी कमीके कारण प्रकाशित ऐति० ग्रन्थोंका प्रनार म. देवचंद लालभाई पु० फंड-मूरत । न होना है। फलत: प्रकाशक घाटेमें ही रहता है और भविष्य ____E सुजमति (यशोविजय जीवनी) प्र. ज्योति-कार्यालय के लिये प्रकाशन कार्य रुक सा जाता है। जैन समाजमें तो अहमदाबाद। एक इसी विषयके नहीं तत्वज्ञान प्रादि सभी प्रकारके उरच १ पुंजा ऋषिरासहय, माणकवेवी राप, प्र.शा. गोकुल वाम मंगलवाय,महमदाबाद।(पु.जैनरामसंग्रह भा०) कोटिके माहित्यका प्रेम नगण्य होनेके कारया ग्रन्थोंका १. विमल-प्रबन्ध," प्रतापसिंह राम। प्रचार नहीं हो पाता। अत: जिस किसी प्रकारसे प्रचार बड़े इनके अतिरिक जैन साहित्यसंशोधकर्म वस्तुपालवैसा प्रयत्न करना आवश्यक है। तेजपानरास, जनयुगकी फाइनामें कई राम बर्गत छपे अनेकान्तके गत अंकमें श्री वासुदेवशरणजी अग्रवाल हैं । भारमानंदप्रकाशमें धर्मसागररासका सार है। का जैनसाहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री' शीर्षक लेख जैनसत्यप्रकाशकी फाइलों में हमारे लिखितो. काम्याँके खपा है। प्रस्तुत लेख में श्री वासुदेवशरणजीके लेखके अति सार धादि प्रकाशित हैं। इस प्रकारकी अप्रकाशित सामग्री रिक्त हात ऐ० सामग्रीका परिचय प्रकाशित किया जा रहा . है। माशा है इतिहास-क्षेत्र में काम करने वालोंको यह की तो इतनी प्रचुरता है कि केवन हमारे संग्रहसे ही १००० पृष्टका संग्रह प्रकाशित हो सके इतनी ऐकृतिय उपयोगी होगा। पड़ी है जिनमें कई बडे महबकी हैं। *गुजरात साहित्य सभा में । (२) प्रबन्धमंग्रह- उपदेश-तरंगिणी उपदेश Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनेकान्त [वर्ष ६ सप्तति मादि प्रों में भी कई ऐतिहासिक प्रवन्ध प्रकाशित प्रकाशित हो चुके - है एवं शुभशील-रचित कथाकोषमें एवं स्वतंत्ररूपसे शेताम्बर-१-२ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह मा०१-२, बहुतसे प्रबन्ध मिलते हैं जो अप्रकाशित हैं। प्र.म.शा.प्र. मंडल-पादरा । (३) पट्टावली-खरतरगच्छ पट्टावलियों का संग्रह ३ प्राचीनलेख संग्रह भा० . यशो. ग्रंथमाला बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहरने प्रकाशित किया था। हमारी भावनगर । प्रेषित खरतरगच्छ गुर्वा विली नामक अपूर्वकृति सिंधी प्रन्थ ४ अर्बुद प्राचीन जैनलेखसंदोह, प्र. विजयमालासे छप चुकी है और शीघ्र ही प्रकट होगी। मुनि धर्मसूरि प्र. उज्जैन । जिनविजयजी पहावलियों का एक स्वतंत्र संग्रह भी छपा ५ देवलवाड़ा, सं. विजयेन्द्रसूरि-यशोविजयरहे हैं जिसमें अनेक गच्छोंकी पट्टावलियें हैं। उपकेशगरक प्रन्थमाला भावनगर। चरित्र भी प्रकाशित करने वाले है। उपलब्ध पहावलियों ६ ब्राहाणवाडा-सं. जयन्तविजयजी, प्र. का ऐतिहासिक सार 'जैन गुर्जर कवियों' भा. २-1 के विजयधर्मसूरि ग्रंथमाला उजैन । परिशिष्टमें पाहै एवं गच्छमत-प्रबन्ध, अंचलागलीय • सूरतके लेख-(सूर्यपुर नो स्वर्णयुग) प्र. मोटी पहावजी पार्थचन्नगच्छ-पहावली. पापहावली मोतीचन्द मगनभाई- सूरत । भादि ग्रन्थ छपे। जैन साहित्यसंशोधकमें वीरवंशावली ८-१-१. प्रा. जैनलेख-संग्रहाभा.१,२जैनयुगमै तपागच्छ पहावली, पूर्णिमा गच्छपष्टावली छपी सं.जिनविजय,प्रभारमानंदसभा भावनगर थी। हमने जैन सत्यप्रकाशमें भागमगच्छ, बहगाछकी इसी प्रकार जैनयुग, जैनसत्यप्रकाशमें भी लेख प्रकागुर्वावली प्रकाशित की है और पास्मानंद शताब्दी स्मारक शित हुये है। यतीन्द्रविहार दिग्दर्शन भा. से. प्रन्धमें पल्लीवाल गच्चपटावली । मुनि सुन्दरसूरिचित खंभात नो प्राचीन नइतिहास, केसरीया तीर्थ इतिहास गुर्षाचनी-यशोविजय ग्रन्थमालासे प्रकाशित है। संखेश्वरमहातीर्थ आदिमें छपे हैं। दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ पट्टाव लिये जैनहितैषी वर्ष ! . जैन शिलालेख संग्रह (सं. प्रो. हीरालाल) प्र. और जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष में प्रकाशित हुई हैं। ' माणिकचंद्र दि० प्रन्यमाला बम्बई। दिगम्बरोंका कर्तव्य है कि वे एक संग्रह शीघ्र प्रकाशित करें। २ जैन प्रतिमायंत्र लेखसंग्रह (सं.छोटेलाल जैन) पुरा(४) प्रशस्तिसंग्रह-जिनविजयजी संपादित प्रशस्ति तस्वान्वेषणी परिषद् कलकत्ता। संग्रहके अतिरिक्त समाजका एक और संग्रह भी प्रतिमालेखसंग्रह-(सं. कामताप्रसाद जैन) प्र. देशविरति-धर्माराधकसमाज - अहमदाबादसे प्रकाशित है जैन सिद्धान्तभवन, मारा। और दि. समाजका एक संग्रह जैनसिद्धान्तभवन भारासे लेखरूपमें दिखेख नामक हमारा लेख जैन सिद्धान्तप्रकाशित हुमा है। विशेषके लिये देखें "प्रशस्ति संग्रह भास्कर वर्ष . . . में एवं मुनिकांतिसागरजीका भने. और दि. समाज " नामक मेरा लेख । कान्त वर्ष ४०८, , में प्रकाशित है। बीकानेर जैन (५) प्रतिमालेख संग्रह-पूर्णचंदजी नाहरके प्रका लेखसंग्रहका संपादन कार्य हम कर रहे हैं। शित जैनलेख-संग्रहके अतिरिक्त निम्नोक जैनोल-संग्रह (६) विज्ञप्तिपत्र+-वास्तवमें थे. समाजकी यह +देखें हमारा खरतरगच्छ गुर्वावली और उसका ऐतिहासिक बीमाकर्षक वस्तुहै। जो कला और साहित्य उभयरटि महत्व नामक लेख जो भारतीय विद्या में प्रकट है। से महत्वपूर्ण है। चित्रित विज्ञसिपत्रोंमें बीकानेरके दो xदेखें प्रशस्ति-संग्रह और जैन जातियों के इतिहाहकी सामग्री विज्ञसिपत्रोंका भी महत्वपूर्ण स्थान है। जिनमेंसे हमारे नामक मेरा लेख (श्रोसवाल व ५ अंक २। + विशतिपत्रोंके अतिरिक्त, आपसी व्यवहारके प्राचीनपत्र भी 'अनेकान्त' वर्ष ५ अंक १-२। हजारों मिलते हैं, जो बड़े महत्वके है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] ऐतिहामिक मामग्रीपर विशेषप्रकाश पहीहै। संग्रहमें जिसमें उदयपुरके सभी दर्शनीय स्थानोंके चित्र कहोखिनी १५ कुमारपाला, वस्तुपाम, तेजपामके कई हैं। यह पत्र करीब ७५ फुट लंबा है दूसरा इससे भी काब्य १६ भद्रबाहुचरित्र, १७ जम्बूस्वामिचरित्र, १८ बड़ा, यहांके ज्ञानभंडारमें है जिसमें बीकानेरके चित्र हैं। हरिषेण कथाकोश, ब्राने मिदत्तकथाकोश २००इस प्रकारके दो सचित्र पत्र पूर्णचन्द्रजी नाहरके संग्रहमें कथानक मादि। इनके अतिरिक्त विमचरित्र र बादिभी हैं, विज्ञप्तिपत्रोंका एक बड़ा संग्रह मुनि जिनविजयजी देवसूरिचरित्र (अपूर्ण हमारे संग्रहमें) मादि अप्रकाशित पा रहे हैं। वासुदेवशरणजीके उक्त लेखमें विज्ञप्ति दशामें पड़े हैं। उपर्युक्त ऐतिहासिक सामग्रीक भतिरिक्त त्रिवेणीका परिचय छपा है वह कुछ भ्रान्त है क्यों कि दो और महत्वपूर्ण साधारन हैं पर अभी तक उनके प्रकाश उक्त ग्रंथमें विज्ञप्ति पत्र ३ नहीं पर एक ही है और वह में न मानेके कारण विद्वान लोग भी उनसे अनभिज्ञसे हैं। मुनि सुन्दरसूरिका दिया हुआ न होकर (इसका तो केवल पे साधन इस प्रकार हैप्रस्तावनामें उल्लेख ही है यह पूर्णरूपमें मिलता भी नहीं (१) वंशावली-जैन श्रावक संघके तिहासके खिये है)सं. १५E में खरतरगच्छीय उ• जयसागरने जिन- वंशावलियोंका बड़ा महत्व है पर अभी तक इनको प्रकाशन भद्रसूरिजीको नगरकोट यात्रा विवरणके रूपमें मेजा जानेका प्रयान नहीं हुआ, केवल एक वंशावली जैनसाहित्य संशोधक एवं मारमाराम शताब्दी स्मारक प्रन्थमें छपी। (७) तीर्थमाला-विविध - तीर्थकरूपके अतिरिक्त, इस प्रकारकी वंशावलिये यद्यपि प्राचीन बहुत कम मिलती तीर्थोके कई प्रबन्ध 'उपदेश सप्तति' प्रन्यमें भी प्रकाशित हैं फिर भी वंशावलि लेखक भाट मघरेण एवं जैनयतियों हुप हैं और 'प्राचीन तीर्थमाला' के अतिरिक्त अनेक तीर्थ- के पास खोजाने पर बहुत सी मिलेंगी। संखवाल गोत्रकी मालायें जैनयुग आदिमें प्रकाशित है। हमारे संग्रहमें भी वंशावलि हमने पाचन्द्रसूरि ज्ञानभंगारमें देखी थी और बहुत सी तीर्थमालायें एवं ऐतिहासिक तीर्थरस भप्रकाशित भोसवंशके कई गोत्रोंकी वंशावलिकी बहीयें हमारे संग्रह पड़े हैं, जिनसे । प्रन्थ तैयार हो सकता है। शत्रुजयके सम्बन्धमें शत्रु जयतीर्थोद्धार-प्रबन्ध और (१०) श्री पूज्योंके दफ्तर-प्रत्येक गच्छके चाचार्य अपनी २ नाभिनंदनोहारप्रबंध नामक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रकाशित हैं। दफ्तरवही रखते थे, जिसमें दीक्षित मुनियोंका पूर्व नाम, स्थभनकपानाथचरित्रादि अप्रकाशित है। गुरुका नाम, दीक्षाका नाम, समय, स्थान, दीपित करने (5) चरित्रकाव्य-उक्त लेखके अतिरिक्त महत्वपूर्ण वालेका नाम रहता था एवं श्रीपूज्य लोग जहाँ २ जाते, चरित्र काम्य इस प्रकार है-- वहाँके मुख्य मुख्य श्रावकों एवं धर्मकरयों का विवरण लिखते , विजयप्रशस्ति, २ कर्मचंद्र-वंश-प्रबन्ध (मूल मोमाजी य ऐसे दफ्तर सं० १७०.के बाद खरतरगच्छकी। ने छपा रखा है-प्रकाशित नहीं हुआ है) इसकी शाखाओंके हमारे अवलोकनमें आये है। विद्वानोंको उचित वृत्ति भी हमारे संग्रहमें है। है कि श्रीपूज्य-भट्टारकों के स्थानों पर इनकी विशेष रूपसे ३ विजयदेवमहात्म्य ५ वस्तुपाबचरित्र ५ जगहूचरित्र खोज करें। श्री पूज्योंके पास प्राचीन पहे, परवाने, शाही सुकृतसंकीर्तन व्याश्रय काव्य सोमसौभाग्य वर्धमान फरमान, ताम्रपत्र, आवेशपत्र, विजय पहे, राजादि विशिष्ट पचसिंह चरित्र . हमीरामदमर्दन गुरुगुणरत्नाकर म्यक्तियोंके पत्र मादि बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री मिलती १२ धर्माभ्युदयकाव्य हमीर महाकाव्य १७ सुकृतकीर्ति- है जिससे अनेक नांवाते प्रकाशमें पा सकती हैं। - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि-प्रतिबोध " ब ब उसका रस मुद्दत पहिलेका शान्ति हुश्रा करती है पीछे हृदय-खीजसे सूख चुका है पहिले होता है कोलाहल 'कुछ' क्या ? गीलापन भी उसमें मानवताकी रोती प्याली- हिमा ही जननी उम की है दिखलाने को नहीं बचा है लेकर जगको मत बहकानी! जिसे अहिमा कहता भूतल दानवता का रंग जमा है - है मामय छिरी यांद भीतर मानवता के गीत न गाओ! हृदय खोल कर वह दिखलाओ! मानवता की रीती-प्याली मानवता की रीती-प्याली लेकर जगको मत बहकानो! लेकर जगको मत बहकाओ! समझे क्या सब समझचुके हैं दम्भ-द्वेष ने समय-समय पर सुख-दुख का तो रूप बड़ा है जगती को स.तोष दिया है छोटा-सा यह प्रश्न नहीं है श्रात्म-ज्ञान ने मौन माधइस पर ही संसार खड़ा है तब-तब उमको ही योग दिया है मुक्ति-मार्गके बाधक दोनों पूरब, पूरब-सा न रहा है दुखमें मत सुखको ललचाओ! पश्चिमसे मत द्वेष कराओ! मानवता की रीती-प्याली मानवता की रीती-प्याली लेकर जगको मत बहकानी! - कपूरचन्द जैन 'इन्दु' लेकर जगको मत बहकाओ! ये सब तो पीछे की चीजें कार मान रहे संकट को जग में माया, तृष्णा, त्याग-तपस्या कहते मैला मानवता को जब आगे तांडवता लेकर ज्ञान-तरणि हो रहा तिरोहित नाच रही है विश्व-समस्या पाएँ कैमे अभिनवता को ? जग में पैदा होकर उसका श्राम-बबूल जगत के दो तर बनने में अब मत शर्माश्रो ! यह पाकर मत वह ठुकगो ! मानवता की रीती-प्याली मानवता की रीति-प्याली लेकर जगको मत गहकाओ! लेकर जगको मत बहकायो माना, माया मकड़ी-जाला जिसकी करनी उमकी भरनी पर उस का सुलझाना मुश्किल पाप, पुण्य दमका सहचर है : एक त्याग को लेकर किसने दुख तो दुख ही रहा सदा है पाया अब तक है-लक्ष्यस्थल ? सुख कहना मन पर निर्भर है फिर निष्कंटक क्या कंटक-मय क्यापंडित! क्या मूद! सभीको परिभाषामें उलझ न जाओ! नियम नियतिका एक बताओ! मानवता की रीती-प्याली मानवता की रीती-प्याली लेकर जगको मत बहकाओ! लेकर जगको मत बहकानो! अनेकान्त और धीरसेवामन्दिरको सहायतादि भेजनेका __ स्थायी पताअधिष्ठाता वीरसेषामन्दिर' सरसावा जि. सहारनपुर - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद (ले०-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए०, एल० एल० बी०) गुणस्थानोंकी चर्चा जैनदर्शनका प्राण है, क्योंकि यहाँ अंश भी सम्यक्त्व कहलाता है। जीव इसी सभ्यस्य यह विवेचन किया जाता है कि जो जीव अनादि कासे आश्रित हो जाते हैं और सायोपनिक सभ्यवस्वी कहलाते अपने स्वरूपको भूला हुश्रा है वह किस प्रकार अपने स्व हैं। ये जीव कभी कभी वन संयम आदि द्वारा समारिष रूपको पहिचान सकता है और तत्पश्रात यथार्थ ज्ञान और भी ग्रहण कर लेते है और अपनी योग्यता बढ़ाते बढ़ाते मचारित्रके द्वारा अपने पापको परमात्मपद पर पहुंचा अप्रमत्तसंयत हो जाते हैं। चारिग्रकी इस अवस्थामै कभी सकता है। इस प्रारमप्र.प्तिका सुयोग तभी मिल पाता है जीव फिर उपशम मग्यमत्वकी प्राप्तिका प्रयत्न करता है। जब अनेक संस्कारोंके बलसे मात्मामें एक विशेष शुद्धि परिणामौकी जिस उत्तरोत्तर बढ़ती हई विशुद्धिके द्वारा उत्पन्न हो जाती है और जीव अपने कुसंस्कागंका बान यहांगे उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया जाता है उसी क्रमवर्ती करता हुभ्रा उत्तरोत्तर निर्मल भावोंको प्राप्त करता है। श्रेणीका नाम उपशम-श्रेणी है। उचित समय पर यह प्रारम-शुद्धिकी क्रिया अन्तर्मुहूर्त-काल उपशान्तकवायसे सामादन हो सकता है या नहीं? में अर्थात ४८ मिनट के भीतर ही भीतर हो जाती है और उपशम श्रेणीके द्वारा जो जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त जीव अपने कुसंस्कार्गको दबा कर मिथ्यायको छोड सम्य- करता है वह फिर मामाइन सम्यवस्वी हो सकता है या नहीं कवी व भारमश्रद्धानी हो जाता है। चूकि यह श्रद्धान इसके सम्बन्धमें जनाचार्यों में मतभेद है। षटबंडागम-सूची मिथ्याव-भावके दमन या उपशमनसे प्राप्त होता है इस के रचयिना भूतबनी प्राचार्यका मत है कि उपशाम-श्रेणीमे लिये इसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। उतरा हुश्रा जीव मामादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता। किन्तु यह उपशम सम्यक्त्व दीकाल तक टिकता इस मनका उल्लेख लब्धियारकी निम्न गाथामें किया नहीं है। मिले हए मैलके नीचे बैठ जानेसे जो पानी शुद्ध गया हैहोता है उसके जरासे हिल जाने पर वह मैल फिर ऊपर उठ उवसममेढीदी पुगा आदिएगो मासगां गा पापुरादि । माता है और मारे पानीको पुनः गंदला कर देता है । उत्पी भूदलिगाणिम्मलमुनस्स फुडायदेमंग ।। ३४८॥ प्रकार यह उपशम सम्यक्त्व एक अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रह किन्तु कम्पायपाहुडके चणिसूत्रोंके रचयिता यतिवृषभ पाता और पश्चात् पूर्व संस्कारोंके प्राबल्य जीवका पुनः प्राचार्यका मत है कि उपशम श्रेणीसे उत्तर कर जीव मिथ्यात्व मा गिरना संभव है। जिस समय जीव तीव असंयत सम्यगष्टी भी हो सकता है. देशसंयमी भी हो कषायके वशसे सम्यक्रवसे तो रुयुत हो जाता है किन्नु ___ मकता है और मावादम-गुणस्थानवर्ती भी हो सकता है। मिथ्यात्व तक नहीं पहुँच पाता उसी अल्पकालीन अन्तराल और इस सासादन गुणस्थानसे ही यदि उमका मरण अवस्थाको सामादन भाव कहते हैं । इस अवस्थामें सम्य- हुमा तो वह एकमात्र देव गतिको ही जाता है। नरक, परवका भाभाव होने पर भी भूतपूर्व न्यायानुसार उसे नियंच व मनुष्य गनिमें नहीं जाता, क्योंकि इन तीन सम्यवस्व ही कहते हैं, क्यों कि मिथ्यात्वभावका तो अभी गतियोंकी पायुको बांध लेने वाला जीव तो मोहकर्मका पुनः उलय ही नहीं हो पाया। उपशम ही नहीं करता। यह मत लम्धिमारकी निम्न तीन कभी कोई उपशम सम्यस्थी जीव उपशम सम्यक्त्वमे गायानोंमें प्रकट किया गया हैव्युत्त होकर भी अपनेको सम्हास लेते हैं और पुनः मिथ्या- तस्सम्मत्तद्वाए असंजमं देशमंजमं वा पि । स्वी होनेसे बच जाते हैं। मिथ्यात्वका एक प्रति विद्युब गच्छेज्जावलिबके ममे सासगागुणं वापि ॥ ३४५।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनेकान्त [वर्ष ६ जदिमरदि सामगो मो हिरय-तिरिक्खणरंण गच्छेदि इन छह सूत्रोंकी जयवक्ता प्रबग क्षग टीका की णियमा देवं गादि जायसहमुगिदवयणेण ॥३४६ ।। गयी है। गरयतिरिकाब-रागसत्तो सक्कोण मोहमुवसमिदूं। जीवडाणकी गति-भागति चूक्षिकाके सूत्र की टीका तम्हा तिसुवि गदीसुण तस्म उप्पज्जणं होदि ॥ ३४७॥ करते हुए धवलाकारने यह बतलाया है कि किस प्रकार पखंडागमकी धवला टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यने देव या नारकी जीव सम्यक्त्वसहित मनुष्यगतिमें प्रवेश इसी मतभेदका उल्लेख 'जीवहाया' खंडकी सम्यक्त्वोत्पत्ति करके सासादन-गुणस्थान-सहित ही वहांसे निर्गमन भी चूलिकामें इस प्रकार किया है कर सकते हैं। यहां उन्होंने कहा है कि सम्यक्त्व-सहित "एदिस्से उवममसम्मत्तद्धाए अब्भंतरादो असंजमं मनुष्यगतिमें प्राकर उपशमश्रेणी चढ़ कर पुनः नीचे उत्तर पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज, छम् आलि- कर सासादन गुणस्थानमें पहुँचने और वहीं पर मरण करने यासु सेमासु आमाणं पि गच्छेज । आमाणं पुण गदो वाले जीवोंमें उक्त बात घटित हो जाती है। यहाँ पर जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणु- धवलाकार स्पष्टीकरण करते हैंसगदि वा गंतं, णियमा देवगदिं गच्छदि । एसो "एवं पाहुडसुत्ताभिप्रापण भणिद। जीवहाणापाहडचुरिगामुत्ताभिप्पाओ । भूदलिभयवंतस्सुव भिप्पारण पुण संखेज्जवम्साउपसु ण संभवर्वाद, उवएसेण उवममसेडीदो ओदिएणो ण मासणतं पडि- समसेडीदो ओदिएणस्स सामणगुणगमणाभावा । एत्थ वजदि। हंदि तिसु आउएसु एक्कण वि बद्धेण ण पुण संखेज्जासंखेजवस्साउए मोसुण जेण भणि सको कमाए जवसामेदु, तेग्ण कारणेण णिरय-तिरि- तेणेदं घडदे।" क्ख-मणुसगदीश्रो ण गच्छदि"। अर्थात्--यहां जो उपशम श्रेणी चढ़ कर उतरते हुए सब्धिसारकी उपर्युक्त चारों गाथाएं ठीक इन्ही वाक्यों सासादन गुणास्थानसे मरण कर निर्गमनकी बात कही है की रूपान्तर है। केवल जहां वीरसेन स्वामीने पाहुडचुरिण- वह कषाय प्राभृतके चर्णिसूओंके अभिप्रायसे कही गयी है। मुत्तका उल्लेख किया है वहां लब्धिसारके कर्त्ताने पाहु किन्तु जीवट्ठाणके अभिप्रायसे संख्यातवर्षायुषाले मनुष्योंमें णिसूत्रके कर्ता यतिवृषभ मुनीन्द्रका नामोल्लेख कर दिया यह बात संभव नहीं हो सकती, क्योंकि जो जीव उपशमहै। और वीरसेनस्थामीने तो यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्र श्रेणीसे उत्तरा है वह सासावन गुणस्थानमें पहुँच ही नहीं प्रायः जैसे तैसे उदृत किये हैं, क्यों कि उनके उपर्युक्त सकता। किन्तु यहाँ संख्यात व असंख्यात वर्ष भायुओंकी वाक्प जयभवनान्तर्गत चूर्णिसूत्रोंमें इस प्रकार पाये जाते है- अपेक्षा न करके सामान्यसे कहा गया है, जिससे उक्त बात __ "एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धार अभंतरदो असंजमं घटित हो जाती है। पिगकछेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज दोवि गच्छेज। भूतबलि भाचार्यका यह मत कि उपशमश्रेणीसे उत्तर छम श्रावलियासु सेमासु आसाणं पि गच्छेज। कर जीव सासादन गुणस्थानमें नहीं जाता, जीवट्ठायमें कहीं पासाणं पुरण गदो जदि मरदिण सक्को गिरयगदि पृथक् और स्पष्ट रूपसे नहीं पाया जाता। किन्तु उनके उक्त तिरिक्खगदि मणुसगदि वा गंतु, णियमा देवगविं अभिप्रायका पता उनकी स्पर्शन प्ररूपणके सूत्र • से गच्छदि । इंदि तिसुभाउपमु एकण वि बद्धण आउ- सगता है जहां उन्होंने एक जीवकी अपेक्षा सासादन सम्बगेण ण सको फसाए उपसामेढुं। कुदो, देवाउ __ग्रष्टिका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग मोत्तण सेसाणं तिहमाउभारणं मज्झे एकण विभाउ- बतखाया है-'एगजीवं पडुप जहरणेण पलिदोषमस्स एण बद्धण उवसमसेढिसमारोहणस्स अच्चंताभावेण असंखेजदिमागो' सी अन्तरक प्रमाणकी उपपत्ति पदिसिद्धत्तादो । एदेण कारणेण णिरयगदि-तिरिक्ख- बतलाते हुए पवनाकारने प्रश्न उठाया है किजोणि-मणुस्सगदीयो ण गच्छदि।" "सासापच्छायदमिच्छाडि संजमं गेएहाविय (अमरावती, प्रति पत्र १०५७) दसतियमुवसामिय पुणो चरितमोहमुक्सामेदूण Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सापादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमे शासन-भेद ७१ हेट्ठा ओयारिय आसाणं गदस्म अंनोमुहत्तंतरं किरण दोनोंका प्रभाव होनेसे अकस्मात् उनका उदयमें माना परूविदं"? और जीवको सासादन बना देना संभव नहीं जंचता। अर्थात--सासादनके पश्चात् मिथ्यारष्टि हुए जीवको अतएव अनुमान होता है कि भूतबखि भाचार्य भानन्तानुसंयम ग्रहमा कराकर व दर्शनत्रयका उपशमन कराकर पुनः बन्धीका विसंयोजन स्वीकार करनेके कारण उपशान्त कवाय चारित्रमोहको उपशमाकर नीचे उतर मासादन गुणस्थान से सासादनमें जाना नहीं मानते और संभवत: यतिषमामें जाने पर सासादन सम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तर चार्य अनन्तानुबन्धीका उपशम मान कर उपशातसे मासाभीतोसका सोक्यों नहीं प्ररूपण किया? इसका दनमें गमन संभव बनाते हैं। किन्तु जब हम पतिवृषभाउन्होने यो समाधान किया है कि-- चार्यके चर्णिसूत्रोंको देखते हैं तो वे श्रेणी चढ़ने के समय प, उवसमपेढीदो आदिएरगाणं सामणगमणा- अनन्तानुबन्धीका उपशम नहीं किन्तु विसंयोजन ही स्वीभावादो। तं पि कुदो रणधदे ? एदम्हादो चेव भूद- कार करते है, जैसा कि जयधवलाकारकी उत्थानिका व बलीवयणादो।" टीकासहित निम्न चर्णिसूत्रसे स्पष्ट हैपर्यात--जस तरह मामादनका अन्तर्मुहतं प्रमाण "तत्थ ताबमणताणुबंधिविसंजोयणा परवेयव्वा, अंतर नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि उपशमश्रेणीसे अविसंजोइदाणताणुबंधीचमकस्स वेदयसम्माहिस्स उतरे हुए जीव सामानभावको प्राप्त ही नहीं होने । यदि कसायोवसामयाणिबंधणदसणमोहोवसामणादिकिकहा जाय कि यह कैसे जाना जाता है तो उसका उत्तर रियासपीभवाटोतिनो विजोग है कि प्रस्तुत सूत्र ही तो भूतपक्षी प्राचार्यका वह वचन है पुत्वं परूवेमारणो तदत्रसरकाणमुत्तरमुत्तं भणइजिससे उपशम श्रेणीसे उत्तरा हुमा जीव सामादन नहीं वेदयसम्भाइट्ठी अणंताणुबंधी अविर्मजोपदूण हो सकता। यहां प्रश्न यह होता है कि इस मतभेदका कमाये उवसामेदं णो उहदि । (चू० सूत्र) कारण क्या है? यही मतभेद वेताम्बर कार्मिक ग्रंथों में भी जो अट्ठावीमसंतकम्मिश्रो वेदयसम्माइट्टी संजदो पाया जाता है। कर्मप्रकृतिके जपशमना अधिकारकी गाथा मोजाव अणंताणुबंधिचकं गा विसंजोद ताव १२ तथा पंचसंग्रहके उपशमना अधिकारकी गाथा १३ में कसाए उवसामेदं यो उवक्कमेदि । कुदो? तेसिमविभी उपशमश्रेणीसे गिर कर मासादन गुणस्थानमें मानेका संजोयगणाए तम्म उवमममेडिचहणपायोगाभावाउल्लेख पाया जाता है। उन गाथाओंके टीकाकार मनयगिरि संभवादो। तदो अणंताणुधिषिमंजोयणार चेव व यशोविजय उपाध्याय दोनोंने यह स्पष्टीकरण किया है पढममेसो पयदि त्ति जागगावगाहमुत्तरमृत्तारंभोकि जिन भाचार्योंके मतसे अनन्तानुबन्धीकी उपशमना सो ताव पुष्वमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि। होती है उनके मतसे ही श्रेणीपतित जीव सासादन हो सुगमं ।" (चू० सू०) सकता है-'येषांमतेनानन्तानुबन्धिनामुपशमनाभवति अर्थात्-"ब यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना तेषां मतेन कश्चित् सासादनभावमपि गच्छति ।" यह बतलाने योग्य है, क्योंकि, जिस वेदकसम्बग्रष्टि जीवने मत बहुत युक्ति-संगत प्रतीत होता है, क्यों कि अब अनन्ता- भनन्तानुबन्धी तुफकी विसंयोजना नहीं की उसकी कथानुबन्धी कधार्योको उपशमकालमें उपशान्त माना है, तब योग्शामनाके निमित्तभूत दर्शनमोहकी उपशामना भादि उनका परिणामोंके निमित्तसे अनुपशाम्त होकर उदयमें कियायोंमें प्रवृत्ति होना असंभव स लिये उन अनमाजाना और जीवको सासादन बना देना संभव हो सकता तानुबन्धी कषायोंके विसंबोजनको ही पहले बतलाते हुए है। और जहां दर्शनमोहका उपशम होनेसे पूर्व समस्त (भाचार्य यतिवृषम) उसके अवसरकी प्राप्तिके लिये भगवा अनन्तानुबन्धी कार्यों का विसंयोजन अर्थात् अपनी जातीय सूत्र कहते है-वेदक सम्यग्दष्टि जीव अनन्तानुबन्धीका पर-प्रकृतियों में संक्रमण द्वारा विनाश माना गया है, वहाँ विसंयोजन किये विना कपागेको उपशान्य करने के लिये उपशान्य करायकालमें अमन्नानुबन्धीके सत्व और वन्य उचत नहीं होग। (चषि सूत्र) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनेकान्त [वर्ष ६ (टीका) जो अट्ठाइस मोहनीय कर्मोकी ससा गना विर्मयोऊन द्वारा विनाश हो जाने पर भी उसकी बीजयोनिवेदक सम्यग्दृष्टि संयत है वह जब तक अनन्तानुबन्धी- रूप मिथ्यात्व तो रहता ही है और उसीसे परिणामविशेष चतुष्कका विसंबोजन नहीं कर डालता, तब तक वह कषायों द्वारा अनन्तानुबन्धीका उपचय और उदय होना संभव हो के उपशम करने का उपक्रम नहीं करता, क्यों कि अनन्ता सकता है। यद्यपि यह व्यवस्था सर्वथा संतोषजनक नहीं नुबन्धीकी विसंयोजना किये विना उस जीवके उपशमश्रेणी जंचती, क्यों कि अनन्तानुबन्धीकी योनि मिथ्यात्वके उपचढ़ने योग्य भाव उत्पन्न होना संभव नहीं है। इस लिये शमकाल में ही इन बीजांका उपचय होकर उदयमें पाजाना अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने में ही वह जीव पहले युक्तिसंगत मा नहीं लगता। किन्तु जब तक अन्य भागमप्रवृत्त होना है। इसी यातको समझानेके लिये अगले सूत्र प्रमाण उपन्नाथ न हो तब तक इस प्रकार भी उपशान्त का प्रारंभ होता है कषायकालमसे सीधे मासादन गुणस्थानमें जानेकी उपपत्ति "वह वेदक सम्यग्दृष्टि संयत उपशम श्रेणी चढ़नेमे पूर्व स्वीकार की जा सकती है। ही अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करता है।" (चूर्णि सूत्र) सामादन सत्यक्षके संबंधमें अन्य प्रश्न (टीका)"यह सूत्र सुगम है।" उपशमश्रेयीये उतर कर सामादन गुणस्थानमें पाया इस प्रकार जब यनिवृषभाचार्य अनन्तानबन्धीकी हुधा जीव यदि मरण करता है तो नियमग देवगतिम ही विसंयोजना मानते हैं और फिर भी उपशान्त कषायम जाता है, यह तो हम देख ही चुके। अब प्रथमोशम सम्यसासादन गुणस्थानमें जानेका प्रतिपादन करते हैं. तब उनके क्त्यमे मामादन सम्यक्त्वमें आये हुए जीवके सम्बन्धम और भूतबलि प्राचार्यके बीच मतभेदका कारण स्पष्टत: प्रश्न उपस्थित होते हैं वे निम्न प्रकार हैं-- समझ नहीं पाता। अतएव यह विषय गवेषणीय है। १- सासादन सम्यक्त्वी जीव मर कर एकेन्द्रिय, श्वेताम्बर पंचसंग्रहमें कहा गया है कि जब क्षपकश्रेणी विकलेन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकता है चढ़ने वाला जीव बद्धायु होने के कारण अनन्तानुबन्धीका या नहीं? चय करके ही ठहर जाता है, तब वह कदाचित मिथ्यादर्शन २--यदि हो सकता है तो उक्त जीवोंकी अपर्याप्त के उदयसे पुनः अनन्तानुबम्धीका उपचय करने लगता है, अवस्था सामादन सम्यक्त्व पाया जाता है या नहीं? क्योंकि यद्यपि उसके अनन्तानुबन्धीकी मत्ता शेष नहीं रही इन प्रश्नोंके उत्तर भिन्न भिन्न ग्रंथोंमें बहुत भिन्न प्रकार थी पर मिथ्यावकीतो सत्ता धीही, और मिथ्यात्वमें ही से पाये जाते हैं। इन मतभेदोंका यहां ग्रंथानुसार परिचय अनन्तानबम्धीके बीज सनिहित रहते हैं। अतएव कोई कराया जाता है। कोई जीव परिणामविशेषके द्वारा मिथ्यात्वमेंसे अनन्तानु सर्वाथसिद्धिका मत बन्धीका उपचय कर उसे उदयमें ले पाते हैं। पर जिस तत्वार्थसूत्रके टीकाकार पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थजीवने मिथ्यादर्शनका भी तय कर दिया है उसके फिर सिद्धि टीकामें कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले सासाअनन्तानुबन्धीका उदय कदापि नहीं हो सकता, क्यों कि दन सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शन प्रमाण इस प्रकार बतलाया हैउसके पास अनन्तानुबन्धीके बीज ही नहीं रहते- "लेश्यानुवादेन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्यः मिथ्या"इह यदि बद्धायुः क्षपकश्रेणिमारभते, अनन्तानु- दृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः। सामादनसम्यग् भिलाकबन्धिक्षयानन्तरं च मरणसंभवतो व्युपरमते । ततः स्यासंख्येयभागः, पंच, चत्वारो, द्वी चतुर्दशभागा कदाचित् मिथ्यादर्शनोदयतो भूतोऽप्यनन्तानुबन्धिन वा देशोनाः।" उपचिनोति, तद्बीजस्य मिथ्यात्यभ्याविनाशात । क्षीण- अर्थात् --'लेश्याम गंगानुम्मार कृष्ण, मील और कापोमिथ्यादर्शनस्तु नोपचिनोति, बाजाभावात् ।" तखेश्या वाले मिथ्यारष्टि जीवोंद्वारा समस्त लोक स्पृष्ट किया (प'चसंग्रह, द्वार १, पृ० २५) गया है, तथा सासादन सम्यग्रष्टि जीवों-द्वारा लोकका पसं. इसी प्रकार उपशावायकं भी मनन्तानुबन्धी-का ख्याधी भाग एवं वह भागॉमसे कुछ कम पांच, चार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सासादन सम्यत्वके सम्बन्ध में शासन-भेद व दो भाग स्पृष्ट किये गये हैं।" दुए उन्होंने उनके द्वारा कुछ कम पाठ व बारह राजू किन्तु यहां प्रश्न उठता है कि प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया जाना माना है। यथा"द्वादश भागा कुता न लभ्यन्ते " "सासादनसम्यग्दृष्टिभिलकिस्याख्ययभागःमटी अर्थात्-"यदि बठवीं पृथ्वी सासावन नारकी जीव द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः।" तिबंग्लोकमे और तिर्यग्लोकके सासावन जीव लोकानके सर्वार्थसिद्धिकी श्रुतसागरी टीका एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन होते हैं तो उनके द्वारा बारहराव यहाँ सामादन सम्यग्दृष्टियों का जो बारह रान प्रमाण प्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं स्पर्श किया जाता ?" स्पर्शन तंत्र कहा गया है वह तभी सिद्ध हो सकता है जब इसका उत्तर सर्वार्थसिद्धिकार दो प्रकारसे देते हैं। सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में उत्पन होना माना जावे। एक तो यह कि श्रुतसागरने अपनी टीकामें इसी प्रकार सकी सिद्धिकी है। "तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पन्चैव ।" यथामर्यात-छठे नरककी लेश्याकी अपेक्षा पांचसे अधिक “षष्ठीतो मध्यलोके पंचरजवः सासादनो माररा प्रमाण वहांसे निकलने वाले सासादन जीवोंका स्पर्शन गान्तिकं करोति, मध्यलोकाच्च लोका बादर पृथिवीक्षेत्र नहीं हो सकता, क्योंकि मध्यलोकसे ऊपर कृष्णलेश्या कायिक-बादराकायिक-चादरवनस्पतिकारिपुत्पसहित गमन नहीं होता। द्यते इति सप्त रजवः । एवं द्वादशरज्जवो भवन्ति ।" दूसरे प्रकारसे उन्होंने उत्तर दिया है अर्थात् "चठवीं पृथिषीसे मध्यलोक तक पांच राजू प्रमाण "अथवा, येषां मते मासादन एकेन्द्रियेषु नोत्प- सासादन जीव मारणान्तिक समुद्घात करते हैं और मध्यलोक गते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ताः। में लोकाप्रमें बादर पृथिवीकाायक बाबर भकायिक और अर्थात "पक्षास्तरसे, जो पाचार्य सासाबन जीवका बादर बनस्पतिकायिक जीवों में सासावन उत्पाहोते हैं, जिससे एकेन्द्रियों में उत्पन होना नहीं मानते उनके मतकी अपेक्षा सात रा प्रमाण स्पर्शन हुमाम प्रकार पांच और सात द्वादश गजू प्रमाण स्पर्शम पेश नहीं बतलाया।" राच प्रमाण मिलाकर सासावन सम्यवस्वीका कुल बारह यहां सर्वार्थसिरिकारने यह स्पष्ट कर दिया है कि सा- रान प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र हो जाता है।" सावन जीयोंकि मरण पश्चात उत्पत्तिके सम्बन्धमें दो मत अतसागरजीको भी यही उस मतका खयाल था जिस हैं। एक मतके अनुसार सासादन मरकर एकेन्द्रियों में के अनुसार सासादन सम्यक्रवी एकेन्द्रियमि उत्पस नहीं उत्पन हो सकते हैं जिससे उनका स्पर्शन क्षेत्र लोकके होते । इसलिये उन्होंने मागे सासादनोंकी उत्पत्तिसम्बन्धी बारह भाग प्रमाण हो सकता है। किन्तु वूमरे मतके अनु- अपना मत स्पट किया है और उसकी पुष्टिमं एक पुरानी सार सामावन जीव मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन ही नहीं गाथा भी पेश की है। यथा-- होते और जिन भाचार्योंके वचनोंके माधारपर सर्वार्थसिद्धि- सामादनसम्यग्दृष्टिहि वायुकायिक तेजःकाकारने उक्त स्पर्शन क्षेत्र बतलाया है, उन्हें वे इमी दूसरे यिकेषु नरकंषु सर्यसूचमकायिकंषु चतुःस्थानकेपु नोमत पक्षपातीअनुमान करते है। सर्वार्थ सिद्धिकारके था- पद्यते इनि नियमः। तथा चोक्तम । गाथा-- धारभूत वे भाचार्य कौन है व उनके कथनोंसे सासादन जिनठाणच उबकं तेउबाऊय मारय-सुहमं च। जीवोंकी उत्पत्ति-म्यवस्था केसी निकलती है यह हम भागे अण्णात्थ मब्बठाणे उवजद सासणो जीबो ।” चलकर देखेंगे । पर पूर्वोक प्रकाशपरसे चाहे स्वयं सर्वार्थ- "अर्थात "सासावन सम्पहार वायुकायिक, तेजकासिधिकारका मत में स्पष्टत: समममें न भावे, किन्तु ग्रंथ थिकनरक और समस्त सूचमकायिकान चार जीवस्थानों के अन्य अंशों परसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें स्वयं में नहीं उत्पन्न होता। कहा भी है। गाथा-सेज, वायु, सासादन जीवोका एकेम्बिों में उत्पन होना स्वीकार है। नरक और सूचम, इन चार स्थानोंको छोड़कर अन्यत्र सभी सामान्यसे सासादन सम्बटियोंका स्पर्शन क्षेत्र बतखाते स्थान में सासादन जीव उत्पन होता है।" स नियमके Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान [सम्पादकीय जैनियोंके अन्तिम तीर्थंकर श्री वीरभगवानके शासन- छ?णुक्कुडुयस्स उ उपरणं केवलं गाणं ॥ नीर्थको उत्पन्न हुए श्राज कितना ममय होगया, किस शुभ -श्रावश्यकनियुक्ति ५२६ पृ० २२७ वेलामें अथवा पुण्य-तिथिको उसका जन्म हुआ और किस जहाँ केवल ज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ उसकी उत्पत्ति के स्थान पर वह सर्वप्रथम प्रवर्तित किया गया, ये मब बातें अनन्नर, देवनागग आते है, भूत-भविष्यत् वर्तमानरू। ही भाजके मेरे इस लेम्वका विषय हैं, जिन्हें भानी वीर- मकल चगऽचरके ज्ञाता केवलज्ञानी जिनेन्द्रकी पूजा करते शासन-जयन्ती-महोत्सबके लिये जान लेना सभीके लिये हैं-महिमा करते हैं और उनके उपदेशके लिये शकाज्ञासे श्रावश्यक है। इस सम्बन्धमें अब तक जो गवेषणाएँ समवसरगा-मभाकी रचना करते हैं+, ऐमी माधारण जैन (Researches) हुई है उनका मार इस प्रकार है:- मान्यता है । इस मान्यताके अनुसार जुभकाके पास ऋजु- किसी भी जैन तीर्थकरका शामननीर्थ केवलज्ञानके कूला नदीके किनारे वैशाख सुदि दशमीको देवतागणने उत्पन्न होनेसे पहले प्रवर्तित नहीं होता तीर्थप्रवत्तिक पर्व में आकर वीर भगगनकी पूजा की, महिमा की और उनके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका होना आवश्यक है। वीरभगवान उपदेशके लिये तीर्थकी प्रवृत्ति के निमित्त-समवसरण - को उस केवलज्ञानज्योतिकी संप्राप्ति वैशाख सुदि दशमीको सभाकी सृष्टिं भी की, यह स्वतः फलित हो जाता है। परन्तु अपराहके समय उस वक्त हुई थी जबकि श्राप जुम्भिका हम प्रथम ममवमाणमें वीरभगवानका शासनतीर्थ प्रवर्तिन प्रामक बाहिर, ऋजुकुलानदीके किनारे, शालवृक्षक नीच, नहीं हुश्रा, यह बात श्वेताम्बर सम्प्रदायको भी मान्य है, एक शिलापर षष्ठापवाससे युक्त हुए क्षरक-श्रेणीपर श्रारूद जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैथे-आपने शुक्लध्यान लगा रखा था। जैसा कि नीचे तित्थं चाउव्वएणो संघो सो पढमए समोसरणे । लिखे वाक्योंसे प्रकट है उम्पएणो उ जिणाणं, वीरजिणिंदस्स बीयम्मि ॥ उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे वहिं सिलावट्टे । -आवश्यकनियुक्ति, २६५ पृ० १४० छोणादातो अवररहे पायछायाए । आधे समवसरणे सर्वेषामर्हतामिह । वसाहजोण्ड-पक्खे दसमीए म्यवगढिमारुद्धो । उत्पन्नं तीर्थमन्त्यस्य जिनेन्द्रस्य द्वितीयके ।। १७-३२ हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो । -लोकप्रकाश, खं० ३ -धवल-जयधवलमें उद्धृत प्राचीन गाथाएँ। इनमें श्री बीर-जिनेन्द्र के तीर्थको द्वितीय समवसरणम ऋजुकूलायास्तीरे शालद्रमसंश्रिते शिलापट्टे । उत्पन्न हुश्रा बतलाया है, जबकि शेष सभी जैन तीर्थंकरों अपराएहे पष्टेणास्थितस्य स्खलु जम्भकाग्रामे ॥११॥ का तीर्थ प्रथम समवसरण में उत्पन्न हुआ है। श्वेताम्बरीय आगमों में इस प्रथम समवसरणमें तीर्थोत्पत्ति के न होनेकी ज्ञपकण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥ १२॥ + ताहे सकाणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणि । -श्रीपूज्यपाद-सिद्धभक्तिः विक्किरियाए धनदो विरएदि विचित्तस्वेहिं ।। बइसाहसुद्धदसमी-माघा-रिक्खम्हि वीरगाहस्स। -तिलोयप.४-७१० रिजुकूलएदीतीरे अवरोहे केवलं णाणं ॥ . केवलस्य प्रभावेण सहसा चलितासनाः । -तिलोयपएणसी ४-७०१ श्रागत्य महिमा चक्रुस्तस्य सर्वे सुराऽसुराः ।। भिय-बहि उजुवालिय तीर चियावत्त सामसालअहे। -जिनसेन-हरिवंशपु०२-६. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान घटनाको श्रापर्यजनक घटना बतलाया और उसे श्राम- गजाणिककी गजधानी थी प्रस्थान किया, नहाँ पहुचत तौर पर 'प्रबेरा' (असाधारण घटना) कहा जाता है। ही उनका तृतीय समवसरण रचा गया और उन्होंने साग अब देखना यह है कि, दूसरा समवसरण कब और वर्षा काल बही बिनाया, जिससे भावणादि वर्षा के कहाँपर हुश्रा और प्रथम समवसरण में भगवानका चातुर्मास्यमें वहाँ बराबर धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति होती रहा। शामननीर्थ प्रवर्तित न होनेका क्या कारण था ? इस विषय परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि प्रथम समनमें अभी तक निनना श्वेताम्बर-साहित्य देखने को मिला है सरणमें मनुष्योंका अभाव क्यो सा-वे क्यों नहीं पहुँच उसमें इतना दी मालूम होता है कि प्रथम समयमरगामें सके ? समवमरण की इतनी विशाल योजना होने, हजारों देवनादी देवता उपस्थित थे-कोई मनुष्य नहीं था, इस देवी-देवताओंके वहाँ श्राकर जय जयकार करने, देवदुंदुभि से धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सका। महावीरको कवलशान बाजोके बजने और अनेक दुमरे,श्राश्रयों के होनेपर भी, जिनस की प्रााम दिन के चौथे पहरमें हुई थी, उन्होंने जब यह देखा दूर दूरकी जनता ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी तक भी खिंचकर कि उस समय मध्यमा नगरी (वर्तमान पावापुरी)में सोमिलार्य चले पाते हैं, जम्भकााद श्रास-यासक प्रामाकं मनुष्यों तक बाझगाके यहाँ यश-विषयक एक बड़ा भारी धार्मिक प्रकरण को भी समयसरणमें जानेको प्रेरणा न मिली हो, यह बात चल रहा है, जिसमें देश-देशान्तरोंके बड़े-बड़े विद्वान् कुछ समझ नहीं पाती । दुमरे, के.वलशान जब दिनके आमंत्रित होकर पाए हुए हैं तो उन्हें यह प्रसंग अपूर्वलाम चौथे पहरमे उत्पन्न हुना था तब उस केवलोत्पत्तिकी खबर का कारण जान परा और उन्होंने यह सोचकर कि यशमें को पाकर अनेक समूहोंमें देवताओं ऋजुकूला नदीके तट श्राए हुए विद्वान बाहाण प्रनिबोधको प्रास होंगे और मेरे पर बीर भगवानके पाम माने, प्राकर उनकी वन्दना तथा धर्मनीर्थक आधारस्तम्भ बनेंगे, संध्या समय ही विहार कर स्तुति करने-महिमा गाने, समवसरणाम नियत समय तक दिया और वे रातोरान १२ योजन (४८कोस ) चल कर उपवेश के होने तथा उसे सुनने आदि के सब नंग-नियोग मध्यमाके महामन नामक उद्यान में पहुँचे, जहाँ प्रात:काल इतने थोड़े समय में केंमे पूरे हो गये कि. भ. महावारको से ही समयसरणकी रचना होगई। इस तरह वैशाग्य सुदि मंध्याकं ममय ही विहारका अवमा मिल गया?- तामरे, एकादशीको जो दूमग समवसरण रचा गया उममें वीर यह भी मालूम नहीं हो सका कि कंवलगानकी उत्पांतसे भगवानने एक पहर तक बिना किसी गणधरकी उपस्थिति पहले जब भ० महावीर मोहनीय और अन्तगय कर्मका के ही धर्मोपदेश दिया। इस धर्मोपदेश और महावीरकी सर्वज्ञनाकी खबर पाकर इन्द्रभूति आदि ११ प्रधान ब्राह्मण बिल्कुल नाश कर चुके थे--फलत: उनक कोई प्रकारकी इच्छा नहीं थी; नब वे शासनफलको एषणास इसने भातुर विद्वान् अपने अपने शिष्यसमूहाके साथ कुछ आगे पीछे कैम हो उठे कि उम यश-प्रमंगमे अपूर्व लाभ उठानेकी समवसरणमें पहुंचे और वहाँ वीर भगवानसे साक्षात् वार्ना ‘बात सोचकर मंध्यासमयी ऋजुकला-तटसे चल दिये लाप करके अपनी अपनी शंकानोंकी निवृत्ति होनेपर उनके और गनोरात ४८ काम चलकर मध्यमा नगरीके उद्यान शिष्य बन गये, उन्हें ही फिर वीर प्रभु-द्वारा गणधर-पदपर नियुक्त किया गया। साथ ही, यह भी मालूम हश्रा कि मध्यमा जा पहुँचे? और इमलिये प्रथम ममवसग्गामें केवल देव नाश्रोके। उपस्थित होने, संध्या समय के पूर्व तक सब नेग केस द्वितीय समवसरणके बाद, जिम में धर्मचक्रवतिय प्राप्त नियोगांक पूरा हो जाने और फिर अपूर्व लाभकी इच्छा से हुश्रा बतलाया गया हैx म० महावीरने गजगृहकी ओर जो देखो, मनिकल्याणविजयकृत 'श्रमण मगवान महावीर' + देबो, उक्त 'श्रमण मगन महावीर' पृ. ७४ से ७८ पृ. ४८ से ७३ । * स्थानकवासी श्रेताम्बरोंमें केवलज्ञानका इंना १०मीकी x अमरणग्राय महिश्रोपत्तो धम्मवरचरकवहितं । रात्रिको माना गया (भ. महावीरका शादर्श जीवन पृ. बीयम्मि समवतरणे पावाए मज्झिमाए उ॥ २१२) अत: उनके कयनानुसार भी उस दिन संध्या-समय -माव-नि. . पृ. २२६ बिहारका को अवसर नहीं था। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ म.महावीग्के संध्याममय ही प्रस्थान करके रातोंरात मध्यमा प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोषत्रयक्षयं । नगरीके उद्यान में पहुँचने आदिकी बात कुछ जीको लगती जिनेन्द्र गोतमोपृच्छत्तीर्थार्थ पापनाशनम् ।। ८ ।। हुई मालूम नहीं होती। स दिव्यचनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः। ' प्रस्तुत इसके, दिगम्बर साहित्य परसे यह स्पन जाना। दुंदुभि ध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ॥१०॥ जाता है कि ऋजुकूला-तटवाले प्रथम समवसरणमें वीर श्रावणस्यासिते पक्षे नत्रेऽभिजिति प्रभुः। भगवानकी वाणी ही नहीं खिरी-उनका उपदेश ही नहीं प्रतिपर्धाह पूर्वाण्हे शासनार्थमुदाहरत् ॥११॥ होमका, और उसका कारण मनुष्योंकी उपस्थितिका अभाव -हरिवंशपुराण, द्वि० सर्ग नहीं था किन्तु उस गणीन्द्रका अभाव था जो भगवानके इस विषयमें धवल और जयधवल नामके सिद्धान्तमुम्बसे निकले हुए बीजपदोंकी अपने ऋद्धिबलसे ठीक व्या- ग्रन्यों में, श्रीवर्द्धमान महावीरके अर्थकर्तृत्वकी-तीर्थोत्पादन ख्या कर सके अथवा उनके श्राशयको लेकर वीर-प्ररूपित की-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे प्ररूपणा करते हुए, अर्थको ठीक रूपमें जनताको समझा सके और या यूँ कहिये प्राचीन गाथासोंके आधार पर जो विशद कथन किया गया कि जनताके लिये उपयोगी ऐस द्वादशाङ्ग श्रुतरूपमें वीर- है वह अपना खास महत्व रखता है। द्रव्यप्ररूग्णामें तीर्थोबाणीको गूंथ सके। ऐसे गणीन्द्रका उस समय तक योग त्पत्तिके समय महावीर के शरीरका 'केरिसं महाधीसरीरं' नहीं भिड़ा था, और इस लिये वीरजिनेन्द्रने फिरसे मौन- इत्यादिरूपसे वर्णन करते हुए उसे समचतु:संस्थानादि पूर्नक विहार किया, जो ६६ दिन तक जारी रहा और जिस गुणोसे विशिष्ट, सकल दोषोंसे रहित और राग-द्वेष-मोहके की समासिके साथ माथ वे गजगृह पहुँच गये, जहाँ विपु- प्रभावका सूचक बतलाया है। क्षेत्ररूपणाम ‘ातत्युप्पत्तिलाचल पर्वत पर उनका वा समवसरण रचा गया जिसमें कम्हि खेत्ते' इत्यादिरूपसे नीर्थोत्पत्तिके क्षेत्रका निरूपण और इन्द्रभूति गोतम)श्रादि विद्वानोंकी दीक्षाके अनन्तर भावण- उसमें समवसरण तथा उसके स्थानादिका निर्देश करते हुए कृष्णा-प्रतिपदाको पूरहके समय अभिजित नक्षत्र में वीर- जो विस्तृत वर्णन दिया है उसका कुछ अंश इस प्रकार हैभगवानकी सर्वप्रथम दिव्यवाणं। विरी और उनके शासन ___........"गयणट्टियछत्ततयेण वढमाण-तिहुवणाहितीर्थको उत्पत्ति हुई। जैसाकि श्री जिनसेनाचार्यके निम्न वइत्तचिंधएग्ण सुसोहियण पंचसेलउर-रइदिमावाक्योंसे प्रकट है विसय-अइविउल-विउलगिरिमत्थयत्थए गंगोहोब्ब । षट्षष्ठिदिवसान भूयो मौनेन विहरन विभुः। चहि सुरविरइयचारे हियविसमाग. देवविज्जाहरमणुभाजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृह पुरं ॥६शा वजणाण मोहण समवसरणमंगल वजणारण मोहण समवसरणमंन्ले x x x x होदु मारोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियं । णामदिह जिणदल्बमहिमाणं देविदसरूवावगच्छंत 'प्रबोधार्य स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥६॥ जीवाण मिदं जिसवण्णुत्तलिगं चामरछण्ट्ठदिततः प्रबुद्धवृत्तांतरापर्ताहरितस्ततः। माचिसम्मि दिव्यामोयगंधसुरमारायमर्माणागि बहजगत्सुरासुरान जिनेन्द्रस्य गुगौरिव ॥ ६ ॥ फुडियम्मि गंधडिप्पासार्याम्म ट्रियसिहासणारूढेण xxx x बड़माणभडारएगा तित्थुप्पाइदं । खेत्तप्परूवणा।" इन्द्राऽग्निवायुभूत्याख्या कौण्डिन्याखयाश्च पण्डिताः। इसमें अनेक विशेषणोंके साथ यह स्पष्ट बतलाया है इन्दनोदयनाऽऽयाताः समवस्थानमहंतः ॥ ६८॥ कि, पंचशैलपुर ('राजा' नगर)की नेति दिशामें जो प्रत्येक.सहिताः सर्वे शिष्याणां पंचभिः शतैः। विपुलाचल पर्वत है उसके मस्तक पर होने वाले तत्कालीन स्याक्ताम्बरादिसम्बन्धा मंयम प्रतिपेदिरे ॥६६॥ समवसरगा मंडलकी गंधकुटीमें गगन-स्थित छत्रपसे युक्त •"बीजमदगिन्नीणस्थपरूवणं दुवालसंगाणं कारो गणहर एवं सिंहासनारूढ हुए वर्द्धमान भट्टारक (भ. महावीर) ने भडारयो गंयकत्तारयो ति अम्भुगमा दो। बीजपदाणं तीर्थकी उत्पत्तिकी-अपना शासनचक्र प्रवर्तित किया।' स्वायत्रो ति बुलं दोदि।" -धवल, वेयणावंड ... जाधवल अन्यमें इतना विशेष और भी पाया जाता है Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] वीर-शामनकी उत्पत्तिका समय और स्थान कि पंचशैलपुरको, जो कि गुणनाम था, 'राजगई' नगरके अभिजिस्म पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयब्वा ॥" नामसे भी उल्लेविन किया है. उसे मगधमंडलका तिलक भाषण-कृष्ण-प्रतिपदाको तीर्थोत्पत्ति होनेका यह स्पष्ट बतलाया और तीर्थोत्पत्तिके समय चेलना-सहिन महामंड- अर्थ है कि वैशाग्वसुदि १०मीको केबलशान हो जाने पर भी लोकराजा श्रेणिकसे उपभुक्त-उनके द्वारा शासित--प्रकट श्राषाढा पूर्णिमा तक अर्थात् ६६ दिन तक भ. महावीरकी किया है। यथा: दिपध्वनि-वाणी नहीं खिरी और इससे उनके प्रवचन कत्थ कहियं सेणियराये सचेलणे महामंड- (शासन)तीर्थकी उत्पत्ति पहले नहीं हो सकी-इन ६६ लीए सयलवसुहामंडलं भंजते मगह-मंडलतिलप-राय- दिनों में वे भी जिनसेनाचार्य के कथनानुसार मौनसे विहार गिहण्यर-णेरयि-दीसहिट्टिय-विउलगिरि- पव्वए करते रहे हैं। ६६ दिन तक दिव्यनानिके प्रवृत्त न होनेका सिवचारणसेविएवार हगण वेट्रिएगा कहियं।" कारण बतलाते हुए धवल और जयधवल दोनों ग्रंथोमें एक इसके बाद 'उक्तंच' स्पसे जो गाथाएँ दी है और जो रोचक शंका-समाधान दिया गया है, जो इस प्रकार हैधवल प्रन्थमें भी अन्यत्र पाई जाती हैं उनमंसे शुरूकी डेढ़ "छासठदिवसाषणयणं केवलकारतम्मि किमट्ट गाथा, जिसके अनन्तरकी दो गाथाएँ पंचपर्वताक नाम, कीरदेवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाएबश्राकार और दिशादिके निर्देशको लिए हुए हैं, इस प्रकार है- वनीटोरियम वत्तीदो। दिव्यज्झीए मिटुं तद्वाऽपसी? गणिया'पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे । भाषादो । सोहम्मिदेण सक्खणे चेव गणिंदो किरणणाणादुमसमाइण्णे देवदाणवाददे ॥१॥ धोइदो ? काललद्धीए विणा असहायस्स देविंदस्स महाबारेणत्थो कहियो भयिय-लोअस्स। तद्धोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि परिवक्षेत्रप्ररूपणा-सम्बन्धी इस कथनके द्वारा यह स्पष्ट किया एणमहव्वयं मोत्तू अण्णादिसिय दिव्यज्भुणी गया है कि महावीरके शासन-तीर्थकी उत्पत्ति राजगहका किरण पयट्टदे? साहावियादो, ण च सहाबो परपछानै ति दिशामें स्थित विपुलाचल पर्वतपर हुई है, जो शिपयोगालोमaratी " उस समय राजा श्रेणिकके राज्यमें था। 'शंका-केवल कालमेंसे ६६ दिनोंका घटाना किस अब काल-प्ररूणाको लजिये, इस प्ररूपणा में निम्न लिये किया जाता है ? तोन गाथाश्रको एक साथ देकर धवलसिद्धान्त में बतलाया समाधान-इसलिये कि, केवलज्ञानके समुत्पन्न होने है कि-'इस भरनक्षेत्रके अवपिणं-कल्प-सम्बन्धी चतुर्थ पर भी उस समय तीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई। काल के पिछले भाग में जब कुछ कम चौतीस वर्ष वशिष्ठ शंका-दिव्यध्वनिकी उस समय प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई? ६ थे तब वर्षके प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें समाधान---गणी-द्रका प्रभाव होनेसे नहीं हुई। श्रावणकृष्णप्रतिपदाको पूर्वाह के ममय अभिजित् नक्षत्रम म. महावीर के तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। साथ ही यह भी शंका-सौधर्मेन्द्रने उसी समय गणीन्द्रकी खोज म्यो बतलाया है कि श्रावण - कृष्ण - प्रतिपदाको रुद्र-महर्तमें नहा की? सूर्योदयके समय अभिजित् नक्षत्रका प्रथम योग होनेपर जहाँ समाधान-काललब्धिके विना देवेन्द्र असहाय था और उसमें उस खोजकी शक्ति का अभाव था। युगकी आदि कही गई है उसी समय इस नार्थोत्पत्तिको जानना चाहिये :-- शंका-अपने पादमूलमें जिसने महावत ग्रहण किया "इमिस्सेऽवसप्पणीए चमत्थसमयस्म पच्छिमे भाए। उसे छोड़कर अन्यको उद्देश्य करके दिव्यध्वनि क्यों चात्तीसवासससे किंचिबिससूणए मंते ॥शा प्रवृत्त नहीं होती? वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। समाधान-ऐसा स्वभाव है, और स्वभाव पर-पर्यपाडिपदपुम्वदिवसे तित्थुपपत्ती दुअभिजिम्मि ॥२॥ नुयोगके योग्य नहीं होता, अन्यथा कोई व्यवस्था नहीं सावणबहुलपडिबदे रुद्दमुहत्ते सुहोदए रविणो। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [बर्ष६. इम शंका-समाधान दिगम्बर-मान्यतामुमार केवलशान होनेके उल्लेव जैनसूत्रों में पाये जाते हैं। को उत्पत्तिके दिन वारभगवानकी देशनाके न होने और ६५ श्राशा है शासन-प्रभावनाके इस सत्कार्यमें दिगम्बदिन तक उसके बन्द रहने के कारणका भली प्रकार सष्टी- रोंको अपने श्वेताम्बर और स्थानकवासी भाइयोका करण हो जाता है। अनेक प्रकारसे सगावपूर्वक सहयोग प्राप्त होगा। इसी भीयनिवृषभाचार्यके 'तिलोयपण्णी ' नामक ग्रन्थसे भी, आशाको लेकर 'आगामी वीरशासन-अयम्नी - महोत्सव जिसकी रचना देवद्धिंगणिके श्वेताम्बरीय बागम प्रन्यो और की योजना के प्रस्तावमें उक्त दोनों सम्प्रदायोंके प्रमुख व्यअावश्यक नियुक्ति आदिसे पहले हुई है, यह स्पष्ट जाना क्तियाक नाम भी साथ रक्खे गये है। जाता है कि वीर भगवानके शासनतीर्थकी उत्पत्ति पंच- अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि बारशैलपुर (राजगृह) के विपुलाचल पर्वतपर भावण-कृष्ण- शासनको प्रवर्तित हुए गत श्रावणकृष्णा-प्रतिपदाको २vet प्रतिपदाको हुई जैसा कि नीचेके कुछ वाक्याँसे प्रकट है- वर्ष हो चुके हैं और अब यह २५०० वाँ वर्ष चल रहा है, सुर-खेयरमणहरणे गुणाणामे पंचसेलण्यरम्मि ! जो आषाढी पूर्णिमाको पूरा होगा । हमीसे वीरशासनका विउलम्मि पव्वदषरे वीरजिया अस्थकतारो॥६५ अघद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव उस राजगहमें ही म वासस्स पढममासे सावणणाभिम बहुलपडिवाए। योजना की गई है जो वीरशासनके प्रवर्तित होनेका श्राद्यअभिजीणक्खत्तम्मि यसप्पत्ती धम्मतित्थस्स ॥६॥ स्थान अथवा मुख्य स्थान है। अत: इसके लिये सभीका ऐसी स्थिति में श्वेताम्बरोंकी मान्यताका उक्ल द्वितीय सहयोग बांछनीय है-सभीको मिलकर उत्सवको हर प्रकार बनीय समक्सरण-जैसा थोड़ा सा मतभेद राजगृहमें अागामी से सफल बनाना चाहिये। इस अवसर पर वीरशासनके प्रेमियोका यह खास कर्तभावण-कृष्ण-प्रतिपदादिको होनेवाले वीरशासन-जयन्ती व्य है कि वे शासनकी महत्ताका विचारकर उसके प्रमुसार महोत्सवमें उनके सहयोग देने और सम्मिलित होनेके लिये काई बाधक नहीं हो सकता-वासकर ऐसी हालतमें जबकि अपने श्राचार-विचारको स्थिर करें और लोकमें वीरशासन वे जान रहे हैं कि जिस श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको दिगम्बर के प्रचारका-महावीर सन्देशको सर्वत्र फैलानेका-भरसक उद्योग करें अथवा जो लोग शासन-प्रचारके कार्य में लगे आगम राजगहमें वीर भगवानके समवसरणका होना बतला हो उन्हें मतमैदकी साधारण बातोपर न जाकर अपना सचा रहे हैं। उसी श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको श्वेताम्बर श्रागम भी सहयोग एवं साहाय्य प्रदान करने में कोईवात उठान रक्सवे. वहाँ वीरपभुके समवसरणका अस्तित्व स्वीकार कर रहे हैं, इतना ही नहीं किन्तु वहाँ केवलोत्पत्तिके अनन्तर होनेवाले जिससे वीरशासनका प्रसार होकर लोकमैं सुख-शान्ति-मूलक उस सारेचातुर्मास्यमें समवसरणका रहना प्रकट कर रहे कल्याणकी अभिवृद्धि हो सके। इसके अलावा यह भी मान रहे है कि 'राजगृह नगर वीरसेवामन्दिर, सरसावा महावीर के उपदेश और वर्षावासके केन्द्रों में सबसे बड़ा और देखो, मुनिकल्याणविजयक्त ‘भमय भगवान महावीर' प्रमुख केन्द्र था और उसमें दोसौसे अधिकवार समवसरण .२४,२५ सूचना स्थानाभावके कारण इस किरण में 'जैनधर्मपर भजैन विद्वान्' शीर्षक नहीं दिया जा सका, दूसरे भी कुछ लेख नहीं दिये जा सके, पुस्तकोंकी समालोचना भी नहीं जा सकी। अगली किरणमें उनके देनेका जरूर यत्न किया जायगा। -व्यवस्थापक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे वर्षमें अनेकान्तके और सहायक बढे वर्षकी प्रथम किरण प्रकट होनेसे पहले ही अनेकान्तके प्रेमी जिन सज्जनोंने मार्थिक सहायताका बचन दिया था अथवा सहायता भेजनेकी कृपाकी थी उन सबकेशुम नाम सहायता की 1).की रकमके साथ पिछली किरणमें प्रकाशित किये जा चुके हैं। उनके अलावा अबतक और जो महानुभाव सहायता मेजकर अपवा सहायताका पचन देकर सहायक बने हैं उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-सहित इस प्रकार हैं:३१) बा. दलीपसिंहजी कागजी, देहली। .) सिंघई नन्दनलालजीबीनानटावा। ३१) मेसर्स राजमल गुलाबचंद जैन बैंकर्स, भेजसा । ) खा. पन्नालाल मिश्रीलाल बडजात्या, इन्दौर (पुत्री २१) ला. हीरालालजी जैन सोगानी, जयपुर । शान्तादेवीके विवाहकी खुशी में)। २.) बा.फेरुमल चतरसेनजी वीरस्वदेशी भंडार, सरधना .) चौ.वमनल्लाबजी जैन स देहरादून। (मेरठ).। .) ला• जनेश्वरदासजी सर्राफ देहरादून। १२) सेठ रोडमल मेघराजजी चार दान फंग, सुसारी २) बा. भगवानजी सरदारमलजी, किशनपुरा, इन्दौर (बडवानी).. (पुत्र फूलचंदके विवाहकी खुशीमें)। १७) सा. परहदास जैन, सहारनपुर . ५) दि. जैन पंचायत किशनगद, जयपुर। १४) जा० उदयराम जिनेश्वरदाय, सहारनपुर *। .) ला जमुनालाल जैन, चांदा मैचवर्स, बर्षा । ")ला. तनसुखराम जैन, तिस्सा जि० मुजफ्फरनगर । ३॥)ला. मीरीमल मंगलसेन, डिप्टीगंज देहली। ") श्रीमन्त सेठ ऋषभकुमारजी खुरई जि०मागर (जन्म- ३) मैसर्स उग्रसेन वंशीलालजी मुजफ्फरनगर। पिताश्रीखुशालचंदजीकी स्मृतिमें निकाले हुपदानमेंमे। ३) मुन्शी सुमेरचन्दजी अर्जीनवीस, देहली (पिताजीके १) एक गुप्त सहायक । स्वर्गवासके अवसर पर निकले हुए वानसे)। १०) सेठ धर्मदास ऋषभदास जैन, सतना (रीवा)। )ला. प्रेमचन्द मोतीचन्द जैन, सतना (रीवा)। ७) ला कन्हैयालाल सीतारामजी. किशनगढ़ जयपुर। २० ७) बा. रघुवरदयाल जैन, करोलबाग देहली। नोट-जिनके भागे • यह चिन्ह लगा है उनकी भोरमे ७) मार्फत जैनसंगठन समा। अनेकान्त भजनानि संस्थानों तथा खास खास विद्वानों .) रा. सा. श्यामलालजी ऐग्जीक्यूटिव भाफीसर, को फ्री भेजा जारहा है। ).की सहायतामें रुडकी (सहारनपुर) *। चारको फ्री भिजवाया जा सकता है।-व्यवस्थापक भाषश्यकता वीर सेवामन्दिरको दो ऐसे सेवाभावी योग्य विद्वानीका क्षरूरत है जिनसे एक हिसाब-किताबके काम में निपुण हो-- बाकायदा हिसाब रखते हुए वीरसेवा मन्दिरकी सारी सम्पत्तिकी जो अच्छी देख-रेख और पूरी सार-संभाल रख सके। दूसरे विद्वान संस्कृत, प्राकृत और हिन्दीके करीडिंग तथा पत्र-व्यवहारके काम में दक्ष होने चाहिये। और यदि वे संस्कृत, प्राकृत, तथा अंग्रेजीका हिन्दीमें अच्छा अनुवाद भी कर सकते हो तो ज्यादा बेहतर है। वेतन योग्यतानुसार दिया जायगा। जो विद्वान आना चाहे उन्हें अपनी योग्यता और कार्यानुभवके पूरे परिचयके साथ नीचे लिग्वे पते पर शीघ्र पत्र-व्यवहार करना चाहिये। छोटेलाल जैन (कलकत्ता वाले) सभापनि 'बीरसेवामन्दिर समिति' सरसावा जि. सहारनपुर संशोधन पाठक इमी किरणमें पृ. ४६ के प्रथम कालमकी १८वीं पंक्ति में जो 'अनुज' शब्द छपा है उसके स्थान पर 'लाल' शन्द बना लेवें, पृ०५० के दूसरे कालमकी २४ वीं पंक्ति में 'क्या तोष' के स्थान पर जो 'क्या नोंछश है उसे सुधार लेवें और पृ. ५२ के दूसरे कालम की १७ वी पंक्ति में जो चाह' के ऊपर अर्थ लगा है उसे निकाल कर अगली पंक्तिके 'छार' शब्द पर उसकी योजना करके संशोधन कर ले।। -प्रकाशक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ए र -पर...जर..का.. - ए .. Registere No. A-137. 22-22-卐---- - * व्यवस्थापकीय निवेदन 9 - जिस समय 'अनेकान्त' के व्यवस्थापकत्वका भार दो महीने पहिले मैंने स्वीकार किया था उस समय मैं बहुत घबरा रहा था कि कहाँ 'अनेकान्त' जैसे उचकोटिके पत्रका व्यवस्थापन-कार्य और कहाँ मेरे जैसा अयोग्य, अनुभव तथा साधन-हीन व्यक्ति पर केवल बजुगोंके आदेश और श्रेय मुख्तार साहबके स्वास्थ्यको दृष्टिमें रखकर [क्यों किधर एक वर्षसे पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका स्वास्थ्य बराबर गिरता जारहा है और वे प्रायः अस्वस्थ रहते हैं कुछ वृद्धावस्थाकी और कुछ अस्वस्थताकी कमजोरी उन्हें बराबर सता रही है। साथ ही, वे परिश्रम इतना अधिक करते है कि । जो एक नवयुवक और शक्तिशाली व्यक्तिको भी नहीं करना चाहिये; पर वे अपनी धुनके ऐसे है कि चिकित्सकोंके मना करने पर भी, रिलीफ्रका कोई समुचित साधन पासमें न होनेके कारण, अपनी जिम्मेदारीको महसूस करते हुए बराबर १४,१५,घंटे सम्पादन तथा लेखन प्रादिका कार्य स्वयं करते ही रहते है और दिमाग तो उनका शायद १६ या २.घंटे रोजाना कार्यमें जुटा रहता है। । इधर शरीर के प्रति निलिप्तता कुछ ऐसी बढ़ गई है कि खाने-पीने की ओर अधिक ध्यान भी नहीं देते हैं, जिसका निश्चित परिणाम है शक्तिका हास। पिछले दिनों महीनों तक जब 'पुरातन-जैन वाक्यसूची' का सम्पादन-प्रकाशनादि कार्य हो रहा था तो श्रापको प्रायः रात्रिके एक २और दो २ बजे सोना मिला है। शरीर भी एक मशीनरी है आखिर बिना ग्रीस कितने दिन खड़ी रह सकती है, अतः निरन्तर साथ रहनेके अनुभवसे मैं यह बात कह सकता हूँ कि इधर कुछ सेंसे मुख्तार साहेबकी शारीरिक शक्ति प्राधी नहीं रही है और मुझे भय है कि यदि उन्हें समाजकी तरफसे समुचित रिलीफ न दी जासकी तो शायद उनसे उनके जीवनकी वह अगाढी कमाई जो कागजके टुकड़ों में इधर-उधर बिखरी पड़ी है और अधिकांशतः उनके दिमागमें संचित है तथा समाजके लिये बहुत ही उपयोगी है उसे हम न ले सकें] और साथ ही यह सोच कर कि यदि मैंने 'अनेकान्त' के कार्य में उनको कुछ सहयोग दिया तो सम्भव है कि वे ऐसे अमूल्य कार्य जिनको वे अनवकाशके कारण पूरे नहीं कर सकते हैं कुछ पूरा कर सक, मैंने व्यवस्थापक भारको अ.ने ऊपर लिया है। मैं धड़कते हुए हृदय तथा प्राशा और निराशाकी सम्मलित भावनाओंसे अपनी योजना लेकर समाजके सामने गया और टूटे-फूटे शब्दों में अपनी प्रार्थना समाजके सन्मुख प्रस्तुत करदी। मुझे यह प्रकट करते हुए अति प्रसन्नता होती है कि मैं जिन २ महानुभावोंके पास पहुँच सका हूँ उनसे मुझ अच्छा सहयोग मिला है-धनियोंने धनसे, कार्यकर्ताथोंने समय और परिश्रमसे, विद्वानोंने लेखोंसे, बजुगोंने शुभकामना और पथप्रदर्शनसे मेरा हाथ बटाया है। और भी बहुतसे सज्जनोंसे पत्र-व्यवहार हो रहा है तथा बहुतसे महानुभाव ऐसे भी हैं जिन तक व्यस्तता या भूल-वश मैं अभी तक पहुंच भी नहीं पाया हूँ, मुझे आशा है उन सबका सहयोग मिल जाने पर हम 'अनेकान्त' को बहुत ऊंचे स्थान पर पा सकेंगे। _ 'अनेकान्त' हाथमें लेते समय मैंने यह संकल्प किया था कि हम इस वर्ष 'अनेकान्त' के एक हजार ग्राहक और फ्री भिजवाने वाले सहायक बना लेंगे। पर अब एक किरण निकलनके बाद ही मुझे ऐसा मालूम होने लगा है कि हमें तो अनेकान्तके एक हजार ग्राहक और एक हजार अजैन संस्थाओं और विद्वानोंको मुफ्त भिजवाने वाले सहायक बनाने चाहिये। चूंकि रोजाना आनेवाले बीसों पत्र यह बता रहे हैं कि अनेकान्तके संचालकोंने इस समय "समयकी पुकारका उत्तर दिया है" और समाजकी, उस मांगको पूरा करनेका संकल्प किया है, जिसकी आवश्य कता बहुत दिनसे महसूस की जा रही थी। अब आवश्यकता इस बातकी है कि अनेकान्तका अधिकसे अधिक प्रचार किया जावे। इसके लिये हमें समाजके, स्थानीय कार्यकर्ताओंके उदार सहयोगकी अधिक आवश्यकता है ताकि वे अपने २ स्थानकी जनतामें, अनेकान्तका .. अधिकसे अधिक प्रचार करें और उनमें उसके स्वाध्याय करनेकी भावना पैदा करें। ऐसे सहयोग-दानके इच्छुक बन्धुर पत्र लिख कर प्रचारका साहित्य बिना किसी खचेके यहांसे मँगा सकते हैं। A साथ ही, ऐसे दो विद्वानोंकी भी आवश्यकता है जो वेतन पर स्थान २ पर भ्रमण करके जनतामें अनेकान्तके . स्वाध्यायकी रुचि पैदा करें। उन्हें किसीसे भी चन्दा नहीं मांगना पड़ेगा। कौशलप्रसाद जैन मा. व्यवस्थापक "अनकान्त" कोर्ट रोड, सहारनपुर - ए -जए - ए -9-30->ए ए ए एमा प्रकाशक. परमानन्दशासी वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसन्दरखाव श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में मद्रित का .अर जर- एर र रजरपर-र-र पर Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASTRA एकनाकर्षन्ती रथयन्ती वस्तुतमितरण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्धाननेत्रमिव गोपी। उभयानुभय तत्व SRISE THAN Emmer 5 * निय वस्तुतत्त्व HAR भयनत्व विधयानमया अनुभय तत्त्व रा . विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि नहिशेपैः प्रत्येक नियमविषयैश्वाऽपरिमितः । मदाऽन्योऽन्यापतः मकनभुवनज्येष्ठगुरुगा त्वया गीतं तत्त्व वहुनय-विवातरक्शात् ।। सम्पादक- जुगल किशोर मुरतार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची समन्तभद्रभारती कुछ नमूने[सम्पादक पृ०11८ सभी ज्ञान प्रत्यक्ष है-4. इन्द्रचन्द शाखी ... २ नोंका विश्लेषण [पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य ८३ जागोर हे युगप्रधान(कविता)-4. पचालान सा... . जैनजागरण वा-सूरजभान [4. कन्हैयालाल'प्रभाकर'८८ १. वर्तमान संकटका कारण-बा० उग्रसेन एम.ए.११. " माधव-मोहन (कहानी)-मा.पं. जगदीशचन्द्र . . विश्वको पहिसाकासंदेश-बा०प्रभुलाशा जैन 'प्रेमी'." ५ कवि-प्रतियोष (कविता)-[श्रीमामराज हर्षित १२ मानवताके पुजारी हिं०-[श्रीकन्हैयालाल 'प्रभाकर' १५ ६ सासादन-संबंधमें शासनभेद-प्रो.हीरालाल ७३ जैनधर्म पर अजैन विद्वान् (संकलित) ११७ . जैनधर्मकी कलक-[4. सुमेरचन्द दिवाकर १४ व्यवस्थापकीय निवेदन वीर-शासनका अर्धद्वय-सहस्राब्दि-महोत्सव वीर-शासनको--भ. महावीरके धर्मतीर्थको--प्रवर्तित हुए ढाई हजार वर्ष समाप्त होरहे हैं, अतः ढाई हजार वर्षकी समाप्ति पर कृतज्ञ जनता और खासकर जैनियों के द्वारा वीर-शासनका 'अर्धद्वयमहस्राब्दि-महोत्मव' मनाया जाना समुचित और न्यायप्राप्त है। इसीसे वीरसेवामन्दिर सरसावाने, श्रीमान बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ताकी प्रेरणाको पाकर, इस महोत्सवके मनानेका भारी आयोजन किया है। इस महोत्मवर्क लिये जो स्थान चुना गया है वह है 'राजगृह' तीर्थक्षेत्र। इस स्थानका कितना अधिक महत्व है यह तो स्वतंत्र लेखका विषय है, फिर भी यहाँ पर संक्षेप में इतना प्रकट किया जाता है कि . (१) दिगम्बर मम्प्रदायकी दृष्टिसे यह राजगृह वह स्थान है जहाँ सबसे पहले श्रावण-कृष्ण प्रतिपदाको सूर्योदयके समय वीर भगवानकी दिव्यध्वनि वाणी खिरी, उनके सर्वप्राणि-हितरूप 'सर्वोदय' तीर्थ की प्रवृत्ति हुई और उनके प्रधान गणधर गौतमके द्वारा उनकी दिव्य-वाणीकी उस द्वादशांग श्रुतमें रचना की गई जो वर्तमानके मभी जैनागमोंका आधारभूत है। किसी भी दिगम्बर ग्रन्थमें जहां उसके विषयावतारका निर्देश है वहाँ इसी स्थानके विपुलाचलादि पर्वत पर वीर भगवानका समवसरण पाने और उस में वीर-बाणीके अनुसार गौतम गणधरके द्वारा उस विषयके प्रतिपादनका उल्लेख है। . (२) श्वेताम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिसे यह राजगृह वह स्थान है जहाँ वैशाख सुदि १० मीको होने वाले केवलज्ञानके अनन्तर ज्येष्ठ मासके शुरूमें ही भ० महावीर देशनाके लिये पहुँच गये थे, जहाँ वे ज्येष्ठ तथा आपाढ मास तक ही नहीं किन्तु वर्षाकाल (चातुर्मास्य) के अन्त तक (कोई छह मास तक) स्थित रहे और इस अर्सेमें जहाँ बराकर उनकी समवसरण सभा लगती रही और उसमें उनका धर्मापदेश होता रहा, जिसके द्वारा हजारों लाखों प्राणियोंका उद्धार तथा कल्याण हुआ है। और जो मुनि कल्याणविजयके शब्दों में "महाबोरके उपदेश और वर्षा-वासकै केन्द्रों में सबसे बड़ा और प्रमुख केन्द्र था ।" 'जहाँ महावीर का समवसरण दोसौसे अधिवार होनेके उल्लेख जैनसूत्रोंमें पाये जाते हैं। और इस लिये जहाँ वीरशासन विशेषरूपसें प्रवर्तित हुआ है। अतः दोनों सम्प्रदायोंकी दृष्टिसे राजगृह (राजगिर) वीरशासन-सम्बन्धी महोत्सबके लिये सबसे अधिक उपयुण स्थान है, जहांकी प्राकृतिक शोभा भी देखते ही बनती है। महोत्सवकी प्रधान तिथि श्रावणकृष्णप्रतिपदा है, जो उत्सर्पिणी आदि युगोंके आरम्भकी तिथि होने के साथ साथ वर्षारम्भकी भी तिथि है-इसी तिथिसे पहले भारतवर्ष में वर्षका आरम्भ हुआ करता था, 'वर्ष' शब्द भी वर्षाकालसे अपने प्रारम्भका सूचक है। अतः यह तिथि अन्य प्रकारसे भी इतिहासमें अपना खास महत्व रखती है। . महोत्सबकी विशेष योजनाएँ आगामी किरणोंमें प्रकाशित होंगी। -अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् - विश्वतत्व-प्रकाश वार्षिक मूल्य ४) २० एक किरण का मूल्य ।) PEAKER नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वर्ष ६, किरण वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर, कार्तिक शुक्ल. वीरनिर्वाण सं० २४७०, विक्रम मं० २०.. अक्तूबर १६४३ समन्तभद्र-भारतोके कुछ नमूने । १६ ] श्रीशान्ति-जिन-सतोत्र विधाय रचा परतः प्रजानां राजाचिरं योऽप्रतिमप्रतापः । व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्तिमुनिर्दयामूतिरिवाज्यशान्तिम् ॥१॥ 'जो शान्तिाजन परसे--शत्रुओंसे--प्रजाजनोंकी रक्षा करके चिरकाल तक अप्रतिम-प्रतापकेअनुपम पराक्रमके--धारक राजा हुए और फिर जिन्होंने स्वयं ही-विना किमीक उपदेशक--मुनि होकर दयामूर्तिकी तरह सबसे पहले (हिंसादि) पापोंकी शान्ति की।' चक्रण यः शत्रुभयङ्करण जिस्वा नृपः सर्वनरेन्द्र-चक्रम् । समाधि-चकण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम् ॥ २ ॥ 'जो (गृहस्थावस्थामें) शत्रुओंके लिये भय उपजाने वाले चक्रसे सर्व नरेन्द्र चक्रको--मंपूर्ण गजाश्री के ममूहको-जीत कर चक्री नूप-चक्रवर्ती सम्राट्--हुए, और (मुनि अवस्थामे) समाधि-चक्रसे-धर्मध्यानशुक्तध्यान के प्रभावसे--दुर्जेय मोहचकको--मोहनीय कमके मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंचको-जीत कर जो महान् उदयको -अपने पूर्ण विकासको--प्राप्त हुए हैं।' Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ राज-श्रिया राजसु राजसिंहो रराज यो राज-सुभोग-तन्त्रः। माईन्स्य-लक्ष्म्या पुनरास्मतन्नो देवाऽसुरोदारसभै रराज ॥३॥ 'जो राजेन्द्र, राजाओंके योग्य सुभोगोंके अधीन हुए अथवा उन्हें स्वाधीन (अधिमाधक रूपमें प्राप्त किये हुए, राजलक्ष्मीसे राजाओंमें शोभाको प्राप्त हुए वे ही फिर (परम बीगग अवस्थाम) श्रात्माधीन हुए-आत्माका कर्मचन्धनसे छुड़ा कर स्वाधीन किये हुए-श्राहंन्यलक्ष्मीसे-अनन्तशानादिरूप श्रन्ताङ्ग और श्रष्ट महापानिहार्यादिरूर बहिरंग विभूषिसे-देवों तथा असुरों ( श्रदेवों )-मनुष्यादिकोंकी महती ( ममवमरगातिना ) समामें शोभाको प्राप्त हुए हैं।' यस्मिन्नभूद्राजनि राजचक्रं मुनी दयादीधिति-धर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्रं ध्यानोन्मुखे ध्वंमि कृतान्तचक्रम् ॥४॥ 'जिनके राजा होने पर राजाओंका समूह हाथ जोड़े खड़ा रहा, मुनि होनेपर दयाकी किरणों वाला धर्मचक्र प्रालि हुअा-अात्माधान बना. पूज्य होने पर-धर्मतीर्थका दर्तन करने पर-देवोंका समूह पुन: पुन: हाथ जोड़े खड़ा रहा, और ध्यानके सन्मुख होने पर-प्युपरनक्रियानितिलक्षण योग के चम समय में-कृतान्तचक्र-कमीका अवाशष्ट ममूह-नाशको प्राप्त हुआ। स्वदोष-शान्त्या विहितास्मशान्तिः शान्तर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्स्ये शान्तिजिनो मे भगवान्शरएयः॥ ५॥ -स्वयम्भूम्तोत्र 'जिन्होंने अपने दोषोंकी--अज्ञान तथा गग-द्वेष-काम क्रोधादि विकागेका-शान्ति करके-गा निवृत्ति करके-श्रात्मामें शान्ति स्थापित की है--पूर्ण मुग्वम्वरूपा स्वाभाविक स्थिति प्रान की है, और (म लिये) जो शरणागतोंके लिये शान्तिके विधाता हैं वे भगवान शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-शाणभूत हैं । अतः मेरे संसार-परिभ्रमणकी. क्लेशोंकी और भयोंकी उपशान्तिके लिये निमित्तभून हो। भावार्थ-अात्माको शान्ति-सुम्बकी प्राप्ति अपने दोषोंको-राग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारोंक-शान्त करनेसे होनी है, और जिम महान् श्रात्माने अपने दोषोंको शान्त करके आत्मामें शान्ति-सुखकी प्रतिष्ठा की है वही शरणागतीके लिये शान्ति-सुखका विधाना होता है उनमें शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति-सुख रूप परिणत करने में सहायक होता है, और ऐसा करने में उसके लिये किसी इच्छा तथा प्रयत्नकी भी जरूरत नहीं पड़नी-वह स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अनिके पाम जानेसे गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुँचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन हुअा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिकका कोई कारण नहीं पड़ता । श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्रने अपने दोषों-रागादिविभावपरिणामोंको पूर्णतया शान्त करके अपने श्रात्मामें पूर्ण शान्ति स्थापित की है और इस लिये वे शरणागत भव्य जीवों में शान्ति-सुखके विधाता हैं-बिना किसी इच्छा या इस्तादि प्रयत्नके ही उनमें शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति-सुखरूप परिणत करने में प्रबल सहायक हैं। इसीसे स्वामी समन्तभद्र शान्तिजिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए कहते है-'मैं ऐसे शान्तिमय जिनभगवान्की 'शरणमें प्राप्त होताहूँ-उनकी शान्ति-पद्धतिको अपनाता हुआ उनका श्राराधन करता हूँ-,फलतः मेरे संसार-परिभ्रमण की समामि और साँसारिक क्लेशों-दुःखों तथा भयोंकी इतिश्री' होवे।' Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंका विश्लेषण (ले०--श्री०पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य) [इस लेखके लेखक महोदय पं. वंशीधर जी जैनममाज के एक सुजमे हुए सुप्रमिद्ध विद्वान है--गम्भीर विचारक होनेके साथ साथ बड़े ही निरभिमान एवं सेवापरायण हैं-समाज-सेवक होनेके साथ साथ देश-सेवक होनेका भी श्रापको गौरव प्राप्त है, आप अभी अभी सालभरकी जेलयात्रा करके श्राए हैं। जेलसे श्राते ही आपने जो लेख लिखा उसे पहली किरणमें 'धर्म क्या है?' इस शीर्षक के साथ पाठक पढ़ चुके हैं। आज यह आपका दुमरा लेख है, जिसे श्राप के प्रमाण-नय-विषयक अनुभवका निचोड़ कहना चाहिये । लेख अच्छी सधी हुई लेबनीसे लम्बा गया है और विद्वानों के लिये विचारकी तथा सर्वसाधारण के लिये प्रमाण-नय-विषयक ज्ञानकी यथेष्ट सामग्री प्रस्तुत करता है ।--सम्पादक] (१) प्रमाण-निर्णय कबूल किया है और इसे ज्ञानावरण कर्म'२ नाम दिया है "प्रमाणनवैरधिगमः" यह तत्वार्थसूत्रके पहिले अध्यायका इस कर्मके भी पांचों ज्ञानोंके प्रतिपक्षी पांच भेद उसने ठा सूत्र है। इसमें पदार्थों के जाननेके साधनों का प्रमाण और कबूल किये हैं जिनके नाम ये हैं-मनिज्ञानावरण, श्रुतनयके रूपमें उल्लेख किया गया है। भागे चल कर इसी ज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानाबरण और अध्यायमें “मतिताधिमनःपर्ययके वलानि ज्ञानम्" केवलज्ञानावरण। (सू.) और "तत्प्रमाणे" (सूत्र १०) इन सूत्रों द्वारा जिस ज्ञानावरण कर्मके भभावसे प्रास्माके ज्ञानगणका ज्ञानके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानरूपसे विकास हो अथवा जो प्रात्माके ज्ञानगुण और केवलज्ञान ये पांच भेद मान का इनका ही प्रमाणरूप का मतिज्ञानरूासे विकास न होने दे उसे मतिज्ञानावरण से उल्लेख किया गया है। कर्म कहते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण जैनधर्मकी मान्यताके अनुसार मनुष्य, पशु आदि जगत् ___ मनःपर्थयज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका स्वरूप के सब प्राणियों में बाह्य शरीरके साथ संबद्ध परिणामी-नित्य समझना चाहिये। एवं अवश्य पात्मनामा वस्तुका स्वतंत्र अस्तित्व है और इन पान ज्ञानाबरण मौके प्रभावसे प्रास्माके ज्ञानयह मारमा प्रत्येक प्राणी में अलग अलग है, इसके गुणका क्रमसे जो मतिज्ञानादि रूप विकास होता है इस सद्भावसे ही प्राणियों के शरीग्में भिन्न २ नरहके विशिष्ट विकासको जैनधर्ममें 'ज्ञानल धि' नाम दिया गण है। इस व्यापार होते रहते हैं और इसके शरीरसे अलग होते ही ज्ञानलब्धिके द्वारा ही मनुष्य, पशु आदि सभी प्राणियोंको सब व्यापार बंद हो जाते हैं। पदार्थोंका ज्ञान हुमा करता है और प्राणियोंको होने वाले इस प्रास्मामें एक ऐसी शक्तिविशेष स्वभावत: जैन- इस प्रकारके पदार्थज्ञानको जैनधर्ममें 'ज्ञनोपयोग धर्म मानता है जिसके द्वारा प्राणियोंको जगतके पदार्थोंका २"प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः" ।। सूत्र ३॥ श्राद्यो ज्ञान हुमा करता है। इस शक्तिविशेष को उसने प्रात्माका ज्ञानदर्शनावरण......." सूत्र ४ ॥ ज्ञानगण' नाम दिया है और इपको भी पारमा हीकी तरह ३"मतिश्राधिमन:पर्ययोवलानम॥ सूत्र ६॥ परिणामी--नित्य, अदृश्य तथा प्रत्येक प्रारमा अलग २ (तत्वार्थसूत्र ८ अध्याय) प्राना है। साथ ही इस ज्ञानगुणाको ढकने वाली ४,५"लब्ध्युग्योगी भावेन्द्रियम्" श्र.२ सूत्र १८ (तत्वार्थसूत्र) अर्थात् प्राणियोंको पदार्थज्ञान न होने देने वाली यहा पर ज्ञानको ही भाव नाम दिया गया है और उसे वस्तुविशेषका संबन्ध' भी प्रत्येक प्रात्माके साथ उसने इन्द्रिय मान कर उसके लांब्ध और उपयोग दो भेद मान १"सकवायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान्पुरलानादत्ते सबंध:"|सू०२ लिये गये हैं। यद्यपि यह सूत्र सिर्फ पाँच इन्द्रियोंसे होने Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ संज्ञा दी गयी है। पश्णिन हो जाया करता है। शरीर के अंगभूत बाध स्पर्शन, रसना, नासिका नेत्र ये दोनों मरिज्ञान और श्रुतज्ञान ऐन्द्रियिक ज्ञान माने और कर्ण इन पांच इन्द्रियों और मनकी सहायता' से गये हैं; कारण कि मतिज्ञान पूर्वोक्त प्रकारमे पान इन्द्रियों प्राणियोंको जो पदार्थों का ज्ञान हुया करता है वह मति- और मनकी सहायतामे और श्रुज्ञान अंतरंग इन्द्रिय स्वज्ञानो.योग कहलाता है और इसमें काग्णभूत ज्ञानगुणके रूप मनकी सहायतासे हुश्रा करता है। श्रुतज्ञान और विकामको मज्ञानलब्धि' समझना चाहिये अर्थात् ज्ञातामें मानस-त्यक्षरूप म तज्ञानमें इतना अन्तर है कि श्रुतज्ञानमतिज्ञानावर यमके अभावसे पैदा हुआ पात्माके ज्ञान में श्रोताको वक्ताके शब्द सुनने के बाद उन शब्दोंके प्रतिपाच गुणका मनिज्ञान-लब्धिरूप विकास ही पदार्थका मानिध्य अर्थका ज्ञान मनकी सहायतासे होता है और मानस- त्यक्ष पाकर पांच इन्द्रियों तथा मनकी सहायतार्म होने वाले रूप मतिज्ञानमें शब्द-श्रवणकी अपेक्षारहित साक्षात् पदार्थपदार्थज्ञानरूप मतिज्ञानोपयांगमें परिणत हो जाया करता का ही ज्ञान ज्ञाताको मनकी सहायतासे हुश्रा करता है। है। इसके इन्द्रियादि निमिती अपेक्षा दश२ भेद माने पदार्थज्ञानमें शब्दश्रवणको कारण माननेकी वजहसे ही गये हैं--स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, नासिके. श्रु ज्ञानको श्रुत नाम दिया गया है। न्द्रिय-प्रत्यक्ष, नेत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, मानस. अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान । ज्ञान प्रतीन्द्रिय माने गये हैं। क्योंकि इन तीनों ज्ञानाम शब्द-श्रवण' पूर्वक श्रोताको मनकी' महायताये जो इन्द्रियादि बाह्य निमित्तोंकी महायताको अपेक्षा जैनधर्मने सुने हुए शब्दोंका अर्थज्ञान होता है वह श्रुतज्ञानोपयोग नहीं मानी है। इनके विषयमें जैनधर्मकी मान्यता यह है कहलाता है और इसमें कारणभूत ज्ञानगुणके विकासको कि ज्ञातामें अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानाचरण और 'श्रतज्ञानलब्धि' समझना चाहिये अर्थात् श्रोतामें श्रतज्ञाना- केवलज्ञानावरण कोंके अभावसे पैदा हुथा आत्माके ज्ञान वरणकर्मके अभावये पैदा हुआ आरमाके ज्ञानगुणका श्रृत- गुणका क्रममे अवधिज्ञानल ब्धि, मन:पर्ययज्ञानल ब्धि और ज्ञानल विधरूप विकास ही बनाके शब्दोंको सुनते ही मन- केवल ज्ञानल ब्धि रूप विकास ही पदार्थका सान्निध्य पाकर की सहायतासे होने वाले शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञानमें बाह्य इन्द्रियादिककी सहायताके बिना ही स्वभावत: अवधि- वाले मातज्ञानके बार में लधि और उपयोगकी प्रक्रिया ज्ञानोपयोग, मनःपर्ययज्ञानोपयोग और केवल ज्ञानोपयोग को बतलाना है परन्तु यह लब्धि और उपयोगकी प्रक्रिया रूप परिणत हो जाया करता है। पाची ज्ञानाम समान समझना चाहिये। जैनधर्ममें इन पाँचों प्रकारको ज्ञानल ब्धियों और पार्टी दिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्नम्" तत्वार्थसूत्र अ.१ सू०१४ प्रकारके ज्ञानोपयोगीको प्रमाण माना गया है. इस लिये २ "मनि: स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्" प्रमाण कहे जाने वाले ज्ञानके उशिखित पांच भेद ज्ञान--तत्वार्थसूत्र श्र.१ सृ० १३ लब्धि और ज्ञानोपयोग दोनोंके समझना चाहिये। चूंकि यहांर मति शब्दसे स्वशंनेइन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रादि ६ मेदोका ज्ञानल ब्धि ज्ञानोपयोगमें अर्थात् पदार्थज्ञानमें कारण है इस तथा स्मृति,संज्ञा, चिन्ता और अभि-नबोध शब्दोसे क्रमश: लिये पदार्यज्ञानरूप फलकी अपेक्षा ज्ञानलब्धिको प्रमाण स्मृति, प्रत्यभिशान,नक और अनुमानका ग्रहण करना कहा गया है। और ज्ञानोपयोग अर्थात पदार्थज्ञान होनेपर चाहिये। ज्ञाता जाने हुए पदार्थको इष्ट समझ कर ग्रहण करता है, ३ 'श्रुतं मतिपूर्वम्......"1 --तत्वार्थसूत्र अ सू०२. अनिष्ट समझ कर खोदता है तथा इटानिष्ट कल्पनाके यहांपर 'मति' शब्दमे शब्दश्रवण अर्थात् कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष अभावमें जाने हुए पदार्थको न ग्रहण करता है और न को ही ग्रहण किया गया है। छोड़ता है बल्कि उसके प्रति वह माध्यस्थ्यरूप वृत्ति धारण ४ "थुममनिन्द्रियस्य"। --तत्वार्थसत्र न. २ सू० २१ ५ ........."सहज पहुमं"-गोम्मट जीवकांड गाथा ३१४ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] नयोंका विश्लेषण - कर लेता है इस लिये ग्रहण, त्याग और माध्यस्थ्य वृत्ति- कारण होनेकी वजहसे पगर्थ प्रमाण मान लिये गये हैं। रूप फलकी अपेक्षा ज्ञानोपयोगको भी प्रमाण माना गया स्वार्थ प्रमाणरूप श्रुतको स्वार्थश्रुत, ज्ञानश्रुत, भावभुत और है। जैनधर्मका दर्शन मुख्यरूपसे इस ज्ञानोपयोगको' ही श्रुतझान भी कहते हैं और परार्थप्रमाणरूप श्रुतको प्रमाण मानता है। परार्थन, वचनश्रुत, शब्दश्रुत, द्रव्यश्रुत, अथवा सिर्फ (२) प्रमाण के भेद स्वार्थ और परार्थ वचन अथवा शब्द भी कहा करते हैं। मति भादि ज्ञानावरण--कर्मों के प्रभावसे होने वाला जिस प्रकार श्रोताको वक्ताके मुखसे निकले हुए मारमाके ज्ञानगुणाका मति भादि शानलब्धिरूप विकास स्व वचनोंद्वारा पदार्थज्ञान होता है उसी प्रकार वकाके अर्थात अपने आधारभूत ज्ञाताके ही पदार्थशान रूप शानो- लेखों द्वारा तथा अंगलि मादिके संकेतों द्वारा भी उसे पयोगमें कारण होता है इसी प्रकार पदार्थशान रूप ज्ञानो- पदार्थज्ञान होता है इसलिये इसप्रकारके पदार्थज्ञानको स्वार्थपयोग भी स्व अर्थात् अपने आधारभून ज्ञाताकी ही ज्ञात- श्रुतमें और लेखों तथा अंगुलि आदिके संकेतोंको परार्थश्रुतमें पदार्थ में ग्रहण, ज्याग और माध्यस्थ्यभावरूप प्रवृति में अन्तभूत समझना चाहिये, क्योंकि श्रुतज्ञानमें कारणरूप कारण होता है इस लिये ज्ञानलब्धि और शानोपयोगरूप से माना गया वचन लेख तथा अंगुलि आदिके संकेतोंका दोनों प्रकारके ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण कहा गया है। लेकिन उपलक्षण (संग्राहक)माना गया है इसलिये बचनकी तरह स्वार्थप्रमाणके अतिरिक्त एक परार्थ नामका भी प्रमाण जैन लेख तथा अंगुलि मादिके संकेतों द्वारा जो पदार्थज्ञान होता है धर्ममें स्वीकार किया गया है वह श्रोताको होने वाले उसे" भी श्रुतज्ञान कहते हैं। परार्थश्रुतको आध्यात्मिक दृष्टि शब्दार्थ ज्ञानरूप श्रवज्ञानमें कारणभूत वक्ताके मुखसे निकले से पागम और उससे होने वाले पदार्थज्ञान रूप स्वार्थश्रुत हुए वचनोंके अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता है अर्थात को भागमज्ञान कहते हैं। जैनेतर दार्शनिक इन दोनोंको क्रम वक्ताके मुखसे निकले हुए वचन ही श्रोताके शब्दार्थज्ञानरूप से शब्द और शाब्दज्ञान कहते हैं। श्रतज्ञानमें कारण होनेकी वजहसे परार्थप्रमाण कहे जाते (३) परार्थश्रुतमें प्रमागा और नयका भेद । हैं। 'कि वचन प्रमाणभूत श्रुतज्ञानमें कारण है इस लिये चुपचारसे वचनको भी प्रमाण मान लिया गया है और वचन असर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यके भेद कि शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञानका प्राधार श्रोता होता है से पाँच प्रकारका होता है। इनमसे शब्दके अंगभूत निरर्थक और उसमें कारणभूत वचनोंका उच्चारणाकर्ता वक्ता होता अकारादि वर्ण अक्षर कहलाते हैं। अर्थवान् अकारादि अत्तर है इस जिये पर अथात् वचनोच्चारणका आधारभूत वक्ता तथा निरर्थक दो आदि अक्षरोंका अर्थवान् समूह शब्द से भिन्न श्रोताके ज्ञानमें कारण होनेकी वजहसे वचनको कहलाता है। अर्थवान् शब्दरूप प्रकृतिका सुप् अथवा तिङ परार्थप्रमाया कहते हैं। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता प्रत्ययोंके साथ संयोग हो जाने पर पदोंका निर्माण होता है कि मसिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान है। और परस्पर सापेक्ष दो आदि पदोंके निरपेक्ष समूहसे ये चारों ज्ञान स्वाधिगममें कारण होनेकी वजहसे स्वार्थ त्मक:"--(राजवातिक) १-६ । “ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण ही कहे जाते हैं। लेकिन पूर्वोक्त प्रकार -श्रुतके दो भेद हो जानेसे ज्ञानरूप श्रुत स्वाधिगममें कारण होनेकी वचनात्मकंपरार्थम्" (मर्वार्थसिद्धि) १-६ । वजहसे स्वार्थप्रमाण और वचनरूप श्रत पराधिगममें ५ "प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागम:” परीक्षा०३-६E इसमें आदि शब्दसे अंगुलि, लेख श्रादिको ही ग्रहण १ "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" ।-परीक्षा० १-१ २ "प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च" । सर्वार्थसिद्धि १-३ किया गया है तथा अागम--शब्दसे श्रुतज्ञान अर्थ ३,"अधिगम हेतुद्विविधः स्वाधिगमहेतुः पराधिगम- लिया गया है। हेतुश्च, स्वाधिगम हेतुर्शानात्मकः, पराधिगमहेतुर्वचना- ६'सुपतिङन्तं पदम्" १४/१४-पाणिनिकृत अष्टाध्यायी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनेकान्त [बर्ष ६ वाक्य' तथा परस्पर साक्षेप दो प्रादि वाक्योंके निरपेक्ष बोधक है"-क्रियापदके बोलने पर श्रोताके मस्तिष्कमें समूहसे महावाक्य का निर्गया होता है। परस्पर साचेप "क्या है या किसका अस्तित्व है" यह प्रश्न तब तक दो भादि महावाक्योंका भी निरपेक्ष समूह हुमा करता चकर काटना रहेगा जब तक कि घड़ा, वस, भादमी आदि है लेकिन वह भी महावाक्य शब्दसे ही व्यवहृत किसी संज्ञापदका स्पष्ट उल्लेख न कर दिया जाय अथवा किया जाता है। श्रोता अनुकूल बाह्य साधनोंके आधार पर वक्ताके अभिप्रेत इन पांच प्रकारके वचनोंमेंसे व्यवहार अर्थात प्रयोगमें अर्थका प्रतिपादक किसी संज्ञापदका खुद आक्षेप न करले। भाने वाले बचन तीन ही हुमा करते हैं पद, वाक्य और यही समस्या केवल धदा, वस्त्र. आदमी भादि संज्ञापदोंके महावाक्य । अत्तर और शब्द प्रयोगाई नहीं होते हैं और बोलने पर क्रियापदके बारेमें रहती है। इस लिये स्वतंत्र कि वक्ताके हृदयगत पदार्थका बोधक होनेके कारण पदको प्रयोगाई नहीं माना गया है। वाक्य और महावाक्य प्रयोगाई वचन ही परार्थवत माना गया है इस लिये परार्थ- का प्रयोग कहीं स्वतंत्र होता है और कहीं किसी महावाक्य श्रतको भी पद, वाक्य और महावाक्यरूप ही समझना के अवयव होकर भी ये दोनों वाक्य और महावाक्य प्रयुक्त चाहिये, अक्षर और शब्दरूप नहीं। इन पद, वाक्य और किये जाते हैं। जहां ये स्वतंत्र रूपसे अर्थका प्रतिपादन महावाक्यमेंसे पद हमेशा वाक्यका अवयव होकर ही प्रयो- ___ करने में समर्थ होते हैं वहां इनका प्रयोग स्वतंत्र होता है गाईहोता है स्वतंत्र पद कभी भी किसी भी हालतमें और जहाँ ये अर्थका प्रतिपादन न करके केवल अर्थके अंश. प्रयोगाई नहीं होना है। इसका तात्पर्य यह है कि वचन का प्रतिपादन करते हैं वहां ये किसी महावाक्यके अवयव प्रयोग अर्यका प्रतिपादन करनेके लिये किया जाता है लेकिन होकर प्रयुक्त किये जाते हैं। इस कथनसे यह स्पष्ट हो स्वतंत्र पर अर्थका प्रतिपादन न करके अर्थके एक अंशका जाता है कि पद अर्थक अंशका ही प्रतिपादक होता है और ही प्रतिपादन किया करता है और अर्थके एक अंशका प्रति- वाक्य तथा महावाक्य कहीं अर्थका और कहीं अर्थक अंश पावन कभी भी उपयोगी नहीं हो सकता है। यह एक अनु- का भी प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार परार्थश्रुत अपने भवसिद्ध बात भी है कि किसी भी संशापदका प्रयोग प्राप दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है--एक अर्थका प्रतिकिया जावे, उसके साथ कमसे कम एक क्रियापदका तथा पादक परार्थश्रत और दसरा अर्थके अंशका प्रतिपादक किसी भी किया पदका प्रयोग किया जावे, उसके साथ कम परार्थश्रृत । इनसे बर्थका प्रतिपादक परार्थश्चत प.क्य और से कम एक संज्ञापदका प्रयोग अनिवार्य होता है। अस्तित्व महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका होता है और पथके अंशका "पदानां परस्सरसापेक्षाणां निरपेक्ष: समुदायो वाक्यम्"। प्रतिपादक परार्थश्रुत पद, वाक्य और महावाक्यके भेदसे -अष्टसहस्सी पृष्ठ २८५ पंक्ति १ तीन प्रकारका समझना चाहिये।न्हीं दोनोंकी कमसे २"वाक्योच्चयो महावाक्यम्" (साहित्यदर्पण परिच्छेद २ प्रमाण और नय संज्ञा मानी गयी है अर्थात् अर्थका प्रति लोक १का चरण ३) यहां पर "वाक्यांचयः" पदका पादन काने वाले वाक्य और महावाक्य प्रमाणा-कोटिमें विशेषण "योग्यताकांक्षामत्तियुक्तः” इम लोककी टीकामें और भयंके अंशका प्रतिपादन करनेवाले पद, वाक्य और दिया गया है तब महावाक्यका लक्षण वाक्य इस प्रकार हो महावाक्य नय-कोटि मन्तभूत होते हैं। क्योंकि प्रमाणाको जाता है-"परस्सरसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षसमुदायो सकलादेशी अर्थात् अनेक धर्मों-अंशॉकी पिंचभूत वस्तुको महावाक्यम्"। विषय करने वाला और नयको विकलादेशी' अर्थात् अनेक गोम्मटसार जीवकाँडमें अनज्ञानके जो २० भेद गिनाये हैं ३४५..."प्रमाणमनेकधर्मधर्मिस्वभावं सकलमादिशति".... इनमें अक्षर, पद और संघात अर्थात् वाक्यके बाद जो भेद "नयोधर्ममात्रंबा विकलमादिशनि"(तत्वार्थश्लोकवार्तिकपृष्ठ११८ गिनाये गये हैं उन मबको महावाक्यमें ही अन्तर्भूत समझना पंक्ति १०,११"प्रमागानयरधिगमः" सूत्रकी व्याख्या)समुदायचाहिये। कारण कि हमने मूलमें स्पष्ट किया है कि क्योंके विषयं प्रमाणमवयवविषया नया इति" "सक-लादेश:प्रमासमूहकी तरह महावाक्योंके समूहको भी महावाक्य ही कहते हैं। णाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति" -तत्वार्थराज. १-६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] नयोंका विश्लेषण धर्मों की पिंडभूत वस्तुके एक एक धर्मको विषय करने वाला तो उस हालतमें ये प्रमाण वाक्यरूप होजावेंगे क्योंकि वाक्य माना गया है। अथवा यों कह सकते हैं कि जो वचन स्वतंत्ररूपमे भी प्रयोगाहं होता है जैसा कि इस उदाहरणमें विवक्षित अर्थका प्रतिपादन करता है वह प्रमाण और जो जो वाक्य महावाक्यका अवयव होनेके कारण नय वाक्यरूप वचन विवक्षित अर्यके एक देशका प्रतिपादन करता है वह ये दिखलाया गया है वही पहिले उदाहरणमें स्वतंत्र वाक्य नय कहलाता है। जैसे, पानीकी जरूरत होने पर स्वामी होनेके कारण प्रमाण वाक्यरूपसे दिखलाया गया है। नौकरको आदेश देता है---'पानी लाश्रो'! नौकर भी इस एक और उदाहरण महावाक्यका देखिये-एक विद्वान एक ही वाक्यसे अपने स्वामीके अर्थको समझ कर पानी किसी एक विषयका प्रतिपादक एक ग्रन्थ लिखता है और लाने के लिये चल देता है, इस लिये यह वाक्य प्रमाण- उस विषयके भिम २ दश अंगोंके प्रतिपादक दश अध्याय वाक्य कहा जायगा और इस वाक्यमें प्रयुक्त 'पानी' और या विभाग उस ग्रन्थके कर देता है। यहाँ पर समूचा ग्रंथ 'लाओं' ये दोनों पद स्वतंत्ररूपसे अर्थका प्रतिपादन करने में तो प्रमाणवाक्य माना जायगा क्योंकि वह विवक्षित विषयका समर्थ नहीं है, बल्कि अर्थ के एक-एक अंशका प्रतिपादन करने प्रतिपादक है और उसके अंगभूत दश अध्यायोंको नयवाक्य वाले हैं, इस लिये इन दोनों पदोंको नय-पद कहेंगे। यहां कोटिमें लिया जायगा, क्योंकि वे विवक्षित विषयके पक एक पर इस बात पर भी ध्यान रखनेकी जरूरत है कि जब तक अंशका प्रतिपादन करते हैं। यहां पर भी जब तक ये दश ये दोनों पद एक वाक्य के अवयव बने रहेंगे तब तक ही अध्याय ग्रन्थके अवयव रहेंगे तब तक नयवाक्य कहलायेंगे नयपद कहे जावेंगे और यदि इनको एक दूसरे पदसे अलग और यदि उन्हें अपने २ विषयका प्रतिपादन करने वाले कर दिया जाय तो उस हालत में ये प्रमाणरूप तो होंगे स्वतंत्र-ग्रंथसे पृथक-मान लिये जाये तो उस हालतमें ये ही नहीं, क्योंकि ऊपर कहे अनुसार पद प्रमाणरूप नहीं दशों अध्याय अलग २ प्रमाणवाक्य कहलाने लगेंगे। होता है, लेकिन उस स्वतंत्र हालत में ये दोनों पद नयरूप ज्ञान अपने आप में एक प्रखंड वस्तु है, इसलिये ज्ञानभी नहीं कहे जायेंगे। कारण कि, अर्थकी अनिश्चितताके रूप स्वार्थप्रमाणमें नयका विभाग संभव नहीं है। यही सबब ये अर्थ के एक अंशका भी उस हालसमें प्रतिपादन सबब है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और नहीं कर सकते हैं। केवलज्ञान इन चारों जानोंको प्रमाणरूप ही माना गया हैदूसरा उदाहरण महावाक्यका दिया जासकता है, जैसे नयरूप नहीं। लेकिन स्वार्थप्रमाणभूत शुतज्ञानमें कि स्वामी नौकरको भानेश देता है-"लोटा ले जानो और पानी वाक्य और महावाक्यरूप परार्थप्रमाणको कारण माना गया लाओं' यहां पर विवक्षित अर्थ दो वाक्योंसे प्रकट होता है है। इसलिये परार्थप्रमाणमें बतलाई गयी नय व्यवस्थाकी इसलिये दोनों वाक्योंका समुदायरूप महावाक्य प्रमाणवाक्य 'अपेक्षा स्वार्थश्रत प्रमणरूप श्रुतज्ञानमें भी नय-परिकल्पना कहा जायगा और दोनों वाक्य उसके अवयव होनेके कारण संभव है । अत: विवक्षित पदार्थके अंशका प्रतिपादन विवक्षित अर्थके एक एक अंशका प्रतिपादन करते हैं इस करने वाले, वाक्य और महावाक्य के अवयवस्वरूप पद, लिये नयवाक्य कहलावेंगे । यहां पर भी वह बात ध्यान वाग्य और महावाक्य द्वारा श्रोताको जो अर्भके अंशका देने लायक है कि जब तक ये दोनों वाक्य एक महावाक्यके ज्ञान होता है वही नय कहलायेगा। इस तरह परार्षशतके अवयव है तब तक तो वे नयवाक्य रहेंगे और यदि इन समान स्वार्थश्रुतको भी प्रमाण और नयके भेदसे दो प्रकार दोनों वाक्योंको एक दूसरे वाक्यसे अलग कर दिया जाय का समझना चाहिये। (क्रमशः) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G === = जैन-जागरणके दादा भाई -2- 2 2 । हमारी विभूतियों । बाब सूरजभान श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' or=0 [हमारे समाज में इस समय भी ऐसे माहत्य-सेवी. दार्शनिक, लेखक, कवि, दानवीर, धर्मबीर, कर्मवीर, देशभक्त और लोकसेवक विद्यमान हैं, जिनपर हमें क्या संमा-भरको अभिमान हो सकता है । 'अनकान्त' के इस स्तम्भक अन्तर्गत ऐसी ही कुछ विभूतियोका संक्षिप्त परिचय देनेका श्रायोजन किया गया है। -सम्पादक] हमारे चिर अतीतमें, जीवनकी एक विषम उल- बवण्डर खड़ा करेंगे,सत्यके विरुद्ध ऐसा मोबाँधेगे भनमें फंसे, संस्कृतके कविने दुखी होकर कहा था- कि यहीं प्रलयका नजारा दिखाई देगा। 'जानामि धर्म, न च मे प्रवृत्तिः ! चलो, इस मोर्चेस भी लड़ेंगे! असत्यका मोची, जानाम्यधर्भ, न च मे निवृत्तिः !" सत्यके सिपाहीको लड़ना ही चाहिये, पर चारों ओरके धर्मको मैं जानता तो हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति ये समझदार साथी जो घर बैठे--"हा हाँ, बात नहीं है ! अधमेको भी मैं जानता हैं, पर हाय, तुम्हारी ही ठीक है, पर तुम्हीं क्यों अगुवा बनते हो। उससे मैं बच नहीं पाता ! इकला चना भाड़को नहीं फोड़ सकता! इन सब बुराजीवनकी यह स्थिति बड़ी विकट है। अचानक इयोंका तो समय ही ठीक करेगा। याद नहीं, रामून गिरना सरल है, जानकर गिरना कठिन, जानकर और सिर उठाया, बिरादरीके पंचोंने उसे कुचल दिया। फिर रुकनेकी इच्छा रहते ! भूलसे गिरनेमें शरीरकी क्षति है, जानकर गिरनेमें आत्माका हनन है। हमारा समाज फिर तुम्ही तो सारे समाज के ठेकेदार नहीं हो । बड़ों श्राज इसी श्रात्म-हननकी स्थितिमें जीरहा है।कौन नहीं से जा बात चली रही है, उसमें जरूर कुछ सार है। तुम्हीं कुछ अक्लके पुतले नहीं हो--समाजम जानता कि खियोंको पर्देमें रखना, अपनी वंशवेलि' पर हल्का तेजाब छिड़कना है! विवाहकी आजकी प्रथा और भी विद्वान हैं। चलो, अपना काम देखो, किस किसे सुम्बकर है ? और संक्षेपमें हमारा आजका झगड़े में पड़े जी!" जीवन किसे पसन्द है? हम आज जिस चकमें उलझे __विचारका दीपक भीतर जल रहा है, धुंधला-सा, घूम रहे हैं, उसे तोड़ना चाहते हैं, पर तोड़ नहीं पाते! नन्हा-सा, टिमटिमाता। तेल उसमें कोई नहीं डालता, परम्पराके पक्ष में एक बहुत बड़ी दलील है, उसकी उसे बुझानको हरेककी फूक बेचैन है।दीपकमें गरमी गति । परम्परा बुरी है या भली चलती रही है, उस है, वह जीवनके लिये संघर्ष करता है, उसकी लौ के लिये किसी उद्योगकी ज़रूरत नहीं है। कौन उससे टिमाटमाती है, ठहर जाती है, पर अन्तमें निराशा लड़ कर उद्योग करे, नया झगड़ा मोल ले । फिर हम का झोंका आता है, वह बुझ जाता है । पता नहीं, समाज-जीवी हैं । जब सारा समाज एक परम्परामें हमारे समाजमें रोज तरूण-हृदयों में विचारोंके दीपक चल रहा है, तो वह इकला कौन है, जो सबसे पहिले कितने जलते हैं और यों ही बुझ जाते हैं। काश, वे विद्रोहका झण्डा खड़ा करे, नकू बने ? सब जलते रह पाते, तो आज हमारा समाज दीपअच्छा, कोई हिम्मत करे, नक बननेको भी मालिकाकी तरह जगमग जगमग दिखाई देता। तैयार हो चले, तो उसके भीतर एक हड़कम्प उठ सुना है. हाँ, देखा भी है, दीपक हवाके झोंकेसे श्राता है-लोग क्या कहेंगे? और ये लोग ? जिन्हें बुझ जाता है, हवा नहीं चाहती कि प्रदीप जले, दोनों सहीको गलत कहनेकी मास्टरी हासिल है और जो में शत्रुता है; पर वनमें ज्वाला जलती है, तो श्राँधी नारदके खानदानी एवं मन्थराके भाईबहन हैं, ऐसा ही उसे चारों ओर फैलाकर कृतार्थ होती है, दोनोंमें Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] जैनजागरणके दादा भाई बाबू सूरजभान ८ अभिन्न मित्रता है। बा. सूरजभान एक ज्वालाकी जिरह और बहस करते रहे हैं और सच यह है कि इन तरह, अपनी तरुणाईकी मदभरी अंगड़ाइयों में, समाज मुकदमोंका कहानी ही, इस नररत्नका जीवनचरित्र है। के अँधेरे आँगनमें उभरे । विराधकी आन्धियाँ उटी, प्रेसका तब श्रा वष्कार न हुअा था और पुस्तकें घहराई, पर वे दीपक न थे, कि बुझ जाते, अज्ञानके __ आजकी तरह सुलभ न थीं। बड़े यत्नसे लाग पुस्तकें दारुण दर्पका दहते, चारों ओर फैल गये। भारी लिखवाते और बड़े प्रयत्नसे उन्हें रखते थे। साम्प्रदालक्कड़क बोझसे दम, छोटी चिनगारी बुझ जाती है, यिक वातावरणकी कशमकशननं इस प्रयत्नमें एक रहपर होलीकी लपट, इन्हीं लक्कड़ोंकी सीढ़ियोंपरसे स्यभरी निगूढ़ताकी सृष्टि करदी थी और इस प्रकार चढ़ आसमानके गले लगती है। पता नहीं, जब वायू पुस्तकें दर्शनीय न होकर, पूजनीय हो चलीं थीं । रत्नों जी जन्मे, किस ज्योतिषीने उनकी भावीका लेम्ब पढ़ा की तरह वे छिपाकर रखने और कभी कभा पर्व-त्यौ और उस सुकुमार शिशुको यह जलतानामादया-सूर्य हारोंपर समारोहके साथ दिखानकी चीज़ बन गई की तरह वे अन्धेरे में उगे और उसे छिन्न-भिन्नकर थी। आज हम भले ही इसपर एक कहाका मारें, उस आसमानमें आ चमके ! इन सब परिस्थितियोंका हम युगमें पुस्तकों के प्रति यह आत्मीय श्रद्धा न होती, तो अध्ययन न करें, अपने मन में विरोधकी आन्धियोंक हमारे इतिहासकी तरह, हमारा साहित्य भी आज झारोंका चलन ताल पायें, तो देवताकी तरह हमबाबू अप्राप्य होता ! युग युग तक लोगोंने युद्धके रहस्योकी सुरजभान की मूर्तिपूजा भले ही करलें, उनके कार्गेका तरह पुस्तकोंको अपने प्राणों में संजोकर रक्खा है। महत्व नहीं समझ सकते । तब उनके कार्य हमार समयकं प्रवाहकी सीढियों परसे उतरते उतरते उत्सव-गीतोंमें स्वर भले ही भरें, हमारे अन्धेरे अंतर संस्कृत हिन्दी बन गई, तो इसमें क्या आश्चर्य कि का आलोक और टूटे घुटनोंका बल नहीं हो पाते! प्रयत्नकी इस घनतान अन्धश्रद्धाका रूप धारण कर ऐसा हम कब चाहेंगे? लिया !!! समयने करवट बदली, प्रेसकी सृष्टि हुई, तब आजकी तरह हरेक दफ्तरपर 'नावकेंसी' की युगनं उन पुस्तकों के प्रचार-प्रकाशनकी माँग की, पर पाटी नहीं टँगी थी, वे चाहते तो आसानीस हिप्टी- युगकी माँग हरेक सुनल, तो महापुरुषोंकी पूजाका कलक्टर हो सकते थे, पर नौकरी उन्हें अभीष्ट न थी, अवसर जातियोंको कहाँ मिले ? जैन समाज में प्रायः वे वकील बने और थोड़े ही दिनोंमें देवबंदके सीनि- सबसे पहले बाबू सूरजभानने युगकी यह मॉग सुनी यर वकील होगये । वकीलकी पूजी हैवाचालता और और जैन शास्त्रोंक छपानकी आवाज उठाई ! युगने सफलताकी कसौटी है झूठ पर सचकी सुनहरी पालिश अपने इस तेजस्वी पुत्रकी ओर चावसं देखा, पर करनेकी क्षमता। ओर बाबू सूरजभान एक सफल अन्धश्रद्धाने उनके कार्यको धर्मद्रोह घोषित किया, वकील, मूक साधना जिनकी रुचि और मत्य जिन शास्त्रोंकी निगूढताके पक्षमें युग युगस संचित समाज की आत्माका सम्बल ! काबेमें कुफ हो, न हो, यहाँ की कोमल भावनापर एक हथौड़ासा पड़ा और युद्ध के मयखानेसे एक पैगम्बर जरूर निकला। लिये समाजको उभारकर वह सामने ले आई। धमें बाबू सूरजभान वकील; अपने मुवक्कलोंके मुक- का सैनिक शैतानका अग्रदूत घोषित किया गया, पर दमे तो उन्होंने थोड़े ही दिन लड़े-वे कचहरियाँ लाँछनोंसे लचा, तो सुधारक क्या उन्हें मार डालने उनके लायक ही न थीं-पर वकील वे जीवन भर की धमकियाँ दी गई, वे मुस्कराये। उनके प्रेसमें बम रहे, आज ७५ वर्षके बुढापेमें भी वे वकील हैं और रात रक्खा गया, तो वे हँसे । धर्मके पुजारी कोधकी घृणा दिन मुकदमे लड़ते हैं। न्यायकी अदालतमें, खोज की से उन्मत्त होरहे थे और 'धर्म' का सिपहसालार हाईकोर्टमें, असत्यके विरुद्ध सत्यके मुकदमे । संस्कृति था शान्त, प्रसन्न, प्रेमपूर्ण ! पृथ्वीपर युगदेवता और की सम्पदा पर कुरीतियों के कब्जेके विरुद्ध वे बराबर आकाशमें भगवान हँस रहे थे । ज्ञान विजयी रहा, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ अन्धश्रद्धा पराजित हुई-आज उन विरोधियोंके वंश- क्यों? उन्होंने जान बूझकर, अपनेको प्रसिद्धि से धर छपे हुए “शास्तरजी"का पाठकर कृतार्थ होरहे हैं। बचाया। जैन संस्थाओं के वे पादिसंस्थापक, पर एक वाक्यमें बायू सूरजभानका स्कैच है-अँधेरा संस्था बन गई, चल गई और दूसरोंको सौंप दी। देखते ही दिया जलानेको तैयार ! उन्होंने अंधेरा किसी संस्थाक साथ उन्होंने अपनेको नहीं बाँधा। देखा और दीपक संजोने चले। अन्धेरा, अज्ञानका, हमारे देशमें धर्मसुधारक आगे चलकर एक नये धर्म अन्यायका और दीपक ज्ञानका, सुधारका । उन्होंने के संस्थापक होजाते हैं। बाबू सरजभानने अपनेको व्याख्यान दिये, लेख लिखे, पुस्तकें तैयार की और इस.महन्ताईस, नेतागिरीस सदा बचाया और महिमा संस्थाएं खोलीं, पर सबका उद्देश्य एक है, अन्घेरेके के माधुर्यमे निन्दाका नमकीन ही सदा उन्हें रुचिकर विरुद्ध युद्ध! वे अनथक योद्धा हैं। न थकनाही जैसे रहा। हम मरनेके बाद भी जीने के लिये पत्थरोंपर उनका 'मोटो' हो। इस बुढ़ापेमें भी वीर-सेवा-मन्दिर नाम खदानको बेचैन हैं, उन्होंने जीतेजी ही अपनेको (सरसावा, सहारनपुर) में जाकर रहे, दो घण्टे कन्या बेनाम रहकर जैसे अमरत्वका रस लिया। पाठशालाके अध्यापक, दो घण्टे शास्त्रस्वाध्यायके यह अपरिग्रह, यह अलगाव, अपना श्रेय दूसरों पण्डितजी, और ४-६ घण्टे गम्भीर अध्ययन और ___ को बाँटनेकी यह वृत्ति ही बाबू सूरजभान है। वे अपनी खोजोंपर लेख, यह एक ७२ वर्षके वृद्धको महान हैं और सदैव इतिहासक एक पृष्ठकी तरह वहाँ दिनचर्या थी। महान रहेंगे, पर जैनसमाज संगठितरूपसे उनकी अष - भारतकी नवीन राजनीतिमें दादा भाई नौरोजी हीरक जयन्ती मनाए, इसी में उसकी शोभा है । यह और हिन्दी गद्यके नवविकासमें प्रेमचन्दका जो स्थान उत्सव उनकी जीवनी शक्तिका प्रमाण हो और बाबू है. जैन समाजको नवचेतनाक इतिहासमै वही स्थान सूरजभानके बोए और अपने रक्तसे सींचे सुधारबाब सूरजभामका है। जैन समाजकै वे ईश्वरचन्द्र बीजोंकी प्रदर्शिनी भी, यह आज के युगकी माँग है। है. इसमें सन्देह नहीं, पर अजैन समाजकी कौन कहे, क्या हम इसे मनेंगे। जैन समाजमें ही लोग उन्हें ठीक २ नहीं जान पाये। उपहार-ग्रन्थ __ 'अनेकान्त' के उपहारमें देनेके लिये हमें दिगम्बर जैनसमाज डूंगरपुरकी तरफसे 'लघुशान्तिसुधासिन्धु' ग्रंथकी ५०० प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिमके लिये उक्त समाज विशेष धन्यवादका पात्र है और + उसका यह कार्य दूसरों के लिये अनुकरणीय है। मूल ग्रंथ संस्कृतमें प्राचार्य श्रीकुन्थुसागरजीका रचा हुआ है। साथमें पंजिका नामकी संस्कृत टीका लगी है, हिन्दी अर्थ और विशेषार्थ तथा अंग्रेजी अनुबाद भी दिया हुआ है। अतः जिन ग्राहकोंको आवश्यकता हो वे पोहेज खर्च के लिये निम्न पतेपर एक थाना भेजकर उसे मँगा लेवें। उन ५०० ग्राहकोंको ही हम यह ग्रंथ दे सकेंगे जिनकी माँग पोष्टेज खर्चके साथ पहले पाएगी। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'बीरसेवामन्दिर, सरसावा जि. सहारनपुर Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कहानी - - ....... (ले.-प्राचार्य पं. जगदीशचंद्र) . मा को आज भी चैन नहीं था । उन्होंने माधवकी माँ माधवको कालेज छोड़ते ही घरकी चिन्ताओंने दुगोंको पुकार कर कहा-अजी सुनती हो न? तुम्हारे श्रा घेरा । एम०ए०की कठिन पाठ्य-प्रणाली में परि- लल्लाको तो रैनाल्ड और गोटेकी काव्य-नायिकाओं के श्रम करते २ माधवके मस्तिष्ककी नसें ढीली होगई अंगन्यासमें फिलोम्फीकी गवेषणा करते २ घोरनिद्रा थीं। सारा वीर्य, सारा ओज, मैथमेटिक्स और आ गई है। और उसी में यह सारा कुटुम्ब अपनी जामेट्रीकी टेढ़ी-मेढ़ी लाइनोंको क्रमबद्ध करने में ही असीम दरिद्रता लेकर जा छुपा हे! जरा मेरी पोथीसमाप्त हो चुका था। आज बड़ी कठिनतासे बेचारे पत्रा तो निकाल ला दो मुझसे तो इस प्रलयमें भी ग़रीबन, अनेक दुर्बलताओंके साथ साथ एक कागज शान्तिपूर्वक बैठा न जा सकेगा। के नन्हेंस टुकड़ेपर अपनी अगाध विद्वत्ताका प्रमाण दुर्गाका मन पतिकी कातरतापर सौ २ बार पति पत्र प्राप्त किया था। होने.लगा । उसने कहा-माधव तो सुशिक्षित है, उसने सोचा था कि अब जीवनकी कठिनाइयाँ जरा उसे भली भाँति चेता दीजिये। उसके साधारण पार कर चुका हूँ-शीघ्र ही किसी उकच पदपर जा परिश्रमसे ही आपको निश्चिन्तता मिल सकेगी। वैदूंगा, फिर स्वास्थ्य और प्रतिष्ठाके साथ साथ रुपयों मेरे बशका रोग है नहीं रानी! तुम्ही कर देखो, के ढेर के ढेर मेरे चरणोंमें लुढ़का करेंगे। मैं तो कह सुनकर हार गया । किन्तु लगभग दो वर्ष तक घरके आँगनमें दुर्गाने दुलारसे कहा-पाज न जानेसे भी काम प्रतीक्षा करनेके बाद भी जब भाग्यानुमान सत्य न चल सकेगा? चल सकेगा कैसे, मेरी भाग्यलक्ष्मी ! जानती हो सेठजी कितने कृपालु हैं, उनकी आज्ञा हवा तो घरवालोंने उसे परेशान कर डाला। उसके विशाल मस्तिष्कमें कुछ दिन तक यह समाया उल्लंघन करनेसे पहिले तो इस भारी कुटुम्बको विष ही नहीं; कि घरवाले क्यों मेरे पीछे पड़े हैं ? दे देना होगा। दुखी हृदयसे दुर्गाने एंडितजीका पोथी पत्रा दे __ ग्रामीण पिता जब उसके पास आकर बैठते तब लिया दिया । बूढे बालकराम दारिद्र पीड़ाके आवेशमें तूफान अपनी बेवसी और तंगदस्तीके वर्णनमें ही अपनी सरीखे हवा पानीसे टकराते हुए अग्रसर हुए। ममताका व्याख्यान करते। ( २ ) माधवका मन इन बेमतलबकी बातोंसे ऊब जाता। मोहन, माधवकी छोटी श्रेणीमें सहपाठी रहा था। अन्ततः यह सोचकर कि पिताजी दो चार संस्कृतके किन्तु बीच हीमें उसने पराधीन देशकी शिक्षाको श्लोक रटकर किसी प्रकार अपना धंधा चला रहे हैं। जीवनोपयोगी न जानकर मस्तक नवा दिया था। उन्हें एम० ए० की फिलास्फीका क्या ज्ञान, अपनी माधवके कालेजमें प्रवेश करते ही उसने थोड़ी सी अधीरता छुपानी पड़ती। पूँजीसे एक गौ शाला स्थापित कर दी थी । दो तीन साल लगातार नुकसान उठाकर भी अपने धैर्य और बरसातकी हवा, झंझाके झटकोंकी भाँति, ग्राम्य परिश्रमके बलपर उसने उसे एक बृहत्तर रूप दे दिया पादपोंको झकझोर कर रही थी। ऊँचे श्रासमानसे था। उसकी गौशालामें आज कल २०० गाएँ और पृथ्वीकी असीम करुणा संचित होकर मेघ मालाके १५० भैंसें थी । इलाहाबाद जैसे विशाल नगरमें उस मिस जोर जोरसे बरस रही थी। सभी दुबक कर के दूधकी खपत इतनी थी कि प्रतिदिन उसपर दूधकी घरमें बैठे थे। किन्तु माधवके पिता पं.बालकराम माँग बनी ही रहती थी। स्वच्छ, जलविहीन दूध और Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ૨ अनेकान्त [वर्ष ६ खेतीके लिए अच्छे नस्लके बैल जनताको देकर वह लिखा कब काम आयेगा । तुम्हारे बूढ़े ससुर तो जनताके प्रेम और धन दोनोंका उपयोग कर रहा था। दो दिनके मेहमान हैं, उनका क्या भरोसा । वह उच्च शिक्षित न था। उसके दिमागको गणितका फिर भी तो कुछ करना ही पड़ेगा, उनके जीते जी सूक्ष्म विवेचन, फिलास्फीका अगाध पाण्डित्य छून यदि माधव कुछ करने लगे तो उनका अंतिम समय गया था। किन्तु इस साधारणसे व्यवसायमें उसे नयी संतोषसे बीत जाये। नयी बातें सुझती थीं। वह कहा करता यदि देशके लक्ष्मीपर सौ घड़े पानी ढल गया । सास्की क्टूधनी-जमींदार इस प्राचीन व्यवसायको अपनालें तो क्तिये तीरकी तरह उसका हृदय बेधने लगीं उसकी देशके धन और स्वास्थ्य दोनों हीमें आशातीत वृद्धि आँखें छलछला आई। उसने कहा- मैं कब मना हो । उसके पिता प्रारम्भमें तो उसके पागलपनपर करती हूँ अम्मा जी ! कि तुम कोई काम न करो। उदासीन रहे, किन्तु जब मोहनने अपने अटूट परि- गुस्सा न कगे बहू रानी- दुर्गाने कहा-तुम श्रमसे गोशालाके लाभोंको उनके सन्मुख कार्यरूपमें उस पिताके कष्टको जान सकती हो । जिसने जीवन उपस्थित कर दिया तो वह तन, मन, धनस उसकी भर पेट काट कर, मोटा पहिन कर, अपने पुत्रको उन्नतिमें दत्तचित्त हो गए । सारा परिवार मोहनकी सुखी बनान में ही अपने प्राण लगा दिये हों । और गौशाला पर रीझ रहा था। दोनों समय गौशालाकी फिर उसके अन्तिम समयमें समर्थ होकर भी वह संवा, अमृत समान स्वच्छ दूधका भरपेट भोजन और आलसी बना, घर में दबककर पुस्तकों के पन्नेहीपलटता उसके साथ ही धर्म और धनका वहुलाभ ? रहे और उसका वह पिता पेटकी पीड़ास दर दर भटमाधव मोहन कुछ दिनों तक एक साथ रहे थे। कता फिरे । किन्तु इस अवकाश विहीन कारबारमें फँसे रहने के लक्ष्मीकी आँखें भर आई। रोते २ उसने कहा- कारण मोहनको माधवसे मिलनका सौभाग्य प्राप्त नहीं अम्माजी ! मैं ही अभागिनी हैं, आपकी बातें सुनने हुया था, इस बार जब उसने सुना कि उसका पुराना के पहले मैं मर क्यों न गई। सहपाठी माधव सम्मान सहित दर्शन शाखकी उच्च दुर्गा बोली-नहीं बेटी, तुम्हारा क्या दोष ? यह परीक्षा उत्तीर्ण होकर लौटा है, तबसे उससे मिलने तो सब मेरे ही भाग्यका फल है। की उत्कएठा दिनोदिन तीन हो रही थी। किन्तु जब दुर्गा चली गई, लक्ष्मी बहू खुली छतके ऊपर फैली २ उसने जाना चाहा तब तब कोई न कोई बाधा उप- हुई उज्वल चाँदनी पर दृष्टि गड़ाकर सोचने लगी। स्थित होती ही रही। इस बार जबकि उसके पिताने माधवने आकर देखा, आज बहू रानी चुपचाप गोरखपुर जैसे सुन्दर प्रदेशमें एक शाखा उपस्थित कर अाकाशसे उतरती हुई तरल विधियों में भटक गई हैं। दी थी। माधवक परामर्शसे लाभ उठानेकी मोहनकी उसने जरा पास जाकर नागिन की तरह बल खाई हुई कामना प्रबल होगई थी। किन्तु माधव सरीखे बहुश्रुत बहूरानीको जुल्फोंको मृदु-मंजु कपोलों पर सीधी कर विद्वानको अपने पुराने सहयोगीकी स्मृतिको सुरक्षित दिया। किन्तु बहू रानीके भावोंमें - जरा भी उँचरहनेका अवकाश मिला होगा ? यह संशयपूर्ण नीच न देख माधवने उसके दोनों कोमल कर भी जिज्ञासा उसे डांवाडोल कर देती थी। इसीसे साहस उसकी सीमित उरस्थलीपर सटाकर छोड़ दिये। कर भी वह माधबके पास न जा सका था। बहूरानी मानों आज थी ही नहीं। माधवकी मौन साधना दीवार सी ढह पड़ी। खुली हुई छतपर बैठी हुई दुर्गाने कहा-भो उसने कहा-उफ १ इतना मान.............. लक्ष्मी बहू ! जरा इधर सुन देख ! तेरे माधव ही पर बहू रानीको आज यह अच्छा नहीं लग रहा था। तो सारा कुटुम्ब भाँख लगाए बैठा है। उसका पढ़ा उसने कहा-जाने दो-तुम्हें सब समय ऐसे ही Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] माधव मोहन उत्पातकी बात मूझनी है। संकटोंकी सतत चिन्तामें निरत रहनेका अवसर मिला -क्या अच्छा नहीं हुआ? हो उन्हें माधवकी बेबसीका परिचय होगा। घरवालों नहीं ! इम मत्य और सटोक्कि पर अपराधीकी की दृष्टिमें वह आलसी था और अकर्मण्य ! किन्तु नाई माधवने कहा-क्या कहूँ बहूरानी बहुत सोचता सचमुच ऐसा न था। लीटर (Leader) के मुखपृष्ठ हूँ तुम्हारी ही तरह मुँह फुलाकर सुदूर एकान्तमें जा पर छपी हुई कमसे कम वेतनकी वान्ट (want) पर बंटू' पर उममें भी तो सफल नहीं होता। वह अविलम्ब जानेका तैयार रहता था किन्तु दुर्भाग्य -तुम जैसे आलसियोंसे क्या कुछ हो सकेगा, को कुछ सुहाता न था ! इन दिनों कितने घरों में बढ़ी वह रानी ने कहा बड़ी आशायें हदय में भरकर उसे जाना पड़ा था, -इसमें भी तो रानी, तुम्ही बाधक हो । तुम्हें और न जान कितने धनिकोंके सन्मुख याश्चाका अकदेखकर हो तो भयके मारे मेरा सारामयम,मारा मान कण नीरव रोदन है. यमें भर उपस्थित होना पड़ा, अतीत बनकर आँखोंसे दूर हो जाता है और वर्तमान । कितने दफ्तरोंमें, कितनी अदालतों में, कितने विद्या"बस आगे नहीं कहता-नाराज हो जाओगी। लयों में अपनी दरिद्र परिस्थितिका वर्णन करते २ उस जिमने दृमरोंके सन्मुख हाथ पमारकर भी, अपना की आँग्बासे पानी बह चला, किन्तु कहीं भी एक कुर्सी गौरव अक्षुण्गा समझा हो, या जिस पढ़ लिखकर भी भर जगह उसे शान्तिसे बैठनेक 'लए नसीब नहीं हई। 'अपने आत्म सम्मानका तथा अपने माता पिताकी अभावका अशंछनीय दया भाव सब जगह ही शिष्ट दीनदशाका ध्यान न आता हो उसे दसगेकी नाराजगी निधि के माथ उपस्थित होता रहा। की इतनी चिन्ता? घोर चिन्ता और आहार विहारकी अव्यवस्थाने -बहू रानी ! मामला वेढब है, क्या अम्माजीने उमके स्वास्थ्य को और भी नावाँडोल कर दिया था। कुछ बुरा भला कहा है? अब विशेष प्रतीक्षा या मन्धान करने की शक्ति उसमें -यदि कहा हो तो क्या तुम उसका प्रतिकारकरोगे? शेष न रह गयी थी-मोहनकी डेयरीका नाम उससे र्याद कर सका छिपा हुआ न था-उम उद्योगकी सफलता पर 'लीडर' -तो मनोभिलापित वरदान! के कालमके कालम रंग जारहे थे । अन्ततः हारकर -यदि न कर सका! उस डेयरी में ही क्लकी करने में ही उसने निश्चय किया -तो तुम्हारा यह घर बार छोड़कर चली जाऊँगी। और दूसरे ही दिन वह गोरखपुर को रवाना हो गया। --कहाँ पर। स्टेशन पर ही कर्मचारीगण उपस्थित थे । एक अवैतजपिर तुम्हारे जैसे अकर्मण्योंका वासन होगा- निक प्रधान कर्मचारीने यह कहते हुए उसे डेयरीका कार्यकहकर बहू रानीको अपनी सीमा उल्लंघन करनेका भारसौप दिया कि यद्यपि आपकी दरख्वास्त एक क्लर्कध्यान हो पाया। पदके लिये प्राप्त हुई थी, किन्तु इयरीने यही उचित माधव ढीठ बहूका मुख देखने लगा-किन्तु उम ममझा कि उस पदपर रहकर आप डेयरीकी उन्नतिमें कटु वचनमें जो सत्यता थी वह उसके सामने आकर विशेष सहाय्य न दे सकेंगे। अतः इस शाखाका मारा कहने लगी बहू जो कुछ कह रही है वह ठीक है प्रबन्ध आपके सुपुढे किया जाता है । आजसे आप तुमने इतना जानकर भी माता पिता तथा स्त्रीकी इसके प्रधान मैनेजर नियुक्त हुए । इस कार्यको आवश्यकताओंको न समझा। उत्तरोत्तर उन्नत करना ही आपकाध्येय होना चाहिये। वेतन यद्यपि बहुत कम है तथापि इसे आप स्वीकार जिन्हें कभी ग्रहस्वामिनीकी प्रसन्नतासे वास्ता पड़ा कीजिये-पेशगी दे देनेकी हमारी विशेष प्रथा है यह हो और साथ ही साथ धनहीन परिवारके आर्थिक कहकर एक सौ दस रुपये के नोट माधवके हाथमें Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - [वर्ष ६ पकड़ा दिये गये। कि एक बार मेरे सामने पाकर डेयरीका निरीक्षण क्षणभर माधव इस अद्भुत व्यापार और आश्च- कर लीजिये। यजनक नियुक्तिकार चकित होकर रह गया। किन्तु इस विशेष आग्रहको मोहन यह कर कि तुम जैसे कुशल पण्डितको पाकर भी डेयरीको यदि मेरी __ माधवको डेयरीका कार्य सम्भाले लगभग दो आवश्यकता रहा ता इसस विशेष मर दुःखका कारण वर्ष होगए। उसने अपनो योग्यताका अच्छा परिचय ओर क्या हो सकता है, टाल देता। दिया। उसके रहते डेयरीके सभी काम उन्नत होगए । माधवसे मोहनकी कृशका स्नेहमय पशुओंके स्वास्थ्यका उसने विशेष प्रबन्ध किया। धन्यवाद देनेका अवकाश ज्यों २ दूर होता रहा, विदेशी वैज्ञानिक उपायोंसे दूधके विभिन्न लाभप्रद त्यों २ उसकी उद्विग्नता बढ़ती ही रही। अन्त.. एक मिश्रण निर्माणकर उसने अाशासे अधिक मुनाफा दिन ऐसा बागया कि वह उस आकांक्षाको किसी तरह कर दिखाया था-उसके नम्र व्यवहारसे सभी कर्म भी दबा न सका और उसी आवेशमें उसने कुछ सोच चारी प्रसन्न थे और पशु जिनपर उसे अगाध ममता कर मैनेजरके पदसे त्यागपत्र दे दिया। माधवने सोचा थी, उससे स्नेह रखने लगे थे। था कि त्यागपत्रके पाते ही मोइन दौड़ आयेगा। किन्तु यह देखकर उसके दुम्बकी सीमा न रही कि त्यागपत्र दोनों समय वह स्वयं अपने सामने उनके चारे स्वीकृत होगया और मोहनसे मिलने की भविष्य में और दानेकी देखभाल किया करता था । वह भी आशा भी न रही। अत्यन्त प्रसन्न था, किन्तु इतने लंबे समयमें भी हव सज्जन जिन्होंने उसके आर्थिक संकटका निराकरण कर आज उसे डेयरी छोड़ते हुए कठोर मानसिक असीम उदारताका परिचय दिया था, फिर कभी उम पीड़ा अनुभव हुई। नीचेके कर्मचारी और डेयरीके के पास न आये और न उसे बुलाया । मोहनने मूक पशुओंमें उसका स्नेहपाश बिखर पड़ा था। उस कितनी ही बार उनसे मिलनेकी चेष्टायें कीं; किन्तु को समेटकर चले आना उसे दुःख जनक ही नहीं किन्तु अपमान-जनक भी प्रतीत होने लगा । क्या उस सब विफल ! के दो वर्षके कठिन परिश्रमका यही मूल्य था ? एक. भारी उपकारसे उमकी आत्मा दबी हुई थी। बार क्या यह भी जाननेकी अभिलाषा निर्मोही मोहन मोहनसे साक्षात कर धन्यवाद देनेकी अभिलाषा इसी के अन्तःकरण में नहीं उपजी कि इस त्यागपत्रका मूल से दिन २ बढ़ी जा रही थी। मोहनकी इस उपक्षाका कारण क्या है? उसकी समझमें कोई अर्थ न लगता था। यह आकांक्षा कमी २इतनी तीव्रतासे जाग उठती थी कि उसे अपने गाडीका समय निकट आने लगा, किन्तु मोहनके इस सम्माननीय पदसे घृणा होने लगती थी । वह आनेकी कोई पाशा न रही। माधव निराशचित्तसे मोहनकी इस विरक्तिका अथे कभी २ असीम उदारता घर चला गया। सप्ताह पर सप्ताह बीतने लगे। किन्तु, और कभी अकारण निस्पृहता लगानेके लिए वाध्य मोहनसे मिलनेकी अभिलाषा अभी भी बनी हुई थी। हो जाया करता था। माधबके सभी विचारात्मक प्रश्न डेयरीका ध्यान रह रहकर उसे सताने लगा। उन मूक जो डेयरीसे सम्बन्ध रखते थे, पत्रद्वारा तय हो जाते पशुओंकी स्नेह स्मृतियाँ अन्तरके प्रदेशसे उछल कर थे, कितनी बार जब उसने आग्रह पूर्वक लिस्बा कि कभी २ उसे बेचैन कर देती थीं। मालिकको अपने कारोबारको एकदम किसी अनजान मोहनकी डेयरीमें रहकर उसने बागिज्यकी के हाथों में छोड़कर निश्चिन्त होजाना कभी भयानक महिमा जान ली थी। उस व्यवसायमें उसका मन भी विपत्ति ला देता है, अतः मेरा साग्रह अनुरोध है खूब लगा था। इमलिये शिक्षाप्रदत्त ज्ञानकी शक्तियाँ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] माधव मोहन ६५ अपना सदुपयोग कर डेयरीके संग्राममें विजयोल्लाससे है। तुम्हें क्या मालूम, जिस समय तुम माहवारी चमत्कृत हो उठी थीं। परन्तु, दुर्भाग्यने वहाँ भी साथ हिसाब, चिट्टियाँ और नये २ उपायोंकी स्वीकृति लेने न छोड़ा। मेरे पास आकर अम्ने मधुर शब्दोंमें डेयरीके भविअब बहूरानीक सद् परामर्षसे माधवने भी थोड़ी व्यकी कल्पनाके चित्र खींचा करते थे, मेरा हृदय मी पूजी लेकर इसी व्यवसायको अपनानेकी बात तुम्हारे चरणों में लोटनेके लिये कितना व्यग्र होजाता सोचली थी। था किन्तु, फिर भी अपनेको सावधान कर आपकी दोपहरका समय था । भोजनके उपरान्त भावी बातें सुनता तथा आपके मधुर दर्शनसे अनन्त संतुष्टी जीवनकी बातोंको लेकर बहरानी और माधव दोनों प्राप्त करता रहा। अस्तु ! ही व्यस्त होरहे थे।-ठीक उसी समय एक अनजान आदमीने एक लम्बा लिफाफा सामने पटक कर दोनों तुम्हारे महबासस (जो यद्यपि तुम पर प्रगट नहीं को चकित कर दिया। था) यदि मैं भूल नहीं करता तो मैं यह कहनेकी आदमी लौट गया। माधवकी आँखें उसपर पड़ धृष्टता करता हूँ कि डेयरी का कार्यक्रम तुम्हें पसन्द गई। चेहरेपर कुछ अनजान भावोंने आकर ग्नेह है और उमसे तुम्हें अधिक स्नेह भी है। अतः गांरमिश्रित दीनताके भाव अभिव्यक्त कर दिये । शरीर ग्वपुरवाली डेयरी पिताजीके आग्रहसे तुम्हारे निरीक्षण हप और कृपाके भारसे शिथिल होने लगा । बहू रानी में दस वर्षके लिये दे दी गई है, जिसमें से प्रतिवर्ष मौन थी, किन्तु अब उमसे कौतुहल दबाया न गया दो आने रुपया हमें देकर बाकी मुनाफा ले लेनेके उसने माधवके आगेसे पत्र खींच लिया। उसमें लिखा तुम पूर्णरूपसे अधिकारी हो। यह कार्यवाही रजिष्ट्री था गोरखपुर करा दी गई है और उसकी नकल तुम्हारे पास भेजी परम स्नेहास्पद माधव, नमस्कार ! है। अब तुम्हें वापिस आना ही होगा, तुम्हारी इच्छा यकायक तुम्हारा त्यागपत्र पाकर मैं हर्पस उछल का अधिकार भी पहिले ही छीन लिया गया है। पड़ा । तुम जैसे बहुश्रुत विद्वानको नुच्छ वेतनपर रख शायद तुम कभी न आते। मैं भी तो तुम्हारे बिना कर मुझसे एक अक्षम्य अपराध होगया था. जिसका रहन सकूँगा । सबको यथायोग्य। निराकरण तुमने स्वयं ही कर दिया। मैं तुम्हाग तुम्हारा महपाठी--मोहन । प्राच्य माध्यायी हूँ। तुममें सदामे मेरी अगाध श्रद्धा रही है। मालिक के रूपमें तुम्हारे सन्मुख उपस्थित माधव अभी भी उसी तरह बैठा था । किन्तु, होने में मुझे महान संकोच होता था । किन्तु, फिर बहु रानी डयरी देखनेकी उत्सुकतासे उसे हिला डुला भी निलेज होकर व्यापारी होनेके कारण तुम्हारे जैसे कर कह रही थी-स्नेहका यह मधुर श्रास्वादन अब सहृदय सच्चे मित्रकी कार्यप्रणाली जांचनेके लिये की वार एकाकी होकर न भोग सकोगे--उममें से मैं अवैतनिक मन्त्रीके रूपमें तुम्हारे पास ही रहना पड़ा बहुत भाग जबरदस्ती छीन लूंगी। मुफ्त नमूना माँगनेवालोंके प्रति अनेक सज्जन 'अनेकान्त'का मुफ्त नमूना भेजनेके लिये व्यर्थ पत्र व्यवहार करते हैं, जिससे उनको और कार्यालय दोनोंको ही व्यर्थका पोस्टेज और समय खराब करना पड़ता है। उनसे प्रार्थना है कि अनेकान्तकी प्राय: उतनी ही प्रतियाँ छपाई जाती हैं जितने ग्राहक होते हैं अतः नमूना भेजना कठिन है। पूरे वर्षका चन्दा ४) रुपये हैं। अजैन संस्थाओं और फ्री भिजवाने बालों से ३॥) रु. हैं वर्ष अगस्तसे आरम्भ और जौलाई तक समाप्त होता है। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि-प्रतिबोध - - - ------ - स्वतः रसमयी, अमर श्रात्मा, कहाँ सूखने वाली ? प्रियवर ! सदा दयासे आर्द्र, करुण है, देखो झाँक तनिक निज अन्तर! 'जमा हुअा दानवताका रँग• यह, पागल-दुनिया कहती है ! रिक्त न मानवताकी प्याली-- रसमें सराबोर रहती है ! 'जग' अव्यक्त अनादि प्रकृतिमय, तथ्य-तत्वके खड़ा सहारे । समझो ! सुख-दुख राही, उनकीक्यों महत्व दो विना विचारे! मानव सदा 'मुक्त' सुख-दुख तोकेवल स्थूल प्रकृति सहती है। रिक्त न मानवताकी प्याली रसमें सराबोर रहती है ! मानवताके सम्मुख बोलोकब न रही है विश्व-समस्या ! आँखों-देखो! मनके आगेमाया-तृष्णा, त्याग-तपस्या ! पर मनके हित त्याग-नपस्याकी गरिमा सचमुच महती है। रिक्त न मानवताकी प्याली रममें सगबार रहती है ! माया स्वयं प्रवृत्ति-प्रथा है, इसका सुलझाना मुश्किल कय ? केवल त्याग-मात्रसे अपना'लक्ष्यस्थल' पा जाते हैं सब। निष्ण्टक केवल प्रबुद्ध है, कण्टक विषय-नदी बहती है। रिक्त न मानवताकी प्यालीरसमें सराबोर रहती है ! दोनों साथ-साथ रहते हैं, जगमें शान्ति तथा कोलाहल ! रिक्तन मानवताकी प्याली हिंसाने यदि जनी अहिंसा ? रसमें सगबारे रहती है तो तुमको प्रणाम है अविरल ! शक्ति देखनी, तो अन्तरको-- देखो; शक्ति स्वयं रहती है ! रिक्तन मानवताकी प्यालीरममें माबोर रहती है ! आशाऽक्षय, सन्तोष परमसुख, दम्भ-द्वेष दुखमय आशा है। श्रात्म - ज्ञानकी गग-द्वपसेसदा हीन विभु परिभाषा है ! पूरब-पूरब-मा न रहा क्यों ?पश्चिमकी रिपुता दहती है ! रिक्त न मानवताकी प्यालीसमें सराबोर रहती है ! संकट कुसंस्कारकी छाया, जो करती है मनको मैली । मामराज शर्मा हर्षित' मानवता मैली न कवीश्वर ! उज्ज्वल है, जो जगमें फैली ! 'श्राम' धर्मका मोठा फल है। की-कर कौटे है। लहती है ! रिक्त न मानवताको प्यालीरममें सराबोर रहती है ! मदा कर्मकी प्रकृति गहन है, पाप-पुण्य जन्मोंका दाता । सुग्व तो सुख, पर दुख-सुग्व होता, सत्यवाद किसको बहकाता ! नियतिनियम कब एक बन सका? असद्भावना उर दहती है ! रिक्त न मानवताकी प्यालीरसमें सराबोर रहती है ! मावश्यकता-'आल इण्डिला दिगम्बर जैनपरिषद' के कानपुर अधिवेशनके प्रस्ताव नं.२ के अनुसार खुलनेवाले केन्द्रके लिये एक योग्य विद्वान, जो जैनधर्मका अच्छा ज्ञाता हो और उपदेशक हो तथा अंग्रेजीमें कमसे कम एफ० ए० की योग्यता रखता हो, ऐसे प्रचारककी आवश्यकता है तथा एक क्लर्ककी भी आवश्यकता है। वेतन पत्र व्यवहार या मिलकर तय करें। -सुन्दरलाल जैन, चाँद औषधालय, मेस्टन रोड कानपुर । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद (ले०-प्रो. हीरालाल जैन, एम० ए०, एल०-एल० बी०) [गत किरणसे आगे] और उसके चूर्णिसूत्रोंके कर्ता यतिवृषभाचार्य हैं। प्रथमपक्ष पादरपृथिवीकायादि जीवोंकी गुणस्थानभेदके बिना ही यतिवृषभाचार्यके मतानुसार है या नहीं यह भी अभी हम प्ररूपणा की गई है जिससे उनमें एक ही मिथ्यारष्टि गुणनिश्चयत: नहीं कह सकते जब तक कि चर्णिसत्रोंकी उस स्थान माना जाना सिद्ध होता है। क्षेत्रादि प्ररूपणाओंके रष्टिसे जाँच न कर ली जाय। दूसरे पक्षको संस्कृतटीकाकार सूत्रों में भी एकेन्द्रिय-विकजेन्द्रिय जीवोंके गुण,स्थानभेदका ने स्पष्टत: भूतल प्राचार्यादिका कहा है। यथा कथन नहीं पाया जाता। पर इस सम्बन्ध स्पर्शनप्ररूपणा "अथ भुनचल्याचार्यादिप्रवाहोपदेशेनाह-" इसी के कुछ सूत्र ध्यान देने योग्य हैं। जैसे-- के प्राधारसे पं. टोडरमलजीने कहा है पागे भूतबलि सासणसम्माइट्ठीहिं केवडियं खेतं फोसिदं ? वाचायकन धवल शास्त्रका उपदेश इत्यादिरूप दूसरा पक्ष लागरम असंखजांदभागा । अट्ट बारह चादसभागा कवि कथन करें हैं--" हम आगे देखेंगे कि भूतबलि वा देसुगा ।। ३-४॥ आचायके षट्खंडागम सूत्रोंसे वह दूसरा मत सिद्ध नहीं लस्साणुवादेण पि.एहलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउहोता । 'मादि' शब्दमे टीकाकारका किन प्राचार्योंसे अभि- लेस्सियमिछाइट्ठी पोषं। सासणसम्माइट्टीहि केवप्राय है यह कहा नहीं जा सकता । 'प्रवाहोपदेश' कहनेसे डियं खेतं पांसिदं? लोगस्स असंखेजदिभागो । पंच जान पड़ता है कि उस मतकी परम्परा टीकाकार तक बरा- चत्तारि वे चोहसभागा वा देसूणा ।।१४६-१४८।। बर प्रचलित थी। कर्मकांडकी पूर्वोक्त गाथा ३आदिमें थे ही वे सूत्र हैं जिनके आधार पर सर्वार्थ सिद्धिकारने उसी प्रकाहरूप उपदेशका प्रहगा पाया जाता है। अपनी उपर्युक्त रचना की है। अतएव सर्वार्थसिद्धिकारके षटूखंडागमके जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणादि कथनानुसार इन सूत्रोंके रचयिताको सासावन सभ्यग्रष्टियोंका अब हम पुष्पदन्त और भूतबलिभाचार्योंके षट्खंडा एकेन्द्रियों में उत्पन्न होना मान्य नहीं है। यह बात उपर्युक्त गम सूत्रोंपर आते हैं । जीवस्थान खंडकी सम्परूपयामें सनरूपणा व द्गप्रमाणाणुगमके सूत्रोंसे भी प्रतीत होती इन्द्रियमार्गणानुसार गुणस्थान-व्यवस्था करते हुए पुष्पदन्ता है। पर यहाँ भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि साचार्य सूत्र कहते हैं सादन सम्यक्त्वी एकेन्द्रियों में नहीं जाते तो उनका बारह एईदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असरिण- राजूप्रमाण क्षेत्र स्पर्शन करना कैसे घटित हो सकता है? पंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्टि-ट्ठाण ।। ३६ ।। इसके लिये हमें यह मानना ही पड़ता है कि सासादन जीव इसके अनुसार एकेन्द्रिय, विकले न्दिय और असंज्ञि एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात तो करते ही हैं। पंचेन्द्रिय जीमें सामान्यसे केवल एक मिथ्यारष्टि गुण जीवट्ठाणकी गति-श्रागति चूलिका स्थान ही ठहरता है। कायमार्गणा सम्बन्धी "पुढविकाइया अब जीवट्ठाणकी गति-भागति चूलिकाके कुछ सूत्रोको आजकाइया ते उकायिका वाउकायिका वण'फइकाइया देखियेएक्कम्मि चेय मिच्छाइडिहाणे" ॥४३॥ तिरिक्खसासणसम्माइट्ठी संखेन्जयस्सारा तिरिइस सूत्रसे मी पृथिवी - कायादि एकेन्द्रिय क्खा तिरिक्खेहि कालगदसमारणा कदि गदीश्रो जीवोंके केवल एक मिथ्यारष्टि गुणस्थानका ही प्रतिपादन गच्छति ? तिरिण गदीश्रो गच्छति-तिरिक्खगदि पाया जाता है। द्रव्यप्ररूपणाके सूत्र नं. ८ मादिमें मणुस्सगदि देव गदिचेदि । तिरिक्खेसु गच्छंता एइं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनेकान्त [वर्ष ६ दिय-चिदिए गच्छति, णो विगलिंदिग्सु । एइंदि-है। सरूपए के ऊपर उद्धत सन्न ३६ की टीकामें उन्होंने एस गच्छंता बादरपुढविकाइय-बादरा-काइय-बादरवणप्फइकाइयपत्तयसरीरपज्जत्तएसु गच्छंति, णो अप- "एइंदिएसु सामणगुणहाणं पि सुणिज्जदि तक, जत्तेसु । पंचिदिएसु गच्छंता मण्णीसु गच्छंति, णो घडदे ?ण, एदम्हि सुत्ते तस्स गिणसिद्धत्तादो। विरुद्धअसरणीसु॥ ११६-१२३ ।। त्थाणं कधं दोण्ह पि सुत्तत्तणमिदि?ण, दोरहमेगमरणुस्सपासणसम्माइट्ठी संखेनवासाउमा मणुसा दरस्स सुत्तत्तादो। दोएई मज्झे इदं सुत्तमिदं च ण मणुसेहि कालगदसमारणा कदि गदीओ गच्छति ? भवदीदि कधं णव्वदि ? उवदेसमंतरेण तदवगमातिरिण गदीश्रो गच्छति-तिरिक्खगदि मणुसगदि भावा दोरह पि संगहो कायव्यो। दोएह संग करेंतो देवगदि चेदि । तिरिक्खेसु गच्छता एइंदिय--पंचिंदि- संसयमिच्छाइट्ठी होदि ति ? तरण, सुत्तहिटमेव एसु गच्छति, णो विगलिंदिण्सु । एइंदिएसु गच्छता अत्थि त्ति सहतस्स संदेहाभावादो। उत्तं च-.. बादरपुढची-बादरमाउ-बादरवरएफदिकाइयपत्तेयसरीर सुत्तादो तं सम्म दरिमिजतं जदा ण सहदि । पज्जत्त रसु गच्छंति,पो अपजत्तेसु।पंचिदिएसुगच्छंता सो चेय हदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीयो। सएणीसुगच्छति, णो असरणीसु॥ १५१-१५५ ।। यहाँ शंका-समाधानके रूप में उपर्युक विरोधको भाचार्य देवा मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी देवा देवेहि वीरसेनने इस प्रकार समझाया हैउत्रट्टिद-चुदममाणा कदि गदीओ आगच्छति? दुवे शंका-एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थान भीती गदीओ आगच्छति-तिरिक्खगदि मणुसगदि चेव। सुना जाता है, वह किस प्रकार घटित होता है? तिरिक्खेसु आगच्छंता एइंदिय-पंचिदिएसु आगच्छति, समाधान-वह नहीं घटित होता, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र णो विगलिदिए । एइंदिपसु आगच्छंता बादरपुढवि- में उसका निषेध कर दिया गया है। काइय-बादरभाउकाइय-बादरवणप्फदिकाइय पत्तेयसरी- शंका-तो फिर एकेन्द्रियोंमें सासादन गुणस्थान रपज्जसएसुमागच्छति, णो अपज्जत्तएसु । पंचिदिएसु होता है और नहीं होता है। इन दो विरोधी प्रोंका मागच्छंता सएणीसु प्रागच्छति णो असरणीसु। प्रतिपादन करनेवाले दोनों बचों में सूत्रपना कैसे बन ॥ १७३-५७७॥ सकता है? इन सूत्रों में व्यवस्थित, स्पष्ट और विना किसी भ्रान्ति समाधान नहीं बन सकता, उनमेंसे कोई एक ही की सम्भावनाके भूतबलि प्राचायने यह प्रतिपादित किया सूत्र माना जा सकता है। है कि तिर्यच, मनुष्य और देव. इन तोनों गतियोंके सासा- शंका-पर यह जाना कैसे जाय कि इन दोनोंके बीच दन सम्यक्त्वी जीव बादर पृथ्वी, बादर जल और बावर यह सूत्र है, और यह सूत्र नहीं है? बनस्पति कायिक प्रत्येकशरीर जीवोंमें उत्पन्न होते है, किंतु समाधान-धिना किसी कुशल भाचार्यके उपदेशके विकलेन्द्रियों और प्रसंशी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते। यह बात नहीं जानी जा सकती, अतएव दोनों मोंका षदखंडागमकी टीका धवला संग्रह करना चाहिये। उपर्युक समरूणादिके एकेन्द्रियोंमें केवल एक शंका-दो विरोधी मतोंका संग्रह करनेवाला तो गुणस्थानको स्वीकार करनेवाले सूत्रों और इन गति-भागति संशय-मिथ्यारष्टि हो जायगा? के तीनों गतियोंसे सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में जाकर समाधान नहीं होगा, क्योंकि यह बात सूत्रोपदिष्ट ही उत्पन्न होना प्रतिपादित करनेवाले सूत्रोंकी संगति बैठानेका है, ऐसा श्रद्धान करनेवाले के संदेह नहीं रहेगा। कहा भी - भार षट्खंडागमकी धवला टीका लिखनेवाले प्राचार्य वीर- सूत्रके द्वारा भले प्रकार दर्शाये जानेपर भी जब कोई सेनपर पका है। पहले तो वे एकेन्द्रियों में सासादन गुण- श्रद्धान नहीं करता तब वही जीव उसी समयसे मिथ्यारष्टि स्थान माने जाने वन माने जानेके विरोधको स्वीकार करते होता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] सासाइन सम्यक्त्के सम्बन्ध में शासन-भेद यहाँ प्राचार्य वीरसेनने सासादन सम्पपस्वी एफेन्द्रियों के सूत्रोंक विरुव है इसलिये ग्रहण नहीं करना में उत्पच होने और न होनेका प्रतिपादन करने वाले दोनों चाहिये। मतों में समानरूपसे सूत्रस्व स्वीकार किया है, और यह इस प्रकरण में भवनाकारने उतने जोरसे एकान्द्रया आदेश दिया है कि उनमें विवेचक उपवेशप्रभावमें दोनों में सासावन की उत्पत्ति मानने वाले मतका निषेध किया है मतोंका संग्रह किया जाना भावश्यक है। पर वीरसेनस्थामीने जितने जोरसे कि उन्होंने पहले दोनों मोंका संग्रह करने अपनी यह दोनोंमतों पर समानरष्टि स्थिर नहीं रखी जैसा का उपदेश दिया था। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि स्पशन प्ररूपणाके सूत्र की टीकासे स्पष्ट होजाता है। कि यहाँ उन्हें सासादनोंके स्पर्शन क्षेत्रको बाहरा प्रमाण वहां प्रभोत्तर इस प्रकार हुए है मानने और फिर भी एकेन्द्रयों में एक ही गुणस्थान स्वी"जदि सासरणा एइंदिएसु उपजनंति, तो तत्थ दो कार करनेकी एक युक्ति मिल गयी। उन्होंने इन विरोधी गुणटाणापि होति । ण च एवं, संताणियोगदारे मतोंका सामञ्जस्य इस प्रकार बैठा लिया कि सासादन तत्थ एकमिच्छादिद्विगुणप्पदुप्णयणादो, दब्वाणि- जीव अपने मरणकालसे पूर्व माटु बन्धक बलसे एकेन्द्रियों भोगद्दारेवितत्थएगगुणट्ठारपदव्वस्स पमाणपरूवणादो में मारणान्तिक समुद्घात तो करते हैं और इस प्रकार उन च ? को एवं भणदि जधा सासणा एईदिएसुप्पजति का स्पर्शन क्षेत्र बारह राव हो सकता है। पर वे ही जीव त्ति । किंतु ते तत्थ मारणंतियं मेल्लंति त्ति अम्हा मरते समय सासावन गुण स्थानसे च्युत होकर मिथ्याष्टि बिच्छयो, ण पुरण ते तत्थ उज्जति त्ति, छिण्णाउ- हो जाते हैं, और इसलिये एकेन्द्रियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें अकाले तत्थ सासणगुणाणुवलं भादो। xxx मी सासादन गुण प्रकट नहीं होता, केवल मिथ्यारष्टि गुण जे पुण देवसामणा एइंदिएसुप्पजति त्ति भगति, ते- ही रहता है। मागे सर्वत्र धवलाकारने इसीयुक्तिसे निर्वाह सिमभिप्पापण बारह-चोइसभागा देसूणा उववाद- किया है। गति-प्रागति चूलिकाके उपर्युक्त सूत्रोंकी भी फोसणं होदि । एवं पि वक्खाणं संत-दवसुतविरुद्धं उन्होंने इसी प्रकार उपपत्ति बैठाई है कि घायु छिन होने ति ण घेत्तव्वं"। के समय ही सासादन गुणस्थान छुट जाता है। उदाहरणार्थशंका-यदि सासादन जीव एकेन्द्रियों में उत्पन होते जदि एइंदिएस सासणसम्माडी उपचदि तो है तो पकेन्द्रियोंमें दो गुणस्थान होने चाहिये । पर ऐसा पुढवीकायादिसु दो गुणहारणाणि होति तिचे या, तो नहीं क्योंकि सनरूपणा अनुयोगबारमें एकेन्द्रिों में हिरणाउनपढमसमर सासणगुणविणासादो। .. एकमात्र मिथ्यारधि गुणस्थानका प्रतिपादन किया गया है, (सूत्र १२१ टीका) और द्रव्यानुयोगद्वारमें भी एकेन्द्रियों में एक गुणस्थान सम्ब- जदि एईदिएसु सासणर्मम्माइट्ठी उपज्जति तो न्धी द्रव्य का ही प्रमाण बतलाया गया है। एईदिएसु दोहि गुणहाणाह होदामाद ? होदु, चे समाधान-कौन ऐसा कहता है कि सासावन जीव ण, एइंदियसासपदव्यस्स दयाणियोगद्दारे पमाणएकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। किन्तु सासादन जीव एके रूवणाभावा ? एस्थ परिहारो बुच्चदे। तं जहा-सासन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते है, यह हमारा गसम्माइट्ठी एइंदिण्सु उप्पज्जमाणा जेण अपणो श्रानिश्चय है। पर वे वहां उत्पन नहीं होते, क्योंकि आयु उअस्स चरिमसमए सासणपरिणामेण सहिया होदूण वित होने के काल में ही उनका सालावन गुणस्थान नष्ट हो तदो उपरिमसमए मिच्छत्तं परिवज्जति तेण एददिजाता है और वह भायु सिम होनेके पश्चात् काबमें पाया एसुण दोरिण गुणहाणाणाणि, मिच्छाद्विगुणहानहीं जाता।xxx पर जो ऐसा कहते है कि सासादन गमेकं चेव ।। (सूत्र १५३ टीका) सम्यग्रष्टिदेव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके अभिप्राय श्वेताम्बर आगम से सामावन जीवोंका उपपावस्पर्शन बारह रा प्रमाण भवताम्बर ग्रंथों में स.सादन गुणस्थानकी प्रस्तुत होता है। किन्तु यह व्याख्यान सबसपा और यमाय विषय सम्बन्धीच्या व्यवस्था यह भी देख लेना चाहिए । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनेकान्त [ वर्ष ६ घेताम्बर भागों में एकेन्द्रिय जीवोंमें केवल एक मिथ्यारष्टि सासायणं पडुश्च तस्मापज्जत्तयस्स दाणाणा लब्भंति ।" गुणस्थान ही माना गया है। किन्तु द्वीन्द्रियादिके उपरके अर्थात-- 'दीन्द्रिय जीवके दो ज्ञान किस प्रकार पाये सब जीवनिकायों में सासादन गुणस्थान माना गया है। जा स:ते हैं । इसका उत्तर कहते है कि सासादन सम्ययह बात भगवती शतक ८, उद्देश २ सूत्र ३१७ के प्रमो- क्त्वकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अपक्षक जीवके दो ज्ञान पाये सरोंसे स्पष्ट हो जाती है। वह प्रकरया इस प्रकार है-- जाते हैं।" "पुढविक्काइया रणं भंते कि नाणी प्रमाणी ? अभयदेवीया वृत्तिमें भी कहा गया है किगोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी । जे अन्नाणी ते नियमा "वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यदुअन्नाणी-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य। एवं जाव ग्दर्शनभावनापर्याप्तकावस्थायां भवन्तीत्यत उच्यते वणस्सइकाइया । बेइंदियाणं भंते किं नाणी किं 'नाणी वि अन्नाणी वि' त्ति ।" अन्नाणी? गोयमा! पाणी वि अन्नाणी वि । जे जीवाभिगम सूत्रमें भी इसी प्रकार कथन पाया जाता नाणी ते नियमा दुनाणी । तं जहा-आभिणिबोहिय- है। इनसे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर भागमकार सासादन नाणी य सुयनाणी य। जे अन्नाणी ते नियमा दुश्र- सम्यक्स्वी जीवका एकेन्द्रियों में उत्पन्न होना नहीं मानते, नाणी। तं जहा-आभिणिबोहिय अन्नाणी सुयश्र- किन्तु विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होना मानते हैं और उनकी माणि । एवं तेइंदिय-चरिदिया वि।" इत्यादि। अपर्याप्त दशामें सासादन गुणस्थान पाया भी जाना है। राजगृहमें भगवान् महावीरसे गौतमगणधरने प्रभ इसीसे उनके दो ज्ञान होना भी माना गया है, जिसका किया-भगवन् पृथिवीकायिक जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी? विचार आगे चलकर करेंगे। उत्तर-हे गौतम पृथिवीकायिक जीव ज्ञानी नहीं श्वेताम्बर कर्मग्रन्थ होते अज्ञानी ही होते हैं। और जो अज्ञानी होते हैं वे किन्नु श्वेताम्बर कर्मग्रन्थों में प्रागमके विरुद्ध एकेन्द्रियों नियमसे दो अज्ञानों वाले होते हैं-मति-अज्ञानी और में भी सासादन गुणस्थान माना गया है। चौथे कर्मग्रन्थकी श्रुत-अज्ञानी। तीसरी गाथा है___ इसी प्रकार अप्कायिक मादि वनस्पतिकायिक पयंत 'बायर-असंनि-विगले अपजि पढमवियनि अपज्जत्ते। जीवोंके सम्बन्धमें प्रश्नोत्तरी समझना चाहिये। फिर प्रश्न अजयजुअ संनि पज्जे सव्यगुणा मिच्छ रूससु॥ होता है-- अर्थात-"अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त संशिप्रश्न-भगवन् द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानी होते हैं या पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त विकलेन्द्रियमें पहला और दूसरा अज्ञानी! ये दो गुणास्थान पाये जाते हैं। अपर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रियमें उत्तर-हे गौतम, दीन्द्रिय जीव ज्ञानी भी होते हैं पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान हो सकते हैं। और अज्ञामी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं वे नियमसे पर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रियमें सब गुणस्थानोंका होना संभव है। दो शानों वाले होते हैं-भाभिनियोधिक ज्ञानी और श्रुत- शेष सात जीव स्थानों में, अर्थात अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म ज्ञानी । जो अज्ञानी होते हैं वे नियमसे दो अज्ञानों वाले एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रिय होते हैं-आमिनिबोधिक अज्ञानी और अतमज्ञानी। और पर्याप्त विकलेन्द्रिय त्रयमें पहला ही गुणस्थान होता है।" इसी प्रकार श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके सम्बन्ध यही बात उसी कर्मग्रंथकी ५५ वी गाथा में भी में प्रश्नोत्तरी समझना चाहिये।" इत्यादि सूचित की गयी है जहां कहा गया है किद्वीन्द्रियादिक जीवोंको दो ज्ञानों वाले किस अपेक्षासे "सब्ब जियठाण मिच्छे सग साणि पण अपज्ज कहा यह टोकानों में बतलाया गया है । प्रज्ञापना-टीकामें सन्निदुर्ग।" . अर्थात्-मिथ्यात्व गुणस्यानमें सब जीव स्थान होते "बेइंदियस्स दो पाया कहं लम्भंति ? भएगाइ, है। सासादनमें पांच अपर्याप्त-बादर एकेन्द्रिय, वीन्द्रिय, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्ध में शासन-भेद १०१ श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पंचेन्द्रिय-तथा दो (१)श्वेताम्बर मागम सासादन सम्यग्दृष्टियोंका एकेसंझी-अपर्याप्त और पर्याप्त--कुल सात जीवस्थान है। न्द्रियों में होना था नहीं मानते, किन्तु विक लेन्द्रियों और यही नहीं किन्तु इस कर्मग्रंथके कर्ताने एक गाथामें असंजी पंचेन्द्रियों में उनका होना मानते हैं। यह भी प्रकट कर दिया है कि वे कौन कौनसी बातें हैं जो (२) गोम्मटसार कर्मकाण्ड और श्वेताम्बर कर्म ग्रंथ प्रागम सम्मत होने पर भी उक्त कर्म ग्रंथमें स्वीकार नहीं पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पति-कायिक बादरकी गयीं निवृस्थपर्याप्तक एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों और असंही "मासणभावे नाणं विधगाहारगे उरलमिस्सं। पंचेन्द्रियों में सासादन गुणस्थान मानते हैं। नेगिदिसु सासाणो नेहागियं सुयमयं पि ॥ ४६॥ (३) अमितगति कृत पंचसंग्रहमें तेज और वायु अर्थात सासादन अवस्थामें सम्यग्ज्ञान, वैक्रिय शरीर कायिक जीवोंको छोड शेष सातों अपर्याप्त जीवसमासोंमें तथा पाहारक शरीर बनानेके समय औदारिकमिश्रकाययोग सासादन गुणस्थान माना है जिससे सूक्ष्म पृथिवी, अप और एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थानका अभाव, ये वनस्पति कायिक जीमें भी सासादन सम्यक्त्वकी प्राप्तिका तीन बातें यद्यपि मागम सम्मत हैं तथापि यहाँ उनका प्रसंग पाता है। शधिकार नहीं स्वीकार किया गया। (४) गोम्मटसार जीवकागड तथा पखंडागम जीवश्वेताम्बर पंचसंग्रह स्थानके समरूपणादि अधिकारोंमें समस्त एकेन्द्रिय, विकपंचसंग्रहके प्रथम द्वारकी गाथा २८ में भी एकेन्द्रिय लेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें केवल एक ही गुणऔर द्वीन्द्रिय श्रादि विकलेन्द्रिय जीयों में दो गुणस्थान स्थानका विधान है, सासादन सम्यक्त्वका नहीं। स्वीकार किये गये हैं (५) सर्वार्थसिद्धिकार एकेन्द्रियों में सासादन सम्यक्त्वी जीव 'सुरनारएसु चत्तारि पंच तिरिएसु चोहम मणूसे। के उत्पन्न होने वाले मतका उल्लेख करते हैं।। इगि-विगलेसु जुयलं मन्याणि परिणदिसु हति ।। (६) षटखंडागम जीवहाणकी गति-आगति लिकामें अर्थात्--देव और नारकोंमें प्रथम चार गुणस्थान होते लियंच, मनुष्य और देवगतिके सामादन सम्यक्तियोंका बादर हैं, तियंचों में प्रथम पाँच मनुष्यों में चौदहों। एकेन्द्रिय और पृथिनीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक प्रत्येक विकलेन्द्रियों में दो-मिथ्यारष्टि और सामादन-तथा पंचे- शरीर एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन होनेका विधान तथा न्द्रियों में सभी गुणस्थान होते हैं।' किन्तु भागेकी गयामें विकलेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होनेका यह स्पष्ट कर दिया गया है कि एकेन्द्रियों में वायु और तेज निषेध करते है। कायिक जीवों में सासादन गुणस्थान नहीं होता (७) धवलाकार वीरसेनस्वामी एक स्थानपर एकेसम्वेसु वि मिकछो वाउ-तेउ-सुहमतिगं पमोत्तूणं। न्द्रियों में सासादन सम्यक्स्वी के उत्पन्न होने सम्बन्धी मत सासायगणो उ सम्मो मन्निदुगे सेस सन्निम्मि || || का सूत्रत्व स्वीकार कर उसको भी माननेका उपदेश देते अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान तो सभी जीव निकायों में हैं। किन्तु दूसरे स्थल पर उस मतका निषेध करते है। वे होता है और सासादन गुणस्थान वायुकायिक और तेज- समस्त एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों कायिक तथा पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन कार्यों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही स्वीकार करते हैं। हां, सूचम शरीरी जीवोंको छोद शेष सबमें होता है। इत्यादि सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात करना यह व्यवस्था गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी व्यवस्थासे ठीक मानते हैं, किन्तु प्रायुषीण होनेके साथ ही वह गुणस्थान मिलती है। छुट जानेसे उन जीवोंमें सासादन भावको नहीं मानते। मत-मतान्तरोंका मथितार्थ और इसी युक्तिसे वे सस्प्ररूपणा, ध्यप्रमाणादि व गतिउपर्युक्त सब मत-मतान्तरोंका मथितार्थ यह निकलता भागति लिकाके सूत्रोंमें संगति बैठाते हैं। जहां इस प्रकारका शासन-भेव हो वहां, वीरसेन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भनेकान्त वर्ष ६ स्वामीके शब्दों में, सस्य क्या है वह तो केवली और श्रुत- मिथ्या ज्ञान ही माना है। सम्बन्धके अवतरण देनेकी कैवली ही जान सकते है किन्तु यदि सर्वमान्य नियमोंके प्रावश्यकता नहीं, क्योंकि किसी भी ग्रंथमें जहाँ मार्गमा भीतर युक्ति और तर्कके बल पर निर्षय किया जाय तो स्थानों और गुणस्थानोंकी परस्पर योजना की गई। वहां इस प्रकार हो सकता है साम्पादन सम्यक्त्वका काल कम देखा जा सकता है कि सासादन सभ्यत्वके साथ मति-अतसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह मावली प्रमाण अज्ञानका ही सम्बन्ध बतलाया गया है। पर्खशागमके कहा गया है। इन सीमाचोंके भीतर उपशम सम्यक्त्वके जीबढाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र १६ में इस विषयका प्रतिकालमें जिस जीवके जितना समय शेष रहने पर अनन्त नु- पादन किया गया है जो इस प्रकार हैबन्धी उदयसे सासावन गुण प्रकट होता है, उतने ही "मदि-अण्णाशीसुद-अण्णाशी एइंदियप्पहुटि जाव काल तक वह जीव सासादन रह सकता है। अतएव यदि सासणसम्माइट्टि ति।" वह जीव उक्त काम पूर्ण होनेसे पहिले ही पायुक्षयसे इस सूत्रकी टीका धवलाकार ने इस प्रकारसे की है जैसे मरण करता है तो अगले भवमें उतना काल पूरा करेगा उन्हें सासादनमें सज्ञान मानने वाले मतका ध्यान रहा और इस खिये उतने काल तक अपर्याप्त दशामें उपके हो। लिखते हैं-- सासादान गुणस्थान पाया जायगा। जिस जीव में निकट "मिध्यादृष्टेः द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम, तत्र मिथ्याकालमें उपशम सम्यक्स्व उत्पन्न करनेकी शक्ति हो उसके स्वोदयस्य सत्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्वान्न सासावायु और अनिकाय तथा सूचम, साधारण व लब्ध्यपर्याप्तक दने तयोः सत्त्वमिति १ न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताजैसी अत्यन्त अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होगा, यह भिनिवेशः, सच मिथ्यात्वादनम्तानुबन्धिोत्पते । अनुमान किया जा सकता है। पर जो जीव एक तरफ समस्ति च सासादनस्यानन्तानुबन्ध्युदय इति"। एकेन्द्रिय बादर कायमें और दूसरी तरफ संज्ञी पंचेन्द्रियों में शंका-मतिमज्ञान और श्रुताज्ञान ये दोनों प्रज्ञान उत्पन्न हो सकता है वह विकलेन्द्रिय व असंशियों में क्यों मिथ्याठि जीवके भले ही हों, क्योंकि मिथ्यारष्टि जीवके उत्पन नहीं हो सकता यह कुछ समममें नहीं पाता। इस मिथ्यात्वका उदय विद्यमान रहता है। किन्तु सासादन जीव प्रकार अन्य प्रबलतर प्रमाणके प्रभावमें उपर्युक्त मत-मता- के तो मिथ्यावका उदय रहता ही नहीं है, अतएव सासान्तरों परसे यह मानना अनुचित न होगा कि सासादन दन जीवके उक्त दोनों अज्ञान रूप नहीं होना चाहिये ? सम्यक्त्वी जीव सूक्ष्म, साधारण व लब्ध्य-पर्याप्तक तथा समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व विपरीतावायुकायिक और अधिकायिक जीवोंमें नहीं उत्सव होता, भिनिवेशका ही नाम है, और यह विपरीताभिनिवेश शेष सबमें हो सकता है, और यदि प्रायु पयके साथ ही मिथ्यात्वये भी उत्पन्न होता है और अनन्सानुबन्धीसे भी उसका सासादन सम्यक्त्वकाल समाप्त हो जाता है तो उस उत्पन्न होता है। और कि सासावन जीवके अनन्तानुके नये भवमे मिथ्यात्व गुणस्थान ही प्रकट होता है, वन्धीका उदय हो ही जाता है, अतएव उसके ज्ञानको अन्यथा जितना सासादनका काल शेष रहा हो उतने काल प्रज्ञान ही कहना चाहिये। तक वह अपर्याप्त अवस्थामें सासादन रहेगा। किन्तु यह समाधान सर्वथा सन्तोषजनक नहीं हुआ। सासादन कालमें ज्ञान व अज्ञान यदि विपरीतामिनवेशका ही नाम मिथ्यात्व है और वह भव सासादन सम्यक्रवके सम्बन्धमें मतमेदकी एक विपरीतामिनिवेश सासादन जीवके अनन्तानुबन्धीके उदय और बात पर विचार कर लेना उचित है। ऊपर श्वेताम्बर से हो जाता है तो फिर उस जीवको सम्यक्त्वी. न कहकर भागम भगवती सूत्रसे जो अवतरण दिया गया है उसमें मिथ्यात्वी ही कहना चाहिये । समरूपणा सन १. की सासादन जीवके मति व अवज्ञानको अज्ञान न कह कर टीकामें धवलाकारने कहा है कि "विपरीवाभिनिवेशदूषिसद्ज्ञान माना है। किन्तु श्वेताम्बर कर्मग्रंथों तथा समस्त तस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या दिगम्बर साहित्यमें सासादन सम्यक्त्वी जीवके.ज्ञानको तस्य तद्व्यपदेशोपपत्तेः।" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] सासादन मम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद अर्थात-यद्यपि सासादन गुणस्थानमें जीव विपरीना सासादन संज्ञाकी निरुक्ति भिनिवेशसे दूषित हो जाता है, फिर भी उसे भूतपूर्वन्याय सासादन जीवके ज्ञानको सत्व असत् मानने में भेदका एक से सम्यग्दृष्टि कहते हैं। यदि यही बात है तो उसी न्याय और कारण भी होसकता है और वह यह कि सासदनके स्वरूप से उसकी मति और श्रुतको भी शानरूप मानना कोई संबंध यद्यपि यथार्थतः कहीं कोई भारीमतभेद नहीं है तो अनुचित नहीं। नामों में एकरूपताकी दृष्टिपे भी वैषा मानना भी सासादन संज्ञाका अर्थ भिन्न भिन्न प्रकारसे किया गया भयुक्तिसंगत नहीं है। आखिर यहाँ शान और अज्ञानमें पाया जाता है। दिगम्बर सम्प्रदायमें इस नामकी जो सार्थकोई भान्तरिक भेद तो होता नहीं है।वही ज्ञान सम्यक्त्वके कता प्रचलित है वह पवनाकारके शब्दोंमें इस प्रकार हैसद्भावमें सदशान और मिथ्यात्वके समाबमें मिथ्याज्ञान "आसादनं सम्यक्त्वपिराधनम् । सह आसादनेन कहा जाता है। वतेते इति सासादनो विनाशितसम्यग्दर्शनोऽप्राप्तश्वेताम्बर मागमका यह दृष्टिकोण निम्न अवतरणसे मिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः स्पष्ट हो जाता है। भगवती शतक, उदेश ५ के सूत्र सासादन इति भण्यते । (सत्प्ररूपणा १,१० टीका) अर्थात--"भासादनका अर्थ सम्यक्त्वका विनाश । ४६ की टीका करते हुए अभयदेव कहते हैं इस विनाशसे सहित जो जीव होता है वह सासादन है "ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादन जिस जीवने सम्यग्दर्शनका विनाश कर डाला है, किन्तु भावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रंथेष्वभ्युपगम्यते, तत एव च अभी भी मिथ्यात्व कर्मके उदयसे उत्थक परिणामोंको प्राप्त ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञ नं चxxनव पृथिव्यादिषु नहीं किया है, पर मिथ्यात्वके अभिमुख है वह सासादन सास्वादनमावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात् , तत कहा जाता है।" एवोच्यते "उभयाभावो पुढवाइसु विगलेसु होज्न इस अर्थ में सम्यक्रवके बिनाश पर जोर दिया गया है उववरणो।" और सासादन संज्ञाकी सार्थकता भी इसी पर निर्भर की अर्थात् यहाँ प्रश्न हो सकता है कि कर्मग्रंथों में गयी है। अतः सम्यक्स्वके विनाश पर जोर होने के कारण दर्शनद्वारमै पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पति- उस जीवके ज्ञानमें भी समावके विनाश पर जोर देकर उसे कायिक जीवोंके सासादनभावसे सम्यक्त्व स्वीकार किया प्रसज्ञान मानना स्वाभाविक है। गया है जिसके अनुसार ज्ञानद्वारमें उक्त पृथिवीकायिक किन्तु सासादन प्राकृत रूपका एक संस्कृत रूपान्तर पादिमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञ न भी मानना चाहिये, इसका सास्वादन भी किया जाता है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय उत्तर यह है कि वैसामाना नहीं है, क्योंकि पृथिवीकायादि यह संज्ञा विशेष रूपसे प्रचलित है। इसकी सार्थकता पंच संग्रह टीकाकारने इस प्रकार बतलायीहै-- एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादनमाव अत्यन्त विरल रूपमें पाये सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः । जानेसे उसकी विवक्षा नहीं की गई। और इसी लिये कहा तत्रायं शब्दाथेः-सह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वागया है कि "पृथिवीकायादिमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों दनेन वर्तते इति सास्वादनः। यथा हि भुक्तक्षीरान्नका प्रभाव है तथा विकलेन्द्रियों में उनका सनाव मानना विषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरामरसमाउचित है।' स्वादयति, तथैषाऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वयहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सासावन गुग्ण स्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन् तद्रसमास्वाको सम्यक्त्व रूप ही स्वीकार किया है और सासादनोंके दयति । ततः स चासी सम्यग्दृष्टिश्च स सास्वादनसम्यज्ञानको पूपिवीकायादिमें केवल इसी लिये सज्ञान रूप ग्दृष्टिःतस्य गुणस्थानं सास्वादनसम्यग्ष्टिगुणस्थानम्।" स्वीकार नहीं किया क्यों कि उनमें सासादनभाव इतना (पंचसंग्रह १, पृ०१८) कम पाया जाता है कि सामान्य कथनमें उसकी विवचा अर्थात-"सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानकी जगह नहीं की जाती। सास्वादन सम्परधि गुणस्थान, पेसा पाठ भी पाया जाता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनेकान्त [वर्ष ६ है। इस पाठका शब्दार्थ इस प्रकार है-जो जीव सभ्य- इस प्रकार कर्मकाण्डकारके निजी मतानुसार तो सासास्वलक्षण रसके भास्वादन सहित है, अर्थात सभ्यक्रवका दन गुणस्थानमें आहारक प्रकृतिकी सत्ता होती ही नहीं है। रस अभी भी चल रहा है, वह सास्वादन है। जैसे कोई अर्थात् जिस जीवने चाहारक प्रकृतिका बन्ध कर लिया पुरुष हीरभोजन कर लेने के पश्चात् ब्याकुल चित्त होकर वह सासादन गुणस्थानमें जा ही नहीं सकता। किन्तु उसका वमन करने लगता है और बमनकालमें भी उस कर्मकाण्डकारको एक ऐसे मतका भी परिचय है जिसके चीरानका स्वाद पाता है, इसी प्रकार जीव सम्यक्त्व पाकर अनुसार सासादन गुणस्थानवी जीव माहारक सत्ता भी व्याकुल चित्त हो सम्यक्त्वका वमन करता हुश्रा उसके वाला हो सकता है। यह मत हमें श्वेताम्बर कर्मग्रंथोंमें रसका मास्वादन करता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव सास्वादन मिलता है। कर्मप्रकृतिकी गाथा . में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि है और उसके गुणस्थानको सास्वादन गुणस्थान पाहारक प्रकृतिकी सत्ता सभी स्थानोंमें विकरूपसे हो कहते हैं।" सकती हैद्वितीय गुणस्थानके नामकी इस व्युत्पत्तिमें सम्यक्रवके "आहारग-तित्थयरा भज्जा दुसुणस्थि तित्थयरं।" स्वाद पर जोर दिया गया है और उसी पर उस संज्ञाकी यही बात पंचसंग्रहकी गाथा ३४८ में भी कही सार्थकता अवलम्बित की गई है। अतएव इस दृष्टिकोण से गयी हैसासादन जीवमें सम्यक्त्वके स्वादको सत्ताको स्वीकार करते "सव्वाण विहारं सासण-मीसयराण पुण तित्थं । हुए उसके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा जाय तो कोई विरोध उभये संति न मिच्छे तित्थगरे अंतरमुहुर्त ॥" नहीं पाता। इस प्रकार सासादनके ज्ञानको मिथ्याज्ञान या पंचम कर्मग्रन्थ 'शतक की गाथा १२ में भी यही मत सम्यग्ज्ञान मानने वाला मतभेद सासादनसंज्ञाकी सार्थकता सम्बन्धी मतभेद या दृष्टिकोण-भेद पर अवलम्बित हो तो स्थापित किया गया हैपाश्चर्य नहीं। "आहारमत्तग वा सव्वगुणे वितिगुणे विणा तित्थं । सासादन गुणस्थानमें आहारक प्रकृतिकी सत्ता नोभयसते मिच्छो अंतमुहुत्तं भवे तित्थे ।" कर्सकाण्डकी गाया ३३३ में बतलाया गया है कि सासा- इस प्रकार हम देखते हैं कि एक मतके अनुसार दनगुणास्थानमें माहारक प्रकृतिकी सत्ता नहीं हो सकती- चाहारक प्रकृतिकी सत्तावाला जीव सासादन गुण स्थान में तित्थाहारा जुगवं सव्वं तिथं ण मिच्छगादितिए।" जा सकता है और दूसरे मतके अनुसार नहीं जा सकता। किन्तु भागे गाथा ३७२-३७३ में कहा गया है कि सासा- यदि यहाँ भी युक्तिके बल पर विवेक किया जाय तो यह दन गुणस्थानमें कोई प्राचार्य सात प्रकृतियाँ हीन मानते हैं कहा जा सकता है कि चूंकि श्राहारक कृतिका बन्ध और कोई तीन प्रकृतियाँ हीन मानते हैं। अर्थात् किसीके केवल विशेष संयमी जीव ही कर सकते हैं, अतएव जिस मतसे उस गुणस्थानमें माहारकादि चार प्रकृतियाँ हो मतके अनुसार उपशमश्रेणीसे उतरा हुमा जीव सासादन सकती हैं और किसीके मतसे नहीं हो सकती-- हो सकता है उस मतके अनुसार तो सासादन गुगास्थान "सत्ततिगं आसाणे मिस्से तिगसक्सत्तएयारा। में आहारक प्रकृतिकी सत्ता संभव मानी जा सकती है। परिहीण सम्बसत्तं बद्धस्सियरस्स एगूणं । किन्तु जिस मतमे उपशमश्रेणी बाला जीव सासादन तित्थाहारचउई अण्णदरा उगदुर्ग च सत्तदे । नहीं हो सकता उस मतके अनुसार सासादन गणस्थानमेंहारचउकं वज्जिय तिरिण य केई समुहिट" माहारक प्रकृतिकी सत्ता भी नहीं मानी जा सकती। संशोधन-इस लेख में गत किरणके पृष्ठ..के दूसरे कालमकी २४ वीं पंक्तिमें प्ररूपणा'के पहले जो 'स्पर्शन' शब्द चपा है उसके स्थान पर पाठक 'अन्तर' बना ले। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी एक झलक (ले०-पं० सुमेरचंद्र दिवाकर पी० ए० एल०-ल. बी. शास्त्री, न्यायतीर्थ) [गत किरणसे आगे मोक्षमार्गस्थ नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। जैन परंपरामें नहीं कहा गया है, कि जिन पदार्थोंके स्वरूप ज्ञातारं विश्वतत्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये ॥ का प्रदर्शक यह है, वे स्वयं दो दिनके तमाशे की चीज नहीं 'मैं मोक्षमार के नेता-संसारकै दुःखोये बचा है, बल्कि त्रिकाल प्रवाधित सत्यरूप हैं। जब वस्तु कर सच सबके मार्गको बताने वाले कर्मरूपी पर्वतोंका अनादि अनंत है तथा उसका स्वरूप प्रकाशक तत्वज्ञान विनाश करने वाले-पाएमाका पतन करनेवाली कर्मराशि भी उसके समान होना चाहिये। को चूर्ण करने वाले, संपूर्ण तत्वों के ज्ञाता-सर्वज्ञ तथा अनुभव यह बताता है कि जो इमरीके मामे कौटे सबागीण सत्यके दृष्टा को, उनके गुणों की प्राप्तिके लिए, बौनेका प्रयत्न करता है वह शीघ्र नहीं तो कालान्तरमें स्वयं कोंटोंसे दुःख पाता है। प्रकृतिके इन अटल नियमोंके भयाम करता। अनुसार तीर्थंकरोंने यह ताव-देशना को-यदि तुम चाहते इनसे पाराधनाके प्रादर्श तथा भ्येयका चित्र मेत्रों के हो कि तुमको कोई भी किसी भी तरहका कष्ट न दे, तो सामने खड़ा हो जाता है। पारमाके विकास या हासका उत्तरदायित्व उसके भावों सुमको कमी किसीको कष्ट देनेका विचार तक न करना पर है। उपरोक्त वर्णित मादर्शकी धाराधनाम्मे--गुण । चाहिए । विश्व मैत्रीके पाठको पढ़ने वालेकी प्रकृति देवी चिंतनसे उज्वल भाव होते हैं, इससे प्रारंभिक साधनके अर्चना करती है, और प्रकृतिकी छोटी बड़ी वस्तुएँ उसकी लिए यह बहुत भावश्यक अंग है। यह पाराधना सच्ची भारमाको पीदा नहीं देती। वह छोटे बड़े सभी जीवधारियों वीर-पूजा (Hero worsip) है। यह तपरस्तीस पर करुणाका भाव धारण करता है। इस विषयमें महर्षि विस्कुल जुदी है। इस भाराधनामें दीनताकी भावना नहीं अमितगतिका यह पच बडा मार्मिक है, जिसमें जैनधर्मका रहती है। यदि कोई भावना की जाती है, तो यह कि बह , एक महत्वपूर्ण तथा शांतिदायक संदेश भरा हुमा है-- रत्नत्रयका प्रकाश मारमामें उत्पन्न हो, जो मुक्ति-स्था सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं भीनताका प्रतितीय साधनादेखिए भविौलत. माध्यस्थ्य-भाचं, विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधात देव! रामजी कितनी भावपूर्ण स्तुति करते हैं--- प्रभो ! मेरी भाल्मा इस रूप होजाब कि मैं प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखू, गुणी पुरुषोंको देखकर मेरा हृदय "आतमके श्रहित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय भानंदित हो जाय, पीड़ित-दुखी जीवोंको देखकर मेरा मैं रहूँ आपमें आप लीन, त्यों करो, होहुँ ज्यों निजाधीन हृदय करुणापूर्ण हो जाय, जो मुमसे विपरीत वृत्ति वालेमेरेन चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजेमुनीश।...." शत्रुता धारण करने वाले हों उनके प्रति मेरे उदयमें माभ्यजैनधर्म किसी व्यक्तिके कथन या पुस्तक चमत्कार या स्थ्य भाव हो-मैं उनकी भोर द्वेष या घृणाकी रष्टि न रखें। म्यकि विशेषपर निर्भर नहीं है। यह तो सत्यके प्रखंड माज यह विश्वमैत्रीकी शिक्षा विश्वमें न्यास हो तो भंडार विश्वका धर्म है,यह प्रकृतिके पन्ने परेमें लिया हुभा __ एक प्रकारसे यहीं स्वर्ग उतर पाए । क्रोध, स्वार्थ, खालच, है। अनुभव इसका भाधार है। युक्तिवाद इसकीमात्मा है। अभिमान मादिके कारण प्राणियोंकी प्रवृत्ति इस मार्गकी इस धर्मको, काखकी मर्यावाके भीतर कैद. इसी कारण, और नहीं होती. सीसे मुसीवतका नारकीय जीवन १ देखो तत्वार्थसूत्रका आदि श्लोक । बिताना पचता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त [बर ६ . यह विश्वमै शिक्षा बौद्धिक रूपको प्राप्तकर स्था तथा दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए एक कवि कहता हैअनेकान्तबाद ना. र्शनक विचारप्रणालीको उर. अरि-मित्र महल-मसान कंचन-पाँच निंदन-तिकरन । करती है. जो यह ब. कि दुरावपूर्ण दृष्टिकोणको अर्घावतारन-सहारनमें सदा समना घरन ॥ छोडकर उदारता : सपूर्ण सत्यका दशन था समादर इस विषयको पढ़कर प्राजकी शान्त दुनियामें रहने करो। वह विश्वमें बिनो धार्मिक मतभेदको दूरकर वाला व्यक्ति यह सहया कह उठेगा यह हो स्वमसाम्राज्य एकताका मार्ग बनाई. जर कोई ज्ञानका कोई भक्तिका जैसी बात है। कुछ ऐसा मार्ग हो, जिसका हम जैसे कोई क्रियाकाण्डवा पकड़कर अन्यको निरुपयोगी साधारण स्थिति वाले पालन पर सोर शांत लाभ करें। कहना है, तो यह कानापनाको कल्याणकारी बताती आशंका चनुचित नहीं है। मध्यम स्थितिक व्यक्तियों इस अनेकामवान बीन्द्वक उदारता मतभेद-साहि- को मद्देनजर रखते हुए प्राचार्योंने शिक्षा दी है कि तुम ब्णुताकी उत्पत्ति होती . प्रोफेसर फणिभूषण अधिकारी मोटे पापोंसे बचो. अन्यायरूप आचरण न को, दूसरोंको एम. ए. का कथन कि "इय बौद्धिक निष्पक्ष-अनेकान्त न सतायो। झूठ न बोलो. चोरीसे बचो अपनी पत्नी में 'नीतिके बिना कोई दाशनक या वैज्ञानिक अनुसंधान-खोज संतुष्ट रहकर अन्य नारियोंमें म तृभाष, बहन या बेटीकी का काम पूर्ण नहीं हो सकता है।" यथायोग्य दृष्टि रखो, अपनी पारश्यकताको मर्यादित इस विश्वमैकी पावनाका व्यावहारिक रूप अहिंसा करो दुखी तथा असमर्थ प्राणियोंको द्रव्यका, औषधिका का तत्वज्ञान है। इस हप है कि, प्रायः प्रत्येक धर्ममें ज्ञानका, अभयपनेका दान दो, न्यायपूर्ण आजीविका करो। वर्णन किया गया है। पूर्गा वैज्ञानिक और व्यावहारिक धर्मके साथ समाज-गटके संरक्षण तथा लोकोपकारका भी रूप देकर हदयंगम भने । कार्य जैनग्रंथों में मिलता है। ध्यान रखो। वर्तव्य पालनसे पीछे न हटो। वीरता मुख इस अहिंमाके श्रापमा पह ग्रागी गगद्वेषादि दोषोंसे न मोडी करतासे बचे रहो। संक्षेपमें गृहस्थका धर्म है। मुक्त होकर पारमाव: अवस्थाको प्राप्त करता है। Do your duty amd do it ar humamity an किमी प्राणीको न माम मांस न खाना, शिकार न खेलना, you can. अपना वन्य पालन करो, और यह जितना अधिक करुणा करके तैयार होते हैं उन उपयोग न करना प्रादि अहिंसा पूर्वक बन सके, उतनी दयापूर्वक कगे। के बाह्य रूप हैं। वास, नभं क्रोधादि विकारोंपर विजय प्राप्त माज जो विश्वकी बुरी हालत हो रही है, ज्ञानकी करना अहिमा है। कीमाशा करते हुए भी यदि हमारी उमनि होने हुए भी मनुष्य मनुष्यके रक्तका प्यासा होरहा मनःशुचि न हो सकी हम हिसासे दूर ही रहेंगे। है, सर्वत्र अशान्ति, शोभ, कलहका बाजार गरम नज़र सत्य. ब्रह्मचर्य, अचार्य, अपरिग्रह अहिंसाकं हीरूपान्तर है। प्राता है, उसका इलाज यही है, कि मनुष्य अपने कार्योंका इमका पूर्णतया पालन करनेवाले महान साधकोंको उत्तरदायित्व अन्य शक्तिके उपर न डालकर अपनी आत्मा दिगम्बर मुनि कहते हैं, जो मनमा, वाचा, कर्मणा जीव- को ही अपने कर्मोंका भोक्ता श्रद्धान करे। इस नैतिक जिम्मेरक्षा तथा प्रारमशुद्धिमें संलग्न रहते हैं। इस पदको प्राप्तकर दारीसे दृष्टि(Outlook में अंतर होगा हिसासे विमुख हो। यह जीव अपूर्व शान्ति प्राप्त करता है । वह रागद्वेषसे जरूरतसे अधिक पदार्थोंकी लालसाको छोडे । सत्यका व्रत अपनेको सतर्कतापूर्वक बचाता है। उसकी समतापूर्ण अव- ले। अन्यायपूर्ण वृत्तिको छोडे। पवित्र सात्विक महारपान १इसका खुलासा बिवेनन C. R.Jain Bar-at- करे, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की दृष्टिको लेकर काम करे, तो law की 'Confluence of opposites' या दुनियाकी कायापलट हो सकती है। इत्तिहादुल मुम्बालफीन' पुस्तकमें देखना चाहिए । इस कुलभद्र भाचार्यकी गृहस्थके लिए कितनी अच्छी लेख में विशेष वर्णनका स्थान नहीं है। भर उपयोगी शिक्षा है कि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३1 सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं १०७ तृण-तुल्यं परद्रव्यं परं च स्वशरीग्वत। इस संसारके भोगोंके नीचमें रहता हुमा भी वह उन पर-समा समा मातुः पश्यन याांत परं पदम् ॥ में प्रारूक नहीं होता है। मोहरूपी समुद्रके तीर पर रहते अर्थात-दूसरेकी वस्तुको तृणतुल्य-अपने लिए सग्रह हुए भी वह उसके भीतर नहीं डूबता है और इसीसे धीरे या ममता अयोग्य, दूसरे जीवों को अपने शरीरफे समान- धीरे भारमबलका विकास करता हुमा इस ३५ सयमा जस प्रकार मुझे पीदा होती है उसी प्रकार अन्यको भी को प्रास करता है, जब वह उस अक्षय शासिके भंडारका र होता है, तथा दूपरेकी स्त्रीको अपनी माताके समान अधिपति बन जाता है, जिससे विश्वकी चास्माओंकी राधा -झनेवाला व्यक्ति उत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है। शांत होती है। वह उस प्रात्मीक प्रकाशपुजको प्राप्त करता इस प्रकार पुण्य आचरणसे भामा उमत होती है। है जिसके निमित्तसे स्नेहपूर्ण अनंत बुझे हुए जीवन दीप ४ जीव भास्माको शरीर तथा भौतिक पदार्थोंसे भिन्न अंगमगा जाते हैं। वह विश्वविजेता भााद नामोसं संस्तुत बदन करता है। गृहस्थ होते हुए भी वह दिव्य लोकका किया जाता है। वह जन्म-जरा मृत्युके संतापसे मदाके मा-सा रहता है। उसकी मनोवृत्तिका इस प्रकार एक लिए मुक्त हो जाता है । संक्षेपमें यह कह सकते हैं कि मेनकांव चित्रण करता है रत्नप्रयके प्रसादसे पीडित, पतित, संत्रस्त जीव भी साधागहीदै गृहमें न रचे ज्यों जलसे भिन्न कमल है। रेण मानवसे महामानव बन जाता है, जो श्वर था परमा गा-नारिको प्यार यथा कांदमें हेम अमल है'। माके साम्राज्यका अधिपति ही नहीं होना है, बल्कि जो ययार पर गेही---गृहवासी रहता है किन्तु गृहस्थाके स्वयं परमात्मा बन जाता है। ऐसी ही मामा तीर्थर दमय कार्योम वह श्रामत नहीं होता है । जिस प्रकार महंत, जिन, बुद्ध, सीर धादि शुभ संज्ञाशाको प्राप्त करती नी, बीच में रहनेवाला कमल पानीमे जुदा रहता है, पादाना है। यही मारमाका स्वभाव है-धर्म है, उसीको प्राप्त करने । जैम वेश्या किमी पुरुष पर प्रांत रक प्रेम नहीं रखती की तीथंकर महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा उनके पूर्व१. श्रजना सुवर्ग कीचडम गिनेस केवल कामालनता वर्ती २१ वीथकरोंकी तस्वदेशना हुई थी। वही जैनधर्म है दिवाना है. किन्तु भीतरी तौर पर सुबर्ण अपने गुण- और सच पूछिये तो विश्वधर्म भी वही है। धमम युक्त रहता है उसी प्रकार विवेकी गृहस्थ जगत् कार्य करते हुए भी उनसे अलिप्त सी मनोवृत्ति रखना है छहढाला सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं (ल०-६० इन्द्रचन्द्र जैन शास्त्री) श्रात्माको ज्ञानस्वरूप स्वीकार करनेमें प्रायः फी शक्ति प्रावरण-रहित होती जाती है, इसीको जैनभी महमत हैं। ज्ञान और आत्मा दो भिन्न २ पदार्थ सिद्धान्तमें "लब्धि" कहा है। इसके पश्ात् पदार्थों को नहीं किन्तु एक ही रूप हैं। आत्माको छोड़ कर ज्ञान जाननेरूप जो व्यापार होता है उसे-उपयोगकहते हैं। गुणका अन्यत्र सर्वथा अभाव पाया जाता है, इसी क्षायोपशमिष रूप लब्धिको उपयोगरूप करने में लिये अन्य पदार्थ जड़रूप कहलाते हैं। इन्द्रिय, मन श्रादिकी आवश्यकता होती है। क्षायिक ज्ञान-गुण आत्मामें सदा विद्यमान रहने पर भी, अवस्थामें किसा प्रकारके सहारेकी-आवश्यकता नहीं ज्ञानावरण कर्मरूप पावरणके कारण पदार्थोंको जानने होती। इसी सहारे और विना सहारेके कारण ज्ञान में अममर्थ रहता है। ज्ञानावरण कर्म जितने अंशोंमें की परोक्ष और प्रत्यक्ष कल्पना की गई है। वास्तवमें नष्ट हो जाता है, उतने ही अंशोंमें पदार्थोंको जानने ज्ञान परोक्ष नहीं हो सकता। ज्ञानका कार्य तो जानना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनेकान्त [वर्ष६ है, जानना परोक्ष कैसा ? वह तो प्रकाशके सहश से उत्पन्न होते हैं। उमास्वामीने-"तन्द्रियानिन्द्रियपदार्थों को स्पष्ट करता है! बहिरंग कारणोंमे प्रकाशमें निमित्तम्" इस सूत्रमें मतिज्ञान उत्पन्न करने के लियेअन्तर आ सकता है। नानारंगके कांचोंसे प्रकाशकं स्पर्शन, रमना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये छह रूपमें अन्तर आसकता है, वास्तवमें प्रकाश तो शुद्ध बहिरंग कारण बताये हैं। ये वास्तव में ज्ञानको उपएक रूप ही है। उसी प्रकार वहिरंग इन्द्रियादि कारणों योगरूप लाने में कारण हैं। लब्धिकी अवस्थामें वह की अपेक्षा ज्ञानमें परोक्ष कल्पना की गई है, बास्तवमें मतिज्ञान, (उतने अंशमें)विशद प्रत्यक्षके समान ही है। कानमात्र विशद रूप-प्रत्यक्ष ही है। क्षानावरणकर्मका आवरण आत्माके जितने अंश यदि हम और भी विचार करें तो अवधिज्ञान में विद्यमान रहता है, उतने अंशमें ज्ञान प्रकट नहीं और मनःपर्ययज्ञान भी उत्पत्तिमें परापेक्ष हैं। गोम्मट- हो सकता। अतः क्षायोपशामक अवस्थामें-लब्धिसार जीवकाण्डकी ३७० वी गाथामें अवधिज्ञानके रूपसे निरावरण अंश प्रत्यक्षक समान निर्मल और स्वामीका वर्णन करते हुए, यह भी बताया है कि विशुद्ध होना चाहिये । मैं पहिल बता चुका हैं कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान-शंखादिक चिन्हों के द्वारा बायोपशमिज्ञानके समय आत्माके साथ अन्य अंशों हुश्रा करता है, तथा भरप्रत्यय अवधिज्ञान संपूर्ण- में ज्ञानावरण कर्मका सम्बन्ध रहता है, तथा क्षायिकअंगसे प्रकट होता है। इमीप्रकार मनापर्ययज्ञान भी ज्ञानके समय आत्माके किसी भी अंश के साथ ज्ञानाद्रव्यमनको आधार लेकर होता है । इस प्रकार परा- वरण कर्मका सम्बन्ध नहीं रहता। इसी लिये क्षायिक पेश होने पर भी अवधिज्ञान और मनःपर्ययछान और क्षायोपशामक दो भेदोंकी कल्पना की गई है। प्रत्यक्षही कहलाते हैं, क्यों कि उपयोगक ममय ये वास्तवमें जितने भी ज्ञान हैं, सभी प्रत्यक्षज्ञान हैं। आत्ममात्र सापेक्ष हैं। इसी प्रकार जब मतिज्ञान और पंचाध्यायीकारने कहा है-- श्रुतज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष होते हैं, तब प्रत्यक्ष-ही अपि किं वाभिनिवोधकबोधद्वैतं तदादिम यावत । होते हैं। स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् । जितने अंशमें ज्ञान हो रहा है, उतने अंशमें अर्थात्-केवल स्वात्मानुभूतिके समय जो ज्ञान झानावरण कर्मका-सर्वथा अभाव है। अन्य अंशोंमें होता है, वह यपि मतिज्ञान है, तो भी वह वैसा आवरण विद्यमान होनेसे तथा उपयोग-रूपमें लाने ही प्रत्यक्ष है. जैमा कि श्रात्ममात्र सापेक्ष प्रत्यक्षज्ञान बाले कारणों के कारण ज्ञानको छायोपशामिक कहा है। होता है। यहां मतिझानका भी जब इन्द्रियोंकी अपेक्षा मतिज्ञान,श्रुत्तज्ञान,अवधिज्ञान और मन:पयंज्ञान ये नहीं होती, अर्थात् जब कंवल लब्धिरूप अवस्था चार ज्ञान झायोपशमिक-तथा केवलज्ञान क्षायिक होती है, उस समय प्रत्यक्षमान कहा है। अतः सभी ज्ञान है। इनमें मतिज्ञान और अतज्ञानको परोक्षज्ञान- ज्ञान प्रत्यक्षरूप ही हैं। केवल बहिरंग कारणों के कहा है, क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायता कारण ज्ञानकी परोक्ष कल्पना करनी पड़ी है। -जैन-नाट्य-माहित्यमें श्री भगवत्' जैनकी एक सर्वथा नवीन, सुन्दर, कला-कृतिचुभते सम्बाद, रस-भरे गीत, और - दिशामें अपनी तरहकी यह अकेली श्रीपाल-मैनासुन्दरीकी अमर-कथाका रचना है। सौ फीसदी स्टेज पर खेलने अमर-चित्रण ! हमारा दावा है कि इस ........... योग्य, बिल्कुल अाधुनिक ढंग, नई -शैली और रोचकता से भरा 'माय' शिक्षाप्रद वीर-रसपूर्ण, पवित्रमूल्प-१) पो० अलग । डेढ़-सौ पृष्ठ ] पौराणिक-नाटक [सर्वात सुन्दर छपाई, मनोहर कव्हर ! व्यवस्थापक-भगवत-भवन, ऐल्मादपुर (भागरा) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सूख रहे जागो जागो निमें उमड़ जागो जागो हे युगप्रधान ! [ले.-माहित्याचाय पं. पन्नालाल जन 'बमन्त'] है शक्ति निचित सारी तुममें, तुम ही हो जगके नर महान जागो जागो हे युगप्रधान ! क्षितिपर हरियाली छाई है, पर सूग्व रहे मानव-श्रानन, . मरिताएँ बनमें उमड़ रहीं, पर खाली है मानस-कानन, घन-घटा व्योममें घुमड़ रहीं, पर भूपर है ज्वाला-वितान, - जागो जागो हे युगप्रधान ! नभसे होती है बाम्बवृष्टि, क्षितिपर सरिताएँ लहगतीं, जठरोंने नरके ज्वालाएँ हैं बढ़ी भूम्बकी हहराती, है सुलभ नहीं दाना उनको, आँखों में छाया तम महान, जागो जागो हे युगप्रधान ! कितने ही भाई विलख रहे, कितनी ही बहिनें रोती हैं, कितनी ही मानाएँ प्रतिपल, अपने शिशु-धनको खोती हैं, जग भूल गया कर्तव्य-कमें, जिससे पाता था सुम्ब-निधान, जागो जागो हे युगप्रधान ! है रणचण्डीका अतुल नृत्य, दिखलाता जगमें विकट खेल, है बन्धु बन्धुमें कैप बढ़ा, है नहीं किसी के निकट मेल, कंकालमात्र अब शेष रहा, मब दूर हुआ बल सौख्य दान, जागो जागो हे युगप्रधान ! यह लाल-दैत्य-ज्वालाभितप्त करता आता है ध्वंस आज, यह प्रलय कद्र उत्तप्त हुआ है सजा रहा संसार साज, बन, उठो वीर हे!सजल मेघ, कर दो जगसे ज्वालाऽवसान, जागो जागो हे युगप्रधान ! जगतीमें छाया निविड़ध्वान्त, पथ भूल रहे नर सुगमकान्त, दिग्वता है मानव-हृदय क्लान्त, सागर लहराता हो अशान्त, . लेकर प्रकाशकी एक किरण, करने जगम आलोक-दान, जागो जागो युगप्रधान ! हैं पुरुष आप पुरुषार्थ करें, नर रोज विश्व में प्राप्त करें, हैं तकण, तपी तरुणाईसे नभमें महान आलोक धरें, भर कर उरमें संदेश दिव्य, फैलाने जगमें अतुल ज्ञान, जागो जागो हे युगप्रधान ! वीती रजनी, श्राया प्रभात, प्राचीमें फूट उठी लाली, खगदल के मञ्जुल विहागसे, हो उठी लसित डाली डाली, जग भर कर निज चैतन्य-साज, हैचला दिलाने स्वावदान, जागो जागो हे युगप्रधान ! फैले जगमें फिर एक बार, वीरोंका वह कमनीय गान, जागो जागो हे युगप्रधान ! . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान संकटका कारण (ले० - बा० उग्रसेन जैन, एम० ए० एल० एल० बी० ) >>>*< आज संसार एक महाभयानक युद्धमें फंसा हुआ है । प्रत्येक देशमें त्राहि २ की पुकार सुनाई पड़ती है, जिसे देखो वह ही युद्ध की समाप्तिके लिये अपने हृदयस्थल में प्रबल इच्छा को लिये हुए हैं। परन्तु हम यह विचार नहीं करते कि इस सारे संकटका कारण क्या है ? जब तक ल काराको जान कर उसके निर्मूल करनेका उपाय नहीं सोचा जाता और उस पर अमल नहीं किया जाता. उस समय तक युद्धका मिलसिला जारी ही रहता रहेगा। कभी कुछ दिनोंके लिये बंद हुआ तो फिर फटसे द्वेषकी अभि प्रज्वलित होने पर युद्ध छिड़ जाता है. प्रजा दुःखी होती रहती है । हमारी वर्तमान सभ्यता ही इस संकटका मूलकारण है। वर्तमान सभ्यता की नींव विषय कषायकी पूर्ति पर ही रखा है, जबबाद इसकी तहमें है. चारों ओर आध्यात्मिक अराजकताका साम्राज्य छाया हुआ है, शिक्षित होते हुए भी हमें यह मान नहीं कि हम क्या है ? हम संसारमें क्यों है ? हमारे इस मनुष्य जीवनका उद्देश्य क्या है ? यथार्थमें वस्तुस्वरूपका ज्ञान ही नहीं है। नवीन विचार धाराओंने हमारे दिल और दिमाग़ पर अपना कुछ ऐसा सिक्का जमाया है कि हमारे दैनिक श्राचार-विचार में बड़ा भारी परिवर्तन होता जारहा है। श्रमज्ञान-विहीन कुछ ऐसी विचार धारायें आज प्रचलित हो रही हैं, कि जिनके निमित्तसे आध्यात्मिक एकता तथा पारस्परिक प्रेम और सहानुभूतिको सद्भावनायें मनुष्यजातिले लुप्त ही हो गई हैं। स्वार्थान्धताने एक विकराल रूप धारण किया है । व्यक्तिवाद दिन-ब-दिन बढ़ता जारहा है, इसीसे सामाजिक संगठनके दृढ़ बन्धन नितप्रति ढीले पड़ते चले गये और वे सब धार्मिक तथा नैतिक भावनायें नष्ट होगई जिनके कार या समाज एकताके सूत्रमें बँधा हुआ था। सत्य, अहिंसा, विश्वप्रेम, दया, सेवा, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ. स्वार्थत्याग, दान तप शील भावना आदि अनेक गुण जो हमारे दैनिक जीवनके खास सहारे थे और जिन पर कि सामाजिक और धार्मिक एकताकी गहरी नींव टिकी हुई थी, जाते रहे; इनको ढकोसला समझा जाने लगा, पौद्गल भावोंकी गृद्धि बढ़ती गई, भोग-विलासका जीवन व्यतीत करना ही अन्तिम ध्येय बनता गया, मौज-शौककी सामग्रीका अधिकाधिक मात्रा में संग्रह कर लेना ही जीवन की सफलता समझी जाने लगी । फल क्या हुआ ? यही कि अपने निज स्वरूप के भुला कर परके पीछे हाथ धोकर जापबे धर्म, अर्थ और वाम-पुरुषार्थका साधन यथायोग्य नहीं रहा, धर्मकी तो चर्चा तक भी नहीं अगर कहीं हो भी तो लोकलाज के लिये और केवल बाहरी दिखावटकी खातिर । मोक्ष-पुरुषार्थ का को प्रश्न ही नहीं । संसारी विभूतिको हथिया लेनेकी धुनमें प्रत्येक राष्ट्र लगा हुआ है, वह विभूति मीमित है, प्रत्येककी इच्छाओं की पूर्ति उसके द्वारा कैसे होवे ? हां, यद यह अहिंसात्मक सद्भावना प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें होवे कि मैं भी सुख और सन्तोषके साथ रहूं और दूसरे भी सुखी रहें तो वेशक समाजको काया पलट हो सकती है। इसके लिये आवश्यता है कि हम यह समझें कि संसार क्या है और हमारा इसके साथ कैसा सम्बन्ध है ? हमें अपने अंतिम ध्येयको अधिक स्पष्टता के साथ समझने की जरूरत है। हमें अपना आदर्श स्पष्ट रूपसे अपने सामने रखना चाहिये, क्यों कि जैसी भावना होती है वैसा बननेका ही सर्व प्राणियों का उद्देश्य हुआ करता है। यदि हमारी अपनी भावना सुख और शान्तिमय जीवन बिताने की होती है और हम उस ध्येय की ओर प्रयत्न शनि होते हैं तो अवश्य हमारा जीवन सुख-शान्तिमय हो जाता है। इस भावनाको निश्चित कर इसकी मृति हमें अपने हृदय में निर्मित कर लेनी चाहिये, उस मूर्तिके निर्माण होने पर ही हमारी प्रवृत्ति उस ओर चलती है । इस लिये जो संसारसे प्रशांतिको मिटाना चाहते हैं और इसके लिये प्रयत्नशील है उन का कर्तव्य यह है कि वे प्राणीमात्रको अपने बराबर समर्के, सबके प्रति प्रेमकी भावना अपने में जागृत करें, विषय-कषाय Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] विश्वको अहिंसाका संदेश १५१ की पूर्तिको ही अपना ध्येय न समझे, बल्कि उसे चपनी बिताने के योग्य हो सकते हैं और इसीसे हम बार २ युद्ध गिरावटका मूल कारया जाने संपारी जीव पौद्गलिक होनेकी सम्भावनाको का कर सकते हैं। समाज व्यक्तियोंके पदार्थों का त्याग नहीं कर सकते यह ठीक है. परन्तु उसमें समुदायका ही नाम है। जब व्यक्तिगत जीवन धार्मिक नीव प्रामक्ति कम रखें. दूसरों के लिये भी जीवन-निर्वाह करनेके पर टिका होगा तो सामाजिक जीवन स्वयम् धार्मिक होगा, लिये कुछ छोड़ें, प्रकृति के नियमोंका उल्लकन न करें और धार्मिक जीवन होने पर जीवन संतोषमय होगा, न्यर्थ के श्रा-माके सत्यस्वरूको समम इस संपारके माथ अपने झगड़े किसीकोन महावंगे, साधारण जनता शान्ति स्थाषित सम्बन्धकी वास्तविकताको सममें। ऐसा होने पर ही हमारा करनेके लिये उरमुक होगी और शान्तिको स्थापित करके उत्थान हो सकता है और हम सुख और शान्तिमय जीवन ही चैन लेगी। विश्वको अहिंसाका संदेश (ले०-बा. प्रभुलाल जैन 'प्रेमी' ) मनमें यह रढ़ संकल्प कर लेने पर कि इस मारामें विश्व में शौति होने के साथ ३ हमारे प्रशांत हृदयोंको भी सम्पादकजीकी सेवामें लेख भेज कर उनकी प्राज्ञा-पालन शान्ति मिल सके। अत: प्यारे पाठको! आइये, आज लेखके करना अनिवार्य है; हृदयमें अनेक विचार-धारायें उठने विषय “विश्वको अहिंसाका संदेश" पर न केवल विचारली! किंकर्तव्यविमूढ़ता-वश नहीं। अपितु निर्वाणोत्सव वि.नमय करें, अपितु पूर्वजोंके महान स्याग और तपश्चर्यास जैसे भारतके अद्वितीय पर्वका स्वागत करनेके लिये पुष्प संग्रहीत 'अहिंसा रत्न' की शीतल धाभासे विकी अशांति वाटिकाके किन सुमन संचयोंपे माल गूथी जाय? एक नहीं को मिटा और सभी स्वार्थान्ध राष्ट्रोको उसीअमोघ रस्नको अनेक संकल्प विकल्प उठे और अन्तर्धान हो गये। कई दिव्य-ज्योनि पालोकित करदें जिसकी प्रबल भाभाके दिनकी मानसिक उधेद बुनके पश्चात् यही निश्चय हुश्रा, कि प्रकाशसं मनसा,वाचा, कर्मणा, लौकिक और पारलौकिक आज जब सारे विश्वमै अशान्ति छाई हुई है। एक देश सभी प्रकारकी अशांति मिट जाती है। दसरे देशको हपके लिये सुरसा जैमा मुंह फादे खड़ा "विश्वको अहिंसाकासंदेश" यह पानके स्वार्थान्ध और है। हमारे ही देश में जहां कभी घी, दूध, दहीकी नदियां हिंसा वृत्तिको ही साफल्य साधनाकी कुंजी समझने वाले बहा करती थीं जिसमें जन्म धारण करनेके लिये मनुष्यों लोगोंको अवश्य ही हास्यास्पद और विस्मयजम्य मालूम की कौन कहे, देवताओंका भी मन ललचाया करता था, होगा। क्योंकि भाज संसारकी सारी व्यवस्था राजनैतिक, उसी भारतमें आज आम और वस्त्र के लिये बाहि २ मंची सामाजिक और आर्थिक हिंसा वृत्ति पर ही टिकी और उसी हुई है। विनाही कारण प्रतिदिन हजाा ही नहीं लाखों पर अपलम्बित मालूम होती है ! जब मानव समाजका नर-नारी और बालक रणचन्डीकी भेंट चढ़ाये जारहे हैं। अधिकांश भाग अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो, जब सारे ऐसे समयमें अशीतिको मिटा कर शान्तिका स्थापन कराना, विश्वमै जिधर दृष्टि डाले उधर ही एक देश दूसरे देशको और भूले भटकॉवो मुपय पर लाना ही इमारी सच्ची एक जाति दूसरी जातिको हडपमेमें लगी हो छल और राष्ट्रसेवा, धर्मसेवा और समाज सेवा कही जासकती है। कपट ही अब राजनीति समझ जाते हो, सब साधारणतया मत: माज मैं पाठकोंका ध्यान ऐसे ही विषयकी ओर अधिक जनसमुदायका यही विचार हो जाता है, कि आकर्षित करना चाहता है, जिस पर माचरण करनेसे ऐसे समयमें हिंसाकी बात मूर्खता ही । पर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे ६ अंधकारमें ही प्रकाशकी भावश्यकता पड़ती है। समुद्रका शक्ति तलवारों और बन्दूकों पर विजय न पाती होती, तो खारी पानी ही घदेके शीतज, सुस्वादमय जलका मिठास वह अशोक जिसने लाखों खून करके कलिंग विजय किया था, बना सकता है और किसी भी प्राप्त करने योग्य वस्तुका और जिसकी प्राज्ञासे चन्डीगिरिने बौद्ध भिक्षुओंके सर्वनाश वास्तविक मूख्य उसको अप्राप्त दशामें ही कूता जा सकता जैसा वृणिताचरण ही अपने जीवनका ध्येय बना रहा था, है। यदि पथभ्रान्त मनुष्य उचित पथप्रदर्शित करा देने अन्तमें अहिंसाका उपासक बन कर अपने राज्यमें अहिंसा पर भी उस पथ को छोड़कर अन्यत्र भटकता फिरता है, तो की व्योंही न पिटवाता और न अहिंसाके संदेशको विश्वयह उसीकी बुद्धिमास्तिताका परिणाम समझना चाहिये। व्यापी बनानेके लिये अपने लड़के और लडकीको विदेशों में पाशस्थ वैज्ञानिक यह सोच कर कि आजकी उनकी भेज कर अाज भारतके इतिहास में "महान् अशोक" कह. प्रगति संसारको चकाचौंध करने वाली है भले ही अपने लाता। मौर्य और गुप्त साम्राज्य अहिंसाकी ही प्रधानताके मुंह मिया मिह बनते रहें, क्योंकि वह भी उनकी वस्तु कारण घाज भी विश्वके इतिहास में स्वर्ण-युगके नामसे नहीं है। पर याद उनसे भी हृदय पर हाथ रख कर पूछा पुकारे जते हैं। जाय तो मानना पड़ेगा कि भाज समस्त विश्व प्राध्यात्मिक इन्द्रने जब प्रवृज्याके लिये उधत नमिराज से कहा कि शान्तिके लिये जलसे पृथक हुई मछली और मणिविहीन तुम अपने शत्रुको पराजित कर फिर सुख संयम धारणा सकी तरह तबफहा रहा है। पाश्चात्य वैज्ञानिक विज्ञान करो, तब उस राजर्षिने भी श-दमनका केवल एक यही की जिन गुत्थियों को माज सुलझा रहे हैं उन्हें हमारे ही उपाय बतलाया कि, संग्राममें जाकर हजारों और लाखों विज्ञानवेत्ता प्राचार्य माजसे हजारों वर्ष पहिले निश्चित योद्वानोंको जीतना भासान है लेकिन अपने पापको जं.तना कर चुके थे। पर हमारे पूर्वज बाह्यजगतके जब पदार्थोके कठिन है। प्रारमजय ही परम जय है। इस परम जयको मोहग्रस्त नहीं होते थे, वे तो सदैव अन्तरजगतके अमृत छोड़ मैं तुच्छ जयके पीछे क्या पद? आध्यात्मिक युद्ध पारावारमें ही मन्न रहते थे। प्राचीन ग्रन्थ साक्षी हैं कि वे जब मेरे समक्ष है, इस बाझ युद्ध में क्यों फंसूं? युद्धका कैसे प्रकृतिप्रेमी, अहिंसाप्रेमी और ईशप्रेमा थे । यही उद्देश्य यदि सुख ही है और यदि वह सुख भी मुझे कारण था कि वे शांतिके समुद थे, प्रेमके प्रतिनिधि थे, अपने ऊपर जय करने पर मिल सकता है तो मैं क्या व्यर्थ और दयाके अवतार थे। उनके दर्शनों मात्रमे ही पशु और ही सबको मारता फिरूं क्यों कि मैं उषों २ क्रोधावेगसे परियों तकका कल्याण होजाता था, ऐसे एक नहीं भनेक दूसरोंको मारता फिरूंगा वैसे २ क्रोध और वैर अधिकाधिक उदाहरणोंसे हमारा प्रतीत इतिहास रंगा पड़ा है। आज बढ़ता जावेगा, जो अन्त में मेरे ही विनाशका कारण होगा। भी दूसरोंकी हत्यामें रत, पथभ्रान्त, अशांत स्वार्थान्ध अत: ज्ञानवान मनुष्यको अपने ही इदय स्थित क्रोध रूपी' विश्वको प्रेम-पाशमें बांधनेके लिये किसी ऐसे ही एक गुरु बैरीको नष्ट करनेका ही प्रयत्न क्यों न करना चाहिये? क्यों मंत्रकी प्रावश्यकता है, जिसकी साधना द्वारा इसका कल्याण कि इससे किसी दूसरे व्यक्तिको तो कष्ट होता ही नहीं है हो सके। और ऐसा अचूक गुरुमंत्र जिस एककी साधनासे है और स्वयं भी सुख-शांति प्राप्त करलेता है"। यही है सभी साधनायें सुलभ हो जाये अहिंसा ही है। "अहिंसा अहिंसाका सच्चा संदेश तथा हमारे भारतीय राजकुमारोंकी परमोधर्म: यतो धर्मस्ततो जयः"-अहिंसा ही परम धर्म इन्द्रियजयता और अहिंसक आदर्शवादिताका ज्वलन्त है और धर्मकी ही जय होती है। इसकी शक्ति महान है। प्रमाण । क्या अहिंसाका ऐसा भादर्शरूप और अनुकरणीय अहिंसाका अर्थ है पशुबलका द्वेषरहित विरोध तथा विध- उदाहरण हमें विश्व इतिहास में प्रत्यत्र भी प्रास हो प्रेम जहाँ बन्तूतलवारें, तो, मशीनगनें, बम, जहरीले सकेगा ? उपर्युकभहिंसक वीके उद्धरणोंसे "अहिंसा गैसें गया वारपीडों जैसे भयानक अस्त्र-शस्त्र भी हार मान वीरस्य भूषणम्" अर्थात अहिंसा पीरोंका धर्म है कायरोंका कर बैठ जाते हैं, वहां अहिंसाका सिद्धान्त ही अपना अक्षय नहीं यह स्पष्ट हो जाता है। अत: दूसरोंकी हत्या रत बमिट और बहुत प्रभाव दिखलाता है। यदि अहिंसाकी विश्व यदिअपनी वास्तविक वीरताका परिचय देना चाहता है, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -किरण ३] विश्वको अहिंसाका संदेश ११३ यदि यह सचमुच ही पीर पूजाका उपासक है, और-विश्वके सर्ववेदा न तत् कुयुः स यज्ञाश्च भारत । माधुनिक इतिहासके प्रात:स्मरणीय वीरोंमें अपना नाम मवे तोभिषकाश्च यत् कुर्यात् प्राणिनां दय ।। अंकित करनेका इच्छुक है, तो अपने ही दय स्थित अहिंसा लक्षणो धर्मो धर्मः प्राणिनां बधः। क्रोधादि बैरियोंके हमनमें अपनी वीरताका परिचय देना तस्माद् धर्मार्थभिलाकः कर्त्तव्या प्राणिनां दया । चाहिये । प्रात्मा ही परमात्मा है, जिसने अपने आपको अर्थात्-हे अर्जुन जो क्या फल देती है, वह फल जीत लिया, उसीने परमात्माको जीत लिया ! और जिसने चारों वेद भी नहीं देते, और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा परमात्माको जीत लिया फिर उसे अशांति कहाँ ? सब तीयोंके स्मान बंदन भी वह फल नहीं दे सकते हैं। यद्यपि अहिंसा जैनधर्मका प्राण है, पर विश्वका कोई अहिंसा ही धर्म है, और प्राणियोंका बध ही अधर्म है. इस ऐसा धर्म नहीं जिसने अहिंसाका विरोध किया हो। चाहे लिये धार्मिक पुरुषों को हमेशा धार्मिक सिदान्त दया पर वह हिन्दू धर्म हो, चाहे सलाम हो, चाहे बौख हो अथवा ही चलना चाहिये। क्रिश्चियन। उन भित्र-भिख मतानुयायियोंने अहिंसा जैसे । अहिंसाके सम्बन्धमें लोग नाना प्रकारकी शंकाये उठाते बस्नको पाकर उसके मालोकसे संसारको पालोकित किया है, कि अहिंसा संसारकी वस्तु नहीं, स्वर्गका मादर्श है, अथवा केवल धार्मिक ग्रन्थों पृष्ठोंको सुशोभित करने तक तथा जीवनके सब प्रसंगोंपर इसका उपयोग नहीं हो सकता ही उसे सीमित रक्खा या गुदादियों में छिपाकर उसकी स्वयं इस सबका कारण इसके बापक अर्थको ही नहीं समझना की प्राभाको भी विकृत करनेका असफल प्रयत्न किया, है। अहिंसाका अर्थ केवल हिसा हीन करना हो, तब तो यह दूसरी बात है, और इसके समुचित उत्तर देनेका पूर्ण उसे कायरताकी पोषक और सब अवसरों पर काममें न उत्तरदायित्व उन्हीं पर छोक, अपना रास्ता नापना अधिक पाने वाली वस्तु समझा जा सकता है। पर निश्चयरूपसे श्रेयस्कर दीखता है ! अहिंसाके सम्बन्धमें व्यासजीके वाक्य पशुबलका द्वेषरहित विरोध अहिंसाके सिद्धान्तका मुख्य स्मरण रखने योग्य हैं ! वे कहते हैं: अंग है। अहिंसा निषेधात्मक गुण नहीं है। यह मनुष्यों की अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य बचनद्वयम् । शक्तियों में सोंच है। वास्तवमें अहिंसक वृत्ति ही मनुष्य परोपकारः पुण्याय पापाय पर-पीड़नम ।। को पशुसे ऊपर उठाती है। अहिंसाका मूल प्रेम है। शत्रुके कषाय-पशुभिर्दुधर्मकामार्थनाशकैः। प्रति क्रोध न करना, केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, पर राममंत्रहतैयज्ञं विधेहि विहितं बुधः।। सच्चे हिंसकके हृदयमें तो उसके प्रति प्रेम और सनावका प्राणघातात्तु योधर्ममीहते मूढमानप्तः। संचार होना चाहिये। सच तो यह है कि विश्वके इस स वांछति सुधावृष्टि कृष्णाहि-मुखकोटरात् ।। संघर्ष के बीच प्रेम ही वह तत्व, जो इसको टिकाये हुये अर्थात् अठारह पुराणों में अनेक बातें रहते हुए भी है। क्योंकि 'Love is god and god is love दो ही हैं, पहिली यह है कि दया यानी अहिंसारूपी अर्थात् प्रेम परमात्माका रूप है और परमात्मा प्रेमरूप है। परोपकार होनेसे पुण्य होता है। और हिंसा अर्थात दूसरों भतः ऐसी अहिंसा कायरताकी कनक खोजना था उसे को कष्ट पहुंचानेसे पाप होता है। इसलिये क्रोध, मान, निष्कर्म और स्वप्नलोकका भादर्श बतलाना यह हमारे माया, लोभ आदि कषायरूप दुष्ट पशुओंको, जो धर्म, दिमागोंका ही परिणाम है। आजकल हर एक प्रकारकी अर्थ, काम और मोषको नष्ट करने वाले है. शमरूप मंत्रसे नैतिकताकी खिल्ली उखाना एक फैशन हो गया है। पर मारकर पंरिसेि किये हुए यज्ञको करो। जो प्राणियोंकी यदि समानताकी रष्टिसे देखा जाय, तो भाजकक्षके वाताहिंसासे धर्मकी इच्छा करता है, वह श्याम वर्ष सर्पके मुंह बरयाम मानवजातिके निस्तारका यदि कोई साधन है, तो से मस्तकी बुष्टि चाहता है। वहन हिंसा। महाभारत शान्तिपर्व प्रथम चरबमें मी भर्जुनको विश्वकी वर्तमान विभूति महात्मा गांधीने जो सबसे समझाते हुए कहा बली पात की और जिसने मात्र संसारके समी विचारकों Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनेकान्त [वर्ष का ध्यान भाकर्षित किया है. वह सार्वजनिक क्षेत्रमें होता प्रभाकर पूर्व से ही, उदित पत्रिमसे नहीं." अहिंसा और मत्य सिद्धान्तोंका प्रयोग। उन्होंने अपने विश्व माज हुस्खी है, अर्थात है. पंगु है, पथ भ्रष्ट है, जीवन के प्रत्येकणसे, अपने प्रत्येक कार्य और उपदेशसे अंधकारमें है, शक्तिका प्रयोग करते हुए भी शक्ति विहीन यह साबित करनेका सतत प्रयत्न किया है कि भर्हिसा है। अत: प्यारे भाइयो!अब यही हो वह समय है जब फेवन मन्दिर या घरके किसी कोने में बैठकर ध्यान करनेकी कि हमें महिमाके मंडेके नीचे मामाना चाहिये और चीज नहीं है, पर जीवनके प्रत्येक आया में उपयोगमें लेने अपने अहिमाके अक्षय चालोकमे हिंसाकै अन्धकारको नष्ट की है। वे स्वयं कहते हैं कि जो बात मैं करना चाहगाह कर विश्वको अहिंसक बनाकर शान्तिका पाठ पढ़ाना चाहिये जो करके मरना चाहता है, वह यह है कि अहिंसा और जो अहिंसक है षही जितेन्द्री है, और जितेन्द्रियता ही सत्यको संगठित करूं. अगर वह अहिंसा और सत्य सब बीरधर्म और वीरपशु है। जब इस प्रकार से समस्त विश्व स्थानों के लिये उपरकनहीं है.हो वह भूठ है। याद रहे और खि माहिसा मठवादी सन्यासियोंके लिये ही नहीं है, अदालतों द्वेष, चैमनस्य, बैर, विरोध और कलह कही। इस प्रकार से चारासमात्रा और अन्य व्यवहारोंमें भी यह सनातन समस्त विश्वकै अहियकवादको अपनाने पर, फिर चामिक सिद्धान्त लागू होता है। विभिनता जैसी कोई वस्तु ही नहीं रह जाती। जब धामिक पात्रात्य बिनु स्वाय दीनबन्धु एक्जका भी यही विभिन्नता ही नहीं तो जिन बातोंका.स्वपना हम ऋषि मते है कि यदि पाश्चात्य देश सुख और शान्तिका अनुभव प्रणीत ग्रन्थों में देखा करते है, और एकाएक जिनकी करना चाहते है, तो उन्हें अहिंसक ही संदेश विश्वको सत्यता पर विश्वास भी नहीं करते, वही भादशवादिताका देना पड़ेगा। उनके शब्द है जब तक यूरोप और अमरिका समय हम स्वयं निर्माण कर सकेंगे। और इस प्रकारका सर्व प्राणी समभावके सिद्धान्तको समझ कर जीवनके निर्माण होजाने पर विश्व शान्ति सीवर में स्वयं ही गोते मासिक पादर्शको स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक पश्चिममें लगाने लगेगा। पर शान्ति स्थापन हेनु, विश्वको साके उत्सव हुए जास्याभिमान और साम्राज्यवाद जो युद्ध और जिस सन्देशको देना चाहते है, वह केवल कागजको रंग संहारके दो मुख्य कारण है, और जिनके कारण ही सारी कर, अथवा केवल विद्वत्तापूर्ण भाषणों द्वारा ही विश्वव्यापी मानव जाति अकथनीय वेदना पारही है. नष्ट नहीं होंगे।" नहीं बन सकेगा। इसको विश्वव्यापी बनानेके लिये प्रत्येक अहिंसाका उपयोग ही शांति और कल्याणका देने परिवारको अपना एक एक होनहार बालक 'अहिंसक बीत' वाला है। अहिंसाके सम्बन्धमें कुतर्क करना सुमतिका की सैनामें भरती करना होगा। सैनिकोंका वर्तव्य होगा नाशक है, शांतिमें बाधक है, विश्वासको हिला देने वाला कि स्थान-स्थान पर होने वाली हिंसाको बन्द करावें। भभिमानको बढ़ाता है, और इस प्रकार कुनर्क हमारी अपने नम्र पर हृदयग्राही उपदेशों द्वारा लोगोंको हिंसक भारमाका भयानक शत्र है। अतः प्रत्येक दैनिक स्मरणमें वृत्तिसे ग्लानि उत्पा करावें । अहिंसा विषयक लेख उसे कार्यान्वित करे, और महिमाके संदेशको विश्वव्यापी प्रतियोगितामाको जन्म दें। जो हिंसक वृत्तिके घृणित बनामेका सतत प्रयत्न करे। हमें गर्व होना चाहिये, कि हमें व्यवहारसे ऊबकर नव दीक्षित अहिंसक बने, और अहिंसा भी उमी वसुन्धरा पर जन्म धारण करनेका सौभाग्य प्राप्त सन्देशको अन्य पथ प्रान्त लोगों तक पहुंचाने में सहयोग हुपा है, जिसमें जन्म धारण कर भगवान महावीर और है, उसे प्रोत्साहन दें। उसका उदाहरण कन्य लोगोंके हुर ने अपने अहिंसावाद और विश्वप्रेमके नाद द्वारा स्वर्गीय सामने पसे, अथवा उसे किसी अन्य प्रकारसे सम्मानित भादर्श स्थापित किया था। भाज भी हमारा बही बह करें। जिन महान विभूतियोंने, अथवा भाचार्योंने अहिंसा पुराना भारत है, और प्रकृति प्राज भी हमें पूर्ण सहयोग के सिद्धान्तको विश्वम्यारी बनाने के लिये भारम समर्पण कर रही।योंकि: दिया था, अपने परिवार तथा संसार सुखको त्याग दिया 'इस बात की साली प्रकृति भी चमी सकसकही। था, और जो कर रहे हैं, अथवा भविष्यमें करें उनका Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] मानवताके पुजारी हिन्दी कवि ११५ स्मरण करें । उनको पवित्र जन्म तिथि, कर्म तिथि तथा कुछ नहीं बिगाद सकती, और निकट भविष्यमें सम्भावित स्वर्गमन तिथि पर उनके यशको गाकर उनके गुणों और भावी भारतीय युद्ध के समय भी हम केवल अहिंसा रूसी त्यागकी प्रशंसा करें, तथा उन्हें महामन्त्र समझकर अपनावें तलवार और प्रेम रूपी दालके अवलम्बन पर उमी सुख और इन्हींगे हम अपने गष्ट्रीय, धार्मिक तथा सामाजिक शांतिका रसास्वादन कर सकते हैं. जिसे विपके कोने-कोने में प्यौहार समम । यदि हम 'विश्वको अहिंसाका सन्देश' इस पहुंचा देनेकी हमारी उत्कट इच्छा है। रूप में पहुंचा सकेंगे, तो संसारकी कोई भी शक्ति हमारा मानवताके पुजारी हिन्दी कवि (श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') 'अनेकान' के अगस्त-अंकमें एक लेख छग है- 'अंनल' इसी विद्रोहके कांव हैं। उनकी 'अपग जना' में 'हिन्दीके जैन-कवि' । लेख ३ पृष्ठोंका है, पर ३ वाक्य जी विरह, बेचनी. क्रन्दन और प्रेम है, वह क्या व एक उद्धत करने से उसका सार मामने श्रा जायेगा। प्रेमिका के प्रति एक निगश प्रेमीका ही हाहाकार है हमारे १-" च में आज हिन्दी-साहित्यके भीतर शब्द-क्षेत्रमें समाजने अपनी जर्जरनाके युगम, मानवकी स्वतन्त्रताका कतिग्य कविठोंको छोड़कर अश्लीलता अं.र थरहरणकर, मानव और मानव के बीच जो नियमोंकी दीवार गुण्डत्वकी भरमार होरही है।" खड़ी करदी है, क्या उसकट टागनेकी प्रतिध्यानसमें .-"जब हिन्दी साहित्यमें उच्च माने जाने वाले नहीं है? फिर श्राज 'अंचल' अपगाजाका नहीं, किरण कविगण पाशविकताका प्रचार करने में तल्लीन वेलाका' कवि है, जहां वह ललकारता हैहैं, ता जैन कविगण देवत्वकी महत्ताको भूल "संघोंकी लहरापर तिर तरा अगार तरा चलता, नहीं गये हैं।" असफल विद्राहों के सिरपर, तेरी नूनन ज्वाला जलती, ३-"आज हिंदी माहित्य में...............गीत............. इस प्रेमकला संमृतिका क्षयहो,जयहो युगकी माँगड़ी, साहित्यको कलंकित कर रहे हैं, परन्तु वे जैन होयहसमाजचिथड़ेचिथड़े,शोषणपजिसकी नींवपड़ी" कवि ही हैं, जिनकी आध्यात्मिक गंगा निरंतर 'अंचल' की अपराजिता श्राज प्यारके चोचले नहीं प्रगहन ही है।" रखती। अाज तो वह एक नये ही रंगमें - . इन 'गुए इत्व' फैलानेवालोंमें लेम्बकने श्री अंचलका ____ "भर खाई हो तप्त कठिन अंगोमें तूफानोंका पासव, कई बार उल्लेख किया है। मच यह है कि लेखक समान माज तुम्हें क्या विश्व बदलना, भाज तुम्हें क्याकठिन प्रसंभवा और साहित्यकी विचारधाराश्रोमे अपरिचित है। उसे पता माज तुम्हारी रणभेरीमें घर घरसे निकखें अंगारे, नहीं है कि हिन्दीके कवि गन थोड़से दिनों में कहाँसे कहाँ माज बंधे ज्वालागिरि खुलते इंगितपर सुन्दरी! तुम्हारे !" प्रागये हैं और आज रीतिकालीन शन्दोके व्यायामसे दूर अाजके दुखी संमारकी उपेक्षापर स्वप्नों के महल खड़े एवं निर्जीव देवत्व के स्तुनिगानासे ऊपर; मुक्त मानवताकी करनेवालोको उसने कैसी फटकार बनाई हैपुण्य पताका वे अपने सुदृढ़ हायोंमें थामे हुए हैं। "पान किस अन्तर्मुखी गतिहीनता बद्ध कविगण ! हमाग समाज श्राज बिद्रोहका केन्द्र बनना जारहारे या कुरेवा ही करेंगे सोशळे अपने समय। और कवि उमका प्रतिनिधित्व सम्भालने में लग चुके है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनेकान्त [वर्ष ६ x पाहता मैं अस्तके विश्वासकी नी हिलाकर, अभी मुन्दी है मेरी मांखें. पर मैं सूर्य देखभाया है, सोलना उनकी अगतिमूलक कलापोल जर्जर !" माज पड़ी है कडिया पर मैं, कभी भुवनभरमै छाया हूँ। इस युगके कवियांने श्राज अपनी वीणामें जो नये स्वर उस अबाध चातुरता को कपि, तुम फिर व जगादो!" भरे हैं, वे मल्हारके नहीं भैरवके है 'अन्धकारमें श्रालोक' फैलानेवाला यह अाजका कवि “गा एक बार, हा एक बार " बड़ा सूक्ष्मदर्शी है । वैज्ञानिकताकी तेज रोशनीमें यह समय 'अनुभूतिगीत' के गायक भावुक कवि श्री हर्षितके इस के बढ़ते प्रगाहकी छानबीन करता है। समाज के दकियागीत में जैसे श्राजके समस्त काव्यको प्रात्मा चीत्कारकर उठी:- नूसी विधान, धर्मशास्त्रकी पालिश और परम्परा किसीमें यह "वह गीत सखे, सुनकर जिसको पाषाण कर चीत्कार! नहीं उलझता । गरीबको देखकर, उनके लिये यह दयाकी पुकार नहीं करता, उनकी गरीबी के मूलकारणों की यह खोज विधिकृत विधान मौ' पुण्य-पाप, निकालता है और समाजके शोषकोंको श्री हरिकृष्ण प्रेमीके यह दानव-जीला, शक्ति सकला, शब्दोंमें ललकारकर कहता हैमायाका चलता चक्र विषम, "तुम हंसते हो, इठलाते हो, लव-उदय, पार हो जाये जल, टुकडे देकर मुसकाते हो, टूट्टी बीणामें वह स्वर भर, हिल उडे विश्वका चित्रकार !" तुम उपकारी कहलाते हो, 'मायाके इस विषमचक्र' के विरुद्ध श्राज संसारमें जो देकर हमें, हमारा ही लूटा धन ! भयंकर युद्ध होरहा है, वह क्षुद्र है, वास्तविक युद्ध नो थे घायल दिल महाप्रलयके वाहन !!" हमारे मन में होरहा है, जिसके लिये कवि सर्वदानन्द वर्माक श्री भगवतीचरण वर्मा हिन्दी कवियों में इन 'घायल शब्दों में हमारा अणु अणु पुकार रहा है विजोंके बहुत बड़े वकील है। उनका 'मानव' पढ़नेकी "फिरसे महलों में भाज पुराने जौहरकी ज्वाला जागे, चीज है, सुननेकी चीज़ है, सुमानेकी चीज़ है। फिरसे रख-थलमें जानेको, सुत मासे वर भिक्षा मांगे, यह तो हुश्रा हिन्दी कवियोकी वर्तमान प्रवृत्तिका एक फिरसे वधुएं निज पतियोंके शिरपर करदें मचत-रोली, चित्र, अब देखें उस लेखका दूसरा अंश-हिन्दीके जैन चिरसे घर से निकल पर, मरमिटने वाखोकी रोली" कवियोंका कार्य ! साहित्यमें जैन अजैनकी दीवारें खड़ी कर और इस टोलीमें कैसे कैसे वार है, इसका पता ताण्डव के देखना, अनुचित है, पर जब यह सामने आ गया, तो के गायक कवि 'दिनकर' से पूछिये मुझे उसपर कुछ कहना है। जैन कवियोंकी जो कविताएँ उस "शिर देकर सौदा लेते हैं, जिन्हें प्रेमका रंग चदा लेखमें उद्धृत की गई है, उनकी कलात्मक असाधारणता फीका रंग रहा, तो घर तक्या गैरिक परिधान करे ! मैं नहीं मानता-यों आप किसीको भी कालिदाससे श्रेष्ठ उस पदकी जंजीर गूंजती,होनीरव सुनसाम जहां, और शेक्सपीयरसे आगे कह सकते हैं, आपको कोई सुमना हो, तो तज वसन्त, निजको पहले वीराम करे !" रोकेगा नहीं। अपने 'वसन्त' को स्वयं वीरान करनेवाले ये लोग साहित्यके इस नवजागरण काल में जैन समाजने एक अन्धेरी अमावसमें आलोक फैलानेका श्रेय लूटते है। कवि __ भी ऐसा कवि उत्पन्न नहीं किया, जो भारत के प्रतिनिधि'अज्ञेय' ने जैसे सारे राष्ट्रकी आत्मामें बैठकर स्वयं अपनेसे कवियोंमें स्थान पा सके ! क्यों ? यह जैन अजैनका प्रश्न ही कहा है नहीं, भारतीय समाजशास्त्रका एक गम्भीर प्रश्न है। मैं इस "एक पारस अन्धकारमें फिर पाखोक दिखादी! पर विस्तारसे दूसरे लेखमें लिखूगा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म पर अजैन विद्वान् प्रसिद्ध जर्मन लेखिका भारतीय साहित्य विशारदा जैन महात्माोंने संयम और शासनका सामअस्य प्रकट डा० चारलोटी क्रौज़ Ph. D. किया। यही कारण है. कि तत्कालीन राज सत्तावादका "जैनधर्म भारतवर्ष प्रति प्राचीन धर्मोंसे एक. विध्वंस होते ही बौद्धोंका विनाश हो गया और जैन समाज जोकि बौद्ध धर्मसे भी प्राचीन है और प्रायः वर्तमान एक राष्ट्रकी हैसियतसे बच गया। अभिप्रायके अनुसार अति प्राचीन हिन्दू शाससे भी पूर्व श्री उपेन्द्रनाथ काव्य-व्याकरण-साँस्यतीर्थ,भिषगाचार्य:अवस्थितिका है। इस धर्मने एक समय भारतीय धर्मा पर श्रीमद्भागवतकी वर्शनाको देखकर मेग विश्वास है कि बड़ा प्रभाव डाला था।" त्रिय वंशजनामि राजाके पुत्र श्रीमान् चषभदेष जी राज्य हिन्दीके प्रसिद्ध लेखक आचार्य श्रीचतुरसेनजी शास्त्री कीवालमाको छोर सर्व भूतोंको समान देखने वाले मैं यह स्वीकार करता है कि जैन सिद्धान्तों में समाज सन्यासी बन गये थे। उन्होंने स्वयं सिद्ध होकर निवृत्ति संगठनकी अपेक्षा पाम संस्कार और भारम निर्माण पर प्रधान धर्मका उपदेश दिया, समरक अर्थात् सबको समान ही बना भारी और वैज्ञानिक जोर दिया गया है। निस्सन्देह देखने वाले ऋषिके पास जाति भेदका प्रश्न ही नहीं उड इस एकाली पातके कारण ही जैन समाजकी वृद्धि में तूफानी सकता है, इससे मालूम होता है कि उस समयमें जो लोग पाद नहीं भाई, जैसी कि बौख समाजमें पाई थी। और उनके उपदेशसे निवृत्ति प्रधान धर्मको स्वीकार कर लिये थे मह कहना तो व्यर्थ ही कि बौगोको राज्य सत्तार्य के लोग और उनके वंशधर जैनी कहलाने लगे. इसके बाद प्राप्त हो गई थीं-क्योंकि जैन महाराजाभोंकी कथासे भी जैनाचार्योंके उपदेशसे सर्वदाही अजैनी जैन बनते रहे। मसीहकी प्रथम शताब्दियोंका भारतका इतिहास भरा पक्षा प्रो०श्रीशिवपूजनसहायजी अध्यक्ष हिन्दी विभाग है। परन्तु मैं इस भाबर्यजनक बात पर तो विचार श्री राजेन्द्र कालेज छपरा (विहार):करूंगा ही कि लगभग समान कालमें, समान भावनासे मैं नि:संकोच कह सकता है कि जैन धर्मके सिद्धान्त उदय होकर बौद्ध और जैन संस्कृतियाँ उठी, बौद्ध संस्कृति तूफानकी तरह एशिया भरमें फैलकर अति शीघ्र समास बडे निर्मल और कल्याणकारी हैं। यह भारतका एक हो गई, जैन संस्कृति धीमी चाबसे अभी तक भी चली अत्यन्त प्राचीन एवं जगप्रसिद्ध धर्म है। मनुष्यकी चन्त: शुद्धिके विधानमें यह विशेष सहयर है। यदि इसके सम्यक पा रही है। चारित्रिक उपदेशों या माध्यामिक शिक्षाओं पर मानव दोनों संस्कृतियाँमात्म संस्कारको प्रधान मानती रही, जाति वस्तुतः ध्यान दे तो संसारमें अशान्ति ही न रहे। परन्तुभावश्यकता पड़ने पर जैन और बौख दोनों ही महाराजाभोंने प्रबल युद्ध किये जिनमें बचावधि प्राशियोंका श्री रामरत्नजी गुप्त एम० एल० ए० (केन्द्रीय)हनन हुमा । परन्तु जिस प्रकार महान् प्रशान्त प्रेम जैनधर्म वास्तवमें एक कर्तव्य प्रणाली है। वह मनुष्यको और माके प्राचार्य मसीहके विधासी योरुपकी महा मनुष्य बननेकी शिक्षा पहिले देता है और इसी शिक्षा साथ शक्तियां लोकी भार बहाने में प्रति पण सञ्चद रहती है ही वह यह भी निर्देश करता है कि यह मनुष्य शरीर मी एक फिर भी वे उस पवित्र और दया-धमा पूर्व ईसाई धर्मकी मार है। एक संमट है। इसे बोर देना. इसे त्याग देना विश्वासी है, उसी प्रकार जैन और बौद्ध राजाओंकी वही तथा इसके सम्बन्धमें समूचा परित्याग कर देना ही वास्तपरिस्थिति थी। तब बौद्धक विनाशका कारण एकहीही विक धर्म है। इस महापन्थका मुख्य तत्व पांच 'मूलगुणों सकता है, कि उन्होंने न्याय और अधिकारकीराके लिये में सचिहिव । इन मूब गुफाम पंचम गुण नही, प्रत्युत विप्यासे मानव रक्तबहाया। इसके विपद 'अपरिग्रह। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनेकान्त [वर्ष ६ परम्पराको श्री अवनीन्द्रकुमारजी विगालंकार नई दिल्ली- धर्मः" कुछ इन्हीं पाक बुजुकी जिन्दगीमें अमली सूरत भारतीय सभ्यता और संस्कृति जिन महाविभूतियोंके अख्तियार करती हुई नज़र पाती है। ये दुनियाके कबरकारण गौरवशालिनी और महिमा मरिaastt. उनमें दस्त रिफार्मर मोहसिन और बड़े ऊँचे दरजेके वाइज और भगवान् महावीरका स्थान अद्वितीय है। भारतीय समाज प्रचारक गुजरे हैं. यह हमारी.कौमी तवारीखके कीमती का स्वरूप और ढांचा बदलने के लिये, प्राचीन रूढ़ियों रत्न है। तुम कहां और किनमें धर्मात्मा प्राणियोंकी परम्पराओंके विरुद्ध जिन लोगोंने अपना सारा जीवन तलाश करते हो? इनको देखो. इनसे बेहतर साहब कमाल उत्सर्ग कर दिया और अपनी जोरदार पावाज उठाकर एवं तुमको कहाँ मिलेंगे? इनमें त्याग था. इनमें वैराग्य था, जिन्ने विधि-विधान कर्मकाण्ड प्रधान धर्म विरुदु क्रांति इनमें धर्मका कमाल था ये इन्पाली कमजोरीसे बहुत चे की पुण्य पताका फहराई है। उनमें भगवान महावीरका थे, इनका खिताब 'जिन' है. जिन्होंने मोह मायाको और स्थान अनुपम और प्रमुख है। मन और कायाको जीर लिया था। ये तीर्थकर हैं,ये परम हंस है. इनमें तमना नहीं थी। बनावट नहीं थी, जो बात श्रीयुत महात्मा शिवकृतलालजी बर्मन M.A - थी साफ-साफ थी। तुम कहते हो ये नन्न रहते थे, इसमें जो जैसा हो उसको वैसा ही देखो। यह अहिंसाकी ऐब क्या है? परम अन्तनिष्ठ, परमज्ञानी, कुदरतके सचे परम ज्योति वाली मूर्तियां वेदों। अति "अहिंसा परमो पुत्र, इनको पोशिशकी जरूरत कब थी? RSSDGR52625 1 धार्मिक पुस्तकोंके मिलनेका अभाव होते जानेपर भी २ ) M) (१)भवष्यदत्तसेट १०॥2)का)। (२)चन्दन वालासेट ६)का )। (३)मत्यमार्ग सेट ८-)|का ६) सुरसुन्दरी नाटक मनी चन्दनबला सत्यमार्ग नवीनजिनवाणी संग्रह माघषनाटक जिनवाणं संग्रह भविष्यदत्तचरित्र रत्नमाला H) रस्नकरंडश्रावकाचार व धन्यकुमारचरित्र अंजन सुन्दरीनाटक !) द्रव्यसंग्रह पयूषण पर्व ब्रतकथा समन्तभद्रचरित्र नित्यनियमपूजा भाषा ऋषभदेकी उ. भादौं जेनपूजा सूत्रभक्तामर १० पु. जैनधर्मसिद्धान्त किशन-भजनावली २ मिनबाण गुटके विशाल जनसंघ चांदन गांच-कीर्तन हितैषी गायन श्रात्मकमनोविज्ञान बारहमासा श्रनम्नमती जैनभजनसंग्रह अतिशयजनपूजा दीपमालिकापूजन श्रनन्तमनी-चरित्र चाराचत्र हस्तिनागपुर-माहात्म्य रत्नकरएडश्रावकाचार राबबनकथा बड़ी सम्मेदशिम्वरपूजा बड़ी सहस्रनाम भाषाटीका विनती विनोद D4 श्री वीर जैन पुस्तकालय, १०८ बी नई मंसी मुजफ्फरनगर ( यू०पी०) नोट-नं. १ सेट दम काये ग्यारह पानेका पाठ कायेमें । नं. २ सेट सवाछह रुपपेका पौने पांच रुपयेमें । नं. ३ सेट अोठ रुपये साढ़े पांच पानेका सवा छह रुपयेमें । Uow: TUBE EVERESTEES एएए र र واقعهقصفحه: وحوحهقتهیه Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थापकीय निवेदन मेरे जैसे तुच्छ व्यक्तिकी प्रार्थना पर ध्यान देकर जैनपमाजके महानुभवोंने अपनी गोरसे अजैन संस्थाओं और विद्वानों की अनेकान्त मुफ्त भिजवाने का आदेश दिया है, उनके शुभ नाम और किन-किनकी ओर से कहाँ कहाँ जाता है प्रकाशित किये जा रहे हैं। अभी समाजके अन्य दानी महानुभावोसे भी पत्र व्यवहार हो रहा है भागामी किरण में उनके नाम और कहाँ कहाँ जायेगा यह भी प्रकाशित किये जायेंगे। अभी हमारे पास की ऐसे महत्वपूर्ण स्थान है जहॉ भनेकान्त फ्री भिजवाने की प्रयन्त आवश्यकता है वहाँ पहुंचनेसे धर्मका अच्छा प्रचार होगा और हमारे धर्मके सम्बन्ध फैनी हई गलत धारणायें दूर होगी : माशा है समाजके दानी महानुभाव धर्म प्रचार के इस पुण्यकार्यमें हमारी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देंगे। 1४) रु. में वर्ष भरके लिये चार स्थानों पर मुफ्त मेजा जा सकता है। -कांशलप्रसाद जैन १ मैसर्स फेहनल चतरसेन जी सरचनाकी ओरसे- -हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहाबाद १-लायबेरियन हिन्दू विश्व विद्यालय बनारस ५-मैनेजर 'नागरी प्रचारिणी सभा', बनारस २-श्री दि. जैन मन्दिर पो. टीकरी (मेरठ यू०पी०) ६-लायबेरियन 'विक्टोरिया कालेज' ग्वालियर ३-धी जैन अनाथाश्रम दरियागंज, देहली ७-जायब्रेरियन 'कलकत्ता यू नेवरिटी' कलकत्ता ४-प्रो. गुलाबगयजी एम. ए. सम्पादक 'साहित्य-सन्देश' ७ ला०प्रद्युम्नकुमार जी रईस सहारनपुर वालों की प्रागरा ओर स - . ५-डा. रामकुमार जी वर्मा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी -लायबेरियन 'किंग एवई कालेज' अमरावती इलाहाबाद २-लायबेरियन 'मोन्टियल कालेज' लाहौर २ श्री जमनालाल जी वर्धा वालोंकी ओरसे ३-बायरियन 'शान्ति निकेतम' बोलपुर (बंगाल) १-दी कामर्स कालेज वर्धा सी. पी. ५-लायबेरियन 'ज्वाखापुर महाविद्यालय' ज्वालापुर ३ सिंघई श्रीनन्दलालजी बीनाकी ओरसे-- (सहारनपुर) १-सेक्रेटरी वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद टीकमगढ़ सी-माई -लायबेरियन थामसन इंजनीयरिंग कालेज' रुड़की २-मो. बल्देव जी उपाध्याय एम. ए. हिन्दू विश्व- (सहारनपुर) विद्यालय, बनारस ६-लायबेरियन 'रामजस कालेज' वेहली ४ ला०जिनेश्वरदासजी सर्गफ देहरादून की ओरसे- ८ मैसर्स उग्रसेन वंशीलाल जी जैन नई मण्डी 1-खुशीराम पन्तिक लायरी, देहरादून मुजज्फरनगर की ओर से२-मैनेजर सार्वजनिक पुस्तकालय, बंदी (कोटा) १-श्रीसनातनधर्म इन्टरमीजियट कालेज, मुजफ्फरनगर ५ चौधरी चमनलालजी देहरादून की ओरसे है घायु रघुबरदयालजी करौलबाग देहलीकी ओरसे१-मैनेजर पब्जिक लायी जुबलीबाग, सहारनपुर -सेक्रेटरी 'भंडारकर चोरिन्टयस रिसर्च इन्सटीट्यूट २-मैनेजर काशीगम हाई स्कूल, सहारनपुर पूना नं. २ ६ लारूड़ामलजी शामियानेवाले सहारनपुरकीओरसे. २-श्री जमुनादास की मेहता ML. A. बानगंगा, -बौद्ध विहार लायरी, सारनाथ (बनारस) मालाबार हिल, बम्बई .. -अषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, हरिद्वार (सहारनपुर) १० बाबू मंगलकिरण जी सहारनपुर की ओर से-बाबू माताप्रसादजी 'गुस' प्रो. प्रयाग यूनिवर्सिटी, -श्रीकार. एन. चतुर्वेदी डिप्टी कमक्टर, बुलन्दशहर २-श्री ठाकुर ज्वालासिंहजी डिप्टी कलपटर, सहारनपुर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [बर्ष ६ १-यूनिवर्सिटी कालेज माफ बला. नागपुर सी. पी. को ओर से५-बायरियन 'लखनड यूनिवसिटी' लखनऊ .-'इन्दौर जनरल लायोरी' इन्दौर ११ बाबू बिमलप्रसादजी सदरबाजार देहलीकी ओरसे- २-सरदार माधवराव कीचे एम.ए. एलएल.बी. और -लायबेरियन 'बिहार एण्ड उडीसा रिसर्च इन्सटीव्यर्ट श्रीमती सौ. कमलाबाई कीवे संयोगितागंज, इन्दौर पटना (बिहार) ३-५०रामनारायणजी भायुर्वेदाचार्य, मल्हारगंज, इन्दौर २-सेकेटरी भरचेकोजोजीकल डिपार्टमेंट मैसूर मात ४-मंत्री 'महेश वाचनालय' बवासराफा, इन्दौर बैंगलोर (मैसूर) ५-मंत्री 'मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर ३-लायबेरियन मारवादीपुस्तकालयबदाबाजार कलकत्ता ६-मंत्री 'सार्वजनिक वाचनालय' गोराकुण्ड, इन्दौर ५२ ला० अर्हदास जी सहारनपुर की ओर से --मंत्री सार्वजनिक पुस्तकालय' मोरसलीगली, इन्दौर १-मैनेजर 'काशी विद्यापीठ' बनारस . '-श्रीचन्द्रशेखरशास्त्री प्रिंसिपल संस्कृत महाविद्याय, इंदौर २-बायबेरियन वैश्य हाई स्कूल' रोहतक (पंजाब) १-श्री सिक्ख लायब्रेरी गुरुद्वारा, न्यूयशवन्त रोष, इन्दौर ३-लायबेरियन 'गयाप्रसाद पग्जिक लायरी' ए.बी. १.-महावीर वाचनालय पो. सोनका (उजोन) । रोक, कानपुर "-महावीर वाचनालय पो.हाट पिपलिया बाया इन्दौर ४-लायबेरियन 'इन्टर मीजियट कालेज' खुर्जा १७ ला० तनसुखरायजी जैन तिस्सा वालोंकी ओरसे-- १३ श्रीमेघराज रोडमल धारदान फण्ड सुसारी(बड़वानी) १-मंत्री सत्तर्क दि. जैन विद्यालय मोरा जी बिल्डिग, की ओर से सागर सी.पी. -मंत्री 'श्री रणजीत पग्निक वाचनालय' बडवानीcI. २-सुप्रिन्टेन्डेन्ट 'स्याबाद महाविद्यालय' भदैनीघाट बनारस २-मंत्री श्री पब्लिक वाचनालय' अंजब (बड़वानी) ३-मैनेजर 'ऐलक पनालाल जैन सरस्वती भवन, ग्यावर ३-मंत्री श्री पब्लिक वाचनालय' मनावर (धार स्टेट) (राजपूताना) ५-मंत्री श्री पब्लिक वाचनालय' धार C. I. १८लाउदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर की ओरसे१४ जैन संगठन सभा पहाड़ीधीरज देहली की मार्फत- -जिष्टार संस्कृत विन्स कालेज, बनारस 1-बायरियन 'क्रिशियन कालेज' लाहौर २-अधिष्ठाता गुरुकुल कांगडी' हरिद्वार (सहारनपुर) २-श्री महात्मा मोहनदास कर्मचन्द जी गांधी, गांधी -लायबरियन श्री दि. जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ) भाश्रम, सेवाग्राम (वर्धा) सी. पी. ४-मंत्री श्री दि ममिरिन स्कूल, खतौली (मुजफ्फरनगर) १५ सेठ राजमल जी भेलसा वालों की ओर से- १६ रा०प० नान्दमलजी अजमेर की ओर से-मैनेजर सार्वजनिक वाचनालय' भेलसा १-मंत्री राजाराम लायनेरी' नागपुर सी० पी० २-शायरियन 'गायकवादोरियण्टल लायब्रेरी बड़ौदा २-लायबेरियन 'गवर्नमेंट हाई स्कूल' सागर सी. पी. ३-लायबेरियन 'बम्बई यूनिवर्सिटी' बम्बई -बायोरियन राजाराम काखेज' कोषहापुर -सायोरियन 'मद्रास यूनिवर्सिटी' मद्रास -श्री बाबूजी महाराज, दयालबाा भागरा यू.पी. ५-लायबेरियन 'वाडिया कालेज' पूना २०रा० सा० बा० श्यामलाल जी एक्जीक्यूटिव -बायोरियन 'महाराणा कालेज उदयपुर आफिसर सड़की की भोर से--बायोरियन 'गुजरात पुरातत्व विद्यामन्दिर' महमदाबाद -आर्य समाज रुबकी -बायबेरियम 'हर्वर्ट कालेज' कोटा स्टेट नोट-जनके बाद जिन सज्जनोंकी भोरसे 'भनेकान्त' फ्री -बायनेरियन पंजाब यूनिवर्सिटी बाहौर भेजा जा रहा है उनके शुभ नाम भागामी किनव १. सेक्रेटरी 'मारवादी रिखीफ सोसाइटी कलकत्ता में प्रकाशित किये जायेंगे। • १६ मशीर बहादुर सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इन्दौर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे वर्ष में अनेकान्तके और सहायक गत दो किरणोंमें प्रकाशित सहायता के बाद जो और सहायता नकद तथा वचनरूप में प्राप्त हुई हैं और जिनके जिये सहायक महाशय धन्यवादके पात्र हैं उसकी सूची सहायकोंके शुभ नाम सहित इस प्रकार है ५) सेठ वंशीधरजी जैन सतना ( नई दुकान खोलने की खुशी ) । २) सेठ श्रीपाल हीरालालजी जैन काला कनौज ( माता जीके स्वर्गवासके उपलक्ष्य में) । २) सेठ नेमीचंदजी बी० सेठी (झालरापाटनवाले) मऊ । १७) पेठ गुलाबचंदजी टोंग्या, इन्दौर (पहलेकी २५ रु० ) की सहायताके अतिरिक्त) * ८) सिंघई नन्दनलालजी मालगुजार बीना-इटावा (सागर) ४) पेठ कोमलचंदजी जैन सतना (रीवां)* १४) ला०] मिरसेनजी जैन (रि० मुनसरिम मुजफ्फरनगर)* (१४) गयबहादुर नान्दमलजी जैन अजमेर 1* १४) चौ० संतूलाल हुकमचंदजी जैन, कटनी | १४) बा० जुगलकिशोरजी जैन कागजी देहली ।* १४) ला० सुलतानसिंहजी जौहरी, देहली 1 १४) ला० पी० एल० बच्चूमलजी कागजी, देहली 1* २१) बा० महेन्द्रकुमारजी जैन रईस नानौता सहारनपुर ।* २१) श्री भँवरलालजी छावड़ा (मेसर्स भँवरलालटीकमचंद ) भेलसा 1 २५) बा० महावीरप्रसादजी जैन, महावीर स्वदेशी भण्डार, सरधना (मेरठ) | ( पहली २१) रु० की सहायताके अतिरिक्त) * नोट- जिनके आगे * यह चिन्ह लगा है उनकी ओरसे अनेकान्त श्रजैनादि संस्थाओं तथा खास खास विद्वानों की जारहा है । १४) रु० की सहायतामें चारको फ्री भिजवाया जा सकता है । व्यवस्थापक भूलसुधार पिछली किरण के तृतीय टाइटिल पेजपर ला० दलीपसिंहजी कागजी की ओरसे जो ३५) रु० की सहायता वपी है उसे पाठक १४) रु० समझे । उसमें कुछ सहायता दूसरोंकी ओरसे थी, हाल में उन्होंने दूसरोंकी सहायताको ४२) रु० कर दिया है और देहलीके तीन सज्जनोंके नाम उसके लिये भेज दिये है जो सहायताकी सूची में दर्ज हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त-साहित्यके प्रचार की योजना अनेकान्तमें जो महत्वका उपयोगी ठोस साहित्य निकलता है, हम चाहते हैं उसका जनतामें अधिकाधिक रूप से प्रचार होवे । इस लिए यह योजना की गई है कि चतुर्थं वर्ष और पोंच वर्ष के विशेषाङ्कोंको, जिनकी पृष्ठसंख्या क्रमशः १२० व १०४ और मूल्य ॥ ) व ॥ =) है, नाममात्र के मू०|) व = ) पर वितरण किया जावे | अतः दानी महाशयों को मंदिरों, लायब्रेरियों, परीक्षोत्तीर्ण विद्याथियों और अजैन विद्वानों आदिको भेंट करनेके लिये चाहे जिस अंककी २२. ५०, १०० कापियों एक साथ मँगाकर प्रचार कार्य में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिये । प्रचारार्थ पोष्टेज भी नहीं लिया जायगा । बीरमेवामन्दिर सरसावा जि० सहारनपुर आवश्यकता - वीरमेवामन्दिरको दो ऐसे सेवाभावी योग्य विद्वानोंकी अवश्यकता है जिनमेंसे एक हिसाब किताबके काम में निपुया हो- - बाकायदा हिसाब-किताब रखते हुए वीर सेवामन्दिर की सारी सम्पत्तिकी अच्छी देख-रेख और पूरी संभाल रख सके | दूसरे विद्वान संस्कृत, प्राकृत और हिन्दीके प्रूफ रीडिंग तथा पत्र-व्यवहारके काममें दक्ष होने चाहियें और यदि वे संस्कृत, प्राकृत तथा अंग्रेजीका हिन्दी में अच्छा अनुवाद भी कर सकते हों तो ज्यादा बेहतर है । वेतन योग्यतानुसार दिया जायगा । जो विद्वान आना चाहें उन्हें पूरे परिचय के साथ नीचे लिखे पते पर पत्र व्यवहार करना चाहिये । छोटेलाल जैन ( कलकत्ता वाले ) सभापति 'वीरमेवामन्दिर समिति' सरसावा जि० सहारनपुर प्रचारक चाहिये अनेकान्तके बढ़ते हुये प्रचार कार्य के लिये एक ऐसे योग्य प्रचारककी आवश्यकता है जो स्थान २ पर जाकर इसके स्वाध्यायकी प्रेरणा कर सके और कार्यालय में भी रहकर कार्यमें योग दे सके । उन्हें कहीं से भी चन्दा माँगना न पढ़ेगा । वेतन योग्यतानुसार दिया जायेगा । -व्यवस्थापक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registere No. A-731. वयोटद्ध पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका सम्मान समारोह सहारनपुरमें स्वागत-समितिका संगठन - - बिहान लोग अपनो शुभ कामनायें और निबन्ध भेजें! भारतवर्षके विद्वत्समाजमें यह समाचार अत्यन्त हर्षके साथ सुना जायेगा कि वयोवृद्ध, निस्पृही, पुरातत्व विशेषज्ञ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' का सम्मान समारोह उनकी ६७ वी वर्ष गांठके अवसर पर मनानेके लिये सहारनपुर में प्रतिष्ठित व्यक्तियोंकी एक स्वागत समितिका निर्माण हो चुका है। मुख्तार साहेबके त्यागमय बृहत् सेवा कार्यसे जैन समाज अपरिचित नहीं है उन्होंने पिछले ३० वर्षसे अपना तन मन धन सब कुछ जैन साहित्यकी खोज, जैन ग्रन्थोंके निर्माण और अनुवाद तथा पत्रों के सम्पादनमें लगा दिया है आज उनके लेखोंकी प्रमाणिकता की धाक न केवल जैन विद्वानों पर है बल्कि अजैन विद्वान भी उनका लोहा मानते हैं। यह सचमुच जिले सहारनपुरका सौभाग्य है कि उसने न केवल ऐसे नररत्नको पैदा किया बल्कि उनकी शिक्षा दीक्षा और समाज तथा साहित्य सेवाका क्षेत्र भी यहा जिला रहा है. आज जिला सहारनपुर अपने इस सौभाग्यको समझ कर फूल उठा है और अपनी वह प्रसन्नता इस रूपमें प्रकट कर रहा है। जैन समाजके विद्वानों, नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओंसे प्रार्थना है कि वे अपनी शुभ कामनायें, पंडित जीके सम्बन्ध में निवन्ध और कवितायें-- ला० अर्हदासजी जैन रईस और ज़मीदार मौहल्ला बड़तला सहारनपुर संयोजक जुगलकिशोर मुख्तार सम्मान समारोह समिति के पते पर १ दिसम्बरसे पहिले भेजदें। समारोहकी तारीख ५ दिसम्बर १९४३ ईसवी है मुद्रक,प्रकाशक पं. परमानन्दशासी वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में मुद्रित Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकनाकापनी उययन्ती वरननन्यामनंगा । अन्तन जति जना नानिमयाननेमिचगानी॥ नमन्त्र . विधयं वा चानुभयमुभयं मिश्रमपि नहिशेष प्रत्येक नियमविषयचा पर्गिमतः । महान्योऽन्यापतेः मकन्नभुवनन्त्येष्टगमगा न्वया गीनं तन्वं बहुनय-विवतंतरकशान। सम्पादक-जुगल किशोर मुख्तार Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने-[सम्पादकीय पृ. १२१ ८ बुधजन सतसईपर एक दृष्टि-[माणिकचंद्र जैन बी.ए. १३८ २ जगत्गुरु 'अनेकान्त' १२२ मृत्युमहोत्सव-जमनालाल जैन वर्धा १४० अनेकान्त रसलहरी-[जुगलकिशोर मुख्तार १२३ १. ब्रह्मचर्य ही जीवन है-[चन्दगीराम विद्याथी १४३ ४ नयोका विश्लेषण-पं.वंशीधरजी व्याकरणाचार्य १२८ ११ सहयोगी जैन सत्यप्रकाशकी विचित्रसूझ-संपादकीय १४५ ५ जैनधर्मपर अजेन विद्वान-[शिवव्रतलाल वर्मन १३२ १२ पंडिता चन्दागाई-[4. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर १४९ ६ जीवन-चरित्र-बा. माईदयाल मी. ए. १३३ १३ अनुकरणीय-व्यवस्थापक १५२ ७ पेड़ पौधोंके स जै वैज्ञानिकता-[पं.चैनसुखदासजी१३६ वीर-शासनका अर्धद्वय-सहस्राब्दि-महोत्सव वीर-शासनको-भ. महावीरके धर्मतीर्थको-प्रवर्तित हुए ढाई हजार वर्ष समाप्त होरहेहै, अत: ढाई हजार वर्षकी समाप्ति पर कृतज्ञ जनता और खासकर व जैनियोंके द्वारा वीर-शासनका 'मर्द्धद्वय-सहस्राग्दि-महोत्सव' मनाया जाना समुचित और न्ययायप्राप्त है। इसीसे योरसेवामन्दिर सरसावाने, श्रीमान् बाबुछोटेलालजी जैन रईस कलकत्साकी प्रेरणाको पाकर, इस महोत्सव मनानेका भारी प्रायोजन किया है। इस महोत्सबके लिये जो स्थान चुना गया है बह है 'राजगृह' तीर्थक्षेत्र। इस स्थानका कितना अधिक महत्व है यह तो स्वतंत्र लेखका विषय है, फिर भी यहां पर संक्षेप में इतना प्रकट किया जाता है (.) दिगम्बर सम्प्रदायकी रष्टिसे यह राजगृह वह स्थान है जहां सबसे पहले श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको सूर्योदय समय वीर भगवानकी दिव्यध्वनि वाणी खिरी, उनके सर्वप्राणि-हितरूप 'सर्वोदय' शीर्थ की प्रवृत्ति हुई और उनके प्रधान गयधर गौतमके द्वारा उनकी दिन्य-वाणीकी उस द्वादशांग अतमें रचना की गई जो वर्तमानके सभी जैनागौंका माधारभूत है। किसी भी दिगम्बर ग्रन्थमें जहां उसके विषयावतारका निर्देश है वहां इसी स्थानके विपुवाचनादि पर्वत पर वीर भगवानका समवसरण माने और उसमें वीर-बाणीके अनुसार गौतम गणधरके द्वारा उस विषयके द्वारा प्रतिपादनका उल्लेख है। (२)शेताम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिसे यह राजगृह वह स्थान है जहां वैशाख सुदि १.मीको होने वाले केवलज्ञानके अनन्तर ज्येष्ठ मास शुस्में ही भ. महावीर देशनाके लिये पहुंच गये थे, जहां वे ज्येष्ठ तथा प्रासाठ मास तक ही नहीं किन्तु वर्षाकाल (चातुर्मास्य)अन्त तक (कोई छह मास तक) स्थित रहे और इस भर्से में जहाँ बराबर उन की समवसरण सभा लगती रही और उसमें उनका धर्मोपदेश होता रहा, जिसके द्वारा हजारों लाखों प्राणियोंका उद्धार तथा कल्याण हुभा है। और जो मुनि कल्याणविजयके शब्दों में "महावीरके उपदेश और वर्षा-बास केन्द्रों में सबसे गया और प्रमुख केन्द्र था।" 'जहाँ महावीरका समवसरण दोसौसे अधिकवार होनेके उक्लेख जैनसूत्रोंमें पाये जाते हैं।' और इस लिये जहां वीरशासन विशेषरूपसे प्रवर्तित हुया है। अतः दोनों सम्प्रदायोंकी रष्टिसे राजगृह (राजगिर) वीरशासन-सम्बंधी महोत्सबके लिये सबसे अधिक उपयुक्त स्थान,जहाँकी प्राकृतिक शोभा भी देखते ही बनती है। महोत्सवकी प्रधान विधि श्रावणकृष्णप्रतिपदा है, जो उत्सर्पिणी प्रादि युगौंक भारम्भकी तिथी होनेके साथ साथ वर्षारम्भकी तिथि है-पसी तिथिसे पहले भारतवर्ष में वषका भारम्भ हुमा करता था, 'वर्ष' शब्द भी वर्षाकालसे अपने प्रारम्भका सूचक है। अतः यह तिथि अन्य प्रकारसे भीतिहास में अपना खास महत्व रखती है। महोत्सवको विशेष योजनाएँ भागामी किरणों में प्रकाशित होंगी। -अधिछाता 'वीरसेवामन्दिर' Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * PARAN वार्षिक मूल्य १) रु० एक किरण का मूल्य ।) नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ ' वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर वर्ष ६, किरण ४ ४ नवम्बर १९४३ S मार्गशीर्ष शुक्ल, वीरनिर्वाण सं० २४७०, विक्रम सं० २००० समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ १७ ] श्रीकुन्थु-जिन-स्तोत्र कुन्थु-प्रभृत्यवित-मत्वदयकतानः कुन्थुजिनो ज्वर-जरा-मरणोपशान्ये । स्वं धर्मचक्रमिह वर्तयमि स्म भून्य भूत्वा पुग क्षितिपतीश्वर-चक्रपाणिः ॥१॥ 'कुन्थ्वादि सकल प्राणियों पर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए हे कुन्थुजिन ! आपने पहले (गृहस्थावस्थामें) राज्यविभूतिके निमित्त राजाओंके स्वामी चक्रवर्ती होकर बादको ज्वरादि रोग, जग (बुढ़ापा) और मरणको उपशान्तिरूप मुक्ति-वभूतिके लिये इस लोकमें धर्म-चक्रको प्रवर्तित किया है-अर्थात् - श्राप चक्रवर्ती और तीर्थकर दोनों पद को प्राप्त हुए हैं।' तषार्चिषः पग्दिहन न शान्निगसामिष्टेन्द्रियार्थ-विभवः पग्वृिद्धिरे। स्थिस्यैव काय-परितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत॥॥ 'तृष्णा (विषयाकाँक्षा) रूप अग्नि ज्वालाएँ स्वभावसे ही संतापित करती हैं। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रिय-विषयोंकी संपत्तिस-प्रचुर परिमाणमें संप्राप्तिस-नहीं होती, उल्टी वृद्धि ही होती है; क्यों कि वस्तुस्थिति ऐसी ही है-इन्द्रिय-विषयोंको जितना अधिक सेवन किया जाता है उतनी ही अधिक उनके और सेवनकी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त [वर्ष ६ तृष्णा बढ़ती रहती है । सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समय के लिये) शरीरके संतापको मिटाने में निमित्तमात्र हैं-तृष्णारूप अग्निज्वालाश्रीको शान्त करने में समर्थ नहीं होते। यह सब जानकर हे आत्मवन्-इन्द्रियविजेता भगवन् !-श्राप विषय-सौख्यसे पराङ्मुख हुए है-पारने चक्रनित्वकी सम्पूर्ण विभूतिको हेय समझते हुए उनसे मुख मोड़ कर अपना पूर्ण आत्मविकास सिद्ध करने के लिये स्वयं ही वैराग्य लिया है-जिनदीक्षा धारण की है।' बाह्यं तपः परमदुश्वरमाचरंस्थमाध्यास्मिकस्यतपमः परिबृंहणार्थम् ।। ध्यानं निरस्य कलुषव्यमुत्तरस्मिान् ध्यानद्वये बवृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥ ३ ॥ (वैराग्य लेकर) आपने आध्यात्मिक तरकी-श्रात्मध्यानकी--परिद्धिके लिये परमदुर बाहातपअनशनादिरूप घोर-दुर्द्धर तपश्चरण--किगा है। और (इस बातपश्चरणको करते हुए)श्राप प्रात-रौद्र-रूप दो कलुषित (खोटे) ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती-धर्म्य और शुक्ल नामक-दो सातिशय (प्रशस्त) ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं। हत्या स्वकर्म-कटुकप्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयाऽतिशयतेजमि जातवीर्यः। पभ्राजिषे सकलवेदविधेर्विनेता व्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥४॥ (सातिशय धान करते हुए हे कुन्थुजिन !) आप अपने कर्मोकी चार कटुक प्रकृतियोंको-ज्ञानावरण. दर्शनावरमा मोहनीय और अन्नराय नामके चार घातिया कर्मोको-रत्नत्रयकी-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यकनाग्त्रिकीसातिशय अग्निमें-परमशुक्लध्यानरूपवन्दिम-भस्म करके जातवीर्य हुए हैं-शक्त सम्पन्न बने हैं-और सकलवेद-विधिके-संपूर्ण लोकाऽलोक-विषयक-ज्ञान-विधायक श्रागमके-प्रणेता होकर ऐसे शोभायमान हुए हैं जैसे कि घनपटल-विहीन आकाशमें दीप्त-किरणोंको लिये हुए सूर्य शोभता है।' यस्मानमुनीन्द्र-तव लोकपितामहाद्या विद्या-विभूति-कणिकामपि नाप्तुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥५॥ -स्वयम्भू स्तोत्र 'हे मुनीन्द्र श्री कुन्युजिन ! चूँकि लोकपितामहादिक- ब्रह्मा-विष्णु-महेश-कपिल-सुगतादिक-आपकी विद्या ( केवलज्ञान ) की और विभूतिकी-समवसरणादि लक्ष्मीकी-एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए हैं, इस लिये आत्महित-साधनकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधीजन-जाणधादिक-पुनर्जन्मसे रहित श्राप अद्वितीय स्तुत्य (स्तुतिपात्र) की स्तुति करते है।" जगत्गुरु अनेकान्त जेण विणा लोगस वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडद । - तस्स भुवणेकगुरुणो एमो अनेगंतवायरस ॥१॥-सिद्धसेनाचार्य 'जिसके विना-जिसकी शिक्षाके अभावमें-लोकका व्यवहार भी-दुनियाका कारोबार भी-सर्वथा बन नहीं सकता-सब तरहसे मले प्रकार चल नहीं सकता-उस भुवनैक गुरु-जगतके असाधारण गुरु-अनेकान्तवादको नमस्कार हो। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा दानी कौन ? अनेकान्त-रस-लहरी [इस स्तम्भके नीचे लेख लिखने के लिये मैं शुरूसे ही विद्वानोंको आमंत्रित करता ना रहा हूं, परन्तु अभी तक किसीने भी इस ओर ध्यान देनेकी कृपा नहीं की। पिछली किरणमें लेख न जा सकनेका एक कारण जहां मेरा अनवकाश है वहाँ दूसग कारण मेरी यह जाननेकी रुचि भी है कि समाजके विद्वानोंके हृदयपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है-वे यह न समझ बैठे कि 'सम्पादकजी तो लिख ही रहे हैं. हमें इस ओर प्रयत्न करने की जरूरत नहीं।' मेरे ऊपर वीर-सेवा-मन्दिर-सम्बन्धी कार्योका इतना अधिक भार है कि मुझे जरा भी अवकाश नहीं मिलता और किसी दूमरे अावश्य ककार्यकी बलि चढ़ाये बगैर तो मैं ऐसे लेख लिख ही नहीं सकता। इसके सिवाय मैं समाजके बड़े-बड़े विद्वानों एवं साहित्य-कलाकागेंसे अधिक महत्व के लेखोंकी श्राशा लगाये हुए हूँ। श्राशा हे वे उसे शीघ्र पूरा करेंगे और इस लेग्व-मालाके सिलसिलेको बन्द नहीं होने देंगे। इसी श्राशाको लेकर और पाठकों की इस विषयके लेखोंको पढ़नेकी बढ़ती हुई रुचिको देखकर तथा यह खयाल करके कि उनकी उस रुचिकी पूर्ति अधिक व्याघात न होने पाए, मैं आज अपना यह तीसरा लेख उपस्थित कर रहा हूँ।] --सम्पादक [३] नहीं, और तीसरी बात यह कि रुपयोंका दान करनेवाला ही बड़ा दानी है, दूसरी किसी चीजका दान करने वाला बड़ा दानी नहीं। एक दिन अध्यापक वीरभद्ने कक्षामें पहुंचकर विद्या विद्यार्थी--मेरा यह मतलब नहीं कि दमी किसी धिोंसे पुछा-'बड़े-छोटेका जो तस्व तुम्हें कई दिनसे सम चीजका दान करनेवाला बड़ा दानी नहीं, यदि उस दूसरी झाया जारहा है उसे तुम खूब अच्छी तरह समझ गये हो चीज--जायदाद मकान वगैरहकी मालियत उतने रुपयों या कि नहीं?' विगार्थियों ने कहा--'हो, हम खूब अच्छी जितनी है तो उसका दान करने वाला भी उसी कोटिका तरह समझ गये हैं।' बढ़ा दानी है। 'अच्छा, यदि खूब अच्छी तरह समझ गये हो तो अध्यापक-जिस चीज़का मुख्य रुपयों न ओंका जा आज मेरे कुछ प्रश्नोंका उत्तर दो, और उत्तर देने में जो सके उसके विषयमें तुम क्या कहोगे? विद्यार्थी सबसे अधिक चतुर हो वह मेरे सामने पाजाय, विद्यार्थी-ऐसी कौन चेज़ है, जिसका मूल्य रुपयाम न शेष विद्यार्थी उत्तर देने में उसकी मदद कर सकते हैं, और ओंका जा सके। चाहें तो पुस्तक खोलकर उसकी भी मदद ले सकते हैं।' अध्यापक--नि:स्वार्थ प्रेम, सेवा और अभयदानादि: अध्यापक महोदयने कहा। अथवा क्रोधादि कषायोंका त्याग और दयाभावादि बहुरूसी इमपर मोहन नामका एक विद्यार्थी, जो कचामें सबसे ऐसी चीजें हैं जिनका मूल्य रुपयों में नहीं क्रौंका जा सकता। अधिक होशियार था, सामने भा गया और तब अध्यापक उदाहरण लिय एक मनुष्य नदीम इब रहा है, यह देख जीने पूछा-- कर तटपर खड़ा हुआ एक नौजवान जिसका पहलेसे उस 'बतलाओ, बदा दानी कौन है? बने वालेके साथ कोई सम्बंध नथा परिचय नहीं है, उस विद्यार्थी--जोलाखों रुपयोंका दान करे वह बड़ा दानी है? के दुःखसे व्याकुल हो उठता है, दयाका स्रोत उसके हृदय अध्यापक-तुम्हारे इस उत्तरसे तीन बातें फलित में फूट पड़ता है, मानवीय कर्तव्य उसे मा धर दबाता है होती है--एक तो यह कि दो चार हजार रुपयेका या लाख और वह अपने प्राणोंकी कोई पर्वाह न करता हुधा--जान रुपयेसे कमका दान करने वाला बदा दानी नहीं, दूसरी यह जोखों में डालकर भी-एकदम चढ़ी हुई नदीमें कूद पड़ता कि लाखोकी रकमका दान करने वालों में जो समान रकमके है और उस बने वाले मनुष्यका उद्धार करके उसे तटपर दानी हैं वे सरस्परमें समान है--उनमें कोई बदा-छोटा ले पाता है। उसके इस दयाभाव-परिणत प्रात्मत्याग और Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनेकान्त [वर्ष ६ उसकी इस सेवाका कोई मूल्य नहीं और यह अमूल्यता के नये हथियार दान करता है, तीसरा अपने ही भाक्रमशउस समय और भी बढ़ जाती है जब यह मालूम होता है में घायल हुए सैनिकीकी महम-पट्टीके लिये दो लाख कि वह उद्धार पाया हुश्रा मनुष्य एक राजाका इकलौता हायेकी दवा-दारूका सामान दान करता है और चौथा पुत्र है और उद्धार करने वाले साधारण गरीब आदमीने बंगाल के अकाल पीडितों एवं अशाभावके कारण भूख से बदलेमें कृतज्ञता-रूपसे पेश किये गये भारी पुरस्कारको तड़प-तड़पकर मरने वाले निरपराध प्राणियोंकी प्राणरक्षा भी लेने में अपनी असमर्थता व्यक्त की है। ऐसा दयादानी के लिये दो लाख रुपयका अन्न दान करता है। बतलायो मात्मत्यांगी मनुष्य लाखों रुपयोंका दान करनेवाले दानियों __ इन चारों में बड़ा हानी कौन है ? अथवा सबके दान-द्रव्यकी से कम बड़ा नहीं है. वह उससे भी बड़ा है जो पुरस्कार मालियत दो लाख रुपये समान होने सब बराबरके दानी में प्राधे राज्यकी घोषणाको पाकर अपनी जानपर खेला हो है--उनमें कोई विशेष नहीं, बडे-छोटेका कोई भेद नहीं है?' और ऐसे ही किमी इबते हुए राजकुमारका उद्धार करने में यह सुनकर विद्यार्थी कुछ भौचकसा रह गया और समर्थ होकर जिसने अाधा राज्य प्राप्त किया हो। इसी उसे शीघ्र ही यह समझ नहीं पड़ा कि क्या उत्तर दूँ, तरह सैनिकों द्वारा जब लूट म्यमोटके साथ कलेश्राम हो रहा और इस लिये वह उत्तरकी खोज में मन-ही-मन कुछ हो तब एक गजाकी अभय-घोषणाका उस समय रुपयोंमें सोचने लगा--दूसरे विद्यार्थी भी सहसा उसकी कोई मदद कोई मुख्य नहीं रोका जा सकता--बह लाखों. करोडों न कर सके--कि इतने में अध्यापकजी बोल उठे-- और अरबों-खों रुपयों के दानसे भी अधिक होती है. और 'तुम तो बड़ी सोच में पड़ गये हो! क्या तुम्हें दानका इसलिये एक भी रुपया दान न करके ऐसी अभय-घोषणा- ___ स्वरूप और जिन कारणोंप दान में विशेषता भाती है-- द्वारा सर्वत्र अमन और शान्ति स्थापित करने वाले को छोटा अधिकाधिक फल की निप्पत्ति होती है--सनका स्मरण नहीं दानी नहीं कह सकते। ऐसी ही स्थिति नि:स्वार्थ-भावसे है? और क्ण तुम नहीं समझते कि जिस दानका पल देश तथा समाज-सेवाके कार्यों में दिन-रात रत रहने वाले बड़ा होता है वह दान बड़ा है और जो बड़े दानका दाता और उसी में अपना सर्वस्व होम देने वाले छोटी पूँजीके है वह बड़ा दानी है? तुमने तत्वार्थपूत्रके मारवें अध्याय व्यक्तियोंकी है। उन्हें भी छोटा दानी नहीं कहा जासकता। और उसकी टीकामें पढ़ा है--स्व-परके अनुग्रह-उपकारके अभी अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल रही थी लिये जो अपनी धनादिक किसी वस्सुका त्याग किया जाता और वे यह सट करके बतला देना चाहते थे कि 'क्रोधादि है उसे 'दान' कहते है. और दानमें विधि, इन्य, दाता कषायों के सम्यक् स्यागी एक पैसे का भी दान न करते हुए और पात्रके विशेषसे विशेषता भाती है--दानके तरीके कितने अधिक बढ़े दानी होते हैं कि इतने में उन्हें विद्यार्थी दानमें दी जाने वाली वस्तु, दाताके परिणाम और पाने के चेहरे पर यह दीख पड़ा कि कि 'उसे बड़े दानी की व.लेमें गुगा-संयोगके भेदसे दानके फल में कमी येशी होती अपनी सदोष परिभाषा पर और अपने इस कथन पर कि है तब इस तात्विक दृष्टिको लेकर तुम क्यों नहीं बतलाते उसने बड़े छोटे के तत्व को खूब अच्छी तरह से समझ कि इन चारोंमें दान द्रव्यकी अपेक्षासे कौन बड़ा है?' लिया है कुछ संकोच तथा खेद होरहा है', और इम लिये अध्यापकजीके इन प्ररेणात्मक शब्दोको सुनकर विद्यार्थी उन्होंने अपनी पाख्याका रुख बदलते हुए कहा - को होश आ गया. उसकी स्मृति काम करने लगी और 'अच्छा, अभी इस गंभीर और जटिल विषय को हम इसलिये वह एक दम बोज पदा-- यहीं रहने देते हैं-फिर किसी अवकाशके समय इसकी इन चारोंमें बड़ा दानी वह है जिसने बेबसीकी हालत स्वतन्त्र रूपसे व्याख्या करेंगे-और इस समय तुम्हारी में पड़े हुए बंगालके अकालपीवितोंको दो लाख रुपयेका समान मालियतके दान-द्रग्यकी बातको ही लेते है। एक अच दान किया है।' दानी सेनाके लिये दो लाख रुपयेका मांस दान करता है, * अनुग्रहाथै स्वस्थातिसों दानम् ॥३८॥ दसरा मामबके लिये उचत सेनाके वास्ते दो लाख रुपये विधि-द्रव्य-दात-पात्र-विशेषाद्विशेषः ॥ ३६॥ तासु० Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] अनेकान्त-रस-लहरी १२५ अध्यापक-वह बडा दानी कैसे है? ज़रा समझा कर घायल सैनिकोंकी महम-पट्टीके लिये स्वेरछासे दवाबतलायो। और खासकर इस बानको स्पष्ट करके दिख- ___ दारूका दान देने वाला पिछले दो दानियों-मौसदानी लामो कि वह घायल मैनियोंके लिये मर्हमपट्टीका सामान और हथियारदानीमे बहा करूर है, परन्तु वह बंगालके दान करने वाले दानीसे भी बड़ा दानी क्यों कर है? घोर अकाल से पीडित प्राणियोंकी रक्षार्थ का दान करने विद्यार्थी--माँसकी बत्पत्ति प्रायः जीवधातसं होती है। वाले में बहा नहीं है। क्योंकि अन्यके राष्ट्र पर अाक्रमण जो मांसका दान करता है वह दूसरे निरपराध जीवों के करने के लिये टचत सैनिक दूसोंको घायल करने और स्वयं घातमें सहायक होता है और इस लिये मानवतासे गिर कर घायल होनेकी ज़िम्मेदारीको खुद अपने सिर पर उठाते हैं. हिंसात्मक अपराधका भागी बनता है, जिससे उसका अपना अपराध करते हुए घायल होते हैं और अच्छे होने पर आगे उपकार न हो कर अपकार होता है। और जिन्हें मॉम- भी अपगध करने-कमेक निरपराध प्रा.गायों तकवा घात भोजन कराया जाता है वे भी उस जीवघातके अनुमोदक करने की इच्छा रखते हैं, इस लिये चे उतने दयाके प.त्र तथा प्रकारान्तरसे सहायक होकर अपराधके भागी बनते हैं। नहीं जितने कि बंगालके उक्त अकाल-गीडित दयाके पात्र माथ ही मौम भोजनसे उनके हृदय में निर्दयता-कठो-ता- हैं, जिनका अकाल के बुलाने में कोई हाथ नहीं, कोई अपस्वार्थपरतादिमू-लक तामसी भाव उत्पन्न होता है, जो राध नहीं और जिन पर अकाल लादा गया है अथवा विसी आमचिकाममें बाधक होकर उन्हें पतनकी ओर ले जाता जिम्मेदार बड़े अधिकारीको भारी लापर्वाही और गलतसे है, और इस लिये मांस-दानसे मांयभोजीका भी वास्तविक लद गया है। ऐसी स्थिति में मुझे तो बंगाल के अकाल उपकार नहीं होता--खासकर ऐसी हालनमें जबकि अन्ना- पीडनोंको दो लाख रुपयेवा अन्न दान करने वालाही दिक दूसरे निर्दोष एवं साचिक भोजनोंसे पेट भले प्रकार चाराम बड़ा दानी मालूम होता है। भरा जा सकता है और उससे शारीरिक बल एवं बौद्धिक अध्यापक--जिस दृष्टिको लेकर तुमने उक्त श्रमदानीको शक्ति में भी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। अत: ऐसे बड़ा दानी बतलाया है वह एक प्रकारसे ठीक है, परन्तु इम दानका पारमार्थिक अथवा यात्मोपकार-साधनकी दृष्टिसे विषयमें कई विकल्प उत्पन्न होते अथवा सवाल पैदा होते कोई अच्छा फल नहीं कहा जासकता--भले ही उसके हैं, उनमेंसे यहां पर दो विकल्पोंको ही रक्खा जाता है. करने वालेको लोकमें स्वार्थी राजा-द्वारा किमी ऊपरी पद जिनमेंस पहला विकल्प अथवा सवाल इस प्रकार है-- या मम्मवकी प्राप्ति हो जाय । जंब पारमार्थिक अथवा आत्मोपकारकी दृष्टिसे ऐमो दानका कोई बड़ा फल नहीं होता लाख रुपयेका अन्न दान करने वाले चार संठ है. जिनमेंसे तोरोसा दान देनेवाला बदा दानी भी नहीं कहा जा सकता। (6) पकने स्वेच्छासं दान नहीं दिया, वह दान देना ही हथियार हिंसाके उपकरण होनेसे उनका दान करने नहीं चाहता था, उस पर किसी उच्च अधिकारीने भारी वाला हिंसामें-परपीडामें सहायक तथा उसका अनुमोदक दबाव डाला और यह धमकी दी कि 'यदि तुम दो लाख होना है और जिसे दान दिया जाता है ये उनके कारण रपयेका अन्न दान नहीं दोगे तो तुम्हारा मनका सब स्टाक हिंसामें प्रोत्साहन मिलता है और वे प्रायः दूसरोंके घातमें जब्त कर लिया जायगा, तुम्हारे उपर इनकमटैक्स दुगुनाही काम पाते हैं। इस तरह दाता और पात्र दोनों ही के चौगुना कर दिया जायगा और भी अनेक कर बढ़ा दिये क्षिये वे यात्महितका कोई साधन न होकर प्रात्महनन एवं जावेंगे अथवा टिफॅप ग्राफ इंडिया ऐक्टके अधीन तुम्हारा पतनके ही कारण बनते हैं, और इस लिये हथियारोंका चालान करके तुम्हें जेल में डाल दिया जायगा, तुम्हारी दान पारमार्थिक दृष्टिसे कोई महान् दान नहीं होता- जायदाद जब्त करली जायगी और तुम जेल में पड़े परे आक्रमणात्मक-युद्धके सैनिकोंके लिये तो वह और भी सडजाओगे।' और इस लिये उसने धमकी भयसे तथा सदोष ठहरता है, तब उसका दानी बड़ा दानी कैसे हो दबाबसे मजबूर होकर वह दाम दिया है। (२) दूसरेने इस सकता है? इच्छा तथा पाशाको लेकर दान दिया है कि उसके दानसे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त [वर्ष ६ गवर्नर साहब या कोई दूसरे उच्चाधिकारी प्रसन्न होंगे छोड दिये हैं और यह प्रार्डर जारी कर दिया है कि जो और उस प्रसन्नताके उपलपमें उसे मानरेरी मजिष्टेट कोई भोजनके लिये आवे उसे भोजन दिया जावे, नतीजा या रायबहादुर जैसा कोई पद प्रदान करेंगे अथवा उस यह हुआ कि उसके भोजनालय पर अधिकतर ऐसे सण्डेके बढ़ते हुए करोंमें कमी होगी और अमुक केसमें उसके मुपण्डे और गुरदे लोगों की भीड़ लगी रहती है जो स्वयं अनुकूल फैसला हो सकेगा। (३) तीसरेने कुछ ईर्षा-भाव मजदूरी करके अपना पेट भर सकते है--दयाके अथवा तथा व्यापारिक रष्टिको लयमें रख कर दान दिया है। उस मुफ्त भोजन पानेके पात्र नहीं जो धकामुकी करके अधिके पडौसी अथवा प्रतिद्वंद्वीने ५० हजारका का दान किया काँश गरीब भुखमरोंको भोजनशालाके द्वार तक भी पहुंचने था, रसे नीचा दिखाने, उसकी प्रतिष्टा कम करने और नहीं देते और स्वयं खा-पीकर चले जाते हैं तथा कुछ अपनी धाक तथा साख जमा कर कुछ व्यापारिक लाभ भोजन साथ भी ले जाते हैं। और इस तरह जिन गरीबोंके उठानेकी तरफ उसका प्रधान बच्य रहा है। (४) चौथेका वास्ते भोजनशाला खोली गई है उन्हें बहुत ही कम हृदय सचमुच अकाल-पीडितोंके दुखसे द्रवीभूत हुश्रा है भोजन मिल पाता है। प्रत्युत इसके, धनीराम नामके एक और उसने मानवीय कर्तव्य समझ कर स्वेच्छासे विना पांचवें सेठ हैं, जो ३-४ लाख रुपये की सम्पत्तिकेहीमालिक किसी लौकिक लाभको लक्ष्यमें रक्खे वह दान दिया है। हैं। उनका भी हृदय बंगालके अकाल-पीडिौको देख कर बतलाइन चार बड़ा दानी कौनसा सेठ और वास्तव में द्रवीभूत हया है. उन्होंने भी मानवीय कर्तव्य जिस अन्नदानीको तुमने अभी बढ़ा दानी बतलाया है वह समझ कर स्वेच्छासे बिना किसी लौकिक लाभको लक्ष्यमें यदि इनमेंसे पहले नम्बरका सेठ हो तब भी क्या वह उस रक्खे दो लाखका दान दिया है और उससे अपनी एक दानीसे बड़ा दानी है जिसने स्वेच्छासे बिना किसी दबावके भोजनशाला खुलवाई है। साथ ही, भोजनशालाकी ऐसी घायल सैनिकोंकी बुरी हालतको देख कर उन पर रहम विधि-व्यवस्था की है, जिससे वे भोजनपात्र गरीव भुखमरे खाते हुए और उनके अपराधादिकी बातको भी ध्यानमें न ही भोजन पासकें जिनको लक्ष्य करके भोजनशाला खोली नाते हुए उनकी मईमपट्टीके लिये दो लाख रुपयेका दान गई है। उसने भोजनशाखाका प्रबन्ध अपने दो योग्य पुत्रों दिया है? के सुपुर्द कर दिया है. जिनकी सुव्यवस्थासे कोई सण्डा-मुसविद्यार्थी--इन चारोंमें बड़ा दानी चौथे नम्बरका सेठ रडा अथवा अपात्र व्यक्ति भोजनशालाफे अहातेके है, जो दानकी ठीक स्पिरिटको लिये हुए है। बाकी तो अन्दर घुसने भी नहीं पाना, जिसके जो योग्य है वही दानके व्यापारी हैं। पहले नम्बरके सेठको तो वास्तव में पाविक भोजन उसे दिया जता है और उन दीन-अनायों दानी ही न कहना चाहिये, उसे तो दो लाख रुपयेका अन्न तथा विधवा-पाहजोको उनके घरपर भी भोजन पहुंचाया पक प्रकारसे छीना गया है, वह तो दान-फलकाअधिकारी भी जाता है जो लज्जाके मारे भोजनशालाके द्वार तक नहीं पा नहीं है, और इस लिये घायल सैनिकोंकी महमपट्टीके लिये सकते और इस लिय जिन्हें भोजनके अभावमें घर पर ही स्वेच्छासे दयाभाव-पूर्वक दो लाग्यका दान करने वालेसे पड़े पड़े मरजाना मंजूर है। अब बतलानी इन दोनों वह बड़ा दानी कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। सेठों में कौन बड़ा दानी है?--वही चौथे नम्बर वाला सेठ अध्यापक--मालूम होना है अब तुम विषयको ठीक बहा दानी है जिसे तुमने अभी बहुतोंकी तुलनामें बड़ा समम रहे हो। अच्छा, इतना और जानलो कि-'चौथे बतलाया है? अथवा पाँच नम्बरका यह सेठ धनीराम नम्बरका सेठ करोडोंकी सम्पत्तिका धनी है, उसके यहाँ बड़ा दानी है? कारण सहित प्रकट कगे। प्रतिदिन लाखों रुपये का व्यापार होता है और हर साल विद्यार्थी उत्तरके लिये कुछ सोचने ही लगा था कि सब खर्च देकर उसे दस लाख रूपये के करीबकी बचतरहती इतनेमें अध्यापकजी बोल पदे-'इसमें तो सोचनेकी है। उसने दो लाख रुपयेकेदानसे अपना एक भोजनालय जरा भी बात नहीं है, यह स्पष्ट है कि चौथे नम्बर वाले खुलवा दिया है, भोजन वितरण करने के लिये कुछ नौकर सेठकी पोजीशन बड़ी है, उसकी माली हालत सेठ पनी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] अनेकान्त-रसलहरी १२७ रामसे बहुत बढ़ी चढ़ी है, फिर भी धनीशमने उसके बरा. अनेकान्त है । साथ ही, यह भी समझ गये होगे कि जिस बर ही दो लाखका दान दिया है, दीन-दुखियोंको पुकारके चीजका मूल्य रूपों में नहीं मांका जा सकता उसका दान मुकाबले में अधिक धनसंचित कर रखना उसे अनुचित ऊँचा करने वाले कभी कभी बड़ी बड़ी रकर्मोके दानियोंसे भी है और उसने थोडी सम्पत्तिमें ही सन्तोष धारण करके बदे दानो होते हैं। और इस लिये बड़े दानीकी जो परिउसीसे अपना निर्वाह कर लेना इस विषम परिस्थितिमें भाषा तुमने बांधी है, और जिसका एक अंश (पशिभषासे उचित समझा है। मन: उमका दानद्रव्य समान होने पर फलित होने वाली तीन बातोंमेंसे पहली बात) अभी और भी उसका मूल्य अधिक है और उसके दानकी विधि-व्य- विचारणीय है, वह ठीक नहीं है। वस्था तथा पात्रोंके ठीक चुनावने उसका मूल्य और भी इस पर विद्यार्थी (जिसे पहले ही अपनी सदोष परिअधिक बढ़ा दिया है। वह ऐसी स्थितिमें यदि एक लाख भाषा पर खेद हो रहा था) नत-मस्तक होकर बोलानहीं किन्तु अचलाख भी दान करना तो भी उसका मूल्य 'आपने जो कछ कहा है वह सब ठीक है। आपके इस उस चौथे नम्बर वाले सेठके दानसे बढ़ा रहता, क्योंकि विवेचन, विकल्पोद्भावन और स्पष्टीकरण से हम लोगोंका दानका मूल्य दानकी रकम अथवा दान-द्रव्यकी मालियत बहतसा अज्ञान दर हुना है। हमने जो छोटे-बडेके तत्वको पर ही अवलम्बित नहीं रहता, उसके लिये दान-द्रब्यकी खब अली तरह समझ लेनेकी बात कही थी वह हमारी उपयोगिता, दाताके भाव तथा उसकी तत्कालीन स्थिति, भूल थी। जान पड़ता है अभी इस विषयमें हमें बहुत दानकी विधि-व्यवस्था और जिसे दान दिया जाता है उस कुछ सीखना-समझना बाकी है। लाइनोंके द्वारा मापने जो में पात्रत्वादि गुणोंके संयोगकी भी आवश्यकता होती है। कुम समझाया था वह इस विषयका 'सूत्र' था, अब भाप बिना इनके यों ही अधिक द्वन्य लुटा देनेसे बढ़ा दान नहीं उस सूत्रका व्यवहारशास्त्र हमारे सामने रख रहे है। इससे बनता। सेट धनीरामके दानमें बड़ेपनकी इन सब बातोंका सूत्रके समझने में जो अटि रही हुईहै वह दूर होगी, संयोग पाया जाता है, और इस लिये उसके दानका मूल्य कितनी ही उलझनें सुलझंगी और चिरकालकी भूलें करोडपति सेठ नं.४ के दानसे मी अधिक होने के कारण मिटेंगी। इस कृपा एवं ज्ञान-दानके लिये हम सब भापके वह उक्त सेठ साहबकी अपेक्षा भी बड़ा दानी है।' बहुत ही ऋणी और कृतज्ञ है।' ___ मैं समझता हूं अब तुम इस बातको भले प्रकार मोहनके इस कथनका दूसरे विद्यार्थियोंने भी खडे समझ गये होंगे कि समान कम अथवा समान मालियत होकर समर्थन किया। .. के द्रव्यका दान करने वाले सभी दानी समान नहीं होते घंटेको बजे कई मिनट हो गये थे, दूसरे उनमें भी अनेक कारणोंसे छोटा-बदापन होता है। जैसा कि अध्यापक महोदश भी कक्षामें आगये थे, इससे अध्यापक दो लाखके अनेक दानियोंके उदाहरणोंको सामने रख कर वीरभद्रजी शीघ्र ही दूसरी कक्षामें जानेके लिये वाध्य हुए। स्पष्ट किया जा चुका है। अतः समान मानियतके इन्यका दान करने वालोंको सर्वथा समान दानी समझना एकान्त वीरसेवामन्दिर, सरमावा जुगलकिशरोर मुख्तार और उन्हें विभिन रष्टियोंसे छोटा-बड़ा दानी समझना ना.२४ नम्बर १E४३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंका विश्लेषण (लेखक-श्री ५० वंशीधर व्याकरणाचार्य ) [गत वरणसे आगे] (४) प्रमाण-नय-विषयक शंका-समाधान एक अंश है" ऐसा अनुभव हमें नहीं होना चाहिये, लेकिन शंका-अनेक धर्मोंकी पिंड स्वरूप वस्तुको ग्रहण होता जरूर है इस लिये यही मानना ठीक है कि नेत्रोंसे करने वान्ता प्रमाण माना गया है लेकिन इन्द्रियोंप होने हमें वस्तुके रूपका ही ज्ञान होता है समस्त धर्मोंकी पिंडवाला मतिज्ञानरूप पदार्थ ज्ञान अनेक धर्मोकी पिंड- स्वरूप वस्तुका नहीं। स्वरूप वस्तुका ग्राहक नहीं होता है - नेत्राय हमें रूप- ममाधान "रूप अथवा रस प्रादि वस्तुके अंश या धर्म विशिष्ट ही वस्तुका ज्ञान होता है उस वस्तुमै रहने वाले है' इस प्रकारका ज्ञान हमें मेग्र, रमना आदि इन्द्रियों द्वारा रसादि धर्म इस ज्ञानके विषय नहीं होते है। इस लिये वस्तुका रूपविशिष्ट, रसविशिष्टादि भिक्षरतरहका ज्ञान होनेके प्रमाणका उल्लिखित लक्षण मत्तिज्ञानमें घटित न होने के बाद "नेत्री द्वारा हमें वस्तुका रूपमुखेन ज्ञान होता है रसाकारण मतिज्ञानको प्रमाण नहीं माना जा सकता है बल्कि दिमुखेन नहीं," "श्सनाके द्वारा हमें वस्तुका रसमुखेन ज्ञान वस्तुके एक अंशको विषय करने वाले नयका लक्षण घटित होता है रूपादिमुखेन नहीं" इस प्रकारके धन्वय व्यतिरेक होने के कारण इसको नय मानना ही ठीक है। इसी प्रकार का ज्ञान होने पर अनुमानज्ञान द्वारा हुश्रा करता है दुसरी रसना आदि इन्द्रियों द्वारा होनेवाले रसादि ज्ञानोंको अथवा दूसरे व्यक्तियों द्वारा दिये गये "रूप वस्तुका अंश प्रमाण मानने में भी यही प्रापत्ति उपस्थित होनी है। या धर्म है" इस प्रकारके उपदेशसे होने वाले शब्दार्थज्ञान समाधान-नेत्रोंसे हमें वस्तुक अंशभूत रूपका ज्ञान रूप श्रुतज्ञान द्वारा हुआ करता है. नेत्रों द्वारा नहीं। नहीं होता है बल्कि रूपमुखेन वस्तुका ही ज्ञान होता है। शंका-"रूप या रसादि वस्तुके अंश या धर्म" वस्तु चंकि रूप, रस प्रादि धर्मोंको छोड़ कर कोई स्वतंत्र इस प्रकारका ज्ञान यदि अनुमान द्वारा होता है तो अनुमान स्वरूप वाली नहीं है इस लिये वस्तुस्वरूप सभी धर्मोंका भी तो मतिज्ञानका एक भेद है इस लिये अनुमानरूप हमें रूपमुखेन ज्ञान हो जाया करता है-ऐसा समझना मतिज्ञान वस्तुके अंशका ग्राहक होने के सबब प्रमाणकोटिमें चाहिये। दूसरी बात यह है कि यदि हमें नेत्रों द्वारा सिर्फ नहीं गिना जाकर नयकोटिमें ही गिना जाना चाहिये, ऐसी वस्तुके अंश या धर्मस्वरूप रूपका ही ज्ञान होता है तो उस हालतमें मतिज्ञानको प्रमाण माननेके बारेमें पूर्वोक्तभापति के फलस्वरूप होने वाली हमारी ग्रहण, त्याग और माध्य- जैसीकी तेसी बनी रहती। सध्यरूप प्रवृत्ति सिर्फ वस्तुके अंशभूत रूपमें होना चाहिये समाधान-नेत्रों द्वारा हमें रूपमुखेन वस्तुका ज्ञान रूपविशिष्ट वस्तुमें नहीं, लेकिन नेत्रों द्वारा ज्ञान होने पर हो जाने पर उन दोनोंमें रहने वाले अवयवावयवीभाव होने वाली हमारी उल्लिखित प्रवृत्ति रूपविशिष्ट वस्तुमें ही सम्बन्धका ज्ञान अनुमान द्वारा हुश्रा करता है यह संबन्ध हुश्रा करती है इस लिये यही मानना ठीक है कि हमें नेत्रों वस्तुका अवयव नहीं, बल्कि स्वतंत्र ज्ञानका विषयभूत स्वद्वारा रूपमुखेन सभी धर्मोंकी पिंडस्वरूप वस्तुका ही ज्ञान तंत्र पदार्थ है इस लिये यह अनुमानज्ञान भी वस्तुके अंश हुमा करता है केवल वस्तुके अंशभूत रूपका नहीं। यही को न ग्रहण करके स्वतंत्र वस्तुको ही ग्रहण करता है प्रक्रिया दूसरे ऐन्द्रियिक ज्ञानों में भी समझना चाहिये। अर्थात इस ज्ञानका विषय रूप और उसका प्राधार वस्तु शंका-यदि हमें नेत्रों द्वारा रूपमुखेन समस्त धोकी दोनोंसे स्वतंत्र है; कारण कि रूप और उसका आधारभूत पिंडस्वरूप वस्तुका ज्ञान हुमा करता है तो "रूप वस्तुका वस्तुका ज्ञान तो हमें नेत्रों द्वारा पहिले ही हो जाता है Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] नयोंका विश्लेषण १६९ सिर्फ उन दोनों के संबन्धका ज्ञान जो नेत्रों द्वारा नहीं होता बनाना है कि श्रतज्ञान अनुमानज्ञानपूर्वक हुआ करता है है वह अनुमान द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार 'रूया कारण कि अनुमान ज्ञानका ही अपर नाम प्राभिबोधिक रसादि वस्तुके अंश या धर्म है' इस प्रकारके वाक्यको सुन ज्ञान है। दूसरा पद हमें यह बतलाता है कि चूंकि इसमें कर जो हमें शब्दार्थ ज्ञानरूपश्रुतज्ञान द्वारा 'रूप था रसादि शब्द कार सा पड़ता है इस लिये इसे श्रतज्ञान कहते हैं। वस्तुके अंश हैं' इस प्रकारका अवयवावयवी भावसंबन्ध. इस पर विशेष विचार स्वतंत्र लेख द्वारा ही किया जा ज्ञान हुमा करता है वह भी प्रमाणरूप ही समझना सकता है। चाहिये, नया नहीं। इस विषयको भागे और भी स्पष्ट शंका---पराश्रुतमें पद, वाक्य और महावाक्यका किया जायगा। भेद करके औ वाक्य और महावाक्यको प्रमाण तथा इनके शंका--गोम्मटमार जीवाडमें बतलाये गये श्रुतज्ञान भवभवभून पद, वाक्य और महावाक्यको नय स्वीकार के 'श्रर्थसे अर्थान्तर' का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है' इस किया गया है। प्रमाण श्रीर नयी यह व्यवस्था "पानी लक्षणमें अनुमानका भी समावेश हो जाता है, इम लानी" इत्यादि लौकिक वाक्यों व महावाक्योंमें भले ही लिये शुतज्ञानमे भिन्न अनुमान प्रमाणको माननेकी संघटित कर दी जावे लेकिन इसका लोक-व्यवहारमें कोई श्रावश्यकता नहीं है। स्वाम प्रयोजन नहीं माना जा सकता है। माप ही वस्तु के स्वरूप-निर्णयमें यह व्यवस्थावातक होसकती है। जैसे वक्ता समाधान-हम पहिले बतला आये हैं कि शब्द केसमचे अभिप्रायको प्रकट करने वाला वाक्य यदि प्रमाण श्रवणपूर्वक हमें जो अर्थज्ञान होता है वह श्रुत कहलाता मान लिया जाय तो वौद्धोंका "वस्तु क्षणिक है" यह वाक्य है, अनुमानसे जो अर्थज्ञान हमें हुश्रा करता है उसमें शब्द अथवा नैयायिकोंका "वस्तु नित्य " यह वाक्य प्रमाण श्रवणको नियमित कारण नहीं माना गया है। पर्वतमें धुआंको देख का जो हमें अग्निका ज्ञान हो जाया करता है कोटिमें भाजायगा, जोकि प्रयुक्त है; कारगा कि जैनमान्यता के अनुसार वस्तु न तो केवल नित्य है और न केवल वह विना शब्दोंके सुने ही हो जाया करता है। दूसरी बात अनित्य ही बल्कि उभयात्मक। यही सबब कि जैनयह है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान-पूर्वक होना है । इसका अर्थ मान्यताके अनुसार वस्तुकं एक एक अंशका प्रतिपादन करने यह है कि वक्ताके मुखसे निकले हुए वचनोंको सुन कर वाले ये दोनों वारय नय-वाक्य माने गये हैं। श्रोता पहिले वचन और अर्थ में विद्यमान वाच्य वाचक संबन्धका ज्ञान अनुमान द्वारा करता है तब कहीं जाकर समाधान-जब नयको प्रमाणका अंश माना गया है शब्दसे श्रोताको अर्थज्ञान होता है यदि श्रोताको 'इस शब्द तो वचनरूप पार्थ प्रमायाका भी अंश हीनयको मानना का यह अर्थ है' इस प्रकारके वाच्य वाचक संबन्धका ज्ञान होगा, वचनरूप परार्थ प्रमाण वाक्य और महावाक्य ही नहीं होगा तो उसे शब्दोंके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है हो सकता है यह पहिले बतलाया जा चुका है. इस लिये इस लिये अनुमान-पूर्वक श्रुतज्ञान होता है--ऐसा मानना पवाक्त प्रकार वाक्य और महावाक्यकेशभूत पद, वाक्य ठीक है, अनुमान और अतज्ञानको एक मानना ठीक नहीं। ३ मनि:स्मृति: संजाचा भनियो त्यनन्तरम" इस गोम्मटसार जीवकोंडमें जो श्रुतज्ञानका लक्षणा बतलाने सत्रमें अनुमान ज्ञानको ही श्राभिनिबोध संज्ञा दी गई है। .वाली गाथा है उसके दो पद महत्वपूर्ण हैं।"श्राभिणियो ४तत्वार्थसत्र और गोम्मटमार जीवकोंडमें जो श्रुतज्ञानके हियपुग्वं" और "सहर्ज"। इनमेंसे पहिला पद हमें यह भेद बतलाये गये हैं उनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। १ "अत्यादी अत्यंतरमुवलंभंतं भणं ति सुदणाणं ।" "श्रुतं मतिपूर्व द्रुयनेकद्वादशभेदम्" न. अ. १ सूत्र २० -जीवकाँड, गाथा ३१४ "पजायक्रखरपद संघादंपडित्तियाणिजे गं च । २"श्राभिण्विोहिय पुवं णियमेणि ह मद्दनं पहुम" दुगवारपाहुई चय पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ।।३१६॥" __ जीवकांड, गाथा ३१४ ( उत्तरार्ध) -गोम्मटमार जीवकांड Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त [ वर्ष ६ प्रधानतासे वर्णन करना जरूरी होता है उसी धर्मके प्रतिपादक वाक्यका प्रयोग जैनी लोग व्यवहार में भी किया करते हैं लेकिन जैनधर्मके ग्रन्थोंमें या जैनियों द्वारा लोक व्यवहार में प्रयुक्त इन वाक्योंको भी यदि ये अलग-थलग प्रयुक्त किये गये हैं---तो प्रमाण वाक्य ही कहा जायगा, नयवाक्य नहीं; कारण कि इन वाक्यों द्वारा एक धममुखेन वस्तुका ही प्रतिपादन होता है । जिस प्रकार नेत्रों द्वारा रूपमुखेन वस्तुका ही बोध होने की वजहसे उसज्ञानको प्रमाण माना गया है उसी प्रकार इन वाक्यों द्वारा एक धर्ममुखेन वस्तुका ही प्रतिपादन होने की वजहसे उन्हें भी प्रमाण-वाक्य ही मानना ठीक है नयवाक्य मानना ठीक नहीं हैं । लेकिन जहाँ पर ये दोनों वाक्य 'वस्तु नित्य है और अनित्य है, इस प्रकार मिलाकर प्रयुक्त किये जाते हैं वहांपर दोनों वाक्योंका समुदाय भी प्रमाण- वाक्य है क्योंकि वह विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करना है और उसके श्रवयव भूत दोनों वाक्य नवरूत कहे जायेंगे क्योंकि वहां पर उनसे विवक्षित श्रथंके एक अंशंका ही प्रतिपादन होता है । यह है कि 'वस्तु क्षणिक है' और 'वस्तु निष्य है' इन दोनों वाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग करने पर यदि ये वाक्य एक धर्ममुखेन वस्तुका प्रतिपादन करते हैं तो प्रमाणवाक्य माने जायेंगे। यदि इस एक धर्मको वस्तुका एक अंश न मानकर तन्मात्र ही वस्तु मानली जाती है और फिर इन वाक्योंका प्रयोग किया जाता है तो यह दोनों वाक्य प्रमाणाभास माने जावेंगे। यदि इन दोनों वाक्योंका संमिलित प्रयोग किया जाता है और संमिलित होकर प्रयुक्त ये दोनों वाक्य सही अर्थका प्रतिपादन करते हैं तो ये वाक्य मय मानेज विंगे। यदि संमिलित होकर भी ये दोनों वाक्य गलत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं तो नयाभास कहे जायेंगे। जैसे "द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है और पर्याप दृष्टिसे वस्तु नित्य है. यह तो नय है और पर्याय दृष्टिले वस्तु निष्य है तथा द्रव्यदृष्टिसे वस्तु अनित्य है, " यह नयाभास माना जायगा । इसलिये परार्थश्रुतका विवेचन करते समय विवचित अर्थका प्रतिपादन करने वाले वाक्य और महावाक्यको प्रमाण और विवचित अर्थके एक अंशका प्रतिपादन करने वाले, वाक्य और महावाक्यके अंगभूत पद वाश्य और महावाक्यको नय मानकर जो इनका समन्वय और महावाक्य को ही नय मानना ठीक है। लोक-व्यवहार में इसकी उपयोगिता स्पष्ट है क्यों कि पदार्थज्ञान ही से हम वाक्यार्थज्ञान कह सकते हैं और वाक्यार्थज्ञान हमें महावाक्य के अर्थज्ञान में सहायक होता है । वस्तु क्षणिक है" "वस्तु नित्य है" इन वाक्यों परार्थप्रमाया मानने पर जो आपत्ति उपस्थित की गयी है वह ठीक नहीं है; क्योिं जब वक्ता विवचित अर्थको प्रगट करने वाला वचन प्रमाण और वाकं विवक्षित अर्थके एक अंशको प्रगट करने वाला वचन नय मान लिया गया है तो इन वाक्योंका प्रयोग करने वाले बौद्ध और नैयायिकके विवक्षित अर्थको पूर्णरूप से प्रतिपादन करनेवाले ये वाक्य प्रमाण ही माने जायेंगे; नय नहीं माने जा सकते हैं; कारण बौद्ध और नैयायिक वस्तुको क्रमसे क्षणिक और नित्य ही मानते हैं। बौद्धों की दृष्ट वस्तुकं स्वरूपमें नित्यस्व और नैयायिकों दृष्टिमें वस्तुके स्व रूपमें दणिश्व शामिल नहीं है । इस लिये 'वस्तु क्षणिक है' इस व. क्यसे प्रतिपादित क्षणिकत्व बौद्धों का विवक्षित अर्थ है, विवक्षित अर्थका एक अंश नहीं, यही बात नैयायिकों के विषय में समझना चाहिये। इन वाक्यों को नयाभाम भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 'जो वस्तु का अंश नहीं हो सकता है उसको वस्तुका श्रंश मानना' ही नयागाम है; लेकिन नयाभास का यह लक्षण यहां घटित नहीं होता है क्योंकि यहां तो क्षणिकत्व अथवा नित्यत्व जो वस्तुके अंश हैं उन्हें पूर्ण वस्तु ही मान लिया गया है अर्थात् यहां पर अंशमें अनंशकी कल्पना है. अनंश में अंशकी नहीं । इसलिये बौद्ध और नैयायिकों की दृष्टि में क्रम से ये दोनों वाक्य प्रमाण वाक्य ही है, नयवाक्य नहीं । जैन लोग इन लोगोंकी इस दृष्टिको गलत कहते हैं, क्योंकि इन लोगोंने वस्तुके अंशभूत दकिरन या नित्यश्वको पूर्ण वस्तु ही मान लिया है इसलिये अंश में अंशीकी परिकल्पना होनेसे इसका प्रतिपादक वाक्य जैनियों की दृष्टि प्रमाणाभास दो कहा जायगा; नापर्य यह है कि यदि वस्तु केवलक्षणिक या केवल निश्य नहीं है तो केवल क्षणिकत्व या केवल नित्यस्वके प्रतिपादक वाक्य प्रमाण न होकर प्रमाणाभास तो माने जा सकते हैं। उनको नय अथवा नयाभास मानना ठीक नहीं है। जैनधर्म में भी 'वस्तु क्षणिक है,' या 'वस्तु नित्य हैं' ऐसे स्वतंत्र स्वतंत्र वाक्य पाये जाते हैं और जब जिस धर्मकी Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] नयोंका विश्लेषण १३१ किया गया है वह वस्तु व्यवस्थाके लिये घातक नहीं, बल्कि है हमें नेत्रोंमे होने वाले रूप विशिष्ट वस्तुके ज्ञान और अधिक उपयोगी है। रसनासे होने वाले सांवशिष्ट वस्तुके ज्ञानका समुदायरूप शंका- जिस प्रकार दो पदोंका समुदाय वाक्य से कभी भी अनुभव नहीं होता है । ये दोनों ज्ञान हमेशा औरदो वाक्योंका अथवा दो महावाक्योंका स्वतंत्र ही अनुभव गोचर होते हैं। इस लिये स्वार्थ प्रमाण समुदाय महावाक्य होता है और इनके अवयव स्वरूप मतिज्ञानादि चार ज्ञानों में नय-परिकल्पना किसी भी मानकर पद, वाक्य और महावाक्यों को नय-वाक्य मान हालतमें नहीं बन सकती है। इसलिये ये चारों ज्ञान प्रमाण लिया गया है उसी प्रकार दो ज्ञानोंके समुदायको एक रूप ही हैं। केवल भूगज्ञान में ही पूर्वोक्त प्रकारसे प्रमाण और महा ज्ञान मानकर उसके अंशभूत एक २ ज्ञानको नय नयका भेद हो सकता है। सर्वार्थसिद्धिग्रथमें "प्रमाणनज्ञान भी माना जा सकता है, इसलिये स्वार्थ प्रमाण स्वरूप मैधिगमः" सूत्रकी व्याख्या करते समय लिखी गयीमतिज्ञानादिक में भी नयकल्पना मानना चाहिये। "प्रमाणंदि विधं स्वार्थ पराथं च तत्र स्वाथ प्रमाणं श्रुतसमाधान-जिस तरह दो श्रादि पदों अथवा दोश्रादि वर्ण्यम्, श्रुतं पुनः स्वाथ भवति पराथं च। ज्ञानात्मक स्वार्थ वाक्यों या दो आदि महावाक्योंका समुदाय अनुभवगम्य वचनात्मकं परार्थम् तद्धकल्पा नया: इन पक्तियोंका यही है उस प्रकार दो आदि ज्ञानोंका समुदाय अनुभव गम्य नहीं अभिप्राय है। * धार्मिक पुस्तकोंके मिलनेका अभाव होते जानेपर भी-* (१)भविष्यदत्तमंट १०॥%)का८), (२)चन्दन वालासेट ६)का ४) । (३)सत्यमार्ग सेट-)|का ६॥ सुरसुन्दरी नाटक सती चन्दनबाला सत्यमार्ग नीनजिनवाणी संग्रह सत्यघोषनाटक जिननाणीसंग्रह भविष्यदत्तच ग्त्र रत्नमाला रत्नकरंडश्रावकाचार द्रव्यसंग्रह . धन्यकुमारचरित्र अंजन सुन्दरीनाटक नित्यनियमपूजा भाषा समन्तभद्रचरित्र प!षणपर्व व्रतकथा ऋषभदेवकी उ. सूत्रभक्तामर १० पु. भादौं जैन पूजा जैनधर्मसिद्धान्त किशन-भजनावली २ निनवाण गुटके विशाल जैनसंघ चाँदन गांव-कीर्तन " हितेषी गायन श्रात्मकमनोविज्ञान +बारहमासा अनन्नमनी जैनभ जनसंग्रह अतिशयजैनपूजा दीपमालिकापून अनन्तमती-चीग्त्रि चारचित्र हस्तिनागपुर-महात्म्य -) रत्नकरण्डश्रावकाचार रायबनकथा बड़ी * सम्मेदशिखरपूजा बही - महस्रनाम भापाटीका विनती विनोद 10) ========Veta DI * * श्री वीर जैन पुस्तकालय, १०४ वो नई मंडी मुजप्रफरनगर (यू०पी०) नोट-०१सेट दस रुपये ग्यारह आनका पाठ रुपयेमें । नं.२ सेट सवालह रुपयेका पौने पाँच रुपये में। नं. ३ सेट आठ रुपये साढ़े पाँच अानेका सषा छह रुपयेमें । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म पर अजैन विद्वान् वैदिक धर्म और जैन धर्म (श्री महर्षि राधास्वामी शिवव्रतलाल वर्मन, एम० ए०, एल०-एल० बी०) बैदिक धर्म अपौरषस्य कहलाता है। जैनधर्म पौरषस्य इसलिए यह नया नहीं हो सकता। हां ! पशुवध जब देश धर्म है। वैदिकधर्मावलम्बियोंका दावा है कि उनका धर्म में अधिकताके साथ होने लगा उस समय यह उसके विरोधी किसी खास पुरुषकी शिक्षाओं पर निर्भर नहीं है । इसके हो गये और जीव दया पालने पर विशेष जोर देने लगे। अतिरिक्त जैन धर्म पौरषस्य होते हुये तीर्थरीकी शिक्षाओं उस समयसे जैनधर्मको यह नया रूप दिया गण और के प्राधार पर है। वैदिक धर्ममें बहुत बड़ी गपलचौथ है। गोमांस किम्वा अन्य मांस न खानेकी प्रथा उसका मुख्य यह गपलचौथ जैनियों में नहीं है। उनके यहाँ जो बात है चिन्ह बन गई। स्पष्ट है। वैदिक धर्म वाले वेदोंकी अपौरषस्य हैसियत पर कायम नहीं रहे। अन्त में उन्हें जैनधर्मवालोंकी तरह श्रादर्श वैदिक धर्म वाले मदैवमे मांस भक्षक थे पुरुषों के चरित्रको अपनी टिके सामने रखकर काम करनेकी जहाँ तक हिन्दू जातिके सग्रन्याम रम्बन्ध है यह और अपने जीवनको सधारनेकीपावश्यकता प्रतीत हुई। प्राचीन समयसे मांस भक्षण करने वाले पाये जाते हैं। चाहे वे लाख वेदाभिमानी हों उन्हें जैनियोंकी नकल करनी इनके यहाँ नरमेघ, अश्वमेघ, गोमेघ श्रादि यज्ञ करनेकी पदी जैसाकि व्यासजीके इस श्लोकमे स्पष्ट है प्रथा जारी थी जिससे इनके ग्रन्थ भरे पड़े हैं। यहां तक श्रतयो विभिना स्मृतयो विभिन्ना, कि रामायण महाभारत और स्मृतियों तकमें कहीं इसका नसोः मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम् । निषेध नहीं पाया जाता। हिन्दू नर मौंस भक्षक थे या धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां, नहीं इस पर सम्मति प्रकट करना कठिन काम है। फिर भी महाजनो येन गता स पन्थाः ॥ अब तक हिन्दुओंमें ऐसे लोग पाये जाते हैं जिनमें इसके गौरवका गीत गाया जाना है। उदाहरणकी रीतिसे अघोर इसका अर्थ यह है:-धति स्मृति और ऋषियों के पन्थ और शाक्तिक मतके वाममार्गकी और दृष्टि डालो। शाक्तिकधर्ममें नर माँस महाप्रसाद कहलाता है और अघोरी अति गूढ रहस्य है। इसलिए जिस पर बड़े लोग चलते तो अब तक जलती हुई श्मशानोंक इर्द गिर्द चक्कर लगाते हैं वही पन्थ है। रहते हैं कि कहीं कश्या या पक्का नर मांस उनके हाथ मा जाय । बाल्मीकीय रामायण में एक जगह वर्णन किया गया _ जनमतकी प्राचीनता है कि जब भरतजी श्रीरामचन्द्रजीकी खोज में चित्रकूट जाने हमारा यह विचार था कि वैदिक धर्म बहुत पुराना लगे तो उनके भोजनके लिए भारद्वाज ऋषिने बछड़ा धर्म है और सबसे पुराना है। अपने पहले लेखोंमें हमने जिबह किया था। इससे अधिक और क्या प्रमाण दिया जा कई बार ऐसा भाव प्रकट भी किया है, परन्तु सोचने सम- सकता है ? अब गोमांस का निषेध है, परन्तु हिन्दुओं में झनेसे अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जैनियोंका मत वेदों . कोई जाति ऐसी नहीं मिलेगी जो मांसाहारी न हो और के मतसे कहीं पुराना है। पहिले हमारा विचार यह था कि न किसी वर्ग के पुरुष इसके विरोधी हैं । जैनियोंकी अवस्था वैदिक धर्मानुयायी यनोंमें पशु बध करते थे। जैनी उसके इसके विरुद्ध है और शायद सारी दुनियामें जैन ही एक विरोधी बने परन्तु अब वह भाव नहीं रहा। जैनधर्म ऐसा सम्प्रदाय है जो हर प्रकारके मांसको निषिध समझता अहिंसाका मार्ग है, प्रेमका मार्ग है और दयाका मार्ग है। है। . (क्रमशः) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-चरित्र - (ले०-या. भाईदयाल जैन बी० ए०, श्रानर्स बी०टी०) - प्रसिद्ध अंगरेज लेखक कारलाइलका कथन है कि रिक्त जीवनचरित्रोंके अध्ययनसे हम अपने इस मनुष्यको मनुष्य जातिमें बहुत बड़ी दिलचस्पी है। जीवनको सुन्दर तथा सफलरूपसे व्यतीत करनेकी यही कारण है कि हम दूसरे आदमियों-प्रायः महा- कजाको सीखते हैं तथा अपने मनोंको संस्कृत और पुरुषों के जीवन-चरित्रों, आत्म-कथाओं, डायरियों, चरित्रको दृढ़ करते हैं । जीवनचरित्रोंका अध्ययन संस्मरणों और अनुभवोंको बड़ी दिलचस्पीसे पढ़ते साहित्यिक आनंद (Literary Pleasure) देता हैं। मनुष्य स्वभावसे उत्सुक, गुप्त बातोंको जाननेका है। जीवनचरित्र महापुरुषोंके जीवनोंकी स्मृतियोंको इच्छुक और नकल करने वाला होता है। इस लिये ताजा करते हैं और हमें उनकी साक्षात् संगतिका लाभ मनुष्य दूमरोंके जीवनचरित्र आदि पढ़कर उनके प्रदान करते हैं। जिन महापुरुषोंने अपने कामोंसे अनुभव, गुप्त बातें, तथा दुख-सुम्ब आदिकी बातें हतिहासपर छाप लगाई है. इतिहासके प्रवाहको बदल जानना चाहता है और उसके अच्छे कामोंकी नकल दिया है, संसारको बड़े बड़े दर्शन, महान् विचार, करना चाहता है। सभी आदमियों के जीवनोंकी बड़ी बड़े बड़े आविष्कार और महान् आन्दोलन दिये हैं, बड़ी बातें समान-सी होती हैं, परन्तु भेद यह होता जीवनचरित्रोंसे उनके व्यक्तित्वका पता लगता है। है कि एक आदमी एक परिस्थितिमें एक प्रकारसे काम जीवनचरित्रोंकी व्यावहारिक उपयोगिता यह है कि करता है और दूसरा आदमी और तरहसे । यह भेद उनके अध्ययनसे हमें शान्ति मिलती है, हमारी सहाही एक आदमीको सफल तथा महान बनाता है और नुभूतिका क्षेत्र बढ़ता है, हमारा स्वार्थभाव दूर होता दूसरंको असफल और छोटा बनाता है। इसी लिए है, हमें प्रोत्साहन तथा सच्चा मार्ग मिलता है और भिन्न भिन्न लोगोंकी आवश्यकताओंको पूरा करनके उनके उच्चादोंसे हमारे हृदयों में महत्वाकांक्षाएँ पैदा लिए सभी क्षेत्रों के महापुरुषों के बहुतसे जीवनचरित्र होती हैं।.. होने चाहिये। इसी लिये जीवनचरित्र साहित्यका एक बड़ा अंग जीवनचरित्रोंके उपयोग और महत्वको एक कवि है। इतिहासमें देशों, राष्ट्रों और जनसमूहके आन्दोने बड़ी सुन्दरताके साथ इस पयामें कह दिया है लनोंका वर्णन तथा उनके क्रमिक (Gradual) उत्थान या पतनक ज़िकर होता है, परन्तु जीवनLives of grent men all remind us, चरित्रमें एक आदमीकी जीवनसे मृत्यु तककी कहानी We can make our lives sublime, होती है और उसमें दूसरे आदमियोंका उल्लेखAnddeprrtng leave behind us, चाहे वे आदमी कितने ही बड़े क्यों न हों-गौणरूप Footprints on the sands of time. से पाता है। पुराने जीवनचरित्रों में लेख्कोंने अपने ___ भावार्थ यही है कि महापुरुओंके जीवनचरित्र चरित्रनायकों ( Heroes ) की प्रतिष्ठा तथा कीर्ति हमें यह बात सिखाते हैं कि हम भी अपने जीवनोंको का गाना गाया है और उनको देवताओंके रूप महान् बना सकते हैं और मरते समय अपना नाम संसारके सामने पेश किया है। प्रत्यक्ष उपदेश उनमें छोड़ सकते हैं। देशभक्त जार्ज बाशिंगटनके जीवन- ठूसठूसकर भगहोता है। बुरे आदमियोंको महा• चरित्रको पढ़कर ही अब्राहम लिंकन देशभक्त बन राक्षस, महापतित और अधम चित्रित किया है। उन गया। महात्मा गांधी पर भी रायचन्द्रजी और टाल- में चरित्रनायककी परिस्थिति और उसके क्रमिक स्टायके जीवनोंका बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसके अति- विकासका बिल्कुल पता नहीं मिलता । चमत्कारों, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त [वर्षे ६ ऋद्धियों और इमी प्रकारकी बातोंका इतना संग्रह कर रियाँ, खर्च बही जीवनचरित्रोंका स्थान नहीं ले सकते, दिया जाता है कि पढ़नेवालेके हृदयमें यह भाव पैदा पर इनका संग्रह होना आवश्यक है। हो जाता है कि यह किसी आदमीका जीवनचरित्र जीवनचरित्र-लेखकमें भी कुछ आवश्यक गुण होने नहीं है बल्कि किसी अलौफिक और अद्भुत व्यक्तिका चाहिएँ,जैसे अपने चरित्रनायकमें बड़ी श्रद्धा,सत्यप्रेम, जीवनचरित्र है और वह समझने लगता है कि ये धुन, निर्भयतापूर्वक गहरा देखनेको शक्ति, धैर्य, खोज बातें उसकी पहुँचसे परे हैं। इस लिये इस प्रकारके उचित सामग्री चुनने और छोड़नेको शक्ति (Power जीवनचरित्र आजकल कम पसन्द किये जाते हैं और of Selection and Omision) और अनुरूप उनसे पढ़नेवालेकी उत्सुकताको संतोष नहीं मिलता। (Proportion) के साथ लिखनेकी आदत होनी वतमान कालमें जीवनचरित्रकी श्रेष्ठता इसी बातमें चाहिए। जीवन-चरित्र लिखना भी कविता लिखने के मानी जाती है कि वह किसी आदमीका सच्चा चित्र समान है और जैसे अच्छे कवि पैदायशी होते हैं वैसे हो और उससे उस आदमीकी परिस्थितियोंका पूरा ही अच्छे चरित्र-लेखक भी पैदायिशी होते हैं। एक पता लग जाय; क्योंकि परिस्थितियों (Enviornm• सफल चरित्र लेखक देशकी बड़ी सेवा करता है। वह ents) के ज्ञानके बिना चरित्र-नायकके गुणों या एक मृत महापुरुषको दुबारा बनाकर जनताके सामने दुगुणोंका तुलनात्मक पता नहीं लग सकता । जीवन- पेश करता है। वर्तमान शैलीकी जीवन-चरित्रलेखनचरित्रमें चरित्रनायकके जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली कला अभी अपनी प्रारम्भ अवस्थामें ही है। युरूप समस्याओंका हल होना चाहिये । वर्णनात्मक जीवन- और अमेरिका में जीवन-चरित्रोंका इतना प्रचार है चरित्रसे आलोचनात्मक जीवनचरित्र अच्छा माना कि वहाँ सभी क्षेत्रोंके बड़े बड़े आदमियों के बहुतसे जाता है। जीवनचरित्रमें सचाई कितनी होनी चाहिए जीवन-चरित्र मिलते हैं तथा भिन्न २ हष्टकोणोंसे इसके बारेमें फ्रान्सके प्रसिद्ध विचारक तथा वौल टेयर लिखे हुए एक आदमी के कई चरित्र मिलते हैं। उनके (Voltair) का यह वाक्य याद रखना चाहिए। पत्र और शायरियाँ तक छपती हैं। लेखकोंकी तमाम "We owe consideration to the living, रचनाओंके संग्रह निकाले जाते हैं। बड़े श्रादमियोंसे tothe dead we owe truth only" अर्थात् सम्बन्ध रखने वाली सामग्री इकट्ठी की जाता है। एक जीवित आदमियोंका हमें आदर और लिहाज करना एक जीवन-चरित्रकी सहस्रों प्रातयाँ चन्द दिनोंमें चाहिये, परन्तु मृत आदमियोंके लिए हमें सच्चाई बिक जाती हैं। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा का प्राशय नंगापन नहीं है। कि जर्मन डिक्टेटर हिटलरके एक अंग्रेजी जीवनजीवनचरित्रोंसे भी अधिक लाभदायक आत्म- चरित्रकी चालीस हजार प्रतियाँ चार वर्ष में बिक गई चरित्र (autobiography) होता है। परन्तु प्रात्म- और इंगलैण्डके भूतपूर्व सम्राट एडवर्ड अष्टमके एक चरित्रका लिखना कठिन है और विरले ही आदमी ही जीवन-चरित्रके आठ संस्करण तीन महीने में छप आत्मचरित्र सफलरुपसे लिख सकते हैं। बड़े पाद- गए। वहाँ छोटे बड़े सस्ते तथा राज संस्करण निकल मियों के लिखे पत्र तथा उनके पास आए हुए पत्र भी जाते हैं। इसीमें उन देशोंकी उन्नतिका रहस्य है। हमें उनके गरेमें बहुत सी बातें बता सकते हैं। इस भारतवर्ष में जीवन-चरित्रोंकी दशा संतोषजनक लिये पत्रोंके संग्रह भी प्रकाशित होने चाहिये । व्य- नहीं है। पिछले वर्षों में महात्मा गाँधी और पंडित क्तिगत डायरियाँ भी कम उपयोगी नहीं होती । एक जवाहरलाल नेहरूके प्रात्म-चरित्रोंकी गूंज रही है लेखकका तो यह कथन है कि वह किसी आदमीका और निःसंदेह वे महान् कृतियां हैं। पुराणों और चरित्र ( character ) उसकी आमद और खर्च कथाओंकी शक्लमें पुराने जीवन-चरित्र मिलते हैं। की बहीको देखकर बता सकता है। परन्तु पत्र, शय-. गोस्वामी तुलसी-कृत रामायण जनताका सबसे प्यारा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] जीवन-चरित्र १३५ - जीवन-चरित्र है। परन्तु प्रायः आत्म-चरित्र लिखने समंतभद्र' एक उच्चकोटिकी रचना है। अन्य प्राचार्यों का रिवाज न था। अपने बारेमें सभी चुप हैं । बड़े २ केजीवन-चरित्र भी उसी ढंगसे तय्यार होने चाहिएँ । राजाओं और विद्वानोंका हाल मिलना कठिन हो रहा कितने दुखकी बात है कि भगवान महावीर तकका है। शिक्षाका अभाव होनेसे जीवन-चरित्रोंकी बिक्री भी कोई प्रामाणिक पूरा जीवन-चरित्र नहीं है। जब भी कम होती है। फिर एक महापुरुषके कई जीवन- समाजके सामने कोई आदर्श ही नहीं है, तब उन्नति चरित्र कैसे हों अंग्रेजीमें छियासठ भागों में "Dic- कैसे हो सकती है? वर्तमानके बड़े आदमियों में सेठ tionary of National Biography" 'राष्ट्रीय माणिकचंदजी, सर मेठ हुकमचन्दजी तथा प्रसिद्ध जीवन-चरित्र-कोष' है। भारतवर्षमें अभी इसकी जैन प्रकाशक देवेन्द्रकुमारजीके चरित्र लिखे गये हैं। तरफ किसीका ध्यान भी नहीं। महापुरुषों के जीवन पर खेदका विषय है कि जीवन-चरित्र सम्बन्धी साहिचरित्र सम्बन्धी सामग्री संग्रह होनी चाहिए। त्यकी बिक्री बिलकुल नहीं है। क्या जैन समाज जैन समाजके जीवन-चरित्र सम्बंधी साहित्यके साहित्य सम्बंधी अपनी इस कमीको पूरा करनेकी बारेमें दो बातें लिखकर मैं इस लेखको समाप्त तरफ ध्यान देगा? करना चाहता हूँ। जैन समाज के पुराण और जीवन नोट-इस निबन्धक लिखने में ऐस्क्विथके निबन्ध (Biogचरित्रोंका पुराना साहित्य काफी है। परन्तु नवीन ढंग raphy) वैनमन लिखित निबन्ध (Artof Biogसे लिखा हुआ साहित्य नहींके बरावर है । तीर्थंकरों, raphy ) और इन्साइक्लो पीडिना ब्रिटेनी कासे सहायता आचार्यों, जेन लेखकों, कवियों, सम्राटों, महापुरुषों ली गई है इसके लिये लेखक उन सबका श्राभारी है। और प्रसिद्ध खियोंके जीवन-चरित्र प्रायः नहीं मिलते। पंडित जुगल किशोरजी मुख्तारका लिखा हुआ 'स्वामी प्रयाण जीवन पट यह बिखर रहा है। सन्तु जान सब सीख हो गया, सारा स्तम्भक तत्व खो गया, पल भर भी रहना अब इसमें भगवन् ! मुमको अखर रहा है। सम्मोहन की मधुमय हाला, पी पी कर मैं था मतवाला, नशा माज उतरा है अब तो, जीवन मेरा निखर रहा है। मृत्यु-लहर पर खेल रहा मैं; सब विषदाएँ मेख रहा मैं अन्तईन्द मचा प्राणों में, यह समीर मन मथित रहा है। (५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेड़-पौधोंके सम्बन्धमें जैनमान्यताओंकी वैज्ञानिकता ( लेखक - पं० चैनसुखदास जैन, न्यायतीथे ) >>> जैन मान्यताएँ अधिकाधिक वैज्ञानिक है, यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं होना । श्रनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय के द्वारा अगर इन मान्यतानोंकी गहराई में हम प्रवेश करें तो हमें ज्ञात होगा कि ये वर्तमान भौतिक विज्ञानवाद के द्वारा भी समर्थित हैं । परोक्ष नश्वके खण्डन में हम कभीकभी बहुत अधीरता से काम लेते है; किन्तु कई बार देखा गया है कि जिस बातको इमने असम्भव समझकर असत्य कह डाला है वही सतत चिन्तनके द्वारा बादको हमारी ठीक समझमें श्रागई है। कोई बात समझ में नहीं श्रानेपर यदि उसका सामंजस्य बैठानेके लिये हम अपने विवेकका उचित उपयोग करें तो बहुत बार हमें अपने इस प्रयत्म में सफलता मिलना भी सम्भव है । अभी थोड़े दिनों पहले मैं विगत अगस्त मासका 'विज्ञान' देख रहा था । उसमें 'पेड़-पौधोंकी अचरज भरी दुनिया' नामक लेख पढ़ने में श्राया था । उस लेखके पढ़ने से मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि वनस्पति- जीवोंके संबंध में जो जैन-शास्त्रों की मान्यता है उसे वर्तमान भौतिक विज्ञानद्वारा भी समर्थन प्राप्त होसकता है। जैनोंने जिस तरह यह माना है कि यह सारा लोक साधारण वनस्पति से भरा पड़ा है। साधारण बनस्पति अदृश्य है और मनुष्य, पशु, पक्षी कीड़ेमकोड़े, पेड़ आदि सभी प्राणियों में इस साधारण वनस्पति का निवास स्थान है, उसी तरह बर्तमान भौतिक विज्ञान भी मानता है कि पौधे अर्थात् बनस्पतियोंसे सभी जगत् व्यास है । इस विषयपर गहराई से विचार करनेके लिये उक्त लेखका निम्न लिखित अंश ध्यान देने योग्य है " " वनस्पति संसारके कुछ अति सूक्ष्म सदस्य - जो कोरी आँखोंके लिए अदृश्य रहते है और केवल सूक्ष्मदर्शक में हीं दिखलायी पड़ते हैं और जिन्हें लोग भूल से कीटाणु कहते हैं—हम में रोग उत्पन्न करते है और हमारी जान तक ले लेते हैं। एक प्रकारकी अतिसूक्ष्म वनस्पति जब हमारे पेटोंमें पहुँच जाती है तो श्राहार पचनेके बदले फफदने लगता है। एक दूसरे प्रकारको वनस्पति जब हमारी त्वचा पर उगने लगती है तो दाद नामक त्वचा रोग उत्पन्न होता है। दहीका जमना, पटसनका सड़ना, जलेबी या पाव रोटी के लिए आटे में खमीर उठना, ये सब क्रियाएँ अतिसूक्ष्म निम्न श्रेणी के पौधों से होती है। बैक्टीरिया अर्थात् दण्डाणु, शैवाल ( सेवार) फफूंदी और काई आदि सभी एक प्रकारके पौधे हैं। दण्डाणु एक प्रकारके बहुत सूक्ष्म जन्तु है, ये प्राणियों के शरीर में रहते हैं। दवायें, मिट्टी में, जलमें और वस्तुतः सभी पदार्थोंमें ये रहते हैं । सूक्ष्मदर्शक यन्त्रसे दीख जाते हैं; पर वैज्ञानिकों का खयाल है कि ऐसे दण्डाणु भी हो सकते हैं जो कि से अधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भी न देखे जा सकें । ये दण्डाणु दो तरह के होते है पोषक और दानिकारक । जो मनुष्य शरीर के लिए उपयोगी हैं वे पोषक, और बाकी सब हानिकारक हैं । ये ही रोगाणु कहलाते हैं। ये ही क्षय, न्यूमोनिया, टाइफाइड, दाद, उपदंश आदि रोगों को उत्पन्न करते हैं। विज्ञान मानता है कि ये एक प्रकार के पौधे अर्थात् बनस्पति हैं ।" जैनोंने जैसे प्रत्येक वनस्पति में भी साधारण वनस्पतिका निवास माना है। इसी तरह विज्ञान भी कहता है कि वृक्षो और लताओ में भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पौधे रहते हैं । देखिए ""जब हम अपनी वाटिकाओं में फल-फूल उत्पन्न करते हैं या खेतों में अनाज उगाते हैं तो कभी कभी बनस्पति संसारके कुछ निम्न श्रेणी वाले श्रतिसूक्ष्म सदस्य हमारे पेड़-पौधोंपर पराश्रयीकी तरह था बसते हैं।.... वैज्ञानिकोंने जो पौधों की शेवाल, फुफूदी, लिवरवर्ट, काई, फर्न, नातवजी और पुष्पद ये सात जातियां मनी हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन करनेकी यहाँ श्रावश्यकता नहीं है । पर यह कहने में कोई हानि नहीं है कि अभी इस वर्गी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अनेकान्त [वर्ष६ करणमें खोजकी और भी गुंजायश है । जैन शास्त्रोंमें प्रत्येक ताके बहुत नजदीक । मेरे सामने यह प्रश्न कई बार वनस्पनिकी जाति-संख्या दस लाख मानी है, वैस वंशानको श्राया ।क जैन इन सूक्ष्मानिसूक्ष्म निगोद जीवोंको बनस्पात ने भी अनुमान किया है कि वर्तमानमें पौधोंकी जातियोंकी नामसे क्यों व्यवहृत करते है किन्तु इसका कोई समुचित गिनती सवा दो लाखसे कम नहीं होगी। उत्तर मुझे न सूझा पर इस लेखको पढ़कर कई भी इस इन पंक्तियोंक पढ़नेमे दम अच्छी तरह समझ सकते प्रमका यह उत्तर दे सकता है कि ये एक प्रकारके पौधे हैं हैं ।क बनसनिक संबंध जैन मान्यना वैज्ञानिकोंकी मान्य- इसलिए इन्हें वनस्पात कहते हैं। 'अनेकान्तं का पागामी अंक "जुगल किशोर मुख्तार सम्मान समारोह मङ्क' होगा अनेकान्त के पटकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि श्रद्धेय मुख्तार साहब के प्रबल विरोध के बावजूद अनेकान्त के संचालकोंने यह निर्णय किया है कि अनेकान्त का दिसम्बर का अंक "जुगलकिशोर मुख्तार सम्मान समारोह अंक" होगा। इस अंक में, ५ दिमम्बरको हानवाले 'जुगलकिशार मुख्तार सम्मान समारोह के विस्तृत समाचार, उनपर लिखे गये जैन अजैन विद्वानों के निबन्ध, देशके नेताओं और महापुरुपोंकी शुभ कामनायें और सन्देश, दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, पत्रोंकी मुख्तार साहब के सम्बन्ध में टिप्पणियों आदि साहित्य होगा। इम अंकका सम्पादन हिन्दीके लब्धप्रतिष्ठ लेखक, पत्रकार और जीवन परिचय (लाईफ स्कैच) कलाके माने हुए विशेषज्ञ श्री. कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' करेंगे। यह विशेषाङ्क मुख्तार साहबके शोधकार्यकी रेफरैम बुक होगी और इसके द्वारा हमारे पाठक मुख्तार साहचकी जीवनव्यापी साधनाकी एक विशेष झाँकी पा सकेंगे। इस अंकमें हम मुख्तार साहबके जीवनके कुछ निजी संस्मरण भी देना चाहते हैं। इसलिये मुख्तार साहबके मित्रोंसे प्रार्थना है कि वे उनके सम्बन्ध में अपने संस्मरण तुरन्त लिख भेजें। इस अंकको सफल बनाने में सहयोग देना हम मवका नैतिक कर्तव्य है। भाशा है हमारे माथी इधर ध्यान देंगे। कौशवप्रसाद जैन व्यवस्थापक RAKARKALARAKAKARAKAKAAREKARREAK-44 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " बुधजन सतसई पर एक दृष्टि " (लेखक माणिक्यचन्द्र जैन, बी० ए० रेनवाल ) ...... विदद्वये परिन्त भदीचन्द्रजी बज (बुधजन) का नाम जैन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है । आप अपने समय प्रगल्भ प्रतिभा सम्पन्न विद्वान एवं माननीय कवि और लेखक थे । आपकी शास्त्र बाँचने तथा शङ्का समाधान करनेकी शैली अत्यंत रोचक और निराली थी । आपकी कविता का विषय भव्य प्राणियोंको जैन सिद्धान्त समझाना तथा प्रवृत्ति मार्ग से हटाकर निवृत्ति मार्गपर लगाना है । आपके बनाए हुए चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं । १ तत्वार्थ बोध, २ बुधजन सतसई, ३ पंचास्तिकाय, ४ बुधजन विलास | बुधजन- सतसई की रचना सम्बत् १८७६ में हुई । रचनाकाल के सम्बन्ध में स्वयं कविने निम्न दाहा लिखा है । संवत् ठारा असी एक बरसतें घाट | जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, इवै सतसई पाठ ॥ सतमई पढ़ने के पूर्व मैं यह सोचता था कि इस सतमई में या तो विहारी सतसई की भांति श्रृङ्गार रस का निर्भर बह रहा होगा या वृन्द सतमई की तरह नीति के दोहोंकी भरमार होगी; पर मेरी धारणा असत्य निकली। इस सतसई में ४ प्रकरण हैं (१) देवानुरागशतक (२) सुभाषित नीति (३) उपदेशा-धिकार और (४) विरागभावना । मैं इस पुस्तकको सन्मय होकर पढ़गया । देवानुराग- शतक में कवि बुधजनजी महात्मा सूर और तुलसीके रूपमें दिख लाई दिए। इसमें तुलसीकी विनय पत्रिका और सूर की विनय वाणीके धन्दोंकी झलक दिखलाई पड़ी । 'तुसीकी भक्ति पद्धतिका बुधजन पर प्रभाव पड़ा है, ऐसा मेरा विचार है । अपने कृत्योंकी आलोचना करना तथा भगवानके महात्म्यको बतलानाही तुलसी की भक्ति पद्धतिका सार है। य हयात बुधजनजी के दोहों में दृष्टव्य हैः मेरे औगुन जिन गिनो, मैं अंगुन को धाम पतिन उद्धारक 21प हो, करो पतिन को काम | बुधजन प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो । समदर्शी है नाम तिहारों चाहो तो पार करो || सुरदास "राम सों बड़ो है कौन, मों सो कौन छोटों |१| राम-मों खरो है कौन. मोसों कौन खोटी " -तुलसी प्रभुके महत्वको सामने होतेही भक्तके हृदय में लघुत्वका अनुभव होने लगता है । उसे जिस प्रकार महत्व वर्णन करने में आनन्द आता है उसी प्रकार अपना लघु वर्णन करनेमें भी । सुभाषित नीतिपर कबिने २०० दोहे लिखे हैं । इनसे कविके अपूर्व अनुभव और ज्ञानका पता लगता है । इनकी तुलना वृन्द, रहीम तुलसीदास और कबीर के दोहोंस पूर्णतयाकी जासकती है। इतनी बात अवश्य है कि नीति के द होंकी रचना करते समय प्रायः इन सभी कवियों का आधार पंचतन्त्र रहा हो । बुधजनजीक नीति के दोहे हितोपदेशके श्लोकोंका अनुवाद मात्र मालूम पड़ते हैं। पर यह बात इन्हीं पर लागू नहीं है, उपयुक्त प्रायः सभी कवियोंके सम्बन्ध में कही जा सकती है । उदाहरणार्थ: एक चरनहूँ नित पढ़े, तौ का अज्ञान । पनिहारीकी लेज सों, सहज कटै पासान। बुधजन || करत करत अभ्यासके, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात तें, सिल पर होत निसान || वृन्द ।। महाराज महावृक्षत्री, सुखदा शीतल छाय । सेवत फल भासे नतौ, छाया तौ रह जाय || बुधजन || सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः । यदि दैवात् फले नास्ति, च्छाया' केन निवार्यते ॥ हितोप० पर उपदेश करन निपुन ते तो लखे अनेक | करै समिक बौले समिक जे हजारमें एक || बुधजन || पर उपदेश कुशल बहुतेरे । तुलसी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] बुधजन सतमईपर एकदृष्टि परोपदेशे पाण्डित्यं मापा सुकरं नृणाम् । दुर्जन सज्जन होत नहिं राखौ तीरथ वास । धर्मे स्त्रीय मनुष्ठानां कस्य चिनु महात्मनःहितोपदेश मेलो क्यों न कपूर मैं हींग न होय सुवास ॥बुधजन।। मिनख जनमले ना किया, धम न ६.थं न काम । नाच निचाई नहीं तजै, जो पावै सत्संग। सो कुव अजके कंठमें उपजे गए निकाम ॥ तुलमी चन्दन विटप बसि विषनहीं तजत भुजंग ।।तुलसी धमार्थकाममोक्षाणां, यस्यकोपि न विद्यते । करि संचित को रो रहै,मूरख विलसि न खाय । अजागलस्तनस्यैब, तस्य जन्म निरर्थक्म हितोपदेश मावी कर मंडित रहै,शहद भील लै जाय ॥ बुधजन।। नदी, नम्बी, शृङ्गोनिमें, शस्त्रयानि नरनारि । स्वाय न खरचे सम धन, चोर मबै ले जाय । बालक अर राजान ढिग बसिए जतन बिचारिणबुध. पीछे ज्यों मधु मक्षिका, हाथ मलै पछताय । बृन्द नदीनां शस्त्रपाणीनां नम्बीनां श्रृङ्गिगां तथा । दुष्ट कहि सुनि चुप रहो बौले है है हान। . विश्वासो नैव कत्तपःखीपु, राजकुजेपु चहितोप० भाटा मारै कोच में हीटे लागे पान बुधजन॥ दुष्ट मिलत है: साधु जन, नहीं दुष्ट है जाय । कछु कहि नीच न छड़िए भलो न वाको संग। चन्दन तर को सपे लगि विष नहीं देत बनाय।। बुध० पाथर हारी कीच में उरि विगारे अंग ॥ वृन्द बद्धिवान् गम्भीरको संगत लागे नांहि । रिपु समान पितु मातु जो, पुत्र पढ़ाचे नांहि । ज्यों चन्दन ढिग अहि हिन.विष न हाय तिाह मादिवृ० शोभा पावै नाँहि मो.गज सभाक मांहि ॥धजन रहिमन् ज्यों उत्तम प्रकृन का कर सकत कुसंग । म ता शत्रुः पिता सरी येन बालो न पाटितः। चन्दन विष व्याप नहीं लिपटे रहन भुजंग ॥रहीम।। न शोभत भा मध्य हसमध्ये चको यथा ॥हितोपदेश विपता की धन राखिए धन दीजै रखिदार । ___ इनके अतिरिक्त विद्या, प्रशंमा, मित्रता, जुश्राआतमहितको छोड़िए धनदारा परिवार बुधजन निषेध. मांस निषेध, मद्य-निषेध, वश्या-निषेध, आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान रक्षद्ध नैरपि । शिकारकी निन्दा, चोरी निन्दा, परस्त्री संग-निषेध, प्रात्मानं सततं रक्षेदरैरपि धनैरपि ॥ हितोपदेश आदि पर अनेक उपदेशात्मक अनुभव पूर्व उत्तम उपयुक्त पद्योंकी परस्पर तुलना करनसे स्पष्ट ज्ञान दोहोंकी रचनाकी है । जिनके पढ़नेसे मनुष्य के विचार होता है कि पुरान कवियोंने एक दूसरेके भावों और निर्मल होकर आत्मा शुद्ध हो सकती है । यदि उन विचारोंका बहुत कुछ अपनाया है तथा कई कवियोंने दोहों को यहां पर लिम्बा तो लेखका कलेवर बहुत बढ़ तो एक दूसरेकी युक्तियोंको अपनीही युक्ति बना लिया जायगा । अतः इस सम्बन्धमें इतनाही कहना पर्याप्त है। अनुकरण करनेकी प्रवृत्ति अनादिकालसे चली होगाकि कविवर बुधनजीने अपने प्रतिपादित विषय अरही है। यही बात बुधजन में भी मिलनी है, उन्होंने का अच्छा विवेचन किया है। भी दसगेका अनुकरण किया है। उन्होंने हितोपदेश विराग भावनाके वर्णनमें तो कविन कमाल के कई श्लोंकोका हिन्दीके पद्यों में सम्भवतः इमी दृष्टि दिखाया है। इस भावनामें कविने संसारकी असारता कोणमे अनुवाद कर डाला है कि लोगोंका संस्कृतकी का हुबहु चित्र दींचकर अपने वृहद्ज्ञान, अपूर्व अनुओर भुकाव कम है, और संस्कृत साहित्यके संचित भवका परिचय दिया है। आप दोहोंको पढ़ते जाइए ज्ञानका उपार्जन करनाभी मनुष्यों के लिए अत्यन्त कबीरक पद्योंका भानन्द श्राने लगेगा। इस भावना आवश्यक है; क्योंकि भारतीय साहित्यका अधिकांश के वर्णनमें कांवने अपने अध्यास्म ज्ञान, श्रात्म अनुखजाना संस्कृतमें ही है। भति और मनुष्य जीवनकी अस्थिरताका वर्णन कर उपदेशाधिकारमें भी विके भाव और विचार के जैनदर्शन और सिद्धान्तका सार उत्तम रीतिसे अन्य कवियोंसे मिलते जुलते ही हैं जैसे: सममानेका प्रयास किया है: Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ को सुतको हैतिया, काको धन परिवार । निन्द काम तुम मत करो, यहै प्रन्थको मार ॥ आके मिले सराय में, विछरेंगे निरधार ॥ प्रन्थके मार तथा कविके उद्देश्यसे ज्ञात हताहै परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । कि कवि आदर्शवादी है। मंसारी मनुष्योंको सन्मार्ग छलबल करि क्या हुन बचे, काल झपट ले जाय ॥ एवंम् निवृति मार्गपर लगानाही कविके जीवनका देहधारी बचता नहीं, सोच न करिए भ्रात । उद्देश्यो । बुधजनजीके दोहोंके साथ साथ हितोपदेश तन तीन जिगे रामसे, राबनकी कहा बात ।। के श्लोकों तथा वृन्द, रहीम और तुलमीके दोहोंको माया मो नांही ग्या, दशरथ लछमन राम । उद्धृत करनेसे बुधजनजीके काव्य सामर्थ्यका पूरा तू कैसें रह जायगा, पाप का धाम ।। पता लग जाता है। हिन्दीमें रहीम,वृन्द और बिहारी इमी प्रकरणमें समता और ममताका उल्लेख सतमई आदि ग्रन्थोंको अच्छा स्थान प्राप्त है । पर, करने में कविने अपनी क्लार्क चार चांद जड़ दिए। जैन साहित्यकागेके प्रमाद और आलस्यके कारण जैन आचार्यों और तीर्थकरो, ऋषियों, भद्रपुरुषों और बुधजन सतसईको हिन्दी में अभीतक कोई स्थान नहीं पवित्र आत्माभोंके दृष्टान्त देकर वएनीय विषयकी मिल सका । यह नियों के लिए, मुख्यतया जैन स्पष्ट व्याख्याकी है। उन दृष्टन्तोंसे काव्यमें राचकता माहित्यकारोंक लिए अत्यंत खेदकी बात है। उपर्युक्त और सौन्दर्य तो ही गया है. साथ ही में जैन वर्णनसे यह स्पष्ट होजाता है कि कविवर बुधजनजी सिद्धान्तोंकी व्यापकताकाभी अच्छाविश्लेषण हुश्राहे। रहीम और वृन्दकी श्रेणीके कवि अवश्य है। और अनुभव प्रशंसा और गुरु प्रशंसापरभी कविने अपना इनकी सतसई वृन्द सतसईस पूर्ण समता रखती है। ज्ञान और अनुभव प्रदर्शित किया है। दोहे बड़े बुधजन सतसईकी भाषा ठेठ हिन्दी है, पर कहीं ही रोचक और मनोहर हैं। गुरूका महत्व बतलाते कहीं प्रान्तीय (जयपुरी) भाषाका पुट भी है। कहींसमय कवि हमारे समक्ष महात्मा कबीर के रूपमें कहीं तुक मिलानेमें छन्दो भङ्ग दोष भी आगया है माताहै। प्रन्थके अन्त में कविने अपनी रचनाकासार अथवा प्रति लेखकोंकी उसमें कुछ गलती है। अन्तमें इस प्रकार बतलायाहै: यह कहना उपर्युक्त होगा कि बुधजन सतसई ०क भूख सही दारिद सही, सही लोक अपकार। पढ़ने और संग्रह करने योग्य ग्रन्थ है। दृष्टान्त देकर वरना सकता माहित्यकाक जाता है कि कविवर और - मृत्यु-महोत्सव "तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्युमहोत्सव बारी ।"-सूरचन्द (ले..-श्री जमनालाल जैन विशारद ) "मृत्यु। मृत्युका नाम सुनता ही मनुष्य कोपने लगता है, लीजिए उस पर वन ही गिर जाना है-वह निराश, इनाश, धनि लगता है और झलगकर उमका उच्चारण करनेवाले निरुत्साहित तो हो ही जाता है परन्तु 'अन्दर ही अन्दर पर पैनी निगलने लगता है। मृत्युका नाम सुनना वह क्रोधको जन्म देकर प्राग-बबूला भी हो उठता है। यही अपना अपमान समझता है, उसे सुनकर वह अनिष्टकी मनुष्य, जो मृत्युके नामको सुनकर या उसका प्रागमन जान प्राशंकासे विचलित हो उठता है और यदि किसी शुभकार्य कर इतना अस्थिर हृदय हो उठता है, वही जन्मका नाम के मादिमें उसे सुननेका सौभाग्य प्रात हो गया तो समझ सुनकर, हषोत्कुल हो, घर-घर बचाई मांगते फिरता, मंगल Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] . मृत्यु-महोत्सव १४१ गान गाता है और अनेको अतिथीका श्रादर-सत्कार कर 'मेरा-तेरा' करते-करते किया जाय, उसका तो यही मतलब श्रग्नेको धन्य और सौभाग्यशाली समझता है। है कि जब हम यह अनुभव करलें कि हमारा जीवन समाज, लेकिन मृत्युका वास्तविक त, उद्दश्य एवं पेपन धर्म, देश और स्वयं अपने लिए भी निरुपयोगी है, धीरे-धीरे जानने के कारण है। श्राज असंख्य मनुष्योमं भ्रान्त विचार संभारके वायुमण्डलम विलग होते-होते शरीरसे भी ममत्व धाग अपना प्रभुत्व प्रस्थागित किए बैठा है। यद्यपि मृत्युका त्यागकर ज्ञान पूर्वक मृत्युको प्राम होना। वास्तविक एवं श्रान्तम अर्थ शरीरस चेतना शक्तिकाविलग जबरदस्ती, बनपूर्वक या और किसी भयानक कारणके को जाना है, तथा यह अवस्था एक ही प्रकारसे प्राप्त की वशीभूत होकर जीवन त्याग के प्रसङ्गको उपस्थित कर, जाना हा, इसमें सन्देश है भिन्न-भिन्न विचारकोंने भावी सुख मम्माधमणका दोंग रचकर, सारे पदार्थोसे पर रहकर की कल्पनाके श्राधार पर भिन्न-भिन्न प्रकारसे देह त्यागनेके मृत्युको प्राप्त होना समाधमरण मी नहीं, उसकी हत्या मार्ग उपस्थित किए हैं, लेकिन फिर भी यह निश्चितरूपम करना अवश्य है और प्रात्मघात करना तो वह है की। नहीं कहा जा सका कि उन विचारकों के ममस्त मृत्यु द्वार ममाधिमा में त्याग. तास्था और विश्व एवं प्रात्मकल्याण सर्वथा उपादेय एनं उपयुक्त अथवा ग्राइणीय है। तब भी, की अत्यन्त श्रेष्ठ भावनाएँ छिपी हुई हैं। समाधिमगणक पथ या निश्चित रूपेण स्पष्ट नासे कहा जा सकता है कि सभी को स्वीकृत कर हम अनावश्यक जीवनका लोभ और मोड़ विचारकोंका मन्देश यही रहा है कि मृत्युके अवसर पर तथा दम्भ एवं श्रहंकार श्रादिसे त्याग पत्र ले धर्मके हमारे भावों में मलीनता. ममता, मोह और रागद्वेषादिक। सर्वथा श्रादर्श में विलीन होनेकी महत्वाकांक्षा रम्यते हैं। अभाव वांछनीय है। किमीकी इच्छाको रख मृत्युको प्रात हिन्दी भाषा और साहित्यका यह अहोभाग्यही ममझहोगा हेय एवं निद्य है-कल्याण एवं उद्धारका बाधक है। ना चाहिए कि 'समाधिमरण' के महत्व, उपयोग और संक्लेशन परिणामोसे मृत्युको प्राप्त होना अपने प्रारको श्रादर्शको प्रकट करने के लिए दो रचनाएं मरल, साम और धोका देना ममझा गया है, और वह वास्तव में ठीक भी है। मूदुलरूपमें उपलब्ध हैं। जिसमें एक है कविवर द्याननगय उन कई प्रकारको मृत्युमें 'समाधिमरण' का भी एक जीकी और दूसरी है कवियर सूरचन्दजी की। महत्वपूर्ण अथवा सर्वोच्च स्थान है। समाधिमरण के प्रावि- जैनसाजमें इन दोनोंही रचनाओं को अत्यन्त श्रादरकी कर्ताका (यह नो मालूम नहीं कि उसका आविष्कर्ता कौन दृष्टिसे देखा जाता है और यदि समय मिला और उपयुक्त है, जन लोग यह अवश्य कहते हैं कि उसके आविष्कर्ता स्थान रहा तो प्रत्येक मृत्यु शय्या पर पड़े हुए मनुष्यको ये प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी थे। यह कहना है कि सनाई भी जाना है। जिस समय हम यह जान ले कि हमारी या हमारे कुटुम्बाकी लेकिन अत्यन्त दुग्व और अफमोममाय कहना पड़ता मृत्यु अब अति निकट है, उसे जीवनसे. संसारम. कुटुम्बस है कि बीच में इन पचनाश्रीको फूटी ऑम्वों भी नहीं देखा अहारसे, वस्त्रोंसे निर्मोही कर दिया जाय और मुत्युकी महा-जाता । अंतिम समय ही सुनाई जाने के कारण देचारा गेगी नताका सदुपयोग किया जाप ताकि उसके परिणाम उत्तरोत्तर तो क्या ममझता होगा परन्तु स्वयं सुनाने वाले महानुभाव निर्मल जल की भांति विकार हीन सुकुमार कोमल हो और भी उनके रहस्यको समझ नहीं सकते। भावी जीवन संकटापन्न न हो। हम जीवन भर चाहे जितने हमें क्या पता हमारी मृत्यु किस दिनसे गस्ता देव पाप करें, अत्याचार करे, अन्याय करें और व्यभिचारी रहे रही.हमें तो यही सोच समझकर प्रत्येक कार्यों में प्रवृत हो परन्तु यदि हमारा मग्ण समाधि-पूर्वक होगा, तो मृत्यु होना चाहिए कि हमारे सिरपर मंडरा रही है-न जाने की विकरालना शान्तिमें, ऋरता मृदुताम, और भयानकता का प्राकर गला घोटदे। अतएव. हमारा यह प्रथम और महानतामें परिवर्तित हो जाएगी। प्रमुम्ब कर्तव्य होना चाहिए कि हम मृत्युको अपना मरवा,अपना समाधिमराका यह अर्थ कदापि नहीं कि अपने जीवन मिर, अपना सहोदर मममें और उसका श्रादर साकार करे का अस्तितका त्याग मूर्खना वश या मोह वश अथवा ताकि वह अपने पिकगल एवं भयानक रूपमें उपस्थितहोकर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनकान्त [वर्ष ६ शत्रुमा व्यवहार न करे। लिए पंडितोंकी, याद की जाती है और तदनुमार भावी कार्य कविवर सूरचंदजीके समाधिमग्णसे हमें अनेक महत्त्व के परिणामका निष्कर्ष मीचा जाता है। लेकिन आश्चर्य है पूर्ण शिक्षाएं प्रास होती है, उपदेश उपलब्ध होना है और कि मृत्यु के अवसर पर हम शकुनोंका मानों त्यागपत्र दे चुके और उसके प्रति सद्भावनाएं जाग्रत होती है। जीवन में होते हैं। कितनी सूक्ष्म सूझ है उमकी कि वह मृत्युके समय साइस, वीरता और स्यागका प्रादुर्भाव प्रखररूपसे प्रस्फुटित भी शकुन देखने के लिए निमन्त्रण दे रहा है। उसके होताहै। विचारम 'समाधिभरण' सुन्दर और अति शुभ शकुन है। उनके समाधिमरणको पढ़नेसे ज्ञान होताहै। इस भूतल यह कहाँका न्याय कि हम जब दूमग मकान बदलते हैं तो पर ऐम २ शूग्बीर संत, राजा और मुान होगएहैं जिन्हें शकुन देखते है, कहीं दूमर गांव जाते हैं तो शुभाशुभ पानीमें पेलागया सिरपर अग्नि सुलगाई गई, तप्त अंगार देखते हैं परन्तु जब परगताको अर्थात् महान् नगर में जाते सपशलो बेड़ियाँ पहनाई गई, जिनके शरीरको व्याघ्रो, हैं हैं, दूर्मरे मकान अर्थात् शरीर में जाते हैं तो तनिक भी शूरों और सिंहाने निर्दयतापूर्वक प्रग्ने कलेवरका | कलेवा खयाल नहीं करते। वह इमं उलाहना देते हुए हमें अपने बनाया, परंतु उन धीर-वीरोंने उससमयभी संक्लेश परिमाणों कतन्य पर आरूढ़ होने के लिए जो कुछ कर रहा, वह को जन्म नहीं दिया और 'चौबागधन" का श्राश्रय प्रहण उसाक मुग्वस सुनिए भार श्रानन्दका रस लाटयकिया, तब फिर माग जीवनती उनसे कई गुना निष्कंटक "मात-पितादिक और कुटुम सब, जीके शकुन बनावें । है, पाजतो अंग्रेजों का राज्यहै-चारों ओर सुशासन (1) हल्दी, धनिया, पुङ्गी अक्षत, दूध दही फल खावें ॥ की पुकार है, अत: हमारे जीवन में ऐसा कौनमा दुःख है एक ग्राम जाने के कारण, करें शुभाशुभ सारे । जिससे हम मृत्युसे भयभीत हो करुणाकन्दन करें। इसीलिए ___"जब परगतिको करत पयानो, तब नहीं सोचो प्यारे । कवि उन महान आत्माओके कष्टोको प्रकट कर प्रत्येक छन्द उस समय तो हमें रोना नहीं चाहिए, यह तो हँसनेका के अन्त में कहता है समय होता है। क्योंकि उस समय हमारे कुटुम्बीको मलीन "तो तुमरे जिय कौन दुःख है मृत्यु महोत्सव वारी।" मकानकी जगह नूतन महल नसीब हनेका अवसर उपलब्ध अन्तमें हम पाठकों का अधिक समय न लेकर, केबल होता है। इसी लिए कवि जिसकी मृत्यु हो रही है उसे एक बातकी और जो कविवर सूरचन्दजीकी विचक्षण सूक्ष्म सम्बांधन कर रहा है, जिसे पढ़कर हमें भी सचेत और सावसूझ है ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। सम्भव है जिससे धान हो जाना चाहिएपाठकोके हृदय पर कुछ प्रभाव पड़े और मृत्युके प्रति सहा- “सर्व कुटुम्ब जब शेवन लागै, तोहि रुलावें सारे। तुभूति प्रस्फुरित हो, जीवन में साहस, उत्साह और 'नूतन' ये अपशकुन करें सुन तोको, तू यो क्यों न विचार ॥" निर्माणकी भाषनाका संचार हो ताकि समाज, जाति और अन्त में एक बात और, और बस । इमारी उन पाठको देशका कल्याण हो; क्योंकि यह सुस्पष्ट है कि किसी भी एवं हिन्दासाहित्यके मर्मज्ञों-समालोचकों एवं कल्याणेच्छुयो कल्याण या उद्धारक लिए त्याग, चारता बार बालदानको से विनीत प्रार्थना है कि वे उक्त कविवरकी रचनाएँ एक अत्यन्त आवश्यकता होती है। बार अवश्य पढ़ें और उसमें जो तत्त्व दो, सार हो, रहस्य हम निरन्तर देखते हैं और अनुभव करते हैं कि जब दो, जनताके सन्मुख रखें। हिन्दीसाहित्य में ऐसी ही रचनाओं से हमारा जन्म होता है हमारे जीवन में शकुन-अपशकुनोंको की भाजपावश्यकता है न कि रीतिकुलीन उद्दाम काममहत्वपूर्ण स्थान-ग्रासन प्राप्त है बात-बात में शकुन देखनेके पिपासा मूलक तारिक रचनाओं की। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ही जीवन है ले-चन्दगीर म जैन 'विद्यार्थी' ब्रह्मचर्य का शब्दार्थ तो ब्रझमें चर्या करना अथवा की भागेग्यतापर कुठाराघात करनेसे पचेगा। वह समझेगा पासासीमाना। यदि निश्चय नयसे देखा जाय, कि गर्भके दिनों में स्वस्खीके साथ भी कामसेवन करना तो आत्माको कल्याणकी ओर अग्रसर करके उसे मोक्षमार्ग महाअनर्थकारी -अपने पैदा होने वाले बच्चेके सारे पर लगाकर परमात्म-पदको प्राप्त कराने वाला एक ब्रह्मचथं जीवनको बर्बाद करना है, उसकी प्रारोग्यताका हरण करके ही है। परन्तु व्यवहारनय अथना बाय-दृष्टिसे इसका लौकिक उसे रोगी और अस्वस्थ बनानेका उत्तर दायित्व अपने सिर अर्थ 'वीर्य-रक्षा' है। इसी गिषय पर आज विचार करना पर लेना है। कहनेका तात्पर्य यह है कि जिगना अांधकसे है। ब्रह्मचर्य ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है, यह अधिक जीवन में ब्रह्मचर्यको महत्व प्रदान किया जायगा, महान् सत्य है। अधिकसे अधिक ब्रह्मचर्य को अपने जीवन उतनी ही अधिक सफलता उसके चरणोंके चेरी बनकर में स्थान देना प्रत्येक मनुष्यका परमावश्यकीय कर्तव्य है। रहेगी और उसके इशारेपर नाचेगी। बाहर जगह सफल जो जितने व्यापक रूपमें ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में उता- होगा। नहीं' अथवा 'असंभव' शब्द उसके शब्दकोषरेगा-उसकी अराधना करेगा, वह उतनाही अाधक बलवान, से निकल जायगा। दीर्घायु, तेजस्वी, मनस्वी और श्रोजस्वी होगा। वह प्रत्येक ब्रह्मचर्य ही सायन-सजीवनीबूटी है। एक बार प्राणी को अपने ब्रह्मचर्य के प्रोजसे अपनी ओर आकर्षित वैद्य-कविद्या-यारंगत धन्वन्तरि महाराज अपनी शिष्यमण्डली कर सकेगा। उसका एक एक शब्द प्रत्येक जीवपर, यदि को वैद्यक पढ़ा रहे थे। शिष्योंने पूछा कि महाराज! क्या अत्युक्ति पर नहीं हूँ नो, अजीवपर भी बिजली जैसा सफल कोई ऐसी औषधि भी है, जो सभी रोगों में अचूक हो। प्रभाव डालेगा। प्रत्येक व्यक्ति उमक लिये जीवन न्यौछार धन्वन्तार महागज ने उत्तर दिया, हा है। वह अचूक करने के लिए तय्यार हो जायगा । जो ब्रह्मचर्यका पूर्णरूपसे औषधि जो किसी भी रोगमें असफल न हो, ब्रह्मचर्य है। उपासक है, जो अखण्ड ब्रह्मचारी है अथवा जिसने ब्रह्मचर्य माजकल हमारे बहुनसे वैद्यगण अपनी औषधियों का को अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतार लिया है, वह तो देव । विज्ञापन करने के लिए, किमी भी रोगमें, यहातक कि वीर्य ही दोनाता है। उमकी मानवता देवताका रूप ग्रहण कर रोगों में भी ब्रह्मचर्य का परहेज नहीं बतलाते। इसीलिए लेनी। तमाम जगत उसके पीछे चलने लगता है। उसके रोगीको अपनी मूर्खतासे कहिए अथवा बेच देवता प्रसाद नेतृत्व में वह गौरव समझना है। हमारेबहुतसे बन्धु शायद से कहिए, निराशाका मुँह देखना पड़ता है। यह पढ़कर चौकेंगे कि ग्रहस्थ भी ब्रह्मचारी रह सकता है बहुतसे जिज्ञासु पाठकोंके हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न होगी और ब्रह्मचर्यका पालन बे-नोक-टोक कर सकता है। कि आखिरकार इस अमूल्य मृत्युञ्जय रसके वा महामंत्रके विवाहित पास्थ यदि केवल सुसंतान उत्पन्न करने के पवित्र जिसका गुण गान ऊपर इतने विस्तारसे किया गया है. विचारको सन्मुख रखते हुए, नियत समय पर काम सेवन सिद्ध करनेके कौन २ साधन है जिससे सुगमता और करे, तो उसके ब्रह्मचर्य में कोई विकृति नहीं पा सकती। निर्विघ्नता पूर्वक इसकी अराधनाकी जासके, अत: रक्षेपसे स्थ-प्राचारीपरस्त्रीमें तो मातृभाव रक्खेगा ही, परन्तु उनका कुछ वर्णन किया जाता है:स्वस्त्र में भी अतिरागका त्याग करके, केवल सन्तानार्यही सबसे पहले भोजन को लीजिए। प्रमचयकी श्रागधना स्त्रीप्रसंग करने की पढ़ प्रतिज्ञा करेगा। वह अपनी नी करने वालेको सदा सादा-सात्विक आहार करना चाहिए को अधिकसे अधिक ब्रह्मचर्य पालन करनेकी शिक्षा देगा। आहारका मनपर सीधा असर होता है। कहावत भी है कि गर्भके दिनों में पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करके गर्भस्थ बालक जैसा खावे अन सा होवे मन । गेहूँ, चना, जौ, मूंग, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनेकान्त [वर्षे ६ अरहर, पालक, बाथू, घी, दूध, दही, देशी शकर (बूग) दूरी बात ब्रह्मचर्य रक्षा के लिये जो परमावश्यक हैमेंधा नमक और शुद्ध पके फल इत्यादि सब सात्विक आहार वह व्यायाम है। हमें नितपति थोड़ा बहुत व्यायाममें सम्मिलित हैं। अत्यन्त गर्म तथा तीक्ष्ण और गरिष्ठ, जिसका मर्वोत्तम प्रकार डण्ड-बैठक करना है-अवश्य कामवासनाको भड़काने वाले, उत्तेजक भोजन-लालमिर्च करना चाहिए । इमसे हमाग शरीर सुदृढ़, बलवान और खटाई तेल, हींग, गर्म मसाले प्याज, लहान, उड़दकी चुस्त बनेगा। सुम्त-प्रमादी और निर्बल शरीरमें ही प्रायः दाल, मसूर, मरसों, तेल और धीमें तले हुए पदार्थ-पूड़ी, कामवासना उत्पन्न होती है। इनके मिवाय, हमारे लिये कचौड़ी, मालपुश्रा, मिठाई, शगब, चाय, काफी, कोकेन, यह श्रावश्यक है-कि हम सदा सत्संगतिका अवलम्बन करें। अफ्रीम, भांग, नम्बाकू इत्यादि निकृष्ट भोजनों और चाट, विचार सर्वदा शुद्ध और पवित्र रक्खें। उच्च साहित्यका दही-बड़े श्रादि चटपटी चीन से परहेज रखना चाहिए। स्वाध्याय करके अपने विचारोको उन्नत बनायें। गन्देनावल सर्वदा हल्के, सादे और पौष्टिक आहारका उपयोग करना नाटक, उपन्यास और स्वाँग तथा सीनेमाश्रोंक, नाचगानेके चाहिए। तभी हम ब्रह्मचर्य-रक्षामें सफल हो सकेंगे। इमें साहित्यको पाम न आने दें। अपने जीवनको सादगीकी अपनी जिन्दा पर काबू (control) करना पड़ेगा। किसी प्रांनमूर्ति बनाः। विलासिता रूपी विषको पास न श्राने दें। अंग्रेस कविने कहा है-When you can con- शरीरका भाँति-भाँति शृङ्गार करके उसे कामी न बनावें। quer your tongue only you are sure शुद्ध स्वदेशी खादी और अन्य शुद्ध स्वदेशी वस्तुओंसे to conquer your whole body & mind अपने शरीग्की अावश्यकताअोंको पूरा करें। तभी हम at ease. अर्थात्-यदि तुम जिव्हाको वशमें कर लो, ब्रह्मचर्य रूसी महामंत्रका श्राराधन कर सकेंगे और संसार तो तुम्हारे मन और शरीर अनायाम वशमें हो जायेंगे, के हृदय में अपनी धाक जमाते हुए कह सकेंगेकोई सन्देह नहीं है। मादा भोजद ही सर्वोत्तम भोजन है। हम जाग गए, सब समझ गए, (simplest is the best food) जितने गरिष्ठ अब करके कुछ दिखला देंगे। कीमती भोजन है-वे सार हीन हैं। उनमें कई तत्त्व नहीं हाँ, विश्व-गगन में अपने को, है। पैसे और स्वास्थ्य दोनोंकी बर्बादी है। फिर एक बार चमका देंगे। भनेकान्त-साहित्यके प्रचारकी योजना भावश्यकता वीरसेवामन्दिरको दो ऐसे सेवाभावी योग्य विद्वानोंकी अनेकान्तमें जो महत्वका उपयोगी ठोस साहित्य निक- आवश्यकता है जिनसे एक हिसाव कितावकै काममें निपुणं बता, हम चाहते हैं उसका जनतामें अधिकाधिक रूपसे हो-पाकायदा हिसाब-किताव रखते हुए वीरसेवामन्दिर प्रचार होवे । इस लिए यह योजना की गई है कि चतुर्थ की सारी सम्पत्तिकी अच्छी देख रेख और पूरी संभाल वर्ष और पांचवें वर्ष विशेषाशको जिनकी पृष्ठसंख्या रख सके। दूसरे विद्वान संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी प्रक जमशः १२. .. और मूल्य) ), नाम रीनिंग तथा पत्र-व्यवहारके काममें दम होने चाहियें और मात्रके मू।) ) पर वितरण किया जाये। अत: यदि वे संस्कृत, प्राकृत तथा अंग्रेजीका हिन्दीमें बना बानी महाशयोंको मंदिरों, बायोरियों, परीजोत्तीर्ण विचा अनुवाद भी कर सकते हों तो ज्यादा बेहतर है। वेतन पियों और अजैन विद्वानों भादिको भेंट करनेके सियेबाहे योग्यतानुसार दिया जायगा। जो बिहान मानाचा उन्हें जिस अंककी ११,१०,१.. कापियां एक साथ मनाकर पूरे परिचयके साथ नीचे लिखे पते पर पत्रव्यवहार करना प्रचार-कार्यमें अपना सहयोग प्रदान करना चाहिये। छोटेलाल जैन (कलकत्ता वाले) प्रचारार्थ पोटेज भी नहीं लिया जायगा। सभापति वीरसेवामन्दिर-समिति वीरसेवामन्दिर सरसावा जि. सहारनपुर सरसावा जि. सहारनपुर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजना कुछ श्वेता समितिमें सा किया सहयोगी 'जैनसत्यप्रकाश' की विचित्र सूझ! "मांखों पर पट्टी बांधकर कुएँ में धकेलना" >ARAK [सम्पादकीय] वीर-शासनके प्रवर्तनको ढाई हजार वर्ष हुए वालोंको यह प्रेरणा की है कि वे इस महोत्सबमें और जिस स्थानपर वह विशेषरूपसे प्रवर्तित हुआ शरीक न हो। इतना ही नहीं, बल्कि वीरसेवामन्दिर बह तत्कालीन राजा श्रेणिककी राजधानी 'राजगृह' के उक्त प्रस्तावमें यन्धु भावसे श्वेताम्बर तथा स्थानकनगर है, इसमें कोई विवाद नहीं है। ऐसी हालतमें वासी सजनोंसे सहयोगके लिये निवेदनकी जो बात वीर-शासनका 'अर्धद्वय - सहस्राब्दि -महोत्सव' कही गई है, कुछ श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी मनाया जाना जहाँ न्याय प्राप्त है वहाँ उसके लिये नेताओंके जो नाम प्रस्थायी समितिमें चुने गये हैं 'राजगृह' का स्थान चुनना भी समुचित जान पड़ता और जिस आशय तथा आशाको लेकर ऐसा किया है। इसीसे वीरसेवामन्दिरसरसावाने, जो कई वर्षसे गया है उसका मैंने अपने उक्त लेखमें जो स्पष्टीकरण -अपने जन्मकालसेही-वीरशासन-जयन्ती मनाता किया है, उस सबको दिगम्बरोंका अपने साथी सम्प्रआ रहा है, इस वर्ष एक प्रस्ताव-द्वारा राजगृहमें वीर- दायबालों-श्वेताम्बरों तथा स्थानकवासियोंकी आँखोंपर शासन-जयन्ती-महोत्सव' मनाने का आयोजन किया पट्टी बाँध कर उन्हें कुएँ में धकेलनेका प्रयत्न' बतलाया है। वीरशासनकी प्रभावना और प्रचारकी दृष्टि से, इस है! सहयोगीकी इस कट्टर साम्द्रदायिकताको लिये महोत्सवके साथमें जैनसाहित्यय-सम्मेलन और एक हुए अनुदार एवं असामयिक मनोवृत्तिको देग्ब कर जैन साहित्यिक प्रदर्शिनीकी योजना भी की गई है मुझे बड़ा ही दुःख तथा अफसोस हुया !!! कहाँ तो और उत्सवको अखिल भारतवर्षीय महोत्सवका रूप देशमें, समयादि-सम्बन्धी अनेक मत-भेटों अथवा दिया जा रहा है। इस समाचारको पाकर जहाँ जैनी- विचार-भेदोंके होते हुए भी, विक्रम-द्विसहस्राब्दिमात्रको प्रसन्न होना चाहिये और अपनी शक्तिभर महोत्सव मनाये जानेका आयोजन हो रहा है, और ऐसे सत्कार्यमें सहयोग प्रदान करके अपना कर्तव्य उसमें सभी प्रकारके विचार-भेदयाले अपनी अपनी पूरा करना चाहिये वहाँ अहमदाबादसे प्रकाशित होने शक्ति और मतिके अनुमार किसी-न-किसी प्रकार वाले सहयोगी जैनसत्यप्रकाश' नामक मासिक पत्रको सहयोग देनेके लिये उच्चत हो रहे हैं और कहाँ हमारे कुछ उल्टी सूझी है। उसने वीरशासनकी उत्पत्तिके सहयोगी 'जैनसत्यप्रकाश' के सम्पादकजी, जो बीरसमय और स्थान-म्बन्धी स मतभेदको लेकर, जिसे शासनके अर्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव जैसे सत्कार्यमें मैं अनेकान्तकी गकिरण नं.२ में प्रकाशित 'वीर- स्वयं सहयोग देनेके लिये कुंठित और पश्चात्पद ही शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान' नामक अपने नहीं किन्तु दूसरोंको भी इसमें सहयोग देनेसे मना सम्पादकीय लेखमें स्वयं प्रकट कर चुका हूँ और जोमत- कर रहे हैं !! इसे वीरशासनसे द्वेष कहें,बीरशासनके भेद राजगृहमें बीरशासनका अर्धद्वय-सहस्राब्दि-महो- अनुयायियोंसे द्वेष कहें, अपनी मान्यतासे थोड़ा-सा त्सव मनाने तथा उसमें सभी जनसंप्रदायोंके सहयोग __ भी मतभेद रखनेवालोंसे द्वेष कहें अथवास.तियारह देने एवं सम्मिलित होने में कोई बाधक नहीं है, कुछ कहें १ कुछ समझमें नहीं पाता !!! विरोध खड़ा किया है, और अपने श्वेताम्बर संप्रदाय हालमें मुझे 'विक्रम-द्विसहस्राब्दि-स्मृति-प्रन्थ' की Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अनेकान्त [वर्ष ६ एक विज्ञप्ति प्राप्त हुई है, जिसका एक पैरेप्रान इस जो वीरशासनका अर्धवयसहस्राब्दि-महोत्सव मनाया प्रकार है: जा रहा है उसके जिन जिन कार्यों में वे खुशीसे अपना ___"महाराज विक्रमादित्यका कालनिर्णय अथवा सच्चा सहयोग प्रदान कर सकते हैं उनमें सद्भावपूर्वक वंशावली विद्वानोंके वाद-विवादका विषय हो सकती अपना सहयोग जरूर प्रदान करें । फिर व्यर्थ में है, परन्तु इस विषय में समस्त जगत एकमत है कि विरोधका वातावरण पैदा करने, दूसरोंकी दृष्टिमें सम्राट विक्रमादित्य नामक एक ऐसी शक्ति, एक ऐसी अपनी संघशक्तिको निर्बल बनाने और अपनी अनेमहान् विभूति भारतमें हुई थी जिसने विदेशी बात- कान्त-उपासनाका उपहास करानेसे क्या मतलब? तायियोंके दुर्दमनीय अत्याचार-भारसे भारतकी रक्षा की क्या अनेकान्तकी उपासनाप-1 यही उद्देश्य है? क्या और कविकुल-गुमकालिदासको अपने सौहादेका प्रश्रय अनेकान्त ऐसे विरोधकी इजाजत देता है? और देकर शौयेके कांचनमें साहित्यकी सुरभि बसा कर क्या अनेकान्त इस महोत्सवमें शरीक होनेके लिये संसारको चमत्कृत कर दिया।" समन्वयका कोई मार्ग नहीं निकाल सकता ? इसे मतभेदके उल्लेख-पूर्वक इस प्रकारकी बातोंको. श्वेताम्बर समाजके प्रमुख विद्वानों तथा नेताओंको लेकर स्मृति-पंथके सम्पादक महोदय उन विद्वानों के सोचना चाहिये। पास भी पहुँच रहे हैं जो अनेक प्रकारका मतभेद अथवा विचार-भेद रखते हैं, और इस तरह किसी न महाबीर-जयन्तीके उत्सवोंपर और दूसरे भी ग्विसी रूपमें उनका साहित्यिक सहयोग प्राप्त कर रहे अनेक जल्सोंपर जैनियों द्वारा अजैन विद्वानोंको है। वे दूसरोंको अपना विचार बदलने अथवा उन्हीं के आमंत्रित किया जाता है, उनके सभापतित्वमें जल्से विचारानुकूल निबन्धादि लिखनेकी प्रेरणा नहीं करते। मनाये जाते हैं, और वे ईश्वरवादी अजैन बिवान वह इसी तरह वीरसेवामन्दिरके कार्यकर्ता अथवा दिग जानते हुए भी कि जैनियों के साथ कितनी ही बातों में पर समाजके विद्वान वीरशासनके प्रचार, प्रसार उनका मतभेद है-जैनी उनके ईश्वरको, उनके वेदों और प्रभावनाके नाम पर यदि अपने श्वेताम्बर को नहीं मानते, उनके सिद्धान्तोंका एखन करते हैं भाईयोंके पास पहुँचें और उनसे बीरशासनके उपा और उनके भ० महावीरने भी ईश्वर के जगत्कतत्वका सक होनेके नाते मतभेदकी साधारण बातोंको भुला खण्डन किया है, हिंसात्मक वेदोंका निषेध किया है कर अथवा उन पर न जा कर शासन-सम्बन्धी महो और उनके कितनेही सिद्धान्तोंको मिथ्या ठहराया हैत्सवके कार्य में अपना यथायोग्य सच्चा सहयोग खुशीसे उनके जल्सोंमें शरीक होनेकी उदारता प्रदान करनेके लिये निवेदन करें तो इसमें वे उनसे दिखलाते हैं, जल्सोंका सभापतित्व करते हैं और अपने वीरशासनके प्रति अपना कर्तव्यपालन एवं कृतज्ञता भाषणों द्वारा जैनमत तथा भ० महावीरके विषय में ब्यक्तीकरणके सिवाय क्या कुछ अधिककी मांग करते जो कुछ भी अच्छी बातें उन्हें मालूम होती है उनकी ११वे उनसे मतभेदकी साधारण यातको भी सर्वथा खुले दिलसे प्रशंसा करते हैं। क्या दिगम्बरोंको अपने छोड़ देनेका अनुरोध नहीं करते नहीं कहते कि वे श्वेताम्बर भाईयोंसे, जो वीर भगवान और उनके राजगृहमें होने वाले प्रथम समवसरणको वीरभग शासनकी उपासनाके समान दावेदार हैं, इन अजैन वानका तृतीय समवसरण न मानकर द्वितीय समव विद्वानों-जितनी उदारताकी भी इस महोस्सबमें सरण मानने लगें और वीरवाणीके प्रथम समवसरण प्राशा नहीं रखनी चाहिये ? और क्या बेइन विद्वानों में खिरने और निष्फल रहने जैसी अपनी मान्यताओं की तरह अपने मतभेदको सुरक्षित रखते हुए भी को त्याग देखें। वे तो उनसे इतना ही कहते है कि महोत्सवमें योग नहीं दे सकते? वीरशासनको प्रवर्तित हुए ढाई हजार वर्ष होने पर श्वेताम्बर समाजने, अपने महावीर जयन्ती और Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] अनेकान्त-रस-लहरी पर्दूषण पर्वके उत्सवोंमें अनेक बार ईश्वरवादी मजैन सुनाई न पड़े और न ऐसी निर्हेतुक मान्यता (अन्धविद्वानोंको आमंत्रित करके, उन्हें सभापतिका आसन श्रद्धा) ही होती है कि जो बात अपने किसी शाखमें तक देकर और उनके भाषण कराकर जो सहयोग लिख दी वह तो भागम-कथित सत्य अथवा प्राप्तप्राप्त किया है वह सब क्या उन अजैन विद्वानोंकी वाक्य है और जो दूसरे सम्प्रदायके शाखमें लिखी है आंखोंपर पट्टी बांधकर उन्हें कुएँ में धकेलनका ही वह अनाप्त-वाक्य और मिथ्या है । जिनकी ऐसी उसका प्रयत्न था? यदि नहीं तो फिर दिगम्बरोंका प्रवृत्ति, मान्यता अथवा श्रद्धा होती है वेही अक्सर श्वेताम्बर भाइयोंको बीरशासन-सम्बंधी महोत्सवमें साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार बनते हैं और साप्रशरीक करनेके लिये जो प्रयत्न चल रहा है उसे किस दायिक मनोमालिन्यको बढ़ाकर समाज के गौरवको मुँहसे 'आँखों पर पट्टी बाँध कर कुएँ में धकेलना' गिराने में सहायक होते हैं। जान पड़ता है सम्पादक कहा जाता है? अपनी इस विचित्र सूझ पर सम्पादक सत्यप्रकाशजी ऐसी ही कुछ परिणति, प्रवृत्ति अथवा सत्यप्रकाशजीको स्वयं सोचनेका कुछ कष्ट उठाना श्रद्धाके जीव हैं, इसीसे वे मेरे उक्त अनुसन्धानात्मक चाहिये। साथ ही, यह भी सोचना चाहिये कि श्वे- लेखको पढ़ कर कुछ विचलित हो उठे हैं जो भनेताम्बर समाजके जिन प्रमुख विद्वानों और प्रतिनिधि कान्तकीगत दूसरी किरणमें ऐतिहासिक दृष्टिको लेकर व्यक्तियोंको-बाबू बहादुरसिहजी सिंघी, बा०विजय- लिखा गया है और जिसमें मैंने दोनों सम्प्रदायोंका सिंहजी नाहर,पं० सुम्बलालजी संघवी, पं० बेचरदास ___ जो मतभेद है उसे व्यक्त करते हुए यह बतलाया है जी, मुनियोपुण्यविजयजी, श्रोजिनविजयजी, श्रीकृष्ण- कि यह मतभेद ऐसा नहीं है जो श्वेताम्बरोंको इस चन्द्रजी अधिष्ठाता जैनगुरुकुल-पंचकूला आदिको- महोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये बाधक हो सके । सहयोगके लिये वीरसेवामन्दिरके प्रस्तावमें चुना गया लेखमें श्वेताम्बरीय कथनकी दो एक बातों पर, जो है वे क्या सम्पादकजीकी दृष्टि में इतने असावधान अपनी समझमें नहीं आई,कुछ सन्देह भी कारणविद्वान हैं जिनकी आँखोंपर पट्टी बाँधी जा सकती है? सहित व्यक्त किया गया है, और ऐतिहासिक पर्याउन्हें ऐसा समझना और अपनेको अधिक सावधान लोचममें ऐसा होता ही है, क्यों कि ऐसे लेख मुख्यमान कर उन्हें विरोध प्रदर्शनके लिये चेतावनी देना तया उन लोगोंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं जो सत्य उनकी विद्या, बुद्धि और व्यक्तित्वका अपमान करनेके के खोजी तथा निर्णयबुद्धि होते हैं और हर एक साथ साथ अपनी अनधिकार चेष्टाको व्यक्त करना है। विषयमें आधार-प्रमाणको जानना चाहते हैं। संभवतः एक ही तार्थकरका शासन मानने वालों में मतभेद इतनी बातको लेकर ही सम्पादकजी, विरोधकी कोई का होना कहीं किसीकी गलती, गलतफहमी अथवा दूसरी बात न देख कर, दिगम्बरोंके इस महोत्सवपरिस्थिति-वश अन्यथा प्रवृत्तिका ही परिणाम हो प्रयत्नका एक मात्र यह भाशय बतलानेके लिये उतारू सकता है, और इस लिये जो लोग यथार्थताको हो गये हैं कि 'श्वेताम्बर अपनी जिनभाषित भागमों मालूम करने और इस मतभेदको दूर करनेकी इच्छा की मान्यताको भूल कर दिगम्बर शास्त्रोंकी मान्यता रखते हैं वे सदा ऐतिहासिक अनुसन्धान, तात्विक को मानने लगें!' परन्तु उनकी वह मान्यता किस पर्यालोचन और युक्तिवादका आश्रय लेते हैं और इस आधार पर जिनभाषितो उसे बतलाने और जो प्रकारके विवेचनोंके लिये अपना हृदय खुला रखते सन्देह उपस्थित किया गया है उसका सैद्धान्तिक तथा है-उनका विचार और व्यवहार सदा उदार होता ऐतिहासिक दृष्टिसे निरसन करनेका उन्होंने अपने है। तभी वे सत्यका निर्णय और अपने मतभेदको दूर लेखमें कोई प्रयल नहीं किया !! प्रत्युत इसके, उन्होंने कर ऊँचा उठ पाते हैं। उनकी ऐसी प्रवृत्ति कदापि श्वेताम्बरोंको इस महोत्सबमें शरीक होनेसे रोकनेके नहीं होती कि दूसरे मतकी आवाज भी उनके कानोंमें लिये एक दम यह फतवा दे डाला अथवा उनके नाम Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनेकान्त वर्षे ६] इस आशयका आर्डर जारी कर दिया है कि 'जो इस ग्रन्थमें सिद्धार्थ व्यन्तरका उल्लेख नहीं किया।... श्वेताम्बर भाई इस उत्सबमें भाग लेंगे उनकी बागत बास्तवमें भगवानके लोकोत्तर जीवन के साथ सिद्धार्थ यह ममझ लिया जायगा कि उन्होंने अपनी प्राम- बाला प्रसंग अन्तर्गदुकी तरह निरर्थकसा प्रतीत है।" कथित मान्यताको अलग रख छोड़ा है और दिगर तब क्या आवश्यकता है कि एक भूतकी तरह सिद्धार्थ शाखोंकी मान्यताको अपना लिया है-स्वीकार कर को भगवानके पीछे लगा कर उनके धीर-बीर जीवन लिया है' !!! सम्पादकजीकी यह प्रवृत्ति और परिणति का महत्व घटाया जाय ? कदाचित् यह कहा जा कहाँ तक न्याय-संगत है, इस पर श्वेताम्बर समाजके सकता है कि छमस्थावस्थामें भगवान् मौन रहते थे विचारवानोंको गंभीरताके साथ विचार करना चाहिये। इस लिये गोशालकके साथ वार्तालाप करने वाला यदि सम्पादकजी ऐसे ही साम्प्रदायिक हैं कि अपन कोई दूसरा ही होना चाहिये । इसका भी हमारे पास किसी भी भागमके विरोधमें कोई बात, चाहे वह उत्तर है। भगवान् बद्मावस्थामें मौन रहते थे, यह कैसी भी युक्तियुक्त क्यों न हो. सुनना नहीं चाहते सत्य है, तथापि ऐकान्तिक नहीं।" इसी कारणसे और न उस दिशामें किसी ऐतिहासिक पर्यालोचन हमने इन (भ० महावीर) के चरित्रमेंसे सिद्धार्थका एवं तात्विक विवेचनकोही पसन्द करते अथवा सहन प्रसंग हटा कर सिद्धार्थसे कहलाई गई बातें भगवान् करनेके लिये तय्यार होते हैं, तो मैं उनसे पूछना केही मुखसे कहलाई हैं।" चाहता हूँ कि जहाँ आगम भागमें परस्पर विरोध है तब, क्या सम्पादकजीने मुनि कल्याणविजयके वहाँ वे क्या करेंगे?-किसको जिनभाषित प्रमाण, इस प्रन्थ पर कोई आपत्ति की है और इसका बाईकिसको अजिनभाषित अप्रमाण करार देंगे और काट करनेके लिये श्वेताम्बर समाजको कोई चेतावनी किस आधार पर ? साथ ही, यह भी पूछना चाहता हूँ दी है? यदि ऐसा कुछ भी नहीं किया तो फिर मेरे किहालमें मुनि कल्याणविजयजीने भ० महावीरका उक्त गवेषणात्मक लेखको पढ़ कर आप इतने विचजो जीवन-चरित्र लिखा है उसमें उन्होंने पागम सूत्रों लित क्यों हो उठे कि, बीरशासनके महोत्सव जैसे से उन चरितांशोंको ही लेनेकी सूचना की है जो सत्कार्यका भी विरोध करनेके लिये उद्यत हो गये ? "ठीक समझे गये"'-शेषको जो ठीक नहीं समझे इसे तब साम्प्रदायिक कट्टरताके वश ईर्षा, द्वेष और गये उन्हें छोड़ दिया है--,जिसका यह स्पष्ट आशय अदेखसका भावका परिणाम नहीं तो और क्या कहा हैकिश्वेताम्बरीय भागमोंमें महावीरके चरित-संबंधी जासकता है? इसे सहृदय पाठक स्वयं सोच सकते हैं कुछ ऐसी भी बातें है जो स्वयं श्वेताम्बर साधुओंकी सम्पादकजीसे अनुरोध है कि वे मेरे उक्त लेख और दृष्टिमें भी ठीक नहीं हैं। उन्होंने उक्त जीवन-चरित इस लेखको भी अविकलरूपसे अपने पत्र में प्रकाशित में श्वेताम्बरीय शाखोंकी कितनी ही बातों पर स्पष्टतया करनेकी कृपा करें, जिससे उनके पाठक स्वयं औचिअश्रद्धा भी व्यक्त की है, जिसका एक उदाहरण त्य और अनाचिन्यका निर्णय करने में समर्थ हो सके। 'सिद्धार्थ व्यन्तर' वाला प्रसंग है। मुनिजीने इस पूरे अन्तमें इतना और भी प्रकट कर देना चाहता प्रसंगको महावीरके जीवन-चरितसे निकालते हुए हूँ कि वीरसेवामन्दिर शुरूसे ही दिगम्बरोंके साथ प्रस्तावना (पू. २४, २५) में जो छ लिखा है उसके श्वेताम्बरों तथा स्थानकवासी सज्जनोंको भी कुछ वाक्य इस प्रकार है पीर-शासन-जयन्तीके उत्सवोंमें शामिल होनेके लिये "प्रावश्यक टीका और संस्कृत -प्राकृत सभी निमंत्रित करता आ रहा है उसका यह प्रयत्न पन्थों में सिद्धार्थ व्यन्तर और गोशालक मंखलिपुत्रका प्राजका नया नहीं है। फलतःभनेक सब्जन उत्सव नामोल्लेख बार बार भाता है परन्तु हमने अपने में शामिल भी हुए-एक वर्षतो उत्सव एक प्रमुख १ श्रमण भगवान महावीर, प्रस्तावना पृ.२३ - स्थानकवासी साधुजीके सभापतित्वमें ही मनाया गया मागमोंमें महाका यह स्पष्ट आशय इसे तब साम्प्रदायिक रीय शाओंकी उन्होंने उक्त जनाओंकी ब Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ४] पण्डिता चन्दाई १४६ था, जिन्होंने अगले वर्ष भी अपने कुछ विद्यार्थियोंके सरल वृत्तिसं' प्रेरित नहीं बतलात !! श्वेताम्बरोंकी साथ उत्सव में पधारने की कृपा की थी। इसके सिवाय आँखों र पट्टी बाँधकर उन्हें कुएँ में गिरानेका प्रयत्न अनेकान्तादि पत्रों में वीर-शासन-जयन्ती-सम्बन्धी सुझाते हैं !!! यह सा देखकर बड़ा ही पाश्चर्य तत्र कितना ही साहित्य बराबर प्रकाशित होता पा रहा खेद होता है!! पर उसके द्वारा दूसरोंको सोचने-समझनेका काफी आशा है उदारचेता श्वेताम्बरीय नेता और अवसर मिकता रहा है। परन्तु सात वर्ष के भीतर काही विद्वान , वस्तुस्थिति पर सम्यक् विचार करके से भी विरोधकी कोई आवाज़ नहीं सुन पड़ी। आज मा दिकनीक इस विरुद्ध प्रचारकी नियंत्रित करेंगे सम्पादक सत्यप्रकाशजीका जब विरोधके लिये कोई और महोत्सवके कार्यों में अनेक प्रकारसे अपने उचित बात न मिली तो आप बीसियामन्दिर र सहयोगकी घोषणा करके दिगम्बर समाजको अपना दिगम्बर जैनोंकी नीयत पर आक्षेप करने चले हैं! आभागी बनाएंगे। उनके इस उत्सव - प्रयत्नको “विशुद्धभावना और ता० १८-११-४३ वीर सेवामन्दिर सम्साग [ हमारी विभूतियाँ । पण्डिता चन्दाबाई ॥ श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ! पति मर गया, पल्लीकी उम्र १६ वर्ष है। मां बाप बिलख प ति मर गया है, पत्नीकी उन १६ वर्ष--उसके रहे हैं. भाई रोरहे हैं, बहनें बेहाल है, शहर भरमें हाहाकार जीवन में अब मारहाद नहीं, भाशा नहीं, दुनिया लिये है, पर जिसका सब कुछ सुट गया, वह स्नान करके श्रृंगार वह पक अशकुम है-सामक निकट डायम, माके लिये कर रही है, प्रांखोंमें अंजन, माँगमें मिन्दूर और गुलाबी बदनसीब, वह मानव है, भगवानके निवासका पवित्र चुनरिया-चेहरे पर रूप बरस पड़ा है, अंग २ में स्फुरणा है मन्दिर, पर मानवका कोई अधिकार उसे प्रास नहीं। समाज और जिलामें मिश्री जिनसे कभी सीधे मुंह नहीं बोली, और धर्मशास दोनोंने उसके पथ ऊंचे 'बो' खरे किये आज उनसे भी प्यार । हैं, जिनपर लिखा है, संयम, ब्रह्मवर्य, त्याग, सतीस्व, और शहर भरके लोग एकत्रित युवककी भर्थी उठी, अर्थी बन्दनीय, पर व्यवहार में प्रायः जेठ, देवर, श्वसुर और केमागे, नारियल उबालती पर्देके उस बीहव, अंधकारमें जाने किस की पशुताका शिकार । रेलवें डिपार्टमेण्टके भी खुजे मुंह गीत गाती, बोलके मद भरे घोष पर 'सरी' विभागके कर्मचारियों तरह जब पावश्यथिरकती, उसीके ताल पर अपनी नाचरियां खनखनानी कता हो, पिताके घर और जब जरूरत हो श्वसुरकबार जा वह वर्षकी सुकुमारी नाग श्ममानकी मोर जाती, कर्तव्य पालन के लिये वाध्य ऐसा कब पाखन जिसमें भारतके चिर प्रतीतमें हमें दिखाई देती है। रस नहीं. अधिकार नहीं, ममता नहीं-कैदीकी मुसकसकी उसका पति मर गया, पर वह विधवा नहीं, यह हमारी तरह अनिवार्य, परमहत्वहीन और मानहीन ! यह हमारे राष्ट्र संस्कृतिका महा वरदान । पतिके साथ रही है, पतिके के मध्ययुगकी विधवा है, समाजका अंग होकर मी, सामासाथ रहेगी-चिताके ज्वालामय वाहन पर भारत हो, जिक जीवनके स्पन्दनसे शून्य। सांस चलता है,केवबासी किसी अपयशोककी ओर जैसे देहधरे ही बह उबीजा लिये जीवित, अन्यथा जीवनके सब उपकरणोंसे दूर, जिसने रही है, जहाँ पहै,कुरूप नहीं, मंगल है अमंगल नहीं, सब कुछ देकर भी कुछ नहीं पाया, बलिदानके बकरेकी मिवानी, बियोग महीं। यह भारतके स्वयं युगकी महा- तरह बम्बनीय | जिसमे टोकरें खाकर भी सेगडीचौर महिमामवी सती, उसे शतशत प्रणाम ! रोम रोममें अपमानकी मुहयोंसे सिंध कर भी विमोहनहीं. + किया। हमारे सांस्कृतिक पतनकी प्रतिविम्ब और सामाजिक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनेकान्त [वर्ष ६ बासकी प्रतीकामधन्य मूर्तिको भी प्रणाम ! की भाषामें एक ऐनीमेण्ट ! तो पति मर गया और वह ___ पति मर गया है, पत्नी १६ वर्षकी है। हंसनेको ऐग्रीमेण्ट भंग! अब नारी स्वतन्त्र, चाहे जिधर जाये, चाहे जो करे ! हैन यही हो तो फिर हमारी संस्कृति में, उत्सुक-सी कली पर विपदाका जब पहाड टूटा, मौके इन शाबोंमें, विवाहके ये गीत क्यों इस हां के साथ जैसे विसापका धुवां जबमाकाशमें भर चला, परिवार और पास भीतरका, प्रास्माका सब रस सूख चखा। पडौस जब कलेजेकी कसकर्मे कराह उठे. तब पिताने धीमें, फिर चिन्तन, गम्भीर चिन्तन, अन्तरमें भाव-धाराकी पर द स्वरमें कहा-चोमो मत, रसकी पूडियां मत सृष्टि। जीवनमें पाथी तो अनेक है, पतिका अर्थ है प्रतीकउवारो.मैं अपनी बेटीका पुनर्विाह करूंगा. तो जैसे सख व्रतका प्रतीक, बचपका प्रतीक । पतिव्रतका अर्थ है पतिका भरको बहती नदी ठहर गई। साथियों ने हिम्मत तोकी, बत ! पतिकी पूजा। दुनिया कहती है हो ! धर्म कहता है पंचोंने पंचायत के प्रपंच रचे, सुसराल वालोंने कानूनी नहीं, पतिका बत, पतिकी पूजा? यह अर्थका अनर्थ है। शिकंजीकी खूटियाँ ऐंठ कर देखी पर सुधारक पिता रख मानव मानवकी पूजा करे, मानव ही मानवका प्रत हो यह रहा, उसने युगकी पुकार सुनी और एक योग्य बरके साथ ईश्वरके प्रति द्रोह है। फिर ! पतिव्रत-पतिके द्वारा बत, अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया, धूमधामसे, उत्साहसे, पतिके द्वारा पूजा। पूजा लक्ष्यकी, प्रत साध्यकी प्राप्तिका। गम्भीरतासे। कन्याका मन प्रारम्भमें हिरहिराया, फिर सब यह सचय क्या है? साध्य क्या? व्यक्तिकी अनुभव हुधा और फिर उसका मन अपने नये घरमें रम समष्टिके प्रति एकता, अणुकी विराटमें लीनता, भेद उपगया। पतिके प्रति अनुरक्त, परिवारके प्रति सहदय और भेदोंकी दीवारें लांघ कर, प्रज्ञान गिरिके उस पार हंसते र अपनी सन्तानमें बीम बह जीवनकी नई नाव खेचली। खेलते प्रभु-परमात्मामें जीवकी परिणति । यह हमारे युगकी नई करवट, परम्पराकी नई परि मोह, तब पति है साधन, पति है पथ, पति है अब इत्ति, नारीकी सहायताका नया अवलम्ब, समाजके लम्ब, न साध्य हीन लचय ही! पर साधन नहीं, तो साध्य निर्मायकीमव सूचनाका एक प्रतीक. जिसे भारम्भमें कहां पथके बिना हिय प्राप्ति वैसीऔर वह होगया भंग' वर्षों पतिका प्यार तो मिला, पर समाजका मान नहीं, . भगवानको कृपामे फिर ज्ञानका भाखोक। भंग कैसा!. जिसे परिवार मिला, जिसमे परिवारका निर्माण किया पर लहर जग सरितामें लीन होती है. समपया वह नाश है। जिसे बरसों पारिवारिकता न मिली. जिसे बरसों नई बीज जब मिट्टी में मिल वृक्षमें बदलता. तब क्या वह भाचाचीके मधुर कोलाहलमें मी विगत वीरानेकी शून्यताका नाशहूं: यह नाश नहीं है, यह परिणति है। पति .. भार होना पड़ा. पर जो धीरे २ युगका अवलम्ब लिये हैलहर, सरिता समाज, पति हैबीज, वृष है समाज । स्थिर होती गई और जोपाज भी कुक्षीनताके निकट व्यंग पति नहीं है! इस नहींका अर्थ है प्रतीककी परिणति । की तो नहीं, डाँगितकी पात्र है। नवचेतनाके इस साधना नारी बयकी भोर गतिशील. कल भी थी, भाज भी श्रोतको भी प्रयाम! x x x x । यही उसका बताकर इस ग्रनका प्रतीक या पति। पति मर गया है, परनी १६ वर्षकी। माशाचोंके भाजो समाज । गतिके लिये वहीनता अनिवार्य है। कल सब प्रदीप एकही मौकमें बुम गये। कहीं कोई नहीं,कहीं सहीनताका प्राधार था पति, पाहै समाज । कख नारी कुछ नहीं, बस शून्य-सब शून्य। स्थिरता जीवन में सम्भव पतिके प्रेम में लीन थी माज समाज प्रेममें सीन है। यह नहीं, पैर हिखानेकी भी शाक्षिसे हीन । सहायमें एक लीनता स्वयंपने को पूर्ण तत्व नहीं, पूर्णताका शपाखोक, माखोकमें जीवनकी स्फुरया और स्फुरणामें सपा नानीका सचच भावच है, जो कम था, वही भाजहै. पर पथ परिवर्तित हो गया-प्रतीक बदक्षा, साधन पति! नारीके जीवन में पतिका या स्था१पति बदले, गरका यात्रीबदन पर अपना जलपोत त्याग क्या विवाह द्वारा प्रास एक साथी और विवाह'माज हवाई जहाज पर उपचला। उसे इंगड ही जाना था, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] पण्डिता चन्दाबाई १५१ और इंगर ही जाना है--यात्रा साधनोंका परिवर्तन विवाह हुमा, उनके निकट इसका अर्थ है, विवाह यात्राके लक्ष्यका परिवर्तन नहीं। संस्कार हुमा और १२ वर्षकी उनमें उनका सबकुछ चिन ज्ञानके पालोककी इस किरहमालामें स्मानकर नारी जैसे गया-वे ठीक डीक जान भीन पाईऔर वैषम्यकी ज्वाला जाग उठी, जीउठी। मिराशा माशाके रूप में बदल गई, वेदना में उनका सर्वस्व भस्म होगया। २ वर्षकी एक सुकुमारवाधिका, जो दुनियाको देखती प्रेममें अम्ताहित, स्तब्धता स्फुरणाम, सामने स्पष्ट साक्य, है, पर समझ नहीं पाती। जोसमझती है, अपने व्याकरणसे, में गति, मनमें उमंग, जीवन में उत्साह । मस्तिक अपने कोशसे, अपने ही बचणसे। इतना विशाल विश्व सद्भावनाघोंसे पूर्ण, हदय प्रेमसे। कहीं किसीका कार देखा और पैर चले, कहीं क्सिीका कष्ट देम्बा और भुजाएं उठी, और हकने यात्रायहां भाग्यका अस्तित्व है. योग्य अभिभावक मिले.पथ बना । वैच्याच की श्रद्धाका सम्बन लियेकी कहीं किसीका कष्ट देखा और मस्तिष्क चिन्तित-विश्वभरके जीवन में प्रोतप्रोत-पत्नी अब वह किसीकी नहीं, माता सारे जैनस्वकी साधनाने उन्हें प्रगति दी। श्रद्धा और साधना विश्वकी, सबके लिये विश्वसनीय, सबके लिये बन्दनीय । दोनों दूर तक साथ साथ चली । श्रद्धा समर्पणमयी है यह भारी नारीत्वका चरम विकास है, उसके सतीत्व साधना ग्रहणशील, श्रद्धा साधनामें लीन होगई। की परम गति, उसकी गतिकी अन्तिम सीमा है, जहां श्रद्धामयी साधना मूक भी है, मुखरित भी मुखरित साधना, जिसमें अन्तर और वास मिलकर चलाते हैं-पुर, महावीर वह अपना लक्ष्य पाती है, यही उसके जीवनका गंगा और गाम्धीकी साधना, जिसमें प्रारम चिन्तन भी है जगमागर है, जहां वह भगवान सागरमें लीन हो, परम सुख का लाभ लेती है। निर्माणमयी. निर्वाणमयी नारीकीम कल्याण भीयही पथ चन्दाबाईजीने गुना। विगत वर्षों में उन्हों ने कोमात्मसाधनाकीमतरमे सपनपा, वह उनकीधाकृतिमें, नित नूतन मूर्तिको लाख लाख प्रणाम। जीवनके अणु अणुमें व्याप्त है। प्रत्या, जिसके अनुसन्धान भारतीय संस्कृतिके सबल साधक गान्धीजीने मारीकी में श्रम अभीष्ट नहीं भर इन्ही बाम उन्होंने बोक. इसी शक्तिको, वैधन्यके इसी दिव्य रूपको 'हिन्दूधर्म का कल्याणकी जो साधनाकी, उसथा मूर्तस्पधाराका जैनवाला भंगार कहा है। अंगारकी इसी दीप्तिसे प्रोग्यसमाज एक विश्वाम' है. देशकी पक प्रमुखसेवा-संस्थापास्मसाधनामें नारी हमारे मध्यमें है-पशिडता चन्दा बाई! सन्यासी,लोकव्यवहारमें सांसारिक, विश्व और विश्वात्माका समन्वय ही इस महिमामयी नारीकी जीवन-साधना है। पण्डिता चन्ता बाई-एक वैष्णव परिवारमें जन्मी, जीवनमें धार्मिक, व्यवहारमें देशसेवक, सिखातों में अतीत राधाकृष्णकी रसमयी भक्तिधाराके वातावरण में पली। माकी की मूलमें, प्रगतिम नवयुगकी काया, जिसकी एक मुट्ठी में लोनियोंमे उन्हें अधाका उपहार मिला, पिताके प्यारमें भूत, दूसरीमें भविष्य और वर्तमान जिसके जीवनी-मासमें उन्होंने कर्मठताका दान पाया और ११ वर्षकी उनमें एक व्याप्त, यही परिखता चन्दाबाई । युगका सन्देश वहन सम्पन्न जैन परिवारमें उनका विवाह हुमा। करती साधनामयी इस नारीको भी शत शत प्रणाम ! onsoornstawral "असत्यके भयसे अपने अन्तरका द्वारदेश अवरुद्ध कर मैं बैठ गया। बाहरसे सत्यने पुकारा बार बन्द है, मैं भीतर कैसे आऊं?" -श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर Monocom Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरणीय ( जिन सउतनों की ओरसे अनेकान्त जहाँ फ्री भेजा जा रहा है उनका सूची इससे पिछली किरण में प्रकाशित हो चुकी है। उससे आगे की सूची निम्न प्रकार है । (२१) ला०] दलीपसिंहजी कागजी देहलीकी ओरमें — व्यवस्थापक ) (२६) श्री बा० महेन्द्रकुमार जी जैन रईस नानौता की ओरसे १ सेक्रेटरी लेजिस्लेटिव असेम्बली डिपार्टमेण्ट, न्यू देहली २ सेकेटरी हार्डिंग लायब्रेरी, कम्पनीबाग, देहली ३ मौलाना ख्वाजाः समानजामी, दरगाइहजग्तनि., देहली ४ श्री पं० माखनलालजी चतुर्वेदी, खण्डवा सी० पी० (२२) ला० जुगलकिशोरजी कागजी, देहलीकी ओरसे १ कवि श्री मैथिलीशरणजी गुम, चिरगांव झाँसी २ लायब्रेरियन हिन्दुकालेज, देहली १ मंनेजर देशहितैषी पुस्तकालय, खारी बावड़ी, देहली ४ पं० रामचन्द्रजी शर्मा, गली बहूजी सदरवाजार, देहली (२३) ला० पी० एल० बच्चूमलजी कागजी, देहलीकी ओरसे १ पं० सीतारामजी शास्त्री विद्यामान, सदरबाजार देहली २ मैनेजर मारवाड़ी पुस्तकालय चांदनीचौक देहली ३ श्री० काका कालेलकरजी गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद ४ सम्पादक 'कल्याण' गोरखपुर (२४) ला०. सुलतानसिंहजी जोहरी, देहलीको भोरसे१ लायबेरियन नेपालस्टेट लायब्रेरी कठमाड २ डा० भगवानदासजी बनारस ३ लायब्रेरियन रायल एसियाटिक सोसायटी, कलकत्ता ४ मैनेजर शिक्षामन्दिर योजना, वर्धा सी० पी० (२५) बाबू महावीरप्रसादजी महावीर स्वदेशी भंडार, सरधनाकी ओरसे १ श्री अरविंदयोगाश्रम पाण्डीचेरी २ भी रामतीर्थ सेवाश्रम, कलकत्ता ३ मैनेजर आल इण्डिया हिन्दू महासभा न्यू देहली ४ लायप्रेरियन लायल लायब्रेरी टाउनहाल, मेरठ ५ मैनेजर श्रवणनाथ ज्ञानमन्दिर, हरिद्वार ६ डा० दुर्गाशंकर नागर सम्पादक 'कल्पवृक्ष' उज्जैन ७ भी बा० शंभूदराजी मार्फत महावीर स्वदेशी भंडार १ प्रो० डा० भीखनलाल श्रात्रेय, हिन्दूयूनिवर्सिटी बनारस २ विरला कालेज पिलानी ३ प्रो० सरं यदुनाथ सरकार कलकत्ता ४ डा० सर० पी० सी० राय 37 ५ लेडी ठेक्कर से पून। ६ लायब्रेरी विडला मन्दिर, न्यू देहली ७ स्वामी शंकराचार्य (२७) ला० मित्रसैनजी रि० मुन्सरिम मुजफ्फरनगर की ओरसे १ मंत्री, श्री गोपाल दि० जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरेना (ग्वालियर) २ वीर जैन लायब्रेरी जैनस्कूल कुन्दपुरा मुजफ्फरनगर ३ महावीर जैन पाठशाला श्रानन्द चौक देहरादून (२८) श्री भंवरलालजी छावड़ा ( मेसर्स भंवरलाल टीकमचंद । भेलसाकी ओरसे १ लायब्रेरियन मारवाड़ी पुस्तकालय, बड़ाबाजार, कलकत्ता २ गयाप्रसाद पब्लिक लायब्रेरी ए० बी० रोड, कानपुर । ३ श्री. मामउद्योग संघ मगनवाडी वर्षा सी० पी० ४ लायब्रेरियन यूनिवर्सिटी लायब्रेरी, नागपुर ५ श्रीकृष्ण पब्लिक वाचनालय, बड़बानी सी० आई० ६ मैनेजर पब्लिक लायब्रेरी, मन्दसौर (ग्वालियर) (२३) चौ० संतूलाल हुकमचंदजी कटनीकी ओरसे१ सर राधाकृष्णन वाईस चान्सलर हिदूयूनिवर्सिटी बनारस २ डा० मंगलदेवजी राजष्ट्रार ग०सं० कालेज बनारस ३ लायब्रेरियन डिस्ट्रिक्ट लायब्रेरी जबलपुर (३०) सेठ कोमलचंदजी जैन सतनाकी ओरसे१ भिक्षु भार्यमित्र प्रारलैंड दरीमेंट डोडाण्डुबा ( सीलोन) (शेष अगली किरण में ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटे वर्ष में अनेकान्तके सहायक गत तीन किरा प्रकाशित सहायता के बाद जो और २५) हेमचन्दनी, एबोर, अजमेर सहायता कर तथा बचमरूपमें पास हुई और जिनके २)सेठ पावसावजी पाटनी, मोसा (बाविपर) शिये सहायक महाशमपन्यबादके प्राचसकी सूची..) श्रीमुकमबाबजुचन्दजी, बगोरा सहायकोंकेएम नाम सहित इस प्रकार है .)बा.बच्चीरामजी उपहार-ग्रन्थ 'भनेकान्त' उपहारमें देने के लिये हमें दिगम्बर जैनसमारंगरपुरकी तरफसे 'पुष्णान्तिसुभासिन्ड' प्रन्यकी ५०. प्रतियां प्राक्ष हुई है, जिसके उक समाज विशेष धन्यवादका पात्र है और उसका यह कार्य दूसरों के लिये अनुकरणीय है। मूखग्रन्थ संसकतमें प्राचार्य श्रीकुन्धुसागरजीका रचा मासाबमें पंणिका नामकी संस्कृत टीका बागी, हिन्दी अर्थ और विशेषार्य तथा अंग्रेजी अनुवाद भी दिया हुमा। अतः जिन प्राहकों को प्रावश्यकता होवे पोटजसके लिये निम्न पते पर एक मामा भेजकर उसे मंगा | उन... प्राहकों कोहीहम यह अन्य दे सफेंगे जिनकी मांग पोटजसके साथ पहले पाएगी। व्यस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर सरसावा, जि. सहारनपुर T पुरातन-जैनवाक्य-सूची XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX जिस पुरातन-जैनवाक्य-सूची (प्रासपद्यानुक्रमणी) मामक प्रम्पका परिचय पिचली किरथम दिया जा चुका है और जिसकी पाबत पाठक यह जानते पा रहे हैं कि वह कुछ महीनोंसे प्रेसमें ,उससम्बन्ध मात्र यह सूचना देते हुए प्रसन्नता होती है कि वह पप गया है-सिर्फ प्रस्तावना या कुछ अपयोगी परिशिष्टीका अपना और उसके बाद बाइंडिंगका होना बाकी है, जो एक माससे कम नहीं लेगा प्रस्तावना या परिशिरों में प्राकृत भाषा और इतिहासादि सम्बन्धी कितने ही ऐसे महत्व विषय रहेंगे जिनसे ग्रन्थकी उपयोगिता और भी बढ़ जावगी। पांडके उत्तम कागज पर छपे हुए इस सजिवद प्रन्थका मूल्य पोटेजससे अवग HUMES १२)ह.होगा, जो अबकी यारी और पाई होने वाले परिश्रम और कागजकी इस भारी मॅहगाईको देखते हुए भी नहीं है जो सजन प्रकाशित होनेसे पहले ११). मनिभाईरसे भेज देगे उन्हें पोटेक नहीं देना होगा-प्राकाशित होते ही अन्धाक रजिष्टरीसे उनके पास पहुंच जायगा। प्रत्यकी .. कापियांपा .जोशीही समास हो जायेंगी, क्योंकि किसनेहीभार पहबीसेमापन: जिन सजनों, संस्थानों, कालिजो तथा बायोरियों माविको भावश्यकता हो शीत्री मनीभाईरसे रूपया निम्न पते पर भेज देखें अमवा अपना नाम दर्ज रजिस्टर करा । अधिष्ठावा 'बीरसेवामन्दिर' सरसावा, जि. सहारनपुर XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registere No. A-731. JAMUNHR .. . सहारमपुरमें साहित्यिक समारोहका आयोजन समाजके निस्पृही विवान, प्रसिद्ध अनुसंधाता श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तारका सम्मान श्री ला० राजेन्द्रकुमारजी डायरेक्टर भारत बैंक पधार रहे हैं! अनेक सम्मेलनों, मानपत्रों और पार्टियोकी भरमार . समस्त जैनसमाज और हिन्दी प्रेमियोंमें यह समाचार अत्यन्त हर्षके साथ सुना जायगा कि सहारनपुरमें ५ दिसम्बर १८४३ दिन इतवारको शामके सात बजे जैन हाई स्कूलके विशाल प्रांगणमें समाजके वयोवृद्ध, निस्पृही, साहित्यसेवी, प्रसिद्ध अनुसंधाता ९० जुगलकिशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता बीरसेवामन्दिर और सम्पादक अनकान्तका उनकी ६७ वीं वर्षगांठ के उपलक्षमें समाज और साहित्य के प्रति की गई उनकी सेवाओंके फलस्वरूप एक विशाल सम्मान समारोह उत्सब, भारतकी सबसे बड़ी व्यापारिक संस्था भारत बैंकके मेंनजिक डायरेक्टर श्री ला० राजेन्द्रकुमारजी जैनके सभापतित्वमें मनाया जायगा। . मुख्तार साहबको श्रद्धाञ्जलि देने और उनके कार्यों पर अपने निबन्ध पढ़ने के लिये जैन अजैन भनेक सुप्रसिद्ध साहित्यिक और नेता सहारनपुर पधार रहे हैं। श्री साहू श्रेयान्सरसादजी वायस चेयरमैन 'भारत इन्शोरेन्स कम्पनी, श्री बा लालचन्दजी जैन एडवोकेट रोहतक पूर्व सभापति आल इणि या दि. जैन परिषद, श्री सेठ लालचन्दजी वीड़ी वाले देहली, श्री बा. रतनलालजी भूतपूर्व एम० एल० सी और कीफ हिर यू०पी० कौसिल, श्रीमती लेखवती जैन भूतपूर्व एम० एल० सी०, हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक श्री जैनेन्द्रकुमारजी, वान प्रोफेसर मोहन, श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी महामंत्री आल इण्डिया दि० जैन संघ मथुरा, प्रिन्सिपल पसैलजी देव नागरी कालेज मेरठ, श्री स्वामी कृष्णचन्द्रजी दर्शनाचार्य अधिष्ठाता गुरुकुल संपला, श्री पं० सत्यदेवजी विद्यालङ्कार सम्मदक दैनिक विश्वमित्र देहली, श्री पं० देवदत्त श मादक दैनिक मिलाप लाहौर, श्री डा. दुर्गाप्रसाद पाण्डे डी.लिट. प्राचार्य 'मानव भारती, श्री ला तनसुखरायजी जैन देहली, श्री वा बोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता आदि महानुभावोंकी स्वीकृति मा चुकी है। इसी अवसर पर माल इण्डिया दि० जैन परिषदकी बकिंग कमेटीकी मीटिंग और जैन शिक्षण मेकी मीटिंग भी हो रही है। विनके समय भाने वाले अतिथियों के सम्मानमें भोज और पार्टी भी होगी। अनेक संस्थाये अपनी-अपनी मोरसे मानपत्र भेंट कर रही हैं। .. .जैनसमाजके प्रत्येक कार्यकर्ताका कर्तव्य है कि इस अवसर पर पधार कर समाजके इस प्रगतिशील कार्य में अपना सहयोग दे। प्रद्युम्नकुमार (रायसाहब) . मईवास स्वागताध्यक्ष स्वागतमन्त्री .. श्रीजुगलकिशोर सम्मान समिति कोर्ट रोड सहारनपुर यू०पी० SENTS बायक.परमानन्धरसीबीरसेवामन्दिरसरसावाके किये श्यामसुन्दरखाव भीमास्ववहाराश्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में सुनिन . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजुगलकिशोर मुख्तार सम्मान समारोह-बङ्ग अनेकान्त दिसम्बर १९४३ जनवरी १९४४ स्थायी सम्पादक श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार इस अनुके सम्पादककन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' वर्ष ६ किरण ५, ६ व्यवस्थापक कौशलप्रसाद जैन, फोर्ट रोड, सहारनपुर श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १८॥ . . . . . . . . . . १६. . . . ....16 . . १७E मंगलाचरण और मेरी भावना विशेष पृष्ठ १५ मभिनन्दन-श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुक्षित' २ पचण्डि -क.सा. प्रभाकर १५३ १६ साहित्य-सपस्वी-बी कल्याणकुमार 'शशि' हमारे समारति: एक अध्ययन-क००'प्रभाकर'१६. ३. श्रद्धाजलि-श्री प्रमुखाल प्रेमी . मुख्तार महोदयका सर्वस्व दान | २८ अडाके फूल-श्री 'भगवत्' जैन ५ सम्मान समारोहका विवरण-एक पत्रकार १६५ ३६ वन्य जीवन-[श्री 'हर्षित' हमारे सहयोगी ४. तुम डाल रहे-श्री भीमप्रकाश • स्वागत भाषण-श्री प्रद्युम्नकुमारजी १ जय जय जुगलकिशोर-श्री बुद्धिलाल श्रावक १११ ८अमिनन्दन पत्र ५२ मुख्तार साहबके प्रति-श्री कपूर चन्द जैन . हमारे माननीय अतिथि ४३ सभापतिका अभिभाषण-[श्री राजेन्द्रकुमारजी १. वीरपूजाका भादर्श-श्री महेन्द्रजी ५५ उत्तर-माषण-[श्री मुख्तारजी द्वारा १६१ "मादर्श अनुसंधाना-बा. ए. पन उपाध्याय १७६ | १५ मुख्तार साहबका जीवन-चरित्र विद्वानोंकी टिप्पणियो ४६ मंगलाशासनम् [श्री पक्षालाल जैन - १२ • विशेषताएं-श्री दौलतराम मित्र ४. मेरा अभिनन्दन-[पं. माणिकचन्दजी १६ .१३ हविरस्मि नाम, डा. वासुदेवशरण ४८ शीर्षक पहले १६६ १४ भावीपीढोके पथप्रदर्शक-श्री कामताप्रसाद ४३ श्रद्धान्जलि-श्री माईदयालजी १५ प्राचार्य श्री मुख्तारजी-[पं. मोहन शर्मा ५. स्वयं अपने प्रति-[श्री भक्त २०. १६ अमरकृतियोंके मष्टा ५१ देशव्यापी स्वागत २०१ से २०० (नाम भूलसे अपना रह गया-क्षमा) १२ :एकप्रकाशकके रूपमें[श्रीकाशीराम शर्मा प्रफुल्लित'२०१ १. घुग संस्थापक-[प्रो.हीरालालजी १८. २५ विरोधमें भी निर्विरोध-श्री रवीन्द्रनाथ १८ पुराने साहित्यिक (प्रो. शिवपूजमसहाय ५४ परिचय-श्री एम. गोविन्द पाई १६ भविष्यके निर्माता-[भाचार्य वृहस्पति १५ कम्य पालनका प्रश्न-श्री राजेन्द्रकुमारजी। २. भादर्श पुरुष-श्री अजितकुमारजी, मुलतान ५६ सरसावाका सन्त-[श्री मंगलदेवजी २१३ २, साहित्य-तपस्वीको वन्दन-[श्री परमेष्ठीदास १८१ ५. कृपण, स्वार्थी, हठयाही-श्री कौशलप्रसाद जैन २१ तपस्वीश्रीजमनावास व्यास . ५८ पण्डितजीके दो पत्र २३ साहित्यदेवता-[श्री माणिषयचन्द्रजी १८२ ११ १२ वर्ष बाद २४ एक झांकी-4. रविचन्द्रजी १E३ ६. स्वरकी ज्वालाम-श्रीमती कौमुदी २५ कठोर साधक-श्री ज्ञानबहादुरजी १८३ ६. अपमानके बदलेमें-श्री स्वतन्त्र २२० २६ बा० सूरजभानजीका पत्र १८४ ६२ मेहमान रूपमें-लाखा षभसैन २. दिगम्बर प. महान सेवक-[पं० गोन्द्रकुमार १५ ६५ बरे अच्छे हैं पण्डितजी [शारदा जैन १८ भाई-श्रीछोटेलालजी १. सम्पादकीय टिप्पणियां २२३ २६ हमारे गर्व-श्री दुलारेलाल भार्गव ६५ वीरशासनाककी सूचना २२५ ३. मेरा अभिनन्दन-श्री धर्मेन्द्रनाथ शाखी १८६ ६ विरोध में भी मधुर-श्री पक्षालाल २२८ " मुक्तारजीकी विचारधारा-[श्री पुरुषोतमजी - टा. पृ.. .. ११ जीवनकी दिशा-[श्री विद्यानन्यजी 107 | बठेपर्षका अनेकान्त ) कविवाणी | बठे वर्षकी प्रथम किरण हमारे पास समास हो गई। ५ स्वागत-प्रो. गवाप्रसाद शुक्ल अत: भविष्य में बनने वाले ग्राहकबाकी किरणों खिये २४ प्रणाम-भी अखिलेश भूप १. केवल १) रुपये ही भेजनेका कहकरें। -व्यवस्थापक २१. १E. . . . . . १८. Page #171 --------------------------------------------------------------------------  Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ईम् - वाषिक मूल्य ५० इस किरण का मूल्य ॥) नीतिविरोषसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्बन् परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ . ... दिसम्बर-जनवरी पीरमवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम) मरमावा जिला महारनपुर पौष माघ शुज बीरनिर्वाण स. २४७५, विक्रम म. २... * मगलानर ते सज्जनाः किल भवन्तु सदा प्रसन्नाः ये प्रीणयन्ति जगती जनतामनांसि । शश्वत्परोपकृतिकर्मपरावचोभिः वारांभरर्धनघटा इष कानमामि ॥ जिम्मन गगढषकामादिक जीने मब जग जान लिया। सब जीवोंगो मोक्षमार्गका निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध,बर, जिन हरि, हर, मक्षा या उसको स्वाधीन कहो भलिभावम प्रेरित हो यह चित्त उपीमे बीन रहो।। विषयोंकी भाशा महिं जिनके,साम्य भाव धन रखते हैं। निज परके हित साधनमें जो निश-दिन तत्पर रहते हैं। म्वार्थत्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है। ऐम ज्ञानी मा जगतके दुखसमूहको हरते है॥ नहीं पता किसी जीवको, रहे सदा मासंग उन्हींका, ध्यान उन्हींका नित्य रहे। उनही जैमी पर्याने मह, वित्त मा अनुरक हे। पर पन बनितापरखुमाऊँ, सतोचायत पिया करें। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महकारका भाव न रवा नही किमी पर क्रोध करें। देख दूसरीकी बढ़तीको कमी नां भाव धरूं। रह भावना एसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार बन जहाँ ना इस जीवनमे, औरॉका उपकार होकर सुखम मन न फूले, दुम्बम कमी न घबराये, पचनवी रमझाम भयानक मडवीसे महिं भय खाये। रहे अडोल प्रकप चिम्न्तर, यह मन, इतर बन जावे, वियोग - अनिष्टयोगम सहनशालता दिखलाया मैत्रीभाव जगतमे मेरा मथ जाबोंम नित्य रहे, दीन दुखी जीवों पर मेरे तरसे करणालीत बहे। दुर्जन कर मार्गरती पर चोभ नहीं मुझको भावे, साम्यभाव पर मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे। सुखी रहे सब जीव जगतक, कोई कभी न घबरावे बैर पाप माममान जोर जग निस्थ नये मगल गावे । घर घर चचा रहे धर्मको दात दुर हो जाये ज्ञान चरित उजत कर अपना मनुज सन्म फल सब पाये। .. गुणीजनोंको देख हवयमें मेरे प्रेम उमा भारे, बने जहा तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे। होऊँ नहीं कृान कभी मैं, दोह म मेरे उर भावे, गुण ग्रहणका भाव रहे मित, दृष्टि न दोषों पर जावे। ति भीति म्यापे नहिं जगम वृधि ममय पर हुमा करे धर्मनिष्ट होकर राजा भी। न्याय प्रजाका क्यिा कर। रोग-मरी-दुभिक्ष न फैले प्रमा शान्तिम जिया करे । परम हिमा-धर्म जगनमे, फैल सर्वहित किया करे । कोई बुरा कहो या अच्छा बचमी चावे या जावे, वाली वषो तक जीऊँ या मृत्यु माज ही भाजावे। अथवा कोई कैसा ही भय था लालच देने चावे, तो भी न्यायमार्गस मेरा , कभी न पर डिगने पाये। कैले प्रेम परस्पर जगमे मोड दूर पर रहा। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नाहिं कोई मुबसे कहा करे बनकर सब युगवीर वयसे देशोचति रत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशीपे सब दुस-सकट महा करे ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनका रिकार्ड -- पथ-चिन्ह ( भी कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ) मंगसिर सुद्दि एकादशी सम्वत १६३४ ! वर्ष के ३६५ दिनों में वह भी एक दिन था । उस दिन भी प्रभात के अनन्तर सन्ध्याका आगमन हुआ था और तब निशा रानीने अपना काला अांचल पमार सबको अपनी गोद में ले लिया था । यह कोई खास बान न थी, पर हाँ, एक खास बात थी जिसके कारण राष्ट्रभारतीके इस पत्रकार को उसका उल्लेम्ब यहाँ करना पड़ेगा। उस दिन सरमात्रा ( सहारनपुर) में श्री चौधरी नत्थूमल जैन श्रमवाल और श्रीमती भोईदेवी जैन श्रमवाल के घर में एक बालकने जन्म ग्रहण किया था । बुद्ध और घसीटा, अल्लादिया और विल्सन, सबके अन्योका रिकार्ड म्यूनिसिपल रखती है, ऐसे भी हैं, जिनके जन्मका रिकार्ड राष्ट्र और जातियोंके इतिहास प्यारसे अपनी गोद में सुरक्षित रखते हैं। यह बालक भी ऐसा ही था - जुगलकिशोर ! उसीकी जीवन-प्रगति के पथचिन्हों का एक संक्षिप्त लेखा मुझे यहाँ देना है। साथमें जैन शास्त्र भी धार्मिक भाव से पढ़ते थे, पर पढ़नेका शौक देखिये कि इन सबके साथ आपने उस समय के पोस्टमास्टर श्री बालमुकुन्द से अपने फालतू समय में अंग्रेजीकी प्राइमर भी पढ़ली । मास्टर जगन्नाथजी बाहरसे बुलाये गये और अंगरेजी का एक नया स्कूल खुला। अपने इम स्कूलकी ओर लड़कों को आकर्षित करनेके लिये आपने एक कविता लिखी, जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार थीं नया इस्कूल यह जारी हुआ है, चलो, लड़को पढ़ो, अच्छा समा है, जमाथन दसवीं से है पाँचवी तक, पढ़ाई सर-बसर कायम है अब तक। कविता लिखने की यह प्रवृत्ति आपमें कहाँसे आई ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि उस समय एक तो सारे देशमें ही ऐसा साहित्यिक वातावरण न था, फिर सरसावा तो बहुत ही पिछड़ी हुई जगह थी। मुझे ऐसा लगता है कि श्रा में जन्मजात जो प्रचार-प्रतिभा थी उसने श्रापको प्रेरणा दी 'चलो लड़को, पढ़ो, अच्छा समा है ! और आपकी आरम्भिक उर्दू शिक्षा इस 'कविता' के शब्द संगठनमें •हायक हुई 'पढ़ाई सर-ब-मर कायम है अबतक' | उस दिन कौन जानता था यही बालक भविष्य में 'मेरी भावना' का लेखक और 'वीरसेनामन्दिर' का संस्थापक होने को है । पहला मोर्चा साहित्य-मन्दिरके द्वार पर "अरे तुम पहले पढ़लो, फिर जुगलकिशोर जम गया, तो रह जाओगे !" यह मकनबके मुंशीजीका दैनिक ऐलान था । ५ वर्ष की उम्र में उर्दू-फारसीकी शिक्षा श्रारम्भ । ब्रहन अच्छा और परिश्रमी । पढ़ने का यह हाल कि २०-२० पत्रों का रोज सबक । शुरुमें पढ़ने बैठ गयें, तो मुशीका सारा समय 'लें और दूसरे लड़कोंका सबक नदारद । पाँचवी कनास तक इस स्कूल में पढ़ कर आप गवर्नमेयट हाईस्कूल और 'दूसरी' (आज कलकी ६ वीं) क्लास पास करने गुलिस्तां बोस्तां पढ़ते-पढ़ते आपकी शादी होगई और इम आपने प्राईवेट पास किया, १३-१४ वर्षकी उम्र में आप गृहस्थी होगये । तक यहां पढ़ते रहे । इसकी भी एक कहानी है। जैन शास्त्रका श्राप प्रतिदिन राठ करते थे और उस १ उस समयके स्कूल दसवीं क्लास से प्रारम्भ होते थे और पहलीमें इन्ड्रेस होता था । उन्हीं दिनो सरसावा में हकीम उग्रसेनने एक पाठशाला खोली । आप उसमें हिन्दी पढ़ने लगे और संस्कृत भी । - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथ-चिन्ह (श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') जीवनका रिकार्ड साथमें जैन शास्त्र भी धार्मिक भावसे पढ़ते थे, पर पढ़नेका मंगसिर सुदि एकादशी, सम्बत १९३४ ! शौक देखिये कि इन सबके साथ आपने उस समयके पोस्टवर्षके ३६५ दिनों में यह भी एक दिन था । उस दिन मास्टर श्री बालमुकुन्दसे अपने फालतू समयमें अंग्रेजीकी में भी प्रभातके अनन्तर सन्ध्याका आगमन हश्रा था और प्राइमर भी पदली। तब निशा रानीने अपना काला अांचल पसार सबको अपनी मास्टर जगन्नाथ जी याहरसे बुलाये गये और अंगरेजी गोद में ले लिया था। यह कोई खास बान न थी, पर हाँ, का एक नया स्कूल खुला। अपने इम स्कूलकी और लड़कों एक ग्यास चान थी जिसके कारमा राष्ट्रभारताक इस पत्रकार । को बार्षिन करने के लिये मापने एक कविता लिखी, को उसका उल्लेख यहाँ करना पड़ेगा। उस दिन सरमावा जिसकी प्राम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार थीं(सहारनपुर) में श्री चौधरी नत्थूमल जैन अग्रवाल और नया इस्कूल यह जारी हुश्रा, श्रीमती भोई देवी जैन अग्रवाल के घर में एक बालकने जन्म चलो, लड़को. पदो, अच्छा समा है, मांगा किया था। जमाचन दसवी' से है पाँचवी तक, बुद्ध और घसीटा, अल्लादिया और विल्सन, सबके पदाईसर-ब-सर कायम है अब तक। जन्मोका रिकार्ड म्यूनिसिपैलिटियों रखती है, पर कुछ ऐसे कविता लिखनेकी यह प्रवृत्ति प्रापमें कहासे आई? भी है, जिनके जन्म का रिकार्ड राष्ट्र और जातियोंके इतिहास यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योकि उस समय एक तो सारे प्यारसे अपनी गोद में सुरक्षित रखते हैं। यह बालक भी देशमें ही ऐसा साहित्यिक वातावरण न था, फिर सरसावा ऐसा ही था-जुगलकिशोर ! उसीकी जीवन-प्रगतिके पथ तो बहुमही पिछड़ी हुई जगह थी। मुझे ऐसा लगता है कि चिन्हों का एक संक्षिप्त लेखा मुझे यहाँ देना है। प्राग्में जन्मजात जो प्रचार-प्रतिभा थी उसने श्रापको प्रेरणा दी-'चली लड़को, पढ़ो, अच्छा समा."और आपकी साहित्य-मन्दिरके द्वार पर प्रारम्भिक उर्द शिक्षा इम 'कविता' के शब्द संगठनमें "अरे तुम पहले पढ़लो, फिर जुगलकिशोर जम गया, सहायक हुई-पढ़ाई सर-य-मर कायम है अबतक' 1 उस तो ह जानोगे " यह मकतबके मुंशीजीका दैनिक दिन कौन जानता था यही बालक भविष्य में 'मेरी भावना' ऐलान था। का लेखक और 'चीरसेबामन्दिर' या संस्थापक होनेको है। ५वर्षकी उम्र में उर्दू-फारसीकी शिक्षा प्रारम्भ । डन पहला मोचोंअच्छा और परिश्रमी । पढ़नेका यह हान कि २०-२० पत्रों पाँचीक्नास नक इस स्कूल में पढ़ कर श्राप गवर्नका रोज सबक । शुरुमें पदने बेठ गये, तो मशीका सारा मेण्ट हाईस्कूल सहारनपुर में प्रविष्ट हुए और 'दसरी' (प्राजसमय पलें और दूसरे लड़कोंका सबक नदारद । कलकी वीं) क्लास पास करने तक यहां पढ़ते रहे। गुलिस्ता-बोस्तां पढ़ते-पढ़ते आपकी शादी होगई और इप,म आपने प्राईवेट पास किया, इसकी भी एक कहानी १३-१४ वर्षकी उम्रमें श्राप गृहस्थी होगये। है। जैन शाखका श्राप प्रतिदिन पाठ करते थे और उस उन्हीं दिनो सरसावामें हकीम उग्रसनने एक पाठशाला १ उस समयके स्कूल दमबी क्लाससे प्रारम्भ होते थे और खोली। माप उसमें हिन्दी पढ़ने लगे और संस्कृत भी। पहलीमें इन्,म होना था। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनेकान्त [वर्षे ६ की 'विनय' के भावसे पापने बौडिंग हाऊमके अपने कमरे 'लाला जुगलकिशोर विद्यार्थी सरसावा जिला सहारनपुर पर यह लिख रक्खा था कि None is allowed to का लेख अवश्य पदिये। enter with shoes किमीको जूता पहने अन्दर सम्पादकके पास लेख मेजते समय जो पत्र आपने पानेकी इजाजत नहीं। एक मुसल्मान विद्यार्थी एक दिन लिखा था वह भी 'जैन गजट' के इसी अंकमें छपा है, उस जबर्दस्ती भीतर जूता ले वाया। इस पर उसे धक्का देकर का दर्शनीय 'ड्राफ्ट' इस प्रकार हैमापने बाहर कर दिया। नये आये हुए हेडमास्टरने इस कस प्रार्थना में न्याय नहीं किया और प्रतिवादमें आपने स्कूल छोड “श्रीमान बाबू सूरजभान साहिब, जैसे कि लघु एक छोड़ दिया । हम हेडमास्टर श्रार इस बानसे भी श्रस- पुरुष व बड़े काम करनेकी प्रार्थना करें तो यह कैसे हो न्तुष्ट थे कि उसने एक बार दशलक्षण पर्व में शास्त्र पढ़ने के सकता है परन्तु जैसे कि पानके संगतसे तुच्छ पत्ता बादशाह लिये, सरसावा जानेको महीन दी थी। पर्व के दिनों में आप तक पहुंच जाता है इसी कार मैं हकीम उमसेनकी श्राशाही पहा, अपनी छोटी उम्रसे ही, शास्त्र पढ़ा करते थे, इस नुसार और आप लोगों की सहायनासे श्रापसे प्रार्थना करता लिये ही न मिलने पर भी प्राप गये और जुर्मानेका दण्ड हूँ कि आप मेरे इस उपरोक्त विषयको यदि भाप अच्छा स्वीकार किया। समई, तो सुधार कर अपने अमूल्य पत्रमें स्थान देखें। आनुषंगिक संयोग देखिये कि इस रूपमें श्राग्ने अपने यद्यपि यह लेख योग्यता नहीं रखना है परन्तु यदि आप जीवनका जो सबसे पहला संघर्ष रचा, उसका सीधा संबन्ध स्थान देंगे, तो मेरा मन भी प्रफुल्लित हो जावेगा और मैं जैनसाहित्य के साथ था । उस दिन कौन कह सकता था कि प्रारको कोटिशः धन्यवाद दूंगा। इस 'किशोर' का सारा जीवन ही जैनसाहित्यके लिये संघर्ष पार कृपापूर्वक प्रार्थनाको पहले लिखें, पश्चात कुल करनेको निर्मित हुश्रा है! लेख लिखें ॥ यदि एक पत्रमें न श्रावेगा तो दोमें छाप देखें। प्रारका श्राशाकारी छापेके अक्षरों में . जुगलकिशोर वि० दफे ३" सरसावाकी जैनपाठशालामें पढ़ते समय ही, आपकी 'वि. दफे ३' का अर्थ है-दर्जा ३ का विद्यार्थी, पर लेखन प्रवृत्तियां प्रस्फुटित हो चली थीं। आपके उस समयके ३ छपाईकी भूल है, उस समय आप ५वीं क्लासमें पढ़ते अभ्यास-लेखादि तो अप्राप्य है, पर ८ मई १८६६ के जैन थे। सन् १९०० में आपके घरमें बचा होने वाला था, उस गजट' (देवबन्द ) में आपका जो पहला लेख छपा था वह अवसर पर स्त्रियाँ जो गीत गाती है, वे भागको पसन्द नहीं प्राप्य है। यह जैनकालिजके समर्थन में है और इसका आये और प्राग्ने स्वयं एक गीत लिख कर दिया, जिसकी प्रारम्भ इस प्रकार होता है पहली पंक्ति इस प्रकार थी"भाई साहबो, सब तरह विचार करने और दृष्टि "गावो री बधाई सखि मंगलकारी" कैलानेसे मेरी सम्मतिमें तो यही प्राता है कि सब अन्धकार इन उबरणोंसे स्पष्ट है कि प्रापकी भावनानोका जागकेवल अविद्याका और विद्यारूपी सूरजके प्रकाशोते. रण तीब्रगतिसे हो रहा था और पार पढ़ते समय ही उसे सब भाग जायेगा, फिर न मालूम भाइयोंने और कौनसा हिन्दीकी ओर ढल गये थे। उपाय इसके दूर करनेका सोच रक्खा है जिससे कि इतना जैनगजट' में आप अक्सर लेख लिखते रहे और प्राप समय बीत गया है और यह दूर नहीं हुआ और इसके की काव्य-प्रवृत्ति भी प्रस्फुटित होती रही। संभवतः १६.. कारण जो जो नुकसान हुए है, वह सबको विदित है।" में ही शोलापुरसे 'अनित्य पंचाशत् नामका प्रन्थ प्रकाशित इस लेख पर जैनगजटके सम्पादक श्री बाबू सूरजभान हुमा।आपको वह बहुत पसन्द पाया और श्रापने तभी जीने जो शीर्षक लगाया था वह उस कालकी हिन्दी पत्रकार उसका पद्यानुवाद कर डाला। कलाका एक मनोरंजक उदाहरण है उसका एक नमूना इस प्रकार है Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] पथ-चिन्ह १५५ यद्यकत्र दिने न मुक्ति रथवा निद्रा न रात्रौ भवेत् मुखपत्र 'जैनगजट' (देवबन्द) के सम्पादक बनाए गये। विद्रात्यम्बुजपप्रवद् दानतोभ्याशस्थिताद्यधुबम् । यह आपकं मम्पादनका प्रारम्भ था। सम्पादन ग्रहण अस्तव्याधिजलादिनोऽपि सहमा यश्च क्षयं गच्छति, करते समय पत्र में आपने किसी प्रकारकी अपनी नीतिघोषणा भ्रात: कात्र शरीर के स्थिरमति शेऽस्य की विस्मयः॥ नहीं की, मिर्फ मंगलाचरण के रूपमें एक लेख लिखा। वास्तवमें तब श्राप लेखक थे और आपकी सम्पावनकला एक दिवम भोजन न मिलै या नीन्द न निशि को श्रावे, अंकुरित ही होरही थी । ३१ दिसम्बर १६.६ तक प्राप अमिसमीपी अम्बुज दल सम यह शरीर मुरझाये, उसके सम्मदक रहे। शस्त्र-व्याधि-जल श्रादिकसे भी, क्षणभरमें क्षय हो है, इस बीनके 'जैन गजट' का निरीक्षण करनेसे हम चेतन!क्या थिर बुद्धि देहमें विनशत अचरज को है? पापकी तात्कालिक सम्पादन-प्रवृत्तियोंको ३ भागोमें बोट उपदेशकके रूपमें सकते हैं। पहली भाषा-संशोधनात्मक, दूमरी सुधाग्भावनाइन्ट्रेस पास करते ही आपके सामने जीविकाका प्रश्न त्मक और तीसरी प्रमाणसंग्रहात्मक । आपने उस काल में माया ।इधर उधर नौकरीकी तलाशकी, पर मन माफिक अपनी और दूसरे लेखकोंकी भाषाके संशोधनमें बहुत भारी कोई काम न मिला। अन्तमें आपने बम्बई प्रान्तिक सभा परिश्रम किया । आप यह ध्यान बराबर रखते थे कि की वननिक उपदेशकी सन् (EEL के नवम्बरमें प्रारम्भ हरेक लेख, टिप्पणी या सूचना इस प्रकार दी जाये कि की जो १ मास १४ दिन ही चली। उपदेशकके दो रूप समाजमें सुधारकी भावना जाग्रत हो । और जो कुछ भी हैं। एक में वह अपनेको उपस्थित जन समूहके सामने नेता ___ कहा जाये घर प्रमागा-परिपुष्ट हो। अपने अग्रलेखों में प्रापने के रूपमें, सम्देश देते हुए पाता है और दूसरे में संस्थाके सदेव नीनी प्रवृत्तियोंका समन्वय रखनेकी चेष्टा की है सभापति और महामन्त्रीके सामने एक नौकरके रूपमें और यही कारण है कि आपके अग्रलेख प्रायः बहुत लम्बे निर्देश लेते हुए। और तब उसका मन उससे पूछना है कि रहे हैं। २०४२६४ सालके पत्रमें ७-८कालमके अग्रये लोग कुछ न करते हुए भी सम्माननीय है और मैं संस्था लेख श्राप प्रायः लिम्बतेथे।१अक्तूबर १६.७का अग्रलेख के लिये रात दिन काम करके भी सम्मान-हीन, केवल तो १२॥ कालममें समास हुना है। यह 'भावागमन' के इसी लिये तोकि मैं अपने निर्वाहके लिये कुछ रुपये मीलेता सम्बन्धमें है। हैं और ये नहीं लेते। सम्भवतः मी प्रकारका कोई अनभव न सितम्बर १९.७के अग्रलेख में आपने पत्रोमें प्रकापण्डितजीको हुनाया क्या, उन्होंने यह निम्मय किया कि रुपया शित होनेवाले अश्लील विज्ञापनोंका विरोध किया है और लेकर उपदेशकीका काम न करेंगे और नौकरी छोडदी। फिर १जनवरी १९०5 में भी इसी विषयपर लिखा है। मुख्तार हुए सम्भवतः विशापनोंके संशोधनपर देशभरमें सबसे पहले अपने निर्णयको उन्होंने इतनी कठोरतासे निवासा कि आवाज उठानेवाले सम्पादक प्रापही है। पारिश्रमिक प्रादिके रूपमें रुपया लेकर कभी समाजका काम अनुसन्धान प्रवृत्तियाँनहीं किया और काम करके भी अपने लिये समाजसे कभी आपकी तीसरी प्रवृत्ति प्रमाण-संग्रहने ही वास्तव में रुपया नहीं लिया । स्वतन्त्र रोजगारकी रष्टिसे सन् १६०२ में आपके अनुसंधाता रूपकी साधि की है। सितम्बर १९०७ आपने मुख्तारकारीकी परीक्षा पासकी और सहारनपुर में के अंकमें शाकटायनके व्याकरणपर भापका एक लेख हैप्रैक्टिस करते रहे। १६.५ में आप देवबन्द चले गये और 'हर्षसमाचार' । इसमें इस व्याकरणके छपनेपर हर्ष प्रकट वहीं प्रैक्टिस करते रहे। अपना यह स्वतन्त्र कानूनी व्यवसाय किया गया है और जैनियोंसे उसके अध्ययनको शिफारिश करते हुए भी आप बराबर समाजसेवाकेकामों में भाग लेते रहे। की गई है। यह सबसे पहला लेख है, जिसकी लेखनशैली सम्शदकके रूपमें में खोजपूर्णता तो नहीं, पर प्राचीन साहित्य के अनुसंधानके १ जुलाई १९०७ में श्राप महासभाके साप्ताहिक प्रति मुख्तार साहबकी बढ़ती अभिरुचिका निर्देश। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अनेकान्त [वर्ष ६. ८सितम्बर १९०७ के अमलेखमें यह प्रवृत्ति और स्पष्ट हुई त्यागके पथपरजो सम्मेदशिखर तीर्थक सम्बन्ध में लिखा गया था। यह गम्भीर अध्ययन प्रापके जीवनपर भी अपनी गंभीर सफल सम्पादक छाप गलता गया और अब वह मुस्तारकारी प्रापको भार प्रायके सजीव सम्पादनको जनताने पसन्द किया और होने लगी। जीवनका बहुमूल्य समय जीविकामें लगाकर 'जेनगजट' की प्राहकसंख्या ३.० से १५०० हो गई। फालतू समयमें अनुसंधान या समाजसेवाका कार्य किया श्री नाथूगमजी प्रेमीने इसके १० वर्ष बाद 'जैनहितेषी' का जाये, यह आपके लिये अब असम होचला और आप बाबू सम्पादन मुख्तार साइबको सौंपते समय लिखा था- वे सूरजभानजीसे बार-बार यह तकावा करने लगे कि दोनों कई वर्ष नक जैनगजट' का बड़ी योग्यताके साथ सम्पादन वकालन छोड़कर सारे समय अनुसंधान और समाज-सेवामें कर चुके हैं। उनके सम्पादकत्वमें 'जैनगजट' चमक उठा लगे। जब-तब श्राप बाबूजी पर यह तकाका करने लगे। था।" प्रेमीजी जैसे विद्वानके मनपर १० वर्ष बाद तक एक दिन शामको धूमते समय बाबूजीने कहा-अच्छा उनके रस सम्पादनकीछाप रही, यह पर्याप्त महत्व-सूचक। तुम रोज कहते हो, तो आज रानमें गम्भीरतासे सोच लो. 'जैनगजट' के सम्पादकत्वसे भागने क्यों त्यागपत्र दिया, कल अन्तिम निर्णय करेंगे। दूसरे दिन प्रात:काल श्राप ठीक मालूम नहीं। २४ दिसम्बरके अंक में मोटे टाइपमें यह बाबूजीके घर पहुंचे और अपना निर्णय उन्हें बनाया। सूचना प्रापने दी है कि ३१ दिसम्बर के बाद हम काम नहीं फलन: १२ फरवरी १९१४ को बाबू सूरजभान ने अपनी करेंगे, यह इम अधिकारियोंको बार-बार लिख चुके हैं। इस वकालत और पं. जुगल किशोरजीने अपनी मुख्तारी छोड़ सूचनामें कुछ ऐसी ध्वनि है कि अधिकारियोस श्रापका दी। आप दोनों ही उम समय देवबन्दके प्रमुख 'लीगल सम्भवत: कुछ मतभेद था। प्रेक्टिशनर' थे, इस लिये श्राप लोगों के भीतर समाज-सेवा भट्टारकोंके दुर्गपर का जो अन्तर्द्वन्द चल रहा था, उससे अपरिचित होनेके 'जैन गजट' के सम्पादनसे जो समय बचा, उसे अापने कारण लोगोंको इससे बहुत प्राचर्य हुश्रा। जैन साहित्यके गम्भीर अध्ययन में लगाया । आपके जीवन में सापनाका 'मैनीफेस्टो'व्यावहारिक प्रादर्शकी प्रवृत्ति थी-पाप समाजको मिस यह अन्तद्वन्द मुख्तारकारी छोड़ने के बाद लिस्वी उस . ढोंगहीन सालिक रूपमें ढालनेका आन्दोलन करते थे, उस कवितामें प्रकट हुश्रा, जो 'मेरी भावना' के नामसे प्रसिद्ध में अपना दलना सबसे पहले आवश्यक समझते थे। जैन है। यह कविता पुस्तिका रूपमें अभीतक २० लाख छप धर्मकी दृष्टिमें आदर्श ग्रहस्थका स्या रूप है, इसका अध्ययन चुकी है और इसका अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू. गुजराती, मराठी, आपने इसी रष्टिसे प्रारम्भ किया। आपका विचार था कि कन्नड भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यूरोपकी राजनैतिक इसके अध्ययनके फलस्वरूप एक पुस्तक लिखेंगे। वह पुस्तक पार्टियोके चुनाव मैनीफेस्टोकी तरह यह मुख्तार साहबकी तो आज तक न लिखी गई, पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवन साधनाका मैनीफैस्टो घोषणापत्र) थी। अनेक प्रांतों बात यह हुई कि श्रापका ध्यान इस बातपर गया कि जैन के डिस्ट्रिक्ट और म्यू. के स्कूलोमें. तथा कारखानोमें यह शानोंमें भरकोने जैनधर्मके विरुद्ध बहुतसा अएट-सएट सामूहिक प्रार्थनाके रूपमें प्रचलित है और जैनसमाज में तो पर-उधरसे लाकर मिला दिया है जिससे जैनधर्मकी मूल- पं. जुगलकिशोर और मेगभावना एक ही चीनके दो नाम परम्पराका विकृतरूपमें हमें दर्शन मिलता है। इस प्रक्षिप्त समझ जाते हैं। हजारों परिवारों में उसका नित्यपाठोता है अंशकी ओर पहले शायद विद्वानोंका ध्यान गया होगा, और जैन उत्सवोंकी प्रारम्भिक प्रार्थनाके लिये तो वह पर आपने यह मौलिक खोज प्रारम्भ की कि यह प्रक्षित पेटेन्ट ही हो गई है। उसके प्रचार, प्रकाशनका हिन्दीमें अंश कहाँसे लिया गया है बादमें यही खोज 'प्रन्थपरीक्षा' एक अपना ही रिकार्ड है।यह कविता सबसे पहले जैनहितैषी' नामक पुस्तकके चार भागोमें प्रकाशित हुई। अप्रल-मई १९६के संयुक्तांकमें छपी थी। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथ-विम्ह नया बम है, xxx 'जैनहितैषी' में भी पिछले कई वर्षों में श्राप १९१६ के लगभग प्रत्थरीक्षाके दो भाग प्रकाशिन बराबर लिखते रहे हैं। इस कारण हमारे पाठक सापकी हुए। यह परम्पगगत संस्कारों पर कड़ा कशापात था। योग्यतासे भलीभांति परिचित है। आप बड़े ही विचारशील अनेक विद्वान इससे तिलमिला उठे और उन्होंने पण्डित लेखक। श्रापकी कलमसे कोई कबी बान नहीं निकलना। जोको धर्मद्राहीकी उपाधि दी। भोली जनता भी इस प्रवाह जो लिखत है वह सप्रमाण और सुनिबत । आपका बह गई पर श्राप चुपचाप अपने काम में लगे रहे और अपने अध्ययन और अध्यक्षमाय बहुत बढ़ा है।xxx 'जेंन गभर अध्ययनके बल पर श्राग्ने एक नया बम पटका हितैषाका सौभाग्य है कि वह ऐसे सुयोग्य सम्पादकाथ दिया-जैनाचार्यों तथा जेनतीर्थकगेंमें शासन भेद ! श्राप में जा रहा है।" की इम लेम्बमालासे कोहराम मच गया । यदि जैनाचार्यों में पं. जुगलकिशोरजीने भी 'जैन-हितैषी का सम्पादन' परस्पर गतभेद मान लिया जाए, तो फिर आपकी वह स्था- शीर्षकसे इस अंकमें एक टिप्पणी लिखी, जिसमें प्रारम्भम पना प्रमाणित हो जाती थी कि वीरशासन (जैनधर्म ) का प्रेमी जीके आग्रह पर उन्हें कैसे यह सम्पादनभार ग्रहण प्राप्त रूप एकान्त मौलिक नहीं है। उममें बहुत कुछ करना पड़ा, यह बतानेके बाद . पनी नीतिक सम्बन्धमें मिश्रण हुआ है और उसके संशोधनकी आवश्यकता है। लिखा है- 'मैं कहां तक इस भारको उठा सगा और इसके विरुद्ध भी उछल कद तो बहुत हई, पर पापडतजीकी कहाँ तक जेन हितेषीकी चिरपालिन कीतिको सुरक्षित रख स्थापनाएं अटल ही रहीं, कोई उनके विरुद्ध प्रमाण न सगा इस विषयमें मैं अभी एक शब्द भी करनेके लिये ला सका। तैयार नहीं हूँ और न कुछ कह ही सकता है। यह सब मेरे अखण्ड भात्मविश्वास स्वास्थ्य और विश पाठकोंकी सहायता, सहकारिता और उत्साह वृद्धि प्रादि पर अवलम्बिन १६२. में श्रापकी कविताओंकासंकलन 'वीरपुष्पांजलि' । परन्तु बहुन नम्रताके साथ, इतना जरूर कहूँगा कि मैं अपनी शक्ति के नाम छग। तब श्राप सपाजके घोर विरोधका मुकाबला कर रहे थे. पर अपनी स्थापनाओंकी अकाट्यता और और ग्यता अनुसार, अग्ने पाठकोंकी सेवा करने और जैन हितैषीको उन्नत तथा सार्थक बनाने में कोई बात उठा विरोधियों की कारमें श्रापका कितना अभंग विश्वास था, नहीं रक्खूगा।" यह आपकी निम्न ४ पक्तियोंसे स्पष्ट है, जो 'वीर 'पुष्पांजलि' _ 'जैनहितैषी' का सम्पादन आपने १८२१ तक दो वर्ष के मुखपृष्ठ पर छपी थीं किया। "सत्य समान कटर, न्यायसम पक्ष-विहीन, महान कार्यहूँगा मैं परिहास रहिन, कूटोक्ति क्षीण। १९२८ में 'ग्रन्थ परीक्षा का तीसरा भाग प्रकाशित नहीं करूंगा क्षमा, इंचभरं नहीं टलूंगा, हुधा । इसकी भूमिकामें भी नाथूराम प्रेमीने लिखातो भी हुँगा, मान्य. ग्राहा, अदेय बनूंगा।" "मुख्नार साहबने इन लेखोंको, विशेषकर सोमसेन त्रिवर्णापहली तीन पंक्तियों में उन्होंने अपने स्वभावका फोटो चारकी परीक्षाको, कितने परिश्रमसे लिखा है और या उन देदिया है और पावरीमें अपने ग्राम विश्वासका-अक्ष- की कितनी बड़ी तपस्याका फल है, यह बुद्धिमान पाठक रशः यथार्थ! इसके कुछ ही पृष्ठ पढ़ कर जान लेंगे। मैं नहीं जानता हूँ फिर सम्पादक कि पिछले का मौ वर्षों में किसी भी जैन विद्वानने कोई इस अक्टुबर १९१९ में श्री नाथूराम 'प्रेमी ने भाग्रह प्रकारका समालोचक प्रन्थ इतने परिश्रमसे लिखा होगा करके उन्हें जैनहितैषीका सम्पादक बनाया और अपने और यह बात तो बिना किसी हिचकिचाइटके कहीं ना 'प्रारम्भिक वक्तव्य' में कहा सकती है कि इस प्रकारके परीक्षा लेख जैनसाहित्यमें सबसे "बाबू जुगलकिशोरजी, जैनसमाजके सुपरिचित लेखक पहले है।" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनेकान्त " x x x x ग्रन्थपरीक्षाके लेखक महोदय ने एक अलब्धपूर्व कसौटी प्राप्तकी है, जिसकी पहलेके लेखकाको कल्पना भी नहीं थी और वह यह कि उन्होंने हिन्दुओोंके स्मृतियों और दूसरे कर्मकारीय प्रत्यके सेकड़ों लोकों को सामने उपस्थित करके बतला दिया है कि उक्त ग्रन्थोंमें मे चुराचुग कर और उन्हें तोड़ मरोड़ कर सोमसेन श्रादिने अपने २ 'मनमतीके कुनबे' तैयार किये हैं। जांच करने का यह ढंग बिल्कुल नया है और इसने जैनधर्मका तुलनात्मक पद्धतिले अध्ययन करने वालोंके लिये एक नया मार्ग खोल दिया है ।" ये परीक्षा लेख इतनी सावधानीसे और इतने अकाट्य प्रमाणोंके श्राधारसे लिखे गये हैं कि अभी तक उन लोगों की ओर से जोकि त्रिवर्णाचागदि भट्टारकी साहित्यके परमपुरस्कर्ता और प्रचारक है (१२ वर्षका ममय मिलने पर भी ) इनकी एक पंक्तिका खण्डन नहीं कर सके हैं और न श्रम श्राशा ही है । x x x x गरा यह कि यह लेखमाला प्रतिवादियोंके लिये लोहे के चने हैं।” [ वर्ष ६ अपनी कविताओ, सामाजिक समुत्थानकी बात कहते समय भी था की निगाह बराबर राष्ट्र पर ही रही है 'मेरी भावना के अन्तमें आपने कहा है करें | बन कर सब 'युगवीर' हृदयसे, देशोन्नति रत रहा वस्तुस्वरूप विचार खुशीसे. सब दुख संकट सहा करें। 'घनिक संवोधन' कवितामें आपने धनिकों को देशाभिमुख रहने की ही प्रेरणा दी है— चक्कर में विलास इन लोहे के चनोंका निर्माण कितनी लगनसे हुआ है, उसका कुछ अनुमान इससे हो सकता है कि इन लेखों के लिखने में आप इतने तहान थे कि आपको उन्निद्र होगया और १|| माम तक आपको नींद नहीं आई। एक दिन ही नीन्द न आये, तो दिमाग भिन्ना जाता है, पर आपके लिये यह निर्माण इतना रस पूर्ण था, आप उसमें इस कदर डूबे हुए थे कि आपको जग भी कमजोरी महसूस नहीं हुई और श्राप बराबर काममें जुटे रहे । भारतमाताके चरणोंमें पीके कार्यका क्षेत्र जनसाहित्य, इतिहास और समाज रहा, इतना ही जान कर यह सोचना कि वे एक साप्रदायिक पुरुष हैं, सत्यका उतना ही बड़ा संहार है जितना राष्ट्रनिर्माना श्रद्धानन्दको साम्प्रदायिक नेता मानना । साम्प्रदायिक विषयोंमें आप कभी नहीं पड़े और आपका दृष्टिकोण सदैव राष्ट्रीय रहा। १६२० से आप बराबर खादी पहनते हैं और गान्धीजीकी पहली गिरफ्तारी पर आपने यह व्रत लिया था कि जब तक वे न छूटे, आप बिना चर्खा चलाये, कभी भोजन न करेंगे । वियना फंम मत भूलो, अपना देश ! x x x कला कारखाने खुलवा कर, मेटो सब भारत के क्लेश । करें देश-उत्थान सभी मिल, फिर स्वराज्य मिलना क्या दूर ? पैदा हो 'बुगी देश फिर क्यों दशा रहे दुख-पूर ? समाज उनके लिये राष्ट्र का ही अंग है। समाज-संबीघन' करते हुए जब वे कहते हैं सर्वस्व यों खोकर हुआ, केसा तू दीन दीन अनाथ है ! पतन तेरा हुआ, तू रूढ़ियोंका दास है !! तब उनके मनमें भारतराष्ट्र का ही ध्यान व्यास होता है । यह निश्चय है कि यदि वे खोजके इस कार्यमें न पड़े इंति, तो उनकी यह ६७ वीं वर्षगांठ सम्भवतः देशकी किसी जेल में ही मनाई जाती ! जीवनभरका कार्य उनकी जीवन व्यापी साहित्य साधनाका मूल्याँकन करने के लिये विस्तृत स्थानकी आवश्यकता है, फिर भी संक्षेपमें यहां उसका उल्लेख श्रावश्यक है जैनसमाज में पात्रकेसरी और विद्यानन्दको एक समझा जा रहा था। मुक्तार साहबने अपनी खोजके आधार पर दृढ़ - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] पथ-चिन्ह रूपसे यह स्पष्ट कर दिया कि पात्रकेमरी विद्यानन्दसे ही नहीं था, ३ मास तक रात दिन साहित्य और इतिहासका अध्यकिन्तु अकलंकसे भी पहले हुए है। यन कर अपने 'विवाह क्षेत्र प्रकाश' नामकी पुस्तक लिखी, जिसका फिर कोई विशेष न कर सका । इसी तरह पंचाध्या पन्धके सम्बन्धमें किसीको यह दरमा पूजाके आन्दोलनमें आपने 'जिन पूजाधिकार ठीक मालूम नहीं था कि उसका कर्ता कौन है। नये उप मीमांसा' लिखी और कोर्टमें गवाही भी दी। इस पर श्राप लब्ध हुए पुष्ट प्रमाणोंके आधार पर, मुख्तार माहबने यह को जातिच्युत घोषित किया गया, पर यह घोषणा कभी करके बनलाया कि इस अन्य के कर्ता वे ही कविराज व्यवहारमें नहीं पाई। मल्ल हैं जो 'लाटीसंहिता' मादि ग्रंथोंके कर्म है। जैन साहित्यके श्रेष्ठतम रत्न धवल और अयधवलका महान् श्राचार्य स्वामी समन्तभद्रका इतिहास अन्धेरेमें नाम ही लंगोंने सुना था। ये अन्य केवल मूडबद्रीके मन्यपड़ा था और उसकी बोनके आधार भी प्रायः अप्राप्य थे। भंडारमें विराजमान थे। इनकी २-३ प्रनियां होकर जब मुख्तार साहबने माधारोंकी खोज करके दो वर्षके परिश्रमसे इधर प्राईनोइन ग्रंधरत्नोका पूरा परिचय प्रास करनेके एक प्रामाणिक विस्तृत इतिहास तैयार किया. जिसकी लिये मुरूनार साहच लालायित हो उठे, आपने पारा-जैनअनेक ऐतिहासिक विद्वानोने मुक्त कण्ठसे प्रशंसा की है। सिद्धान्त भवन में जाकर, श॥ महीने रान दिन परिश्रम कर समन्तभद्रके समय-सम्बन्धमें जब डा.के.बी. पाठक के १... पृष्ठों पर उनके नोट्स लिखे, जिनमें दोनों प्रन्थों में कुछ विरुद्ध लिखा तो आपने एक वर्ष तक बौद्ध साहि- का सार संग्रहीत है। त्य श्रादिका खास तौरमे अध्ययन करके उसके उत्तरमें महावीर भगवान के समयादिके सन्बन्धमें जो मतभेद 'समन्तभद्रका समय और डा. के.बी. पाठक' नामका एवं उलझनें उपस्थित थीं, उनका अत्यन्त गम्भीर अध्ययन एक गवेषणापूर्ण निचग्ध लिम्बा, जो हिन्दी और अंग्रेजी करके आपने सर्वमान्य समन्वय किया और वीर-शासनदोनों में प्रकाशित हुश्रा है और विद्वानोंको बहुत रुचिकर जयन्ती (भगवान महावीरकी प्रथम धर्म-प्रवर्तन-तिथि) की प्रतीत हुश्रा है। खोज तो आपके जीवनका एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य सम्मान-समारोहमें दिये अपने भाषणमें पं. राजेन्द्र- है। भावण बदि प्रतिपदाको अब देशके अनेक भा कुमारजीने कहा था कि मुख्तार साहब यह काम न करते वीर-शासन-यन्तीका आयोजन होने लगा है। नो दिगम्बर-परम्परा ही अस्तव्यस्त हो जाती। इस कार्यके 'अनेकान्तका' भारम्भकारण मैं उन्हें दिगम्बर परम्पराका संरक्षक मानता हूँ। २१ अप्रैल १९२९ में आपने देहलीमें समन्तभद्राश्रम जैनसाहित्यके कितने ही अन्य ऐसे हैं, जिनका दूसरे अन्यों में उल्लेख तो है, पर वे मूल रूपमें अप्राप्य है। मुख्तार की स्थापना की और नवम्बरमें मासिक 'अनेकान्त' का प्रकाशन प्रारम्भ किया । 'अनेकान्त'के प्रथमांक में ही पांच साहबने विशाल जैन साहित्यमें लिखे उल्लेखोंके आधार पेजोका सम्पादकीय है, जिसमें ३ पेजमें समन्तभद्राभमका पर ऐसे बहुतसे अप्राप्य अन्योंकी एक सूची तैयार की और उनकी खोजके लिये पुरस्कारों की घोषणा की। उनमें से कुछ . परिचय और दो पेजमें पत्रकी नीति पर प्रकाश डाला अन्य मिले है और शेषके लिये पुस्तक मंडारोंकी खोज गया है। " 'जैनगजट' में आपने केवल मंगलाचरण किया था अन्तर्जातीय विवाहके समर्थनमें आपने एक पुस्तक और जैनहितैषीमें सम्पादन स्वीकार करनेकी परिस्थिति पता लिखी-'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' । समाजमें हल्ला कर 'शक्ति और योग्यता अनुसार पत्रको सफल बनानेकी हुबा । एक विद्वानने उसका विरोध लिखा । बस फिर क्या सूचना दी थी, पर अनेकान्त में 'पत्रका अवतार, रीति-नीति Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे ६ और सम्पादन' तथा 'जैनी नीति' के नामसे दो टिप्पणियाँ मुझानी चाहिये।" पण्डितजीकी हसी नीनिका यह फल है लिखी। पहली टिप्पग्रीमें वही सम्पादन ग्रहण करनेकी कि प्रारम्भमें उनका विरोध करने वाले भी अन्तमें उनके विवशताओका उल्लेख करके लिखा है मित्र बन जाते हैं। (भाश्रमकी व्यवस्थाका भार होनेके कारण)-"इस स्थिति में यद्यपि पत्रका सम्पादन जमा चाहिये वैसा नहीं हो एक वर्ष बाद, समन्तभद्र श्रमका स्थान सरसावा बदल सकेगा तो भी मैं इतना विश्वास अवश्य दिलाता हूँ कि दिया गया और उसीने इस प्रकार वीरसेवामन्दिरका रूप यहाँ तक मुझसे बन मकेगा मैं अपनी शक्ति और योग्यताके धारण किया. और पण्डितजीका जन्मक्षेत्र ही अब उनका अनुसार पाठकोंकी सेवा करने और इस पत्रको उन्नत तथा साधनाक्षेत्र हो गया है। सार्थक बनाने में कोई बात उठा नहीं रक्खूगा।" असल में 'जन कचि नहीं, जनहित ही आपकी सम्पादन यह पण्डित जीकी जीवन सामग्रीका बहुत अधूग संक लन। इसकी उपमा उम हनेसे दी जा सकती है, नीति रही। जिसकी कलई बहुत कुछ उड़ी हुई है, फिर भी सावधानीसे मालोचनापद्धतिका 'मोटो' आँकने पर जिसमें कामचलाऊ सूरत दिखाई दे जाती है। 'भनेकान्त' का प्रारम्भ ५ दोहोंसे होता है, जिसमें अन्तिम इस प्रकार है संक्षेपमें स्वस्थ हों तो अपनी गद्दी पर और बीमार हो वो अपनी शैया पर पड़े पड़े भी, एक ही धुन, एक ही शोषन-मथन विरोषका, हुमा करे अविराम । लगन, एक ही विचार और एक ही कार्य-शोध-खोज एवं प्रेम पगे रलमिल सभी, करें कर्म निष्काम || निर्माण, यह पं. जुगलकिशोर मुख्तारका सम्पूर्ण परिचय वास्तवमें यह आपकी आलोचना पद्धतिका 'मोटो' है। है। उनके भीतर महान जैनसाहित्यका श्राकुल दर्शन है शोधन मथनका काम निरन्तर हो, प्रेमके साथ हो, रलमिल और बाहर उसे प्रकाशमें लानेकी पाकुलता है। यह दर्शन कर हो, इसमें परस्पर वैर-विरोधकी तो कहीं गुआयशही ही उनका पथी, यह पाकुलता ही उनका सम्बल है। नहीं है! इसी अंकमें आपने 'प्रार्थनाएं' शीर्षकसे ४ बातें इसके सहारे उन्होंने अपने जीवनके पिछले ३६ वर्ष जैनकही है। उनमें तीसरी इस प्रकार है-"यदि कोई लेख साहित्यके अन्धेरे कोणोंकी खोजमें लगाये हैं और इसीकी अथवा लेखका कोई अंश ठीक मालूम न हो अथवा विरुद्ध धुनमें उन्होंने अपनी चलती हुई मुख्तारकागका परित्याग दिखाई दे, तो महल उसीकी वजहसे किसीको लेखक या किया है। उनकी खोजपद्धतिसे भारतकी श्रद्धा है, यूरोपकी सम्पादकसे देषभाव न धारण करना चाहिये किन्तु अने- विवेचना और वास्तविक बात यह है कि उस खोजका कान्त नीति और उदारतासे काम लेना चाहिये और हो वास्तविक मूल्य हम नहीं, हमारे बादकी पीढ़ी ही ठीक २ सके तो युक्ति पुरस्सर संयतभाषामें लेखकको उसकी भूल ऑक सकेगी। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सभापति : एक अध्ययन श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' "इधर पाध्ये यहाँ है राजेन्द्रकुमारजी" पाये थे, पर उन्होंने निमन्त्रणकी प्रतीक्षा नहीं की और ठीक भाई कौशलप्रसाद ने कोरसे हमें पुकारा और हम समय वे घोषित स्थानपर पहुँच गये, जैसे अपनी आँखों में वे सब सिमट कर एक कम्पार्टमेण्ट के सामने इकट्ठे होगये। उस समय केवल परिषदके जनरल सेक्रेट्री थे। श्री जुगलकिशोर सम्मान समिति द्वारा आयोजित सम्मान- तकल्लुफसे द्र, 'बड़े श्रादमियों' के सर्वग्रासी रोग समारोहका सभापतित्व करनेके लिये भारत बैंकके संचालक 'दरबारीपन' से निर्लिप्त, एक कर्मठ समाज सेवक-अपनी श्री राजेन्द्रकुमारजी देहलीसे सहारनपुर प्रा रहे थे और हम जिम्मेदारियोंके प्रति सचेष्ट ! अपने घनके बलपर, पार्टीके सब उन्हें लेने स्टेशनपर आये थे। बहुमतका सहारा लेकर बने जनरल सेक्रेट्री नहीं, मुझे लगा राजेन्द्रकुमार जी जिस कम्पार्टमेण्टमें थे, उसके लेटफार्म जैसे वे जन्मजात जनरल सेक्रेट्री है। की ओर वाले द्वारमें चाभी लगी xxx थी । इममें से कोई दौड़ कर कार्यकारिणीके बाद इस प्रदेश गार्ड के पास गया, कोई टी. टी.के, के कार्यकर्ताओंकी मीटिंग हुई। पर राजेन्द्रकुमारजी अचंचल थे। परिषदके कार्यक्रमपर श्राप बोलेकोई तीन मिनिट में चाभी आई। सुलझे हुए, श्रृंखलाबड, व्यर्थ इन ३ मिनटों में उन्हं ने एक बार विस्तारसे बचे-बचे, संयत और भी बाहर नहीं झाँका, उत्सुकनाहीन, बहुत मीठे। समाजकी समस्याओपर झुंझलाहटहीन, स्थिर, शान्त और उन्होंने अध्ययन किया है, मनन और अनुद्विग्न ! मुझे लगा, जैसे किया है, परिस्थितियोंका तारतम्य उनके जीवनकीइतनी महान सफलता जोड़कर अपनी सम्पत्ति निर्धारित की कुंजी मैं पा गया यह स्थिरता, की है; वे उनमें रम गये है, घम उद्वेगके समय भी शान्त रहनेकी गये हैं और फलस्वरूप जहां वे क्षमता-स्थिरप्रशस! समाजके मौलिक तत्वोंके परिज्ञाता xxx हैं, वहां उन तत्वोंमें बाइरसे, समय वे स्वागताध्यक्षके भवनमें ठहरे के प्रवाहमें आमिली कुरूपताओंसे थे और दिगम्बर जैनपरिषदकी कार्य श्री राजेन्द्रकुमार जी भी परिचित और दोनोंको अलग कारिगीका अधिवेशन श्री ला• ऋषभसेनजीकी कोठीपर अलग देखने-परखने और दूसरों के सामने उसे रखनेकी होना था। राजेन्द्रकुमारजी परिषद के जनरल सेक्रेट्री प्रतिभा भी उनमें है, यह इस भाषचने कहा। और उन्होंने अधिवेशनका समय दो बजे रक्खा था। x ठोक दो बजे वे स्वयं प्रा पहुंचे और बिना एक मिनिट भी इसी मीटिंग में सहारनपुरकोपरिषदका एक केन्द्र बनाया कहीं उलझे उन्होंने कार्यकारिणीका कार्य प्रारम्भ कर दिया। गया । उसके संयोजक-पदके लिये दो नाम पाये । उन राजेन्द्रकुमारजी प्राजकी व्यापारिक दुनियाके प्रथम दोनोंने भी बारी बारीसे परस्पर एक दूसरेका समर्थन किया भेडीके मनुष्य है, फिर सहारनपुरमें वे सभापतिके रूपमें और फलत: यह प्रस्ताव हुया कि दोनोको ही संयुक्त संयोजक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त [वर्ष ६ . बना दिया जाए । गजेन्द्रकुमारजी यहाँ खामोश न रह सके, पास ही सम्मानपूर्वक उन्होंने उनके लिये व्यवस्था कगई। उठे और बोले-"माफ कीजिये, यह सार्वजनिक सेवाका साथियोंक .नि सहृदय, उनके मानके लिये साचन्त और काम है, इसे वे ही लोग कर सकते हैं, जिनमें यह भावना अभिमानहीन सद्भावसे पूर्ण । उनके स्वभावकी एक शक्ति, है। इस लिये मामला उलझाना, या दूसरोके कहेसे नाम जो उनके प्रभावको गम्भीर और नियन्त्रणको मधुर बनाती है। लिखाना मैं पसन्द नहीं करता । नाम उन्हींका लिखा जाये, इमी श्रृंखलामें एक और भी-उनके एक सहकारीने जो काम करें। इसी उत्सबके सिलसिले में एक पत्र लिखा-उसकी बातोसे यह उनकी स्पष्टवादिताका रूप है, खरेपनकी साक्षी है, एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताके रूपमें भाई कौशप्रमाद नेतृत्वका प्रतिबिम्ब है। वे सीधे देखते हैं, सीधे चलते हैं। जीके आत्माभिमानको ठेम लगी और उन्होंने एक सख्त वे बहुत नम्र है, पर उलझते नहीं, उलझाये जा सकते उत्तर लिखा । मैं उमके कटु प्रतिफल की सम्भावनामें था. नहीं। वे काममें विश्वास करते हैं, कोरे नाममें नहीं। पर बड़ा मधुर उत्तर प्राया, और सब भूल-सुधार होगया। वे भारतीय समाजके मबसे प्रतिष्ठित व्यक्तियोंमें हैं, पर बात वर्कर्स मीटिंग समाप्त होंगई, उन्हें व्यापारी-मण्डल में बातमें सरकारी अधिकारियोंकी तरह वे प्रतिष्ठा-प्रेस्टिजके जाना है, वहांसे टी पार्टी में । - क्षण बन्धा हुआ है, पर प्रश्न खड़े नहीं करते । बान यह है कि वे लक्ष्यकी ओर वे भूले नहीं-श्रीमती चन्द्रवती ऋषभसैन जैनसे मिले। देखते हैं, निरन्तर उधर बढ़ते हैं । इस बदनेकी कुञ्जी 'संघ' समाजसुधारका आन्दोलन जैनपरिवारों में कैसे पहुँचे, इस में है । यह संघ कैसे बने, कैसे बढ़े, बनना-बढ़ता ही रहे, पर उनसे बातें की, परिषदका महिला विभाग सम्भालनेको इस कलाके वे प्रकाण्ड पण्डित हैं। उनसे अनुरोध किया और कार्यकारिणीके दूसरे सदस्योंसे उत्सव होरहा था, राजेन्द्रकुमारजी सभापनिके श्रासन उनका परिचय कराया, आत्मीयतासे पूर्ण टोन और स्नेह पर थे, प्रोग्राम मेरे हाथमें था । एक सज्जनने छोटीसी भरी मुखमुद्रा। कार्योकी यह झाला, रत्नोंकी .यह परख, उपयुक्त स्लिप मुझे भेजी कि अमुकका नाम प्रोग्राम में बढ़ादें । यह व्यक्तियों को उपयुक्त स्थानमें फिट करनेकी यह उत्सुकता नाम पहलेसे ही था, इसलिये वह स्लिप मैंने एक ओर और क्षमता ही उस विशाल सफलताकी नीव है जो प्राज डाल दी।राजेन्द्रकुमारजीने बहुत धीरेसे वह स्लिप उठा " राजेन्द्रकुमारजीके नाममें श्रोतमोत है। कर पढ़ी। वह मेरे नाम थी, फिर भी उन्होंने प्रोग्राम देखा कि वह नाम उसमें है या नहीं और बड़ी तरकीबसे वह सहारनपुर के लिये जब वे चले, तो गाड़ी छूट गई। स्लिप वहीं डाल दी। दावरसे बोले-गाजियाबाद तक वह गाड़ी पकड़ो, और यह उनकी सतर्कता है, यह उनका स्वावलम्ब है। यह सम्भव न हो तो पूरी सीड चलो और मुजफ्फरनगर छोटेसे छोटे काम पर निगाह रखना और साथियोंके कार्यों तक भी गाड़ी पकड़ो-मैं वचनबद्ध हूँ और कुछ भी हो, को भी सतर्क हो युक्तिसे जांचते चलना, उनका स्वभाव है, जो उन्हें अपनी महान संस्थाके संचालनमे पूर्णता देता है १२॥ बजे मुझे वहाँ पहुँचना है। और अनेक फिसलनोंसे बचाता है। एक साथीने या संस्मरण सुनाया, जिसका अर्थ है-अपनी जिम्मेदारियोंके प्रनि सचेष्ट, प्रनिशाके प्रति आज वे वैभवके जिस महास्तूप पर खड़े हैं, उसका सतर्क और दूसरोकी दिक्कतके प्रति सावधान । निर्माण उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिमा और पुरुषार्थ के सहारे किया है। इसलिये निर्माणकी कठिनाइयोसे वे खूब परिचित लाला विशालचन्दजीको टी-पार्टी में वे बैठे थे-लेखवती है,यही कारण है कि जीवन के दूसरे निर्माताओंके प्रति उनका जी जरा लेट पहुँची। मैंने देखा कि वे इस बात के लिये मन अगाध श्रद्धासे भरा! मुख्तार साहबके प्रति उन्होने सचिन्त थे कि उस बहन को उपयुक्त स्थान मिले-अपने जिस भक्तिभावनाका प्रकाशन किया, यह बहुत ऊँची है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] हमारे सभापतिः एक अध्ययन १६३ इस उत्मबसे जहां उनके सामने यह प्रश्न आया कि मूंछों में ताकी प्रतिध्वनि, पैनी अांखोंमें सूक्ष्मदर्शन और समाजके दूसरे विद्वानोंका भी उपयुक्त मम्मान हो, वहाँ गहरे पैठनेकी प्रवृत्ति और श्रोठोंमें स्वभावकी सरल मधुरता स्वर्गीय साधकोंकी स्मृतिरक्षाका प्रश्न भी उनके निकट का प्रतिबिम्ब । सजीव हो उठा। स्व.श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, वैरिस्टर प्रीवामें लचक है. कन्धों में उभार और पैरोमें एक चमतगयजी और श्रीबा. ज्योतिप्रसादजीकी स्मृति में वार' सधी हुई चपलता, यह दर्शनका उत्तरार्ध है। ग्रीवाकी ने जो तीन विशेषांक प्रकाशित करनेकी घोषणा अब की है, लचक में नम्रता है-पूज्योंके सामने झुकनेकी प्रस्तुतता, ससका श्राधार यही है। पर कन्धोंका उभार साक्षीहै उस स्थिरताका, जो सुनती सबकी, पर करती। अपने ही मनकी। और यह सचे उन्हें सामने देख कर कोई विशेष प्रभाव मन पर नहीं हुए पैर ? जो समय और स्थानको देख कर चलते हैं, जहां पड़ता, पर जग बारीक नजर से देखने पर उनका चरित्र उन चलना , चले ही चलना है, पर जिन्हें जहां नहीं चलना की प्राकृनिमें झलक श्राता है। ऊंचा मस्तक, भरी मूंछे, है, वहां नहीं ही चलना है। पैनी आँखें और मुस्करानेको उत्सुकसे श्रोठ, यह दर्शनका पूर्वाध है। ऊंचे मस्तक पर उनके चिन्तनकी छाया है, भरी बस, एक दिन में मैं उन्हें इतना ही देख पाया। Peteeeeeeeeeee मुख्तार महोदय और उनका सर्वस्व-दान (ताम्बर गुजराती साप्ताहिक 'जैन'-भावनगरकी दृष्टिमें) "पं० जुगलकिशोर जैन शासनके एक मूक सेवक हैं। इनके द्वारा सम्पादित होते हुए भनेकान्तके अंकोंको जिन्होंने देखा होगा और पंडितजीकी अपनी विचार शैलीका अभ्यास किया होगा. उन्हें इन विद्वान स्वधर्मी बन्धुकी बारीक छान-बीन और न्यायाधीश जितनी तटस्थताके लिये बहुमान उत्पन्न हुए बिना नहीं रहा होगा। कितने ही जैनसंघसेवक जो शासनहितके पक्के रंगसे रंगे हुए हैं उनमें पंडित जुगलकिशोरजीका नाम भी मप्रस्थान धारण करता है। जैन शास्त्रीय और ऐतिहासिक साहित्य के संशोधनमें इन्होंने अपना उत्तम योग प्रदान किया है। परन्तु सबसे महत्वकी बात तो यही है कि अंतरंगके संतोष सिवाय समाज तरफको कीर्ति या वाहवाहीकी इन्होंने कमी मी परवा नहीं की तमा समाजके नेताओं में स्थान प्रास करने और उन्हें रिझानेको भी हममें बासना नहीं रही। इनका क्यावन हजार रुपयोंका वान वस्तुत: सर्वस्व समपंश ही कहा जाता है। बड़े उद्योगपति या सहाके खिलादी ही ऐसा दान दे सकते हैं.स मान्यताको पंडितजीने दूषित ठहरा दिया हैजो बालों कमाते है और समाज-सेवामें हजारोंका दान करते है.वे पादरक योग्य है. परन्तु जिम्होंने दबद संग्रह किया है और दूसरीरीतिसे मी संघ और शसनकी सेवा करते रहते हैं उनका इस प्रकारका सर्वस्व दान अत्यन्त मूल्यवान ठहरता है। श्री मुख्तारजीने ओ सुंदर समीक्षाएँ और संशोधन जैन समाजको विरासत में दिये हैं उनकी कीमत तो विद्वान ही प्रकिंगे। उनके इस दानका गौरव तो सामान्य पाठक और श्रोता भी कर सकेंगे। वीरसेवामन्दिरका उद्देश्य तथा व्यवस्था प्रायः प्रसिद्ध है। यह संस्था पदि अधिक प्राणवान बने तो जैनसमाजके लिये भारी उपकारक बने, इतना ही नहीं कि.म्तु एक नई ही दिशाका सूचन करे।" [१७-१-४२ के सम्पादकीय ग्रनोटका अनुवाद] Screeeeeeeeeee Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मान समारोह का विवरण (ले-श्री एक पत्रकार ) जब पहले पहल श्री जुगलकिशोर सम्मान-समिति मालासे श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तारका सत्कार किया की स्थापनाका समाचार जनताके सामने आया और और उन्हें महारनपुर चलनेका समितिकी ओरसे ५ दिसम्बरको होनेवाले सम्मान समारोहकी चर्चा निमन्त्रण दिया। प्रारम्भ हुई, तो समाजके अनक 'बुद्धिमान और १॥ बजेकी गाड़ीसे समारोहके सभापति श्री समझदार व्यक्तियोंने कुछ इम ढंगकी आलोचना की, राजेन्द्रकुमारजी पधारे। समितिके सदस्यों और नगरके जैसे यह कोई असम्भव कल्पना हो, बेतुकी उड़ान हो प्रमुख पुरुषोंने स्टेशन पर उनका पुष्पहारोंमे स्वागत और मजनुओका अखाड़ा हो। इसके बाद वह सतह किया। स्टेशनके बाहर जैन हाईस्कूलका बैण्ड वज श्राई, जब लोगोंने सुना कि भारत बैंकके मैनेजिंग रहा था। द्वार पर हाईस्कूल के स्का:टोंने सभापतिको डायरेक्टर और प्रसिद्ध व्यापार 'गार्ड आफ आनर' दिया। इस शास्त्री श्री राजेन्द्रकुमारजी इस समयका दृश्य अत्यन्त भव्य सत्सवका सभापतित्व करने श्रा था । समितिक सदस्योंस मभारहे हैं और उन्होंने इम उत्सव पतिका परिचय कगर गया। की महानताकी एक झांकी ने चार घोड़ोंकी गाड़ी में मनमें ली। पत्रों में तुरन्त छपा मभापनिजी थे और दुमरी कि भारतीय दिगम्बर जैन परि गाड़ियों एवं कारोंमें दूसरे पदकी मीटिग भी उम अवमर अतिथि थे । मब लोग स्टेशन पर बुलाई गई है और अनेक मे लाला ऋषभसैनजीसी कोठी विद्वान पधार रहे हैं, तो उन पर मुख्तार महादयके स्वागतार्थ बुद्धिके स्तूगेंने भी मान लिया पहुँचे । श्री राजेन्द्रकुमारजी, - कि हां, यह कुछ होरहा है और और दूसरं अतिथियों के साथ श्रद्धालु जनतामें तो उत्साहकी समितिके सदस्योंने मुख्तार एक लहर ही लागई। जहां मैं साहबका मालाओंसे स्वागत गया, मैंने अनुभव किया कि किया। राजेन्द्रकुमारजी जिस लोग माकुलतासे ५ दिमम्बरकी श्री बा लालचन्दजं. जैन, रोहतक श्रद्धाभावमें विभोर हो, परित प्रतं.क्षा कर रहे हैं। उस दिन वे कुछ नई बात सुनने, जीसे मिले, उसने सारे वातावरणको श्रद्धामे अभिनया दृश्य देखनेको उत्सुक थे। पिक्त कर दिया । बैण्ड बज रहा था और उसकी स्वर५दिसम्घर : सहारनपुरक मार्वजनिक जीवनका माधुरीमें नहायेस मब लोग सड़े थे। इस उत्सवका एक जागृति-पर्व ! यह एक स्वर्गीय दृश्य था । सभापतिजी मुख्तार महो. मुत्सवका प्रारम्भ ५ दिसम्बरको प्रातः १० बजे दयको साथ लेकर स्वागताध्यक्षके भवन में चले गये हुधा, जब सेकसरिया पारितोषिक विजेत्री श्रीमती और शेष प्रमुख अतिथियोंने यहीं ला० ऋषभसैनके चन्द्रवती ऋषभसैन जैन बारसेवामन्दिर सरसावा निमन्त्रण पर भोजन किया । पहुँची और उन्होंने तिलक, अक्षत, नारियल और भोजनके समयका एक संस्मरण उल्लेखनीय है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRE २८. श्री विशालचन्द्र जी की टो-पार्टी का एक दृश्य बीच में मुख्तार महोदय और श्री गबू गजेन्द्रकुमार जी बैठे हैं। एक अोर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन श्री शाहनजर हुसैन दसरी ओर श्री जुगगन्दादाम जी श्रॉनरेरी मजिस्ट्रेट और मोदन ग्यों मारी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बैठ है गय साहव श्री प्रद्युम्नकुमार जी ग्वागना यक्ष himani श्रीमती चन्द्रवंती ऋषभसैन जैन वीग्मेवामन्दिरम ५ दिसम्बर को प्रात:काल मुख्तार महोदय का तिलक कर नन्सब का प्रारम्भ कर रही हैं श्री विशालचन्द्र जैन स्पेशल मजिस्ट्रेट Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] समासेहका विवरण १६५ मास्टर उप्रमैनजी और प्रभाकर जी आदि रसोईघर रातमें जा बजे जैनहाईस्कूल में बने विशाल पण्डाल की ओर बैठे थे और बड़ौतके ला. जगदीशप्रसादजी में सम्मान समारोह प्रारम्भ हुमा । खतौलीके श्री बाबू रईस पंक्तिके अन्तिम छोरपर थे । रसोईमेंस जो लालजीने मंगलाचरण किया और श्री रविचन्द्रजी पूरियाँ पातीं, वे दूसरे सिरे तक न पहुँच पातीं, इस बिजनौरने 'मेरी भावना' का सामूहिक पाठ किया। पर प्रभाकर जीने मास्टर उपसैनजीसे कहा कि भाई __ स्वागताध्यक्ष श्री लाला प्रद्युम्नकुमारजीने अपना जगदीशप्रसादजी इस समय पिछड़ी जातिके प्रतीक भाषण पढ़ा, जो अन्यत्र प्रकाशित है । सभापतिने है। जगदीशप्रसादजी एक बार तो सनाये, पर उनकी अपना आसन ग्रहण किया और उन्होंने श्रीमान् प्रतिभा शीघ्र ही जाग उठी और वे बोले-“साहब, मुख्तार साहबको आसन दिया । दोनोंको मालाएं सन्तोष का फल मीठा होता है, यह धर्मशास्त्रों में लिखा पहनाई गई। राजेन्द्रकुमारजीने अपना मौखिक है!" इसी समय शारदाकुमारीने, वक्तकी बात, भाषण दिया, जो अन्यत्र प्रकाशित है । श्री कौशल फलोंकी तश्तरियाँ लाकर ठीक ला० जगदीश- प्रसादजीने बाहरसे पाये सन्देश पदे। और प्रो० प्रसादजीके सामने लगादीं। एक खास मुद्रामें प्रभाकर गयाप्रसादजी शुक्लने स्वागतगान पढ़ा। जीकी ओर देखकर वे वोले-कहिये, जनाब कैसी श्री अहंदासजीने अभिनन्दनपत्र पढ़ा और श्री रही?" और मत्र लोग इतने जोरसे हंसे कि भवन मुख्तार महोदयको भेंट किया सर्व श्री लालचन्दजी गंज गया । वास्तविक बात यह है कि उत्सवका वाता रोहतक, बा० रतनलालजी बिजनौर, श्रीमती लखवती वरण इतना उल्लाम पूर्ण था कि प्रत्येक सम्बन्धित जी अम्बाला, पं० गजेन्द्रकुमारजी मथुग, जगदीश मनुष्य एक नया जीवन अनुभव कर रहा था। प्रसादजी बड़ीत, पं. माणिकचन्द्रजी सहारनपुर, भाजनके उपरान्त दो बजेस भारतीय दिगम्बर बालप्रोफेसर मोहनजी, पं.निद्धामलजी देहरादून, जैनपरिषदकी कार्यकारिणीका अधिवेशन हुआ। पं० चन्द्रशेम्बर शास्त्री देहलीने अपनी शुभकामनाएँ इसके तुरन्त बाद इस प्रदेश कार्यकर्ताओंकी मीटिंग प्रकट की और पं. मामराज शर्मा 'हर्षित', अखिलेश हुई और सहारनपुरको परिषदका कन्द्र बनाया गया 'ध्रुव' और ओमप्रकाशजीने अपनी २ कविताएँ जिस के संयोजक बा० दिगम्बरप्रसाद मुख्तार पढ़ी। अन्तमें मुख्तार साहबने इस सम्मानका उत्तर और बा० मंगल किरण जी जैन चुने गये । दिया जो अन्यत्र प्रकाशित है। इसके बाद राजेन्द्रकुमारजीने श्रीमती चन्द्रवती ऋषभ दूसरे दिन ६ सितम्बर को उसी पण्डालमें सम्मान सैन जैनसे सामाजिक विषयांपर बातचीत की। समाराहका दूसरा अधिवेशन हुमा।आजके सभापति ४ बजे व्याणर-मएडा में श्री राजेन्द्रकुमारजीको रायबहादुर लाहुलासराय थे । उनके अनुरोधपर अभिनन्दन पत्र दिया गया। उसके उत्तरमें बैंकों का नहटौरके रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर श्री नन्दकिशोरजी जनताके साथ क्या सम्बन्ध है, इसपर वे बोले । ४॥ रईस कार्यका संचालन कर रहे थे । श्री पं. बजे श्री ला० विशालचन्द जैन, स्पेशल मैजिष्ट्रेटके देवचन्द शर्मा ने मंगलाचरण किया। मुख्तार साहब यहाँ वे टी पार्टी में गये । यह राजेन्द्रकुमारजी और के कार्यपर श्री प्रभाकर जी का एक भाषण हुमा मुरूवार महोदयके सम्मानमें दी गई थी। इसमें जिले और अन्तमें प्रो. सत्यपालजी और बाल प्रोफेसर क श्री ला ही पुलिससुपरिन्टेन्डेण्ट जैसे अधिकारी मोहनजीने योगिक क्रियाओंका प्रदर्शन जिया। जिसका खान बहादुर श्री शाहनजर हुसैन चेयरमैन डिष्ट्रिक्ट जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। बोडे जैसे प्रमुम्ब पुरुष और विशिष्ट अतिथि पधारे अन्तमें श्री कौशलप्रसादजीने सबको धन्यवाद थे। श्री ला अहदासजीने सायंकालको सब अति- दिया और उत्सव सानन्द समाप्त हुभा। थियोंको एक शानदार प्रीतिभोज दिया। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सहयोगी विवर श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तारके सम्मान समारोह है. उनमें एक विशेष प्रकारका भाकर्षण है और वे लोगों को सफल करनेके लिये जो समिति बनाई गई, उसमें प्राशाके केन्द्र बनते जा रहे हैं। सहारनपुर जिले में एक निम्नलिखित सदस्य थे प्रभावशाली धनी हिन्दू-मुखकी कमी बहुत विनमे सखटकती श्री प्रद्युम्नकुमार रायसाहब रही है, यदि विशालचन्दजी अपने कानोंको कमजोर और श्री विशालचन्द, स्पेशल मैजिस्ट्रेट सांखोंको तेज़ रखपकें, तो बहुत शीघ्र उम कमीकी पूर्ति श्री जुगमन्दरदास, भानरेरी मैजिस्ट्रेट कर सकेंगे, यह प्राशा है। मुख्नार महोदय और बाबू श्री.दीवान जुगलकिशोर, चेयरमैन(शिक्षा)डि बोर्ड राजेन्द्रकुमारजीके सम्मानमें आपने जो टी पार्टी दी, वह श्री भाईदास जैन, इंस पापक प्रभाव और व्यवस्था दोनोंका सुन्दर उदाहरणा थी। श्री सेठ सेवकराम खेमका श्री दीवान जुगलकिशोरजी जिलेके एक प्रभावश्री मामराज हर्षित' श्री भीमप्रकाश मित्तल श्री जम्यूप्रधाद मुख्तार श्री जयप्रकाश गोटेवाले श्र, दिगम्बरप्रसाद मुख्तार श्री स्वामन डेरेवाले श्री दीपचन्द रावलपियडी वाले श्री मंगलकिरण जैन श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' रायसाहब लाला प्रद्युम्नकुमारजी सहारनपुर ही नहीं इस प्रान्तके प्रमुख जमीदारी हैं, फिर भी अत्यन्त सरल, नन्न नागरिक हैं। उनकी सच्चरित्रलाकी च और प्रशंसा उनके विरोधी भी करते हैं। पूर्ण योग्यतासे उन्होंने अपनी स्टेटकी व्यवस्थाकी है। वे स्वयं विद्वान विद्वानों का मान करना जानते हैं। उनमें अपने ते: स्वी पिता स्व. बा. जम्यूप्रसादजी-सी महत्वाचाएं भी हैं, पर वैकी सामाजिकता नहीं है। इस उत्सवकी सफलतामें उनके सह. योगका महत्वपूर्ण भाग है। हर समय और हरेक काममें के साथ रहे और उत्सवको उन्होंने बिलकुल अपना ही हीकाम समझा। श्री विशालचन्दजी बी० ए०, एन. बी. स्पेशल मैजिस्ट्रेट हमारे जिलेकी उभरती हुई शक्ति हैं। उनमें गजबकी सूझ है, संगठन शक्ति है, व्यवस्था है। उनके पास साधन है, उन साधनोंका उपयोग करनेकी योग्यता शाली पुरुष और बोडोंकी राजनीतिक पुराने विबादी है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सहयोगी किरण ५ ] आपके साथ होने का अर्थ है कहीं भी विरोध न होना समिति के संगठित होनेमें जो मरलता हुई उसमें आपका प्रभाव था। दीवान जी, उन लोगों में हैं, जो किसी कामको आरम्भ करके फिर सफल किये बिना नहीं छोड़ते श्री रूढामल जी डेरे वाले के प्रसिद्ध व्यापारी है। और इस प्रकार प्रत्येक उत्सवका धारम्भ ही उनके सहयोग से होता है. आप वृद्ध हैं. पर बालकों की तरह सरल, हंसमुख और हरेक सामाजिक कार्यके लिये प्रस्तुत । उत्पव की सफलता के लिये आपने रात-दिन प्रयत्न किया और बिना एक पैसा लिये, पण्डाल निर्माण और प्रकाशकी पूरी व्यवस्था आपने की। इसके बाद भी समितिको आप दान देनेके लिये बराबर उत्सुक रहे । श्री रूपचन्दजी एम० ए० भाप जम्बू जैन हाईस्कूल के हेडमास्टर हैं और इस संस्थाके गठन और विस्तारका जो वैभव आज हम देखते हैं, उसमें आपका बहुत हाथ है । सरल स्वभाव अत्यन्त सज्जन और परिश्रमी । इप उत्सवको उन्होंने अपनी निजी चीज़ समझी और उसकी सफलता के लिये सब कुछ किया और इस तरह किया कि करते मालूम न हो- मूक सेवक । श्री भाई जिनेश्वरदासजी श्री नेमचन्दजी वकील और श्री रायचन्दजी मुख्तारका सहयोग कदम कदम पर समितिको मिला। ऐसा सहयोग १६७ कि उसके सहारे मार्गके विघ्नोंको सरल करनेमें समतिको महत्वपूर्ण सफलता मिली। श्री बा० मंगल फिरणजी और दिगम्बरप्रसाद मुख्तार उम्माही कार्यकर्ता हैं। पूछ पूछ कर उन्होंने जिम्मेदारियों ह्रीं. उन्हें निभाया और उत्सबको शानदार बनाने में पूरा प्रयत्न किया । समितिके दूसरे सदस्योंने भी जो वे कर सकते थे, करनेमें कसर न रक्खी और उत्पवको जो सफलता मिली, यह सब उन्हींके परिश्रमका ल है, पर कुछ ऐसे •ि श्रोंका सहयोग हमें मिला. अरे बाकायदा समिति के सदस्य न थे, पर जिनकी चिन्ताएं और सहयोग दोनोंने इस महोत्सवको सफलता प्रदान की । श्री अदाम जैन रईस शहर के प्रतिष्ठित पुरुष हैं। संस्कृतके पण्डित, जैनसाहित्यके गम्भीर अध्येता और सरल हृदय सेवा परायण । उक्कबका एक एक कथा आपकी सद्भावनाओंसे अभिषिक था और उससी मफलता के लिये आपने पूर्ण प्रयन किया. बरावर चित्रित रहे। शाम के समय मारे में तिथियों के भोजनका उत्तरदायित्व लेकर आपने समितिको निश्चिन्त कर दिया । स्काउट मास्टर श्री चन्द्रभानजीका सहयोग बहुत बहुमूल्य था । अपने स्काउटोंके साथ उन्होंने जहां तहाँ सेवाएं कीं। काम छोटा हो या बड़ा, सबको हंस कर किया वर्दीके स्काऊट तो बहुत होते हैं, उन्हें हमने जीवनका स्काउट पाया । श्री मोतीलाल गर्ग स्थानीय समाजके उद्योगी रत्न हैं । काम करना तो उनका स्वभाव ही बन गया है रोगी होते हुए भी, चिकित्सा छोड़ कर इस उत्सव के लिये आप बाहर से आये और उसे सफल बनाने में अपना पूरा भाग अदा किया। श्री लाला ऋषभसैन जैन बैंक व्यवसायके विशेषज्ञ और हिन्दी के गाईस्थिक समस्याओंके विचार पूर्ण लेखक हैं। परामर्श और सहयोग दोनों उन्होंने समितिको सहयोग दिया और प्रमुख अतिथियोंके निवास और भोजन तथा वर्किंग कमेटी और धर्कस मीटिंग की व्यवस्था अपने यहां करके, उन्होंने समितिका बहुत बड़ा भार अपने सिर से लिया । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनेकान्त [वर्ष ६ श्रीमती चन्द्रवती ऋषभसैन जैनका सहयोग स्टार प्रेसके श्री घनश्यामसिंह और श्रीवास्तव प्रेसके बहुत महत्वपूर्ण रहा। उत्सवका प्रारम्भ ही वीरसेवामन्दिरसे श्री श्यामसुन्दरजी एवं काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' का उन्होंने किया। अतिथियोंकी व्यवस्थामें भाग लेकर, संदेश __ उदार सहयोग समितिको न मिलता, तो उसके प्रकाशनोकी और शुभकामनामक संग्रहमें योगदे और इस अंक संपा- यह सुन्दर व्यवस्था निश्चय ही न रह पाती। दनमें भी श्रमदान कर महोत्सवकी सफलतामें उन्होंने पूरा और उस कर्मठ साथी खिये यहाँ क्या कहा जाये, भाग लिया। वे जैन समाजकी विभूति हैं और जैसा कि जिसके बिना यह प्रस्ताव एक काना ही रह जाती और श्री राजेन्द्रकुमार जीने अपनी बातचीत में कहा जैन समाजके परिषदमखपत्र 'वीर' के 'सम्पादकीय' की भाषामें) "जो लिये वे गर्वकी चीज़ है। सारे कार्यका केन्द्र बन कर रहा, जिसने दिनको दिन रातको श्री मंगलदेवजी शाखीदेहलीसे पधारकर उत्सव रात न समझा, अपनी पत्नीकी चिन्ताजनक रोग दशा और के कार्यों में पूरा योग दिया। वे हिन्दीके विद्वान, योग्य माईके विवाहकी परवाह न कर जो काममें जुटा रहा और पत्रकार और उत्साही कार्यकर्ता है, इस लिये विभित्र जिसने न पदकी चिन्ना की, न प्रतिष्ठाकी। हमारा भाशय दिशामें उनकी सेवाएं उत्सवको मिनीं। अपनी समाजके युवक रल, कर्मठ श्री कौशनप्रसाद जैन श्री पं०शंकरलालजी तो इसी कामके लिये सप्ताह मैनेजिंग डायरेक्टर भारत भायुर्वेदिक केमीकल्स लि. से पूर्व मधुरासे पधारे और छोटेसे बड़े तक सभी काम इतनी हैं। वे जैन समाजके तेजस्वी कार्यकर्ताहै। लोगोंने अनेकतहीनताले करते रहे कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाये, बार अनुभव किया है कि उनमें एक बिजली और सहाकम है। सच तो यह है कि मेहमान होकर भी उन्होंने रनपुर जैसे स्थानमें यह सम्मान समारोह सफल कर ले अपने प्रेमसे मेजवानी पर कब्जा कर लिया था। जाना उन्हींकी शक्तिका फल था। कौशलप्रसादजीके कार्यने श्री प्रकाशचन्द्र शास्त्री, भारत मायुवैदिक केमीकल्स यह सिद्ध कर दिया है कि समाजकी वास्तविक शक्ति उसके लि. के प्रधान चिकित्सक और समाजके उत्साही कार्यकर्ता कार्यकर्ता हैं और यदि हम अपने समाजका नवनिर्माण है। रात-दिन उन्होंने इस उत्सवके लिये प्रयत्न किया। यह चाहें, तो हमें सबसे पहले कार्यकर्ताओंके संगठन पर ध्यान प्रयत्न इतना मूक था कि उन्हें उसमें खपजाना पड़ा देना चाहिये।" उत्सवके मानन्दसे भी उन्हें वंचित होना पड़ा। उनके इनके अतिरिक्त सैंकों भाइयों और बहनोंका वह सहकार्यको हम निकाम कह सकते हैं, जिन्होंने दिया ही दिया, योग अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जो हार्दिक शुभकामनाओं, पाया कुछ नहीं, सिवाय उस भास्मिक भानन्दके. जो ऐसे मूक शुभ भावनाओंके रूपमें मिला। यह महोत्सव इन्हीं ही लोगोंके लिये निर्मित हुवा है। लोगोंका था, उन्होंने ही उसे सफल किया, हम और क्या श्री अखिलेश 'ध्रुव' भी एक कर्मठ युवक है, उसकी कहें। वौद धूप समितिका बल बन कर रही। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत भाषण (स्वागताध्यक्ष रा० सा० श्री ला० प्रद्युम्नकुम्परजी द्वारा) -> > माननीय महानुभायो ! लिये एकत्रित हुए हैं, जिमने अपना सारा जीवन जैन साहित्य और इतिहास की खोज में लगाग और अपने आज इस सम्मान-समारोह में एकत्रित हुए श्राप जावन्की मारी सम्पदा भी अन्तमें उसी उद्देश्यके लिये सब बन्धुओंका स्वागत करते हुए मुझे महान हषे हो अति करदी। ऐसे मनुष्य की मान प्रतिष्ठा करना रहा है। प्रत्येक मनुष्यकी तरह मेरे जीवनमें भी प्रत्येक समाज और मनुष्यका कर्तव्य है, पर इतनेस अनेक मानन्दके अवमर आये हैं, पर यह उन सबमें हा हम आजक उत्सबका महत्व नहीं समझ सकते । अपूर्व है। यह मेरे साथियोंकी अनुकम्पा ही है कि अपने एक माधक विद्वानका सम्मान करना, बस उन्होंने यह मौभाग्य मुझे दिया कि मैं उन सबकी इतने तक ही आजक उत्सवकी सीमा नहीं है। उस ओरसे इस पवित्र मण्डपमें आप सबका स्वागत करूँ। सम्माननीय विद्वानने क्यों अपना जीवन इस कायमें यह कार्य आनंद और हर्षका है, पर आप मुझे क्षमा लगाया, यह एक प्रश्न हमारे सामने आता है। करें, सुविधाका नहीं है। क्योंकि विद्वानोंका स्वागत उनकी इम धुनका, जिसने उन्हें संसार की उन सब करने के लिये भी विद्वत्ताकी आवश्यकता है और लिप्माओं से दूर किया, जिनमें हम रात दिन फंसे मैं उमसे उतना ही दूर हूँ, जितना आप अविद्याम रहते हैं, आखीर आधार क्या है ? उन्होंने अनुभव दूर हैं, पर बड़े लोग अपने छोटों की बालक्रीड़ाओंसे किया कि जैन माहित्य में ऐसे अनमोल रत्न हैं, जो भी पानन्दित होते हैं, यही सोचकर मैं अपनी हार्दिक संसारको स्वर्ग-सा सुरमय, जीवनको महान और श्रद्धाभावनाके साथ यहाँ आपका स्वागत करता हूँ राष्ट्र को उन्नत बनाने वाले हैं और साथ ही उन्होने और यह अनुभव करता हूँ कि आज हमारे इस यह भी देखा कि संसार उन रत्नोंको भूल रहा है, इन नगरका बड़ा ही भाग्योदय है कि श्राप कृपा काक रत्नोंपी उपेक्षा करके कांचका शृङ्गार कर रहा है। पधारे। आप जैसे माननीय अतिथियों के स्वार,तके उन्हें यह देखकर और भी चोट लगी कि दीर्घकालकी लिये हमें जो व्यवस्था करनी थी, वह अनेक कारणों - उपेक्षा कारण कहीं कहीं उन अनमोल साहित्य रत्नों से हम न कर पाये, और इस प्रकार आपको यहाँ की शृंग्वला नष्ट हो चली है । उन्होंने अपने मनमें असुविधाओंका होना सहज ही है, पर इस उत्मव संकल्प किया कि मैं उन्हें झाड़-पोंछकर संसारक मामने के उद्देश्यकी छायामें मैं श्राशा करता हूँ कि आप उनपर रक्खंगा, जिससे संमार इनकी सुन्दरता परखे, इनका विशेष ध्यान न देकर हमारी भावनापर ही ध्यान देंगे। मोल जाने और इनसे लाभ उठा कर सुखी हो । हमारा उद्देश्य-- हम इम भावना को ममभलें, तो फिर मतभेदकी भी कहीं गुंजायश नहीं रहती, क्योंकि अंगूठी में पुखआप और हम सब यहां एकत्रित हुए है, यह राज लगे या होग और उसे गोल रखना रोक है या आप हमारी विज्ञप्तियों में पढ़ चुके हैं। आपकी उप- चकोर, ये तो ऊँचे कलाकारोंके विवाद-विषय हैं। स्थिति से यह भी सिद्ध है कि उसे आपका अनुमोदन यह तो सभी मानते हैं और यही मुख्य बात है कि प्राप्त है, फिर भी मैं उसपर दो शब्द कहना चाहता रत्न सम्मान की वस्तु हैं, उपेक्षा की नहीं। आज जब हूँ। यहां हम एक ऐसे विद्वानका सम्मान करने के हम इम सम्मान-महोत्सबमें सम्मिलित हुए हैं. तो Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ हमारे कर्णधार जैसे मुकभावसे हमने यह घोषणा की है कि हम सच कि मेरे डूबने की तो कोई बात नहीं, पर किसी तरह भी यही चाहते हैं कि वे अनमोल रत्न संसारक गले आप का जीवन बचना चाहिये । अरस्तू ने कहा-मैं का हार बनें, यों ही उपेक्षा कारण नष्ट न हों। उनके एक फकीर हूँ, मेरे जीवनका क्या मूल्य? तुम सम्राट द्वारा हममें इस भावना का जागरण हुआ यह उनका हो, जीवन तो तुम्हारा बचना चाहिये । इस पर सच्चा सम्मान है और उन विद्वान महानुभाव श्रीमान् सम्राट मिकन्दरने जो उत्तर दिया, वह बहुत ही महमाननीय ५० जुगलकिशोर मुख्तार महादयके प्रति त्वपूर्ण है। उमने कहा-महाराज, पाप जीवित रहे, अपना यही सम्मान, भावनाओंका यही अभिनन्दन तो मेरे जैसे कई सिकन्दरोंको फिरस बना देंगे. पर प्रकट करनके लिये हम यहां एकत्रित हुए हैं। मेरे जैसे हजार सिक-दर भी रहें, तो वे मिलकर एक अरस्तू नहीं बना मकते! मुख्तार साहब का कार्य सम्राट सिकन्दरका यह उत्तर विचारक विद्वानों पिछले ३०-३५ वर्षों में पणि त जुगलकिशोर जी का हमारे समाजके जीवनमें क्या महत्व है, उसपर ने जो कार्य किया, वह बहुत बड़ा है । उन्हें अपने बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है और इस प्रकाशकी छाया कार्यन जिन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा वे में हम मुख्तार महोदयके कार्यका महत्व समझ सकते हैं। साधारण नहीं हैं । आज तो जैन साहित्यका बहुत सा प्रकाशन हो गया है, अनेक भण्डारों की सूचियां बन गई है, और यह पता लगाना सरल हो गया है कि कौन वस्तु कहां है, पर तब बहुत कुछ अन्धकार में अब तक मैंने जो कुछ निवेदन किया, उससे था और यह अन्धकार इतना घना था कि इसे भेद यह स्पष्ट है कि आजके उत्सवका एक विशेष महत्व है। कर, भीतरका रहस्य पाना दुलेभ था। वे अपनी अन इस प्रकारके उत्सव संसारकी सभी जीवित जातियां थक शक्ति के साथ इस क्षेत्र में आये और आज जो मनाया करती हैं। एक अंग्रेज विद्वानका कथन है कि चारों ओर इस दिशामें प्रकाश हमें दिखाई देता जो जातियां अपने विद्वान विचारकोंका टीक २ मान है उसके निर्माणकी नींव रक्खी । आज उसका नहीं करतीं, उनका बुद्धि-विकास क्षीण हो जाता है; फल, एक बहुमूल्य धरोहरके रूपमें हमारे सामने है। उसमें स्वप्नदर्शी प्रतिभाशालियोंका उत्पन्न होना बन्द विचारकों-विद्वानों ने ही सदैव जातियों के हो जाता है और इस प्रकार धीरे २ वह जाति नष्ट जीवनका निर्माण और उसकी रक्षा की है। जो हो जाती है। कार्य करने में बड़ी बड़ी राजसत्ताएँ असफल रहीं, वे कुछ उत्साही मित्रोंने यहाँ इस प्रकारके महत्वपूर्ण कार्य विचारकोंने किये हैं। यही कारण है कि सदा उत्सवकी योजना तो कर दी पर हमारे सामने मुख्य राजसत्ता और धनवता दोनोंने ही विचारकों के प्रश्न यह था कि कर्णधार किसे चुनें, जिसका नेतृत्व चरणों में अपना मस्तक झुकाया है। कहते हैं एक बार इस आयोजनको यथोचित रूपमें सफल कर सके। महान सम्राट सिकन्दर और विचारक शिरोमणि हम सबका ध्यान श्रीमान् राजेन्द्रकुमार जीकी ओर गया अरस्तु साथ साथ नाँवपर घूम रहे थे। नाव खतरेमें और उनकी व्यस्तता एवं कार्यों के भार को देखते हुए पड़गई, तो सिकन्दर इधर उधर देखने लगे। महात्मा भी हमने उनसे शर्थना की। उनकी यह कृपा है कि अरस्तू ने पूछा-सिकन्दर, किस चिन्तामें हैं ? तो उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया और आज वे यहां उसने उत्तर दिया कि महाराज, मैं यह सोच रहा हूँ हमारे मध्यमें हैं। उनके सम्बन्धमें कुछ कहना एक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] स्वागत भाषण शिष्टाचार ही है। क्योंकि भारत बीमा कम्पनीका श्रीमान् गजेन्द्रकुमारजीकी समाज सेवाएं भी बहुमूल्य नवनिर्माण और भारतबैंकका संचालन कर के हैं और राष्ट्रभाषा हिन्दीके लिये भी उनकी शक्तियोंका वे जनताके हृदयों नक पहुंच गये हैं और देशके सदा उपयोग हुआ है। मुझे आशा है कि उन की विद्वान और नेता उनकी प्रतिभाशीलता को आदरके संरक्षकता में यह महत्वपूर्ण उत्सव पूर्णतया सफल साथ स्वीकार कर चुके हैं। श्रमान राजेन्द्रकुमारजी होगा और इससे साहित्यके रत्नोंकी खोजका पथ प्रशस्त उन लोगोंमें हैं, हमारे राष्ट्र की उन विभूतियों में है, होगा। जिन पर सारे देशको गर्व है और जिन्होंने अपनी उपसंहार इस स्थिति का निर्माण अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ से मैंने आपका बहुत सा समय लिया, अब अन्तमें स्वयं किया है। आजके उत्सवके सभापतित्वके लिये, तो उनका मैं फिर इस कृपके लिये अपनी समितिकी ओर से नाम बहुत ही उपयुक्त है। मैंने ऊपर निवेदन किया आप का आभार मानते हुए आपका हार्दिक स्वागत था कि विचारक, जातियों के जीवनकी रक्षा करते हैं करता है और अपने सुयोग्य सभापति श्रीमान राजेन्द्र और अन मैं कहना चाहता हूँ कि व्यावमायिक उस कुमारजीसे यह प्रार्थना कि वे कृपाकर अपना श्रासन जीवनको दृढ़ बनाते हैं, इस प्रकार विचारक और ग्रहण करें और कार्यक्रमका संचालन कर श्रीमान व्यावसायिक हमारे जातीय जीवनके दो विशाल माननीय विद्वदूर पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार स्तम्भ हैं। इस प्रकार यह एक स्वर्ण संयोग है कि एक महोदयके इस सम्मान महोत्सवको सफल कर हमें विचारक विद्वानके सम्मान महोत्सवका नेतत्व एक अनुगृहीत करें। व्यावमायिक नेता करें । व्यावसायिक नेतृत्वके साथ * धार्मिक पुस्तकोंके मिलनेका अभाव होते जानेपर भी- * (१)भविष्यदत्तसेठ १०॥2)का) (२)चन्दन वालासेट ६)का ४११) (३)सत्यमार्ग संट८-)|का ६॥ सुरसुन्दरी नाटक २) सनी चन्दनबाला सत्यमार्ग नवीन जिनवाणी संग्रह सत्यघोषनाटक जिनवाणीसंग्रह भविष्यदत्तच स्त्र रत्नमाला रत्नकरंडश्रावकाचार द्रव्यसंग्रह धन्यकुमारचरित्र अंजन सुन्दरीनाटक नित्यनियमपूजा भाषा समन्तभद्रचरित्र प!षणपर्व ब्रतकथा ऋषभदेवकी उ. सूत्रभक्तामर १० पु. ११) भादौं जैनपूजा जैनधर्ममिद्धान्त किशन-भजनावली २ जिनवाण गुके विशाल जैनसंघ चाँदन गांव-कीर्तन हितैषी गायन श्रात्मकमनोविज्ञान बारहमासा अनन्तमती जैनभजनसंग्रह अतिशयजैनपूजा दीपमालिकापून अनन्तमती-चीरित्र चारचित्र हस्तिनागपुर-महात्म्य रलकरएडश्रावकाचार रायबनकथा बड़ी * सम्मेदशिखरपूजा बड़ी )| महस्रनाम भाषाटीका ॥ | विनती विनोद श्री वीर जैन पुस्तकालय, १०४ वी नई मंडी मुजप्रफरनगर (यू० पी०) . नोट-नं०१सेट दस रुपये ग्यारह मानेका पाठ रुपयेमें। नं.२ सेट सवालह रुपयेका पौने पाँच रुपये में । नं.३ सेट आठ रुपये साढे पाँच भानेका सषा छह रुपयेमें । 210) - ICEEJUsal - - . . T DI T Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन-पत्र म . सेवा में श्रीमान् पं0 जुगल किशोरजी मुख्तार महोदय अधिष्ठाता वीरसेवा-मन्दिर, सरसावा. (सहारनपुर) यू०पी० हे श्रम-माधक! पापकी ६० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में प्रायोजित इस सम्मान-महोसवमें उपस्थित हम आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। जैनसाहित्य, इतिहास और पुरातस्तकी उलझी हुई गुत्थियोंको सुलझाने में आपने अपनी जीवनव्यापी गम्भीर साधना के द्वारा जो श्रम किया है और उससे जिन रत्नोंकी सृष्टि हुई है, वे हमारी इस पीढ़ी की बहुमूल्य सम्पत्ति हैं और हमारा विश्वास है कि पाने वाली पीढ़ी एक बहुमूल्य धरोहरके रूप में उन्हें पा गौरवान्वित होगी। हे आदर्श प्रणेता! स्वार्थ के मायाजाल में फंसे, धर्मभावनासे विमुख, राष्ट्रीय उतरदायित्वोंसे परामुख, जब अधिकांश मनुष्य धनसम्पदाकी चिन्तामें रात-दिन ग्रस्त हुए घूमते हैं, तब आपने अपना सारा जीवन साहित्य और इतिहासके अनुसंधान में लगाया और अपनी ५१...हजार रुपयोंकी सम्पत्ति भी उसी कार्य के लिये उत्सर्ग करती। हम मानते हैं कि इस रूपमें देशके प्रतिभाशाली, साधन सम्पन्न और उद्योगी युवकोंके सामने आपने एक सजीव प्रादर्शकी स्थापना की। हम एक आदर्श प्रोताके रूप में आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। हे अमर प्रतिभाके पुत्र! असत्य अपनी सहचरी अन्धश्रद्धाका बल पा, सदैव सत्यका भावरण बनने में सयत्न रहा है। हमारे साहित्य में भी संस्कृत-भक्ति एवं प्राचार्य-श्रद्धाको छायामें इस प्रकारके अनेक प्रावरण इतने सुरूप एवं सुरद थे कि उन्हें सत्य म मानना, सत्यको चैलेंज समझा जाता था, इस दशामें अनर्थक शक्ति और अपार साहसके साथ उन श्रावरणोंको भेद कर सत्यकेमालोकका प्रकाशन प्रापकी ही प्रतिभाका कार्य था। हे अमर प्रतिभाके पुत्र! हम पापका अभिनन्दन करते हैं। हे भव्य-भावनाओंके भण्डार ! भापकी प्रखर भावनात्रीने जहां धर्म-साहित्य में परीक्षा प्रधानताकी सृष्टि की, स्वामी समन्तभद्रके मूल इतिहासका अनुसन्धान किया, भगवान महावीरके काल निर्णयकी गुत्थियां सुलझाई, पूज्य तीथंकरों एवं जैनाचार्योंके शासनभेदोंकी खोज की, सामाजिक परम्पराओंके मूलकी बानबीन कर क्रम-विकासका प्रदर्शन किया, 'अनेकान्त' के द्वारा निरन्तर जीवन साहित्यकी रसवर्षा की और बीर शासनकी पुण्य तिथिका अनुसन्धान किया। वहाँ भापकी कोमल भावनाघोंने हमें मेरी भावना का उपहार दिया। जिसने जाने कितने प्रशान्त हृदयोंकोशांति दी, हतोत्साहितॊमें नव प्रेरणा दी, सरसताका संचार किमा। हे भग्य-भावनामोंके भण्डार, हम भापका अभिनन्दन करते हैं। हे वृद्ध-युवक युगवीर! इस बुढ़ापेमें भी प्रापमै युवकों सा उत्साह एवं स्फुरणा है और रात-दिन भाप अपने अनुसन्धानमें लगे रहते हैं। हे वृद्धत्व और यौवनके दिव्य संगम ! इस शुभाशाके साय कि भापका यह अध्यवसाय निविप्न दशाब्दियों तक चलता रहे, हम भापका अभिनन्दन करते हैं। हम है अापके अपने हीसहारनपुर सदस्यगण, ५ दिसम्बर ४३ श्री जुगलकिशोर मुख्तार सम्मान समिति Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे माननीय अतिथि श्री. बा. रतनलालजी जैन बिजनौर . श्रीमती लेखवतीजी, अम्बाला जैन समाजकी विभूति, पंजाबके सार्वजनिक जीवनका रत्न और नारीकी क्षमताका एक उदाहरण । बोलने में प्रभावशाली, लिखने में सावधान, सभाके कार्यों में चतुर, गृह निर्माणमें प्रवीण और समाज की सेवामें उत्सुक, जिसमें भारतकी सरलता और पश्चिमकी प्रगति। पं० राजेन्द्रकुमारज, मथुरा एक शब्दमें गतिशील युवा । कभी अम्बाला थे, अब मथुरा हैं। उनकी संस्थाका नाम पहले शालार्थ संघ था, अब जैन संघ है। परिस्थितियों के पारखी, युगदर्शक, युगचेता और युगसहचर । अपने ही घुटनों के बलपर उभरकर ऊँचे आसन पर बासीन, कर्मठ कार्यकर्ता भी और विद्वान भी, संघर्षशील, पर समन्वयी भी, विरोधियों के लिये वन और साथियोंके लिये सहृदय। परिषदके मजनू , जेल में और जेलसे बाहर, चिन्तामें हों, प्रमन्नतामें हों, परिषदके लिये आकुल । सामी कर्मानन्दजी, देहली परिषद उनके लिये एक संस्था नहीं, तिरंगे झंडकी आर्यसमाजी अखाड़े के पुराने खिलाड़ी, वैदिक तरहपरिषद उनके लिये समाज ननिर्माणका साहित्यके गम्मीर अध्येता, जैनधर्मपर प्राणपनसे प्रतीक है। परिषदके प्रति उनके गम्भीर प्रेमका यही लह, बेनजीर वक्ता, अपने ढंगके लेखक, जैन साहिरहस्य है। राष्ट्र के परखे हुए सिपाही, जैन साहित्यके त्यके पारग्बी, एक शक्तिशाली व्यक्ति, जिसे जैनगम्भीर अध्येता और जैनधर्मके मूकसेवक । एक शब्द समाजने पाया तो सही, पर पहचाना नहीं; जैन में ससियर साथी । जीवनके हरेक क्षेत्र में विश्वसनीय। समाजके लिये गौरवकी चीज, पर जिसे खोकर ही बाबू लालचन्द, रोहतक शायद जिमका मूल्य वह जाने! जिसने पं० जुगलकिशोरजीको वृद्ध कहा, उसीसे प्रो० गयाप्रमादजी शुक्ल, देहरादून लड़नेको तैयार-थकानके शत्र, हर समय संघर्षके हिन्दीके विद्वान, माहित्यिक 'वादो के अधिकारी लिये प्रस्तुत, पर अत्यन्त सुलझा हुया दिमाग-ममय अध्येता, सफल अध्यापक, हिन्दीके धुनी, नाम और पर मीठे और समय पर करारे, जैनयुवकोंकी उमीद, पद दोनों के प्रति निस्पृह, सरल सरस और मित्रोंके परिषदके अड़े समयके साथी और कर्णधार, कार्य- मित्र, मिलकर जिन्हें भूलना असम्भव! कर्ताओं में कार्यकर्ता और नेताओं में नेता-प्यारके ला. जगदीशप्रमादजी एम.ए., बड़ौत लायक, मानके लायक, सफल बकील-कोटमें भी घनी होकर भी बिद्वान और विद्वान-धनी होकर और कान्फ्रेंसोंमें भी। भी सरल । प्रतिभाशाली और सहदय, मैत्रीपीछाप Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त [ वष ६ छोड़नेवाले युवक, जिनमें मिगहीगीरीकी हौस-आप और गिरफ्तार करके भी सार्वजनिक जीवन में लाने ने मुख्नार साहको युवकोंकी ओरसे ही श्रद्धांजलि के लायक। दी.. अपनी जगह बहुत खुक-सार्वजनिक जिम्मे ला. रघुवीर सिंह सर्गफ़, देउली दारियों के लायक। __ परिषदके मुखपत्र 'वीर' के प्रकाशक, यथाशक्ति मास्टर उग्रमैन जी, देइली सार्वजनिक काम करने में उत्सुक, सरल, सहदय, श्रद्धालु और सज्जन । ला. दीपचन्दजी, देहरादून 'गजा और 'जा' दोनों के प्रिग, दोनों के विश्वासपात्र, जैनके परमभक्त. जैन साहित्यके परिहत, सन्दर वक्ता, मरल ले ग्वक और नागरिक । लाला कृष्णा चन्द्र, देवगन प्रमुम्ब रईम और शम्बी व्यापारी,म्पल, महदय और उदार । मित्रों के लिये मजबूत अवलम्ब-समय पर काम आनंबाले, मामाजिक कार्यों में अनुरक्त और सवाक लिये प्रस्तृत ।। बा. माचीप्रमादजी देहरादून अपने नर ने प्रिय प्रानरेग मैजिष्ट्रेट, प्रतिष्ठित नागरिक. सरल हदय युवक, हिन्दी के परमभक्त और अत्यन्त सज्जन । गयसाध्य बा. श्यामलाली, रुड़की हमारे प्रान्तक अत्यन्त सफल एक्जीक्यूटिव आफीसर, प रषदके पुराने माथी- समाजसुधारप्रेमी, सुलझे मस्तिष्कके गम्भीर पुरुष, विश्वसनीय और काम, काम, काम, बस सोते जोते जागते जिसे श्रद्धालु। कामकी धुन । परिषदका रीक्षाबोर्ड, उनकी धुनका ला. बाबूलालजी, खतौली मन्दिर है और अब यह सौभाग्यकी बात है कि पबि अपने बुढ़ापेमें भी अत्यन्त उत्साही और समाज पदको उनकी गदिनकी सेवाएँ प्राप्त हैं। भाव सुधारमी, विद्वानों के भक्त, इस सम्मान ममारोहसे सरल, जो मिले, उस ही उलझाकर समाज काममें इतने प्रसन्न; जेसे उनके घरमें ही कोई त्योहार होरहा लगानेको उत्सुक । उम्र में बुजुर्ग, नाममें मा-हरजी, हो । शाखप्रेमी, सज्जन और सहदय।। पर हरेकसे काम की बात मीखने को तैयार ! ला. पन्नालालजी, देहली श्री महावीरप्रमाद जी, मरधा वीर-सेवा-मन्निरके मन्त्री और न साहित्य एवं बी० ए०, एल-एल० बी० होकर भी तर्कहीन- समाजके मूक सेवक, चुपचाप काम करनेवाल, ऐसा श्रद्धालु, सरल होकर भी व्यापारी और व्यापारी होकर काम जिसकी रिपोर्ट नहीं छपती और गिनती भी भी साहित्यिक-हिन्दीकी अनेक श्रेष्ठ कहानियोंके नहीं होती, पर जो समाजके जागरण में नींवकी ईट प्रणेता। अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सदैव सावधान बनकर रहता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत-भाषण १७५ प्रो. सत्यपाल जी, अम्बई भगत सुमेरचन्दजी, जगाधरी गृहस्थमें रहकर भी त्यागी जीवनके प्रती-धीरे धीरे सम्पूर्ण त्यागकी ओर गतिशील । शाखोंके भक्त, विद्वानोंके प्रेमी और सामाजिक सेवामें अनुरक्त । बा० दीपचन्दजी, वकील, मुजफ्फरनगर मामाजिक नवजागरण के हामी और समर्थक, जैन माहित्यके प्रेमी और विद्वानों के प्रशंमक, महदय और उदार वन्धु। बा प्रोफेमर मोहनजी, देहली 4 04sinever SHARE kam'..... MARY . . ... ... BASE अपने विद्यार्थी जीवनमें आपका ध्यान प्राचीन भाग्नके योगियों द्वारा प्रदर्शित चमत्कारों और धनुविद्याके करश्मोंकी ओर गया अंर आपने उन्हें प्राप्त करनेका प्रयत्न किया। श्राज आपके द्वारा प्राशन चमत्कागेको देखकर जनता और वैज्ञानिक भौंचक रह जाते हैं। वह समय प्रारहा है, जब आप यूरोप आप सत्यपालजीके प्रमुख शिष्य हैं और अधिमें पहुँचकर अपना चमत्कार दिखायेंगे और इसप्रकार कांश प्रदशेन आप ही करते हैं । जब आप अपना भारतका मान बढ़ायेंगे। हाथ मोड़ने के लिये बडे २ पहलवानोंको चैलेंज करते हैं और वे नहीं मोड़ पाते, तो जनता मन्त्रमुग्ध रह डा. नन्दकिशोरजी. कान्धला जाती है। आपका गले में फाँसी लगानेका प्रदर्शन तो समाजके उत्साही कार्यकर्ता, परिषद के पुराने मंत्री बहुत ही अपूर्व है । श्रापकी भाषण शैली बहुत और सुधारप्रेमी । सामाजिक कार्यों के लिये हर घड़ी मार्मिक है और हिन्दीके श्राप सुन्दर लेखक भी हैं। तैयार, समझदार साथी। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनेकान्त [वर्षे ६ इस उत्सव में बाहरसे लगभग १५० सज्जन पधारे आजाते है, समाज उन्हें अपना शृङ्गार मानता है, पर थे, उनमेंसे जिनके परिचयमें आनेका हमें अवसर समाजकी वास्तविक शक्ति तो वे मूक नागरिक हैं, जो मिल सका, उनपर हमने यहाँ संक्षेपमें कुछ कह दिया बिना प्रदर्शनके व्यवस्था और सौन्दर्य के साथ अपने है। इसका यह अर्थ नहीं होता, कि शेष अतिथि गृहस्थोंका संचालन करते हैं। इस उत्सवके श्रद्धालु मान्य न थे या उनका महत्व कुछ कम है। समाजमें उन मूक पर महामन्य अतिथियोंको हमारा प्रणाम ! कुछ लोग अपनी सार्वजनिक प्रवृत्तियों के कारण सामने वीरपूजाका आदर्श श्री महेन्द्रजी आगरा आदर्श अनुसंधाता (डाक्टर श्री ए. एन. उपाध्याय, एम० ए० डी. लिट. कोल्हापुर) (एटा जेलसे एक मित्र द्वारा) पण्डित जुगल किशोरजीके प्रति मेरे मनमें गहरा मादरभाव है । शानप्राप्तिकी की प्यास, गम्भीर मध्ययन, साहित्यिक गुत्थियोंको सुनमामेका अद्भुत ढंग और सीधी-सची समालोचना, इन सब,गुणोंने उन्हें एक आदर्श अनुसन्धाता बना दिया है। मुझे यह जानकर बदी प्रसन्नता हुई कि जैनसमाजके अद्वितीय विद्वान और इतिहासविद श्रीमान मुख्तार साहबका सम्मान समारोह मनाया गया है। जैन समाजमें यह उत्सव अपने ढंगका अपूर्व है और इसका बबा महत्व है। यदि इस समय मैं परवश न होता, तो स्वयं उपस्थित होकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता। यदि जैन समाजने इसी प्रकार वीर पूजाका भादर्श सदैव अपने सामने रखा तो उससे समाजका माहित होगा-समाज मागे बढ़ेगा। जैन साहित्यकी उन्होंने जो सेवा की है, वहन केवल सदैव जीवित रहेगी, युवकोंका पथप्रदर्शन भी करती रहेगी। उन्होंने सदैव कठोर जीवन व्यतीत किया है और ज्ञानप्राप्तिके लिये सब कुछ न्योछावर कर दिया है। वे अधिकाधिक सम्मानके पात्र है। मुख्तार साहकी विद्वता, समाजसेवा, साहिस्विक अनुष्ठान और त्याग जैन समाज ही नहीं, भारतीय मानके लिये भावरी । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानोंकी टिप्पणियाँ सात विशेषताएँ निमित्तरष्टया प्रोक्तं तपोभिर्जनरलकैः । धर्मोपदेशनैरन्यवादिदातिशातनः ॥ (श्री दौलतराम 'मित्र', इन्दौर) नृपचेतोहरैः भव्यैः कान्यैःशब्दार्यसुन्दरैः। कहा जाता है कि जिसने तर्क करना सीख लिया उस सद्भिः शौर्येण तत्कार्य शाशनस्य प्रकाशनं ।। की बुद्धि यदि सौ जन्ममें भी शुद्ध होजाय तो पाथर्य है। रुचि प्रवर्तने यस्य जैनशासन भासने। परन्तु हम देख रहे हैं कि पं. जुगलकिशोरजीने पूरे तार्किक हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरितिसूत्रे निगयते ॥ रहकर भी अपनी बुद्धि शुद्ध बनाली है। उनमें श्रद्धात्मक -उत्तरपुराण प्रास्तिक्य है, ब्रह्मचर्य है, परिग्रहहीनता है और निष्काम पण्डितजीकी यह तीसरी विशेषता है। कर्मठता है। x नास्तिक और चरित्रहीन लोग बुढ़ापेमें या मरते समय दुनिया में सबको खुश नहीं रखा जा सकता । जो बुद्धिके शुद्ध होनेपर प्रायः यो पछताया करते है कि- व्यक्ति सत्कर्तव्यमार्गी है, उसके विरोधी पैदा हुए बिना पंडिताई माथेचदी पूर्व जन्मके पाप । नहीं रा सकते. सस्कर्तव्यवश पंडितजीने जालसाज कुग्रंथऔरोंको उपदेश दे कोरे रह गये श्राप ॥ कारोंकी कमर तोड़ने में--समालोचना करने में और उनके इस बुढ़ापेमें पंडितजीको इस प्रकारका कोई पछतावा अनुयायी कुपथगामियोंकी टोलीको फोड़ने में कोई कसर नहीं नहीं है। पंडितजीकी यह पहली विशेषता है। रखी । पंडितजीने जनमतकी नहीं किन्तु जनहितकी परवाह की। पंडितजीकी यह चौथी विशेषता है। पंडितजीके कोई संतान नहीं है किसी अनुभवीने कहा है कि हमारे पूर्वज यो विद्वान थे--यो खोजी इस तरह "पुमानत्यंत मेधावी चतुर्वेकं समश्नुते। हम गुण-गाथा गाया करते हैं। परन्तु पंडितजी जैसे विद्वान् अल्पायुरनपस्यो वा दरिद्रो वा रजान्वित:॥ यदि आज मौजूद न होते तो हमें दुनियासे यह सुनना देखा गया है कि सन्तानहीन लोग अत्यन्त लोभी, पड़ता किसंकीर्ण और चिडचिड़े होते हैं और किसी सम्बन्धीके पुत्र You have no enemies, you say ? को दत्तक बनाकर अपना मन बनाते हैं। पर मुख्तारजीने Alas Imy friend. the boast is foor. विवेकपूर्वक अपनी सारी सम्पत्ति समाजको दान कर दी है He who has mingled in the pray अपना मोह किसी एकमें सीमित न कर संसारको अपनी Of duty. that the brave endure पात्मीयताके क्षेत्र में ले लिया है और इस प्रकार वे अपनी Must have made foes1 If you have एवं दूसरोंकी प्रसन्नताके कारण बन गये हैं। पण्डितजीकी none यह दूसरी विशेषता है। Small is the work you have done, You've hit no traitor on the hip जैनधर्म प्रचारके लिये जो अष्ट निमित्त बतलाये गये You've never turned the wrong to है, उनमेंसे अनेक निमित्तोके द्वारा पंडितजीने जैनधर्मका right काफी प्रचार किया है। प्राचार्य श्री गुणभद्रने ऐसे प्रचारक You've been a coward in the fight. को मुक्तिका अधिकारी बनलाया है-- ( Charles Mackay ) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ फजलो हुनर बड़ोंके कुछ तुममें हो तो जाने । प्रकारसे उन्होंने अपने जीवनको श्रोत-प्रोत कर दिया है। गर यह नहीं तो बाबा ये सब कहानियां है। अन्समें ऊँचे साहस और स्वरसे 'इवि रस्मि नाम' अर्थात् बड़ोंके गुणगानके साथ अात्मनिर्माण-पंडितनीकी मेरा ही नाम पहली हवि है, यह संकल्प करके . उन्होंने यह पांचवीं विशेषता है। वीरसेवामन्दिरके लिये अपनी मर्वमम्पत्ति और अपना भमी जीवन भी समर्पित कर डाला है। प्राशा है उनके इस प्रायः पंडित लोग जिज्ञासुके भावको न देखकर उनके अनुकरणीय गागसे जैनसाहित्यका कल्पवृक्ष नवीन स्फूति शब्दोंकी खामीका दुरुपयोग करके उन्हें तोड़ मरोड़कर के साथ पल्लवित होगा। उसे चुप करना ही जानते हैं। इसी बातकी एक कविने जैन साहित्यने भारतीय ज्ञान-साधनाके अनमोल रत्नो कितनी मीठी-शिकायत की है की रक्षा की है। भारतीय संस्कृतिक इतिहमके लिये जैन "बाईबाकी हुजतोसे कायल तो होगये हम। वाङ्मय बड़ी मूल्यवान सामग्री भरी पड़ी है। यह सत्य कोई जवाब शाकी पर उनसे बन न पाया ॥" अब दिनप्रतिदिन प्रत्यक्ष होता जा रहा है। बौद्धोका महान् परंत पं० जुगलकिशोरजीमें यह बात नहीं है। उनके पाली और संस्कृत साहित्य आज विश्वविदित है और उसके लेखोंमें हदय है, उनमें चित्त-प्रन्थि सुलझानेकी पूरी सामग्री द्वारा साहित्य संस्कृतिपर विलक्षण प्रकाश पड़ा है । जैन यतीवेजिमसको खामोश नहीं करते, तृप्त करनेका माहित्य प्रकाशनके क्षेत्रमें कुछ पिछड़ा रहा, पर उसकी यल करते हैं। प्रमाण पर प्रमाण, विवेचनापर विवेचना अन्त:साक्षी भी बौद्धसाहित्यसे कुछ कम महत्वपूर्ण ज्ञात देकर उसे इतनी विचार सामग्री दे देते हैं कि उसकी भूख नहीं होती। हर्ष है कि अब देश के कई स्थानोंसे जनसाहिमर जाये । यह पंडितजीकी छठी विशेषता है। त्यके अमूल्य ग्रन्थोंके प्रकाशनका एकसाथ प्रयत्न होरहा है। श्री जुगलकिशोरजीके कार्यका इस महान यज्ञमें कृतज्ञताके दार्शनिक और अनुसंधाता लोगोंका स्वभाव प्रायः साय सदा स्मरण किया जायगा । रूस्या होता है और वे सदा अपनी ही धुनमें मस्त रहते हैं, पणितजी अपने साथियोंके लिये सदा अत्यन्त सहृदय भावी पीढ़ीक पथप्रदर्शक पण्डितजीके साथ मेग अभी तक साक्षात् परिचय नहीं श्री कामताप्रसाद जैन एम० आर०ए०एस०है, पर उनके पत्रों में बराबर मुझे अपने सगे सम्बन्धियों-सी सहारनपुर के भाड्याने श्री जुगलकिशोर मुख्तार साहब प्रात्मीयता मिलती रही है। जब मैं उनकी चिट्ठी पढ़ता हूँ, का मम्मान उत्सव नियोनित करके निस्सन्देह एक युगप्रव- । तो मुझे अनुभव होता है कि वे मेरे पास ही बैठे, प्रेमसे तक कार्यका श्रीगणेश किया है। जैनियोंमें इम श्रोरसे निरी बातें कर रहें हैं। उदामीनता थी। जो जाति अपने साहित्यिको-सच्चे उपविद्वान होकर भी सहृदय, यह पण्डितजीकी सातवीं कारियोंका श्राभार नहीं जनाती उसका भविष्य शायद ही विशेषता है। कभी चमकता हो! देर-सबेरस नियोने इस सत्यको नीहा है यह संतोषकी बात है। सहारनपुर जैनियोंका केन्द्र है। वि रस्मि, नाम उसपर ला. प्रद्युम्नकुमारजी सदृश स्थितिपालक श्रीमान्की डा. वासुदेवशरण अग्रवाल एम०ए० डी. लिट. . अध्यक्षतामें इस समारोहका सम्पन्न होना इस बातका प्रमाण क्यूरेटर, प्रान्तीय म्यूजियम लखनऊ है कि जैनियों में नव जागतिकी लार गहरी पैठी है-उस भी जुगलकिशोरजीके एकनिष्ठ साहित्य साधनपर मैं ने कट्टरताको मेटकर विवेकको भगत कर दिया है। उन्हें अपना विनम्र अभिनन्दन भेजता हूँ । जनसाहित्यक... परीक्षा प्रधानता ही मनुष्य जीवनको उन्नत बनाती है जो लिये उन्होने महान् त्याग किया है। इस कार्यके साथ एक भी इस बातको जान और मान लेता है वह भटकता नहीं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] पंडितजीके सम्बन्ध विद्वानोंकी टिप्पणियाँ ९७६ है। सहारनपुरका यह समारोह यही बताना है और यह प्रेमीके सम्मिलित सहयोगने जनहितैषी' को उस समयके मंगलसूचक है। हिन्दी मासिक साहित्यका प्रतिनिधिपत्र सिद्ध कर दिया था। जैनियोंकी इस नवजागति के निर्माणकार्यमें श्री पं. श्री मुख्तारजी और प्रेमीजीके प्रभावसे हिन्दीके जैन जैन जुगलकिशोरजी मुख्तारका भाग मुख्य है। उन्होंने वह दिग्गज विद्वान 'हितषी' में नियमितरूपसे लिखते थे। इस ठोस कार्य किया है जो इस कालकी सन्तनिके लिये ही तरह हितेषी' के कितने ही लगनशील पाठक भविष्यमें खद नहीं, बल्कि भागामी श्रानेवाली अनेक सन्तनियोके शन- लेखक, कवि और साहित्यकार बन गये। हितैषीके अनुकपथको प्रकाशित करता रहेगा। मैंने मुख्तार साइबके रण पर जैन साहित्य जगत में अब कई पत्र प्रकाशित दर्शन उनको पहचानने के बहुत दिनों बाद किए थे। मैंने हुये और होरहे हैं पर हितैषी कोई भी नहीं बन सका । उनको जैनहितैषी' में प्रकाशित लेखों और ग्रंथपरीक्षा' इभी तरह श्री मुख्तार जुगलकिशोरजी द्वारा प्रवर्तित भनेसदृश समालोचनात्मक निबन्धोंके सहारेसे पहचाना था। कान्' उनकी अपनी वस्तु है-उसमें उनकी सम्पादन उनके इस प्रकारके लेखोसे युवकोंमे श्रद्धा और विवेक प्रतिभाके निखरे हुये स्वरूपका दर्शन कर हम कृतकृत्य हो भावोकी हदताहई और यह समाजके लिये विशेष जाते हैं। जैन पत्रकारके रूपमें उनका व्यक्तित्व महान है महत्वकी बात है। उन्होंने जो कार्य किया था स्थायीहै और उनके सम्पादनके पत्रों में हम उनकी अमिट छाप पाते हैं। और जैन साहित्यमें अमर रहेगा। आधुनिक जैन साहित्यके निर्माताके रूपमें लोग उनके इतिहासकी शोध-खाजमें उनकी नीति एक वैज्ञानिक श्रादर्शको श्राज जितना समझे, उससे भी अधिक कुछ की नीति है परन्तु वह कभी २ श्रावश्यकतासे अधिक समका समझनेको भी आवश्यकता है। आजका साहित्य संसार कठोर और 'रिजर्व' (Reserve) से जंचते हैं। इतिहास उनके तपस्वी जीवनकी महान सेवाश्रोका भले ही मूल्याङ्कन वेत्ता किसी भी अनुश्रुनिको उस समय तक नहीं टुकराते न कर सके पर कलकी दुनिया उनकी जीवनयापी खोजों जब तक कि वह किसी अन्य पृष्ट प्रमाणसे बाधित न हो; और सेवानोंसे भारावनत होकर उनका उचित अभिनन्दन किन्तु मुख्नार साहब शायद सम्प्रदायगत पक्षपातके लांछन । - करनेके साथ २ जीवन ज्योतिको जाति के मार्गपर लगानेके से बचनेके भयसे, कभी २ दिगम्बगम्नायी अनुश्रुतियोंको लिये उनके ही ज्वलन्त श्रादर्शका अवलम्बन ग्रहण करेगी। स्वीकार करने में आनाकानी करते मिलते हैं। शायद मेरी शास्त्रीय विषयोंको अपनी निरन्तर खोजके वनपर जनयह धारणा गलत है, परन्तु इससे मुख्तार साहबकी साधारण के लिये सुलभ और बोधगम्य भाषामें उपस्थितकर विशाल समुदारता तो प्रगट हत्ती ही है। वे माम्प्रदायिकता उन्होंने जैन धर्म और जेन जानका महा उपकार किया है। से परे और धार्मिकनासे श्रोतप्रोत है। जनयोंक. वे गौरव उनकी श्रायुका प्रत्येक कण विचाम्पमनमें व्यतीत होनेसे हैं। उनके तत्वावधान में शीघ्र ही एक 'जैनमाहित्यसम्मेलन श्राजके जैनजगन में उनके प्राचार्यत्वको मानसे इन्कार सम्पन्न हो, यह मेरी कामना है। करना जैनस्वको लाँछिन करना है। जैन माहित्यका उद्धार करनेके साथ २ प्रकारान्तरसे उनकी कार्यश्री शक्तिने प्राचार्य श्री मुख्तारजी हिन्दी साहित्यको भी यथेष्ट बल पहुँचाया है। विद्याभूषण श्री मोहनशर्मा इटाश्सी जैन साहित्य जगत में वैसे आज बमों जैनपत्र-पत्रिकाओं अमरकृतियोंके सृष्टा की तूती बोल रही है पर एक वह समय भी था जब 'जैन- मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीका पुगतत्वप्रेम हमारे हितैषी' सहश सुसम्पादित पत्रके प्रकाशनने जेनसाहित्यक्षेत्र लिये गौरवकी बात रही है। गत बीस वर्षसे उन्होंने सत्माही नहीं, हिन्दी साहित्यक्षेत्र तकमें जागरूकता उत्पन्न करदी हिस्यकी सष्टि में व्यतीत किये हैं । जैन साहित्यक. सम्बन्धमें थी। पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार और बाबू नाथूरामजी आपने जो खोजें की है, उनका स्थायी महत्व है। जिन्हें Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . [बर्ष ६ 'अनेकान्त' या उनके साहित्यके पढ़ने का अवसर मिलता के पत्रोंमें उनकी नर्चा तथा रचना प्राय: देखता रहा । उन रहा है, उनकी यह बालोचनात्मक पद्धतिसे परिचित रहे हैं। की रचनात्रोंमें विद्वत्ताकी जो छाप है उससे मैं बहुत कुछ श्रीमुक्तारजी उचकोटिके विद्वान है-पटुकवि, सुन्दसमा- परिचित हूँ। मैं परमात्मासे यही प्रार्थना करता हूँ कि वे लोचक, और प्रवीण सम्पादक । वीरसेवामन्दिरकी स्थापना शतायु होकर जैन-साहित्यकी पूर्ववत् लाध्य सेवा करते हुए के लिये उन्होंने जो त्याग किया , और उसकी जो अार्थिक हिन्दीका गौरव एवं वैभव बढ़ाते रहें। अर्चना की है, वह हमारे लिये एक ज्वलंत उदाहरण है, जैन साहित्य संबंधी अप्रकाशित अप्राप्य ग्रन्थोकी सूची भविष्यके निर्माता तैयार करके भारतीय साहित्यको उन्होंने ऋणी बना दिया है। भारतीय संस्कृति पर जैन संस्कारोंकी गहरी छाप है, श्री बृहस्पतिजी, पूर्व आचार्य गुरुकुल वृन्दावन और भारतीय इतिहासका अनुशीलन जैन साहित्यकी उपेक्षा भारतीय पुरातत्त्वके धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नहीं कर सकता। और इस समयका जैन साहित्य मुख्तार इतिहासमें जैनधर्मका एक महत्वपूर्ण स्थान है और विश्व साहबकी सेवायोका सदा आभारी रहेगा । उनकी कृतियां की संस्कृतिके इतिहास एवं भविष्य निर्माण में भारत अपना तो निस्सन्देह अमर है ही। एक विशेष स्थान रखता रहा है और आशा है कि भविष्य में भी रखने वाला है। अतः जैन साहित्य सम्बन्धी जितनी युग-संस्थापक भी शोध-खोज हो वह थोड़ी है। ऐसे बीहड़, और कभी २ प्रो० हीरालाल जैन, एम०ए० एलएम०पी० फलाशा रहित सिद्ध होने वाले शोधारण्यमें अपना सर्वस्व खपादेने वाले विद्वद्रल श्री मुख्तार महोदयके लिये कृपया मुख्नारजी इस युगके उन थोड़ेसे महारथियों में से हैं मेरी श्रद्धाञ्जलि स्वीकार कीजिये, शन्द-ब्रह्मके अधिष्ठाता जिन्होंने महान् परिश्रम और विद्वत्तापूर्वक जैनसाहित्यकी परमकारुणिक भगवान ऐसे सरस्वती-समाधकोंको दीर्घजीवी खोज, उसके इतिहास और विवेकपूर्वक संशोधनका वर्तमान और सफल करें। युग स्थापित किया है। ऐसे कार्य में पथप्रदर्शकके लिये बो कष्ट होते हैं वे भी मुख्तारजीने खूब सहे हैं। उनकी आदर्श पुरुष भी इस कार्य में ऐसी पक्की रहीहै कि जबसे उन्होने इस श्री अजितकुमार जैन, शास्त्री ओर ध्यान दिया तबसे वे उत्तरोत्तर उस दिशामें बढ़ते ही श्रीमान् पं. गुगलकिशोरजी श्री १००८ भगवान महागये। पहले जैनहितैषीका और अब अनेकान्तका सम्पादन वीरके दिव्य शासनकी एक गणनीय विभूति है। वर्तमान कर वे जनसाहित्यकी अनुपम सेवा कर रहे हैं । यह स्वयं युगके एक दृढ अध्यवसायी, अनुपम साहित्य-सेवी है। उन जैनममाजके सौभाग्यकी बात है कि उसने अपने सुयोग्य का पुरातत्व-अन्वेषण अद्वितीय। अनेक पुरातन ऋषियों साहिस्थिकोंका सम्मान करना प्रारंभ कर दिया है । इस के समय निर्धारणमें जो उन्होंने सफल परिश्रम किया है प्रतिसे मुके जैन समाजका भविष्य उज्ज्वल दीखता है। वा अमूल्य है। स्वामी समन्तभद्रके तो वेभसाधारण भक्त प्रतीत होते पुराने साहित्यिक है संभव है इसी कारण उन्होंने वीरशामनके चमकीले रत्न श्री शिवपूजन सहायजी श्री समन्तभद्राचार्यके विषय में जो अन्वेषण किया है वह मैं भीमान् परमादरम्पीय मुख्तार साहबको बहुत दिनोंसे असाधारण तथा अटल है। अनेक विद्वानोंने उनके निर्धारित जानता हूँ पर कभी उनके दर्शनका मौभाग्य पान न हुआ। समयको हिलानेका घोर यत्न किया किन्तु वह आज तक मेरे स्वर्गीय मित्रपारा निवासी कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन उनको जहाँका तहाँ श्रचल रहा। पण्डित्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। यह यान आज श्रीमान् पं. जुगलकिशोरजी जब तक किसी भी विषय से पचीस-तीस गल पहलेकी है। उसके बाद भी जैनसमाज का सूक्ष्म तौरसे चतुर्मुखी अध्ययन नहीं कर लेते तब तक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] पंडितजीके सन्दम्बमें विद्वानोंकी टिप्पणियाँ १८१ उसको प्रकाशमें नहीं लाते इसी कारण उनकी कृनि मार्मिक अग्ने ज्ञानयज्ञको इनमा प्रदीम किया कि उसकी लपटोंसे होनी है। बड़े बड़े पग्गड़बंध पण्डित मुलसने लगे; और इसी पकरा'अनेकान्त' पत्र उनके अनथक परिश्रमका चिन्ह है। वे इटमें उनने इम तपस्वीको गालियाँ देनी शुरू की, इसे भला यद्यपि वयोवृद्ध हैं किन्तु उनकी । परता युवकवृन्दको बुग कहा, बहिष्कृत ठहराया और इसकी बुराई में जितना लजित करती है। उनके बाल (शारीरिक) स्वास्थ्यके विषय जो बन सकता था वह सब कुछ किया । लेकिन धन्य है में तो मैं कुछ कह नहीं सकता क्योंकि मैं उनके समीप उस साधकको. कि जिसने किमी भी परिस्थितिमें अपनी केवल एक बार २० घंटे रहा हूँ परन्तु यह मेरा निश्चित मत साधनाको नहीं छोड़ा । जब 'जिन बच में शंका न धार' है कि उनका आध्यात्मिक स्वास्थ्य इस अनवरत साहित्य की प्रोटमें भद्रबाहु, कुन्दकुन्द, उमास्वामी और जिनसेन सेवासे ही स्वस्थ रहता है। विना नवीन अनुसन्धान और प्राचार्य के नामपर निर्मित जाली ग्रंथोंको जिनवाणी काकर उपयोगी लेख लिखे कदापि उन्हें चैन नहीं पाती, उनकी __ चलाया जारहा था, और इनमें वर्णित जैन सिद्धान्तविरोधी पाचन क्रिया ठीक नहीं रहती। बातोंके विरुद्ध (सब कुछ जानते हुए भी) एक शब्द भी श्रीमान पं. जुगल किशोरजी मुख्तार इतने अधिक उच्चारित करनेका किसीका साहस नहीं था, तब इस अध्यवसायी होने पर भी निरांभमानी एवं सरलचित्त है किन्तु परीक्षाप्रधानी, निडर साहित्यसाधुने अपनी लोइलेस्थनी उठाई साथ ही स्पष्ट वक्ता है। उनका आहार विहार सात्विक, शुद्ध और धर्मग्रंथोंके नामपर अपनी अद्भुत समीक्षाओं द्वाग है। बाहरी दिखावेसे उन्हें घृणा है। समाजको आश्चर्य में डाल दिया। मुझे यद्यपि उनकी कतिपय सैद्धान्तिक मान्यताओं यदि मुख्तार सा• ने यह साहस न किया होता और (भुज्यमान गोत्रकर्म परिवर्तनीय है श्रादि) से सहमति नहीं उनकी ग्रंथपरीक्षाएँ प्रगट नहीं हुई होनी तो आज इस युग है किन्तु उनकी अमूल्य नि:स्पृह सेवाओंसे मैं प्रभावित हूँ में भी कोई यह साहस न कर पाता, और हम सब श्राज उनकी एक एक सेवा अपने लिये श्राप ही उदाहरण है। भी 'गोबरपंथी' साहित्यको जिनवाणी मानकर पूजते रहते । इस रूपसे उनका त्याग और तप प्रत्येक विद्वान और मैंने जो चर्चासागर, दानविचार और सुधर्मभावकाचार गृहस्थ के लिये अादर्श है। की समीक्षायें लिखी है, उनके लिए मुझे मुख्य प्रेरणा श्री मुख्तार साहबकी प्रन्यपरीक्षा श्रोसे ही मिली है। यदि - साहित्यतपस्वीको वंदन मुख्तार सा.बने ग्रन्थपरीक्षाका मार्ग इतना सरल, निष्कण्टक श्री परमेष्ठीदाम जैन, न्यायतीथे, सूरत और निर्भय न बना दिया हंता मो में उक्त समीक्षायें परमादरणीय मुख्तार माहब बीसवीं सदीक अग्रगण्य इनिज नहीं लिख पाता और मैं तथा मेरे जैसे ही अन्य साहित्यतास्त्रियों में से हैं । तपस्वी तो कभी कभी उपमर्ग और हजागे युवक श्राज़ भी अंधश्रद्धाके घोर अंधकारमें पड़े रहते। परीषहोंकी मारसे अवगकर चलित और मार्गभ्रष्ट भी होगये मुख्तार साहब शानसाधनाके महान् तपस्वी है। उनका हैं किन्तु माहित्यके तपस्वीने विरोधियों, अंधभक्तों या कहर. मुझ पर तथा मुझ जैसे का-सैकड़ों-हजारों श्रादमियों पर पंथियों के बहिष्कार, गालिप्रदान अथवा उपसगौकी कमी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें बहुन पेश है। उनके इस सम्मान कोई परबार नहीं की, और अपनी साधनामें सतत लगा ममव पर मैं भी उन्हें एक साहित्य तपस्याके रूपमें बंदन रहा। करता हूँ। आजसे ३६ वर्ष पूर्व जब मेग जन्म भी नहीं हुआ था, तब यह साहित्यतपस्वी तपाराधनासे समाज के दिलको दहला रहा था। वह ऐसे प्रशानान्धकारका समय था जब पालो- श्री जमनारास व्यास बी०ए०, साहित्यरत्न चना या सभीक्षाकी एक ही किरण समाजकी आँखों को श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार एक महान तपस्वी है। चकचंधिया देती थी। किन्तु उस वक्त इस 'युगवीर' ने श्रापका तप संसार परितापकोहग्या करने वाला है। आपके Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त [ वर्ष ६ तपसे जो तापहारी किरणें त्रिकीर्ण होती है वे पाठकांके साहित्य-देवता हृदय मन्दिरमें प्रवेश कर उनकी समस्त कालिमाको क्षगामें श्रा माणिक्यचंद्र जैन, बी० ए० दूर कर उनके हवयोंको पूर्ण ज्योर्तिमय करती है। वयोवृद्ध तपस्वी पं. जुगलकिशोरजो मुख्तार जैनदर्शन भी जुगलकिशोरजी मुख्तार जैनममाजके जाज्वल्यमान और साहि.यके अनन्यसेवी है। आपने जै-धर्म और साहरस्त। वे महावीरके सेवक, अहिंसाके उपासक, मेरी त्यकी अपवं सेवा करके साहित्य जयनमें अपनी सत्रतामुखी प्रतिमाका पूर्ण परिचय दिया है । आपने बोन और श्रनुदर्शनके प्रगाढ़ विद्वान है। जो स्थान हिन्दी साहित्य में श्री सन्धान द्वाग नसाहित्यके अमूल्य मोनियंको ढूंढ निकाला गौरीशंकर हीराचंदजी श्राझाकाहे वही स्थान जैन साहित्य है। मख्तार माहब हिम्मत के धनी, दिलके मर्द, सत्यके में श्री जगलकिशोरजी मुखनारका है।शज हमारा सौभाग्य पजारी. न्यायके पोषक, यथार्थके प्रसारक सच्चे साहित्यिक है कि श्री मुरूनारजी हमारे बीच में है, हमारे साथ है और फकीर हैं। श्राप साहित्यलष्टा, मौलिक लेखक और कलाहमारे सामने हैं। कार हैं। आपकी कलममें जादू भरा हुश्रा है। खोज, शोष श्री जुगलकिशोजी मुख्तार एक मौन तपस्वीहै। और सम्पादन आपके जीवनका लक्ष्य है। वास्तविक जैन उनकी तपस्या में कई ताराछायी रातें श्रोझल हो जाती है संस्कृति और सभ्यताका प्रसार करना श्रापका ध्येय है। कई दिन, माह तथा वर्षकालके कगल गाल में समा जाते श्राप निष्पक्ष समालोचक, गम्भीर विचारक, सहृदय कवि है किन्तु उनका 'वीरके समान 'वीरवन' वीत-राग विरागता एवम् दार्शनिक विद्वान् है। आज भी कायम है। संसारमें आँधियां पाती है, भूचाल आपकी विचारधारा स्वतन्त्र है। श्रार वास्तविक एवम् होते हैं और प्रलयका नांडव नृत्य भी होता है किन्तु तरुणं वैज्ञानिक प्रमाणोंको ही सत्य मानते हैं। रूढीग्रस्त वातावतपस्वीस अचल श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार अटल आसन रणसे श्रापको घुणा है। आपका दृष्टिकोण विशाल और पर श्राज मी विराजमान हैं। उन्हें संसारके प्रलोभन वशी- उदार है। आपकी प्रात्मा उन्नत, उज्वल और निर्मल है। मत नहीं कर सकते क्योंकि उनकी अंतरात्मा परमात्मा ममाजके पति आपके हदयमें करुणाकी मन्दाकिनी सब महावीरसे समरस है। तरंगित रहती है। श्राप मामाजिक जीवनमे अन्धश्रद्धा, श्री मुख्तारजीकी तपस्यामें जैनदर्शनका सूक्ष्मातिसूक्ष्म श्राडम्बर और रूढ़ियाँको सदाके लिये दूर हटा देना विश्लेषण मिलता है। श्री मुख्तारजी जैनदर्शनके पूर्ण भक्त चाहते हैं। हैं। वे प्रथम दार्शीनक, नपस्वी है बादमें कवि, लेखक, मुख्नार साहब जैन समाजके ही नहीं, अपितु भारत के अन्यकार और समाज-सेवक । देदीप्यमान रत्न है। आपकी सेवा और त्याग, शान और विवेक, धुन और लगन, कर्तव्य और सत्यता वास्तवमें भी मुख्नारजीमें वैज्ञानिकका तय है। उनकी तपस्या प्रशंसनीय है। से प्राध्यात्मिक विज्ञानके तपोबलकी मूर्तिका परिचय मिलता इनका इनिहास काव्य, दर्शन और साहित्यक्षेत्र में है। यदि नोवल पुस्कार विजेता रमण' भारनके लिये अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। दूसरोंके निर्दिष्ट पथपर चलना गौरव है तो श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार भी भारतीयोंके लिए उन्हें नहीं भाता, उन्होंने अपनी सृजनात्मक कल्पनाद्वारा भूषणावह है। संक्षेपमें हम यही कहेंगे कि भी जुगल ही नवीन पथ निर्माण किया है और घोर विरोधमें भी श्राप किशोरजी मुख्तारकी तपस्या 'वीर' की तपस्यासे प्रभावित सत्यके मार्ग पर अडिग रहे हैं। ईश्वर करे कई 'नो तक पं. मुख्तारजी तपस्या वह समय अब अनिनिकट मारहा है। जब मुख्नार करते हैं। - साहबके कार्योका वास्तविक मूल्य प्राँका जायगा। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] पंडितजीके सम्बन्धमें विद्वानोंकी टिप्पणियाँ १८३ एक झाँकी प्रत्येक प्रकारके काम आप पूर्ण नत्रतासे करते हैं। नौकर श्री पं० रविचन्द्र जैन 'शशि' बिजनौर के अभाबमें भोजन वगैरह भी स्वयं बना लेते हैं फिर भी उनके मानमिक कार्यों में किसी तरहकी कमी नहीं होने पाती। प्रसिद्ध पुगतत्वश पं. जुगलकिशोर मुख्तारकी गगाना ऐसे व्यक्तियों में हैं जिनपर जैनसमाज ही नहीं, कोई भी श्रापकी उज्वल रचनाओंके समान प्रापका स्वास्य भी श्राकर्षक है और यह सब आपके संयम तथा नियमित जीवित जाति गर्व कर सकती है। श्राप जैनसमाजके सुवि श्राहार विहारका ही परिणाम है। श्रापकी निर्भीक समाख्यात् कवि है । श्रापकी कवितामें हृदयकी श्रावाज है। लोचना विद्वानोंके लिए मम्मानकी वस्तु है । आप प्रत्येक कर्तव्यकी पुकार हैं। समाजका चित्रण है और कर्मण्यताका विषयको प्रबन्न तथा अकाट्य प्रमाणसे इस तरह सिड श्राहान हैं। करते हैं कि विरोधियोंकी कलम रुक जाती है। श्राप यश, लालमा तथा सम्मानकी श्राकाँक्षासे कोगों श्रार शतजीवी हो, यही प्रार्थना है। दूर है। आपको लगन तथा उद्योगशीलताका परिचय एक वाक्यमें दिया जा सकता है'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" प्रातः ५ बजे कठोर साधक से रातके १२ बजे तक गहरे अध्ययन तथा अन्वेषण में श्री लालबहादुरजीशाखी, मथुरा लगे रहते हैं। पं. जुगलकिशोरजीका सम्मान सचमुच उस महान शारीरिक अस्वस्थतामें भी श्रापके दिल में एक टीस कलाकार, महान साधक और नीब तपस्वीका सम्मान है, उठती रहती है। विश्रामके समय भी आपका मन किसी जिसके आगे सम्मानकी बड़ी से बड़ी भेंट भी तुच्छ है। खोजमें व्यस्त रहता है। शक्ति से अधिक काम करनेकी अपना सब कुछ देकर भी जिसने कुछ नहीं चाहा उसका आपकी प्रकृति हे। त्याग निरखनेकी नहीं समझनेकी चीज है । लोग कहते हैं आपकी प्रास्मा जैनत्वमें रंग गई है । जैनदर्शनके कि वे ऐतिहासिक विद्वान हैं परन्तु यह किसे मालूम है कि अद्वितीय प्रकाशको निखिल विश्वमें बिखगनेके लिए श्राप उनका इतिहास सन संवतांके खोजने तक ही सीमित नहीं अातुर हैं। जैन संस्कृतिको उत्थान देने के लिए व्यग्र है। है इतिहासको समाज सेवाका अङ्ग बनाकर समाजसंरक्षकके आपके जीवनके पिछले २६ वर्ष जैनम्ाहित्यकी महत्वपूर्ण रूपमें उन्होंने जो अपनी कठोर साधनाका परिचय दिया है खोजोका इनिहास है। उसे जैनसमाज युगों तक न भूलेगा। सचमुच पं. जुगलआपकी भावनाएँ जितनी उच्च है, श्रापका जीवन किशोर जीकी ऐतिहासिक सेवाएँ स्वयं ही एक इतिहास बन उतना ही सादा है। वासना विलासितासे श्रापको घृणा है। गई है। उनकी खोज बुद्धि, विषयोंका संतुलन, भाषाका अभिमानकी हवा श्रापको स्पर्श भी नहीं कर पाई है। छोटेसे प्रवाह, वस्तुस्थितिकी जाँच उन्हें उनके बाहिरी व्यक्तित्वमे छोटे व्यक्तिपर आपका आत्मीयताका भाव है। श्राप जिनने बहन ऊँचा ले जाती है। हिन्दीको गर्व यदि प्राचार्य बडे विद्वत्ता में हैं उतने दी बड़े नम्रतामें है । सहनशीलता दिवेदीजी पर रे,बंगलाको गर्व यदि टेगौर पर तो कोई भी आपमें यथेष्ट है। कारण नहीं आधुनिक जैनसाहित्य और जैनसंस्कृतिको श्राप स्वावलम्बी है। कभी किसीका सहारा नहीं देखते जुगलकिशोरजी पर गर्व न हो! वे लेखक हैं, समाजसेवक मैंने स्वयं देखा है कि आश्रममें कई विद्वानोंके रहते हुए है, इतिहासमर्मश हैं और इन सबसे ऊपर है उनका त्याग भी घंटो अनेकान्तके सम्पादनमें लगे रहते है। प्रत्येक जो साहित्यसेवकोंमें कम ही पाया जाता है। इतिहासके मैटरको तब तक कई बार संशोधित करते हैं, जब तक नामपर दी हुई उनकी अमूल्य भेंट समाजके धुरंधरसे धुरंप्रापको पूर्ण वात्मसंतोष नहीं हो जाना । काम करने में घर विद्वानके लिये भी सोचने और समझने की चीज है। आप कभी नहीं थकते । क्या शारीरिक क्या मानसिक, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनजागरणके अग्रदूत श्री बा० सूरजभानजी का पत्र इलाहाबाद, पढ़ते थे। मामूली जैनी ही नहीं किन्तु करीब २ सब १७. १२४३ ही बड़े २ जैन महान विद्वान् और इंडित, इन ही श्रीमान् परोपकारी कौशलप्रसादजी! भट्टारकोंका पक्ष लेते थे और उनके वचनोंको प्रमाण पापत्र मिला,मैं तो सदासे ही बायू जुगलकिशोर में पेश करके जैनधर्मचला जैनधमंचलाकी दुहाई देते मुख्तारका स्तुतिपाठ करने वाला और गुणगान करने वाला रहा हूँ इस बातको दुनिया जानती है । ऐसी थे । यह बा० जुगलकिशोर ही हैं जिन्होंने अपनी दशामें मैंने उनके कीर्तिगानकी बाबत इस समारोहमें अथक कोशिश, परिश्रम और भारी खोजके द्वारा, कुछ लिम्ब भेजना फिजूल सा ही समझा था, हाँ यहाँ अपने महान पाण्डित्यबलसे बिल्कुल ही अकाट्यरूपसे अपने घर इस बातकी खुशी जरूर मनाई थी कि यहाँतक सिद्ध कर दिखाया कि भट्टारकांने अपने बनाये सहारनपुरकै जैनियोंकी भी आँखें खुली और अपने ग्रंथों में दूसरेधर्मोके अमान्यसिद्धान्तों,मान्यताओं और मच्चे धर्मोपकारीका सम्मान करनेकी सूझी, यहाँ तो धर्मचर्याओंको जैनसिद्धान्त बताकर नधर्मको महा यह खबर सुनते ही मेरे लड़के सुखबन्तरायने बड़े मिथ्यात्व बनाने में कुछ भी कसर नहीं छोड़ी है। यहां जोशके साथ यह कहा था कि बाबू जुगलकिशोर तक कि अपने बनाये अनेक ग्रंथोंको बड़े २ महान जैसी कुर्वानी ( sacrifice ) कौन कर सकता है, . प्राचार्यों के बनाये लिखकर जैनजातिकी आँखों में जो उन्होंने जैनधर्मके उद्धारके वास्ते की है और धूल डालकर उसको बिल्कुल ही अंधा और महाऐसी वशामें की है जब कि जैनजाति उनका सम्मान मिथ्यात्व बना दिया है और यहाँ तक धोखा दिया है करने और आभार माननेके बदले उलटा उनका कि उन जाली ग्रंथों में हिन्दूधर्म-पुस्तकों के श्लोक लिख विरोध करती थी, परन्तु वा० जुगलकिशोर मानके कर उनको दिगम्बर जैनधर्मके महान आचार्योके भूखे नहीं है और न निन्दासे घबराते हैं, ज्यों ज्यों ग्रंथों के श्लोक लिख दिया । ऐसी भारी खोज करके उनका विरोध होता था त्यों त्यों वह समझते थे कि बा० जुगलकिशोरने जैनजातिकी आंखें खोलनेका जो जैन जाति इस समय महा अन्धकारमें फँसी हुई है, काम किया है वैसा कौन कर सकता है? मेरा तो रोओं इस कारण उसके उद्धारकी ज्यादा २ कोशिश करनेकी २ उनका श्राभारी है। मुझे तो खुशी इस बात की है जरूरत है। दिगम्बर जैन कहलाने वाले जैनी, बना- कि उनका यह महान उपकार और परिश्रम फलता भूषणसे सुसरित, हाथी घोड़े, नौकर चाकर मादि दिखाई दे रहा है। मालूम होता है कि उनके उपकार महा भारम्बर और परिणहमें फंसे हुवे भट्टारक नग्न से अब जैन पण्डितों और जैनजातिकी आंखें खुलने दिगम्बर मुनि और भाचार्य माने जाते थे और जा लगी हैं और उनको अपने सकचे परोपकारीकी पह अपनेको १३ पंथी कहते थे वे भी इन ही पाखण्डी चान होने लगी है, तब ही तो सहारनपुरमें उनके 'भट्टारकोंके बनाये ग्रंथोंको सर्वज्ञवाक्य मानते और सम्मानमें यह सभा हुई है। -सूरजभान Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्पराके महान् सेवक (ले०-श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी, मथुरा) हजरत मोहम्मदके बाद इस्लामकी परम्परा एक रूपमें नहीं रही, किन्तु भागे चलकर इसने तीर्थों और इतिहास मरहमकी और भागे चल कर उनके उत्तराधिकारी के लिए पर भी अपना प्रभाव जमानेकी पूरी चेष्टा की इसी ही उनके अनुयायी शिया और सुर्म के मेवमें बंट गये, यही का परिणाम है जो तीर्थों को लेकर जैनपरम्पराकी दोनों ही बात महारमा साके सम्बन्धमें है। इनके बाद भी इनके शाखाओं में पिछले वर्षों में भारी मुकदमबाजी हुई और अनुयायोंमें एक समता न रह सको थी और यह भी कई जोपाज भी शान्त नहीं इतिहास पर प्रभावसे मेरा मागोमें विभाजित हो गये थे। भागे चलकर इन ही भागोंके तात्पर्य प्रत्येक परम्पराका यह प्रमाणित करनेका प्रभास है प्राधारसे ईसाई सम्प्रदायके केथोक्षिक और प्रोटेस्टेन्टके कि वही भगवान महावीरकी उत्तराधिकारी और इसकी रूपमें वर्गीकरण हुए। बौद्ध धर्म भी इस त्रुटिसे खानी शाला नवीन कल्पना है अर्थात वह प्राचीन है दूसरी नहीं है, और महात्मा बुद्धके बाद उसकी परम्परामें भी नवीन है। हीममान और महायान भादि भेद हुए है। शंकराचार्यका भागे चल कर इस सिटीकरण भाचार स्वरूप अद्वैत भी उनके बाद एक रूपमें नहीं टिक सका है. और भाचार्य कुन्दकुम्व, स्वामी समन्तमय और तरवार्थसूत्रके शंकराचार्यके खास शिष्योंके द्वारा ही उसमें भी विशिष्टाद्वैत रचयिता उमास्वामी मादिको बनाया गया है। ताम्बर और शुद्धाद्वैतका भेव बाल दिया गया है। अधिक क्या कहें परम्पराका कहना रहा है कि उनकी परम्पराके शास्त्र ही पिछली एक सदीके मार्यसमाज में भी स्वामी दयानन्दजीके द्वादशांग हैं या उनमें द्वावशागका अंश सुरक्षित है, उनके बाद गुरुकुल पार्टी और कालेजपार्टीका भेद हुमा है। इससे रचयिता स्वयं श्रतकेवली तक है अत: उनकी परम्परा ही स्पष्ट है प्रायः संसारकी सभी परम्परायें अपने २ प्रभाव- प्रामाणिक एवं प्राचीन परम्परा है। विगम्बर परम्परामे इस शाली व्यक्तियोंके पश्चात एक रूप नही रह सकी है और को स्वीकार नहीं किया है और इसकी मान्यता है कि श्वेताउनमें विभाजन या शास्याभेद हुए हैं। म्बर परम्पराक शास्त्रोके नाम तो जम द्वादशांग अंगों हमारी जैनपरम्परा भी इससे खाली नहीं है। अन्तिम नाम पर है किन्तु यह बहुत बादकी रमा हैजनमें ऐसी श्रतवक्षा प्राचार्य भद्रबाहुके बाद यह भी एक रूपमें पटनायें, और गुरुपरम्पराओंका उपख है जिनमें इनको नहीं रह सकी है और इसमें भी परस्परमें मेव दुधा वीमत का सौ वर्ष बावकी ही रचना माना जा सकता और मागे चलकर यहीवेताम्बर और दिगम्बरके रूपमें है।ताम्बर परम्पराके पूर्वजोंने सिर्फ अपने सम्प्रदायकी परिणत होगया है। पहले यह भेद सिर्फ साधुस्वरूप तक ही प्राचीनता सिर करमेको ही इन नवीन रचनाओंका संज्ञारहा है किन्तु मागे चलकर इसमें और भी बढोतरी दुई कर प्राचीन अंगोके नाम पर किया हमसे का सौ वर्ष है और साधुरूपकी तरह इसने देवस्वरूप और मर्तिरूपको __ पहिले दिगम्बराचार्य प्राचार्य जम्बम्ब, प्राचार्य उमास्वामी मी प्रमाषित किया है। मेवके इसी बादके परिणामसे और स्वामी समन्वभव बगैरह अमेको शास्त्रोंकी रचना शाचोंमें देवस्वरूपको लेकर परिवर्धन किये गये और रहे। मूर्तियों को भी उसीके अनुसार उसी रूपमें ढाबनेकी विगम्बर परम्पराकी सी बातको निराधार प्रमाचेष्टा की गई है। मूर्तियाँका यह नवीन संस्करण अन्तिम सित करने के लिए बेताम्बर परम्परा विद्वानोका कहना है भुतबनी णार्य मद्रबाहुके करीब एक हजार वर्ष किसाचार्य उमास्वामी तटस्थ थे। ये विगम्बर और पीछे ही हुमा है। जैन परम्पराकी यह विभिचता यहीं तक श्वेताम्बर परम्पराके मेवोंसे सम्बन्धित नहीं थे, दूसरे Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनेकान्त [वर्ष ६ भाचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्र साकी छटी दिगम्बर परम्पराका महान सेवक भी मानता है। मेरी शताब्दीसे पावके, अत: इस भाचारसे विगम्बर-साहित्य हार्दिक भावना है कि वे दीर्घजीवी होकर इससे भी अधिक को वाम्बर-साहित्यसे प्राचीन नहीं माना जा सकता। रूपमें अपने ध्येयका प्रचार करें और उनकी समन्तभद्र दिगम्बर विद्वानोंने श्वेताम्बर विद्वानोंकी तीनों ही भक्तिके प्रभावसे उनको वैसी ही सफलता प्राप्त हो। प्राचार्योंके सम्बन्धमें इस धारणाको निमूल कर दिया है यह चर्चा एक ऐतिहामिक चर्चा है और इसको सिलऔर अपने कथानका प्रबल प्रमाणों द्वारा समर्थन किया सिलेसे लिखने के लिए सैंकों पेज चाहिये इसको में कभी ोिगोंने यह कार्य किया है उनको मैं दिगम्बर दसरे ही समय लिखना चाहता है, किन्तु अभी मुझे मेरे परम्पराका परम सेवक स्वीकार करता हूं।इन विद्वानोंसे मित्र प्रभाकरजीका पत्र मिला कि इसको अभी लिखो मेरा जिन्होंने इस कार्यके लिए अथक प्रयत्न किया है तथा कर व्यक्तिगत अनुरोध है। लाचार हो गया और संक्षेपसे बतौर रहे हैं। श्री मुख्तार साहबका स्थान महत्वपूर्ण है। इस नोटके इसको लिख दिया है: प्राशा है भनेकान्तके पाठक प्रकार जहाँ मैं मुख्तार साहबको ऐतिहासिक, साहित्यिक, इन पंक्तियोंसे मुख्तार साहबके इस दिशाके व्यक्तित्वको मालोचक और दार्शनिकके रूपमें पाता हूं. वहीं मैं उनको मांक सकेंगे। अद्धाचे की है, इसे हम दो मिनट विचारें, तो अखिल जैनसमाजमें श्री बा. छोटेलालजी जैन कलकत्ता हमें एक भी ऐसा महात्मा न मिलेगा। मैं तो उन्हें निस्पृह ज्ञान-तापस पंडित जुगलकिशोरजीने जिला सहारनपुर तपस्थी समझता है। में जन्म अवश्य बिया। पर मुख्तार साहब अखिल मैंऋषितुल्य शान्त अत्यन्त सरल उनके व्यक्तित्वके प्रति जैन समाजकी विभूति है। जैनों में जो पोपडम प्रचलित हो इस शुभ अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन ही नहीं किन्तु चुका था उससे लोगोंको सावधान कर उनके श्रद्धानमें बलि. प्रान्तरिक श्रद्धार्ष अर्पण करता हूँ। उता मापने ही उत्पत की। ऐतिहासिक साहित्य जगत भापका अशी। भापके अनुसंधानमें मौलिकता है। हमारे गर्व साहित्यमें मापने एक नूतन युग ला दिया है। जैनसमाजमें इतिहासके प्रति अभिरुचिमापनेही उत्पन की है। जैन श्री दुलारेलाल भार्गव, लखनऊ साहित्य मनमोल रलोकी परख मापने कीमले पं. जुगलकिशोरजीका साहित्यिक मध्यवसाय महत्व- ' साहेबने कहा कि "मनुष्य शेक्सपियर, मनुष्य शेती पूर्ण है और जीवन प्रादर्श । इत्यादि माल्या भ्रमात्मक है क्योंकि मनुष्य जो हमारे देशमें ऐसे साहित्य-सेवक हैं, यह गर्वकी बात है। लिखता है, उसकी व्यक्तिसत्ता उससे अलग हो नहीं सकती" रचनाके मध्य में ही युगवीरजीवा सम्पूर्ण परिचय मिताजाता है। युगवीरजीकी प्रतिभाकी मालोचना मेरा अभिनन्दन भन्यों हस्तिदर्शनकी तरह असम्पूर्ण है। जैन समाज पाप प्रो० श्री धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री, तर्कशिरोमणि, एम० ए० का कृतज्ञहै और सदा ऋणीहै-मातृ अणकी तरह जो व्यक्ति स्थायी साहित्य-रचनाके द्वारा समयकी पहभपरिशोध। जिस महामाने सारा जीवन और सैकतस्थली पर अपने चरण-चिन्ह छोर जाते है, उनमेंसे सारी सम्पत्ति ही नहीं किन्तु जीवनकी साधारण भाव. मन्यतम श्री जुगलकिशोरजीका मैं उनकी ६० वीं वर्ष गांठ श्वकताओं सककी अवहेलना करते हुए जैन साहित्यकी सेवा केशुभ अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधा र धारा श्री पुरुषोत्तम मुरारका 'साहित्यरत्न' तथा श्री जमनालाल जैन 'विशारद' स्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं के विशाल जैन हमारे सन्मुम्ब इस भव्य प्रादर्शको रख सकते हैं कि साहित्यको जो अभी तक अमा के अंधकारमें, धर्म और माहित्यकी सेवाका पथ स्वार्थ के संकुचित सहस्राब्द तथा शताब्दियोंस, पवेस्नानका आनन्दोप- पथपरसे होकर नहीं जाता, वह तो निगभिमान, भोग कर रहा था प्रकाशमें लानेका श्रेय जिन अंगु- सात्विक त्याग राजमार्गपरसहोकर ही निकलता है। लिकापर गिनने योग्य विद्वानो तथा महारथियोंको है __ भारतीय साहित्यके लिए जितना परिश्रम सर उनमें श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका स्थान रामकृष्ण भांगरकर, श्री सर देसाई, डा० काशीप्रसाद अत्यन्त ऊँचा है। उनके जीवनक बहुमूल्य ३६ वर्ष जायमवाल, सर गधाकृष्णन तथा श्री दितिमोहनजी निस्वार्थभावसं साधना और तपस्या कर धर्म और सेन शास्त्री आदि महारथियोंन किया है अथवा कर संस्कृतिकी ज्योतिको, उसके वास्तविक स्वरूपको, उस रहे हैं, उसी कोटिमें मुख्तारजीका परिश्रम स्तुत्य है। की छिपी हुई आभाको, उसके सात्विक सौंदर्यको जो मुख्तारजीका विचार सदेव जैनसाहित्यके अनुसंधान समयके दूषित प्रभावसे विलीन होने जा रहा था, तथा गवेषणा द्वारा, उसके प्रकाशन द्वारा गौरवमयी जीवनरहित हो अचेतन होनेकी ओर आकृष्ट हो रहा प्राचीन भारतीयसंस्कृति, जो परवशताके पाशके था, अपनी स्वार्थशून्य सेवापरायण प्रवृत्ति द्वारा सजी कारण आज विस्मृतिकी वस्तु बन गई थी, प्रकाशमें वता प्रदान करने में लगे। ला उसकी महानताका दर्शन करा हमें सजग करनेका अनेकान्तका प्रकाशन तथा उसका पक्षपातशून्य रहा है। मुख्तारजीने गवेषणा तथा अनुसंधानको ही संपादन मुख्तारजीकी स्वार्शरहित सेवाका एक सुन्दर अपना प्रधान कार्य क्यों चुना १वे पुरातत्वकी खोज अंग है। हमारे समाज और साहित्यमें पत्रों तथा की ओर ही क्यों इतने अधिक आकृष्ट हुए ? इसका सम्पादकोंकी कोई कमी नहीं, किन्तु उनमें कितने ऐसे कारण है उनका सुदक्ष विचार तथा देशभक्त हृदय। है जिन्होंने सदैव अपनी आत्माकी पुकार सुनी, अपने उन्होंने जान लिया था कि भारतका अतीत महान था, सिद्धान्तोंकी प्रतिमा ही सदैव अपने अंतःकरणमें वह आज भी महान है तथा उसका भविष्य भी देखी, उसके सम्मुख भेदभाव तथा पक्षपातका समस्त अत्यन्त महान तथा उज्ज्वल है। सुवर्णप्रासाद खंडहरोंमें परिणत कर दिया ! हमारे संपादकोंमें कितने ऐसे हैं जिन्हें श्री जुगलकिशोरजी श्री जुगलकिशोरजीके हृदयमें स्वभावतः ही तथा पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदीकी श्रेणीमें रखनेका समाजप्रेम, साहित्यप्रेम, धर्मप्रेम तथा विश्वप्रेमकी साहस किया जा सके ! भाग सुलग रही थी। मुख्तारजीका हृदय उन्हें बार चार उनके मनकी वाणी तथा अंतःकरणकी पुकार ___श्रद्धेय श्री मुख्तारजीके जीवनका एक एक क्षण, सुनने के लिए आकुल कर रहा था। उनके लिये देश उनके जीवनका एक एक पल, हमारे लिए एक भव्य सेवाका सर्वश्रेष्ठ पथ था धर्मसेवा और धर्मसेवाका आवशेकी वस्तु है। उनकी कठिन तपस्या नवयुवकों में सर्वश्रेष्ठ मार्ग था साहित्यमवा और साहित्यसेवाका उत्साह और उमंगकी आंधी उठा सकती है, अविश्रांत सर्वश्रेष्ठ उपाय था उसे संजीवन प्रदान करना, उसे कर्मण्यता हमारे अकर्मण्य युवकोंमें यौवनकी शक्ति मुक्तिप्रदान करना, उसके सत्यरूपको असतके प्रभाव का सदुपयोग करनेकी और उन्हें आकर्षित कर सकती के कारण जो अभी अंधकारमें है, प्रकाशमें लाना, है, उनकी निस्वार्थे रागरहित धर्म और साहित्यसेवा उसकी छिपी, निखरी तथा विस्मृत शक्तियोंका प्रदर्शन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त [वर्ष ६ चम करना, उसे प्रकाशकी रश्मियों अर्पित करना, उसे जीवनकी दिशा संसारके सन्मुख जैसा है वैसा ही चित्रित करना। इसी लिये मुख्तारजीने अपनी प्रवृत्तिके प्रवाहको श्री विद्यानन्दजी छछरौली साहित्यसेवा, साहित्य साधनाकी ओर प्रवाहित किया। धर्म-मानव जातिके उपतर मनकी चीज है, मनुण्यके साहित्य सेवाके उषा कालमें ही उन्होंने जान उपतर मनकी चेष्टा है जिसके द्वारा वह अपनी शक्तिभर लिया था कि वर्तमान परिस्थितिमें सच्ची साहित्य अपमेसे परेकी किसी वस्तुको प्राक्ष करना चाहता है, उस सेवा असंभव है क्योंकि भारतका विस्तृत और प्रचण्ड वस्तुको जिसे मानव जाति ईश्वर, परमात्मा. सत्य, श्रमा साहित्य तो जेलकी चहारदीवारियों तथा कालकोठ ज्ञान या अर्चना किसी प्रकारकी मिरपेच सत्ताके भामसे रियोंमें अपने शापित जीवनके विषैले क्षणोंको व्य- पुकारती है, जहाँ तक मामव ममकी पहुंच नहीं होने पर तीत करने के लिए विवश किया जा रहा है, उसकी भी वह जहाँ पहुंचनेकी चेष्टा करता रहता है-सचेष्टाका स्वतंत्रता उससे छीन ली गई है, उसकी स्वच्छन्दता नाम ही धर्म है। पर बंधनके मौ सौ अंकुश लगा दिए गए हैं, उसे श्री महावीर स्वामी संसारसे अलग होकर एकांतमें स्वच्छ वायुसेवन तथा रविरश्मिसे भी जो जीवनी चले गए ध्यान लगा कर बैठे उन्होंने संसारके दुःख और शक्तिके प्रधान अंग हैं बिलग रखा गया है। ऐसी कष्टोंसे यह सब जो रोग और मृत्यु, इच्छा और पाप एषं अवस्थामें सबी साहित्यसेवा क्या संभव थी! उन्होंने शुधा है उससे त्राण पानेका मार्ग निकाला। उनको एक निश्चय किया प्राचीन साहित्यक नूतन संस्कारका, उसे सत्यका दर्शन हवा और उन्होंने इस बातकी चेष्टा की कि पुनरुज्जीवित करनका, उसके पूर्ण उद्धारका, उसे वे इस सत्यको अपने इर्द गिर्द जमा हुवे अनुयापियों झठे धर्माभिमानियों तथा धर्मान्ध लोगोंकी गुदड़ीमें और शियोको बताएं और दें। हिपाहुना लाल न बना सर्वसुलभ, सुकुमार, सुंदर सभी धर्मोंका जन्म किमी महान जगद्गुरुके भावितथा लुभावना शिशु बनानेका जिससे भारतीके विको लेकर होता है। जगद्गुरु इस पृथ्वी पर पाते हैं मंदिर में पवित्र भाबसे सेवा श्रार भक्ति करने वाले सत्यको प्रकाशित करते हैं और स्वयं किसी भागवत सत्यके सचे साधकोंको वह उपलब्ध हो सके। पंडित जुगल मूर्तिमान अवतार होते हैं। परन्तु मनुष्य इस सत्य पर किशोरजी मुख्तारने इसी प्राचीन तथा बन्दी जीवन अपना ही कहजा जमा लेते हैं. इस परसे वे एक रोजगार व्यतीत करने वाले लोकोत्तर तथा उत्कृष्ट साहित्यको खड़ा कर लेते हैं और इसके द्वारा घे एक राजनीतिक संगमुक्त करनेका तथा उसके महान कर्ताओंको अमरत्व उन सा बना लेते हैं। मानवी मन अपनी चेष्टा अपनी ही प्रदान करनेका, जिन्हें संसार आज तक भूले बैठाया। इच्छा एवं हचिके अनुरूप उस परम सत्यकी ध्यानया करना उसे पकाशमें लानेका यह मत्प्रयत्न उन्होंने किया जिसे प्रारम्भ कर देते हैं इस प्रकारसे कालान्तरमें विख, निर्मल. देख सब दंग रह गए। उन्होंने इसके लिये अपने जीवन स्वयं प्रकाशके सामने धुंध प्राजानेसे लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं। केअनमोल तथा सर्वश्रेष्ठ ३६ वर्षोंको होम दिया और आज भी अपनी उसी अविश्रांत तथा अनवरत श्री महावीर स्वामी निर्वाखाके पश्चात् भी इसी प्रकार साधनामें लीन हैं। संसार उन्हें कुछ भी समझे वे दशा हुई। समयके हेरफेर तथा स्वार्थ और प्रज्ञानके कारण अपनी साधनाके मोती गम्फित करनमें लबलीन मिन प्रन्योंकी रचना तथा भित्र भित्र व्याख्याभोंसे जबता जैन समाजशास्तथा साहित्यके अद्वितीय मनीषी बढ़ती चली गई और विपथगामिता होती चली गई। और प्रगल्भ विज्ञान, प्राचीन संस्कृत, प्राकृतबादि भाषा ऐसे विकट समबमें ही कोई विभूति-शालि उस परम ओंके प्रकारड पण्डित, इतिहासके अपूर्वतत्वज्ञ, पुरा- सत्यकी मजकको अपनी बारमा प्राप्त कर उस परम प्रकाव्य तत्वके प्रखर समालोचक, भारतीय संपादकोंमंशिर- की ओर अग्रसर होते है। इन्हीं विभूविशादि पुरुषों से मणि श्रद्धेय श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार चिरायु हों! श्री जुगल किशोर मुख्तार । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =[कवि-वाणी ]= स्वागत प्रणाम प्रो० श्री गयाप्रसादजी शुक्ल एम०ए. श्री अखिलेश'ध्रुव अर्चना, सत्कार, स्वागत आज वागी-वन्दना-रत, साधकोंका समुद स्वागत हे प्रतिभाके वरद पुत्र, तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम ! हो तुम्हें स्वीकार श्रागत! भावनाएँ उतर स्वर में कुछ है जो धनकी माया पर हृदयमें कुछ गीत नीरव रहते हैं दिन श्री रात लीन ! नयनमें श्रद्धाजनिन हर्षाश्रु कुछ हैं जो यशकी ममतामें अंजलि विमल अभिनव रहते हैं दिन श्री रात लीन । कर न आकर्षित सकेंगी सत्य ही हे साधना-रत! धनमें यशमें मदमायामें तुम विद्वहर निस्पृह प्रकाम! अर्चना, सत्कार, स्वागत ! | यह नमित तरु-राजि सुमनाबलि हे प्रतिभाके वरद पुत्र, तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम ! अरुणिमा • सान्ध्य कुकुम नित नूतन ग्रंथोंके सष्टा, विहग-रवकी शंख-ध्वनिसे नित नूतन भूलोके शोधक, प्रकृतिका अविराम वन्दन । नित नूतन तत्वोंके खोजी, भावना-नीराजना-सा अमर हो नव वाङ्मय ब्रत ! निततूतन भ्रमके उद्बोधक, अर्चना, सत्कार, स्वागत ! श्राज वाणी-वंदना-रत, साधकोंका समुद स्वागत साहित्य सृष्टि, इतिहास-शोध, यह ही चिन्ता बस सुबह शाम ! हो तुम्हें स्वीकार, श्रागत ! ॥ हे प्रतिमाके बरद पुत्र, तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम ! -: अभिनन्दन :जैन जाति के उज्ज्वल रत्न , श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' विचक्षण, साधु-व्रती, 'युगवीर', शोध-शशि-करके मुग्ध चकोर , धुरंधर पंडित, नम्र महान , वीर-सेवा-मन्दिरके श्रेष्ठ सतत साहित्य-गगनके चाँद , तपस्वी, साधक, जुगलकिशोर । भारतीके हँसते-से प्राण । नियन्ता जैनधर्मके, दिव्य समालोचक. उद्भट विद्वान , विचारक, अनुसंधाता, उच्च भावनाओंके शुभ पाहान । चक्रवर्ती, साहित्यिक वीर, चतुर लेखक. कवि प्रतिभावान , कर्मयोगी, स्यागी, समुदार, सरल मृदुभाषी, निराभिमान । राष्ट्र-उन्नतिके ऊँचे स्तम्भ, देश-सेवाके निर्मल स्रोत, धर्मके सचे संरक्षक, बुद्धि विद्यासे प्रोतःप्रोत । महात्मा, सम्पादक सम्राट् , कला-कृतियोंसे करके पूर्ण, मात्र प्राणीके सहृदय मित्र । मातृ-भाषाका शुभ भण्डार; रहेंगे युग तक शोभावान जिये युग युग श्रीजुगलकिशोर , आपके सब साहिस्थिक चित्र । देर तक करें देश उपकार । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० भनेकान्त [बर्ष ६ साहित्य तपस्वी श्रो कल्याणकुमार जैन 'शशि' श्रद्धाके फूल श्री 'भगवत' जैन सरस्वती-सुत सा विशाल उज्वल साहित्य प्रसाग! ज्ञानहिमालयका हृदयोदक से पद-पद्म पखारा! भानमतीके भरे मालमें केवल भान निहारा ! गिरिनिर्भर सी जनहिन प्रकटी अनेकान्तकी धारा ! वन्दनीय अभिनन्दनीय तुम हे, साहित्य-तपस्वी ! सुम-श्रात्माओंको जीवनभर झकझोर जगाया ! ज्ञान सुधा-साहित्य सृजनसे अमृत-रस सरमाया ! प्राच्य-गिरा, इतिहास, कला-कौशलका मान बढ़ाया ! श्रमफलतासे जूझ जूझकर जीवन सफल बनाया ! सेवामन्दिरके एकाकी-पूजक-भक्त - यशस्वी! एक लक्ष औ' एक लगन धुनके पक्के दीवाने ! जर्जर जीवनकी नैयापर अटल सुदृढ़ प्रण ठाने! दूर क्षितिज पर रचनात्मक जीवन प्रकाश पहिचानें ! तुम बढ़ते ही गये निरन्तर उन्नत छाती ताने! जुग जुग जियो अमरता-रस पी-पीकर बीर मनस्वी ! श्रो, माहित्य-तपस्वी ! तेरे प्रति मेग श्रद्धाके फूल ! लालायित है पदरज छुने, करले इन्हें मप्रेम कबूल !! तूने बनलाया कि लुभा मकना कब साहित्यिकको धन ? खुद जलकर प्रकाश देना ही, सच्चा माहित्यिक-जीवन !! नतमस्तक होता है सविनय, काव्य-कलाके अनुगगी! तन, मन, धन, सर्वस्व निछावर, करदेने वाले त्यागी! अमर-मार्गक राही ! तेरी अजर-अमर-सी सेवाएँ ! प्रेरित करती अन्तरंगको-यही मार्ग हम अपनाएँ !! काव्य-साधनाके चरणोपर, तुने कर अपनेको दान! पाया वह अमरत्व, दानका है यथार्थमें जो प्रतिदान !! नश्वर तनके पंच-तत्व ये-चाहे कभी बिखर जाएँ ! लेकिन पीछे तुझे रखेंगी-जीवित तेरी रचनाएँ !! तूने अन्वेषणके द्वारा किया श्रमिट मानव उपकार ! दूर किया है अन्धकार, कर नव्य-रश्मियोंका संचार !! हैं कृतज्ञ मानव-मन, पाए तू हे भगवत् ! चिर-जीवन ! तेरी नव्य, भव्य कृतियोंसे शोभित हो साहित्य-सदन !! धन्य जीवन श्री जुगलकिशोर ! श्री मामराज शर्मा 'हर्षित' श्रद्धाञ्जलि श्री प्रभुलाल जैन 'प्रेमी' विकसित सुन्दर भाव कुसुमका, गूंथा मनमन्दिरमें हार! पगले प्रेम पुजारीकी यह. भेंट करोगे क्या स्वीकार ? मनमें है संकोच यही बस और न मैं कुछ लाया हूँ। केवल आज भाव-कुसुमोंकी अञ्जलि देने आया हूँ। सत्यका लिये मधुर सन्देश त्यागमय ले जीवन निष्काम ! बना श्री वीर नीतिका श्रोत 'वीरसेवामन्दिर' निज-धाम !! विश्वके श्रेष्ठ जैन विद्वान भारतीके मंजुल आलोक ! विकमते 'अनेकान्त' के प्राण जैन साहित्य सुधाके लोक!! भावनाभोंके जीवनमूल सत्यशिवसुन्दर अविचल धीर ! हृदयमें बहरा रहते मौन जैनशासनके अनुपम वीर !! शानकी दिव्य ज्योति दे सूक्ष्म विश्वको करते ज्योतिर्मान ! मिटाते जगके अन्तईन्द जगाते जगका अन्तर्मान ! जैनशास्त्रोंका सत्य रहस्य प्रकट करते हो आत्मविभोर ! वीर प्रभुके अनन्यतम भक्तधन्य जीवन जुगलकिशोर! Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] तुम ढाल रहे जीवन क्षण-क्षण श्री ओमप्रकाश, सरसावा -x तुम ढाल रहे जीवन क्षण क्षण ! भगवान वीरके अनुगामी, 'युगवीर' बने इस जीवनमें। बन सत्य अहिंसा के बाइक. सन्देश दे रहे कण कण में । जिससे समाज में है सिहरन ! साहित्य स्वरोंपर गाते हो, तुम अनेकान्तका श्रमरगान । पुरुषार्थहीन मानव जिससे पाता पग पग पर नवल प्राण । भरते मानव मनमें स्पन्दन ! तव कीर्ति प्रभासे आलोकित मज्जुल 'सेवा मन्दिर' विशाल । बह रही शोध-सरिता, जिसमें नव वीर ज्ञान मुक्ता प्रवाल । निश्चिन्त करे कोई मज्जन ! तुम पुरातत्व अनुसन्धाना सद्ग्रन्थोंका करते सुधार । मज्जुल श्रीतके चित्र बना दिखलाते जगको चित्रकार । सेवा समाजकी तत्र चिन्तन ! हेनी हे हे त्यागमूर्ति, मौके सपून पंकिल नगरीके पद्म कोष, हम रङ्कोंकी उज्वल विभूत । चिरजीवी तेरा यश-जीवन । · दे डाला है तुमने जीवन, जीवन समाज में लानेको । सर्वस्व किया अपना अर्पण, प्रिय धर्मध्वजा फहरानेको । तत्र ऋणी बना 'आकुल' कण कण | कवि-वाणी तुम ढाल रहे जीवन क्षण क्षण । १६१ जय जय जुगलकिशोर ! - श्री बुद्धिलाल आवक देवरी निद्रित जैन समाजको जाग्रित कियौ विभोर । जियहु जियहु. जुग जुग जियहु, जय जय जुगल किशोर ॥ १॥ सरसावा शहरमें, सेवा मन्दिर सार । जिन धुनि निगम निवास ते जिनमंदिर उनहार ॥ २ ॥ शोध बोधमेह निपुण अति, पंडित परम प्रवीन । जिन धर्मी मरमी अमित, सत्य सिन्धु स्वाधीन ॥ ३ ॥ लेखक आलोचक सुकषि, जैन जगत विख्यात । धन्य धन्य तुम धन्य हौ, धन्य मानु पिमुखात ॥ ४ ॥ गुण गाथा है आपकी, अगनित सुगुन निकेत । मैं लघु मति नहिं लिख सकों, परिमित शक्ति समेत ॥ २ ॥ अरे! शोक की हर्ष सौ. जोड़ी रहत चूक अतः याद आ ही गई, शोक थोककी हूक || ६ || जज्जा जिनके आदि में, श्रीमन् जम्बुप्रसाद जैनी जुगल किशो. जी, श्रीवर जोतिप्रसाद ॥ ७ ॥ तुलना चारितकी लही. श्रीमन् जम्बुप्रसाद । सम्यक ज्ञान पुनीत वत, श्रीयुत जोतिप्रसाद ॥ ८ ॥ मुए, कालवश, सुर हुए; हा ! हा!! चारित ज्ञान । बचे शेष सम्यक्त्ववत, जुगलकिशोर सुजान ॥ ६ ॥ यदि होते दो आत्मा, जम्बु जोतिप्रसाद । तब सौ हो तो आज दिन, सहस गुणित अहलाद ॥ १० ॥ अहो ! हर्षमें शोककी, चरचा अशुभ सरूप । तो भी मन मानी नहीं, चंचल अतुल अनूप ॥ ११ ॥ माने द्रगहू नेकु नहिं, सहसा हुए सनीर । बिसरायें बिसरो नहीं, हा ! वियोगकी पीर ॥ १२ ॥ फिर भी यह संतोष अब, मानौ जैन समाज । समकित बल बहुते बने, ज्ञान चरित भी आज ॥ १३ ॥ इन्द्र लोकमें इन्द्रवत जम्बू जोतिप्रसाद । सबकी हमको दे रहे हार्दिक आशिरबाद || १४ || अरे ! शोक जो पासमें, परौ हतौ प्राचीन । बना हर्षमें आज सो, नौवम नव्य नवीन ॥ १२ ॥ तातें यह शुभ कामना, जैनी जुगलकिशोर जैन जाति अवलम्ब जो, जीवहिं बरस करोर ।। १६ ।। जय जय जुगल किशोरजी, जैन जातिके वीर । जिन बामी सेवक चतुर, जय जय साहस धीर ॥ १७ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष ६ स्वागत विधि जानी नहीं, कैसौ क्रिया कलाप । चूक टूक यदि होय तौ, चमा कीजियो पाप ॥१२॥ स्वागत तुम चाहत नहीं, नहिं स्वागत सौं नेह । केवल निज कर्तव्य बश, भेटै सहज सनेह ॥३३॥ श्रावक नर माहारमा पै, अवर लिखै न एक। जीवन मुक्त विचारक, विरद बखानी नेक ॥३४॥ हाजरीन जजसा तिन्हें, विनय करूं कर जोर । सब साहब मिल कर कहौ, जय जय जुगलकिशोर ।।३५॥ श्री मुख्तार साहबके प्रति श्री कपूरचन्द जैन 'इन्दु' तन मन धन सर्वस्व सब, दियौ दान भरपूर । अनुग्रह निज पर 4 कियौ, कियौ मोह तम दूर || 100 मेहा, नाता मच्छिते, तोरी तत्व विचार । नहीं तो सजती वह तुम्हें, यही वस्तु व्यवहार ॥॥ भनेकान्त अभ्यास ते. अनेकान्त वर पत्र । करत बनेकों हदय पै, अनेकान्त को छत्र ॥२०॥ मैं मैं तू तू मिट गई, प्रामनाय वा पंथ । कियो संगठन प्रेम साँ, दियौ मंत्र सद ग्रंथ ॥२१॥ खेंच तान मति भेद को, मची हुतौ प्रतिशोर । किये एक सबबंधुवर ! जय जय जुगलकिशोर ॥२३॥ कोटि कोटिके दान की, उतनी गिनून मान । पर्व बपके दानको, जितनी है गुनगान ॥२३॥ जौ लौ जल जमुना घरै, जो ली गंग तरंग। ती जौं निवसौ शर्म सह, धर्म मर्म सतसंग ॥२४॥ उदय और सत्ता धरै, जो जी प्रत्याखान । तौली पल सरधानके, करी स्वपर कल्याण ॥२५॥ पुस्तक मेरी भावना, और अनेकों ग्रंथ । अजर अमर होकर रहे, वरणावें शुभ पंथ ॥२६॥ जितनी हिन्दी हिन्दकी, बनै शक्ति भर सेव । साहस सहित सम्हारियो, यही बिनय देव ॥२७॥ सेवक श्रावक पै सवा, सरधा सहित सनेह । नाती नित्य निभाइयो, प्रेमपुंज गुण गेह ॥२८॥ नर पुगध ऐसे महा, एरी ! जैन समाज । पाये तूने कौनसैं, सो बतला दे माज ॥२६॥ दावा सूरजभानकी, . सतसंगति रमनीक । गुरु गुरु, चेला खांडकी, फली पहेली ठीक ॥३०॥ बाबा सूरजभानके, जानौ दो संतान । पहले जुगलकिशोर डी, पुनि शुभवंत सुजान ॥३१॥ माहित्यिकके सुसम्मानका, भाया है मनको निश्चय । सुगम नहीं देना पर मुझको पूज्य वयोधिकका परिचय ।। गुणराशि सामने रखने में कुछ न्यूनाधिक हो सकता है। बाहुल्य गुणोंका देख मनुज, अत्युक्ति सत्यमें कहता है। पर सत्य न दाबे दबा कभी, व्यापक उसके अणु नभतल में फिरता समीर है लिए-लिए उसको विहलसा भूतल में !! मुख-मुखसे कर्णागत होता, हृत्तार-तारसे यह संगीत ! मुख्तार तुझीसे वर्तमान, कहलाएगा पावन अतीत !! कर पुरातत्वका अनुशीलन, जो दिखा सके गौरवलाली ! सदियों तक दीप्तिमान होगी, वह नहीं कभी मिटनेवाली! हैं बहुत तुच्छ सम्मान-हेतु, जो कुछ भी जुटपाएँ साधन! सन्तोष इसीसे करलेंगे, कुछ मिटा हृदयका सूनापन !! मिलता नवीन उत्साह रहा; पा उत्साही नायक प्यारा! सागरकी ओर उमड़ती हैं, जैसे वर्षा की जलधारा ॥ श्रीमान् श्रापकी छिपी नहीं, साहित्यिक-सेवाएँ जो की। अपनी अनुपम-प्रतिभा द्वारा, अनुभूति भारतीमें भरदीं। Page #217 --------------------------------------------------------------------------  Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R SSC PROSE S ATSANSARASHYATMENT उत्सव के सभापति श्री राजेन्द्रकुमार जी डायरेक्टर भारत बैङ्क लि., देहली R उत्सव के सभापति श्री राजेन्द्रकुमार जी और दूसरे अतिथि मुख्तार महोदय के निवास स्थान (लाला ऋषभसेन की कोठी) पर श्री जुगलकिशोर सम्मान समिति के सदस्यों के साथ उनका स्वागत कर रहे है। Page #219 --------------------------------------------------------------------------  Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभापतिका अभिभाषण me ( भारत बैंकके डायरेक्टर श्री गजेन्द्र कुम्गरजी द्वारा माननीय भ्राताओ और देवियो ! की तरह उन शास्त्रोंकी रक्षा की है । इसलिये हमारे धम और सामाजिक जीवनके वे संरक्षक हैं, पर जब हस्तिनापुरमें विद्वदर पं. जुगलकिशोर हमने उन विद्वानों के लिये क्या किया? उन्हें मान मुख्तार महोदयक सम्मान-समारोहका सभापतित्व दिया ? उनकी सच्ची म्वा भी कहाँ की ? करने के लिये मुझ कहा गया, तो मेरा मन संकोच भर गया, क्योंकि एक विद्वानक सम्मान-समारोहका पिछले २०-२५ वो हम चिल्ला रहे हैं कि सभापतित्व करने के लिये कोई विद्वान ही उपयुक्त हमारी जानिकी दशा रुगब-हम नाशकी ओर होता, पर बाद में मैंने यह आदेश स्वीकार कर लिया। जा रहे हैं ! जब दूसरी जातियां उनांत कर रही है, मैंने सोचा कि जीवन में ऐसा अवसर फिर न आयगा उनकी संख्या बढ़ रही है, तब हमागहास होरहा है। कि इतने बड़े विद्वानके चरणों में मैं बैटू, उनके यश मा क्यों है, अनेक लोग अनेक कारण बताते हैं, की उज्ज्वलगाथा सुनू और अपनी शक्तिभर उनका पर मैं तो यही कहता हैं कि इसका असली कारण गुणगान काँ। हमारे विद्वानोंका सम्मान न होना ही है। हाँ करनक साथ ही मेरे सामने यहाँक भापका अभी कल मैं ममयमारकी गाथा देख रहा था। प्रश्न आया और मुझम कहा गया कि मैं अपना भाषण छपालू', पर मेरा मन इसके लिये तैयार न उममें कहा है कि शुद्ध ज्ञान और शुद्ध प्रात्मा दो चीज नहीं हैं। उम जानना ही सच्चा तत्व है। शुद्ध हुआ, क्योंकि मुझे यहाँ विद्वत्नाके प्रदर्शन की चिन्ता ज्ञानका और ज्ञानके इन जीवित भण्डागेका श्रादर न थी। मेरे मन मुख्तार साहबकी भक्ति थी और १००० पृष्ठों में विस्तृत विद्वत्तापूर्ण भाषणसं श्रद्धाका करना ही हम भूल गये । कोई पण्डित हमारे यहां आते हैं ता हम ममझते हैं कि चन्दा लेने पाये एक शब्द कहीं अधिक श्रेष्ठ है । फिर मुख्तार साहब का कार्य इतना विशाल है कि उसपर जितना भी हैं । हमने उन्हें बहुत विद्वान मान लिया, तो बस कह जाऊँ, वह उसके शतांश पर भी प्रकाश न पल सोच लिया कि उन्हें दशलक्षणमें बुलालेंगे या कभी शाख बचवा लेंगे और कुछ धन इन्हें दे देंगे। बस सकेगा, इसलिये मैंने सोचा कि इम महत्वपूर्ण उत्मव यहीं तक हमारे यहाँ विद्वानोंका सम्मान है । हमारी पर चलू और अपने हृदयकी भक्तिभावना प्रकट कीं। जाति धनी जाति है, वह लाग्बों करोड़ोंका व्यापार आजके उत्मवका एक विशेष महत्व है। मैं तो करती है। धनके इम दर्प में हमने समझ लिया कि इसे अपने समाजकी जातिका त्योहार मानता हैं। हम धनसे पण्डितोंको ग्बगद मकते हैं। जो पूजाके इस उत्सव होने की यह गवाही है कि अब हमारा। योग्य थे, उन्हें नौकर ममझा, नौकर रखनेका दावा ध्यान पत्तोंको सींचनेकी जगह मूलकी तरफ गया है । किया, यही हमारे हामका कारगा हुमा। हम अपनी हमारे जीवनका आधार हमारा धर्म है और हमारे इस भूलको समझलें और अपने विद्वानोंका मचा मान धर्मका आधार-संसारके सामने से प्रदर्शित करने करना सीखें, यही आजके उत्सवका सन्देश है। का साधन-हमारे शाख हैं। हमारे विद्वानोंने भूखे रहकर, तपस्या करके, कष्ट उठाकर भी अपने जीवन हमारे जैनविद्वानों में पं० जुगलकिशोरजीका कार्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अनेकान्त [वर्ष६ बहुत ऊँचा है, महान है और अनुपम है-वैसा कार्य धीरे धीरे यह छोटीसी पुस्तक राष्ट्रीय नित्यपाठ बनती किसी दूसरेने नहीं किया । समुद्र में रत्न हैं, सत्र जारही है। मुख्तार साहब उन लोगों में हैं, जो जाति जानते हैं कि हैं, पर यदि यह मालूम न हो कि कहां के जीवनको अपने हृदयके रक्तसे सींचते हैं। ऐसे है, तो हजारों डुबकियां मारनेपर भी न मिलेंगे। फिर लोगों के सम्मानसे नई पीढ़ीको बल मिलता है और यह जानना ही काफी नहीं है कि यहाँ रत्न हैं, उन जातिका जीवन पुष्ट होता है, इस दृष्टिले उनका तक पहंचने और उन्हें सुरक्षितरूपमें लानेका ढंग भी सम्मान भी हमारी स्वार्थपूर्ति करता है। मालूम होना चाहिये । रिसर्च के काममें रेफरेंसजका बड़ा महत्व है और मुख्तार साहबने हर तरहका कष्ट एक बार हम कई साथी हरद्वार गये। दूसरे साथी उठाकर भी जैन साहित्य और इतिहासकी खोजका नहाने लगे, पर मैं किसी काममें लगा था, न पहुँच मार्ग बना दिया है। यह काम कितना कठिन है, हम सका । वे नहाकर मेरी प्रतीक्षा करते रहे। उनमें कुछ लोग इसका अनुमान भी ठीक ठीक नहीं कर सकते। चुलबुले युवक थे । यों ही हंसी २ में उनमें से एक तो काली सड़कोंपर मोटरमें घूमनेवाले लोग उस मनुष्य साधु बन गया और समाधि लगाकर बैठ गया और की दिक्कतोंको कैसे समझ सकते हैं, जिसे घने जंगल दूसरने उनके धागे अंगोछा बिछाकर कुल फल रख में मार्ग ढूढना पड़ा हो-बनाना पड़ा हो । दिये । बस फिर क्या था, जो यात्री आता, प्रणाम करता और पैसे चढ़ाता । मैंने श्राकर यह तमाशा एक बार मैं लाहौर में था और मुख्तार माहब भी देखा और मुझपर यह प्रभाव पड़ा कि समाज में देववहाँ पधारे थे। मैंने पूछा कि आजकल आप क्या की मृष्टि पूजासे होती है। यही हाल विद्वत्ताका है। खोज कर रहे हैं ? तो आपने बताया कि समन्तभद्र- विद्वानोंका मान-पूजा करनेसे समाज. विद्वत्ता बढ़ती साहित्यके कुछ शब्दोंका संग्रह कर रहा हूं कि कौन है। हमारे समाज में विद्वत्ताका मान नहीं हुआ, शब्द कहां २ प्रयुक्त हुआ है और किस २ अथेमें? नतीजा सामने है कि पहले जैसे विद्वानोंकी संख्या उस समय वहां मेरे मित्र श्री हरिश्चन्द्रजी जज भी कम होगही है। बैठे थे, वे बोले इससे क्या फायदा ? यह मेहनत बेकार है। मुख्तार साहबने अत्यन्त शान्तिसे इस उत्सवने हमें यही संदेश दिया किहमारा समाज उन्हें समझाया । तीसरे दिन वे बोले कि “यह अपनी यह भूल सुधारे और अपने विद्वानोंका मान कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है और अभी तक किसीने करे । यह सम्मान समारोह करके सहारनपुरके भाइयों नहीं किया है। यदि यह अधूरा रह गया, तो इसे ने ममाज में एक उपयोगी नवीन परम्पराका श्रारम्भ कोई दूसरा विद्वान कर भी न सकेगा । यह कार्य १००० किया है। मुझे आशा है कि उससे जहाँ दुसरे जीवित ग्रंथों के निर्माणसे भी अधिक मूल्यवान है।" पण्डित विद्वानों के सम्मानके आयोजन होंगे, वहां स्वर्गीय जीका कार्य एकदम मौलिक है और उस तरहका कार्य विद्वानों और महापुरुषोंकी स्मृतिरक्षाका प्रश्न भी करना बहुत कम लोगों के लिये सम्भव है। मेरी हमारे सामने स्पष्ट रूपमें आयेगा।। भावना' और पं० जुगलकिशोरजी तो मिलकर एक अन्तमें मैं आपका कृतज्ञ हूँ कि आपने मुझे यहाँ ही होगये हैं। मैंने ऐसे कारखाने देखे हैं, जहां हजारों बैठाकर मुख्तार साहबके प्रति अपनी हार्दिक भक्ति मजदूर इकट्ठहोकर, झूम झूमकर उसे पढ़ते हैं। पता प्रगट करनेका अवसर दिया। नहीं कितने तड़फते हृदयोंको उसने सान्त्वना दी है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमन्तभद्राय नमः अभिनन्दनादिके उत्तरमेंश्री पं० जुगलकिशोर मुख्तारका भाषण सभापतिमहोदय, स्वागताध्यक्षजी, स्वागतमंत्रीजी, बराबर परिश्रम करके, लगनके साथ, शीघ्र फलकी पर्वाह उपस्थितसजनों और सन्देशादिके रूपमें उपस्थित-अनुप- तथा प्रातरताको हृदयमें स्थान न देते हुए, कुछ-न-कुछ स्थित सजनों! सेवाकार्य निरन्तर करता ही रहा हूँ-भले ही वह कितनी श्राप सबने मिल कर मेरे ऊपर इतना गोझ लाद ही मन्दगतिमे क्यों न हो और उसका मूल्य भी कितना • दिया है कि मेरे लिये उठना और कुछ बोलना भी मुशकिल ही कम क्यों न हो। होगया है! मेरी इस परियाति और प्रवृत्तिका कुछ प्रारम्भिक सबसे पहले मैं उन सब सजनोंका आभार प्रकट कर इतिहास भी है। भाजसे कोई ३ वर्ष पहले मैं यहां देना चाहता हूँ जिन्होंने मेरे लिये यह मा आयोजन किया (सहारनपुरमें) बम्बई-प्रान्तिक-सभाके उपदेशकके रूपमें है, मेरे लिये दूर दूरसे चल कर इस सर्दीकी मौसममें यहां आया था। उस वक्त ट्रन्स (मैट्रिक) पाम कर लेने के बाद पधारनेकी कृपा की है और मेरे विषयमें कुछ बोलने, लिखने किसी दफ्तर में शीघ्र नौकरीन मिलने के कारण मैंने प्रान्तिक तथा लिख भेजनेका कष्ट उठाया है। इसके बाद जब मैं सभा बम्बईके उपदेशक-विभागमें नौकरी करतीथी. जिसके आपकी ओर देखता हूँ और यह देखता हूं कि आप सब प्रोग्रामके अनुसार मैरे उपदेशकीय दौरेका पहला स्थान मेरे लिये एकत्र होकर मुझे अपना रहे हैं--प्रेमकी-मादर (सरसावासे चलकर) सहारनपुर रक्खा गया था, और हम की रष्टिसे देख रहे हैं. मेरे लिये शुभकामनाओं नया शुभा- लिये उपदेशककी हैसियतसे मेरा पहला उपदेश इसी शीर्वादोंकी वर्षा कर रहे हैं और इस तरह अपने व्यवहार सहारनपुर नगरमें हुआ था। इस उपदेशकीको करते हुए से यह भी प्रकट कर रहे हैं कि अब मैं भापकी नज़रॉमें कुछ ही दिन बाद, जब मैं बम्बाईसे गुजरात-का 'घरका जोगी जोगना' नहीं रहा, तब मेरे लिये प्रसन्नताका दौरे पर था, न मालूम किस तीर्थदर्शन अथवा परिस्थितिके होना स्वाभाविक है। प्रात्मीयजनोंके मध्यमें स्थित होकर वश जिसका मुझे इस वक्त ठीक स्म या नहीं है, मेरे हदय और पावर-मत्कार पाकर किसे प्रसन्नता नहीं होती? में यह भाव उत्पन्न हुभा कि 'मुझे पैसा लेकर उपदेश परन्तु जब मैं अपनी ओर देखता हूँ तो मुझे बड़ा नहीं देना चाहिये-हो सके तो यह काम सेवाभावसे संकोच होता है और साथ ही प्राश्चर्य भी। क्योंकि मैंने अपनी __ ही करना चाहिये।' तदनुसार मैंने उपदेशकी की नौकरीको इष्टिमें ऐसा कोई महान् कार्य नहीं किया जिसके लिये इतने छोड़ दिया और उपदेशक-विभागके मंत्रीको सपना स्पष्टसम्मानका भाजन बनूं-मैं अपनी त्रुटियों, कमियों और निर्णय खिस भेजा। उस वकसे नि:स्वार्थ सेवाकी मेरी रुचि कमजोरियोंको स्वयं जानता हूं । दूसने मुझसे भी अधिक उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और मैंने आज तक अपनी किसी विरोधी वातावरणमें विद्यद्गसिसे काम किया है। मैं तो भी रचनाके लिये-चाहे वह लेख, कविता, अनुवाद, अनुएक तुच्छ सेवक हूँ। मुझमें यदि कोई विशेषता है तो सन्धान, ग्रन्थनिर्माण और सम्पादन मादि किसी भी रूप इतनी ही कि-जैनधर्म और समाज-सेवाके प्रति मेरी में क्यों न हो-पारिश्रमिक तथा पुरस्कारादिके तौर पर श्रद्धा अटल और अडोल रही है। समाजका कोई व्यवहार, कोई भी पैसा किसीसे नहीं लिया। मेरी सारी कृतियों कोई तिरस्कार, कोई कटूक्ति (कड़वा बोल), कोई उपेक्षा सके उपयोगके लिये सना खुली रही है--ॉयलटी और कोई सन्देह-रष्टि मुझे उससे डिगा नहीं सकी। मैं प्रादिके बन्धनों में भी मैंने उन्हें नहीं बाँधा है। मैंने जो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनेकान्त [वष ६ कुछ भी सेवाकार्य किया है वह सब अपना कर्तव्य समझ है, अहंकारी बन जाता है और उसकी कायंगति मन्द पड़ कर किया है और कर्तब्य समझ कर ही कर रहा हूँ। फिर जाती है। अत: ऐसा न होना चाहिये। इसके खिये इतने मान-सम्मान, गुण-गान और इसने अभिनन्दन-पत्रादिके रूप में जो मान-सम्मान प्रापने अधिक प्रायोजन-समारोहकी क्या जरूरत? यह मेरी कुछ मुझे प्रदान किया है उसको सादर स्वीकर करके प्रब में समझ में नहीं पाता, और यही सब देख कर मुझे उसे अपने श्राराध्य गुरुदेव स्वामी समन्तभद्रको अर्पण पाश्चय होता है! करता है, जिनके प्रसादसे ही मैं इस रूप मान-सम्मानको जान पड़ता भाप सब सज्जनोंका हृदय अब बहुत पानेके कुछ योग्य बनाई. अन्यथा मेरी शिक्षा थोड़ी उवार हो गया है। साथ ही. भापकी रष्टि विशान्त तथा विद्या थोड़ी, पूजी थोडी और शक्ति थोड़ी। उन्हीं पूज्यवर ऊँची होगई है अथवा यो कहिये कि वह खुर्दबीन बन गई की कोई शक्ति--उनके प्रकाशकी कोई किरण -- मेरे अन्दर है, जो छोटी छोटी चीजोंको भी बड़े बड़े आकारमें देखने काम करती हुई मालूम होती है। उसीके सहारे एवं आधार लगती है, इसीसे श्राप मेरे जैसे तुच्छ सेवकको भी अपने पर मैं उन कार्योंको कर पाया हूँ जिनकी प्रशंसा करनेके हरयमें ऊँचा भासन दे रहे हैं, ऊची रष्टिये देखने लगे हैं लिये श्राप पय एकत्र हाहैं और मुझे अभिनन्दन पत्र दे और मेरे छोटे छोटे सेवाकार्य भी अब आपकी रष्टिमें बड़े रहे हैं। मेरे जीवन में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उपस्थित हुए हैं बडे प्रथया भारी महस्वके जैचने लगे हैं। और इस तरह जब सोचते सोचते अथवा लिखते लिखते मेरी बुद्धि श्राप मेरे उस सम्मानके लिये जमा हो गये हैं जिसका मैं कुण्ठित होगई. लेखनी चल कर नहीं दी और जो लिखा पात्र नहीं। दूसरे शब्दों में यह सब आपका सौजन्य है और गया उससे अात्मसंतोष नहीं हो सका। ऐसे अवसरों पर इसके द्वारा मापने मुझे अधिक भाभारी बनाया है। मैंने शुद्ध हृदयसे स्वामी समन्तभद्रका श्राराधन किया परंतु मुझे भय है कि कहीं आपके सम्मानका यह भारी बोका है--उनका स्तवनादि करके प्रकाशकी याचना की। मेरी गतिको मन्द न करदे-बोमसे अक्सर श्रादमी दब फलत: मुमे यथेष्ट प्रकाश मिला है, मेरी अटकी हुई गाड़ी जाता है और उसकी गति मन्द पड़जाती है। हो सकता है। एक दम चल निकली है, उलझने सुलझ गई हैं और फिर इसमें आपका उहश्य मेरी गतिको कुछ तेज करनेका ही जो लिखा गया है वह बड़ा ही रुचिकर, प्रभावक तथा हो जैसा कि सभापतिमहोदय और दूसरे प्रवक्ताोंने भी प्रारमाके लिये सन्तोषप्रद हुश्रा है। इसीसे स्वामी समन्तअपने भाषणोंमें इस ओर संकेत किया है कि ऐसे सम्मानों भद्रको मैं अपना नेता, मार्गदर्शक, प्रकाशस्तम्भ और आग से प्रोत्साहन मिलता है और कार्य प्रगति करता है, परन्नु ध्य गुरुदेवके रूपमें मानता हूं। वे आजसे कोई १८०० वर्ष मेरे जैसे स्वेच्छासे स्वयंसेवककी गति अब इस वृद्धावस्था पहले विक्रमकी दूसरी शताब्दी में हो गये हैं, अत: इस में और क्या तेज़ होगी वह कुछ समझ नहीं पाता ! जब सम्मानका एक प्रकारसे सारा श्रेय उन्हींको है। तक कि किसी असाधारण टानिकका योग न भिडे। हो, वे वीरजिनेन्द्र के सच्चे सेवक थे। उन्होंने अपने समय में इससे दूसरे नवयुवकोंको प्रोत्साहन जरूर मिलेगा-वे वरके तीर्थकी हजार गुणी वृद्धि की है, जिसका उल्लेख देखेंगे समाजमें सेवकोंकी कद्र होती है और इस लिये उन बेलूर ताल्लुकेके उस कनदी शिलालेख नं. १७ में "सतीर्थमं की सेवा-भावना तीब बनेगी। सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्द" इस वाक्य मेरी तो अब श्री जिनेद्रदेवसे यही प्रार्थना कि 'आप द्वारा पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके के शासनाभ्यासके प्रभावसे मेरे हृदयमें इस मान-सम्मानके अन्दर सौम्य नायकी-मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उथ कारण हर्षका संचार न होने पावे। क्योंकि मैं हर्षको भी है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय भी शक शोककी तरह मारमशत्रु समझता हूँ। नीति-शासकारों ने भी सं० १०५६ दिया हुआ है। अपनी वीरजिनेन्द्रसेवाका जो अरिषड्वर्गमें उसे मात्माका अन्तरंग-शत्रु बतलाया। उल्लेख स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्तुति विद्या' हर्षक चारमें पड़कर अक्सर मनुष्य अपनेको भूल जाता (जिनशतक) अन्धमें किया वह बवा ही मार्मिक है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० जुगलकिशोर मुख्तारका भाषण किरण ५ ] आप लिखते हैं- "सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं चापि ते हस्तावअलये कथा-श्रुतिरतः कर्णोऽचि संप्रेषणे । सुस्तुत्यां व्यमनं शिरोनतिपरं सेवेशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥" अर्थात् -- हे वीरभगवन् ! आपके मत में अथवा आपके ही विषय में मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं, मेरी स्मृति आपको ही अपना विषय बनाये हुए है-- मैं स्मरण भी आपका ही करता हूँ. पूजन भी मैं आपका ही किया करता हूँ. मेरे हाथ आपको ही प्रणामाजाल करने के निमित्त हैं, मेरे कान आपकी ही गुणकथा सुननेमें लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूपको देखने में लगी रहती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी सुन्दर स्तुतियोंके रचनेका है और मेरा मस्तक आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है; इस प्रकारकी चूँकि मेरी सेवा है-- मैं निरन्तर ही आपका इस तरहपर सेवन किया करता हूँ। इससे हे तेजःपते !-- हे केवलज्ञान-स्वामिन्! मैं तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ और सुकृती ( पुण्यवान् ) हूँ -- यह सब आपकी सेवाका ही प्रताप है। १६७ वीरजिनेन्द्र के ऐसे सच्चे एवं महान् सेवककी आराधना करके ही मैं वीरजिनेन्द्र तक पहुँचना चाहता हूँ । इसीले उनकी निरन्तर स्मृतिके लिये मैंने पहले देहलीमें समन्तभद्राश्रम खोला और उसके कोई सातवर्ष बाद सरसावा में वीरसेवामन्दिरको स्थापना की है । वीरमेवामन्दिरको स्थापनाको साढ़े सात वर्षसे ऊपर हो गये हैं। अब यह फलदार पौधा फल लाने लगा है। यदि समाजकी इस पर कृपादृष्टि रही, समाजने इसकी उपयोगिता एवं श्रावश्यकता को समझा, इसकी अच्छी देख-भाल रक्खी, इसकी जरूरियातको पूरा किया और इसे सब फोरसे सींचा तो उसे इसके सुमधुर फल बराबर चखनेको मिलते रहेंगे और यह मन्दिर समाजकी बहुत कुछ ज़रूरियातको पूरा करने में समर्थ हो सकेगा, ऐसी दृढ आशा है । ता० ५-१२-१६४३ जुगलकिशोर मुखभर मुख़्तार साहबका जीवन-चरित्र प्रबन्धक श्री दिगम्बर जैन सुकृत-फण्ड', सुमारी हमें यह जान कर महान हर्ष हो रहा है कि श्राजन्म समाज, समाजोद्धार और जैन माहित्यकी अटूट सेवा करने वाले महान आत्मा जुगलकिशोर जी जैनकी ६७ वीं वषगांठ मनाई जा रही है। आज दो दिन बाद निमंत्रण मिल रहा है नहीं तो संस्था तपस्त्रीजीकी सेवामें अपना प्रतिनिधि भेज कर श्रद्धाञ्जलि ममर्पित करती । आशा है अधिक से अधिक व्यक्तियोंने भाग लिया होगा। मुख्तार साहब एक महान आदर्श एवं त्यागी महापुरुष हैं। उन्होंने जो समाज और साहित्यकी अजोड़ सेवायें की हैं वे लेखनी में नहीं लिख सकते। आपका जितना गुण गाया जाय वह सब थोड़ा है । मुख्तार साहबकी जीवनी एक साधु वृत्तिकी जीवनी है। यह साधारण पुरुष नहीं वल्कि महान परोपकारी सीधी-साधी वेष-भूषा में छिपा हुवा एक बादलोंमें छिपे सूर्य-समान त्यागात्मा पुरुष हैं। प्रत्येक व्यक्तिको अनुकरण करने योग्य इस पुरुषकी दिनचर्या और कार्यक्रम है । इस लिये आपसे प्रार्थना है कि एक विस्तृत जीवनी छपाई जावे और लागत मूल्यमें वितरण की जावे, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी महान लाभ हो । यह जीवनी ही न रहे बल्कि धार्मिक ग्रन्थ हो जाये । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:.- मङ्गलाशासनम् --.:.-- यो जैनसिद्धान्तरहस्यवेदी भेदी महामोहमतङ्गजानाम् । हताभिमानो ललिताभिधानो महावदानोऽस्ति महावधानः॥ यस्याभिरामस्य हतश्रमस्थ महाशमास्याय॑ वचःक्रमस्य । ब्रजन्ति मार्ग महनीयभागं सदा विराग विविधा बुधेशाः।। यं जनविद्याविदिताभिरामं कामं विरामं प्रतिभाभिरामम। नमन्ति नित्यं विनुवन्ति नित्यं भजन्तिनित्यं विबुधाविबोधाः। यस्मिन कृतास्था विहताखिलास्था महाशमस्था विविधा गृहस्थाः । गुरुं न जानन्ति गुरुं कदाचित सुरेन्द्रवन्द्याछि, युगं युगं तम् ।। येनेतिहासज्ञ धुरंधरेण विदांवरेणातिमनोहरेण। हता कुविद्या निखिला, नवद्या प्रद्योतिता किश्च जिनेन्द्रविद्या ।। Madri GGopra मदमा मृगेन्द्रोऽविद्याध्यान्तकदिनकरो विमलः। जीयाज्जुगलकिशोरःमदा जगत्यां महामनासोऽयम यस्मै महान्तः स्पृहयन्ति सन्तः प्रशस्तविद्याधनधामवन्तः। प्रशस्तवादाय शिवप्रदाय हतापवादाय मनोऽवधाय ॥ अहिंसायां प्रीतिर्भवतु भवतामुन्नतिकरी भवेत्सत्यं वित्तं भवतु सुखदा सौम्य ! सुमतिः। गुरणप्रीति तिर्बुधजनमता रीतिरिह ते बुधामोदं नित्यं वितरतुतरां सूरिसुमणे! अनेकान्तः सदैकान्त-धान्त विध्वंसनोद्यतः। जीयानित्यं भवत्पाणि-पच्छायसमाश्रितः।। यस्मास्सदादाय महोपदेशलेशं विशेष विलिखन्ति लेखान्। कृतावधाना विवुधप्रधाना यशोधनाः प्राप्तमहोनिधानाः॥ पन्नालालो महावालो भवविद्यानुरागवान् । भाशास्ते मजलं विद्वन् ! भवतः सागरस्थितः।। (लेखक:-श्रीपन्नालालो जैनः साहित्याचार्यः) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा अभिनन्दन ( विद्वदूर श्री पं. माणिकचन्द्रजी, न्यायाचार्य सहारनपुर ) पण्डित जुगलकिशोरजी समाज के उपकारी हैं । वर्षोंसे वे समाजकी निःस्वार्थ सेवामें लगे हैं । पूर्वा चार्योंके समय, स्थितिनिर्णय, पूर्वाभाव, तत्कालीन परिस्थितियाँ, मन्थनिर्माण, प्रक्षेपणशोध, प्रन्थचार्य गवेषण, छापा पड़ना, प्राचीनता आदि अनुसन्धानसम्बन्धी इनके कार्य प्रशंसावह हैं, इनमें कार्य करने की लगन है । प्रन्थसूची लक्षणावली पारिभाषिक शब्द कोष बनाना ये इनके अनुपम काय हैं । ' अनेकान्त' पत्र भी गरिमापूर्ण है। दिगम्बर जैनाचार्योंके प्रति भक्ति और विशेषरूपेण न्यायसूर्य श्री समन्तभद्र भगवानकी सपर्यानुसार पण्डितजीका क्षयोपशम विशुद्ध होगया है । न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्दः, दर्शन विषयों में भी पण्डितजीको तीक्ष्ण मनीषा प्रवेश कर जाती है । सच्चरित्र और दृढ़ अध्यवसायका यह फल है । सद्गृहस्थको उचित है कि वह सर्वदा जैनशासन के प्रद्योतक ऐसे विद्वानों का सत्कार करे । पण्डितजीने वीरशासनके कतिपय प्रेमियोंका साङ्गोपाङ्ग अविकल स्वोपज्ञ उद्धार किया है । अतः कृतज्ञ समाजको इनका सम्मान करना आवश्यक ही था । "यजन् गुण-गुरून् कृतशोबशी" यों भावकके १४ गुणों में कृतज्ञताप्रधान गुण है । "अन्यदृष्टि प्रशंसा संस्तवा” को सम्यग्दर्शनका प्रतीचार बताते हुये श्री उमास्वामी महाराजने व्यतिरेक मुख पुष्ट किया है कि जैनदृष्टि नरपुङ्गवको प्रशंसा, स्तुति करना धर्मका पोषक है। "गुणिषु प्रमोद” को तो हम भावते ही रहते हैं । ६७ वें वर्ष में यह सम्मान समारोह किया गया, यह तो पहिले ही होजाना चाहिये था, अस्तु । सुबह का भूला शामको घर आगया। इसके अनुसार आज भी गुरियोंके आदर का यह मार्ग प्रदर्शन शुभ लक्षण है । इस युगमें ही बाबू देवकुमारजी, देवेन्द्रप्रसादजी, सेठ माणिकचन्द्र जी, गुरु गोपालदासजी, पंडित वलदेवदासजी, बाबू अनन्तरामजी, लालमनजी प्रभृति ऐसे नररत्न होगये हैं कि जिनके उपकारोंसे हम रोम रोम भरे पड़े हैं। आज अनुताप कर रहे हैं कि इनकी जीवित अवस्थामें ही हम कोई सम्मान प्रदर्शन का प्रकरण नहीं रच सके । 'गतं न शोचामि' अब तो यह गुणादरका प्राथ मंगलाचरण पंक्तिबद्ध होजाय ऐसी शुभ भावना है। मैं इस समारोह में घनीय परिस्त जुगलकिशोर जीका अभिनन्दन करता हूँ । परिहतजी भविष्य में उत्साहपूर्वक आचार्य परम्पराके सदुपदेशोंकी गूँज देश देशान्तरोंमें व्यापक कर देवें, ऐसी भावना भावता है । शीर्षक पहले पण्डित जुगलकिशोरजीके लेख लिखनेका ढंग यह है कि वे पहले शीर्षक लिखते हैं और तत्र लेख | शीर्षक लिखनेमें वे काफी परिश्रम करते हैं और चाहते हैं कि उसमें लेखकी रूपरेखा का पूरा निर्देश हो; जैसे वे जीवनमें पहले योजना बनाते हैं और तब उस पर कार्यारम्भ करते हैं। >+<< Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं अपने प्रति + श्रद्धाञ्जलि (श्री माईदयाल जैन, बी० ए० एल०टी० देहली) (उनका एक अन्यन्त भक्त) जिसने अपनी युवावस्थाके समस्त सुर भोगों तथा वृद्धावस्थाके विश्रामको त्यागकर तन, मन, धन से समाज, धर्म तथा जिनवाणीकी दिनरात सेवा की साहित्यिक फाइलों का जितना विश्वस्त है, जिमने निर्भीकतापूर्वक ममताहीन होकर 'ग्रंथ- और पूर्ण रिकार्ड पण्डित जी रखते हैं उस से परीक्षाएँ' लिखकर साहित्यिक जालसाजोंकी पोल खोल कहीं अधिक वे दूसरी व्यवहारिक वस्तुओंकी कर जनताकी अंधश्रद्धाको दूर कर दिया है, जिसने सुरक्षा प्राप करते हैं, यह नीचे लिखे एक अपनी ऐतिहासिक तथा पुरातत्व सम्बन्धी खोजोंसे उदाहरगामे मालूम होरहा है। साथ ही आप विद्वानों में सम्मान पाया, जिसने अपने जैन शास्त्र- कितने मितव्ययी सरल और साधु स्वभाव के प्रमाणों, तों तथा युक्तियोंस विरोधियोंको निरुत्तर सज्जन साधक व्यक्ति हैं, इसका एक कितना कर दिया, जिसने समाज तथा धर्म के ठेकदागेंद्वारा ४ सुन्दर हालका उदाहरण हैकिए गए तिरस्कारोंको अपनी सहनशक्तिसे फूलमालामों में परिवर्तित कर दिया है, जिसने लुप्तप्रायः आज कल बाजार में गेटिसोंका मिलना प्राचीन ग्रंथोंका उद्धार करके तथा पता लगा कर अमम्भव मा होरहा है और ऐसी ही बहुत सी आचार्यों द्वारा दिए हुए ज्ञानका रक्षा की है, जिसने चीजें नहीं मिल रही हैं । पण्डितजी ऐसी असंयमको परास्त कर दिया है, जिसकी जैनधर्म में विदेशी वस्तुओं के बदले अपनी मादी भारतीय श्रद्धा सुमेरु पर्वतके समान अचल, ज्ञान गंगाके समान वस्तुओंका उपयोग करते हैं। कागज के रिमों विशुद्ध तथा मागरके समान अथाह और चरित्र के ऊपर जो पंकिंग में लिपटा हुआ फीता आता चंद्रमास भी उज्वल है, जिसने भारतीय संस्कृतिके है, उसीसे आप गेटिसका काम लेते हैं। एक लुप्त पृष्ठकी रचना करने का सफल प्रयत्न १३ वर्षकी अवस्था में पण्डितजीकी शादी किया है, जिमके निस्वार्थ सर्वस्व दानके सामने हुई थी और अब आप ६७ वें वर्ष में हैं। तब करोड़पतियों के दान भी लजित हैं, जिसकेद्वारा स्वपर दहेजमें आपको जो ट्रंक मिला था, वह अभी हित लोककल्याण तथा अनप्तस्कृतिके उद्धारके उद्देश्य तक पापके पास है और भली प्रकार काम दे से स्थापित किया हुआ वीर सेवामन्दिर साहित्यिक रहा है। उसी समयकी एक श्राबनूसकी संदूतपस्वियोंका तपोवन बनकर ख्याति पारहा है, जिसके कची आपके पास है । ५० वर्ष पुरानी एक पाण्डित्य तथा सेवाओंकी प्रशंसा काव्यों में रचने तथा शिलालेखों में अंकित किए जाने योग्य है। सरसावेके दरी भापके पास है, जो अभी तक काम देरही उस कर्मठ त्यागी पूज्य पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार है। १९०५ का खरीदा एक ताला आप के इस्तेमाल में है। की श्रद्धाञ्जलि के लिये मैं छंदज्ञानहीन, अल्पमति बालक, किस कोष-बाटिकासे शब्द-पुष्प चुनकर लाऊँ? ऐमी ही उनकी बहुत सी बातों का ध्यान उनकी अमर कीर्तिके गान तो आनेवाले युगके महान करके मेरे मनमें यह कौतूहल हुश्रा करता है कि कवि ही गायेंगे। मुख्तार साहम अपने प्रति कितने कठोर हैं! उनको मेरा शत-शत प्रणाम ! Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जुगलकिशोर मुख़्तार-सम्मान-समारोहका देशव्यापी स्वागत समाजके प्रमुख पुरुषों की शुभकामनाएँ रयबहादर श्रीमंठ लालचन्दजी संठी, उज्जैन पं. जुगलनि शोर मुख्तार जैन समाज के लिये गौरवगवराजा मर सेठ हुकमचन्दजी, इन्दौर म्वरूप हैं। उनकी सेवाएँ परम प्रशंसनीय चिरस्मरणीय है। मम्मानमहोत्सव में अपने उपस्थित न हो सकने वेद गारमें-खेद है।कश्रा नहीं सकता, सफलता चाहता है। है । क्षमावाया हूँ । प्रायोजनबाम्तवमै सगरमीय है। रायबहादुर श्री नान्दमलजी, अजमेर .... पण्डितजीकी भारतीय संस्कृति और प्राचीन साहित्यकी वृद्धावस्था और अस्वायनाक कारग न प्रामक नेपर खोज प्रशंसनीय व अनुकरणं य है । श्राक लेम्ब पक्षगन. वेद है। जैन साहित्य अन्वेषण और दस-संशाधनके रहित है और श्रापने वीर सेवामन्दिर और 'अनेकान्त' जन्मदा मोम मुमताराचा स्थान सम्पार है। वे को जन्म देकर समाज में जनधमकी सच्ची जागांत करनेका दीर्घायु। जो प्रयत्न किया है और हम वृद्ध अवस्था में भी कर रहे हैं, श्रीमानमहायजी जैन. देलीउनका यह उपकार जैन समाज कभी नहीं भूल सकती। त्यन्न ..मन्न हूं, उत्सवकी सफला चारता हूँ। मेगे शुभ कामना है कि वे दं.जे.बी हों। व्र० पण्डिता श्रीमती चन्दा बाईजी, आग-- विवार श्री बाछोटेलाल जैन, रईस, कलकत्ता मुख्तार साहबका अनुपम मेवाश्रीका सम्मान मबंधा तार-हार्दिक अभिनन्दन । वे दीर्घायु हो। उचित है। रानी फूलकुमारी एम. एल. सी. चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट श्री बाबू अजितप्रमादजी लगनऊबोर्ड, बिजनौर ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध. वगग्यभाग्वृद्ध, निगभिमान, यह महोत्सव हपार्ग जातिक जीवनका चिन्हे और जिनवाणीभक्त, मापसेवक, युगवीर पं. जुगल किशोर हमारे गष्ट्रके. उचल भविष्यकी सूचना है। श्रद्धेय मुख्तार मुरुनारकी वर्षगाँटपर उत्सब परना मंवर निर्जग, श्रात्मासाहबका अभिनन्दन और संयोजकाको धन्यवाद । ननि, आत्मविकाम, जात्युद्धार, धर्मप्रचारका साधन है। श्रा. लेफ्टीनेन्ट, रायबहादुर, श्री भागचन्द सोनी पण्डित जुगलकिशरजीम जी अनुपम गुण हैं, उनका एम०एस०ए०, ओ०ची०ई०, अजमेर स्मरण, बखान, गान और अनुकरण अात्मोपकारक है। मैं इस श्रायोजनकी प्रशंसा करता हूँ कि एक बयोवृद्ध ज.जगतके पथप्रशंक. उत्साहवर्धक, श्रादर्शपुरूप, दानमाहित्यसेवीके लिये उचित सम्मानकी व्यवस्था की। चीर मुरुनारजी चिरायु हो। शुभ कामनाएँ। श्री. जीवराजगौतमचंद दोषी, शंलापुर-- दानवीर माहू शान्तिप्रमादजी, डालमियानगर जैन ममान में श्री मम्वतारजीके ममान समालोचकरराष्ट्रसे तार-उत्सवकी मफलना चाहता हूँ। मुख्तार साहब माहित्यका अध्ययन कर उसकी गहनना और महत्ताका ने साहित्यकी शोधका जो दीपक जलाया, यह ईश्वर करे, प्रदर्शक महापुरुष अन्य नहीं हुश्रा । उन्होंने अपना नन, युग युग तक पकाश फैलाता रहे । मैं उनका अभिनन्दन मन, धन माहत्यसेवा लगाया। उनका मम्मान-श्रायोजन करता हूँ। प्रशमनीय है। श्री तीर्थक्षेत्र कमेटी, श्री महावीरजी, चान्दक गांव- श्री सेठ मटकमल बैनाड़ा, आगरा प्रबन्धकारिणी कमेटी उत्सवकी सफलता चाहती है मुम्वतार माहयका कार्य अमिट है और उनके कारण और पं. जुगलकिशोरजीके दीर्घजीवन की कामना करती है। माग समाज गौरवान्वित है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनेकान्त [वर्ष ६ प्रिसिपल उप्रसैनजी, मेरठ विद्वानके सम्मानका आयोजन योग्य हाथों में है। सहारनपुर पूज्य पण्डितजी समाजकी एक बड़ी पूंजी है। श्रापका ने ला• जम्बूपमादजी, सुमेरचन्दजी, बा.सूर्यभान जी, जीवनभरका कार्य अद्वितीय है और समाजके इतिहास पं. जुगल किशारजी, बा. ज्योतिप्रसाद जी, बा. कौशल स्वर्णाक्षरों में लिया जायेगा। अन्धेरी घड़योंमें पथ-प्रदर्शन, प्रसाद जी जेसे कार्यकर्ता-रत्न और अंमती चन्द्रवती ऋषभरूदियों को भंगकर जैननत्वका प्रकाश. निर्भय हो धर्मतत्व सैन जैन, लेखनमीजी एम.एल. सी.और जयसन्ती देवी का प्रचार, जान हथेली पर रखकर अपने स्वतंत्र विचारांका जेमी विदुषियोंको जन्म दिया है। और इसके लिये सहाप्रचार श्राप ही जैसे महारथीका काम था। रनपुर को गर्व करनेका अधिकार है। मेरे जैसे कितने ही नवयुवकों को उन्होंने प्रोत्साहन देकर पं. जुगलकिशोरजी अथक परिश्रमी, सर्वस्थत्यागी, आगे बढ़ाया है। संमारके लिये जैन साहित्य और धर्मके सौंदर्य का प्रदर्शन श्री सिंघई धन्यकुमार जैन, रईस कटनी करनेवाले महान विद्वान हैं। वे अपनी शैल के विद्वानों में यह सम्मान समारोह नि:सन्देह नूतन दिशाकी भोर भी समत्तिम हैं। उनका सम्मान हमारी जा तको प्रेरणा प्रयाण है। मुखतार माहब उज्वल ज्योतिर्मान नक्षत्रकी देगा. यह विश्वास है। तरह सदैव देदीप्यमान रहें । श्री ला जगतप्रसादजी रि०अकाटेण्ट जनरल, देहलीतारमें-अनुपस्थिति के लिये खिन्न हूँ। पूज्य मुग्वतार श्रापकी भावनानोके माथ हूँ । पण्डितज के कार्यका साहब को भगवान दीर्घायु करें और उनकी महान साधना प्रशंसक है। उनकी श्री समन्तभद्र संबंधी खोज महत्वपूर्ण हमारी नई पीढ़ीको प्रेरणा देती रहे। है । जैन विद्वानों में उनका स्थान अद्वितीय है और जैन मशीरवहादुर, श्री सेठ गुलाबचन्द टोंगिया, इन्दौर- साहित्यके भारतीय एवं यूरोपीय खोपियों में महत्वपूर्ण स्थान है। हमारी समाज देरमें जागी, यरना साइित्यतपस्वी मुख- श्री कन्हैयालाल जैन,सभापत प्रो. वैद्यसम्मेलन कानपुर तार साइबका सम्मान 'मेरी भावना के प्रकाशित होते ही नारमें-उत्सव सफल हो । पं. जुगलकिशोरजीका होना चाहिये था। मेरी भावना अन्तर्राष्ट्रीय पाठकी वस्तु अभिनन्दन करता हूं। बन गई है। मैं १६२२ से इसका चिन्तन करता हूं। उन । श्री महन्त घनश्याम गिरिजी, हरद्वारकी खोजोंका सही महत्व हमें कुछ दिन बाद शात होगा। श्री जुगल किशोरजीने अपनी ऐतिहासिक गवेषण श्री श्री राजकुमारसिहजी एम० ए० F R.E.S. इन्दौर-दा द्वारा बास्तव में जैन साहित्यका बड़ा उपकार किया है । उन साहित्यसाधक, जैन वाकमयको सेवामें, अपने जीवन की निस्पृह कार्यसंलग्नता साहित्य-समाज-सेवियों के लिये " का बहुभाग लगाने वाले वोरसेवामन्दिरके सन्त, अन्वेषक पथप्रदर्शक है। पं. जुगल किशोर मुख्तारके सम्मानमहोत्मयकी अन्त:करगा दानवीर श्री सरदारीमल जैन गोटेवाले, देहलीसे सफलता चाहता हूँ। जैन साहित्यके धुरन्धर विद्वान, निहासश, पुरातत्वज्ञ, आपने वीर-मेवा-मन्दिरके लिये अपना सर्वस्व । जैनधर्मदिवाकर श्री मुख्तार साहब दोघजीवी हों। समाजको सौंप एक आदर्श उपस्थित किया है। उनका 'अनेकान्त' हमारी संग्रहणीय निधि है। राब० श्री ला०उल्फतरायजी रि० इन्जीनियर, मेरटजैन समाजका कर्तव्य है कि अपने सहयोगमे वीर सेवा जेन विद्वानों के लिये स्फूर्तिदायक, जैनसमाजके अनमन्दिरके कार्यको पूर्ण करे। मोल रत्न श्री मुख्तार साहबका सम्मानमहोत्सव सफल हो। श्रीवलबीरचन्दजी वी० ए० एल० एल० बी० रईस, सर टेकचन्द बक्शी, जस्टिस पंजाब हाईकोर्टआनरेरी मैजिष्ट्रेट, मुजफ्फरनगर मैं मुख्नार साहबके त्यागको प्रशंसा करता हूँ और यह प्रसन्नताकी बात है कि इस प्रकार एक महान उत्सबकी सफलता चाहता हूँ। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मान-महोत्सवका देशव्यापी स्वागत श्री श्रीप्रकाशजी एम० एल०ए०, बनारस पुगनत्व विभागाध्यक्ष, साहित्याचा, लगनके साथ, तत्परतासे, कार्य करना प्रशंसनीय है। श्री विश्वेश्वरनाथजी रेउ, जोधपुरमुख्तार साहब की वर्षगांठ पर उनका सम्मान करना उचित श्री मुख्तारजीके लिये मंगल कामना करता हूँ। है। सफलता चाहता हूँ । श्री नाथूरामजी प्रेमी, बम्बईहमारे विद्वानोंकी शुभकामनाएं श्रायोजन अतिशय अभिनन्दनीय है । यह इस बान का प्रमाण है कि जैनसमाज अप उन पुरुषरमको भा पहचानने लगा है, जिन्होने अनवरत परिश्रम और तपम्पा हिन्दी साहित्यसम्मेलनके वतमान सभापति, से जैनसाहित्य और इतिहासको प्रकाश में लाने और समृद्ध श्री पं० माखनलालजी चतुर्वेदी, खएडवा बनाने में अपने आपको मिटा दिया है। मेरी हार्दिक कामा तार में-पं. जुगलकिशोर मुख्नारके अभिनन्दन में पूर है कि मुख्तार साइब चिर काल तक जीवित रहकर अपने हृदयसे सम्मिलित हूँ। कार्यको सात चलाते रहें । हिन्दी साहित्यसम्मेलनके (निर्वाचित) भावी सभापति श्री जैनेन्द्रकुमारजी, दिल्ली-- विद्यावाचस्पति श्री इन्द्रजी, देहली-- मुख्तार साहबकी साहित्यसेवाएँ चिरस्मरणीय हैं और वीरपूजा जातियोंकी जीवनशक्ति का चिन्ह है । श्री जानि जीवनशकिका निजी उनका सम्मान करके समाज अपनेको कृतार्थ करता है। जुगलकिशोरजीका मम्मान वस्तुनःस्वभाषाप्रेम और निष्काम मान्य मुख्नार साहब के प्रति मेग अभिनन्दन । सेवाकी भावनाका सम्मान है। हम सबमें यह समारोह उसी प्राचार्य श्री नरदेव शास्त्री. वेदतीर्थ, ज्वालापुरभावनाका जागरण करे और पूर्णतया सफल हो। मैं मुख्तारजीका अभिनन्दन करता हूँ। श्रापन जैन विश्वविख्यात दार्शनिक भगवानदासजी काशी- साहित्यके अनुसन्धान में स्तुत्य प्रयत्न किया है। वे बधाई श्री जुगलकिशोरजी अद्भुत लगन, धुन, परिश्रम और पात्र हैं। जेनसाहित्य ज्ञान के विद्वान हैं। ऐसे सजनका सार्वजनिक श्री दरबारीलालजी सत्यभक्त, वर्धा- . श्रादर होना बहुत उचित है। मुख्तार साहबकी सेवाएं चिरम्मरणीय है।इम देशका महाकवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त, परिभाषामें वृद्ध होने पर भी उनकी कर्मटता और उत्साह अटूट है और मुझे आशा है कि वे काफी समय तक अपनी कविवर श्री सियारामशरणजी गुप्त, झाँमी सेवासि समाजको लाभान्वित करते रहेंगे। अपने सम्मानीय पुरुषोंका आदर करना हमारी श्रद्धा श्री भगवतीप्रसादजी वाजपेयी, प्रयागऔर आत्मचेतनाका सूचक है; अतथए श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारका सामूहिक अभिवादन सर्वथा उचित है। हम यह आयोजन करके सहारनपुरके साथियों ने बहुत बड़ा लोग विनम्रभावसे मुख्तार महोदय के प्रति अपना श्रादर काम किया। पिछले १५ वर्षों में इस प्रकार हमने अपने प्रकट कर उत्सव संयोजकोंको बधाई देते हैं। साधकोंका मान किया होता, तो अाज हिन्दी साहित्य अपने सर्वाङ्गमें सफल दिवाई देता । इस महोत्सवसे श्रद्धेय मरतार नागरी प्रचारिणी सभा काशाके सभापति महोदयका अभिनन्दन होगा और देश के दूसरे भागांम श्री पं० रामनारयण मिश्र जीवनभर साहित्य साधना करनेवाले वयोवृद्ध विद्वानांक, मनसे साथ हूँ । ईश्वर मुग्न्तार महोदयको चिगयु करे, सम्मानमहोत्सव मनाने की प्रवृत्ति जागेगी। मुग्न्ता मायने जिसमें हम उनके गवेषणापूर्ण कार्योसे अधिकाधिक लाभ जैनसाहित्य में शोधका कार्य कर पथप्रदर्शन किया है और उठाते रहें। उनका मानमहोत्सव भी पथप्रदर्शक ही होगा। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त [वर्ष बौद्धभिक्षु श्री मानन्द कौशल्यायन, सारनाथ तथा देश सेवामें संलग्न नवयुवकोंको साहस व मार्गकी मेरी शुभकामना आपके साथ है। मुख्तार महोदय प्राप्ति होती रहे। जैसे पूजनीयोंकी पूजा करना मंगलकारी है। प्राचार्य श्री चतुरसैनजी शास्त्री, देहली-- डा०श्री सूर्यकान्तजी एम० ए०, लाहौर मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। पाश्चात्य शिक्षापद्धतिसे सुगचित न होते हुए भी हमारे पत्रकारोंकी शुभकामनाएं अनुसंधान में पाश्चात्य विद्वानोसे होड़ लेनेवाले कुछ बिग्ले विद्वानों में मुख्तार माहवका श्रेष्ठ स्थान है। भारतीय संस्कृति और विशेषत: जैन संस्कृतिपर श्रापकी छाप अटल रहेगी। 'विशालभारत' कलकत्ताके वर्तमान सम्पादक, मैं हृदयसे उनका अभिनन्दन करता हूँ। श्री मोहनसिहजी सेंगर-- बा० श्री पी० के० आचार्य प्रयाग विद्यालय जिस देशमें जीते जी लेखकोंकी कोई पूछ नहीं होती ___सम्पूर्ण सफलता चाहता हूँ। और मरनेके बाद उनके स्मारक खड़े करने की योजनाएं प्रोफेसर श्री पं० महावीरप्रसाद मिश्र व्याकरणाचार्य- बनती हैं, वहाँ प्रसिद्ध ले.क एवं अनुसंधाना श्रीजुगलकिशोर मुख्तारो युगल: किशोर इति य: साहारने पत्रत, जी मुख्तारक सम्मानका यह स्तुत्य आयोजन कर सहारनपुर मान्यः जैनमतान्तशास्त्रनिपुण: श्रीवारसेवाग्रहे । ने हिन्दी संसारके सामने एक अनुकरणीय उदाहरण कृत्वा षष्टितमान् सुखललितान् ग्रंथान् स्वलक्षार्धकम् उपस्थित किया है। दत्वा सप्त तपेन षष्टितमके प्राप्तश्चिरायुर्भवेत् ॥ श्री जुगलकिशोरजं.ने भारतीय साहित्य, इतिहास और श्री भगवानदासजी केला-वृन्दावन - संस्कृतिको जो सेवा की है, उससे कौन हिन्दी प्रेमी पार्शचन मुख्तार साहबकी लगन, धुन और सेवाओंका विचार न होगा। उनके इस साहित्यिक तप और साधना के लिये करते हुए यह सम्मान महोत्सव सर्वथा उचित एवं हमारा रोम गेम चिरन्तनकाल तक उनका ऋणी रहेगा। भावश्यक है। वे दीर्घजीवी हो! श्री पहाड़ीजी, सहायकमंत्री हिसा०स० प्रयाग हिन्दुस्तान (देहली) के सम्पादक, ___ समारोहकी पूर्ण सफलता चाहता हूँ। श्री मुकुटविहारी वर्मा - 'भारतमेंअंग्रेजी राज्य के लेखक, श्रीसुन्दरलालजी प्रयाग मुख्तार साहबके प्रति मेग अभिनन्दन । उत्सबकी भी जुगलकिशोर मुख्तार और उनका कार्य पढ़ गया सफलता चाहता हूँ। विद्याके इस.अनन्य प्रेम, इस जबरदस्त लगन, सत्यकी खोजमें इस परिश्रमशीलता और संसारसाहित्यकी इस बहु 'देशदूत' प्रयाग) के सम्पादक, मूल्य और निस्मार्थ सेवाके लिये मुख्तार साहबके चरणों में श्री ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल'मेरा बारम्बार नमस्कार कहें। मेरी हार्दिक अभिलाषा है मुख्सार साहब पुगनं साहित्यसेवी हैं, उनका सम्मान कि उन जैसे चरित्रवान और विद्वान् प्रेमियोंके प्रतापसे वे वास्तवमें हिन्दीका सम्मान है। मुझे आशा है कि यह कृत्रिम और हानिकर दीवारें जल्दीसे जल्दी टें, जिन्होंने उत्सव हिन्दी साहित्यिकोंके सम्मानके लिये एक आदर्श सम्पूर्ण मानव समाजको जैन, अजैन, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई उपस्थित करेगा। इत्यादिके अलग,२ दलोंमें बांट रक्खा है। 'हिन्दी मिलाप' (लाहौर) के सम्पादक, श्रीमती विद्यावती सेठ बी०ए० श्री देवदत्त शर्माप्राचार्या कन्या गुरुकुल, देहरादून सहारनपुरने इस सम्मानमहोत्सव के रूपमें हिन्दीसंसार हृदयसे आपके साथ हूँ। भगवान वयोवृद्ध प्रतिष्ठित को नया पथ दिखाया है। साहित्य तपस्वी मुख्तार महोदय साहित्यिक श्री मुख्तार साहबको चिरायु करें, जिससे साहित्य को प्रणाम ! Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] मम्मानमहोत्सवका देशव्यापी स्वागत 'विक्रम' के सम्दक श्री पं० सूर्यनारायणजी व्याम, 'जैनमित्र के सम्पादक श्री मृरु.चंद वि.नदासजी ज्यातिषाचार्य, उज्जैन कापड़िया, सूरतमुख्तार महोदय जैसे क.र्मण्य विद्वानका मान वास्तव में हमारे ४० वर्ष के पुगने मित्र श्री जुगलकिशोरजी सुरभागतीकी पूजा है। वर्षों पूर्व 'अनेकान्त' में मुख्तार शतजीवी हो। उनका शान-दान और माहित्यसेवा अपरिमित महाशयके जनसाहित्य सम्बन्धी संशोधनात्मक स्वरूपसे है। उत्मव सफल हो। परिचित हो मैं श्राकर्षित हुना था । वस्तुत: जैसाहित्यकी 'खण्डेलवाल जैनहितेच्छ' के उपसम्पादक उनकी सेवाएँ बहुत मूल्यवान है। 'अनेकान्त' में उनके श्री भंवरलालजी न्यायतीथे जयपुरपापक रूपका द न होता है। वे चिरजीवी को और सााह मुख्तार साइबकी देन इतनी महान है कि उससे जैन त्यसेवासे समाजका कल्याण करते रहें। ममाज कभी उऋण नहीं हो सकता। चौकी बीज और 'प्रदीप' सम्पादक श्री जगदीश एम०ए० अनुसंधानक बलपर ग्रंथों एवं श्राचायोंके नाम्पर फैली हुई प्रायोजन नई दिशाका श्रोर प्रयाण्का सूचक है। यह भ्रममूलक धारणाओंको दूरकर मस्या दिग्दर्शन कराना ही सफल दो। श्रापके जीवनका उद्देश्य रहा है। वे साहित्यसेवक हैं और 'विश्वमित्र' (देहली) के सम्पादक, महान त्यागी भी। वे दीर्घबी हो। श्री पं० सत्यदेव विद्यालंकार जैनमन्देशके पूर्व सम्पादक श्रीव पूरचन्द जैन, श्रारराआयोजन महत्वपूर्ण है, इमसे मान्योंके मानकी ओर माननीय मुख्तार महोदयका मम्मान-श्रयान स्तुल्य हिन्दी-संसारका न श्राव.र्षित दोगा । मुख्नार साहबका है। उनकी सेवाश्रीको देखते हुए, उनके प्रति हम जितनी कार्य महत्वपूर्ण है। वे शतायु हो। भी श्रद्धा प्रकट करें कम है। वे दीर्घजीवी में। 'वीर अर्जुन'के मादक श्रीगमगोगलजी विद्यालंकार जैनप्रचारक,' के सम्पादक श्री हीरालालजी कोशलभगवान उत्सवको मफल करें और मुख्तार सादचकी यह प्रायोजन महारनपुर वालोंके लिये गौरवकी बात साधना निरन्तर गनिशील हो। है । मुख्तार साहबके गम्भीर प्रयत्न अगली पीढ़ीके लिये भी 'सावधान' (नागपुर) के सम्पादक श्रीविश्वभरप्रसादशर्मा स्मरणीय रहेंगे । इतिहासके सम्बन्धमें उनके निर्णय श्रकाइस महत्वपूर्ण प्रायोजनके लिये हार्दिक बधाई । ट्य रहे हैं और जैन अजैन विद्वानांने उनका मान किया ईश्वर माननीय मुख्तार महोदयको निगयु करें। 'आदर्श' (हरिद्वार) के सम्पादक श्री रामचन्द्र शर्मा है। वे शतायु हो। मैं श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजीको एक लेखक और श्री भोलानाथ दरख्शा, बुलन्दशहर-- मम्पादकके रूपमें बीसो वर्षोसे जानता हूँ। कई बार उनकी पं. जुगलकिशोरी तो वास्तव में इम योग्य है कि मौम्य मूर्तिके दर्शन भी किये हैं । प्रदर्शनके इम युग में उनकी दिपनिको हृदयमन्दिर में स्थापित करके उनका पचीसों वर्ष तक निरन्तर माहित्यसेवा करते हुए और अपनी गुणानुवाद किया जाये। हजागेकी सम्पदाका उमी कार्य के लिये उत्सर्ग करके भी ___ 'खण्डलवाल जैनहितेच्छ इन्दौर-- मम्मानप्राप्तिके प्रलोभनसे दूर रहना मुझे तो उनका यह मुख्तार साहब जैनमादित्य इतिहास और पुरातत्व के अत्यन्त आकर्षक लोकोत्तर गुण सदैव प्रेरित करता रहा है। अनुसन्धान में अपना जीवन समपंगा कर जैन वाड्मयकी वे युग युग जिएं। जो अपूर्व मेवा की है. वह कभी भलाई नहीं जा सकती। 'परिवारवन्धु' के सम्पादक श्री जगन्मोहनलालजी + + + + जैन ममाजका महान उपकार किया है। हम शास्त्री, कटनी-- मादर उनका अभिनन्दन करते हैं। विद्वानों के लिये अपने जीवन मे श्रादर्श उपस्थित करने 'जैन बोधक, शोलापुरवाले पुण्यशाली विद्वान मुख्नार मात्र चिरजीवी हो । मुख्तार साहब साहित्य व ऐनिहासिक क्षेत्रके विद्वान हैं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनेकान्त [वर्ष ६ xxx हम उनकी लगन, अध्यवसाय, अनुसंधानकी व्यतीत होता है। चिन्तारात्रि-दिन साहित्य क्षेत्रमं किये जाने वाले श्रमकी श्री उमरूंन जैन. एम.ए.एल.एल.बी.रोहतकप्रशंसा करते हैं। ऐस संशोधकोकीमाज में प्रावश्यकता है। अन्तम सत्यकी विजय होती । मलार मायके हम मुख्तार साहबक दार्थ जीवन की कामना करते हैं। द्वाग माहित्य और इतिहामके क्षेत्र में निर्भीकता पूर्वककी गई जैन सन्देश, मथुरा सेवाओंके प्रति यह समारोह हमारे हृदयकी भक्तिका यह सम्मान समारोह विद्वानों के सम्मानकी और एक उद्गार है। महत्वपूर्ण कदम है। श्री चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, जयपुरजैनमित्र, सूरत - मुन्नार साहब जैनममाजका प्रकाशमान निधि है। उन जैनममाजका यह परम सौभाग्य है कि उसमें आज भी के सम्मानका श्रायोजन स्तुत्य है। पं. जुगलकिशारजी मुख्तार जैसे साहित्य तपस्वी विद्वान साहित्याचार्य श्रीराजकुमार जैन, पपौगमौजूद हैं। वे श्राज अपनी वृद्धावस्थामं किसी भी युवकस मुख्तार साहबने गईगै सादि य माधनामें अपनेको खपा बढ़ कर नसरता, तन्मयता, और हनना पूर्वक काम करते कर जो नमस्कृत सिद्धि पाई, उसके प्रति हमारी श्रद्धांजाल । रा विश्वास है कि उन जैमा विद्वान विदेश में हवा कशा ही अच्छा होता कि इस अवसर पर उन्हें एक सर्वांगहोता तो उसकी सारे संमार में ख्याति होती किन्तु उन्होंने पूर्ण अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जाता। खेर, श्रविण्यमंकी जैनसमाजमें जन्मलिया है, जहां साहित्य सेवकों और धर्म, सही में श्राशा है कि ऐमा अवसर देखनेका सौभाग्य हमें समाजके लिये खपने वालांकी कोई प्रतिष्ठा नहीं की जाती। मिलेगा, सहारनपुरके वन्धुश्रोका उत्साह और व्यवमायति मुख्तार साहब शताफ हों। श्री राजेन्द्रकुमारजीका नेतृत्व इमकी साक्षी है। हिन्दुस्तान, देहली श्री पं० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्त शास्त्री, काशी-- पं. जुगलकिशोर मुख्तारके सम्मान-महोत्मवका हम यह श्रायोजन एक श्रेष्ठ परम्पराका प्रारम्भ है। अनुसमर्थन करते हैं। एक तो इस लिये कि किमी भी माहित्य सन्धान जिनका जीवनबत, बुढ़ापेमें भी जिमका पुरुषार्थ सेवीका सम्मान प्रसन्नताकी बात है। दुमरे इस लिये मुख्तार युवकोचित और जैन संस्कृति एवं साहित्यके लिये जिसका साहबने पिछले ३० वर्षसे जैनसाहित्यकी खोज श्रादिका जो मर्वस्व समर्पित, उन महानुभावका जितना भी अभिनन्दन हो, कम है। सततकार्य किया है, वह प्रशंसनीय है। और उनकी लगन श्रीसमेरचन्द दिवाकर, वकील सिवनीनई पीढक लिये स्फूर्ति दायक होगी। जिन शासनके लिये अपना सर्वस्व अर्पण करनेके साथ जैन-साहित्यके विद्वानोंकी इष्टिमें अपने जीवनको जिनवाणीकी सेवामें लगाने वाले व्यक्तियों में श्री देवकीनन्दजी शाखी, कारंजा मुख्तार माहबका स्थान अद्वितीय है। प्राधुनिक शैलीके धुरन्धर विद्वान, जैनसाहित्य की खोज श्री पं० तुलसीरामजैन, बडौतशोष और इतिहासकी सामग्रीके तुलनात्मक पद्धनिसे प्रस्तुत इस स्तुत्य प्रायोजनसे समाजके सच्चे सेवकों में प्रेरणा कर्ता विद्वर्य मुख्तार माहबका सम्मान प्रायोजन महान, और स्फूर्ति श्रायेगी। सफलता चाहता हूँ। पवित्र, मार्गदर्शक और स्तुत्य कार्य है, उन्होंने अपनी बुद्धि, श्री पं०शोभाचन्द भारिल्ल, व्यावर साहस और अयक श्रमसे साहित्यमें अभूतपूर्व कार्य किया है। मुख्तार साहबकी उच्च कोटि के लेखक जनसमाजमें समाज उनकी प्रतिभाको अपनी चीज माने और उनकी उंगलियों पर गिनने योग्य भी नहीं हैं। उनके गुण उन्हें घरोघरको संवर्धित करे। महामानवकी महिमासे मण्डित करते हैं। जैनसमाज ऐसे श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री, मथुरा-- प्रकाण्ड विद्वान, कुशल लेखक, निर्भीकवक्ता, सावधान साहित्योदारमें प्रारकी बराबरी करने वाला समाजमें संपादक और कर्मयोगीको पाकर गौरवान्वित है। उनके अन्य कोई व्यक्ति नहीं। आपका प्रत्येक क्षण साहित्यसेवामें प्रतिमेरी हार्दिक भद्धांजलि Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] सम्मान-महोत्सवका देशव्यापी स्वागत २०७ श्री पं० कृष्णचन्द्रजी दर्शनाचार्य, पंचकूला- श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, बनारस महामान्य श्री जुगलकिशोरजी वस्तुतः जैन समाजके मुख्तार साहबका त्याग और कार्य दोनों अभिनन्दनीय सर्वस्व त्यागी मेवक हैं। उनकी कोटिके मानव दुर्लभ ही है। जैनसाहित्य और इतिहास के लिये उनका कार्य सदा हैं। उनकी 'मेरी भावना' अकेली रचनाने ही जाने कितनो मार्गदर्शक बना रहेगा। विस्तृत साहित्यके उद्धारक और को ऊंचा उठाया है। मेरी दार्दिक भक्ति और श्रद्धाके समीक्षक मुहारजी अनेक दशक तक हमारे बीच में रहें। पुष्प अर्पित है। श्री पं० बालचन्दजी शास्त्री, अमरावती-- श्री पं० मक्खनलालजी, मथुरा-- मुख्तार साहबका अब तक का सारा जीवन जैन साहित्य __ माननीय मुख्तार माहवका कार्य समाजके लिये पादरीय के उद्धार, निहासकी शोध एवं समाज सुधारणामबीबीता है। उत्सवकी सफलता चाहता हूं। है। आप एक कुशल और प्रामाणिक लेखक हैं। श्रापका श्री पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, सागर सम्मान समारोह अन्य माधकोके सम्मानार्थ मार्गप्रदर्शनका मुख्तार माहरके कार्य और कठिन तपस्पाके प्रति मैं काम करेगा, यह श्राशा है। चिर श्रद्धारनन हूँ । समाराह सफन हो। श्री पं० वंशीधरजी व्याकरणाचा, बीनाश्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचाये, खुरई मुख्तार माहबका जीवन सननाध्यमायी महापुरुषका मुहार साहबकी साहित्य सेवा अवर्णनीय है उनके जीवन है। उनकी लेखनी गम्भीर विवेचनापूर्ण है। उन्होने प्रत्येक क्षणका अर्थ साहित्य सेवा है। उन्होंने समाजसे कम समाज और साहित्यी टीस सेवा की। जैन इनिहायकी से कम लेकर उसके लिये अधिक से अधिक किया है । वे । सुसंस्कृत बनाने एवं जैनसजमें विचारकता उत्पन्न करनेका शनायु हो। काफी श्रे। आपका दिया जा सकता है। श्री पं० भगवत्स्वरूप जैन 'भगवत', ऐत्मादपुर श्री पं०वंशीधरजी जैन, इन्दीरमुख्तार साहयका जोड़ मुश्किलसे ही तलाश हो सकता मुख्तार साहब एक तत्वदर्शी, सद्दार्शनिक, सग्ल, शाल है । मेरी अटूट श्रद्धाके पुष्प समर्पित हैं । सन्नापती, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, सद्धर्मानुगगी, समीक्षक महानन्याक्त हैं। समाज इस नररत्लकी योजनाओम सहयोग श्री पं० राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश' आयुर्वेदाचार्य, करेरा दे और वे दीर्घायु हो, यही प्रार्थना है। मुख्तार ताबका ऋण चुकाया नहीं जा सकता। एक दिन संसार उनका सम्मान करेगा। वे चिरायु हो। कार्यकत्रिों और संस्थानोंके उदगार श्री पं०गरचन्दजी नाहटा, बीकानेर मुख्तार साक्ष्यका कार्य महान .. दान अनुपम है. श्री सुमेरचन्दजी जैन, देहलीप्रयत्न उपादेय है, लगन सराहनीय है और सेवा अनुकरणीय इस शुभ अनुष्ठानके उपलक्ष्यमें मैं श्री मुख्तार साहब के है। वे दर्घायु हो। लिये मंगल कामना करता हूँ। श्री पं० के० भुजबली शास्त्री, आरा श्री वायूलालजी जैन, सभापति जैनसंवकमंडल,तिस्सा साहित्य महारथी मुख्तार साहब जैनममाजके सुविचक्षण मैं सेवक मंडल तिस्साकी ओरसे पंडितजीके प्रति समालोचक, गम्भीर लेखक, सुदक्ष सम्पादक और प्रामा श्रद्धांजलि अर्पण करता हूँ, और श्री वीरप्रभुसे प्रार्थना है णिक अन्वेषक है। उन्होंने भारत और विशेषत: सहारनपुर कि पंडितजी चिरायु हो। जिलेका गौरव बढ़ाया है। वे कर्तव्य परायणता, एकनिष्ठा जैन विद्याभवन, लाहौर और अदम्य अध्यवसायकी मूनि है। भावी साहित्यिकोंके शासन देवतासे प्रार्थना करते है कि श्री मुख्तार माय लिये इनका आदर्श जीवन अवश्य ही पथ प्रदर्शकका काम को दीर्घकाल तक हमारे मध्य रावकर जिनवाणीकी सेवा करेगा। करने का अवसर प्रदान करें। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अनेकान्त [वर्ष ६ श्री देवेन्द्र जैन, मंत्री जैनछात्र संघ, काशी श्री समन्दरलाल जैन मुख्तार, मुजफ्फरनगर। मैं युगबीर जीको श्राजका साहित्यिक महारथी मानता उनका जीवन समाजके लिये संरक्षणीय सम्पत्ति है। हैं। सहारनपुर इस श्रायोजन के लिये अभिनन्दनका पात्र है। मैं समारोहकी पूर्ण सफलता चाहता हूँ। श्री नन्हेमल जैन, दिल्ली श्री ज्योतिप्रसाद जैन, वकील, लखनऊमैं इस उत्सवकी सफलता अपने पूरे मनसे चाहता हूँ। श्री वीर प्रभु मुस्वतार साहबकी क्षमता, स्वास्थ्य और श्री माणिक्यचन्द्र जैन, किशनगढ़ चिरायु प्रदान करें । उत्मवके लिये शुभकामना है। श्री मुख्तार माहबकी प्रतिभा तथा धवल कीनिका श्रीमाईदयाल जैन, दिल्लीगुणगान करना ममूचे जैनममाजका परम कर्तव्य है। मेरी शुभकामनाएँ आपके प्रत्येक कार्य के साथ है। सीमामालाल जैन संगोरिया, जैन अनाथाश्रम, देहली- उत्सबकी सफलता चाहता हूँ। पूज्य पण्डितजी चिरकालतक जीवित रहें और उनकी . श्री उत्तमचन्द्र जैन, ल दनादौ (सी० पी०)सेवाप्रोसे धर्म-समाज और जिनवाणीका उपकार होता रहे। ... इस उत्सवकी सफलता पूर्ण रूपसे चाहता हूँ। हम आपके महान कार्यका हृदय से स्वागत करते हैं और वीर प्रभुसे प्रार्थना करते हैं कि वे श्री मुख्तार साहब श्री लक्ष्मीचंद्रजी जैन, गलमियानगर को स्वास्थ्य तथा चिरायु दें! मुख्तार साहब चिरजीवी हो और इसी प्रकार हमारे साहित्य तथा समाजकी सेवा करते रहें। उत्सवकी सफलता श्री रूपचन्दजी बजाज, दमोह (सी० पी०)-- धन्य है वह भूमि जिसे श्री मुख्तार साहबने अपने चाहता हूं। श्री नानकचन्द्र जैन, वी०ए० एल०एल०बी०, रोहतक कार्यक्षेत्रके लिये चुना है। मैं उत्सवकै पति शुभकामनाएँ ___उत्सव सफल हो और पं. जुगलकिशोरजी चिरायु हो। भेजता हूँ। श्री दशरथलाल जैन, दि. जैनपंचायत सिवनी श्री पुरुषोत्तममदास मुरारका, साहित्यरल, वर्धामुख्नार साहब जैनममाजके प्रकाशस्तम्भ है। उत्सवकी मैं इस पर्वपर पण्डितजीके लिये मंगल कामना सफलता चाहता हूँ और दिगम्बर जैन पंचायत कमेटीकी हूँ। तथा चाहता हूँ कि वे इसी भाँति समाज, साहित्य, ओर से तथा समस्त मध्यप्रांतकी ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि सभ्यना तथा संस्कृतिकी भविष्य में भी सेवा करने के लिये समर्पण करता हूँ। चिरायु हो। श्री वारातीलाल जैन, लखनऊ श्री अक्षयकुमार जैन, अलीगढ़-- . पं. जुगलकिशोरजी ऐसे दो ही चार व्यक्ति हैं जिनपर पण्डितर्ज.की सेवाएँ हम युवकोंके लिये 'माईल-स्टोन' हमारे समाजको गर्व है। मेरीशुभकामनाएँ आपके साथ है। हैं। मैं उनकी दीर्घायुके लिये प्रभुसे प्रार्थना करता हूँ और श्री सेठ गुलाबचंद नाथूलालजी जैन, कोटा उत्सवकी सफलता चाहता हूँ। ___ मेरी विनम्र श्रद्धांजलि सेवामें समर्पित है । उत्सवकी श्री गुलाबचन्द्र जैन, आनरेरी मजिष्ट्रेट भेलसा-- सफलता चाहता हूँ। शुभ कामना है कि वे दीर्घकाल तक जैनधर्म, जैन श्री हजारीलालजी जैन, प्रतापगढ़ राजस्थान साहित्य एवं देशकी सेवा करते रहें। ___ शतशः अभिनन्दन । भगवान श्रापको दीर्घायु करें। श्री मित्रसैन जैन, मुजफ्फरनगरश्री नाथूराम डोंगरीय जैन, न्यायतीर्थ, इन्दौर सिटी। भगवान महावीर श्री मुख्तार साहबको स्वास्थ्य तथा समीचीन धर्म, समाज एवं साहित्यकी सेवा करनेके चिरायु प्रदान करे । और वे देर तक जैनसमाजका पथलिये श्री मुख्तार साइन चिरायु हों। शतशः अभिनन्दन, न्यायतीर्थ, या करनेके चिरा करते Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण और पत्र वे : एक प्रकाशकके रूपमें ( श्री काशीराम शर्मा 'प्रषुल्लित' ) की बात है। विकास प्रेस लिमिटेडके संचा- हमीं पर छोड-उसे सरमाया न मंगायें।इसलिये पहले लक श्री. विश्वम्भरप्रसाद शर्माने मुझे प्रेससे अपने फार्मका प्रफ ३-४ बार 'विकास'सम्पादक श्री 'प्रभाकर' जी कार्यालयमें बुलाकर कहा--'ये हिन्दी प्रसिद्ध खोजी लेखक के साथ देखकर हममे उन्हें भेजा, पर जब वह लौट कर पं. जुगल किशोर मुख्तार है। एक पुस्तक छगना चाहते भाया, तो बाल और नीमी करैक्शनोंसे रंगा हुमा और हैं। आपको टाइपोंका समन्वय दिखा दीजिये !" 'सावधानीसे ठीक-ठीक करैक्शन का दूसरा प्रफ भेजिये माम तौर पर प्रेसमें विद्वान लोग आते रहते थे और की हिदायतके साथ । मापने जो करैक्शन (संशोधन) वि.ये मेरा अनुभव था कि वे मुद्रण और थे. वे बड़े माके थे। कौन मात्रा प्रकाशनके सम्बन्धमें बहुत ही कम पूरी नहीं उठी.किस प्रचरकाकोना जानते हैं, इसलिये मैंने साधारण जरासा टूटा है, कौनसा कामा धिमा तथा टाहोंके संबन्धमें उन्हें बताया, हुमा,कहाँका रैश टाइपमे भिन्न पर शीघ्र ही मुझे मालूम होगया है. कौन केट गलत है, कम्पोज़ में कि ये वैसे वृद्ध विद्वान नहीं हैं। कहाँ स्पेस मेकम-अधिक है, कपमें टाइपौके नाम और विशेषताओंसे ही कहाँ ब्लैंक जग ठीक नहीं जेंचा, वे परिचित न थे, किस टाइपके इस तरहके बहुत बारीक, छोटेसाथ कौनसा टाइप फिट या अनफिट छोटे पर प्रेस-कलापूर्ण गम्भीर करैहै, इससे भी वे परिचित थे। उन मान किये गये थे । उस प्रफको टाइपके छपे फार्म देखकर ही हममे उपन्यासकी तरह रस - उन्होंने यह भी बताया कि कौन कर पढ़ा-बाकई ऐसा भयंकर टाइप कितना पुराना है। कागजोंके प्रफीडर हमने पहले न देखा था। साइज और भांजसे भी वे भली प्रत्येक कार्मकी यही गति हुई-जप्रकार परिचित थे। भापका प्रेसज्ञान तक भाप पूरी तरह सन्तुष्ट न होगये देखकर मुझे प्रसन्नता हुई और मैंने अपनेका भार न दिया और दुबारा अपनी शक्तिभर उन्हें सन्तुष्ट करने प्रक मोगा। का प्रयत्न किया। वे प्रत्येक बातको लेम्बक अपनी राजनैतिक सेवाचोंके पूरी तरह समझानेके लिये बात कह कर, फिर 'जी, कारण विकास प्रेसको भनेक संघर्षों में पवना पड़ा, इससे जी का मधुर सम्पुट बगाकर उसे दुहराते थे, नो पुस्तकके प्रकाशनमें और भी विलम्ब होगया । मुख्तार अत्यन्त ही मधुरताके साथ उनके प्रेममें सराबोर करनेके साहबने उसकी भूमिका प्रेसको नहीं बख्शा। हो, उसकी लिये बरबस उनकी ओर खींचता था । 'समाधितंत्र' का राजनैतिक सेवाओं के कारण विलम्बका उल्लेख जरूर किया। विकास प्रेसमें छपना ते होगया हम यह चाहते थे कि वे मुफ देखनेकी जिम्मेदारी 'बनेकान्त' का प्रकाशन जब सरसावेसे ही भारम्भ -- - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त [वर्ष ६. हा, तो मुख्तार साहब मुझसे यहाँ श्रीवास्तव प्रेपमें मिल अक्सर ऐसे महत्वपूर्ण संशोधन करते हैं, जो मूल प्रतिमें कर बहुत प्रसन्न हुये और अनेकान्त' की छपाईका काम नहीं होते। भाषाके प्रवाहमें शब्दोंका फिटिंग और व्याकरणप्रेसको दे दिया। प्रेसके सारे टाइप मापने उसी तरह देखे, व्यवहारकी मावधानीसे सम्बन्ध क्रियाओंका अदल-बदल उनपर बातें कीं और जो निर्णय हुए, उन्हें प्रेयमालिकसे उनका बहुत ही मार्मिक होता है। उनके प्रफका संशोधन लिखा लिया। यह ६१ की बात है. तबसे फिर बराबर करते समय भाषा-शद्वार करनेका-सा श्रानन्द याताहै। उनकी प्रकाशन नीतिका अध्ययन करनेका अवसर मुझे मिल प्रफ-संशोधन और प्रकाशन व्यवहारमैं इतने पठोर होकर रहा है। उनके प्रकाशनकी सबसे पहली बात यह है कि वे भी वे व्यक्तिगत व्यवहार में अत्यन्त कोमल हैं। प्रेसमें उस शतें खूब कसकर करते हैं । समयकी पावन्दी, छपाईके रेट, आप पाते हैं तो सभी कर्मचारियोंसे बड़े स्नेहके साथ प्रफके नियम, सबको जहां तक खींच सकते हैं. खींचते हैं, मिलने हैं, और उनके काममें हाथ साफ न होनेपर भी और फिर कढ़ाई के साथ दोनों ओरसे उनकी पाबन्दी चाहते उनसे हाथ मिलाने में उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता। है। परन्तु जहां वे प्रकाशननीति में इतनी कठोर-दृष्टि रखते यह उनकी नम्रता और शिष्टाचारकी महानता है। हैं, वहां व्यवहारमें अमली तौर पर अत्यन्त नम्र और प्रफके साथ प्रेमको हिदायतें देनेके लिये जो पत्र वे उदार भी हैं। लिखते हैं, उनका एक अच्छा संग्रह में पास हो गया - वे अपने जीवन में अन्यन्त नियमित है. अत्यन्त व्यव- है। इन पत्रोंसे उनके स्वभावपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश स्थित हैं और अपने प्रकाशनमें भी वे वही नियमन और पड़ता है। जिनके कुछ उद्धरण यहां दे रहा हूंव्यवस्था चाहते हैं। मुझे उनकेद्वारा सम्पादित मूलकापियां ४-६-४३ के एक पत्र में उन्होंने लिखा है-'कल से देखनेका और उनमे कुछ सीखनेका सौभाग्य बराबर प्राप्त बाबू त्रिलोकचन्द्रद्वारा प्रफका माना-जाना नहीं हो सकेगा। होता रहा है--उनके प्रकाशनमें गहराई के साथ गम्भीर अत: अपनी उस योजनानुसार या तो ६ बजेकी गाड़ीस अध्ययन करनेका अवसर मिला है। इसीलिये मैं जानता हूं बाबू साहब प्रफ सरसावा पहुंचा देवें और हमें आज ही कि वे अपने प्रकाशनमें कितना परिश्रम करते हैं। दूसरे सूचित कर देवें, जिससे परसावा स्टेशनपर समयपर अपना लेखकोंके लेख चारों तरफ रंग डालते हैं। भाषाकी अशुद्धि प्रादमी पहुंच जाये और या ४ पेज एडवांस तय्यार करके वे सह नहीं सकते, शब्द-संगठन जब तक उन्हें जेंच न बराबर डाकसे प्रफ भेजा कर और जिस प्रफके साथमें मूल जाये, बराबर संशोधन किये जाते हैं और संकेत चिन्होंके कापी हुश्रा करे उसे रजिस्ट्रीसे भेज दिया करें । रेलसे प्रफ सम्बन्धमें तो इतने सावधान हैं कि हिन्दीमें उसका जोब भेजने में एक मासका रेल्वे टिकट ले लेना ज्यादा अच्छा , मिलना मुश्किल है। श्री पं. शंकरलालजीने एकबार ठीक होगा. वह बहुत सस्ता पड़ता है। जैसी कुछ योजना हो ही कहा था कि 'अनेकान्त' से लोग लिम्बना सीखते हैं। आज ही उससे सूचित कर दीजिये और प्रफ बगबर निय प्राचीन साहित्यके अनुसंधाता होने के कारण वे जानते मित रूपसे अपने वादेके अनुसार भेजते रहिये ।...." है कि लिखाईकी अशुद्धियाँप. पाठकोंको समन्वय करने में प्रफकी व्यवस्थाके लिये भाप सदैव इसी प्रकार सचेष्ट कितना परिश्रम करना पड़ता है, इसलिये छपाईकी अशुद्धि रहते हैं, पर समयपर प्रफ न पहुंचनेसे भापकी जो गति से उन्हें चिढ़ है। मैंने बराबर देखा है कि छपी हुई अशुद्धि होती है, १७-६-४२के पत्रसे प्रगट है-"प्रत्यन्त अफपढ़कर वे बेचन-से होजाते हैं। अभी वर्ष किरण के सोसके साथ लिखना पड़ता है कि भापने परसों ही प्रफ एक लेख में प्रेसकी भूजसे अशुद्ध रह गई, बस गुस्सेसे भर भेजनेका मुझमे वादा किया था, परन्तु कल भापका प्रफ गये और कहा कि यह फार्म अपने खर्च पर दुबारा छापो! नहीं पाया और न माज ही भाया है! मेरे वहां मानेका बड़ी मुश्किलसे इस बातपर राजी हुए कि प्रेस 'भनेकान्त' भी कोई असर हुमा मालूम नहीं होता। नहीं मालूम इस में भूलसुधारके साथ इसकी चमा याचना करे । सबका क्या कारण है?" प्रफ पढ़ते समय के तहीन होजाते हैं और उस समय इसी पत्र में भागे मापने लिखा है-"यदि कल भी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] किपी वजहसे प्रूफ नहीं भेजा जा सका है तो आज इस पत्र के पहुंचते ही उसे अपने किसी आदमीके हाथ भेजिये । अन्यथा यदि कल मेरे आदमीको व्यर्थ में थाना होगा तो उसका दो रुपये चार्ज प्रेसको देना होगा ! मुझे आज भी प्रूफ न आने से बहुत दुःख होरहा है । प्रेमको प्रफ फौरन लौटानेका श्रापको कितना फिक्र है, २८-८-४३ के पत्र में देखिये 33 ―――― वे एक प्रकाशक के रूप में पं० परमानन्दजी बीमार हैं। इसीसे आज इन पेजों का भी प्रूफ बा० त्रिलोकचन्दजां को नहीं दिया जा सका और मुझे आदमी भेजना पड़ा। इस वक्त ११ बज रहे हैं मैं नहाया तक नहीं और न मन्दिर ही गया हूँ । इतना अधिक कामका जोर है ।" उनकी नियमितता और कागजादिकी व्यवस्थाओंकी सतर्कताका परिचय २४-३-४३ के पत्र से प्रकट होता है. "जो आठ शीट कुछ कोने कटे हुए हैं उनके चतुर्थांश को अलग रखकर शेषको इन मह से ६२ तक के पेजोंको छापने में ले लीजिये। इस तरह छह शीटकी संख्या हो जाएगी और दो शीट चतुर्थ रिमके साथ अधिक गये हैं। उन्हें मिला देने से पूरे आठ शीट हो जाएँगे । ८ शीटोंके चतुर्थांश टुकड़े हमारे रहेंगे उन तीन अर्ध शीटोंसे अलग जो प्रथम रिमके बचे हुए हैं।" अबकी - इसी तरह ५-४-४३ के पत्र में लिखा हैबारके फाइनल प्रूफर्मे कितनी ही ऐसी अशुद्धियां पाई गई, जिनको करेक्शन करते समय नई अशुद्धियाँ कर दी गई हैं। जो पहले प्रूफमें नहीं थीं— उदाहरण के तौरपर पृ० ११७ के प्रथम कालमकी ४ थी पंक्ति में 'बल बिरिरियं' छपा था 'बि' के स्थानपर 'वि' किया गया था परन्तु करेक्शन करने वालेने उस 'बि' को तो ज्योंका त्यों रहने दिया उल्टा 'बल' शब्द के 'ब' के स्थानपर 'बि' बना दिया अर्थात् शुद्धको अशुद्ध कर दिया । मैं समझता हूं पण्डितजीकी स्मृतिका यह उतरण सर्वोत्तम उदाहरण है। जिन्हें प्रूफ देखनेका थोड़ा भी अनु भव है, वे जानते हैं कि प्रूफ देखनेके कई दिन बाद, उस छपे हुए फार्मको देख कर यह बताना कि उस दिन प्रूफमें क्या गलतियाँ थीं, असंम्भव ही है। आपकी स्मृति, सतकता और प्रबंधकताका यह कितना ज्वलंत उदाहरण है । २११ - कागजके सिलसिलेमें ही २८-१-४३ के पत्र में लिखा है — "कल जो आठ पेजका मैटर छापकर भेजा है वह २०२२ पौंडके कागजपर क्यों छापा गया है जब कि मैं २८ पौढका कागज देकर आया था और २८ पौंडका ही एक रिम पहले भेजा गया था। २२ पौंड वाला एक ही रिम था जो पेज ३५२ से ३६४ तक लगा है, उसके ८७॥ शीट ही बचे हुए थे; जो पं० परमानन्दवाले लेखके शुरूके पेजों में लग गये । श्रतः कागजको इस गड़बड़ीका क्या कारण है उसे शीघ्र ही स्पष्ट करके लिखिये । कागज आपके पास हमारा १२|| शीटकी कमीके साथ 5॥ फार्म छपनेके लिये और है, फिर आपने यह कैसे कहलाकर भेजा कि कागज नहीं रहा । उनकी हिदायतें इतनी स्पष्ट और खुली होती हैं कि भूलकी गुब्जायश ही न रहे। २-४-४३ के पत्र में लिखा है और इस फार्मकी एक कापी अधिक छापिये, जिसे माहू साहबके पास भेजना है। दो कापियाँ भेजते समय यह भी देख लीजिये कि कागज़ साफ और अच्छा डवीज़ हो। कोई कागज खराब या कम डवीज निकल जाता है उसपर छपी हुई न हांवे और जो कापी भेजें उसे अधिक मोदकर न भेजें तीन मोद देवें ।” 14... - बहुरुपी उन्होंने स्याही के सम्बन्ध में हिदायतें दी हैं। मात्राओं, अनुस्वार विन्दुमकी भूसें भी उनकी आँखोंसे नहीं द्विप पातीं। बहुत बार भूलोंके कारण वे स्वयं सरमावासे दौड़े जाते हैं—गुस्से से भरे हुए, पर वह गुस्सा उस भूलके उल्लेख तक ही रहता है, फिर वे ही हँस हँसकर बातें ! · " संक्षेप में 'सत्यं शिवम् सुन्दरम् सस्ती' यह उनकी प्रकाशन नीतिका रूप है । 'सत्य' में वे 'साधक' हैं, 'शिव' में 'समाजसुधारक', 'सुन्दर' में 'कलाकार' और 'सस्ती' में 'मुख्तार' हैं । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधमें भी निर्विरोध पण्डितजीमे मेरा परिचय (ले-श्री रवीन्द्रनाथ जैन न्यायतीर्थ, शास्त्री, रोहतक) श्री एम. गोबिन्द पाई, मंजेश्वरम् (मद्रास) क्योंकि जब तब किसी वस्तुकी ठीक २ आलो श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके साथ मेरा चना न की जाय तब तक वह श्रद्धालु लोगोंके सिवाय परिचय पहले पहल तब हुवा था, जब वे कुछ समय अन्यके द्वारा आदरणीय नहीं होती। जैन समाजमें के लिये गुजरात पुगतत्व मन्दिर अहमदाबाद में ठहरे कि प्रभावी हुए थे । मैं भी उन दिनों यात्राके समय प्राचार्य आशाधरजी सरीखे प्रकांड पंडितोंने भी जहाँ मूल मल- श्री काला कालेलकरका अतिथि था । यह सितम्बर गुणोंके मतभेदको खुल कर प्रकट नहीं किया, किन्तु १९२८ की बात है। नैगम नय एवंभूत नय आदिके द्वारा समन्वय करनेकी अपने पहले ही परिचयमें उन्होंने मुझे अपनी ही कोशिश की वहाँ पंडित जुगलकिशोरजीने ही सधे ओर आकर्षित कर लिया और मुझपर उनके साहिप्रथम निर्भीकताके साथ उन्हें आचार्योंका शामनभेद त्यिक विचारोंकी गहरी छाप पड़ी । बहुतसे लोगोंका बताया। सच तो यह है कि मुख्तार साहबने बालो नाम हम दूरसे सुनते हैं, पर मिलनेपर भारी निराशा चना कार्यके लिये अपना जीवन ही अर्पण कर दिया। होती है, परन्तु उनस मिल कर मुझपर यह प्रभाव समाजसे सांकांक्ष हो उसकी आलोचना नहीं की जा सामानकोजा पड़ा कि वे महान साहित्यिक होनेके साथ महान पुरुष सकती थी अतः मुख्तार साहब अपने सहारे खड़े हये। भी है। इस प्रथमपरिचयक बाद उनके दर्शन करनेका मुझे याद है कि एक बार मुख्तार साहब रोहतक तो फिर अबमर नहीं मिला, पर 'अनेकान्त' में उनके आये। अष्ट द्रव्यके साथ आपने शारीरिक क्रिया लेख मैं बगबर पढ़ता रहता हूँ और इससे उनकी (नमस्कारादि) को भी द्रव्य-पूजा बताया। यह पूजक विद्वत्ताके प्रति मेग मान बढ़ता ही गया है । उनके की इच्छा पर है कि वह किसी तरह द्रव्य-पूजा कर व्यक्तित्वमें विनय और विद्वत्ताका बहुत सुन्दर समकर सकता है। मुख्तार महोदयका कथन शास्त्रीय न्वय हुवा है। आधार पर था, फिर भी श्रद्धालु भक्तोंके परम्परागत संस्कारके वह विरुद्ध होनेसे उन्हें असह्य हुआ। बस पालनका प्रश्न फिर क्या था, आगे पीछे मुख्तारजी पर कटु वाग्वाणों (श्री राजेन्द्रकुमारजी दहली) की वर्षा की गई और उन्हें सभी कुछ कहा गया । मुख्तार साहबके प्रेमियोंको वह सुन कर क्रोध आया, एकबार पण्डितजी नजीबाबाद आये और कुछ मित्रों पर मैने देखा कि वे ज्यों के त्यों शान्त रहे और यह ने उनकी संस्थाकी सहायताके वचन दिये। उनसे और सब निन्दा उनकी प्रसन्नताका सागर न सुखा सकी। धनतो धीरे २ प्राप्त हो गया, पर एक मित्रके १००)रह यह सम्मान समारोह उनकी उस हंसीकी विजय- गये । पण्डितजीके अनेक पत्रोंका भी उन्होंने उत्तर नहीं घोषणा है। वे कहा करते हैं साक्टर जब आपरेशन दिया इस पर पण्डितजीने उन्हें एक रजिस्टर्ड नोटिम करता है, तो रोगीसे पुरस्कार पाता है, पर इस पुर- देदिया और मुझे कहा कि तुम्हारे सामने उसने वचन दिया स्कारसे पहले गालियां तो निश्चय ही, पर मौका लग था इस लिये तुम गवाह रहना । जब मैंने कहा कि जाने जाये, तो २-४ लातोंके लिये भी उसे तैयार रहना भी दीजिये, तो बोले यह मेरे लिये...)का प्रश्न नहीं चाहिये। यही दशा सुधारककी है। उनकी यह बात है, यह तो एक मित्रको उसके कर्तब्यकी याद दिलाना है। युवक समाज सुधारकों के लिये श्रादशे वाक्य है। बादमें शायद मामला यों ही निमट गया। ........ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसावाका सन्त (ले०-श्री मंगलदेव शर्मा, देहली) एक साहित्यिककी सहारनपुर-यात्रा तब तक अधूरी ही कमरेकी इस अस्तब्यस्तताने मेरा ध्यान अपनी ओर समझनी चाहिये, जब तक वह सरसावाके वीरसेवामन्दिर खींचा। उसी समय मेरा ध्यान वहाँ रक्खे संस्थाके रजिकी तथा उसके सन्तकी परिक्रमा न करले । यही सोच कर स्टरों पर गया । हरेक रजिस्टर सुन्दर और व्यवस्थित था। मैं एक दिन प्रात:काल सरसावाके तीर्थ-स्थानको चल दिया। इतनी साफ डाकवुक तो बहुत ही कम संस्थानों में होगी। मनमें नाना प्रकारके संकल्प-विकल्प चल रहे थे। एक भोजनके बाद पण्डितजीने मुझे स्वयं उठ कर सौंफ दी। बड़े भारी साहित्य-सेवीका साहित्य-मंदिर है, बहा भारी इतनी साफ कि एक एक दाना चुना हुआ। मुझे लगा कि ठाट-बाट होगा ! और वे पंडित जुगल किशोरजी-बस यहीं मुख्तार साहबकी अपने प्रति निस्पृहता और अपने कार्यके आकर अटक जाता था। क्या सरलतासे भेंट हो सकेगी? प्रति सचेष्टताके ये दो नमूने है। कमरा जैसे उनका प्रतिक्या वे समय दे सकेंगे। निधि है और ये रजिस्टर और सौंफ उनके कार्यके । पुस्तपाठ मीलकी इस छोटी सी यात्राको समाप्त कर मैं कानयमें खोज-सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री एकत्रित की गई है, सरसावा पहुंचा। वीरसेवामंदिरकी धवनध्वजा दूरसे ही परन्तु उसके लिये अभी पुस्तकोंकी बहुत भाषश्यकता है। दीख रही थी। सड़क के किनारे पर ही उसका मुख्य द्वार फिर भी वीरसेवामंदिरने अभी तक जो कार्य किया है, वह है। भीतर प्रवेश करने पर मेरे सारे विचार बदल गये। महत्वपूर्ण है और विशेष बात यह कि वह सब मुख्तार वीरसेवामन्दिरके इस शान्त तथा सौम्य वातावरणाने मेरे साहबकी ही एकान्त साधना, तपस्या तथा प्रारम-बलिदान हृदय पर विचित्र प्रभाव डाला। मुझे कुछ ऐसा मान का साकार रूप है। संस्थाकी जिस बासने मुझे प्रभावित हुमा जैसे मैं किसी प्राचीन सन्त माश्रममें पहुंच गया हूं किया. वह यहांकी प्रदर्शन-हीनता है। सच पूखिये तो इस और पण्डित जुगल किशोरजी तो जैसे पहलेसे ही यह संस्थामें भाज-कलका-सा संस्थापन ही नहीं है। एक जानते थे कि हम भा रहे हैं। मानो मिलनेकी ही प्रतीक्षा प्राचार्य है, यह उनका जैसे परिवार है और यहां सब में थे। हमसे वे बड़ी उम्सुकताके साथ मिले। कुछ ही परिवारकी ही तरह सरल, सरस और शाम्त है। पण बाद मुझे यह जान पड़ा जैसे हम वर्षोंके पूर्व परि- दूसरी बार पण्डितजीके दर्शन, उन्हींके सम्मानार्थ चित हैं। उनकी सरलता और विद्वत्ता सहज ही में सबको मनाये गये, सम्मान-समारोहके अवसर पर हुए। यहाँ उन अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। यह उनके स्वभावकी के दूसरे स्वरूप अर्थात् साहित्यिक रूपका विशेष परिचय विशेषता है।वीरसेवामन्दिरका पुस्तकालय देखा और पंडित मिला। जीकी कार्यप्रणालीसे भी परिचित हुना। उत्सव में सभी विचारों के विद्वान् एकत्रित हुए थे और संस्थाका भवन विशाल है, जिसे पण्डितजीने अपने उनसे बहुतसे ऐसे थे, जिन्होंने परिडतजीके कार्यका धनसे बनवाया है। इसमें हालकमरेकी बगलमें एक छोटासा मार्मिक अध्ययन किया था। अपनी वक्तृतानों में उन्होंने कमरा है. यही संस्थाके अधिष्ठाता श्री मुख्तार साहबकी उनके अथक-परिश्रम, प्रतिभा तथा जैन साहित्यके विशाल कर्मशाला है। बीचमें विधा हुमा एक गहा और उस पर अनुसन्धानकी सराहना की। चारों ओर अस्तव्यस्त पड़ी पुस्तके और कागज़ । कमरेके उत्सव चल रहा था। सबका ध्यान पगिडतजीकी बाकी भागमें भी कहीं कुछ और कहीं कुछ । यही बैठ कर भोर था, और वे मंच पर बड़े संकोचके साथ सिमटे से भाप साहित्य और इतिहासकी शोधका कार्य करते हैं। बैठे थे। जैसे उन्हें किसीने बल-पूर्वक लाकर यहाँ बैठा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ दिया है। पंडितजीकी संकोचमुद्रासे ऐसा ज्ञात होता था, भाषणकी हार्दिकता और पशिडतजी की तम्मयता मामो उन्होंने कोई भारी अपराध किया है और भाज इस उस स्थल पर पहुंच कर तो सचमुच अनुपमेय ही हो विशाल-पंचायत में उसका निर्णय होने वाला है। उनकी उठ, जब उन्होंने कहा-हर्ष भी शोककी तरह भारमाका मुखमुद्रा देख कर श्री लालचन्दजी एडवोकेटने हम कर शत्र है। मेरी प्रार्थना है कि इस सम्मानसे मुझे हर्ष न हो। श्री प्रभाकरजीसे कहा था-"पण्डितजी यहाँ बैठे है जरूर पर भीतर ही भीतर तुम्हें कोस रहे होंगे कि कम्बस्तने और इस प्रार्थनाके बाद जब उन्होंने कहा कि मैं इस सारे मान-सम्मानको, जो प्रेमवश मापने मुझे दिया, अपने को फंसा दिया है।" प्राराध्यदेव श्री समन्तभद्रको ही समर्पित करता है, तो उत्सवका कार्य-क्रम पहले दिन ५ घंटे तक चलता रहा। मुझे लगा कि इस मान सम्मानके साथ उन्होंने अपने पाप कई हजार भावमी बबी उत्सुकत के साथ सुनते रहे। अन्त को भी जैसे अपने इष्टदेवके चामि अर्पित कर दिया है। में परिडतजीसे भी अपने विचार प्रकट करनेके लिये अनुरोध किया गया। इम समय पण्डितजीके दो विभिन्नरूप एक साथ मेरे सामने थे। एक जनता द्वारा सम्मानके ऊंचे शिखरपर अब पपिडतजीकी बोलनेकी बारी थी। वे धीरे २ प्रस्थापित महामना जुगल किशोर और दूसरे अपने गुरु श्री खड़े हुए। जैसे उन पर किसीने बड़ा भारी बोझ लाद समन्तभद्रके चरणोमें लीन साधक जुगल किशोर । निश्चय ही दिया हो, जिसे वे उठाने में तो असमर्थ है ही--परन्तु पहलेसे दूसरा महान था और सच तो यह है कि साधकने फैंकने में भी बात है। ये कुछ क्षण बड़े ही मर्मस्पर्शी थे। . ही महामनाकी सृष्टिकी थी। जनता कुछ उनके मुंहसे सुननेको उत्सुक थी और पण्डित जी हाथ बाँधे मंच पर खद थे। उनका बृद्ध शरीर कांप-सा यह उनकी गम्भीर साधनाका ही फल था कि जीवनके रहा था। संकोचका ऐसा विस्मयकारी पवित्ररूप मैंने भाज- प्रारम्भमें अपने जिन विचारों के कारण वे जिन बन्धुओंके तक नहीं देखा था ! द्वारा प्रवल विरोधके भाजन हुए थे अपने उन्हीं विचारों के साथ. उन्ही बन्धुभोंके द्वारा, इसी जीवनमें, अपने ही घरमें. मैंबर रहा था, कहीं चेचमा-याचना करके ही न बैठ __ समारोहके साथ सम्मानित हुए। इस प्रकारका सौभाग्य .. जायें। परन्त पंडितजीने जो उस समय संक्षेपमें कहा बाबा m aan: म विद्वान । वह उन्हींके योग्य था। धीरे धीरे, अत्यन्तसंपतरूपसे, वे एक एकशब्द, मोतियोंकी काहीसे गुन्ध, कह रहे थे। इस असाधारणा सम्मानको पाकर भी जो नन है. संकोचने उनके कण्ठ स्वरको इतना भावप्रवण कर दिया निरभिमान है, वही तो प्रकृतिके द्वार पर महामानवताका था कि इस समय सारे महोत्सवका ही वातावरण प्रेम और प्रसाद पानेका अधिकारी है। करुणाके रससे भीगा-भीगासा हो रहा था। यह भाषण मेरा मस्तक श्रद्धासे उस सन्तके सम्मानमें झुक गया मौखिक था। बिना लिखा था, इसीसे मौखिक था, अन्यथा और तभी मैंने देखा, समारोहमें समुपस्थित हजारोहदय यह एक वम हार्दिक था। भाषणोंका यह युग है. पर इतना स्नेह, श्रद्धा और उत्सुकताकी त्रिवेणी में अवगाहन कर गदहार्दिक भाषण सुनना इस युगका अमूल्य अवसर ही था। गद हो रहे हैं। Otor Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कृपण, स्वार्थी, हठयाही" मुख्तार साहब (श्री कौशलप्रसाद जैन, व्यवस्थापक भनेकान्त सहारनपुर) यह अंक निकालनेका निश्चय होते समय मुख्तार कि मेरे हृदयमें उनके प्रति सुनी हुई धारणा हद साहबने यह शर्त भी लगाई थी कि अपने व्यक्तियोंमें होती गई। से उनपर इस अंक में कोई एक शब्द न लिखे पर अब जब कि यह अंक तैयार होगया है और भैय्या 'प्रभाकर . इसी वर्ष वीरशासनजयन्ताके अवसर पर वीर सेवा मन्दिरकी मीटिंगमें जब 'अनकान्त' के तिमाही जी'को यह महसूस हुआ कि मुख्तार साहचक जीवन होनेका प्रश्न आया और बा. छोटेलालजीने उसे का अभी तक एक कोना और भी ऐसा रह गया है मासिकही रहने देने लिये मुझे अपनी पानरी जिसपर प्रकाश पड़ना आवश्यक है तो उसके लिखने सेवाएँ 'अनेकान्त' को देनकी आज्ञा दी तो मैं बड़ा के लिये उन्होंने मुझे आदेश दिया। झिझका और मैंने अपने दिलमें सोचा कि मेरे जैसे अपने सार्वजनिक जीवनके प्रारम्भसे ही मैं प्रायः तेजमिजाज, उमडल और नियन्त्रण बर्दाश्त न कर यह सुनता रहा हूँ कि मुख्तार साहब बडे कृपण, सकने वाले व्यक्ति के साथ मुख्तार साहबकी कैसे संकुचित मनोवृत्ति वाले, हठपाही और स्वार्थी हैं। पटेगी, पर बायूछोटेलालजीके आदेश और 'अनेकसौभाग्यस भारतवर्षका भ्रमण समाप्त करने के बाद न्त' के मासिक रहनेकी प्रबल इच्छाक कारण मुझे मेरा सहारनपुर रहना अनायास ही निश्चित् होगया। चुप होजाना पड़ा। सहारनपुर रहते यह निश्चित ही था कि मैं उनके उस समयसे अब तक मैं उनके अधिकसे अधिक सम्पर्क में थाऊँ, अतः यहाँ भी और दो एक बार वीर संसर्गमें हैं और मुझे उनके जीवन और विचारोंको सेवामन्दिरके उत्सवों तथा अन्य अवमरोंपर भी बारीकीसे देखनेका अवसर प्राप्त हुआ तो मैं इस सरसावा जानेपर यह मालूम हुआ कि वहांके व्यक्ति निश्चयपर पहुँचा है कि वास्तवमें लोगोंकी उस धारणा भी उनसे नाराज हैं और शिकायत यही कि यहाँके का कारण दृष्टिभेद है। सामाजिक कार्यों में सहयोग और सहायता नहीं देते आदि। वास्तवमें मुख्तार साहबके भी कुछ जीवन-सिद्धा न्त हैं और उन सिद्धान्तोंके पालन करने के अवसरपर इसी बीचमें एक बार मुख्तार साहबने मुझे अपने प्रियमे पिय व्यक्मि भी भित्र जाने । 'अनेकान्त' के टाईटिलके नवीन डिजाइन और ब्लाक बनानेका भार सौंपा और ब्लाक बनाने वालोंकी 'अनेकान्त' के व्यवस्था सम्बन्धी कार्य के इन उपेक्षासे वह समयपर नहीं आसका तो मुख्तार साहब पांच छः महीनों में यह बात नहीं है कि मेरा उनका ने मुझपर भी नाजायज तकाजा किया जिससे मैंने भी कहीं मतभेद न हुआ हो।हुमा है और काफी हुआ उन्हें बड़ा स्वार्थी और बदलिहाज समझा। इसी है, पर उस मतभेदमें मुझे यह याद नहीं पड़ता कि तरह मैंने अपने पड़ौसके प्रेससे उनके प्रन्थ और उन्होंने कभी हटणाही या संकुचित मनोवृत्तिका परि'अनेकान्त' के छपने की व्यवस्था करादी थी तो देखा चय दिया हो । उस मतभेदमें बात उनकी चाही हुई कि उस प्रेससे ही अकसर उनका झगड़ा रहता है। इस तय हुई हो या मेरी, पर वह हुई है सर्वसम्मतिसे। प्रकार घटनाक्रमसे सारे ही साधन ऐसे जुटते रहे हम दोनोंमें किसीके वित्तमें भी कोई बात नहीं रही है Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनेकान्त [ वर्ष ६ और प्रसन्न होकर उठे हैं। यह बात हालके एक वस्तुएँ-जलानेकी लकड़ी, अचार, घी, चीनी, नमक संस्मरणसे और भी अधिक स्पष्ट हो जायेगी। आदि भी ताले में रखते हैं और वाघ दृष्टिसे देने सम्मान-समारोह उत्सवसे पहले 'मुख्तार माहब वाला व्यक्ति इसे उनकी कंजूसी, संकुचित मनोवृत्ति और उनका कार्य' निबन्धके नोट्स लेनके लिये मैं समझता है पर यह बात प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि और 'प्रभाकर' जी वीरसेवामन्दिर गये थे। वहाँ पर उन्हें यह महसूस होनेपर कि इस वस्तुकी फलाँ व्यक्ति उनसे बातचीत करने और साहित्य देखने के बाद हमें को आवश्यकता है उन्होंने सहर्ष सौंप दी है । इस यह आवश्यकता महसूस हुई कि यहाँसे कुछ पत्रोंकी प्रकार अनेक व्यक्तियोंने वस्तुस्थितिपर टीक विचार न फाइलें और पुस्तकें सहारनपुर जानी चाहिये जिससे करके अपनी गलत धारणा बनाली है। .. वहाँ ठीक अध्ययन हो सके । उन पत्रोंकी फाइलोंमें दूसरी बात यह है कि वह प्रत्येक कार्यको व्यव'जैनगजट' के पहिले वर्ष अर्थात् १८६५ सन की एक स्थित और अधिकार पूर्ण उत्तम रूपमें करना चाहते हैं फाईल भी थी। मुख्तार साहबने उसे देनेसे इन्कार इसके लिये चाहे उन्हें अपने कितने ही विश्वासपात्र, कर दिया और हमारे बहुत अधिक आवश्यकता प्रेमी और साथीका विरोध करना पड़े। साथ ही इस बताने तथा पं0 दरबारीलालजी कोटियाके यह कहने विषयमें देर-अबेर, किसीकी गजी-नाराजीकी उन्हें पर भी कि 'क्या ये लोग फ्राईल खा जाएँगे' उन्होंने तनिक भा परवाह नहीं है। यह कहा कि या तो यहीं देखलो और यदि सहारनपुर इसी प्रकार तीसरी बात यह है कि वह एक २ ही ले जाना आवश्यक है तो चलो मैं साथ चलता पाईका उचित व्यय पसन्द करते हैं और इस बारेमें हूँ। परिणाम स्वरूप अगले दिन स्वयं ही उसे साथ उन्हें अनियमितता बिल्कुल पसन्द नहीं है । सबसे लेकर आये और शामको वापिस जाते समय उसे बड़ी बात जो उनको अप्रिय बनाती है वह यह है कि अपने अनुसन्धान जैसे रूखे विषय में वह इतने अधिक साथ ले गये। मस्त हैं कि उन्होंने अपना कुटुम्ब, रिश्तेदारी, मिलना साधारण दृष्टि से देखा जाए तो हमें उनसे नाराज जुलना सब कुछ छोड़ दिया है। वास्तव में वह व्यक्ति होजाना चाहिये था कि उन्होंने हमारा विश्वास नहीं जो समाजके वातावरणसे ऊँचे उठ गया है उससे हम किया। पर वास्तवमें बात विश्वासकी नहीं उनकी यह आशा करें कि वह हमारे वातावरणमें रहकर कर्तव्य परायणता और उस फाइलकी सुरक्षा की थी। हमारा साथ दे, हमारे मरने-जीने, विवाह-शादी, उस फाइलका एक २ पन्ना हिन्दी भाषाके इतिहास पूजा-प्रतिष्ठामें हमारे साथ रहे, तो यह असम्भव है। लेखकके लिये १-१ लाख रुपयेका है और पत्रे उसके यह तो यही बात है कि हम किसी साधुसे संसारी इतने जीणं है कि उसका फट जाना असम्भव नहीं कार्यों में भाग लेने की आशा रक्खें और न शामिल है। इसी मनोवृत्तिका यह फल है कि आज वीरसवा- होने पर उसे अनागरिक कहें। मन्दिरमें बड़े २ ग्रंथों, पुस्तकों और पत्रोंकी पचास २ भार पत्राका पचास २ इसी प्रकार भारतवर्षके प्रायः प्रत्येक प्रान्तसे सालकी यह फाइल सुरक्षित हैं जो अधिकांश पत्रोंके मुख्तार साहबके पास जिज्ञासुओं के इतने अधिक पत्र उनके माफिसों में नहीं मिल सकती और हम लोगोंके आते हैं कि शायद चार लेखक मिलकर भी उनका पास तो २महीने पहले पत्रोंकी फाइल भी नसीब नहीं उत्तर नहीं दे सकते हैं फिर भी मुख्तार साहब उनमें होती। जहां तक मैंने अनुभव किया है वह अपने पास से प्रायः सभी मावश्यक पत्रों के उत्तर देनेका प्रयत्न की प्रत्येक बस्तुको बहुत ही सुरक्षित, व्यवस्थितरखना करते हैं पर उसमें देर होजाना स्वाभाविक ही है। और उसका उचित उपयोग करना और वह भी सुपात्र अतः कल भाई इसीलिये अप्रसन्न रहते हैं। के लिये आवश्यक समझते हैं। इसीलिये बड़ी २ वास्तबमें मुख्तार साहब बच्चोंकी तरह सरल वस्तुओं और मूल्यवान सामग्रीके साथ २ साधारण और वृद्धोंकी तरह गम्भीर है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजीके दो पत्र [उस्मानाबाद (हैदराबाद) के श्री नेमचन्द बालचन्दजी गान्धीने मुख्तार साइबकी विख्यात पुस्तिका 'मेरीभावना' पर कुछ गरिभाषिक शंकाएं की थी। उनके उत्तर में मुख्तार महोदयने जो पत्र उन्हें लिखे, वे उन्होंने कृपाकर इम अंकमें प्रकाशनार्थ इमें भेज दिये हैं। इन पत्रांसे मुख्तार साहबकी पत्र-लेखन-प्रणाली, अपनी हर साहित्यिक पंक्ति के प्रति सचेष्टता और ज्ञान तथा स्वभाव पर बहुत सुन्दर प्रकाश पड़ता है। अपने जीवन में पण्डितजीने इस प्रकारके सैंकड़ों पत्र लिखे हैं। अब समय आगया है कि उन सबका संग्रह हो। मुख्तार महोदयके कोई प्रेमी यदि यह काम कर सकें, तो मुख्तार महोदयके जीवनकी बहुत कीमती सामग्री मंग्रह हो जाए और साहित्यकी प्टिसे भी वह बड़े महत्वका काम हो । इम इन पत्रोंके लिये श्री गान्धीजीके कृतज्ञ है। -सम्पादक वीरसंवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर) हलकी जबानसे पढ़ा जाता है तो वह लघु होता है--गुरु ना०४-८-४२ नहीं, और भागे इसके उदाहरण भी दिये गये हैं। प्रिय महानुभाव श्री नेमचन्द बाल चन्दजी गान्धी 'छन्दःप्रभाकर' नामके भाषा पिङ्गल में भी ऐसा ही सस्नेह जयजिनेन्द्र। विधान है--- ता. २५ का कृपापत्र मिला। इस कृपाके लिये 'भाषकाव्यमें संयोगीअक्षरके कादिवासघु स्वर कहीं लघु प्राभारी हूं। कवितामें काव्य दृष्टिसे जो अटियों पाप और कहीं गुरू माना जाता है। जहांगुरूमाना जाता है वही उसकी मालूम पड़ी हैं, वे ठीक नहीं है। जान पड़ता है, किापने दो मात्रा गिनी जानी हैं और जहां लघु माना जाता है वहीं हिन्दी कविताओं को संस्कृत-काव्य-नियमोसे जाँचनेका प्रयत्न उसकी एक मात्रा गिनी जानी है। यथा, लघुका उदाहरण-- किया है, और इसीसे आप यह लिम्बनेके लिये वाध्य हुप "शरद जुन्या मोदप्रव, करत कनया रास।" हैं कि -"हिन्दी कविताओंमें अक्सर काम्यनियमोंका पालन वर्णका गुरुत्व अथवा लघुत्व उसके उचारण पर नहीं होता" परन्नु जाँचका यह तरीका समुचित नहीं है। निर्भर है, जैसा इस दोहेसे मिलू होता है-- हिंदी, प्राकृत और अपभ्रंश प्रादि भाषाओंकी कविता 'दीग्ध ह लघु कर पढ़ें लघु हू दीग्ध जान । सर्वथा संस्कृत-काव्य-नियमों पर अवलम्बित नहीं है-उन मुखसौ प्रगट सुख-महित कोविद करत बखान ॥" के अपने नियम भी हैं, जिन परसे उन्हें जांचना चाहिये। --छंद प्र. पृ. ४, संयुक्ताक्षरसे पूर्वका वर्ण मदा गुरु हो. ऐसा नियम हिंदी ऐसी हालतमें 'संयुक्ताचं दीर्घम्' इस वाक्य प्राशय श्रादि दूसरी भाषाओंका नहीं है- वह लघु भी होता है, को लेकर जो भी त्रुटियों पारने बतलाई उनमें कुछ भी सार जैसा कि कवि राजमझके पिंगलके निम्नवाक्यसे प्रकट, नहीं है, और न उनके कारण छंदोभंग होकर कोई दोषाजिसमें नियम देते हुए उदाहरणके तौर पर परिषहसह' । पत्ति ही खड़ी हो सकती है। पदके 'रि' भतरकीभोर उसके लघु होने का संकेत किया है यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि "काय वि संजुत्त-वरो वरुणो बहु होईसणेश जहा संस्कृत व्याकरणमें स्पृष्टमम्तस्थानाम्' इस वाक्यके परिवहसह चिन्तषिजं तरूगि कडस्खम्मिणिघुन्तं ॥॥ द्वारा अन्तस्थ ब (य,र,ल,व)को 'ईषम्पृष्ट माना इसके बाद कवि राजमाने 'जह दोहो विनवण्या है। जहां ये बर्ष संयोग माते हैं, वहीं संयुक्काचरम पूर्व बाहुजीहा पबद्ध होडमो विबाहु हत्यादि वायके द्वारा का वर्ण दीर्थ नहीं भी होता. इस बातको अतसागरने यह भी बताया है, कि यदि कोई वर्ष दीर्घ है और वह बशस्तिनककी टीका एक उद्धत वाक्यके बंदीभग दोषका Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनेकान्त [वर्ष ६ परिहार करते हुए बतलाया है। यथा-- बतलाते हुए भी नहीं गया यह माश्चर्यकी बात है ! 'समूह' "तथा चोक्तम् -'न तक्रदग्ध:प्रभवन्ति व्याधयः इत्यत्र शब्द हिन्दीमें रूढ है इस लिये 'दुःख' शब्दके साथ समाम "परस्पृष्टमन्तस्थानान्" इति वचनात न छंदोभंगः शङ्क- होने में कोई बाधा नहीं पाती। इसके सिवा, हिन्दी और नीयः ।" (यशस्तिलक पूर्वाधं पृ० ११८) संस्कृत शन्नोंका समाम भी होता है-न हो सकनेका संयुक्ताचं दीर्घ' के नियमानुसार 'प्रभवन्ति' पदका कोई कारण प्रतीतिमें नहीं पाता। ऐसे कितने ही उदाहरण अन्तिम अक्षर दीर्घ होना चाहिये और दीर्घ होनेसे छंदो- उपस्थित किये जा सकते हैं, जिनमें हिंदी शब्दोंके साथ भंग होता है, परन्तु भगले संयुक्ताक्षरमें अन्तस्थ वर्णक संस्कृत शब्नोंका समास पाया जाता है। रहनेसे उसका दीर्घ होना लाज़िमी नहीं रहा, और इस मैं मममताई यह उत्तर मापके पमाधानके लिये काफी लिये छदोभंगका दोष भी नहीं रहा, यही बात यहीं स्पष्ट होगा। और कोई सेवा हो तो मूचित कीजिएगा। करके बतखाई गई । इससे भी आपकी बतलाई हुई भवदीय अधिकांश वृटियां बटियां नहीं रहतीं एकको छोड़कर सभी ___ ता. २०-८-१६४२ जुगलकिशोर संयुक्तवों में एक या दो अंतस्थ वर्ण पर्व हुए हैं। प्रिय महानुभाव पीनेमचन्द बालचन्दजी गांधी, प्रिय महानभाव नीमच वृत्तरत्नाकर' में पावके मादिमें जो संयोगी वर्ण हो सस्नेह जयजिनेन्द्र । उसे 'क्रमसंज्ञित' लिखा है और ऐसा क्रमसंज्ञित वर्ण यदि प्रापका सजावपूर्ण उत्पन्न मिला, पद कर प्रमाता परभागमें हो तो पूर्वका वर्ण गुरु होते हुए भी कचित लघु हई। मेरे व्यक्तित्व विषयमें आपने अपना जो ऊँचा भाव होता.ऐसा निर्देश किया है। साथ ही, उदाहरण द्वारा व्यक्त किया है उसके लिये आभारी है। साथ ही, मेरे उम स्पष्ट करके बतलाया है। यथा समयका भाप इतना अधिक खयाल रखते हैं, इसके लिये "पादावाविह वर्णस्य संयोगः क्रमसंशितः । धन्यवाद है। परस्थितेन तेन स्यासधुताऽपि कचिद्गुरो . मेरे जिस पालोचनात्मक लेखकी भोर मापने इशारा उदाहरण-तरुण पर्षपशाकं नवीदनं पिच्छिलानि च दधीनि। झ्यिा है उसका शीर्षक है-- लेखक जिम्मेदार या मम्पा पम्बयेन सुंदरि ! प्राग्यजनो मिष्टमभाति ।" दक?' मैंने इसकी पाण्डुलिपि (मूलप्रति) को निकाल कर इस नियम के अनुसार 'सोभ नहीं मुझको भावे' इम देखा तो मालूम हुमा कि उसमें यह कहीं भी नहीं लिखा पादके शुरुमें 'को' अक्षर 'कमसंज्ञित' है और इस लिये है कि "संस्कृत काव्य-नियमोंका पालन हिन्दी कवियों को भी इसके पूर्व 'पर' शब्दका 'अक्षर उसी प्रकारमे दीर्ध नहीं करना चाहिये," और न मेरी वह समालोचना 'संयुक्ताक्षर है. जिस प्रकार कि ऊपरके उदाहरणमें 'ग्राभ्यके' पूर्व 'सुंदरि' मे पूर्वका अक्षर दीर्घ होनेके नियम पर ही अवलम्बित थी,' शब्दका 'रि' मार दीर्घ महीं है। अतः इस दृष्टिसे भी जैसा कि भाप लिख रहे हैं। उसमें इस नियमका उल्लेख दी होकर चोभंग होनेकी भापति म्यर्थ ठहरतीहै। तक भी नहीं। वह लेख अनसन्देश (२.मा मन बरही शेष दो भापत्तियाँ; 'या उसको स्वाधीन १९३८के बादके किसी अंकमें) प्रकाशित हुआ। फिर कहों इस चाणमें मुझे दुर्गेधता कुछ भी मालूम नहीं भी मैं संस्कृत काम्यनियमोंके पालनका विरोधी नहीं है, होगी। स्वाधीन कहों स्थानमें जो मापने 'कुछ और कहो' उनका पूर्णत: पालन यदि हिन्दी कवितामें किया जाता है सुमाया। वह मुझे ऊँचा नहीं-'स्वाधीन' पदमें जो भयं- तो मेरे लिये उसे अनादरकी दृष्टिसे देखनेका कोई कारण गौरव है और महत्वका भाव सविहित है वह कुछ और नहीं हो सकता। मेग तो इतना ही कहना है कि हिन्दी कहो' में नहीं पाता। इसी तरह 'दुख समूह' के स्थान पर काव्यसाहित्य सर्वथा सस्कृत-काग्य-नियमों पर अवलम्बित 'दुःख निय' कर देनेकी बात भी मुझे नहीं ऊँची। 'समूह' नहीं है-उसके अपने भी नियम है, जिन्हें सर्वथा उपेक्षशब्दकी अपेक्षा 'निचय' शम्ब कितना दुर्गेध और अप्र. खीय नहीं कहा जा सकता। जांचके समय उन पर भी पबित है, इस पर भापका ध्यान 'स्वाधीन' पदको दुर्बोध ध्यान जरूर रखना चाहिये और इस खिये मैंने पूर्वग्नमें Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर २] जो चाधार दिये हैं उनसे न तो यह लाजिम आता है कि 'संस्कृत काव्यनियमों का हिन्दीमें पालन करना निषिद्ध हैं' और न उनके देनेका वैसा कोई अभिप्राय था । अपवाद भी एक प्रकारके नियम होते हैं और उन्हें सर्वथा उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। पिंगलके रचयिता कवि राजमल हिन्दी या अपभ्रंश भाषाकी अपेक्षा संस्कृत भाषा ही अधिक तथा बहुत बड़े कवि थे. और इस लिये उनके वचनोंको यही उपेक्षाका दृष्टिसे नहीं देखा जासकता । 'रागद्वेष' श्रादि जिन पांच पदोंका आपने उल्लेख किया है उन्हें पत्र में 'क्रमसंज्ञित' बतलाया भी नहीं गयाक्रमसंज्ञितका एक ही उदाहरण उपस्थित किया गया था, और वह 'सोभ नहीं मुकको आवे' पदमें प्रयुक्त हुए 'सोम' शब्दका 'हो' अक्षर है 1 -- प्रस्तुत कविता में १६, १४ मात्राओं पर यति हैआठ पर नहीं, और हम लिये यतिभंगका दोष भी नहीं है । अस्तु । आपके प्रेमभरे पत्रोंसे मुझे दुःख भला कैसे हो सकता है ? मेरा तो इन पत्रपरमे आपके प्रति बहुत आदर बद गया है। आप विद्वान हैं, विचारवान हैं और सद्भावनाओं से सम्पन है । ऐसे सज्जनोंकी तो मुझे सदा तलाश रहती है । आप मेरे कार्यों में बहुत कुछ सहायता पहुंचा सकते हैं। इस समय मेरा आपसे सिर्फ इतना ही अनुरोध है किआप 'अनेकान्त' पत्रको अपनाएँ, उसकी प्रत्येक किरयामें कोई-न-कोई लेख बराबर देते रहनेका हद संकल्प करें । अनेकान्तको गवेषणापूर्ण तथा प्राध्यात्मिक लेखोंकी बड़ी पण्डितजीके दो पत्र ७ -- ज़रूरत है। यह विद्वानोंका पत्र है. विज्ञानोंके सहयोग से ही इसे इच्छानुसार ऊँचा उठाया जा सकता है। मैं चाहता हूं इसे जैनसमाजमें ही नहीं किन्तु लोकमें 'कल्याण' जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और यह अजैन- -जनताका भी हृदयाल्हादक बने उसे अपनी ओर आकर्षित कर सकें। परंतु यह तभी हो सकता है जब इसे भाप जैसे विद्वानोंका सच्चा सहयोग प्राप्त होवे । विद्वानोंके सहयोग के बिना सम्पादक अक्षा क्या कर सकता है ? मेरे ऊपर संस्थाके दूसरे कामोंका भी कितना भार है और कितने गुरुतर कार्य मेरे सामने हैं. इसे आप स्वयं समझ सकते हैं। ऐसी हालसमें विद्वानोंके यथेष्ट सहयोगके बिना मैं 'अनेकान्स' को इच्छानुसार ऊँचा नहीं उठा सकता हूं। यदि आप जैसे कुछ विद्वान 'अनेकान्त' को अपनी सेवाएँ अर्पण कर देवें और यह गाव निश्श्रय कर ले कि हम अनेकान्तको ऊंचा उठाकर और एक आदर्श पत्र बनाकर छोड़ेंगे तो यह सहजहीमें ऊँचा उठ सकता और एक आदर्श पत्र बन सकता है । आशा है आप मेरे इस निवेदन एवं अनुरोधपर ज़रूर ध्यान देंगे और मुझे निराश नहीं करेंगे। मैं इसके लिये आपके तात्कालिक वचन और उसकी शीघ्र ही कार्यमें परिणतिकी प्रतीक्षा करूँगा । २१६ शेष कुशल मंगल है। योग्य सेवा लिखें और कृपादृष्टि बराबर बनाये रखें। भवदीय जुगलकिशोर १२ वर्ष बाद ! एक सज्जनने अपने भाई के लड़के को गोद लिया, पर उसकी सम्भवतः रजिष्ट्री न हो सकी। अपने दत्तक पुत्रके रूपमें उन्होंने उसकी शादी की, पर बाद में वे अपने उस दत्तक पुत्रसे नाराज़ होगये और उन्होंने उसे अपना दत्तक पुत्र मानने से इंकार कर दिया। इसपर मुकदमेबाजी शुरू हुई । उन जानने विवाह के समय मुक्तार महोदयको एक पत्र मिला था कि मैं अपने दत्तक पुत्र अमुकका विवाह कर रहा हूं, आप चाँदीका मौड़ भेज दें । १२ वर्ष बाद आपके पास वह मामूखी पत्र सुरक्षित बा और दत्तक के पक्षमें एक सुदृढ़ प्रभाव सिद्ध हुवा। C Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्वरकी ज्वालामें जलते हुए भी श्रीमती प्रेमलता 'कौमुदी', बिजनौर अपमानके बदले आशीर्वाद श्री मास्टर जी०सी० जैन 'स्वतन्त्र', सिरौंज इम घटनाको बीते एक सालसे भी अधिक हो बात १४ साल पुरानी है, जब कि बचपनका चला, पर आज भी यह मेरे मानम पर स्मृतिकी अल्हरूपन, फूलकी खुश्बूकी तरह मेरे जिस्मके राम तुलिकासं नये चित्र सी खिची हुई है। रोममें इठला रहा था। अगस्त १९४० को मैं स्याद्वाद विद्यालय काशीकी दीवारसे सटे हुए नलम झुक बुबारकी हवा-सी चल रही थी, यहां बग्वार, वहाँ कर पानी पी रहा था कि अधेड़ उ, स्वस्थ देहधारी बुम्बार । हरेक घर में कई कई पलंग छि थे। और एक मनुष्य, जिससे मैं नावाकिफ था, आकर कहने बुखार भी ऐसा कि जिसे आता, हिला देता था। लगा-' ! थोड़ा पानी हमें भी पिला दो।" मुख्तार साहब पर भी उसकी नजर पड़ गई र बस पता नहीं मुझ पर क्या भूत सवार हुवा। तुनक १०५! मुझे भी बुखार चढ़ा था, कोई सहायक न था, · कर मैंने कहा-"खुद पीलीजिये आप ! मैं क्या आपका हरेक स्वयं सहायताका ही पात्र था। नौकर हूँ, जो आपको पानी पिलाऊँ ?" जवाब क्या था, पानीके प्यासको डला मारना उस दशामें मैंने मुख्तार साहबको देखा था, पर उस मनुष्यका दिल दरियाके समान उदार थर्मामीटर कहता था-ज्वरकी ज्वाला और पण्डित था, बिना गुस्सा किये, मुस्करा कर उस मनुष्यने मन जीका मुख कहता था-माधककी सहिष्णुता । शरीर लुभावने मीठे शब्दों में कहा--"frय बालक, मैं तुमसे और मन एक दम जैसे अलग २ हो गये थे । बहुत खुश हुआ कि तुमने निडर होकर जवाब दिया। शरीरको उनके बुग्वार था और मन स्वस्थ-इतना जो निडर नहीं, वह जीवनमें कुछ नहीं कर सकता, स्वस्थ ाक वह रागा शरारका मा बहुत दूर तक अपन पर एक बातका ध्यान हमेशा रखना कि जब तुम साथ ले चलता था। पण्डितजीने इस दशामें भी किसीको जवाब देने गोनोममें च न अपनी जिम्मेदारियाँ न छोड़ी थीं और सबकी चिन्ता जरूर विचार लेना। तुम ऐसा कर सकोगे, तो देश किये जा रहे थे। बीच २ वे दूसरोंको धीरज बन्धाते और समाजकी अच्छी सेवा करोगे और नाम जाते थे, जैनधर्मका उपदेश इस समय भी जारी था। पावोगे।" अपनी चिन्ता उन्हें न थी, दूसरोंका कष्ट कम हो, । मैं अपनी गलती पर बहुत शरमाया और माफी यही प्रश्न उनके सामने था। माँग कर उस मनुष्यके पैरों में गिरने लगा, तो मुझ उनके उस रूपका स्मरण जब मैं करती हैं.मझ उठा कर उस मनुष्यने छातीसे लगा लिया और लगता है कि जैन-जागृतिका वह संदेशवाहक, अपनी कहा-“बचपन में तो ऐसा होना कुदरतकी देन है।" त्याग-तपस्याकी नींव पर आदर्शोका महल खड़ा करने यह मनुष्य माननीय श्री पं० जुगलकिशोरजी वाला वह धुनी साधक, जीवनकी कलाका महान मुख्तार थे। उस दिनके बादसे मेरे जीवनमें सदा कलाकार मेरे पास ही खड़ा मुझे आशीर्वाद दे सुख शान्ति रही है और मेरा यह विश्वास है कि यह सस वयोवृद्ध साहित्यसेबीके आशीर्वादका ही फल है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहबके परिचयमें (श्री ज्योतिप्रमाद जैन, विशारद बी० ए० एल०-एल० बी०, लखनऊ) लगभग बीम वषकी बात है । मैं ९-१० वर्षका ताएँ "मीन संवाद" और "अज सम्बोधन" बड़े बालक ही था। मेरठ शहरमें एक वेदी-प्रनिष्टा-महोत्सव भावुक ढंगसे सुनाने लगे। बस्थित ताथे स्थानके था। उमा अवसर पर वहाँ सुधारवादियोंका भी एक शून्य कोने में सन्ध्याक अन्धेरेमें कवि अपनी मुख्तार साहिबक सभापतित्वमें एक जल्सा हुश्रा। कविता स्वयं भाव पूर्ण ढंगमें सुनायें-और सुनने किन्तु जल्समें हो हुल्लड़के कारण इच्छा रहने भा मैं वाले मूक गद्गद् सुनें । यही भास होता था कि जाल पूज्य मुख्तार साहिबको न चीन्ह सफा । हाँ हृदय पट बद्ध निरपराधी मीन स्वयं ही बोल रहा हैपर एक भव्याकृति, श्वेतकंश, खद्दरधारी, गम्भीर मुख "सोचूँ यही क्या अपराध मेग, युजुगेकी अस्पष्ट सी स्मृनि बनगई। न मानवोंको कुछ कष्ट देता !" उसके दो वर्ष पश्चात हस्तिनापुरके कार्तिकी मेले और अपने संवादके बहाने प्रस्तुत सांसारिक पर फिर सुधारक दलने एक जोरका आयोजन किया। मुख्तार माहिब ही सभापति थे। दस्सा पूजा सम्बंधी दशा और हम मानव कहाने वाले पशुओंकी मनोवृत्ति प्रस्ताव पर जोरकी विरोधाग्नि भड़क उठी । वहाँ भी का सजीव चित्र खींच रहा है। मुख्तार साहिबको पाससं देखने और चीन्हनेकी संबोधन 'की करुणाभरी यह पुकार आज इच्छा हृदयमें दबीकी दबी रह गई। भी मेरे कानोंमें गूंज रही है१६३६ में हस्तिनागपुरके कार्तिकी मेल पर मुख्तार 'आई' भरी उसदम यह कह कर साहिब भी आये हुए थे तब उनके साक्षात्कार का हो कोई अवतार नया, सौभाग्य प्राप्त हुआ। बड़े प्रेम और मरलताके साथ महावीर के सदृश जगत में मिले । कई घंटे साथ रहा । रुचि देखकर 'अनेकान्त' में लेख लिखने के लिये आपने मुझे विशेष प्रोत्सा फैलावें सर्वत्र दया !! हित किया, प्राग्रह किया, प्रकाशित करनेका आश्वा कविता पाठमें तल्लीन उनकी उस दिनकी यह सन ही नहीं दिया, वरन अपनी इच्छा प्रकट की। आकृति अक्सर मेरी स्मृतिमें उतर आती है और हम तीन व्यक्ति उस समय वहाँ थे। टहलते हुए मैं सोचने लगता है कि उनकी कविता, उनकी खोज, बातें हो रही थी। मुख्तार साहिबके संकेत पर एक उनका सम्पादन मब एकही उद्देश्यको लेकर चला जगह घासपर हम तीनों जने बैठ गये और मुख्तार है-जैनसमाज जागे, भगवान महावीरके सन्देशको साहिब मेरे आग्रह पर हालकी ही स्वरचित दो कवि- समझे और नवीन विश्वके निर्माण में भागले । उनकी संस्था-नीति ...... पण्डितजी एक आदर्श संस्था-संचालक हैं, पर संस्था-संचालनकी वह कुंजी उन्हें नहीं पाती, जो दुमरे चन्दा-चक्रवर्तियोंको हप्तामलक हैं। वे प्रदर्शनका खो न बढ़ाकर, और कम खर्च करने की ही नीति रखते हैं। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेहमानके रूपमें (श्री लाला ऋषभसैन जैन, सहारनपुर ) उस दिन मैं बाहर से आया, तो देखा कि भाई क्यों कि वे किसीको कोई कष्ट नहीं देते । उनकी जरूप्रभाकरजी हॉल कमरे में बैठे एक बहरधारी वृद्धस रतें बहुत ही कम हैं और वे खुद ही उनकी व्यवस्था बातें कर रहे हैं। मैं उनके पामसे होकर, विना इधर कर लेते हैं। आकर्षित हुए भीतर चला गया। भीतर जाते ही विद्वत्तार्क वे विन्ध्याचल हैं और नम्रताक पाताल मालूम हुआ कि वे खहरधारी सज्जन पं० जुगलकिशोर उन्होंने अपने जीवनमें दूरके इन दो कोनोंको बड़ी जी मुख्तार हैं, तो मुझे अपने व्यवहार पर बहुत सुन्दरताके साथ मिला रहा है और तभी तो संकोच हुआ। तुरन्त लौट कर मैं पण्डितजीस मिला, वे सच्चे अर्थोंम युग-बीर हैं। पर पण्डितजीकी किसी बातसे भी यह सिद्ध न हुआ कि उन्होंने मेरा या पाससे निकल जाना फाल किया। बड़े अच्छे हैं पण्डितजी वे असलम निरभिमान और सरलताकी साक्षात् (कुमारी श्री शारदा जैन, सहारनपुर) मूर्ति हैं। एक ऐसा आदमी, जिसने 'अनेकान्त' में मुख्तार पण्डितजी जब कभी दो दिनके लिये भी बाते साहबको बड़े २ विद्वानोंसे इतिहासकी किसी गुत्थी हैं तो अपना छोटामा बिस्तर माथ लाते हैं कि किमी पर बहस करते देखा हो, कहीं गस्तेमें अचानक को कष्ट न हो। उनका बिस्तर एक टाटमें लिपटा बन्द गलका पट्ट या माटी खादीका कोट और रहता है और उसे देखकर मेरी छोटी बहन सुधा बहत । मामूली धोती पहन, और अपना झोला लिये जाता, हंसती है। या प्रेसके बाहर अपने लेखका प्रफ पढ़ते देखे, तो वह हम बच्चोंमे पण्डितजी खूब बातें करते हैं और अनुमान नहीं कर सकता कि ये दोनों रूप एक ही उनसे बातें करनमें हम सबका मन खूब लगता है। आदमीके है। मुख्तार महोदय असलम समुद्रको तरह उस दिन मैं उन्हें भोजनके लिये बलाने गई. तो मैंने गम्भीर हैं। पूछा कि आप क्या क्या माते हैं ? पण्डित जीसे बातें करने में बड़ा लुत्फ आता है। हंस कर बोले-"म्यानेकी सब चीजें खाता हूँ।" वे अपनी खूब कहते हैं और दूसरेकी खूब सुनते हैं "आलू भी खाते हैं ?" और कहने में भी हमते हैं और सुनने.. भी। "हाँ, आलू भी खाता हूँ । क्यों ?" ___ इधर बराबर जब वे सहारनपुर पधारते हैं, तो "शास्त्र में तो लिखा है कि पालून खाना चाहिये? 'मेरी कुटिया भी पवित्र हो जाती है, पर हमें कभी "कौनसे शाबमें लिखा है?" यह अनुभव नहीं होता कि वे मेहमान हैं। वे स्वयं मैं शास्त्र क्या बताती। मैंने तो बूढ़ी अम्मामे इतने बेतकल्लुफ हैं कि कोई अनजान आदमी उन्हें सुना था। इस पर उन्होंने एक श्लोक सुनाया और यहाँ देख कर मेहमान नहीं कह सकता! बच्चोंको भी उसका अर्थ बताया, कि यन्त्रसे बनाया, नमक खटाई उन्होंने अपने प्रेममें ऐसा मोह लिया है कि आते ही मिलाया, हिंसा रहित हरेक पदार्थ भक्षणीय है। इसी उन्हें घेर लेते हैं और उनके पीछे भी अक्सर उनकी प्रकार वे हरेक प्रश्नका बहुत खुश होकर उत्तर देते बातें करते रहते हैं। मेग खयाल है कि वे किसीके हैं। बड़े अच्छे हैं पण्डितजी। यहां महीनों भी मेहमान रहें, तो वह ऊब नहीं सकता, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादककी ओरसे - यह अङ्क पपर एक विशद मालोचनात्मक लेख म लिख सका। दुसरे अनेक विद्वानोंपे मैंने ऐसी प्रार्थना की, पर सफलाना श्री जुगलकिशोर सम्मान समारोहकी सूचना प्रकाशित न मिली। फिर भी पण्डितजीके कायंका महत्व स्पट हमारे होते ही जब देशभर विद्वानों की शुभकामनाएँ भाने लगी, पाठक समझ सकें. ऐसी सामग्रीस में है। तो मनमें पाया कि इन सबका एक स्थानपर संग्रह हो जाये और इस दृष्टिमं 'श्रनेकान्त' का एक विशेषाङ्क प्रका- कागजके इस अकालमें सन्देशी शुभकामनाओं और शित गनेकी बात मनमें पाई। 'अनेकामत' के व्यवस्थापक टिमियोंको ज्योकात्यों बना सम्भव था इसलिये उस श्री कौशलप्रसादजीने इसे पसन्द किया और सम्मान में काट छांट करनी पड़ी। यह काम कठिन भी था. दुस्खद समारोहकी सूचना साथ इमकी भी विज्ञप्ति दिसम्बरके भी था हरेककी हरेक पंकि.में पण्डितजीके प्रति प्रेम भरा था अङ्कम देदी। जब उनका प्रफ पण्डितजीके पास पहुंचा तो पर मेरे लिये भी मज़बूरी थी. यह जानकर व सब भाई कुछ न पूछिये । बहुन नागज़ हुए और उन दोनों विज्ञ. मुझे क्षमा करेंगे, ऐसी भाशा है। पब साथियोंकी सद्धाप्तियोंपर लाल कलम फेरनी । साथ ही यह हुक्म कि बनाम समृद्ध यह समारोह-प्रतः हममें अपनोंको जाननेअनेकान्तमें इस समारोह के सम्बन्धमें कुछ नहीं छप माननी प्रवृत्तिले यही मेरी भावना है। सकता। हाँ मुझे मम्पादकीये हटा दीजिये और फिर चाहे जो छापिये । हम दोनों परमावा गये, पर कौशल- अनुमान प्रसाद की सारी तर्कशक्ति फेल होगई । अन्त में मैंने पिछले अगम्न मान्दोलनमें जब जेल गया तो अपनी अपना ब्रह्मास्त्र निकाला-'बालक' का 'जयन्ती-धंक', पानीकी मायके कारगा मनमें कुछ उत्साहन था. इसलिये जो बालक सम्पादक श्री रामलोचनशरण बिहारीजी की वहाँ का अधिकांश समय इस बार चिन्तन में ही बीता। स्वर्ण जयन्ती पर निकाला गया था। इस पर भी प्रापने एक सप्ताह मौन रहकर मैंने अपने जीवनकी अबतककी हो न की. बस चुप होगये और इस प्रकार इसके सम्पादन भूलोपर विचार किया और एक सप्ताहमें ऐसे कार्योंकी सूची का उत्तरदायित्व मुझ पर भागया। बनाई, जिन्हें अवश्य करना चाहिये। इस सूचीमें सबसे इस उत्तरदायित्व निर्वाह में मुझे कितनी सफलता निर्मल मोहिनी सफलता पहली बात यह थी कि महारनपुर जिलेके चार महान मिली, यह विद्वान पाठक बनलायेंगे । मैं इतना ही कह । जीवन-माधोंका सार्वजनिक सम्मान हो । श्री बाबू सकता है कि इसे उपयोगी बनानमें अपनी शक्तिभर मैंने सूरजभानजी वकील, श्री पं. जुगल किशोर मुख्तार श्री मेहनत की और मेरा विश्वास है कि इसमें पाठकोंको न स्वामी सत्यदेवजी परिव्राजक और श्री पं० नरदेवजी शाखी केवल सम्मान समारोह का दर्शनानंद मिलेगा, पण्डितजीके वेदतीथ, ये वे चार साधक हैं। जोवन-कार्यकी एक झांकी भी वे पायेंगे। भगवानको कृपा और साथियोंके सहयोगसे एक काम इसी बीच हिन्दी-साहित्य सम्मेलनको स्थायी समिति पूर्ण हुमा-यह श्री जुगलकिशोर-सम्मान-समारोह! यह ने सभापतिके निर्वाचनको अनियमित घोषित करनेका वह जितना सफल हुआ, वह कल्पनातीत है, पर उसका रावणी निर्णय कर दिया, जिससे मारा हिन्दी-संसार सुब्ध वास्तविक श्रेय, पब माथियोंका मम्मान करते हुए भी, हो उठा और मुझे उसके विरुख भामरण अनशनकी मुझे लगता है कि पण्डितजीकी जीवनव्यापी तपश्चर्याकोही घोषणा करनी पड़ी पर मेरा अधिकांश समय उसमें है। भाई कौशलप्रसादजीके साथ जब यह प्रस्ताव पण्डित लग रहा है, इस कारण मैं इस अवमें पण्डितजीके साहि- जीके सामने मैंने पखा, तो उन्होंने इसका विरोध किया Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त [वर्ष ६ में होगा। और जब हमने ज़िद की, तो आप बोले कि अच्छा नुम दादा भाई हैं. इसमें सन्देह नहीं पर हिन्दीके वे आदिम करो पर इस तरह करो कि मुझे उसमे पाना न पड़े। पत्रका में है. यह भी हम नहीं भुला सकते. इसलिये उन हमने हंसकर पूछा -क्यों ? तो बोले-वहाँ और क्या की हीरक जयन्ती में जैनसमाजके साथ सारा हिन्दी संसार होगा, बम नुम मेरी झूठी सभी तारीफ करांगे और अपनी भाग लेगा, यह असन्दिग्ध है। तारीफ सुननेमे नीच गोत्रका बन्ध लगता है। बड़ी यह जयन्ती कहां मनाई जाये यह भी एक प्रश्न है, मुश्किलमे आप उसमें पानेको राजी हुए। वास्तवमें इस उनका कार्यक्षेत्र देवबन्द रहा है, वहाँ यह उत्सव हो, यह निस्पृह साधनाके बलने ही कल्पनाके हम बीजको यह मेरी इच्छा है. देहलीके केन्द्र में हो, यह भी एक प्रस्ताव भारत व्यापी विशाल रूप दे दिया। है और क्योंकि बाबृजी आजकल प्रयागमें हैं. बीमार है इस उत्सवको कई अपनी विशेषताएँ थी। यह पण्डित एव वहीं हो. यह हमग प्रस्ताव है। जो निर्णय होगा, जीके अपने जिले में मनाया गया, उन लोगोंने भी उसमें पत्रों में उसकी घोषणा की जायेगी। श्रद्धासे भाग लिया, जो कभी विचारभेदके कारण पण्डित श्री नरदेव शास्त्र वेदतीर्थका निवास क्षेत्र सहारनपुर जीके विरोधी रहे थे, जनसमाजकी परिषद, महामभा और जिला रहा और राजनैतिक कार्यक्षेत्र देहरादन। इन दोनाम संघ सभी संस्थाओंका इसमें प्रतिनिधित्व रहा, देश भरके ___ कहां हो? अब तककी बातचीतका परिणाम यह दिखाई विद्वानों, प्रमुख पत्रकारोंने सन्देश भेजे, और रायसाहब क देता है कि इन गर्मियों में यह समारोह देहरादून या मंसूरी लाजा प्रद्युमनकुमारजी इसके स्वागताध्यक्ष हुए, जिन्होंने १५-१६ वर्ष पहले अपने मन्दिरमें पण्डितजीके 'धवल' ग्रन्थ पढ़नेपर पाबन्दी लगाई थी। इस घटनाने प्रयम्न श्री स्वामी सत्यदेवजी पंचपुरीके होगये हैं, इसलिये कुमारजीका चरित्र प्रकट किया, युगक परिवर्तनकी घोषणा उनके सम्मान महोत्सवका सौभाग्य हरद्वारको ही मिलेगा, की और परिडतजीके कार्यकी महत्ता और व्यापकता पर यह निश्चित है। भी प्रकाश डा। इससे भी बढ़कर अपने वयोवृद्ध विद्वानों इस प्रकार प्राशा है इस वर्ष में ये तीनों महोत्सव का सम्मान करनेकी प्रवृत्तिकी इससे प्रेरणामिली । फलत: विशाल रूपमें देखनेका हमें अवसर मिलेगा, पर तब भी विद्धदर श्री माथूरामजी प्रेमीको अभिनन्दनम्रन्थ देनेका इस संकल्पका अथ ही होगा इति नहीं क्योंकि देश भग्में प्रस्ताव और 'वीर' के विशेषांकोंकी शृङ्खला अाज हमारे अनेक हिन्दी सेवक ऐसे हैं, जिन्होंने अपना जीवन साहित्य सामने है। साधनामें लगा दिया, पर जिनकी हमने एक दिन भी पूजा इस प्रकार यह अनुष्ठान सम्पूर्ण स्वरूप में सफल हुआ. न की। मेरा सदैव शिवसंकल्पमें विश्वास रहा है और इस सफ- सर्वश्री जगन्नाथप्रसादजी 'भानु'.पं० लषमणानारायण खताने उसे और भी रद कर दिया है। गर्दे, पं.खचमीधर वाजपेयी, सेठ कन्हैयालाल पोद्दार, पं. यह प्रारम्भ लोचनप्रसाद जी पाण्डेय, स्वा. भवानीदयाल संन्यासी जेलके उस पवित्र वातावरण में जिन चार सम्मान पं.मावरमल शर्मा, पं. हनूमान शर्मा, पं. देवीदत्त शुक्ल समारोहोंकी बात मनमें पाई थी, उनमें एक यह हो गया, मा. गोपालरामजी गहमटी. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पर तीन अभी शेष हैं, इसीलिये मैं कहता हूं, यह प्रारम्भ श्री रमाशंकर अवस्थी, बा. मूलचन्द अग्रवाल पं. कृष्णहै, इति नहीं। हमारे साथी यह जानकर प्रसन्न होंगे कि बिहारी मिश्र, सनेहाजी, पं. रूपनारायण पाण्डेय आदि शेषनीन समारोहोंके मनानेका कार्य भी प्रारम्भ होगया है। मादि ऐसे अनेक विद्वान साधक हैं, अपने अपने स्थानमें वयोवृद्ध श्री बाबू सूरजभानजी अब ७५ वर्षके होगये जिगके यथाविधि सम्मान समारोह मनाये जानेकी व्यवस्था है और उनकी हीरक जयन्ती मनानेका प्रस्ताव बहुतसे होनी चाहिये । मुझे भाशा है विभिन्न स्थानोंमें शीघ्र ही लोगोंने पसन्द किया। बाबू सूरजभानजी जैन जागरणके विभिन्न समारोहोंके मनाये जानेकी तैयारी प्रारम्भ होगी। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमन्तभद्राय नमः वीर-शासन-जयन्ती-महोत्सवके लियेअनेकान्तके अद्वितीय विशेषांककी योजना अनेकान्तके पाठकोंको इतना तो मालूम है कि अगली (१) वीरशासनकी भूमिका- अर्थात वीर और वीरवीरशासन-जयन्ती श्रावण कृष्णा प्रतिपदादिको राजगृह शासन के अवतारसे पहले देशकालको पारस्थिति (वर्तमान राजगिरि) के उस पावन स्थान पर एक महोत्सव अथवा वह स्थिति जिमने वीर और बीरशासन के रूपमें मनाई जायगी जहाँसे वीरशासनकी सर्वोदय-तीर्थ- को जन्म दिया:धारा प्रवाहित हुई है और उसके साथ ही जैनसाहित्य- (क) विदेशी विद्वानों द्वारा उक्त परिस्थितिका प्रदर्शन । सम्मेलन तथा जैन साहित्यिक प्रदर्शिनी की भी योजना (ब) भारतीय विद्वानों द्वारा उनपरिस्थितिका दिग्दर्शन रहेगी । अब उन्हें यह जानकर अधिक प्रमाता होगी कि (ग) प्राचीन हिन्दू, बौद्ध तथा जैनमाहिस्य परम तत्काउस अवसर पर अनेकान्तके संचालकोंमे अनेकान्तका एक लीन परिस्थितिका संकलन । ऐसा मचित्र विशेषाङ्क निकालनेकी भी योजना की है जो (घ) परिस्थिति सूचक सब प्राधारॉपरसे नया सारअब तकके अनेकान्तके इतिहासमें ही नहीं किन्तु जैनपत्रोंके संकलन । इतिहास में भी अभूतपूर्व एवं अद्वितीय महस्वको लिये हुए (6) वीरके अवतार काल-समयकी मांग। होगा, और जिसे वीरशासन तथा वीरशासनके उपासकों- (1) बीर और वीरशासनका संक्षेपमें व्यापक परिचयअनुयायियोंका संक्षेप में परिचय-ग्रंथ अथवा रिफ्रेंसबुक (क) वीरका वंश तथा कौटुम्बिक परिचय । (Reference book) कह सकेंगे। इस विशेषाङ्कका (ब) वीरका जन्म, जन्मोत्सव और बाल्यकाल । नाम 'वीरशासनाङ्क' होगा यपि यह काम बहुत बड़ा है (ग) वीरकी जिनदीक्षा, तपश्चर्या, उपसर्गविजय और और समय थोडा है-महोत्सबके दूसरे कार्योंकी गुरुना भी केवलज्ञानकी संप्राति । कुछ कम नहीं, फिर भी यह महान् उपयोगी कार्य इस हद () वीरका मौन विहार, समवसरणमभा, गौतमादि विश्वासके साथ हाथमें लिया गया है कि वीरशासनके प्रेमी गणधरोंकी सम्प्राप्ति और वीरवाणीका अवतार । और अनुयायी विद्वान् तथा ऐतिहासिक और साहित्यिक जन प्रधान गगाधर गौतम-द्वारा वीरवाणीकी द्वादशांग शीघ्र ही इसमें अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे, अपने श्रतरूप रचना । अपने योग्य कार्योंको खुशीसे बाँट लेंगे और इस तरह बहुत (च) वीरका चतुर्विध संघ । से विद्वान् एक साथ काममें जुटकर इसे सुगम तथा स्वरूप (1) वीरकी लोकसेवा, अर्थात वीरका सेवामय जीवन, समय-साध्य बना देंगे और संचालकोंके लिये अधिक चिंता वीरका वीरत्व। का अवसर न आने देंगे। यह एक महान् सेवा-यज्ञ प्रारम्भ (ज) वीरवाणी-द्वारा प्ररुपित विषयका बादको चार मनुकिया गया है जिसमें सभी विद्वानोंको लेखरूपमें अपनी २ योगों में विभाजनपाहुति देनी चाहिये। यह विशेषाङ्ग मुख्यतया चार भार्गों १-प्रथमानुयोग (कथानुयोग) और उसका प्रतिपाच में विभक्त होगा, जिनमें निम्न विषय और उपविषय रहेंगे: विषय । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनेकान्त [वर्ष ६ २-करणानुयोग और उसका प्रतिपाच विषय । सुधर्मा स्वामी भादिगणधर । ३-चरणानुयोग और उसका प्रतिपाच विषय । २-उत्तरकालीन प्राधार स्तम्भ--श्रीनन्दि नन्दि ४-म्यानुयोग और उसका प्रतिपाय विषय । मित्र, अपराजित. गोवर्धन और भद्रबाहु (म) १-वीरका तत्वज्ञान और उसकी दूसरे दर्शनोंसे ऐमे पंचतकेवली आदि । सुखना, २-वीरका विकासवाद ३-धीरका स म्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीफे बाद दिगम्बर-गोताम्बर बाद. ४-वीरका अहिंसावाद,५-वीरका भनेकांत संघभेद गण-गरछादि भेदबाद, ६-धीरका अपरिग्रहवाद -वीरका संदेश । (क) दिगम्बर शाखाके प्रधान प्राधार स्तम्भ (ब) वीरशासनकी कुछ खास बातें जैसे-१-अहिंसा और उनके द्वारा निर्मित साहित्य । और दया, २-अनेकान्त और स्याद्वाद, ३-कर्म (ख) श्वेताम्बर शाखाके प्रधान प्राधार स्तम्भ और उनके द्वारा निर्मित साहित्य। सिद्धान्त, १४ गुणस्थान और १४ मार्गणा, -स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता, ५-पारमा और (४) वीरशासनकी वतेमान सम्पत्तिका संक्षिप्त परिचयपरमारमा, १-मुक्ति और उसका उपाय (मोक्ष (क) जैनतीर्थक्षेत्र-नाम और कहाँ कहाँ स्थित तथा अति संक्षिप्त परिचय। और मोक्षमार्ग), ७-समता और विकास । (ख) जैनअतिशयक्षेत्र-नाम और कहाँ-कहाँ स्थित (e) वीरशापनकी उदारता और उसमें विश्वधर्म बनने तथा अति संक्षिप्त परिचय । की चमता। (ग) जैनमन्दिर-कहाँ-कहाँ स्थित और उनकी प्राम(३ वीरशासनका तत्कालीन और उत्तर कालीन बार संख्या। प्रभाव (ध) जैनमूर्तियाँ-मूर्तियोंको विशेषताका दिग्दर्शन, (क) वैदिक संस्कृति, वैदिक रीति-रिवाज और वैदिक . जैनतीर्थों और जैनमन्दिरोंके अलावा और कहाँ साहित्य पर प्रभाव। कहाँ जैनमूर्तियाँ पाई जाती हैं। जैसे म्यूजिमों (स) बुद्ध देशना, बुद्ध-संघ, बौद-संस्कृति और बौद्ध पादिमें। साहित्य पर प्रभाव । () जैनशास्त्रभंडार- कहाँ-कहाँ स्थित हैं और (ग) दूसरे सम्प्रदायों, धर्मगुरूनों और उनके साहित्य किस स्थिति में हैं१२ प्रत्येक भण्डारकी प्रानुपर प्रभाव। मानिक ग्रन्थसंख्या। ३ विदेश की बायोरियों (घ) सर्व साधारण जनता और राजाओं पर प्रभाव । में स्थित हस्तलिखित जैनम्रन्थ। ४ भारतीय (क) स्त्रियों की पराधीनता और अधिकार-हीनता पर पब्लिक अथवा प्रजैन लायोरियों में स्थित हस्त भारी प्रहार। लिखित जैनग्रन्थ । ५ विभिन्न गृहस्थों अथवा () शूद्रोंके पीडनमें रोक, उनके मानवीय अधिकारों साधुनोंक पास पाये जाने वाले महत्वके अप्रकाकी स्वीकृति और उनके उत्थानका मार्ग प्रशस्त। शित जैनप्रन्य। () अनेक प्रकारके प्रचलित वहमोंकी निराकति । (1) वे स्थान जहां कोई भी वीरशासनका अनुयायी (ज) जलसंस्कृति और भारतीय संस्कृतिक निर्माणमें अर्थात् जैनी रहता हो-प्रामादिकके नाम जिले वीरशासनका हाथ। के नाम सहित। (म) वीरशासनके प्रमावसे मोत-प्रोत वीरशासनके (8) जैनियोंके वर्तमान संघ-गण-गच्छादिक (विलुप्त9) सत्कालीन और (२) उत्तरकालीन भाचार गणगच्छादि सहित)। स्तम्भ (M) जैनियों के शिक्षाकेन्द्र--विद्यालय, पाठशाखाएँ, -तत्कालीन भाधार स्तम्भ-गौतम स्वामी, बोटिंगहाउस और गुरुकुछ प्रादि, नाम तथा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] अनेकान्तके विशेषाङ्ककी योजना स्थानसहित। ३-प्रो. हीरालाल जैन एम. ए. किंगपडवई कालिज (म) जैनियोंकी सभा-मोसाइटियाँ---नाम और स्थान अमरावती (बरार)। के निर्देश सहित । ४-५० कन्हैयालाल मिझ 'प्रभाकर', विकास लिमिटेड (ब) जैन पर्व, उत्सव और स्यौहार। सहारनपुर। (ट) जैनियोंकी वर्तमान स्थितिका अनेक दृष्टियोंसे -जुगलकिशोर मुख्तार (वर्तमान सम्पादक)। सिंहावलोकन, जैसे धार्मिक, २ सामाजिक. अत: वीरशासनके प्रेमी साधुनों सद्गृहस्थों, विद्वजनों ३ शार रिक, ४ नैतिक, व्यापारिक, आर्थिक रिसर्च स्कालरों, सुलेखकोंसे सानुगध निवेदन है कि वे और ७ राजकीय । इस कार्यकी महत्ता और उपयोगिताको ध्यानमें रखते हुए (8) जैनपत्र और पत्रिकाएँ--प्रचलित अप्रचलित अपने-अपने लेखों तथा कार्योंका चुनाव करके उन्हें शीघ्र मबके नाम प्रकाशन-स्थान-सहित । ही संकलित करके भेजमेकी कृपा करें। साथ ही, अपने (३)प्रकाशित जैनग्रन्थोंके नाम-- दिगम्बरग्रन्थ, परिचय तथा प्रभावक्षेत्रमें स्थित दूसरे विद्वानोंको भी इसमें २ श्वेताम्बरग्रन्थ । पूर्ण सहयोगके लिये प्रेरित करें। और इस तरह विशेषाको (द) जैन शिलालेख---जैनमान्दमि स्थित मूर्तियोंके पूर्ण सफल बनाने के लिये कोई भी बात उठान रखें यह सब शिलालेखोंको छोड़कर, जो असंख्य है, अन्यत्र उनकी वीर-शासन सेवा और वीरभक्तिका प्रधान अंग होगा। कहां-कहां शिलालेख पाये जाते हैं। प्रकाशित कुछ जरूरी सूचनाएँ जैनशिलालेखोंकी स्थान-सूचना, ग्रन्थों जर्नलों (1) विशेषाङ्ककी पृष्ठ संख्या अपने वर्तमान प्राकार पत्रादिकोंके नामसे। में ५०.के लगभग होगी और मूल्य अलग विशेषाङ्कका (ण) जैनताम्रपत्र और शाही फर्मान--कहां-कहां पर कमसे कम ५)रु. और अधिकसे अधिक ६) रु. होगा, उपलब्ध है। परन्तु जो इस छठे वर्षमें अनेकान्तके ग्राहक हैं और अगले (त) सरकारी मनुष्य गणनाकी दृष्टिमें जैनसमाज, वर्ष भी ग्राहक रहेंगे उन्हें यह सातवें वर्षका प्रारम्भिक विशेषा और उसकी अपूर्णताका दिग्दर्शन--जैसे बडौत भेटस्वरूप ही दिया जायगा। परन्तु जिन्हें दूसरे सजनोंकी में किसी जैनीका न होना। ओरसे छठे वर्ष में अनेकान्त फ्री भेजा जा रहा है उन्हें यह विषयोंके इस निदर्शन परसे सभी विद्वान् अपने अपने विशेषाङ्क पहले मूल्य पर क्री नहीं दिया जा सकेगा। योग्य विषयाका सहज हीमें चुनाव कर सकते हैं। जो (२) विशेषामें हिन्दी लेखोंके साथ कुछ महत्वके विद्वान् जिन-जिन विषयों पर लिखना चाहें--लिखनके अंग्रेजी लेख भी रहेंगे, दूसरी भाषाओंके लेख हिन्दीमें लिये प्रस्तुत हो-वे कृपया पहलेसे ही उसकी सूचना अनुवादित होकर ही दिये जा सकेंगे। सम्पादक मण्डलको देकर अनुगृहीत करें, जिससे कार्यका (३) लेख वे ही स्वीकार किये जायेंगे जो व्यक्तिगत ठीक भन्दाजा होसके और समयके भीतर भवशिष्ट विषयों प्रारूपोंसे रहित होंगे तथा जिनका ध्येय मात्र किसी धर्म, को भी लिखानेकी योजना की जासके। समाज अथवा सम्प्रदायकी निन्दा न होकर वस्तुस्थितिका इस विशेषाङ्कके सम्पादनार्थ एक सम्पादक मण्डलकी मम्यक् अवबोधन एवं स्पष्टीकरण होगा। योजना की गई है, जिसके निम्न सदस्य होंगे और हेड- (५) लेख, जहाँ तक भी होसके भाकारमें छोटे प्राफिम वीरसेवामन्दिर सरसावा रहेगा: और अर्थ में बड़े होने चाहिये अर्थात् उनमें संक्षेपतः अथवा १-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल एम. ए. डी. लिट. मूत्ररूपसे मरने-अपने विषयका अधिकसे अधिक समावेश क्यूरेटर म्यूजियम लखनऊ। किया जाना चाहिये। २-डा. ए. एन. उपाध्ये, एम. ए., डी. लिटः (५) जो लेख इस विशेषाशके लिये भेजे जायें उन राजाराम कालिम, कोल्हापुर । पर स्पष्ट शब्दों में "विशेषाङ्कके लिये लिखा रहना चाहिये Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनेकान्त और विशेषामें प्रकट होनेसे पहले उन्हें अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित न करना चाहिये । सब लेख कागजके एक तरफ हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरोंमें लिखे जाने चाहिये; अन्यथा सम्पादन तथा प्रेसको प्रूफ भेजने में बड़ी दिक्कत होती है, कभी-कभी ऐसे लेख छपनेसे रह जाते हैं। (६) जो लेख सचित्र हों उनके लिये चित्रोंका प्रबन्ध प्राय: लेखकोंको स्वयं करना चाहिये। खास-खास अवस्थामें ही किसी चित्र विशेषकी जिम्मेदारीको सम्पादक मण्डल अथवा प्रकाशन विभाग अपने ऊपर ले सकेगा । (७) सम्पादकमण्डलको दृष्टिमें जो लेख श्रसाधारण महत्व के समझे जायेंगे उनके लिये पारितोषिक अथवा पुरस्कारकी भी योजना उस फण्डसे की जायगी जो इस कामके लिये अलग रक्खा जायगा । AM [ वर्ष ६ (८) कागज आदिकी भारी महँगाईके कारण इस विशाल विशेषाङ्ककी कापिय परिमित संख्या में ही छपाई जायेंगी अतः जिन्हें जितनी कापियोंकी अपने तथा दूसरोंके लिये जरूरत हो वे पहले से ही १५ मार्च तक भार्डर भेजकर उन्हें अपने लिये रिजर्व करा लेवे, अन्यथा बादको फिर इच्छानुसार कापियोंका मिलना कठिन हो जायगा। क्योंकि विशेषाङ्ककी छपाई मार्च में ही शुरू हो जावेगी, तब कहीं जून मास के श्राखीर तक वह छप सकेगा । बरसों से मुख्तारजी के साथ मेरा परिचय है और उनके निकट सम्पर्क में रहकर मेरे मन पर सदा यह प्रभाव पड़ा है कि वे एक सच्चे तपस्वी हैं। उनके व्यक्तित्वकी एक बात मुझे बहुत पसन्द है कि वे अत्यन्त निर्भीक हैं और सत्य को प्रकट करनेमें वे कभी नहीं चूकते, पर इसके साथ ही वे अत्यन्त नम्र हैं और अपने विरोधको केवल सिद्धान्त तक ही रखते हैं- उसे कभी व्यक्तिगत नहीं बनाते । बाहर कड़वे, भीतर मधुर ( श्री पन्नालालजी अग्रवाल, देहली ) बहुत दिनों की बात है कि ला ० जौहरीमलजी सर्राफने अंतर्जातीय विवाह पर लिखे हुए शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहस्थ' नामक मुक्तारजीके एक लेखको पुस्तक रूपमें प्रकाशित किया था। समाजमें उससे खलबली मच गई। पं० मक्खनलालजी प्रचारकने उसका जवाब लिख और पं० महबूब विशेषाङ्क सम्बन्धी लेख, चित्र, ब्लाक्स, जरूरी सुझाव (Suggestion), सूचनाएँ और पत्रादिक सब नीचे लिखे पते पर भेजे जाने चाहियें: जुगलकिशोर मुख्तार (प्रधान सम्पादक ) वीरसंवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर सिंहजीने इस बारेमें मुझे शास्त्रार्थंका चैलेंज किया और मुख्तार साहबको मुकदमेकी धमकी दी गई। मुख्तारसाहबने उत्तरमे 'विवाह क्षेत्र प्रकाश' के नामसे एक नई पुस्तक इसी विषय में लिखी, जिसमें अन्तर्जातीय विवाहका और भी जोरदार समर्थन था । इतने संघर्ष के बाद भी मुख्तारसाहबके व्यवहार में कोई अन्तर न पड़ा। आज भी पं० महबूबसिंहजी के साथ प्राप का प्रेम सम्बन्ध है। उनके छोटे भाई वीरसेवामन्दिरके सदस्य हैं और श्रीमक्खनलालजीको भी एक बार आप अपने बीरसेवामन्दिर में होने वाले वीरशासन जयन्तीउत्सवका सभापति बनाकर सम्मानित कर चुके हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरणीय 'अनेकान्त' के व्यवस्थापकत्वका भार ग्रहण करते समय मैंने यह संकल्प लिया था कि जैन धर्म के व्यापक प्रचार और धर्म के बारेमें फैली हुई रालतफहमियों के लिये यह आवश्यक है कि 'अनेकान्त' जैस पत्रको हम अजैन विद्वानों और संस्थाओंको अधिकसे अधिक संख्यामें मुफ्त भेट कर सकें। इसी हेतु मैंने समाजके दानी महानुभावोंसे आर्थिक सहायताकी अपील की थी उसीके परिणाम स्वरूप अनेक बन्धुओं ने अपनी ओरसे थोड़े २ स्थानोंपर 'अनेकान्त' मुफ्त भेजनेकी स्वीकारता प्रदान की है और अनेक बन्धु कर रहे हैं तथा कुछ बन्धुओंसे अभी भी पत्र व्यवहार हो रहा है । जिन बन्धुओंने स्वीकारता दे दी है उन की ओरस हम कहां २ 'अनेकान्त' फ्री भेज रहे हैं, यह पिछलीदो किरणोंमें निकल चुका है उससे आगे किनकी ओरसे कहाँ भेजा जा रहा है यह यहां प्रकाशित होरहा है। दानी महानुभावोंका 'अनेकान्त' संचालक मण्डलकी ओरसे मैं आभारी हूँ और अन्य दानीबन्धुओं प्रार्थना करता हूँ कि वह जिनवाणी प्रचारके इस कार्य में हमें अधिकसे अधिक सहयोग प्रदान करें। -कौशलप्रसाद जैन व्यवस्थापक छठे वर्ष में 'अनेकान्त' के सहायक श्री सेठ गुलाबचन्दजी मा०मजि.भैलसा गत चार किरणों में प्रकाशिन सहायता के अतिरिक्त भार भेलसेक प्रमिद्ध समाजसेवी श्री सेठ राजमलजी जो और सहायता नकद नया वचन रूपमें प्राप्त हुई है वह बडजात्या के पुत्र है अापने इस वर्ष 'अनेकान्त' के सहायक निम्न है, दातार महोदय धन्यवाद के पात्र हैं: बनाने में बड़ा सहयोग दिया है और स्वयं भी १० स्थानों १५१) श्री सिंघई धन्यकुमारजी कटनी पर 'अनेकाम' फ्री भिजवाकर सहायक बने हैं। ५६) श्रीमन्न सेट लक्ष्मीचन्द जी भेनसा -व्यवस्थापक २१) बा. लालचन्दजी जैन एडवोकेट रोहतक १५) श्री मुकनलाल इन्द्रचन्दजी बोगरा (३१) श्री हेमचन्द्रजी एडवोकेट अजमेरकी ओरसे(पिछली १०) की सहायता के अतिरिक्त) १ लागवेरियन पब्लिक लागवेग, अजमेर ३) श्री मोदी लक्ष्मीचन्द दुलाचन्द जैन भन्नमा २ दी गवर्नमंट कालेज लायबेग, अजमेर 'अनेकान्त' के लिये कन्ट्रोल रेटपर काग़नका प्रबन्ध ३ दी एडीटर इनचंफ कैटेलीगस कैटेलोग्रम यूनिवर्सिटी करने में हमें श्रीलाल शुगलकिशोर मालिक मैमर्स धूमामल श्राफ मद्राम, मद्राम धर्मदासजी देवलीने जो सहयोग अभी तक दिया है और ४ लायारियन एगगकलचर कालेज, नागपुर सी. पी. ५ लायबेरियन मनातनधर्म कालेज, लाहौर देरहे हैं उसके लिये 'अनेकान्त' संचालक मण्डन उनका। ६ बनारसीदाम कालेज लायबेग, अम्बाला केण्ट हृदयसे अाभारी है। -व्यवस्थापक (३०) संठ नानूलालजी पाटनी c/o श्रीयुत अशुद्धियोंके सम्बन्धमें ___ मोहनलाल मोतीलालजी भेलसा ग्वालियर इस अंक में जहाँ अब तक हई अशद्धियोंके १ लायबेरियन पटना यूनिवर्सिटी, पटना (बिहार) प्रायश्चित्त स्वरूप कहीं भी कोई अशुद्धि न होनी २ लायबेरियन लखनऊ यूनिवमिटी, लम्वनऊ चाहिये थी, वहाँ दुर्भाग्यवशशीघ्रता और कर्मचारियों ३ र ३ लायब्रेरियन महागना कालेज, जयपुर के अभावमें और भी विशेष अखियाँ रह गई। ४ लायरियन डी.ए.वी. कालेज, लादार जिनके लिये हमें भारी संकोच अनुभव होरहा है। ५ बद्रा नभव र ५ बद्रीयमाद पब्लिक लायब्रेरी सूजीमण्डी फिरोजपुर केण्ट, 'हमारे सहयोगी' शीर्षकमें पृन १६७ पर श्री अहदास (३३) श्री लच्छीरामजी C/ अयोध्याप्रसाद प्रभुदयाल जीके परिचयमें तो कई एक शब्द अशुद्ध छप गये हैं, जी भेलसा जिनका हमें बड़ा खेद है। आशा है पाठक उन शब्दों १ लायब्रेग्यिन युवराज पब्लिक लायरी, उज्जैन को ठीक मुहावरे में पढ़कर हमें क्षमा करेंगे। (३४) श्रीमंत मेठ मिताधराय लक्ष्मीचन्दजी भेलसाकी व्यवस्थापक, श्रीवास्तव प्रेस ओरसे अगली किरणमें Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGISTERE NO A-731. मुख्तार श्रीक जुगलाकशास्चित ग्रन्थोंकी सूची (संकयिता-श्री परमानन्द शास्त्री, बीरमबामन्दिर) मनमषिकार मीमासा १९१३ १३ जैनाचार्योका शासनमेव (जैनी शासनमेदसहित)सं १९८५ मानत्य भावना १८१४ १४ मेरा द्रव्यपूजा (कविता) १९२८ री भावना १६१६ १५ इम दुखी क्यों है?' अगस्त १९२८ थपरीक्षा प्रथमभाग १६१७ १६ सिादसोपान (करिता) न्यपरीक्षा द्वितीयभाग १९१७ १७ प्रन्यपरीक्षा चतुर्थगाम जनवरी १९३४ ६ वीर पुमा जलि १९२० १८ बृहत्स्वयंभूस्तोत्रका अनुवाद १९४३ ७ आसातत्व १९२१ १६ रत्नकरण्डारकाचारका अनुवाद (अप्रकाशित) १६४२ है ग्रन्थपरीक्षा तृत यभाग संयोकि १६२१ २. सत्याधु-स्मरण-मंगलपाट (प्रेसमें) रत्नकरण्डाकाचारकी प्रस्तावना नोट:-इन ग्रन्थोंक अतिरिक्त मुख्नार साहबके लिखे हुए २.. १० स्वामी ममन्तभद्र वैशाख शुक्ल २ सं० १९६२ के करीब लेग्योंका एक सूची स्थान निर्देशक कमसहित तैयार ११ विवाह समुद्देश्य . म. १६७६ की गई थी जो स्थानाभावके कारण इस अहमें नहीं १२ विवाहक्षेत्र प्रकाश १६२५ ' दी जासकी। 166, पाठकोंसे थमायाचना चौपी किरणमें गई विज्ञप्ति के अनुसार यह अङ्क हमारी व्यवस्थाके अनुसार १५ दिसम्बर तक पाठकोंकी सेवा में पहुँच जाना चाहिये था पर अत्यावश्यक मैटर के बाहुल्य और अङ्कको मुन्दर और उपयोगी बनाने के लोगको संवरण न कर मनके कारगा यह अङ्क संयुक्त किरणक रूपमें पाठकोंके हाथ में पहुँच रहा है । पर संयुक्त किरण होते हुए भी पाठकोको पेन और मैटरकी हम घाटाम होगर लाम ही आधारमा २ थोमे पेज और मेटर इम मागे अधिक ही हैं और टाईटिल पृथक है। फिर भी पाठकोको ना प्रतीक्षाान्य कर उठाना पहाउस लिये मैं न ( CN क्षमा चाहता हूँ। -कौशनप्रमाद जैन 'भनेकान्त' के अनन्य सहायक "मेरी प्रार्थनार ध्यान देकर बहुनमे बन्धुश्राने अनेकान्त' को प्राहक. सहायक बनाकर देय अपूर्व सहयोग दिया और बराबर देते रहे हैं उनमें में श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारित न्यायतीर्थ व्यावर, श्री बा० विगलप्रसादजी जैन, देहली और श्री गुलाबचन्द्र जी जैन प्रा. मजिस्ट्रेट भेलमाका 'अनेकान्तमंचालक मण्डल की श्रोग्मे अत्यन्त अाभारी हूँ, श्राशा ममाजमवाके इस पुनीत यश में हमें अन्य बन्धुश्रीका भाइमा पकार मायांग प्राप्त होगा। -व्यवस्थापक मुद्रक, प्रकाशक पं.परमानन्दजी शासी वीरसंवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस महामपुरम मुहिता 24 समीनाशाब 1255-~-सम्पादक 22त्तानुयसन देवगम,आमा it 28 T HIET - % 22 महाधिपती २६ समन विशाल 20 पामचन्म 22 कोसma २९ महानीका ३. बालिमा Home /५८ . SARSAWA, (SAHARANPUR). VEER.SEWA MANDIR. If not delivered please return to: भायात Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ merama एकनाकर्षन्ली लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयतिजेनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिवगोपी Mahima निधाउनुभय-दृष्टि Een (उभयानुभयो तस्वर निषध इष्टि PREM... निपानमा अनेकान्तात्मकत ) वस्तुतत्त्व विधेयानुभय उभयतत्व तस्व अनुभव तत्व E वर्ष विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभय मिश्रमपितहिशे प्रत्येक नियमविपश्यारि.. मदाऽन्योऽन्यापेतैः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवक्षतरक्शान फरवरी - Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २२६ ८ नागसभ्यताकी भारतको देन - [चा. ज्यांनिप्रसाद जैन २४६ ● कौनसा क्या गीत गाऊँ (कविता) - [श्री श्रोमप्रकाश २४८ १० सलाह (कविता) - [श्री शरदकुमार मिश्र २४८ ११ आत्मशक्तिका माहात्म्य - [श्री चंदगीराम विद्यार्थी २४६ १२ श्रीराहुलका सिंह सेनापति - [श्रीमाणिकचंद पांड्या २४३ १३ सरस कवि - [पं० मूलचन्द वत्सल २५७ १ समन्तभद्र भारती के नमूने - [सम्पादक २ अशान निवृत्ति - [पं० माणिकचन्दजी ३ वैदिक प्रात्य और महावीर [श्री कर्मानन्द ४ गद्यगीत - [श्री 'शशि' २३६ ५. नयोंका विश्लेषणा - [पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य २३७ ६ यदि तुम्हारा प्यार होता (कविता) - श्रीभगवन जैन २४५ ७ हम तुमको विभु० (कविता) - [ हीरक जैन २४१ कवि-विमर्श २३३ २३५ सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा ! अवजल गगरी अलका करता, पूरण-घट रहता हूं निश्चल ! चन्द्र पड़े शव के क़तरे, हरित बना देंगे क्या महन्थल ? रम कनिका न समय है, पड़ने घीकी भाँति जलेगा ! सरावार यालीका तो रम, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! शाश्वत निधन-हीन रहते क्या, सुख-दुखकृत (मं+सार) नहीं है ? संसारी कमसे लिपटा, वह बन्धन से पार नहीं है ! मुक्त हुए 'मानव' कैसा ? फिर, सुख-दुखका भागी न रहेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय दलक सकेगा !! ऋषी-मुनी भी देश-कालकी, स्थितिका रवते अवधारण ! क्योंकि सानुकूलता उनकी होती स्व-र-श्रेयका कारण ! लता - सफलता पर उसकी ही, रक्षा में नव कुसुम खिलेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! मैं तो नहीं मानता जगको, इस थोधी-मायाका जाया ! द्रव्य-क्षेत्र भव-भाव-कालकी, चलती-फिरती रहती छाया ! मयत्, शील, तर दया बिना कुछ केवल त्याग' न काम करेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय हलक संवेगा !! शान्ति द्वन्द्व एकत्र न देखे, आगे पीछे आते जाते ! हिंसा उत्पत्ति अहिंसा की ही वैयाकरण बताते ! केवल अवलोकन न सार्थ है, जब तक वह फतृत्व न लेगा ! सगचोर-प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! परिभाषा - भरकी अभिगति से दूर न होती हृदय-त्रलुपता ! पूरन, पूरव-सा कैसे है ? क्यों की दहती रिता ? क्षितिज - ककुभ-अम्बरतलमें भी, राग-द्वेष क्या घर कर लेगा ? सरावोर प्यालाका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! संकट संस्कृत कर देता है, आत्मग्रन्थिका विकृत- गुंठन ! खारी तप्त अश्रुकी बूंदें, मधुरिम-शीतल कर देतीं मन ! देर भले अंधेर नहीं है, कृतका फल भरपूर मिलेगा ! सराचार - प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! दुम्ब-सुख, पाप-पुण्यका अनुचर, दुखमें भी प्राणी सुख कहता ! विज्ञ साम्यसे देखा करते, मूरख उनमें रोता-हँसता ! नियति-नियम तो एक रहा है, कैसे कोई दो कह देगा ? 19 " 4.- 1111 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ पहम् . नातक विस्था वार्षिक मूल्य ४) ० एक किरण का मूल्य ।) E नीतिविरोधणसालोकव्यवहारवर्तक सम्पद। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। . फर्वरी वर्ष ६,किरण बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर काल्गुण, वीरनिर्वाण संवत् २४.०, विक्रम सं. २०.. ११४५ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ १८ । श्रीभर-जिन-स्तोत्र गुणस्तोकं सदुल्लध्य तहहुस्व-कथा स्तुतिः । भानन्त्यासे गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ १॥ 'विद्यमान गुणोंकी अल्पताको उल्लंघन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है-उन्हे बदाचढ़ा कर कहा जाता है-उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। वह स्तुति (हे पर जिन!) आपमें कैस बन सकती है ? क्योंकि आपके गुण अनन्त होनेसे पूरे तौर पर कहे ही नहीं जा सकते-बढ़ा-चढ़ा कर कहनकी तो फिर बात ही दूर है। तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कोर्तितम् ।। पुनाति पुण्यकीर्तेस्ततो याम किश्चन ॥ २॥ (यद्यपि अापके गुणोंका कथन करना अशक्य है) फिर भी आप पुण्यकीर्ति* मुनीन्द्रका चूँकि नामकीर्ति' शब्द वाणी, ख्याति और स्तुति नीन अथोंमें प्रयुक्त होता है और 'पुण्य' शब्द पवित्रता तथा प्रशस्तनाका द्योतक है। अत: जिनकी वाणी पवित्र-प्रशस्त है, ख्याति पवित्र-प्रशस्त और स्तुति पुण्याल्पादक-पवित्रतासम्पादक है उन्हें 'पुण्यकीर्ति' कहते हैं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनेकान्त [ वर्ष ६ कीर्तन भी-भक्तिपूर्वक नामका उच्चारण भी हमें पवित्र करता है । इस लिये हम आपके गुणोंका कुछ लेशमात्र (यहाँ) कथन करते हैं.। लक्ष्मी-विभव-मर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाञ्छनम् । साम्राज्यं माभौम ते जरत्तमिवाभवत् ॥३॥ 'लक्ष्मीकी विभूतिके सर्वस्वको लिये हुए जो चक्रलाञ्छन-चक्रवर्तितत्वका-सार्वभौम साम्राज्य श्रापको सम्प्राप्त था, वह मुमुक्ष होने पर-मोक्ष प्राप्त की इच्छाको चरितार्थ करने के लिये उद्यत होने पर-आपके लिये जीर्ण तृणके समान हो गया-श्रापने उसे नि:सार समझ कर त्याग दिया।' तव रूपस्य मौन्दर्य दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । यक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बह-बिम्मयः ॥४॥ 'आपके रूप-सौन्दर्यको देख कर दो नेत्रों वाला इन्द्र तृप्तिको प्राप्त न हुआ-उसे श्रापको अधिकाधिकरूपसे देखने की लालमा बनी ही रही-(और इस लिये विक्रिया-द्वारा) वह सहस्र-नेत्र बन कर देखने लगा, और बहुत ही आश्चर्यको प्राप्त हुना।' मोहरूपो रिपुः पापः कषाय-भट-साधनः । दृष्टि-संविदापेक्षास्स्स्व या धीर ! पगजितः ॥५॥ 'कषाय-भटोंकी-क्रोध-मान-माया-लाभादिक की-मैन्यसे युक्त जो मोहरूप- मोहनीय कर्मरूप-पापी शत्र है-श्रात्माके गुणोंका प्रधानरूपसे घात करने वाला है-उसे हे धीर श्रर जिन! आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा-परमौदासोन्य-लक्षण सम्यक्चारित्र--रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित कर दिया है।' कन्दर्पस्योद्धगे दपस्त्रैलोक्य-विजयार्जितः । हृपयामास तं धीरे स्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६॥ 'तीन लोककी विजयमें उत्पन्न हए कामदेवके उत्कट दर्षको-महान् अहंकारको-आपने लज्जित किया है। श्राप धीरवीर-अक्षुभितचित्त-मुनीन्द्र के सामने कामदेव इतोदय (प्रभावहीन) हो गया-उसको एक भी कला न चली। प्रायस्यां च तदास्वे च दुःखयोनिर्दुरुत्तरा। तृष्णा-नदी स्वयोसी विद्याजाचा विविक्तया॥७॥ 'आपने उस तृष्णा नदीको निर्दोष ज्ञान-नौकामे पार किया है, जो इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योनि है-कष्टपरम्पगको उत्या करने वाली है-और जिसका पार करना आसान नहीं है-बरे कष्टसे जिसे तिरा (पार किया जाता है।' अन्तकः क्रन्दको नणां जन्म-अधर-सखा सदा। स्वामन्तकान्तकं प्रौप्य व्यावृत्तः कामकारतः॥८॥ 'पुनर्जन्म और ज्वरादिक रोगोंका मित्र अन्तक-यम सदा मनुष्योंको रुलाने वाला है। परन्तु श्राप अन्तकका अन्त करने वाले हैं, आपको प्राप्त होकर अन्तक-काल अपनी इच्छानुसार प्रवृतिसे उपरत हुया है-उसे श्रापके प्रति अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा है।' Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७] समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने भूषा-वेषाऽऽयुध-स्यागि विद्या-दम-दया-परम् । रूपमेव तवाचष्टे धीर! दोष-विनिग्रहम् ॥४॥ __'हे धीर पर जिन ! प्राभूषणों, वेषों तथा श्रायुधोंका त्यागी और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय नथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हए आपका रूप ही इस बातको बतलाता है कि आपने दोषोंका पूर्णतया निग्रह (विजय) फिया है क्योंकि गग तथा अहंकारका निग्रह किये विना कटक-केयूरादि प्राभूषणों तथा जटा-मुकृटरक्ताम्बरादिरूप वेषों के त्यागने में प्रवृत्ति नहीं होती, द्वेष तथा भयका निग्रह किये विना शस्त्रास्त्रोका त्याग नहीं बनता, अज्ञानका नाश किये विना शान में उत्कृष्टता नहीं आती, मोहका क्षय किये बिना कषायो और इन्द्रियोंका पूग दमन नहीं बन पाना और हिंसावृत्ति, द्वेष तथा लौकिक स्वार्थको छोड़े विना दयामें तत्परता नहीं पाती। समन्ततोऽभासा ते परिवेषेण भूयसा। तमो बाह्यमपाकीणमध्यात्म ध्यानतेजसा ॥१०॥ 'मब ओरसे निकलने वाले आपके शरीर-तेजों के बृहत् परिमंडलसे-विशाल प्रभामंडलसे-आपका बाह्य अन्धकार दूर हुश्रा और ध्यानतेजसे आध्यात्मिक-ज्ञानाबरणादिरूप भीतरी-अन्धकार नारको प्राप्त हुआ है।' मवैज्ञज्योतिषोनस्तावको महिमोदयः । कंन कुर्यात्प्रणम्र ते सत्वं नाथ! सचेतनम् ॥ ११ ॥ 'हे नाथ अरजिन ! सर्वज्ञको ज्योतिसे-ज्ञानोत्कर्षसे-वृत्पन्न हुआ आपके माहात्म्यका उदय किम्म सचेतन प्राणीको-गुण-दोष के विवेकमें चतुर जीवात्माको-प्रणम्रशील नहीं बनाता? सभीको श्रापक श्रागे नत-मस्तक करता है। तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषा-स्वभावकम् । प्रीणयन्यमृतं यबस्पाणिनो व्यापि संसदि। 'श्रीसम्पन्न- सकलार्यके यथार्य प्रतिपादनकी शक्तिसे युक्त-सर्व भाषाओंमें परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवसरण सभामें व्याप्त हुभा आपका बचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त-संतुष्ट करता जिस प्रकार कि अमृत-पान । अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शन्यो विपर्ययः। ततः सर्व मृषोतं. स्यात्तदयुक्तं स्वयात्ततः॥१३॥ ___(हे अरजिन !) आपकी भनेकान्तदृष्टि (अनेकान्तात्मक-मतप्रवृति) सती-समधी है, विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह शून्यरूप असत् है*अतः जो कथन अनेकान्त दृष्टिसे रहित-एकान्त दृष्टिको लिये हुए है वह सब मिथ्या है, क्योंकि वह अपना ही-सत्-असत् श्रादि रूप एकान्तमतका री-घातक है-- अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। ये परस्खलितोनिद्राः स्वदोषेभनिमीलिमः । तपस्विनस्ते किं कुर्युरपात्रं स्वन्मत:श्रियः ॥१४॥ “यह सब कैसे है, इस विषयका विशेष जाननेके लिये 'समन्तभद्रभारती के सुमति-जिन और सुविधि-जिनके स्तोत्राको सार्थ रूपमें देखना चाहिये। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्षे ६ 'जो (एकान्तवादी जन) परमें-अनेकान्तमें-विरोधादि दोष देखने के लिये उनिद्र--जागृत-रहते हैं और अपने में-सदादि एकान्तमें-दोषों के प्रति गज-निमीलनका व्यवहार करते हैं--उन्हें देखते हुए भी न देवनेका डौल बनाते है-वे बेचारे क्या करें?-उनमे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण बन नहीं सकता। (क्योंकि वे आपके अनेकान्त मतकी (यथार्थ वस्तुस्वरूप-विवेचकत्वलक्षणा) श्रीके पात्र नहीं हैं-सर्वथा एकानपक्षको अपनानेसे वे उसके योग्य ही नहीं रहे।' तेतं स्वघातिनं दोष शमीकमनीश्वराः । स्वरिषः स्वहनोबालास्तस्वावक्तव्यतां श्रिताः॥१५॥ 'वे एकान्तवादी जन, जो उस (पूर्वोक्त ) स्वघाति-दोषको दूर करनेके लिये असमर्थ हैं, आपकोश्रारके अनेकान्तवादको-दोष देते हैं,मात्मघाती हैं-अपना घात श्राप करते हैं, और यथावद्वस्तुस्वरूस अनभिज्ञ-बालक है उन्होंने तत्वकी प्रवक्तव्यताको आश्रित किया है-वस्तुतत्व अवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन कया है।' सदेकनिस्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्बथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहितं ।।१६।। 'सत , एक, नित्य, वकव्य और इनके विपक्षरूप असत् , अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नयपक्ष हैं वे सर्वथा-रूपमें इष्टको दूषित करते हैं और स्यात् रूपमें इष्टको पुष्ट करते हैं। अर्थात् सर्वथा सत्, मवथा असत्, सर्वथा एक (अद्वैत) सर्वथा अनेक, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वाताव्य और सर्वथा प्रवक्तव्य रूपमें जो मत-पक्ष हैं, वे सब दूषित (मिथ्या) नय --स्वेष्टमें बाधक हैं। और स्यात् सत् , स्यात् असत्, स्यात् एक, स्यात् अनेक,स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्यरूपमें जो मत-पक्ष हैं, वे सब पुष्ट (मम्यक) नय है-स्वकीय अर्थका निर्वाधरूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ हैं।' सर्वथा-नियम-त्यागी यथादृष्टमपेचकः । स्थाच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविहिषाम् ॥ १७॥ 'सर्वथारूपसे--सत् ही है, असत् ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है इत्यादि रूपसे प्रतिपादन के नियम का त्यागी, और यथादृष्टका-जिस प्रकार सत्-असत् श्रादिरूपसे वस्तु-प्रमाण-प्रतिपन्न है उसको-अपेक्षामें रखन वाला जो 'स्यात् शब्द है वह आपके-अनेकान्तवादी जिनदेवक-न्यायमें है, (त्वन्मत बाघ) दूसरोंकेएकान्तवादियोंके-न्यायमें नहीं है, जो कि अपने वैरी आप हैं।' अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाण-नय-साधनः । अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽर्षितात्रयात् ।।१८।। 'आपके मतमें अनेकान्त भी सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण और नयसाधनों (रष्टियों) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है-कश्चित् अनेकान्त और कथञ्चित् एकान्तरूप है । प्रमाण दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है (सकलादेशः प्रमाणाधीन:' इस वाक्यक प्राशयानुसार) और विवक्षित नयकी *एकान्तबादी परके बैरी होनेके साथ साथ अपने वैरी आप कैसे हैं। इस बातको सविशेष रूपसे जाननेके लिये 'समन्तभद्र-विचार-माला' का प्रथम लेख 'स्व-पर-बैरी कौन ? देखना चाहिये, जो कि 'अनेकान्त' वर्ष ४ की प्रथम किरण (नववर्षा) में प्रकाशित हुया है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] अज्ञान-निवृत्ति २३३ अपेक्षासे अनेकान्तमें एकान्तरूप-प्रतिनियतधर्मरूल-सिद्ध होता है (विकलादेशः नयाधीनः' इस वाक्यके आशयानुसार) इति निपम-युक्तशासनः प्रिय-हित-योग-गुणाऽनुशासनः। भरजिन! दमतीर्थनायक स्वमिव सतां प्रतिषोधनायकः ॥ १९ ॥ 'इस प्रकार हे अरजिन ! आप निरुपम युक्त शासन है--उपमारहित और प्रमाणप्रसिद्ध शासन-मन के प्रवर्तक है-,प्रिय तथा हितकारीयोगोंके-मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियोंके-और गुणोंके-सम्यग्दर्शनादिककेअनुशासक है, साथ ही दम-तीर्थक नायक हैं--कषाय तथा इन्द्रियोंकी जयके विधायक प्रवचनतीर्थ के स्वामी है। आपके समान फिर साधुजनोंको प्रतिबोध देनेके लिये और कौन समर्थ है१ कोई भी समर्थ नहीं है। श्राप ही समर्थ है। मतिगुणविभवानुरूपत स्वपि बरदागमदृष्टिरूपतः । गुणकृशमपि किश्चनोदितं मम भवनाद् दुरितासनोदितम् ।। २०॥ -स्वयंभूस्तोत्रान्तर्गत "हे वरद--अरजिन ! मैंने अपनी मति-शक्तिकी सम्पत्तिके अनुरूप-जैसी मुझे बुद्धि-शाक्त प्रान हुई है उसके अनुमार-तथा श्रागमकी दृष्टिके अनुसार--भागममें कथित गुणों के श्राधारपर--आपके विषय में कुछ थोड़ेसे गुणोंका वर्णन किया है, यह गुण-कीर्तन मेरे पापकर्मों के विनाशमें समर्थ होवे-इसके प्रसादसे मेरी मोहनीयादि पाप-कर्मतियोका क्षय होवे।' अज्ञान-निरत्ति [ले-श्री पं० माणिकचन्द जैन,न्यायाचार्य] श्रीयुत बाबू नेमीचन्दजी वकील, सहारनपुरने अज्ञानकी निवृत्ति करते ही रहते हैं, जैसे अग्नि सदा केवलज्ञानके फलविषयमें एक प्रश्न पूछा है, जिसका ही निकटवर्ती योग्य शीतका निवारण करती रहती है, उत्तर दूसरे जिज्ञासुओंके लाभार्थ प्रश्नसहित नीचे अथवा सूयें हमेशा तिरछा पचास हजार, ऊपर सौ दिया जाता है: योजन और नीचे १५०० योजन क्षेत्रके अन्धकारको प्रश्न--केवलज्ञानका फल प्रज्ञानको निवृत्ति हो मेटता रहता है। उदयकालका सूर्य हो या दोपहरका, जाना प्रथम क्षणमें तो ठीक ऊँचता है। क्योंकि उसको शक्तिपूर्वक यह तमोनिवृत्ति करनी ही पड़ेगी। बारहवें गुणस्थानके अन्त में अज्ञान है, केवलझानने एक सैकिण्डकी भी ढील कर देनेपर राक्षसीपम अंधउत्पन्न होकर उस अज्ञानकी नि-त्ति की; किन्तु द्विती- कार तत्काल आ धमकेगा। यादि क्षणोंमें केवलज्ञानोंका फल अज्ञान-निवृत्ति क्यों अज्ञान-निवृत्ति करते रहना ज्ञानका प्राण है। माना जाय १ जबकि वहाँ कोई अज्ञान अवशेष ही। इसीसे प्राचार्य महोदयने-“अज्ञाननिवृत्तिनोपानहीं है? दानोपेक्षाश्च फलम" -परीक्षामुख उत्तर-पांचों प्रमाणसानों और भले ही तीनों उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । कुक्षानोंको मिला लिया जाय, आठों ही शान सदा पूर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।। प्राप्तमी. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनेकान्त इस प्रकार के वाक्योंद्वारा अज्ञाननिवृत्तिको प्रमाणका साक्षात् फल माना है । समकालीन उपज रहे दो पदार्थों में भी कार्यकारण भाव बन जाता है। जैसा कि अमृतचन्द्र सूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट हैकारण-कार्य-विधानं समकालजायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरित्र" -पुरुषार्थ सिद्धय पाय ३४ किसी भी ज्ञानद्वारा तत्क्षण अज्ञानका निवृत्ति अवश्य हो जाती है । तभी तो केवलज्ञानीक अज्ञानभावका होना असंभव है । योग्यताको टाला नहीं जा सकता । यदि द्रव्यार्थिकनय या निश्चयनय एकेन्द्रियको सिद्ध समान कहते हैं, तो सिद्धोंको भी शक्तिरूपसे एकेन्द्रिय होजाने की योग्यता कह देने में उनको क्या संकोच हो सकता है ? बात यह है कि जो कार्य नहीं होरहा है उसको रोकने के लिये दृढ़ बाँध बँध रहे हैं ऐसा मानना ही पड़ेगा । लवणसमुद्रका पानी जो ग्यारह हजार अथवा सोलह हजार योजन उठा हुआ है, यदि मचल जाय तो जम्बूद्वीपका खोज खोजाय । किन्तु " न भूतो न भावी न वा वर्तमानः ।" पानीको वहीं डटा हुआ रखनेके लिये अंतरंग स्तम्भनशक्ति और बहिरंग बेलंधर देवोंके मजबूत नगर व्यवस्थित होरहे मानने पड़ते हैं । धर्मद्रव्य कालत्रयमें अधर्म नहीं हो सकता है । सर्वार्थसिद्धिके देव या लोकान्तिक देव भविष्य में नारकी या तिथेच पर्यायको नहीं पा सकते हैं। रूप-गुरण कालान्तर में रस-गुण नहीं हो सकता है । आज महापद्म का जन्म नहीं होता है इन सब कार्योंक लिये अनेक प्रागभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावकी बलवत्तर भातें खड़ी हुई हैं। बनारसी दलालोंक समान ये सब व्यक्त-अव्यक्तरूपसे साथ लगे हुए हैं । अगुरुलघु-गुण भी अन्य व्यावृत्तियों के करने में अनुक्षण अड़कर जुटा हुआ है । "सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे ।” -आप्तमीमांसा इत्यादि आचार्यवाक्य भी इसी बातको पुष्ट करते है । छेदोपस्थापना-संयमके मर्मस्पर्शी विद्वान् इस तत्व [ वर्ष ६ को शीघ्र समझ जायेंगे । यों केवलज्ञानको सवेदा अज्ञाननिवृत्ति करनी पड़ती है । श्री माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द स्वामी और प्रभाचन्द्रने अनेक युक्तियों से अज्ञाननिवृत्तिको ज्ञानसे अभिन्न ही बतलाया है और सिद्ध किया है'। पहिले क्षणका दीपक और लगातार घन्टों तक जल रही मध्यवर्ती दीपककी लौं भी उस तमोनिवृत्तिको सतत् करते ही रहते हैं । यदि मध्यवर्ती द्वितीयादि क्षणोंमें तमोनिवृप्ति न हो तो वही निविड़तम तम आधमकेगा । अतः प्रकाशस्त्रभाव तमोनिवृत्तिकी तरह स्वार्थनिर्णीति स्वभाव ही अज्ञाननिवृत्ति है । महान् नर-पुङ्गवों में भी कुकर्म करनेकी योग्यता है, परन्तु अपने स्वभावोंके अनुसार महान पुरुषार्थ करते हुये उन पापकर्मोंस बचे रहते हैं । पुरुषार्थ में ढील हो जाने से माघनन्दी और द्वीपायन मुनि अपने ब्रह्मचर्य और क्षमाभावसे स्खलित होगये थे । श्री अकलंकदेवने अप्रशती में "यावन्ति पररूपाणि, प्रत्येकं तावन्तस्ततः परावृत्तिलक्षणाः स्वभावभेदाः प्रतिक्षणं प्रत्येतव्याः " इत्यादि प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्वको पुष्ट किया है । श्रभावात्मक धर्मोके जौहरोंका अन्तःनिरी क्षरण कीजिये | तत्त्रोंका केवलज्ञान और अज्ञान दोनों परस्पर में व्यवच्छेदरूप धर्म है। दोनोंमेंसे किसी एकका विधान कर देनेपर शेषका निषेध स्वतः होजाता है । केवलज्ञानके स्वीकार के साथ लग्रे हाथ ही अज्ञान निवृत्ति न माननेपर "वदतो व्याघात" दोष आता है । अतः केवलज्ञानका अनिनिवृत्ति होना शाश्वत अनिवार्य फल है । भाव आत्मक कारण, कार्यों में भले ही क्षणभेद हो । किन्तु प्रतिवन्धकाभावरूप कारण और प्रागभाव - निवृत्ति आत्मक कार्य इन कारण- कार्यों में क्षणभेद नहीं है। प्रकरण में ज्ञानावरणक्षय (केवलज्ञान) और अज्ञाननिवृत्ति में क्षणभेद नहीं है। दोनोंका समय एक है और दोनों एक ही हैं । १ देखा, परीक्षा मुख ५.३, तत्वार्यश्लोकवा० पृ० १६८, प्रमाणपरीक्षा पृ० ७६, प्रमेयकमल० ५- १, २, ३ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक ब्रात्य और भ० महावीर (लेखक-श्री कर्मानन्दजी) अथर्ववेदके पन्द्रह काण्डमें एक व्रात्य सूक्त है, एक वर्ष तक एक ही स्थानमें निरंतर पर्वतकी तरह जो कि वर्तमान ऐतिहासिक विद्वानों के गहन अध्ययन निश्चल खड़े रहकर घोर तप किया है इसीलिए इन का विषय बना हुआ है। प्रायः सभी विद्वानोंने इस का नाम प्रती अर्थात् प्रात्य पड़ा जान पड़ता है। पहेलीको सलझानेका प्रयत्न किया. परन्तु यह सल- आज भी जैनसमाजमें अपवारसादिरूप तप-प्रतकी झने के बजाय उलझती ही गयी। अभी हालमें अोझा प्रधानता है, इससे सिद्ध होता है कि यह व्रात्य सूक्त जीको जो अभिनन्दन प्रन्थ दिया गया है उसमें जैनधमकी परंपराका ही परिचायक है। जैनधर्म जर्मनके प्रसिद्ध विद्वान् डा. हावरट्य विगेनने इस भगवान ऋषभदेवसे लगाकब आज सक अहिंसाको पर एक गवेषणात्मक लेख लिखा है। आपका कथन ही परमधर्म मानता है और निरर्थक बैदिक क्रिया काण्डोंका निषेध करता रहा है। (१) ध्यानपूर्वक निरन्तर दीर्घकाल तक विवेचन अथर्ववेद काण्ड ४. सूक्त ११ मन्त्र ११ में व्रतका के बाद मैं यह कह सकता हूँ कि यह प्रबन्ध (वात्य पर्यायवाची प्रत्य' आया है उसी प्रत्यसे 'व्रात्य' शब्द सूक्त) प्राचीन भारतके ब्राह्मणेतर आये धर्म के मानने बना है-अर्थात् ब्रत्य (ब्रत) को धारण करने वाला। बाले व्रात्योंके उस वाङ्मयका कीमती अवशेष है जो ताण्ड ब्राह्मण १७१-५ में 'ब्रतः' शब्द भाया है प्रायः चुन चुनकर नष्ट किया जा चुका है। जिसका अर्थ सुप्रसिद्ध वैदिक भाष्यकार श्री सयणा(२) मनीय उपब्राझणसे ज्ञात होता है कि चायने 'त्रात्य-समुदाय' किया है, इससे भी बात और व्रात्य लोग ऊर्वलोकमें स्थित तथा यज्ञादिकी हिंसासे ब्रात्य समानार्थ सिद्ध होते हैं जिसका अर्थ व्रती घृणा करने वाले और 'मोम्' इस अक्षरका गूढ़ मान (दीक्षित) होता है। भी रखते थे। अथर्व वेदके इसी चतुर्थ काण्डके इसी मन्त्रमें (३) योग और सांख्यके मूलतत्वोंका यही आधार इसको मागबान कहा गया , या आदि स्रोत है। होता है कि यह व्रत्य लोग मगधादि देशोंके रहने (४) अथर्ववेदका व्रात्य एक वर्ष तक खड़ा रह वाले थे और इनकी संस्कृति मागध संस्कृतिके नामसे कर घोर तप करता है और चारों दिशाओंकी तरफ प्रसिद्ध थी, जो कि वैदिक क्रियाकाण्डका प्रत्यक्ष उन्मत्तवत् मौनभावसे भ्रमण करता है। विरोध था ! यही कारण है कि वैदिक साहित्यमें ५) वह सर्वेश, सर्वदृष्टा और जीवन्मुक्त सममा मगधादि देशोंकी और उसकी निन्दा की गई है। जाता है। इत्यादि ।” प्रश्नोपनिषद् मुक्तात्मा (परमात्मा) को प्रात्य इस वैदिक प्रात्यके साथ यदि मगवान ऋषभदेव कहा गया है, इससे भी हमारे उपरोक्त कथनकी पुष्टि और बाहुबलि स्वामीके जीवनका मिलान किया जाय होती है। तो देखेंगे कि इनमें कुछ भी अन्तर नहीं है। भगवान सामवेदीय ताएड ब्रामणमें एक 'प्रात्यस्तोम' है, ऋषभदेवने मह महीने तक निश्चल खड़े रहकर खडू- जिसमें ब्रात्योंका विशेष उल्लेख आया है। उसमें गासनसे तप किया और छह महीने तक भ्रमण करते लिखा है कि 'ये लोग वैदिक यज्ञादिसे घृणा करते थे हुए भी निराहार रहे। इस प्रकार इन्होंने १ वर्ष तक तथा पहिंसाको ही अपना मुख्य धर्म मानते थे। निराहार रहकर घोर तप किया। और बाहुबलिने तो इनके रहन सहनके विषय में लिखा है कि-'ये लोग Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अनेकान्त [वर्षे ६ ढीले ढाले लाल किनारे वाले कपड़े पहनते थे तथा और प्रत्येक जातिके लिए अलग अलग रंगके वस्त्र ब्राह्मणोंसे पृथक् भाषा बोलते और ब्राह्मणोंकी भाषा आभूषण नियत थे। इनमें लाल रंगके क्षत्रिय थे वे को लिष्ट बताते थे और खुले हुए युद्ध के रथोंपर - या तो लाल रंगके कपड़े पहनते थे या लाल किनारे सवारी करते थे।भाला धनुष श्रादि हथियार रखते थे।की धोती बांधते थे। जिस प्रकार ताण्ड ब्राह्मणमें इस कथनसे इनका क्षत्रिय होना प्रगट होता है। ब्रात्योंका वर्णन है हूबहू वैसा ही कथन लिच्छवियों वहाँ इनके आश्रित भृत्यादिकोंका भी कथन है जिससे का कथन रमेशचन्द्रदत्तजीने किया है। विदित होता है कि ये लोग अपने आश्रितोंको मड़ा खुशहाल रखते थे। इनके भृत्यादि खूप जेवर आदि भारतीय इतिहासकी रूपरेखाके पृष्ठ ३४६ में प्रो. जयचन्द्रजी विद्यालंकारने लिखा है कि "इस पहिनते थे और हष्ट पुष्ट होते थे। (ताण्ड ब्राह्मण १७१-५) वातका निश्चित् प्रमाण है कि वैदिक मार्गसे भिन्न मार्ग कुछ और महावीरसे पहिले भी यहां थे। श्रहंन्त प्राचीन भारतीय सभ्यताके इतिहासमें बाबू लोग बुद्ध के पहिले भी थे और उनके चेले भी यहाँ रमेशचन्द्र दत्तजीने लिच्छवि लोगोंका वर्णन किया थे। इन आहेतोंके अनुयायी व्रात्य कहलाते थे। है और लिखा है कि “जब भगवान बुद्ध वैशालीमें जिनका उल्लेख अथर्व वेदमें है । लिच्छिवि लोग गये तो लिच्छवि लोग अपनी प्रजा व सैनिकों सहित प्राचीन भारतकी एक प्रसिद्ध व्रात्य जातिके थे।" उनके दर्शनको गये जिनमेंसे कुछ काले थे जो काले कपड़े पहनते थे कुछ भूरे थे वे भूरे वरु पहिने हुए थे इसी लिच्छवि वंशमें भगवान महावीरने और जो लाल रंगके थे वे लाल कपड़े अथवा लाल अवतार लिया था। लिच्छवि वंशकी ही एक शाखा किनारीकी धोतियां पहिने हुए थे।" इससे ऐसा प्रतीत ज्ञातृवंश थी। इसीसे भगवान महावीरको ज्ञातपुत्र होता है कि उस समय रंगके अनुरूप जातियाँ थीं (नातपुत्त) कहते हैं। गद्य-गीत (ले०-श्री'शशि' कारीगर ! क्या बना रहे हो तुम यह ? 'यह कायर यंत्र है। बड़ा सुन्दर है, क्या करेगा यह यंत्र ? 'जनताके प्राणोंकी रक्षा !' तुम्हें इसकी बनवाई क्या मिलेगी कारीगर ? 'बनवाई नहीं"पुरुस्कार मिलेगा' एक दिन जनता अपने अधिकार हठपूर्वक मांगने एकत्रित हुई। भीड़को हटाने के लिये 'कायर यंत्र' का इस्तेमाल हुचा, यंत्र तूफानी गतिसे गोलियाँ बरसाने लगा." और लहू-लुहान जनता कराहती दमतोड़ती धरतीपर गिरने लगी। कारीगर ! यह सब कुछ न देख सका और पागलसा अपने 'यंत्र' की ओर बढ़ा।। कई गोलियाँ एक दम ठीक छातीपर पड़ी। दूसरे ही क्षण कारीगर पृथ्वीकी छातीपर लोटने लगा। क्यों कारीगर ! यह क्या ? भस्फुट लड़खड़ाते दमतोड़ते कारीगर बोला... 'मेरी कलाका सही पुरुस्कार !! Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंका विश्लेषण (लेखक ..श्री पं० वंशीधर व्याकरणाचाये) [गन किरण नं. ४ ५ श्रागे] (५) नयाँका वर्गीकरण . लोकोक्तिका अर्थ यह है कि शुख अर्थात तर्कसम्मत होते उशिखित पराध-प्रमाबाके अंशभूननयोंके जैनधर्ममें कई हए भी लोकहित-विरोधी नको कथन करना चाहिये और वर्ग बतलाये गये हैं। इनमेंसे एक वर्ग द्रव्यार्थिकनय और पर्या- न ऐमा माचरणा ही करना चाहिये। करणानुयोगके महान यार्थिकनायकाचौरममा निश्वयनय चौर व्यबहारनयका है। प्रन्थ गोम्मटसार-जीवकांटमै सम्यग्दष्टि (ज्ञानी) और पहिले वर्गको 'नयोंका सैद्धान्तिकवर्ग" कहा जायकता और मिथ्यारष्टि (भज्ञानी) में मेव दिवालाते हुए लिखा है किदूसरे वर्गको "नयोंका आध्यात्मिक वर्ग" कह सकते हैं। इस सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अज्ञानतावश पदार्थके स्वरूपको गलत का कारण यह है कि जैनधर्मके कथनमें दोष्टियाँ अपनाई समझते हुए भी उसका अभिप्राय या उद्देश्य पवित्र होने गई (1) सैजातिकट और (२) चाभ्यात्मिक दृष्टि के कारण सम्यग्दष्टि ज्ञानी ही बना रहता है।" इसमे वह जैनधर्ममें मान्य चार अनुयोगॉमसे इम्यानुयोगका कथन निष्कर्ष निकलता है कि एक व्यक्ति पदार्थ के स्वरूपको सैद्धान्तिक से और करमानुयोग तथा चरणानुयोगका पालत समझने के कारण सैद्धान्तिक रष्टिये अज्ञानी होते हुए कथन माध्यात्मिक दृटिसे समझना चाहिये, क्योंकि वस्तुका भी अभिप्राय या उद्देश्यकी पवित्रताके कारण पाण्यात्मिक स्वरूप समझाने के लिये उसके गुण, स्वभाव, धर्म या अंशोंका दृष्टिले जानी माना जा सकता है और दसरा भ्यक्ति पवार्थक प्रतिपादन करना सैज्ञान्तिक ष्टि मानी गई है और प्राणियों स्वरूपको सही समझनेक कारणा सैद्धान्तिक रष्टिसे ज्ञानी केलच्यभूत शामकल्याणके लिये उपयोगी कथन करना होते हुए भी अभिप्राय या 'श्यकी दुशताके कारण माध्यात्मिक मानी गई है। इन दोनों दृष्टियोंमें भेद आध्यात्मिक दृष्टिसे अज्ञानी माना जा सकता है। यही सबब यह कि जहां सैद्धान्तिक टिम वस्तु के स्वरूपका प्रतीति है कि जहां सैद्धान्तिक रिसे जीवको बारहवं गुणस्थान के अनुसार जैसाका तसा प्रतिपादन किया जाता है वहाँ तक अज्ञानी माना गया है वहां माध्यामिक दृष्टिले उसको माध्यास्मिक टिम दूसरोंके लाभकी रष्टिसे वस्तुका प्रनीतिक चतुर्थ गुणस्थान में ही ज्ञानी स्वीकार किया है। प्रकार विरुव अन्यथा भी प्रतिपादन किया जाता है। यही सब जब सैद्धान्तिक रष्टि और माध्यात्मिक रहि दोनोंम भेद है कि वीतराग जिनेन्द्रकी अष्टद्रव्यसे की गयी पूजा तर्क मिद्ध हो जाता है तो इन दोनों रष्टियोंके अाधार पर स्वीसम्मत होनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टि से उचित न होते हुए कृत नयोंमें भी भेट होना स्वाभाविक है। इसलिये नयाँका भी पूज के लिये लाभकर होनेके कारण प्राध्यात्मिक दृष्टि उक्लिखित दो वर्गों में किया गया विभाजन शाखसम्मत से जैनधर्ममें उपादेय बतलायी गयी है। और महत्वपूर्ण है। साथ ही इन दो बाँके अतिरिक्त एक "सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं खौकिको विधिः। तीमरा वर्ग भी नयाँके बारेमें माना आयकता है, जो यद्यपि बत्र सम्वत्वहानिनं यत्र न प्रदूषणम् ॥ " सोमदेवमरिका यह कथन भी इन दोनों इन दोनों वर्गोंसे भिन्न तो नहीं होगा, फिर भी मावश्यक रष्टियोंके भेदका सूचक है। "यद्यपि शुदं लोकविरुवं न समझ कर हमने इसे स्वतंत्र वर्ग मानना ही ठीक समझा। न कथनीयं नावरणीयम्" ऐसीऐसी लोकोक्तियां भी सिदा- और इस वर्गको हम “नयोका लोक सं वर्ग" नाम न्त और अध्यात्मके भेदको ही प्रदर्शित करती हैं । इम २ सम्मा। जीयो अटुपवयणं तु मददि ! महदि १ यशस्तिलकचम्पू, उत्तरार्ध पृष्ठ ३७३ असम्भावं अजाणमाणी गुरुणियोगा।-जीव कांडगा०२७ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ . अनेकान्त [ वर्षे ६ देना चाहते है। इसका प्रामास भी हमें जैन प्रों में देखने सामान्य और विशेषधर्म चाली' म.न गया है। सामान्य को मिलता है जैसा कि आगे प्रगट किया जायगा । धर्मको वस्तुका द्रव्यांश और विशेषधर्मको वस्तुका पर्या यांश भी कहते हैं। एक ही वस्तुमें भिन्न भिख समयके अंदर (६) नयोंका सैद्धान्तिक वर्ग हमें जो विषमता दिखाई देती है उसके रहते हुए भी वस्तु वस्तु-स्वरूप-निर्णयके बारेमें प्रमाया-मान्यताको सभी के विषय में हमारा एकत्व ज्ञान अक्षुण्ण बना रहता है। इस दर्शनों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है लेकिन जैनदर्शनमें का कारण उस वस्तु में रहनेवाला सामान्यधर्म अर्थात् प्रमाण-मान्यताके साथ साथ नय-मान्यताको भी उतना ही द्रव्यांश समझना चाहिये और भिन्न भिन्न समयमें दीखने वाली उपयोगी बतखाया है। उस विषमताका कारण उस वस्तुमें रहने वाला विशेषधर्म अर्थात् पर्यायांश समझना चाहिये । इसी तरह अनेक प्रतीतिके प्राचारपर बस्तुस्वरूप-निर्णयका सिद्धान्त वस्तुओंमें एक ही समयके अंदर हमें जो समानता और लोकमान्य है। लोकमें वस्तु यदि अनेक-धर्मात्मक या विषमनाका अनुभव होता है इसमें भी जन वस्तुओं में रहने अनेक-अंशात्मक प्रतीत होती है तो लोक उसे वैसी ही वाले सामान्यधर्म और विशेषधर्मको ही कारण समझना स्वीकार करता है। जैसे एक पका हुमा पाम सामने भासा चाहिये। जैसे एक मनुष्य भिन्न भिन्न समय में होने वाली है। लोग उसका ज्ञान भाँखसे देखकर, हाथसे कर, नाक बाल, युवा और वृद्ध अवस्थानोंमें भी मनुष्य ही रहता है संधकर और जीभसे चखकर किया करते हैं। भिन्न भिक और अनेक मनुष्य एक ही समयमें परस्पर भिन्न दिखाई टियोद्वारा भित्र मिल प्रकारसे होने वाले इन चारोंज्ञानोंमें देते हए भी समान रूपसे मनुष्य ही कहे जाते हैं । इसलिये से कौनसा ज्ञान सही और कौनसे तीन ज्ञान गलत माने इस प्रकारके सही अनुभवोंके आधारपर यही मानना पड़ता जावें इसका नियाय करना असंभव है। इसलिये इन चारों है कि उस एक मनुष्य में भिक भिन्न समयके अंदर भेदसूचक ही ज्ञानोंको पालत मानना भी ठीक नहीं है, कारण कि एक बाल, युवा और वृन्द्र अवस्थारूप विशेषधर्म और इन सब तो इन चारों ही शानोंको ग़लत माननेका कोई भी निमित्त अवस्थानों में भी एकतासूचक मनुष्यस्वरूप सामान्यधर्म वहांपर मौजूद नहीं रहता है। दूसरे ऐसा मान लेनेपर उस मौजूद है तथा अनेक मनुष्यों में भी इसी तरह एक ही मामके स्वरूपका निर्णय भी नहीं किया जा सकता है। इस समय में पार्थक्यसूचक विशेषधर्म और समानतासूचक लिये इन सभी ज्ञानोंको खोकमें सही कबूल किया गया है सामान्यधर्म मौजूद है। और चकि ये सभी ज्ञान एक दूसरे ज्ञानसे बिल्कुल भिड मालूम पड़ते हैं इसलिये इनके निमित्तभूत चार धर्म रूप, वस्तुका सामान्यधर्म भिन्न भिन्न समयों में भी उस वस्तु स्पर्श गंध और रस-उस माममें स्वीकार कर लिये जाते में मौजूद रहनेके कारण नित्य माना गया है और उसका है। लोकमें यही प्रक्रिया दूसरी सभी वस्तुओं के बारेमें विशेषधर्म बदलते रहनेके कारण प्रनित्य कबूल किया अपनायी गयी है। इस प्रकार वस्तुकी अनेक धर्मात्मकता गया है। यही सबब है कि जैनधर्ममें वस्तुको नित्यानित्यात्मक यपि बोकमें भी स्वीकार की गयी है, परन्तु जैनदर्शनमें अथवा धौम्य-व्यय-उत्पादात्मक कहा है। यहाँपर नित्यता अनेक-धर्मात्मकताकी इस मान्यताको इतना व्यापक रूप काही अर्थ धौम्य और अनित्यताका ही अर्थ व्यय और दिया गया है कि यदि परस्पर विरोधी धर्म भी वस्तुमें उत्पाद समझना चाहिये। वस्तुके व्ययका अर्थ होता है प्रतीत होते हैं तो उस वस्तुमें उन विरोधी धर्मों के समाव उस वस्तुकी पूर्वपर्यायका नाश और वस्तु उत्पादका अर्थ को भी वह स्वीकार करता है। जैनदर्शन में दसरे वर्शनोंकी होता है उस वस्तुकी उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति । लेकिन वस्त अपेक्षा यही विशेषता है और दर्शनकी इस विशेषता की पूर्वपर्यायका नाश और उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति ये दोनों कारण जैनधर्मकोहीलोकमें भनेकान्तवादी धर्म कहा गया। एक ही कालमै होजाया करती हैं। इसखिये जैनधर्ममें व्यय जैनधर्मके तत्वज्ञानमें प्रतीतिके आधारपर बस्तुको १सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः।-परीक्षामुख ४-१ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] नयों का विश्लेषण ३३६ और उत्पादका अर्थ परिणमन किया गया है-अर्यात पर्यायाथिकनय कहा जायगा। महावाक्यके बारेमें नोंका वस्तुकी पूर्वपर्याय ही स्वाभाविक तौरपर अथवा बाझ उदाहरण इस प्रकार है-वस्मुकै सामान्य और विशेष दोनों निमित्तोंके आधारपर बदलकर उत्तरपर्याय बन जाती है। धर्मोंका प्रतिपादन करनेवाले दो प्रकरणोंका एक अन्य है। यही सबब है कि जैनधर्ममें प्रभावको भावान्तर स्वभाव यहांपर दोनों प्रकरणोंका पिंडभूत ग्रन्थ तो परार्थप्रमाण माना गया है । वस्तुके एकानेकात्मकरव. सदसदात्मकत्व । माना जायगा, कारण कि वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन दोनों मादि स्वरूप भी इन्हीं मामान्य और विशेषधर्मों के विशेष- प्रकरणोंके समुदायल्प मन्यसे ही होता है और अनेक रूप ही समझने चाहिये। पापों तथा महावाक्योंकि पिंडभूत दोनों प्रकरण कि वस्तुके एक एक अंशका प्रतिपादन करते हैं इसलिये दोनों इन परस्पर विरोधी सामान्य और विशेष दोनों धर्मों प्रकरणोंको ट्रम्पार्थिकमयवाक्य और पर्यायार्थिकनयवाक्य का प्रतिपादन करनेके लिये पूर्वोक्त परार्थश्रुतके भी जैनधर्म समझना चाहिये। में दो अंश माने गये हैं जिनको क्रमसे पूर्वोक्त द्रव्यार्थिक नय और पर्यार्याथिक नय नाम दिये गये हैं-अर्थात यदि कहीं पर सिर्फ "वस्तु नित्य "सबायकाही द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुके ग्यांशभूत मामान्यधर्मका प्रति- प्रयोग किया गया हो और इस वाक्यके जरिये बससके पादन होता है और पर्यायार्थिक नयसे उसके पर्यायांशभूत तयांशभूत नित्य धर्मका प्रतिपादन करना ही वक्ताको विशेषधर्मका प्रतिपादन होता है । इसलिये वस्तुस्वरूप अभीष्ट हो. तो वहाँ पर "वस्तु भनित्य है" इस वाक्यका विवेचनकी रष्टिसे इन दोनों नोंको "नयोंका सैद्धान्तिक आक्षेप करना अनिवार्य होगा, (भले ही वह वक्ताके लिये वर्ग" न म दिया गया है। गौण हो) कारण कि 'वस्तु भनित्य " स वाक्यके साथ ये दोनों नय पूर्वोक्त प्रकारसे पद. वाक्य और महा. एकवाक्यताको प्राप्त हुमा "वस्तु निस्य है" ऐसा पाक्य ही वाक्यके भेदसे तीन प्रकार के होते हैं। तात्पर्य यह है कि नयवाक्य कहलाने योग्य है। स्वतंत्र "वस्तु निस्य" यह परार्थ-प्रमाणके अंशभूत कोई कोई पद, वाक्य और महा वाक्य नयवाक्य नहीं कहा जा सकता है। कारण कि वाक्य वस्तुके समान्यधर्मका प्रतिपादन करते है और परार्थ प्रमाणावाक्य अथवा प्रमाणमहावाक्यके सापेक्ष अंशीका नाम प्रमाणके अंशभूत कोई कोई पद, वाक्य और महावाक्य वस्तु ही नयवाक्य कहा गया है। के विशेषधर्मका प्रतिपादन करते है । जैसे "वस्तु नित्य यदि कहींपर सिर्फ 'वस्तु निस्य है" इस वापय काही और अनित्य है" यह परार्थ-प्रमाण या प्रमाण-वाक्य है, प्रयोग तो किया गया हो. लेकिन "वस्तु अनित्य है" कारण कि यह वाक्य वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करता इस वाक्यका भाषेप करना वक्ताको अभीष्ट न हो.तो ऐसी है । इम प्रमाणवाक्यके अवयव-स्वरूप नित्य और हालतमें यह वाक्य या तो प्रमाणावाक्य माना जायगा या फिर अनित्य पद क्रमसे उस वस्तुके सामान्यधर्म प्रमाणाभास माना जायगा । तात्पर्य यह है कि यदि वस्तु और विशेषधर्मका प्रतिपादन करते हैं, इसलिये ये दोनों नित्य है इस वाक्यके जरिये वस्तुकी भनित्यताका विरोधन करते पद कमसे प्याथिकनय और पर्यायाथिकमय कहे हुए सिर्फ नित्यधर्म द्वारा निस्यात्मक वस्तुका ही प्रतिपादन जायेंगे। "वस्तु नित्य है और भनित्य है" इस प्रयोग करना बक्ताको अभीष्ट हो, तो ऐसी हालत में यह वाक्य दो वाक्योंका पिंडस्वरूप महावाक्य परार्थ-प्रमाण है क्योंकि धर्मके द्वारा धर्माका प्रतिपादक होनेकी वजहसे प्रमाणवाक्य यहां पर पूर्ण वस्तुका प्रतिपादन करनेके लिये दो वाक्योंका माना जायगा । लेकिन इस वाक्यके द्वारा यदि अनित्यताका प्रयोग किया गया है। और कि इस महावाक्य अवयव- विरोध करते हुए बस्तुकी नित्यताका ही प्रतिपादन करना स्वरूप दोनों बाक्योंसे कमसे वस्तुके सामान्यधर्म और वक्ताको अभीष्ट हो, तो ऐसी हालत में यह वाक्य प्रमाणाविशेषधर्मका प्रतिपादन होता है इसलिये महावाक्यके भास माना जायगा, कारण कि वस्तुकी अनित्यताका विरोध अवयवस्वरूप इन दोनों वाक्योंको क्रमसे न्यार्थिकनय और करनेवाले "वस्तु नित्य है" इस वायके द्वारा निस्यरूप ही Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अनेकान्त [वर्ष ६ वस्तुका प्रतिपादन होगा, जो कि प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि का, मामके सुखके लिये संपूर्ण प्रान्तका, प्रान्तके सुगाके पूर्वोक प्रकारसे नित्यता वस्तुका सही स्वरूप नहीं. बल्कि लिये संपूर्ण राष्ट्रका और राष्टके सुखके लिये उससे संबद्ध स्वरुपका एक अंश है और स्वरूपांशको पूर्णस्वरूप मानना दूसरे राष्ट्रोंका सुखी होना अनिवार्य है। इसलिये यदि यह चूकि राखतो इसलिये उसका प्रतिपादक वाक्य प्रमाणा- मान लिया जाय, कि पशुओका प्राकृतिक जीवन न्यष्टिप्रधान भास ही माना जायगा । इस वाक्यको नय अथवा नयाभास है और मनुष्योंका प्राकृतिक जीवन समाह प्रधान है तो तो किसी भी हालत में नहीं माना जा सकता है। कारण कि असंगत नहीं है। लेकिन इतना मान लेनेपर भी किसी भी "वस्तु अनित्य है" इस वाक्यकी अपेक्षारहित "वस्तु निस्य प्राणीका मूल उद्देश्य अपनी इच्छानुसार अपने जीवनको है" इस स्वतंत्र वाक्यमें नय अथवा नयाभासका लपण सुखी बनाना ही रहता है। मनुष्य भी एक प्राणी है, इस घटित नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि यदि परार्थश्रुतको लिये इसका भी मूल उद्देश्य अपने जीवनको सुखमय प्रमाण, नय, प्रमाणाभास और नयामासके रूपमें चार भेदोंमें बनाना ही है। इसी उद्देश्यसे वह समष्टिके साथ सहयोग विभक्त करदिया जाय, तोइन चारोंके लक्षण निम्नप्रकार होंगे- करता है तथा समष्टिके सुखकी कामना भी वह करता है। (१) एक अंश या अनेक अंशोंद्वारा वस्तु अर्थात अंशी और यहां तक कि इसी उद्देश्यसे वह समष्टिके सुखके का प्रतिपादन करना प्रमाण है। (२) नाना अंशोंमेंसे एक लिये बड़े बड़े कष्ट सहनेके लिये भी तैयार होजाता अंशका प्रतिपादन करना नय।। (३) अंशका अंशीरूपसे है। यही सबब है कि मानव-समाजमें स्वाभाविक तौर पर प्रतिपादन करना प्रमाणाभास है और (४) अनंशका अंश- बुराइयोंके कीटाणुओंका अस्तित्व स्वीकार करना अनिवार्य रूपमं प्रतिपादन करना नयाभास है। इस प्रकार इन चारों मालूम होता है, क्योंकि समष्टि जब व्यष्टिक अभिलषित मेंसे पूर्वोक्त वाक्यमें पूर्वोक्त प्रकारसे प्रमाण अथवा प्रमाणा- अमन-चैनमें बाधक मालूम होने लगती है तो उस समय भासका ही नत्रया घटित हो सकता है। नय अथवा नया- व्यष्टिके हृदयमें समष्टिके प्रति विद्रोहकी भावना जाग्रत भासका नहीं। इसी प्रकार "वस्नु अनित्य है" इस वाक्यके हो जाया करती है। और इस तरह एक व्यक्ति अपने कुटुम्ब स्वतंत्र प्रयोगके बारेमें भी यह प्रकिया घटित करना चाहिये। के साथ, एक कुटुम्ब दूसरे कुटुम्बोंके साथ, एक मुहमा इस तरह वस्तु-स्वरूप-व्यवस्थामें प्रमाण-माम्यताके दूसरे मुहल्लेके साथ एक ग्राम दूसरे ग्रामों के साथ, एक साथ २ नयोंकी मान्यता कितनी उपयोगी हैयह बात परछी प्रान्त दूसरे प्रान्तोंके साथ और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के साथ तरह स्पष्ट हो जाती। इसी नय-मान्यताके बलपर ही विद्रोह कर बैठते है। और इसीलिये अपने ही अपरिमित जैनधर्मकी वस्तु-स्वरूप.व्यवस्था दूसरे दार्शनिकों के लिये ऐश-भारामके लिये भाई-भाई में, कुटुम्ब-कुटुम्बमें, ग्राम-ग्राम दुर्भच बनी हुई है। साथमें यह भी स्पष्ट हो जाता है कि में, जाति-जातिमें प्रान्त-प्रान्तमें और राष्ट्र-राष्ट्रमें न केवल जैनग्रन्थोंमें नयाँका द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय पारस्परिक सहानुभूतिका आभाष ही रहता है बल्कि एक के रूपमें जो म्याख्यान किया गया है वह सैद्धान्तिक दृष्टिसे दूसरेको दबानेकी, कष्ट पहुंचानेकी जो कोशिश की जाती है ही किया गया है। वह इसीका परिणाम है। यहां तक कि जो वर्तमान विश्व युद्ध होते हैं उनकी जद भी सिर्फ अपने ही ऐश-बारामकी (७) नयोंका आध्यात्मिक वर्ग अपरिमित चाहहै। मानव-समाजमें व्यटिकी अपेक्षा समष्टिको अधिक प्राचीन समयमें मानव-समाजके सुखकी घातक ऐसी महत्व दिया गया है। इसका कारण यह है कि मानवसमाज ही प्रतिकूल परिस्थितियों में भारतवर्षके दूरदर्शी, तस्ववेत्ता में व्यष्टिका सुख समष्टिके सुखके साथ अविनाभूत है-अर्थात् __ महात्मामोंने अपने अनुभव और विचार शक्तिके आधार एक व्यक्ति अपने जीवन में सुखी तमी हो सकता है जबकि पर अश्य प्रारमतस्वकी खोज की थी। उनकी इस खोजका उसका कुटुम्ब सुखी हो। इसी तरह उस कुटुम्बके सुखके मूल उद्देश्य मानव समाज में अमन-चैन कायम करने के लिये उसके मुहलेका, मुहल्लेके सुखाके लिये संपूर्ण प्राम लिये उसके अन्त:करणमें समष्टि-प्रधान जीवनके महत्वको Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयों का विश्लेषण ३४१ प्रस्थापित करना ही था, इसलिये इस उद्देश्यकी पूर्तिके विरोधी होनेके कारया अनुचित या अशुभ प्रवृत्ति कहते हैं। लिये और माथ ही अपना इस खोजको सर्वाङ्गीणा बनानेके प्रेमी प्रवृत्ति करने वाले प्राणी हमेशा करता, निर्दयता, लिये प्रास्माको संसार और मुक्तिकी विज्ञानपूर्ण व्यवस्थामै अहंकार, धूर्तता स्वार्थ नीलुपता, उच्चजलता और कृतप्रसा गूधनेका सफज प्रयत्न करके प्रारमाके इन दोनों पहलुओं आदि दुगुणोंके शिकार हा करते है और इनका लक्ष्य के आधारपर ही उन्होंने धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप और नीति- दमको उत्पीडित करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना ही अनीतिक रूपमें मानवसमाजके कर्तव्य-श्रवर्तव्यका विवंचन रहता है । जैनधर्ममें ऐसे प्राणियोंको बडिगामा नाम दिया किया था। यह विवेचन इतना प्रभावपूर्ण और आकर्षक गया है। प्राणियों द्वारा दूसरे प्राणियोंके सुख-दु.खका ध्यान था कि अनारमवादी तर्कशास्त्रियान भी मानवसमाजमें रखते हुए अपने जीवनको सुखी बनानका जो प्रयत्न किया व्यवस्था कायम करने के लिये "जियो और जीने दो" के जाना है से प्रयत्नको लोकहितका विरोधी न होनेके कारया सिद्धान्तको प्रानाना ठीक समझा था और उसीका यह उचिन या शुभ प्रवृत्ति कहते हैं। इस प्रवृत्तिको करने वाले परिणाम है कि भारतवर्ष आज भी दुनियाकी निगाहमें प्राणी अपने जीवनको सुम्सी बनाने के लिये कभी भी दूसरे अध्यात्मप्रधान देश माना जाता है। दया, क्षमा, परोपकार, प्राणियोंको उत्पीडित नहीं करते हैं; बल्कि वे अपनी माको गुणज्ञता, कृतजना, हार्दिक सहानुभूति श्रादि आध्यात्मि- हायोंको दबाकर अपने जीवनको ही संमित बनानेका कताके ही प्रकाशमय अंश है। यद्यपि बाहिरी कालिमाने प्रयत्न करते रहते हैं। जैन धर्ममें से प्रागिन को अन्तराभारतवर्षकी इस आध्यात्मिक विभूतिको बहुत कुछ विकृत रमा नाम दिया गया है। तथा नष्ट-भृष्ट कर दिया फिर भी इसका संस्कार भारतवर्षपर इस विषय में जैनधर्मकी मान्यता यह है कि-मायक इतनीहड़ताके साथ जमा हुश्रा है कि समय-मयपर उसका प्राणीके शरीरके साथ प्रात्मा नामकी नित्य बस्तुका सम्बन्ध प्रकाश अवश्य ही चमक उठना है। बंगाल तथा अन्य है और वह श्रात्मा नामकी वस्नु खानमें पड़े हुए विकृत प्रान्तोंके दर्दनाक हायसंकटके इस मौकेपर उसका प्रक्ट सुवर्ण के समान अनादि कालय विकृत हो रहा है। एक तेज ही अखीन महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है. जो स्वार्थी और वस्तुके स्वभाव प्रतिकूल वस्तुक मिधगास होने वाली निर्दयी दुनियाके लोगोंको यह संकेत है कि श्रमसमें तुम्हें तबदीका नाम विकार है । सुवर्णको खानसे बाहिर भी अपने जीवनको मुखी बनानके लिये इसीकी शरण लेनी निकालनेपर उममें मौद विचारका कारण पापागादिका पदेगी, नहीं तो इसके बिना तुम लोग मर मिटोगे और सम्बन्ध र मालूम पड़ने लगता है, इसीलिये लाकमें दुनियामें तुम्हारे नामका निशान तक न रहेगा। सुवर्णको शुद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। थारमाम भी उल्लिखित भारमतत्वकी खोजका एक फल जैनधर्म भी विकारका कारण प्रतिकुल वस्नुका संबंध जिमे जैनधर्म कर्महै। इसलिये जैनधर्ममें भी भाग्माको स्वीकार करते हुये इस संज्ञा दी गयी है, अनादि कारसे स्वीकार किया गया के बारे में संसार और मुक्तिको व्यवस्था बतलाई गयी है। है। लोक प्राणियोंकी उल्लिखित शुभ-अशुभ प्रवृत्ति में तात्पर्य यह है, कि लोकके प्राणी अपनी-अपनी आकांक्षाक कारणभून बाह्य पदार्थोंमें होने वाली शनि और घृणा हमी अनुसार अपने जीवनको मुखी बनाने के लिये बाहा पदार्थों प्रतिकूल वस्नु अर्थात् कमके सम्बन्ध पैदा होने वाले में प्रीति और वृणाके प्राधारपर प्रवृत्ति करते हुए देखे जाने श्राःमाके विकारका ही परिणाम समझना चाहिये । इस हैं। इनकी यह प्रवृत्ति अनुचित अर्थात लोकहितके विरुद्ध विकारको जैनधर्ममें राग और द्वेष नाम दिये गये हैं। राग और उचित प्रधान लोकहितके विरुद्ध हुमा करती है। बाह्य पदार्थोंमें होने वाली प्रीतिका कारण है श्रीर द्वेप दुनियाके कतिपय प्राणियों द्वारा अपने जीवनको सुखी _ वाद्यपदार्थों में होने वाली घृगााका कारण है। इस तरह में बनाने के लिये शक्तिके आधारपर दूसरे प्राणियोंके ऊर लोकके प्राणी गगके वशीभूत होकर दुनियाके अभीष्ट पदार्थों अन्याय और अत्याचार करके उनके सुखी जीवनको नष्ट को अपनानेकी चेष्टा किया करते हैं और द्वेषके वशीभूत करनेका जो प्रयत्न किया जाता है उस प्रयत्नको लोकहितका होकर वे दुनिया अपने लिये अनिष्ट पदार्थाकी अपनेसे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अनेकान्त [ वर्ष ६ अलग करनेका प्रयत्न किया करते हैं। प्राणियोंकी दुनियाके हया और इच्छाचाकी वृद्धि काही कारणा होनेके सबब पदार्थों को अपनाने और अलग करने रूप यह प्रवृत्ति कभी संक्लेशको ही पैदा किया करता है" पछाचोंके अभावकभी तो लोकहितके विरुद्ध हुमा करती है और कभी-कभी रूप संतोषम्मे हमें जो सुखानुभव हुश्रा करता है वह स्वतंत्र, लोकहितके विरुद्ध हुना करती हैं। इन दोनों तरहकी स्थायी और निराबाध होनेकी वजहसे हमेशा शान्तिका ही प्रवृत्तियोंमेंसे लोकहितके विरुद्ध होने वाली प्रवृत्तिका कारण कारण होता है। इसलिये ऐसा सुख हरछाओंकी पूर्तिजन्य कर्म के सम्बन्धसे होने वाला मामाके स्वभावका विकार सुखमे कहीं बढ़कर माना गया है और इसीको जैन धर्म में ही माना गया है और इसको जैनधर्ममें 'मोह' नाम दिया सच्चा सुख कहा गया है। लेकिन जब तक हमारी पारमा गया है। इस प्रकार लोकके प्राणी अपने जीवनको सुखी कर्मपर तंत्र है तब तक यह सुख संभव नहीं हो सकता है। बनाने के लिये गग, द्वेष और मोहके वशीभूत होकर ही कारण कि आरमाकी कर्मपरतंत्रतामे प्राणी दुनियाके पदार्थों लोकहित-विरोधी अन्याय, अत्याचार आदि अनर्थरूप में राग, द्वेष और मोहके वशीभूत होकर प्रवृत्ति करता अशुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। और जिन लोगोंका मोह हुआ चौरासी लक्ष योनियों में जन्म और मरणको प्राप्त रूप प्रारमविकार कमजोर पड़ जाता है या नष्ट होजाता है होकर कभी तो इच्छाओंकी पूर्ति होने वाले मुखका और वे लोग राग और द्वेषके सद्भावमें पूर्वोक्त शुभ प्रवृत्ति ही कभी इच्छाओंकी पूर्ति न हो सकने पर होने वाले दुःखका किया करते हैं। ही सतत अनुभव किया करता है । इसीका नाम श्रात्मा प्राणियोंकी अशुभ प्रवृत्ति और शुभ प्रवृत्ति के समान का संसार है । इसको नष्ट करके प्रामाकी स्वतन्त्र, प्रतिको भी जैनधर्म मानना है और यह शुद्ध प्रवृत्ति स्वाभाविक और मदा श्रानन्दमय अवस्थाको प्राप्त जैनधर्मकी मान्यताके अनुसार मोहके बाद राग और द्वेषका करनेका ही जैनधर्म में उपदेश दिया गया है। इस स्वतंत्र सीअभाव हो जानेपर ही मम्भव है। इसका मतलब यह है अर्थात् कर्मकी परतंत्रत मे रहित, स्वाभाविक अर्थात गग. कि निःस्वार्थ भावसे दूसरे प्राणियोंको सुखी बनानेका जो भी द्वेष और मोहरूप विकारसे शून्य और मदा श्रानन्दमय प्रयत्न किया जाय उसे शुद्ध वृत्ति नाम दिया जा सकता है अर्थात् निराकाँक्षसुखपूर्ण अवस्थाका नाम ही मुक्ति है, जो और ऐसा प्रयत्न उस हालतमें ही किया जा सकता है जब व्यक्ति इस प्रकारकी मुक्तिको प्राप्त कर लेता है वही व्यक्ति किसने जीवन के बारेमें प्रीणको निरीहता पैदा हो जाय। दूसरे प्राणियोंकी कल्याणभावनामे प्रेरित होकर पूर्वोक्त कोई भी व्यक्ति अपने जीवन के बारेमें निरीह तभी होसकता शुद्ध प्रवृत्ति किया करता है. ऐसी:वृत्ति करनेवाले व्यक्तिको है जबकि उसका जीवन सुखसे परिपूर्ण हो । प्राचार्य जैनधर्ममें "जीवन्मुक्त परमात्मा" नाम दिया गया है। यह कुन्दकुन्दका यह कथन कि 'सबसे पहले अपना हित करो, जीवन्मुक्त परमात्मा ही वर्तमान शरीरके छूटने के बाद जैनइसके बाद ही यदि तुम दूसगेका हित करने में समर्थ हो धर्मकी मान्यताके अनुसार पूर्ण मुक्त हो जाया करता हैतो दूसरोंका भी हित करो' इमी अर्थका पोषक है। अर्थात् फिर कभी भी वह पूर्वोक्त जन्म और मरणकी तापर्य यह है कि प्राचार्य कुन्दकुन्दके मतानुसार भी परम्पगमें नहीं फंसता है। निःस्वार्थ भावनासे केवल दूसरों के हितके लिये कोभी प्रवृत्ति जैनधर्मके ममान सभी आध्यात्मिक धर्मों में संसार की जा सकती है ऐसी प्रवृत्ति करने वाले व्यक्तिका इसके और मुक्ति की प्रायः यही व्यवस्था बतलाई गयी है और पहिले ही पूर्ण सुखी हो जाना आवश्यक है । पूर्ण सुखी संपारको नष्ट करके मुक्ति प्राप्ति का उपदेश देते हुए उसका सोनलिये हमें अपनी जीवन-मम्बन्धी आकांक्षायें ही नष्ट मार्ग भी सभी धर्मोंमें बतलाया गया है । इस करनी होगी; कारण कि आकांक्षाओं की पूर्तिसे हमें जो मार्गको सभी अध्यात्मवादियोंने धर्म' नाम दिया है। सुखानुभव हुमा करता है वह सुख स्वामी समन्तभद्रके जैनधर्मने जो मार्ग बतलाया है और जिसे वह भी शरतमि "पराधीन, अस्थायी, नाना प्रकारक दुलाम घिरा २ कर्मपरवशे सान्त दु:स्वैरन्तरिनीदये । पापीजे सुखे ॥ १ श्राददिदं कादव्वं जर सक्कइ परहिद च कादम्ब ।। -रत्नकरण्डश्रावकाचार Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७] नयोंका विश्लेषण ३४३ 'धर्म' नामसे पुकारता है। उसे वह दो भागोंमें विभक्त कर इन दोनों धौंका प्रतिपादन करनेवाले परार्थश्चतके देता है। एक निश्चय धर्म और दृमरा व्यवहार धर्म। भी दोभेन होजाते हैं-एक निश्चयनय और दूसग म्यवहारतात्पर्य यह है कि किसी भी कार्यके लिये हमेशा दो प्रकार मय । व्यवहारधर्म-मापेक्ष निश्चयधर्मका प्रतिपादन करने के कारणों की आवश्यकता रहा करती है। एक उपादान- पाले पद, वाक्य और महावाक्यको निश्चयनय और कारण और दूसरा निमित्त कारण । उपादानकारगाको निश्चयधर्म-सापेक्ष व्यवहारधर्मका प्रतिपादन करने वाले प्रारमभूत या अन्तरंग और निमित्त कारणको अनारमभूत पद, वाक्य यौर महावाक्यको व्यवहारनय समझना या बहिरंग कारण भी कहते हैं। ये दोनों कारण जहाँ ___ चाहिये। और इन दोनोंका प्रतिपादन करनेवाले वाक्य मिल जाते हैं वहाँ कार्य निष्पन्न हो जाता है और जहां इन और महावाक्यको परार्थप्रमाण या प्रमाणवाक्य और प्रमाणदोनों कारणोंका या दोनों से एकका अभाव रहता है वहां महावाक्य समझना चाहिये । जो वाक्य अथवा महावाक्य कार्य निष्पा नहीं होता है। लेकिन यह बात अवश्य है केवल व्यवहारधर्म या केवल निश्चयधर्मका ही कथन करते कि कहीं कहीं उपादानकारग की मुख्यता और निमित्तकारण हैं-एक दूसरे धर्मका निषेध नहीं करते हैं, तो ऐसी हालत में ये की गौणता रहते हुए कार्य निष्पन्न होता है और कहीं कहीं वाक्य अथवा महावाक्य प्रमाण माने जायंगे। और यदि वे उपादान कारणकी गौणता और निमित्त कारगा की प्रधानता परस्परमें एक दूसरे धर्मका निषेध करते हैं, तो ऐसी हालन रहते हए कार्य निष्पन्न होता है इसका सबब यह है कि में वे प्रमायााभास ही माने जायंगे । तात्पर्य यह कि जब कहीं कहीं तो निमित्त कारगा उपादानकारणका सहायक निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मोंका समुदायरूप इकाई ही बन कर कार्य किया करता है और कहीं कहीं वह मुकिम्प कार्यमें कारण मानी गयी है, तो ऐसी हालतमें ये उपादानकारणका प्रेरक बनकर कार्य किया करता है। दोनों धर्म इस इकाई के अंश ही सिद्ध होते हैं, लेकिन जब ऊपर जो मुक्तिके कारणभृन दो धर्मोंका उल्लेख किया गया एक ही धर्मको मुक्तिका कारण कहा जाता है, तो इसका है, उनमेंये पहिले अर्थात निश्चयधर्मको मुनिका उपादान- अर्थ यह होता है कि वह मुक्तिके कारणरूप इकाईका अंश आम्मभूत या अंतरंग कारण और दूसरे अर्थात् व्यवहारधर्म नहीं है, बल्कि उस रूपमें वह स्वयं ही एक इकाई है। इसलिये को निमित्त, अनात्मभूत या बहिरंग कारण समझना इस प्रकारका कथन यदि दूसरे धर्मका विरोधक न होते हुए चाहिये। अंतरंग राग, द्वेष नथा मोहरूप परिगति और सिर्फ अपने प्रतिपाय धर्ममें मुक्तिरूप कार्यकी कारयाताका अपनी आकांक्षाओंको कम करना निश्चयधर्म माना गया है विधान करता है, तो वह कथन प्रमाण माना जायगा। और और इममें सहायक अथवा इसके पोषक बाह्य भाचरणोंको यदि वह दूसरे धर्मका विरोधक होते हुए अपने प्रतिपाद्य व्यवहारधर्म कहा गया है । धर्ममें ही मुक्तिरूप कार्यकी कारणताका विधान करता है ये निश्चय और व्यवहार दोनों धर्म परस्पर सापेक्ष तो वह कथन प्रमाणाभास माना जायगा। एक एक धर्मका होकर ही मुक्तिके साधक होसकते हैं। इसलिये जो व्यवहार- स्वतंत्र स्वतंत्र प्रतिपादन करनेवाले ये वाक्य अथवा महाधर्मकी उपेक्षा करके मुक्ति प्राप्तिके लिये केवल निश्चयधर्म बाक्य पूर्वोक्त प्रकारसे नय अथवा मयाभास नहीं माने जा को पकानेकी कोशिश करते हैं, वे इसमें सफल नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार द्रव्यांश और पर्यायांशका विवेचन सकते हैं और जो निश्चयधर्मकी ओर दुर्लक्ष्य करके केवल करनेवाले पद, वाक्य और महावाक्योंकी तरह निश्चय व्यवहारधर्मका अवलम्बन करके ही संतुष्ट हो जाते है, और व्यवहारका विवेचन करनेवाले पद, वाक्य और महाउनकी प्रयोजनसिद्धि भी उनसे दूर ही रहा करती है। इस वाक्योंमें मी प्रमाण, प्रमाणाभास. नय और नयाभासका लिये ऐसे लोगोंको धर्मात्मा न मानकर जैनधर्म में होंगी, व्यवहार करना चाहिये। पाखंडी आदि नाम दिये गये हैं ! इन दोनों पोंमेंसे यद्यपि प्रत्येक कार्यमें उपादान और निमित्त दोनों निश्चयधर्म नियत अर्थात एकरूप और व्यवहारधर्म अनि- तरहके कारणोंकी आवश्यकता रहा करती है, इसलिये सभी यत अर्थात् अनेकरूप रहता है। कार्योंके इन कारणोंका प्रतिपादन करनेवाले पद, वाक्य Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ अनेकान्त [ वर्षे ६ और महावक्यको निश्चयनय और व्यवहारनय कहना व्यवहारनयका विभाग जहां कहीं भी किया गया हो वह असंगत नहीं है। फिर भी जैनधर्म प्रधानतया माध्यात्मिक सब आध्यात्मिक दृष्टिले ही किया है। इन सभी कथनों में धर्म होमेकी वजहसे उसके कथनका प्रतिपाद्य विषय लप- प्रमाण, प्रमाणाभाष, नय और नयाभासकी प्रक्रिया घटित भूत मारमाकी मुक्तिके उपादान और निमित्त कारणभूत की जा सकती है। लेखका कलेवर बढ़ जानेके सबब अना. निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म ही रहे है। इसलिये इनका वश्यक समझकर यह पर इसका विवेचना नहीं किया गया है। प्रतिपादन करनेवाले निश्चयनय और व्यवहारनयको 'नयों प्रारमा और शरीरादिकमें आध्यात्मिक दृष्टि से ही स्व का माध्यामिकवर्ग" नाम दिया है। और श्रामिकताम और परका भेद करके स्वको नित्य और सत् तथा परको नयोंकी इस प्रक्रियाको अपनाने के सबब ही जैनधर्म दूसरे अनित्य और असत् बतलाया गया है। तथा स्व-अर्थात आध्यात्मिक धौके बीच में अद्वतीय बनकर खड़ा हुना है। श्रारमाको नित्य और मत होनेकी वजह उपादेय चौर पर जैनधर्ममें प्राध्यात्मिक दृष्टिसे जिस प्रकार उपादान अर्थात शरीरादिकको अनित्य और असत होनेकी वजहसे और निमित्तकारको क्रमसे निश्चय और व्यवहार पदों स्याज्य बतलाया गया है। यहाँपर नित्यका बर्य ही रुत का वाच्य स्वीकार करके इनका प्रतिपादन करने वाले पद, और अमित्यका बर्थी अमत् समझना चाहिये । चकि वाक्य और महावाक्यको निश्चयमय और व्यवहारनय माना प्रारमा जन्म-जन्मान्तरमें भिन्न २ शरीर धारण करते हुए गया है उसी प्रकार प्राध्यात्मिक दृष्टिसे ही मुक्ति और उस भी एक रहता है. इसलिये निस्य माना गया है और शरीके कारणों में कार्य और कारण. उद्देश्य और विधेय, प्राप्य रादिक बदलते रहते हैं, इसलिये अनित्य माने गये हैं। और प्रापक तथा साध्य और साधनका भेद घटित करके इन इन अनित्य और असत् शशीरादिकके संयोग ही पारमामें मेंसे प्रथम अर्थात कार्य, उद्देश्य, प्राप्य और साध्यको मनुष्य, पशु, पक्षीमादिका व्यवहार होता है। प्रात्मामें बाल, निश्चयपदका तथा द्वितीय अर्थात कारण, विधय, प्रापक युवा और वृद्ध अवस्थाओंका व्यवहार भी शरीराश्रित है। और साधनको व्यवहारपदका वाच्य मानकर इनका प्रति- इसी तरह जन्म और मरणा भी शरीराश्रित ही है, कारण पादन करनेवाले पद, वाक्य और महावाक्योंको भी निश्चय कि नित्य यात्माकी ये सब अनित्य, स्थूल अवस्थायें स्वीकार नय और व्यवहारनय स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह नहीं की जा सकती हैं। इसलिये इन सब अवस्थाओं है कि एक वस्तु में कार्यता प्रादिका व्यवहार दूसरी वस्तुम __को जो आत्माकी अवस्थ ये स्वीकार किया गया है इसको विद्यमान कारशता सादिके अधीन है। इसी प्रकार एक वस्तु व्यवहारनय माना गया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु में कारयाता भादिका व्यवहार दूसरी वस्तुमें विद्यमान में एक तो स्वतंत्र स्वाभाविक धर्म रहता है और एक श्राकार्यता भादिके अधीन है इस तरह कार्य, उदेश्य, प्राप्य रोपित धर्म भी उसमें रहा करता है । लोक व्यवहारकी . और साध्यका प्रतिपादन करने वाले पद, वाक्य और महा- दृष्टिये भी वस्तुम स्वाभाविक और कारोपित धर्मों के विभावाक्य कारण, विधेय, प्रापक और साधनका प्रतिपादन जनकी आवश्यकता रहा करती है। ये आरोपित धर्म चकि करने वाले पद, वाक्य और महावाक्यकी अपेक्षा रहते हैं पराश्रित होते हैं इसलिये इन्हें व्यवहारनयका प्रतिपाच और कारण, विधेय, प्रापक और साधनका प्रतिपादन करने विषय माना गया है और स्वाभाविक धर्म चूंकि स्वाचित वाले पद, वाक्य और महावाक्य कार्य, उद्देश्य, प्राप्य रहा करते हैं इसलिये इन्हें निश्चयनयका विषय माना और सायका प्रतिपादन करने वाले पद, वाक्य और महा गया है। तात्पर्य यह है कि स्वामाविक धर्मको निश्चयपद वाक्यकी अपेक्षा रखते हैं। इसलिये ऐसे पदों, वाक्यों और का धौर पराश्रित धर्मको व्यवहारपदका वाच्य स्वीकार महावाक्योंको नयकोटिमें अन्नभूत किया गया है और किया गया है। इसलिये इनका प्रतिपादन करनेवाले वचनी कि ये सब विभाग जयसिद्धिमें ही प्रयोजक होते हैं. को भी क्रमसे निश्चयनय और व्यवहारनय कहा गया है। इसलिये इनको भी माध्यात्मिक वर्गमें ही अन्तर्भूत . इस कथनसे यह बात भली भांति स्पष्ट हो जाती है समझना चाहिये । कारण कि जैनधर्ममें निश्चयमय और कि नयाँका दण्यार्थिक और पर्यायार्थिकरूपसे जो विभाजन Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७] किया गया है वह सैद्धान्तिक दृष्टि किया गया है। तथा निश्चय और व्यवहाररूपमें जो विभाजन किया गया है वह प्राध्यात्मकदृष्टि किया गया है- अर्थात द्रव्यार्थिनय और पर्यायार्थिकनयरूप विभाग वस्तुस्वरूप ज्ञानके लिये उपयोगी है और निश्चयनय तथा व्यवहारनयरूप विभाग जयमिद्धि के लिये उपयोगी है; परन्तु इन दोनोंके भेदको न समझ सकने के कारगा कहीं कहीं द्रव्यार्थिकन यको निश्चयनय और निश्चयन को द्रव्यार्थिकनय, इसीतरह पर्यायार्थिकनयको व्यवहारनय और व्यवह रनयको पर्यायार्थिकनय भी मान लिया गया है. जो कि गलत है। लेकिन इतना श्रवश्य ध्यान रखना चाहिये कि यदि श्राध्यात्मिकदृष्टि से वस्तुके द्रव्यांशको निश्चयपद- वाच्य और वस्तुके पर्यायांशको भग्न हो जातीं व्यथाएँ ! टूट उठतीं श्रृंखलाएँ !! कालिमा पुंछती, हृदय में यदि तुम्हारा प्यार होता ! [ श्री 'भगवत' जैन ' ] यदि तुम्हारा प्यार होता ! तो नहीं मेरे हृदयपर वासनाका भार होता !! यदि तुम्हारा प्यार होता ! दुम्ब नहीं मुझको रुलाता ! सुम्ब न मतवाला बनाता !! उदित होता ज्ञान, क्षमा-क्षण ज्योतिका संचार होता !! विश्व-धारामें न बहता ! साधना में मग्न रहता !! आत्म-बल के जागनेपर " पापका परिहार होता !! मुक्तिका अधिकार होता !! नव्य-सुख नव-यातिमरित भव्यतर, अतुलित, अखण्डित; मैं जहाँ विश्राम पाता वह नया संसार होता !! यदि तुम्हारा प्यार होता !! व्यवहारपद- बाध्य मान लिया जाय तो उस हालत में वस्तु का द्रव्यांश निश्चयनयका विषय और वस्तुका पर्यायांश वाग्नयका विषय अवश्य हो सकता है । और इस तरह यदि सैद्धान्तिक दृष्टि में पूर्वोक्त प्रकारकं निश्चयधर्मको द्रव्यांश और व्यवहारधर्मको पर्यायांश स्वीकार किया जाय तो उस हालत में निश्चयधर्म द्रव्यार्थिकनय का विषय और व्यवहारधर्म पर्यायार्थिक नयका विषय अवश्य हो सकता है. लेकिन इतनेमात्र से दोनों दृष्टियाँ कभी एक नहीं मानी जा सकती हैं। इसलिये मिश्र मिश्र दृष्टियों प्रतिपादित 'नयाँका सैद्धान्तिक वर्ग' और 'आध्यात्मिक वर्ग' ये दोनों वर्ग भी किसी हालतमें एक नहीं माने जा सकते हैं। ३४५ हम तुमको विभु कब पाएँगे ! ( श्री हीरक जैन, काशी ) हम तुमको का विभु पायेंगे ! अपनी स्वतंत्रता पानेको वाघाने कब टकराएँगे ! सुनगा कब गोरखधंधा जीवन-प्रयाणकी वेला मेंमुक्ति लगाएगी कंधा अपनी खेती की सीमा में, वो अमृतफल कर पाएँगे! कभ ान - निज ज्ञान-नयनसे ओझल इस अंध में महाप्रबलभूली सत्ताका कहाँ कहाँग्रामास लिये कब जीवनमें, कल्याणरूप बन जाएँगे! " संघर्ष परस्पर में सुखकर-दां पाप-पुण्य की मायाका--- श्रान्तमताका श्राधार लिये कब देखेंगे वन अचलरूप, सद्यान शुक्लको प् Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाग-सभ्यताकी भारतको देन (लेखक -- श्री बाबू ज्योतिप्रमाद जैन विशारद, एम० ए०, एल. एल. बी.) 'नाग' शब्दसे हमारा अभिप्राय पशओंकी पप-जाति सुजानचरित्रमें कवि सूदनीने 'मर्पवाणी' का संस्कृतसे मे वा पाताल लोक-निवासी भवनवामी नागकुमागे अथवा भिन्न उल्लंग्व किया है। अरबी ग्रन्थ 'तोहफतुल्हिन्द' में तीर्थकरोंके शासनदेवता यक्ष-यक्षियोंमसे किसी नहीं है। मिजी खां साहिबने लिखा है कि , 'प्राकृन दूसरी भाषा है, नागजाति, जिसकी भारतीय सभ्यनाको देन प्रस्तत इसका प्रयोग गजा मन्त्री और मामन्तोंकी प्रशंसामं होता लेखका विषय है, प्राचीन भारतकी एक सुमभ्य मानव है। यह पाताल लोककी भाषा है और इसे पाताल-वाणी जाति थी। आज मनुथ्योंकी उस प्रमिन्द्व नागजानिका या नागभाषा कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नचे प्रकटरूपमें नामशेष हो गया और साथ ही साथ नमकी दर्जेके श्रादमी इसका व्यवहार करते हैं। स्मृतिका भी लोप हो गया है। इने-गिने ही व्यकि कदा- ईस्टइंडया कम्पनीके एम माटिन साहिबने अपने प्रथ चित् इस बातको जानते हैं कि 'नाग' नामक एक प्रसिद्ध ईस्ट इंडिया भाग तीसरे नागभाषा विषयमें लिखा ऐतिहासिक भारतीय मनुष्यजाति थी, जिसने कि इतिहास- है कि---- 'गवण वाती लकाकी भाषा प्राकत है और पाताला कालमें ही प्रबल पाम्राज्य स्थापित किये और जिसके लोककी नागभाषा है।' माटिन माहबको इस भाषामें राज्योंकी सत्ता मध्ययुगमक किसी न किसी रूपमें बगवर पिंगल शास्त्रपर भी पक ग्रन्थ मिला है, जिसकी टीका बनी रही। अाज भी अनेक रूपों में नाग-सभ्यताके अवशेष देवभाषा संस्कृत में की गई है। उन्होंने लिखा है कि यह हमें उपलब्ध हैं-भले ही हम उनका महत्व मुलार्थ भाषा पिंगलकी भाषा है और संस्कन-कवि इसका तथा उद्गम भूल गये हों। प्रयोग अपनी कल्पनाकी अभिव्यक्ति में करते हैं। 'नाग-भाषा'को ही लीजिये, मासिक पत्रिका 'सरस्वती' कार्वेस आदि पुराने यूरोपियन कोषकारों ने भी नागके नवम्बर सन् १६५३ के अंकमें इसी शीर्षकम एक लेख भाषाका अर्थ प्राकतभापा किया है । किन्नु नये भारतीय छपा है । उस लेख में विद्वान् लेखकने कतिपय प्रमाणोंस कोपकारांने इसका कहीं उल्लेख तक नहीं किया । यह तो निष्कर्ष निकाल लिया कि प्राकृत भाषाका ही दूसरा प्राका अतिरिक्त अपभ्रश भाषाके लिये भी नागनाम नागभाषा था और सम्भवत: पिछली शताब्दीक मध्य भाषा शब्द प्रयुक्त होता रहा है। वैयाकरणी मारकडेयने तक उसका चलन भी रहा, किन्तु यह उनकी समझमें न अपने 'प्राकृतमवस्व' ग्रन्थमैं अपभ्रश भाषाके नागर, उपपाया किकृतका नाम नागभाषा कैसे पहा। यह गुत्थी नागर और वानर-ये तीन भेद गिनाये हैं। और अपभ्रंश उन्होंने अन्य विद्वानोंको सुनमानेके लिये छोड़ दी है। भाषाविशेषज्ञ प्रो. हीरालालजीके अनुसार अपभ्रंशका जून सन् १८७७ ई. में स्व. भारतेन्दुजीन हिन्दी. वह विशेषभेद जो शौरसनी-महाराष्ट्रीमिश्रित अपभ्रश था बर्द्विनी सभा प्रयागके अधिवेशन में भाषण देते हुए कहा 'नागर' नामसे वख्यात था। यह अपभ्रंश भाषाका वह था "हममें तो कोई सन्देह नहीं कि खड़ी बोली पश्चिमी भेद है जिसकी सर्वाधिक साहित्यिक उन्नति हुई और प्रो. भाषाओं, वृजभाषा और पञ्जाबी प्रादिसे बिगडकर बनी हीरालालजी मतानुसार जिसके उपलब्ध साहित्यका है, पर इन भाषाओंका भी मूल नागभाषा रहा होगा।" लगभग तीन चौथाई जैन है। भिग्वारीदामजान पड़भाषाओंमें, वृज, मागधी संस्कृत, भाषा-विज्ञान-वेत्ताओंमें यह बात छुपी नहीं है कि यावनीके साथ साथ नागभाषाकी भी गणना की है। भगवान पार्थ और महावीर व बुद्धके ममयसे ही भारतवर्ष Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] नागमध्यताकी भारतको देन के जनसाधारगामें जिम भाषाका चलन था वह प्राकृतभाषा स्व. श्री जायसवालजीके मतसे तो नगर, नागर, ही थी। और मध्यकाल में हाकतके ही शौरसेनी, मागधी. नागरिकता भादि शब्दोंका श्रेय भी नागजातिको ही है। मडागष्टी श्रादि भिन्न भिन्नरूप सम्बन्धित अपभ्रशाम और नागपुर, अहिच्छेत्र, नागनादुक, नागपट्टिनम् . उरगपुर, परिवर्तित होगये, और उक्त. विविध अपभ्रंशोंके ही पातालपुरी, फणिमंडल, फणिपुर, पावापुर नगर, विकभितरूप हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला श्रादि । नगरकोट, तसकशिला धादिमागसूचक बस्तियों के नाम तो श्राधुनिक देशभाषाएँ हैं। अस्तु । प्रत्यक्ष ही अपना सम्बन्ध उक्तनागजातिमे सूचित करते हैं। यह तो निर्विवाद है कि प्राकृत और बादको अपभ्रंश उक्त नागजातिका स्मारक 'नाग-पंचमी' नामक त्योहार भी दोनों 'नाग' था नागर' नामांसे प्रसिद्ध ही और आज भी भारतीय समाज में प्रचलित है। लगभग तीन हजार वर्षसे लगाकर पिछली शताब्दी तक भारतीय अनुश्रांतकी नीनों प्रधान धाराएँ -अर्थात अपने भिन्न भिन्न को समन भारतवर्षके जनमाधारण जैन हिन्दू और बौद्ध--नागवंशों, नागराज्यों, नागकुमारों, की भाषाएँ रही हैं। और नागकन्याभोंक विवरयास भरी पड़ी हैं। जैनांके नागकिन्नु जैग्मा कि विद्वानोंका अनुमान है. नागभाषा न कुमारचरित्र और हिन्दुओंका नागपुराण तो उक्त विषयके मर्गे (पश) की भाषा है, न देवी-देवताओंकीन पानाला स्वतंत्र ग्रन्थ ही हैं। लोककी और न केवल नागद्वीप (लंका) की. यह भापा न यों तो भगवान् ग्रादिनाथके समयसे ही नामांका केवल नीचे बजेके मनुष्योंकी ही भाषा थी और न मात्र नामोल्लेख मिलता है, किन्तु भगवान सुपार्श्वनाथ और नागरों (चतु) वा नागरिकही। बल्कि इन भापाओं पार्श्वनाथकी जीवन-संबंधी घटनाओंके साथ सो नामोंका के 'नाग' नामसे प्रसिद्ध होने का कारण तो यह है कि विशेष और घनिष्ट सम्पर्क रक्षाधर तिहासिक भारतीय इतिहासमें एक दीर्घ काल तक नाग-नामक एक प्रारम्भ ही--अर्थात महाभारत युद्धके बादसही-नागों मुयम्य मानव जातिका ऐसा प्रभुत्व और प्रभाव रहा है की सत्ता उत्तरोत्तर प्रबल होती दीग्य पड़ती है और लगभग जिसके फलस्वरूप देश अथवा राष्ट्रकी भाषा नागभाषा ईस्वी सन् पूर्व १००० से ईस्वी सन् ५००० तक नामसे प्रसिद्ध होगई। भारतीय इतिहासमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपमे नाग-वंशों इतना ही नहीं, ईस्वी मनकी नापरी चौथी शतालीमें और नाग-राज्योंका ही प्रभाव रष्टिगोचर होता है। इनका उगम माथेवन्द लिपि, जिसने शीघ्र ही प्राचीन ब्राह्मी निवास और इनके राज्य भारतव्यापी थे-उत्तरमै तच. तरिका स्थान ले लिया, और जो नागरी लिपिके नामसे शिलामे दक्षिणमें लंकापर्यन्त और पश्चिममें सिन्धुशान्तसे प्रसिद्ध हुई, इन्हीं 'नाग-लोगों' की उपज थी ऐसा स्व. पूर्वमें बंगाजपर्यन्त ना!की सत्ता और प्रभावके चिन्ह बैरिस्टर श्री जायसवालजीका मन है। अाज भी उपलब्ध होते हैं। वास्तवमें जिस प्रकार देवभाषा संस्कृतसे भिन्न सर्व- भारतके प्राचीन इतिहासमै आन्ध्र साम्राज्य के प्रस्त साधारणकी और विशेषतया जैनोंकी भाषा प्राकृतको नाग- और गुप्त साम्राज्यके उदयके बीच लगभग दो मौ वर्षका भाया नाम दिया गया उसी प्रकार उन्हींकी नागरी लिपि समय अन्धकार-युग समझा जाना था। स्व. बैरिस्टर को ब्राह्मणधर्मानुयायी जब अपनी देवभाषा संस्कृतके जायसवालजीने अपने ग्रन्थ 'अन्धकारयुगीम भारत'. नाग लिये प्रयुक्त करने लगे तभीसे उमकी प्रसिद्धि देवनागरी व कारकयुग (१५०-३५०ई०) में यह भली भांति मिद्ध लिपिके नामसे होगई। कर दिया कि उस बीनमें भारतवर्षमें प्रबल नाग-साम्राज्य भाषा और लिपिके अतिरिक्त ऊँची चोटी वाले की स्थापना हुई थी और कुशन साम्राज्याभिलिप्साके अन्त शिखरबन्द्र मन्दिर जिस 'नागर-शैली' के नामसे प्रसिद्ध हैं करनेका श्रेय नागजातिको ही है तथा उन्हींसे गुप्तराजीको स्थापत्य-कलाकी उस शैली के जन्मदाता भी नागलोग ही थे। भारतीय साम्राज्यका उत्तराधिकार मिला। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अनेकान्त [वर्ष ६ इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि नागजाति धर्म और वास्तवमें नागजातिका इतिहास और जैनधर्मके साथ संस्कृतिकी अपेक्षा सदैवसे अवैदिक रही और अनेक विद्वानों उक्त जातिका संबंध तथा किन किन प्राचार्यों और महा के मतसे तो वह एक प्राग्वैदिक 'अनार्य भारतीय जाति पुरुषांके इतिहासपर उन सम्बन्धसे क्या प्रकाश पड़ता है थी। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि जैनधर्म के साथ उक्त इत्यादि स्वतंत्र लेनीके विषय हैं, जो यथासमय प्रका नागजातिका एक दीर्घकालीन और घनिष्ट संबंध रहा है। शित होंगे। प्रस्तुत लेख में तो मात्र गह दिग्दर्शन कराना नाग-भाषा, नागरी लिपि, नागर शैली मादि, जिन्हें भार- था कि नागजाति भारतीय इतिहामकी एक प्रसिद्ध भारतीय तीय समाजमें जैनोंने ही विशेषकर प्रारम्भमे और अन्त मानव जाति रही है, उसकी सभ्यता बहुत कुछ बड़ी चढी तक अपनाया, इस बातके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अनेक जैना- थी जिम्पके स्मारक और अवशे२ भारतीय सभ्यताके अभिन चार्य और महापुरुषोंने नागवंशमैं ही जन्म लिया था, इस और प्रशंसनीय अहहैं. भले हो भारतवासियोंके हृदयसे अनुमानके लिये भी प्रबल कारण उपलब्ध है। उक्त जातिकी स्मृति भी आज लोप होगई हो। लख.ऊ, ना. १५-१२-४३ कौनसा क्या गीत गाऊँ ? [ओमप्रकाश 'आकुल'] सलाह [ श्री शरदकुमार मिश्र 'शरद'] कौनसा क्या गीत गाऊँ ? या हृदयकी वेदनाओंको हगोद्वारा बहाऊँ ! आज है उद्गार कुन्ठित और नीरव भाव मेरे ! विश्वके वरदान बन अभिशाप मुझको श्राम घेरे ! किस तरह हृत्तंत्री-तारोंमें मधुर झकार लाऊँ! दग्ध-उपवन-कुञ्ज-पुजों में मदिर संगीत कैसा? त्रस्त विहगोंके स्वरों में हाँ, प्रफुल्लित गीत कैसा ? औ' विषादिनि कोकिलाके कण्ठ में क्या नान पाऊँ ! दो दिन हैं, भवसागर नरले !! एक दिन श्राना, एक दिन जाना; इननेघर है क्या इतराना? अपने उरमें साहस भर कर, पाप-पुण्यका मन्थन करले! मोह-मायाकी झिलमिलनामें-- सुध-बुध खोकर नश्वरतामें ! पागल बनकर भटक रहा क्यों ? अपने पथको सोचसमझन्ने ! जिस सुन्दरतार त् मोहित, वह क्षणभंगुर हे कलिका-सी ! मायाका यह जाल अनोखा, इससे बचकर साफ निकलले ! लख-चौरासी जन भटककर , तूने पाई यह नर काया ! मूरख फिर भी भटक रहा क्यो नर होकर नारायण भजले ! भूलभुलैंयाके झंझटमें - खो मत देना यह शुभ अवसर ! फिर पछताए हाथ न आए, जो कुछ करना हो अब करले! दो दिन है, भवासगर तरले !! ढालते थे प्यारको जो-दा! वही नयना बरसते ! मजु-मानसमें अनेको-भाव रद्द रहकर तरसते ! कौनसी पिय साधना है, जो इन्हें रोते हँसाऊँ ? एक रोटीके लिये मरते हुओंका श्राद कन्दन! होरहा विश्वस्थलीपर दानीका नग्न नतंन । फिर भला मैं किस तरह 'श्राकुल' सुमंगल गान गाउँ !! कौनसा क्या गीत गाऊँ ? Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-शक्तिका माहात्म्य ( लेखक-बा. चन्दगीराम जैन, 'विद्यार्थी ) संमारमें हम दो शक्तियाँ देखते हैं-शारीरिक अधिक हो वहां आसन लगाकर बैठ जाते हैं ताकि और आत्मिक । शारीरिक शक्तिको पशुबल अथवा लोग उनकी प्रशंसा करें और उन्हें भक्त कहकर पुकारें। असुरबलकी संज्ञा भी दी जा मकती है । वे अपने हृदयमें आत्म-कल्याणकी उच्च भावनाको आज केवल लोगोंन आत्मिकमलक महत्वको स्थान नहीं देते। उनको अपनी यात्मशक्तिका भान भुलाकर पशुचलको प्राप्त करना ही अपने जीवनका । नहीं । बाह्य आडम्बरों में ही उन्हें कल्याण-मार्ग दृष्टिध्येय समझ रवाया है। आजका संसार सच्चे हीरेको गांचर होता है। यह उनकी बड़ी भारी भूल है। छोड़कर काँचक टुकड़ेकी ओर आकर्षित होरहा है। बहुतस मूखे केवल शरीरको ही धोने मांजने में जितना सम्मान आज पशुचलको प्राप्त है, उसका वह लगे रहते है, शरीरकी पूजा करना ही अपना धर्म क़तई पात्र नहीं है । पशुचल जब कुछ ही मनुष्योंको समझते हैं और गङ्गा यमुनादि नदियों तथा कूप अपनी ओर आकर्षित कर सकता है तच आत्मिक आदिमें स्नान करनेको ही आत्म-कल्याणका मागे बलसे हम संमारके हृदय-पटल पर अपना आधिपत्य समझते हैं। परन्तु वे अपनी आत्म-शक्तिके प्रति जमा सकते हैं। आत्मिकबालसे इस लोकको ही नहीं, उदासीन हैं। शरीर-सम्बन्धी क्रियाएँ ही उनके लिए परलोकको भी हम अपने वशमें कर सकते हैं। इह- सब कुछ है। ऐसे लोगोंको लक्ष्य करके कबीरजी लौकिक था पारलौकिक ऐसी कोई सामग्री नहीं, जो कहते हैंआत्मिकबलसे उपलब्ध न होसके । न्हाये धोये क्या भया, जो मनका मैल न जाय । अतएव हमें आत्मिक-शक्तिको अपनाना चाहिए मीन सदा जलमें रहे, धोये बास न जाय ॥ और आत्म-देवका ही आराधन करना चाहिए। आत्मिक शक्तिको व्याख्या करना बहुत ही कठिन गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं काम है। प्राचीन समयमें हमारे ऋषि, महात्मा इसके 'प्रातम देवहु पूजो भाई। महत्वसे भली प्रकार परिचित थे । उनके अन्दर आत्म-देवके आराधनमे ही हम इम अगाध नम हा हम इम अगाध आत्मिक शक्ति कूट कूटकर भरी हुई होती थी। इसी संसारसे पार हो सकते हैं। जिसे हम परमात्मा कहते लिए यह एक साधारण सी बात थी कि उनकी मन:है, असलमें बह हमारी आत्माका ही दूसरा रूप है, शक्ति भी अत्यन्त सबल और सुदृढ़ होती थी। मनःआत्मिक शक्तिकी ही सर्वोत्कृष्ट तथा सर्वोच्च दशा शक्ति पसलमें आत्मिक शक्तिकेही श्राश्रय जीवित है। 'प्रात्माकी परम स्वच्छ तथा निमेल अवस्थाका रहती है। जिसमें जितना आत्मिक शक्तिका ही नाम परमात्मा है। होगा, उसकी मनशक्ति उतनी ही अधिक मबल और बहुतसे मनुष्य व साधु अपनी प्रशंसाके लिये सुदृढ़ होगी । केवल इस मनःशक्तिके द्वारा ही हमारे नाना भेष बनाते हैं और भाँति भांतिके प्राव रचते ऋषि मुनि ऐसे अद्भुत कार्य करते थे, जिन्हें हम हैं। संसार-दिखावेके लिए महाहिंसाजनक पंचाग्नि दूसरे शब्दों में देवी कार्योंकी संज्ञा देते हैं और जिनका आदि तप तपते हैं। घोरसे घोर पाप कर्म करनेसे विशद विवेचन हमारे पुराण आदि धर्मग्रन्थों में नहीं हिचकते। मार्गमें जहाँ मनुष्योंका आना-जाना मिलता है। आज कलके नवीन सभ्यताके अन्धे Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अनेकान्त [वर्ष ६ पुजारी बहुतने नर-कपि उन्हें केवल कोरी गप्प वा पुरुषको देखकर कहा कि यह पुरुष मुझे अमुक दिन सफेद झूठ ही समझते हैं। प्रत्येक बातको बिना सोचे लन्दनमें मिला था। उसके पतिकी बताई हई तारीख समझे गप्प कह डालनेसे वे जरा भी नहीं हिचकते। ठीक उम दिन तथा ममयसे मिलती थी. जिस दिन परन्तु यह उनकी नासममी है। इस विषयको सम- कि उसने उसके पतिका सन्देश सुनाया था।" मनेके लिए बुद्धिकी आवश्यकता है, जो लोग बुद्धिका यङ्ग-स्टीलिङ्ग फिर लिकते हैं-"सन १७७ ई० दम्बल देना ही अशुभ समझते हैं वे आत्मिक शक्तिके के मितम्बर महीनके प्राग्वीर सप्ताह, स्विडनबर्ग महत्वको क्या समझे? अतः शनःशक्तिके कुछ एक दिन सायंकालके चार बजे इङ्गलैंडस आया और आश्चर्यजनक प्रयोग एक विश्वासपात्र-माननीय ग्रंथसे गोथेनबर्गमें ठहरा। मायङ्काल के समय स्वीसनबर्ग यहाँ उद्धत किये जाने हैं, जिससे नवीन सभ्यता- बाहर गया और उदाममुँह वापम लौट आया। इम भिमानियोंकी आंखें खुल जायें और वे जान सकें कि ममय वह मिस्टेकले के यह भोजन करने गया था, साधारण मी मनःशक्तिके प्रयोग ही जब हमें आश्चर्य- किन्तु दिल भोजनमें नहीं लगता था । इस व्याकुलता चकित कर सकते हैं, तो आत्मशक्तिकी तो बात ही का कारण पूछनेपर उसन कहा--- स्टाकहोममें आग क्या? आत्मिकशक्तिके द्वारा तो, यदि मैं अत्युक्तिपर लगी हुई है और धीरे-धीरे भीषणरुप धारण करती नहीं हूँ, असम्भवको भी सम्भव बनाया जासकता जा रही है। उस जगहसे स्टाकहोम दोसौ मीलकी है। अच्छा आइए-मनःक्तिके कुछ प्रयोग देखिए- दूरीपर था। वह बहुत घबरा गया और बारम्बार अर्बी वैद्य एवीसेना लिखते हैं-“एक मनुष्य बाहर जाता और भीतर आता । उसने कहा कि इस अपनी मनःशक्ति द्वारा अपने शरीरक चाहे जिस समय मेरे एक मित्रके घर में आग लगी हुई है और स्नायुको जड़ बना सकता था।" उमका घर जलकर राख हो गया है। अब आग मेरे मीनीका कहना है-"एक मनुष्यका जीव उसके घग्के पास पहुँच चुकी है । रातक आठ बजे वह शरीरसे बाहर निकलकर,इच्छानुमार स्थानों में भ्रमण फिर घरमे बाहर गया और अत्यन्त प्रसन्नमुखसे करके, फिर उसके शरीरमें लौट प्राता था । और लौटा और बोला-ईश्वरकी बड़ी कृपा हुई, अब फिर उन स्थानोंका वर्णन करता, जिन्हें कि उसके आग बुझ चुकी है । मेरा घर जलनेमें एक घर ही जीवात्माने देखा था।" बीच में था। तीसरे दिन स्टाकहोमस आग लगनकी खबर लेकर एक आदमी आया। उस आदमीका कथन यङ्गस्टीलिङ्ग लिखते हैं-"एक अमेरिकन अपनी और स्विडनबर्गकी बातें अक्षर-अक्षर मिली।" मनाशक्ति द्वारा दूर दूरके स्थानों में तत्काल चला इङ्गलैंण्डमें जाने केलिनन अफ्रिकाक आए हुए जाता था भार उसका शरीर शवके रूप में वहीं पड़ा एक सिहको मनःक्ति अपने वशमें कर लिया था। रहता था । एक जहाजका कमान कहीं चला गया था सिंह बड़ा ही खूख्वार था और हालमें ही बनसे और बहुत दिनों तक नहीं लौटा। उस कप्तानकी स्त्री पकड़कर लाया गया था। लोगोंने उनको सिंहके पिंजरे में ने इस पुरुषसे अपने पतिका वृत्तान्त पूछा । वह घुसकर उसपर अपना अधिकार जमानेके लिए पन्द्रह पुरुष तत्काल ही पास वाली कोठरीमें गया और वहाँ लाख रूपोंकी शर्त बदी था । अन्तमें निश्चित तिथि पहुँचकर उसने अपने शरीरको मूर्छित कर दिया। पर लन्दनके बड़े २ आदमी निर्दिष्ट स्थानपर आगए। कुछ देर बाद वह जागृत हुआ और कहा कि मैं वहाँ जार्ज केलिनने पिंजरेके निकट जाकर सिहपर लन्दन गया था और तुम्हारे पतिसे मिला था। उसने टकटकी लगाकर देखना आरम्भ किया । सिंहकी कहा कि मैं अब जल्दी ही वापस लौटूगा। जब आँखें मिचने लगी । ऐमी दशामें उसने पिंजरेका उसका पति लौट आया तब उसने उस सिद्ध फाटक खोला । सिंहपरसे दृष्टि इट गई थीं; अतएव गया तब लोगा। जब इकटकी लगाकर ने पिंजरेके निकटशनपर आगए। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] आत्मशक्तिका माहात्म्य ३५१ सिंहने दिलको दहलाने वाली घोर गर्जना की और अगस्त मन् १९३८ ई. की 'माधुरी'-मासिक पिंजरेमें क्रोधपूर्वक झूमने लगा । जार्ज कलिन पत्रिकामें जो लखनऊम निकलती है, "तिब्वतकी कुछ उसके पिंजरेमें घुस गए। मिहकी आंखें मिच गई थीं, चमत्कारपूर्ण घटनाएँ" शीर्षकमे एक लेख देखने को परन्तु उमने केलिनकी तरफ मुँह फाड़ा और घोर मिला। जिमको संक्षेपतः पाठकोंकज्ञानार्थ दिया जाता गर्जना की। तब उन्होंने उसकी नाकपर चाबुक मारा है। यदि विस्तारस देखना हो, तो उस वर्षकी अगस्त और जोरसे डाटकर कहा-'चुप' । इतने में सिंहने मासकी 'माधुरी' देखनेका कष्ट उठावें। उनकी तरफसे मुँह फेर लिया । जार्ज केलनने इस लेखमें श्रीमती 'एलेक्जएड्रा डेविड नील' ने चाबुकसे चारों और एक गोल रेखा बनाई और सिंह जिनकी मातृभाषाच है, अपनी उसी वर्षकी तिब्बत ने उनकी आज्ञानुसार उस रेग्यापर गोल चक्कर यात्राका वर्णन किया है। आप एक बड़ी विदुषी स्त्री लगाया। उसके पश्चात वह पिंजरेने बाहर निकल हैं। आपका वृत्तान्त सबसे अधिक विश्वासनीय, मानआए और द्वार बन्द कर दिया। नीय एवं प्रामाणिक है । तिब्बतके योगी अपन श्राआशा है कि इन उदाहरणोंको पढ़कर पाठकों के त्मिक बलम क्या क्या चमत्कार दिखलाते हैं, इस हृदयमें आत्मिक शक्तिक महत्वकी कुछ जाँच हो विषयमें आप लिखती हैंजायगी-विश्वासको स्थान मिलेगा । शारीरिक शक्ति (१) सैंकड़ों मीलके अन्तरसे तिब्बती योगी, से इस शक्तिका दर्जा बहुत ऊँचा है। शारीरिक महा- सेंकड़ों मीलकी बात समाधि लगाकर मालूम कर लेते शक्ति वह कार्य नहीं कर सकती, जो माधारण मी हैं। आपने इसे सप्रमाण लिखा है। आत्मिक शक्तिक द्वारा सुगमतासे किया जामकता है। (२) असाधारण गतिकी सिद्धि--आप लिखती आजकल तो विद्वान कहे जाने वाले ऐसे व्यक्ति हैं, वे तिब्बती योगी योगके द्वारा कितनी तेजीसे भी पैदा होगए हैं जो 'आत्मा' के अस्तित्वसे ही चल सकते हैं कि जो मागे एक माससे अधिक समय इन्कार करने लग गए हैं । उनकी दृष्टिमें आत्मा, चलने में ले योगसे उसी मार्गको तीन दिनमें तय कर परमात्मा, पुण्य, पाप, धर्म, कर्म केवल लोगोंको सकते हैं। श्रीमतीजीने स्वयं अपनी आंखों एक योगी बहकानेको चीजें है-ढोंगमात्र हैं । यह है विद्वत्ताके को चलते हुए देखा है। नामपर बुद्धिका दीवाला। अनुभव-शक्तिका सर्वथा आपने एक योगीके शरीरको लोहेकी जंजोरोंसे अभाव। बँधा हुआ देखा। कारण पूछनेपर विदित हुआ कि राष्टीय जगतमें हलचल मचाने वाले महात्मा योगसे योगीने अपना शरीर इतना हल्का बना लिया गाँधीने विश्वको दिखला दिया है कि आत्मिक बलसे था कि वह हवामें भी उड़ सकता था। इसीलिए कि अकेला मनुष्य एक बड़ीसे बड़ी शक्तिको कंपायमान कहीं हवामें न उड़ जाए, उसने अपने शरीरको लोहे कर सकता है और संसारको अपनी ओर आकर्षित की सांकलोंसे बाँध रखा था। कर सकता है। (३) बर्फ के बीच शरीरको गर्म रखनेकी असाआत्मिक शक्तिकी महत्ताको समझने में सन्देह न धारण साधनाबना रहे, इसी लिये आत्मशक्तिसे घनिष्ट सम्बन्ध आप लिखती हैं कि बाज़ बात योगी बर्फके रखने वाले कुछ योगके चमत्कार पाठकोंके सन्मुख अन्दर गढ़ा मा खोदकर, उसमें बैठ जाते हैं। और और रखनका प्रयास किया जाता है। आशा ही नहीं उनके नंगे शरीरपर बर्फमें खूब तर किया हुआ कपड़ा वरन् पूर्ण विश्वास है कि फिर आत्मशक्तिके प्रति रक्खा जाता है। वे योगके द्वारा अपने शरीरसे इतनी निर्बल तथा संकुचित विचारों के लिये कोई स्थान ही गर्मी निकालते हैं कि कपड़ा बिलकुल सूख जाता है। नरहेगा। कोई कोई योगी, एक रातमें २०-२० तक कपड़े Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अनेकान्त [वर्षे ६ सुखा डालता है। अतः श्रात्मोन्नति करके हमें स्वावलम्बन और (५) वायुद्वारा बिना किमी यन्त्रके संदेशप्रक्षेपण- स्वाभिमान सीखना चाहिये । अपनी आत्मिक यहांके योगी बिना किसी यंत्रके वायुद्वारा सन्देश शक्ति पर भरोसा रखना चाहिये । किसी दूसरी शक्ति भेज देते हैं और मँगा लेते हैं । श्रीमतीजीने इसकी पर ही अपने आपको सुपुर्द कर देना अहितकर तथा पुणिमें कई प्रत्यक्ष देखे हए उदाहरण भी दिए हैं जो अनुचित है। स्थानाभावके कारण छोड़े जाते हैं। (६) एक योगी दूमरे योगीक शरीरमें भी प्रवेश जसे लगभग ढाई हजार वर्ष पहले, लोगोंका कर सकता है भार वैसी ही शकल बना लेता है। विश्वास अपनी श्रात्मशक्ति परसे सर्वथा हट कर (७) बिना बताये मनकी बात जानना केवल किन्हीं दूसरी देवीशक्तियों पर जम गया था। आप लिखती हैं कि वे योगी बिना बताए मनकी लोगोंने अपना भाग्यनायक किसी देवीक्ति-ईश्वर बात जान लेते हैं। आपन कई उदाहरण भी, अपने आदिको ही समझ रक्खा था। उनका दृढ़ विश्वास साथ व्यवहारमें आए हुए, दिए हैं। सा होगया था कि हम कुछ नहीं कर सकते । वे स्वयं मेरा इतना विस्तारसे लिखनका तात्पर्य यह है पाप कार्य करते और उनका उत्तरदायित्व ईश्वर आदिक कि आत्मिक शक्ति एक बड़ी भारी शक्ति है। जबकि सिर मढ़ देते । वे गत दिन ईश्वर तथा अनेक कल्पित साधारण सी आत्म-शक्तिक द्वारा ही हम ऐमे ऐसे देवी-देवताओंको प्रसन्न करने में ही उद्यमशील रहते चमत्कारपूर्ण कार्य कर सकते हैं, तो पूर्णशक्तिकी तो थे। अपनी आत्मशक्तिको भूल चुके थे । उसी समय बात ही अलग रही । हम इसकी सर्वोच्च दशापर पहुँच क्रान्ति-उत्पादक, भगवान महावीरने अवतार लेकर कर, परमात्म-पदको प्राप्त करके अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मविश्वास मिखलाया और डंककी चोट बतलाया कि कोई दैवीशक्ति आत्मदेवके पुजारीका कुछ नहीं ज्ञान, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्यके भोगी बन सकते हैं। इस आवागमनरूपी अगाध संसारसे पार होसकते बिगाड़ सकती। उन्होंने स्वयं श्रादर्श रूप बन कर हैं। सच्चा सुख, आत्मिक बलसे ही मिलता है। इस संसारको दिग्बाया कि यह है वह आत्मिक-शक्ति ! लिए यदि हमें सच्चे सुखकी इच्छा हो तो आत्मो जिसने मुझे आज आत्मासे परमात्मा बना दिया हैं। अति करके आत्मिक बल प्राप्त करना चाहिए। इसे प्राप्त उसी समयको लक्ष्य करके किसी कविने क्या ही करनेके लिए हमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अच्छा लिखा हैकषायोंका परित्याग करनेका प्रयत्न करना होगा तथा ईश्वर ही ईश्वर रात-दिन होती थी रटाई। .. अहिंसा, सत्य, संयम, अस्तेय तथा अपरिग्रह इत्यादि कर्ता वही, हम कुछ नहीं,मन क्लीवता आई ।। सद्-ब्रतोंका पालन करना होगा । हमें सप्रन्थोंका पुरुषार्थ-हीन हो गए थे, मुर्दनी छाई। मनन करना चाहिए तथा सर्व जीवोंपर मैत्रीभाव रंगे सियारोंने ग़ज़बकी लूट मचाई। रम्बना चाहिये । दीन, दुखी, निःसहाय तथा अज्ञानी आत्मा स्वयं ईश्वर, 'अहं' का पाठ पढ़ाया। जीवोंपर दयाभाव रखना चाहिए और उनकी सहायता श्रीवीरने आ हिन्दको सोतेसे जगाया ।। करनी चाहिए। क्योंकि दया ही सर्व सुकार्योंका मूल अब मैं अधिक न लिख कर यहीं विराम लेता है। दयासे आत्म-विकास होता है और आत्मिक हैं। आशा है इतने परसे ही साधारण पाठकोंको इस शक्ति बढ़ती है। बिना दयाके आत्मोन्नति करनेके विषयका कुछ आभास मिल सकेगा कि आत्माकी सब साधन-जप, तप, तीथे आदि व्यथे हे। कहाभी है- शक्तिका कितना माहात्म्य है और वह कैसा मका मदीना द्वारिका बदरी और केदार । वर्णनातीत है। बिना दया सब जूठ है, कहैं मलूक विचार । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राहुलका "सिंह सेनापति (ले०--श्रो मागकचन्द पांड्या) -सिंह सेनापति" एक उपन्यास है। ईसा पूर्व ५०० कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं:-- का इसमें कथानक है । इसके लेखक हैं 'श्री राहुल सांकृत्या- भगवान महावीरके सम्बन्ध में चर्चा चल रही है तब इन'। श्री राहुल हिंदीसाहित्यके माने हुए विद्वान हैं, सेनापति सिंह पूछता है-- रूपी संस्कृतिक विशेषज्ञ, बौधर्मके प्रकाण्ड विद्वान । "बड़े तेजस्वी हैं?" यह उपन्यास सन् १९४२ में ' ग्रन्थमाला कार्यालय' अजित--'तेजम्बी-ओजस्वी तो मैं जानता नहीं। बांकीपुर, पटना द्वारा प्रकाशित हुआ है। हां, यह मैंने देखा है कि वह ग्रीष्म, वर्षा, शीत. सारी उक्त पुस्तक मैंने स्थानीय लायब्रेरीसे पढ़ने के लिए तुओंमें नंगे रहते हैं।" ली। श्री राहुल का नाम पुस्तक पढ़ने के लिये पर्याप्त प्राक- रोहिशी--"नंगे!--नियों भी सामने ? गण रखता था । पुस्तक प्रारंभ की--विषय प्रवेश इस ठाठ अजित-"हां, भाभी! निग्रंथ कहते ही हैं नंगेको। से किया गया था कि पुस्तक शीघ्रतर खतम कर देने की मैं तो सिर्फ दो बार गला दबाने पर गया है. किन्तु इस इरछा हो। पुस्तक पढ़कर मनमें बड़ा धक्का मा लगा। नंगेपनको देवकर तो मैं जमीन में गदा जाता था." मोचने लगा क्या सचमुच हमाग जैनसमाज इतना मृत रोहिणी--"सचमुच देवर ! कैमे कोई पुरुष हनना प्राय होगया है कि कोई भी व्यक्ति हमपर चाहे जब चाहे बेशर्म हो जायगा।" जैमा प्रहार करदे, और हमारी निद्रा-भंग होती ही नहीं। अजित --' और इसीको हमारे कितने ही मूर्ख तपनेज मन् १६५२ में प्रकाशित यह उपन्याम अब मैंने संयोगवश कहते हैं।" पढ़ा और तब आज जक्त पुस्तकसे चंद उद्धरण मैं पाप रोहिणी-- नंगा रहनेके अतिरिक्त और भी कोई लोकी जानकारी के लिए नीचे दे रहा हूँ :--- बात है, उनमें ?" "वैशालीके पूरब और दकिम्वन-दोनों ओर दुष्ट अजित--"मैं नहीं जानता, न जाननेकी कोशिश बिंबमार का राज्य है।" करूंगा। मैं उनके नंगेपन श्रधा गया हूँ । बोलो भाई ..."वही दिवसार -जो मारा जोखिम उठाकर एक सुभद्र ! तुम तो निगंठोंक बडे चेले बनने हो न, बतायो न रात चोरी चारी-अम्बागाली (एक वेश्या) क मोहर्य भाभी को।" मधुका पान करने बैशाली भाया था--" (पृ.१५) उपरोक्त दो उदाहरण बिंबपारके चरित्र-चित्रणाके हैं। सुभत--"तुम्हें अजित ! धर्म-श्रद्धा इतक नहीं गयी बिंबसार और कोई नहीं, राजा श्रेणिक है। क्या भगवान है। बम, श्रमों की निंदा करना ही मुम्हें पसंद है।" महावीरक समवशरखका श्रेष्ट श्रोता ऐसा था? क्या जैन- अजित--"श्रमणों की बात न कहो भाई सुभद्र ! माहित्य इस चरित्रकी प्रतिच्छवि ऐसी ही अंकित करता है? अपने निगंठ वईमान या महावीरका क्या कहते हो, उनकी परन्तु यह उदाहरवा तो कुछ नहीं है। यह तो मात्र बात भाभीको बतलामी। मैं दावेसे कहता ई. भाभीको उस समयके राजा विषयमें है.परंत स्वतः 10.मलाया- तुम कच्ची बुद्धिका न पायोगे ।" युक्त अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर, प्रादर्श जैन साधु- सुभद--"तो निगंठोंके श्रावक [शिप्य] तुम्हारी रायमें संख्या एवं जैन धर्म विषयमें भी लेखकने पात्रोंमे जगह-- करची बुद्धिके होते है?" जगह ऐसे अपमानास्पद शब्द एवं वाक्य कहलाए हैं कि अजित--''और लज्जाशून्य ।" पढ़कर मन अत्यन्त विचध होजाता है। उक्त पुस्तकर्मेसे सुभद--''तुम भी जाडे-गर्मीम वैसे नंगे रह सकते हो? Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ अनेकान्य अजित -- "मेरे बहुत-से गाय, घोडे, सूकार, संगे ही रहते हैं।" "अजित -- माई सुभद्र ! तुम मुझे नास्तिक कहते ही हो, फिर अब तुम्हारे व्यारू निसे श्रमण महावीर में उनके ज्ञातृपुत्र होनेपर भी मेरी श्रद्धा नहीं होसकती ।” ...तब भामाने अजितके कानमें कहा 'शाबाश, मेरे बीर ! इन नंगोंकी तूने अच्छी खबर ही ।" ( पृ० १६३ १७० ) पदा आपने, किस रूप में जैनधर्म एवं उसके तीर्थंकर के स्वरूपका परिचय दिया गया है। आगे चलिए, सुभद्र रोहिणीको जैनधर्ममे परिचित करा रहा है तब- सुभद्र - 'हाँ, मनसा, वाचा, कर्मणा, किसी चीजको मारना ही क्या, जरा-सी पीड़ा भी न पहुंचाओ।" रोहिणी - "खूनी हत्यारे शत्रु को भी ? सुभद्र --'' उसका अपना पाप उसे दंड देगा, धार्मिक निगंठ- श्रावक [ जैन ] को दre देकर पाप कमानेकी जरूरत नहीं ।" रोहिणी --"यदि कोई श्राततायी किसी भार्त अनाथ स्त्री या बचेको मारना या दूषित करना चाहे तो उस वक्त अपने श्रावक पुरुषको क्या करने की आज्ञा देते हैं ? सुभद्र--" मनपर संयम, वचनपर संयम, शरीरपर संयम । " रोहिणी" -- अर्थात् अकर्मण्यता, आततायीके हाथमें अपनी इज्जत, अपनी बजा, अपने पौरुष सब कुछका समर्पण । और, इसे आप ठीक समझते हैं ?” सुभद्र -- "ठीक तो समझता हूँ, किन्तु निगंठी धर्मका पूरे तौरसे पालन करना सबके बशकी बात नहीं है।" भामा कमसे कम जो अपनेको मनुष्य कहता है. उसके वशकी तो बात बिल्कुल ही नहीं है ।" (१०-१७२) जैनधर्मकी अहिंसाका लेखकने कैसा मनमाना अर्थ कर लोगोंकी निगाहमें उसे जलील करनेकी कुचेष्टा की हैं। x x x भगवान महावीर उल्कावेल में विहार कर रहे हैं। सेनापति सिंह भगवानके दर्शन के लिये जाने हैं, वहांका वर्णन सेनापतिके स्वतः के शब्दोंमें : "मैं शामके वक्त नंदकके साथ उस बागमें गया, [ वर्ष ६ जहां अपनी बड़ी शिष्य-मंडली के साथ तीर्थंकर निगंठ - शातृपुत्र ठहरे हुए थे। उनके शिष्यों में अधिकतर सौम्य और श्वेत मुखवाले न थे। ऊपरसे वह नंग धडंग थे, इसका प्रभुत्व सुपर अच्छा नहीं पड़ा । मैं तीर्थंकरके दर्शनके लिये आया हूं, यह बात सुननेवर हमें एक निर्गठ ने उस वृक्ष तक पहुँचा दिया, जिसके नीचे निठ ज्ञातृपुत्र भूमिपर सिर नीचे किये चिंतामग्न बैठे हुए थे । उनके छोटे छोटे रमाकेश सफेद थे और शरीरपर भी बुदापेके लक्षण प्रतीत होरहे थे...." (पृ० २५२) पड़े ।" C' एकाएक उन्होंने (महावीरने) कहा- 'सिह ! चलो उस वृक्ष के नीचे' और एक हाथमें पास में पड़ी और पंखी तथा दूसरे छोटेसे व खंढको सामने लटकाए चल ( पृ० २५६ ) क्या भगवानके केश सफेद होगए थे ? क्या बुडापा उनपर प्रभाव डाल सका था ? क्या वे वस्त्र खंड साथ ले कर चलते थे ? क्या चिंताएँ उन्हें घेरे रहती थीं ? कितना कपोल कल्पित वन लेखकने किया है। और वह भी तीर्थंकर प्रकृतियुक्त बर्द्धमानका । यदि जैन शास्त्र एवं तत्कालीन इतिहासका खुली आंखों लेखक ने अध्ययन किया होता, तो इतनी बेजबाबदारीसे वह कभी भी न लिख सकता । इस बीच सेनापति सिंह भगवानसे प्रभावित होकर उनका शिष्य होगया है । सेनापति गणका सदस्य है, संस्थागार में इन दिनों गणकी बैठकें हुआ करती हैं। और इन ही दिनों भगवान बुद्ध एवं महावीरका चातुर्मास वैशाली में ही हो रहा है । संस्थागार में दोनोंके विषय में चर्चा चलती है। बुद्धको बहुत तारीफ वहाँपर हुई है। तब सिंह भगवान महावीरके पास चाकर पूछता है : "भगवन् ! श्रमण गौतम यहां आया हुआ है, लोग बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं, किन्तु आपके सामने वह क्या हो सकता है। मैं चाहता हूँ, उसे देखू ं ।” महावीर' नहीं सिंह ! क्या जायोगे उसके पास । वह नास्तिक है, मामाको भी नहीं मानता, नहीं मानता।" परखोकको भी ( पृ० ३११ ) इस तरह गौतम के प्रति आक्षेप करते हुए भगवान Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७] श्री गहुलका 'सिंह सेनापति ३५५. मना कर देते हैं। परन्तु संस्थागारमें फिर चर्चा चलती है. नरम कौषेय वोंको पहिमता तरह-तरहके स्वादिष्ट मौसों बुद्धके उपदेशकी प्रशंसा होती है। तब सिंह फिर भगवान का मास्वाद क्षेता है। उसके पास सपस्थाकीच्या गंध भी के पास जाकर वहाँ जानेकी इजाजत मांगता है। तब मिलेगी" भगवान कहते हैं : सिंह-इसीलिये तो भंते ! मैं उसे माखसे देखना "सिंह !पया उस प्रक्रियावादी [अच्छी-बुरी क्रियाको चाहता है, और मोहमें पदे लिच्छवियों को उनकी गलती न मानने वाले के पास जानोगे? पतनाना चाहता हूं।" और-और भी कितनी बातें कह, मना किया। महावीर-- और कुछ नहीं. सिंह! बस भावर्तनी (पृ. ३१३) माया (जादू) उसे मालूम है, जिससे वह दूसरोंके मनको इस तरह दुबारा मना किया गया। पर संस्थागारमें फेर लेता है। पास भी मत जाधो सिंह! उस मायानीके।" तो सदस्यों को समय समयपर जमा होना ही पड़ता था--- और संस्थागारमें बैठकर बात करनेवाले साधारण रथ्या इस बात-चीतमें भाप देखेंगे कि लेखकने भगवान (सड़क) पुरुष नहीं बल्कि बड़े बड़े सम्भ्रांत लिच्छवि महावीरके मुंहसे किस हद तक गौतम बुद्धकी निंदा करवाई होते थे। एक दिन वहां बात होते होते फिर श्रममा गौतम है. किस तरह सिद्ध किया है कि भगवान अज्ञानी है कि वे पर चली गई। सुप्रिय भगवान गौतमकी प्रशंसा करता समझते हैं गौतम जादू जानता है। बारबार सिंह वहां हुधा कहने लगा-- जानेसे रोक कर जैसे भगवानके मनके किसी भयका 'यही नहीं श्रमण गौतमके शिष्य सारिपुत्र, मौद- आभास दिया है। गल्यायन, महाकश्यप, महाकात्यायन-जैसे अद्भुत ज्ञातृपुत्रके इंकार करने पर भी सिंह भगवान गौतमके प्रतिभाशालीग्रामकुत-से प्रयजित है । वे अपनी विद्या उपदेश सुननेको जाता है। राम्तेमें अपने ही अजीजोंसे और प्रतिभामें इतने ऊँचे हैं कि चाहते तो अपना अलग उनकी तारीफ सुन प्रभावित होता जाता है। सबकीही तीर्थ (मत) चलाते और निगंठ ज्ञातृपुत्र, संजय वेल द्विपुत्र, बातचीतका निम्नलिखित उदाहरण पदिये:या मक्खलि गोसालसे भी बड़े तीर्थकर माने जाते. ......." सिंह--"और भाभी! तुमने मुझे कमी न बतलाया. (पृ. ३.५) न कभी यहां मानेके लिए कहा।" किसी व्यक्ति विचारपर कोई प्रतिबंध नहीं है। परंतु भाभी- मैं समझ रही थी कि नंगटोंका पंथ मेधावी यहां यह प्रतिपादित किया गया है कि गौतमबुदके शिष्य भादमीको कभी रोक कर नहीं रख सकता, समयकी प्रतीचा तक भी ऐसे विद्वान एवं प्रतिमा सम्पन ये कि यदि वे करनेकी जरूरत है।" अपना अलगमत चलाते तो महावीर स्वामीसे बढ़कर सिंह-"लेकिन मुझे तो निगंठ-पंथ अब भी रोके तीर्थकर होते। हाँ, तो इस चर्यासे प्रभावित होकर सिंह हुए है " जब नित्य अनुसार निगंठ ज्ञातृपुत्र (महावीर)के दर्शन माभी--"यह पाश्चर्य है देवर ! मैंने सुना है कि को गया तो उसने कहा: निगंठ अपने श्रावक या श्राविकाको किसी दूसरे धर्मका "भमय गौतमकीन भंते ! मुझे नहीं मालम। मैंने उपदेश सुननेकी कदी मनाही करते है।-अखाब हम सिर्फ उसका नाम सुना है। किंतु खिच्चवि उसकी बी कूटागारके नजदीक पागये है, अब हमें बात बंद कर देनी प्रशंसा करते हैं। मुझे विश्वास है, उसमें आप जैसा रूप-तेज चाहिये। (पृ. ३४) तो नहीं होगा। मैं चाहता हूँ. जाकर श्रमण गौतमसे भेंट यह सम्यग्दर्शनका मखौल !! और बात-चीत करूं।" कूटागारमें भगगान बुद्धसे सिंह सेनापतिमे कई तरह महावीर--"सिंह! क्या तुम उस तप-तेजहीन भावमी के सवाल किए, जो-जो भाक्षेप महावीरने गौतमके विरूद के पास जानोगे। वह तो गहों पर सीता, काशीके नरम किए थे उन सबका निवारण गौतमने कर दिया। लेखकने Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ अनेकान्त [वर्ष ६ x बहुत ही कुशलता पूर्वक यह बयान किया है और वह धीरे विद्वेषको पूर्णरूपेण व्यक्त कर रहा है कि उसने जैसे जैन धीरे गौतमको रागद्वेष हीन अपार ज्ञान युक्त गम्मिाकी साधुओं। इस रूपमें चित्रित कर तुष्टि अनुभव की हो। चोर बढ़ाता गया है और साथ ही भगवान महावीरको ऊपर मैंने उक्त पुस्तक मेंसे चद उद्धरण दिये हैं। अपने स्थानसे धीरे धीरे नीचे स्वसकाता गया है। परंतु लेखकका दावा है कि सिंह सेनापति के समकालीन समाज निम्न बातचीत में तो लेखक सीमा पर पहुंच जाता है-- को चित्रित करने में मैंने ऐतिहासिक कर्तव्य और औचित्य सिंह--''धन्य है भंते ! भगवानका मध्यम मार्ग । कल्याणकारी है भंते ! निगंठ ज्ञातृपुत्रमे मैंने पूछा था-" का पूरा ध्यान रखा है। वृद्ध --"जाने दो इसे सेनापति ! कि निगंठ शातपुत्र भगवान महावीर, जैन साधुगण एवं जैनधर्मको उप रोक्त प्रकार चित्रित करके लेखक ने ऐतिहासिक कर्तव्य और मेरे बारे में तुमसे क्या कह रहे थे. उसके कहने-सुननेसे हमें औचित्यका कहां तक ध्यान रखा है यह विद्वान व्यक्तिही तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा । सेनापति ! तुम्हें और जो कुछ पूरे प्रमाणों के साथ लेखकको बताएंगे तब श्री राहुल पूछना हो पूछो।" (पृ. ३.३) उपरोक्त बातचीत कराकर लेखकने यह घोषित कर सांकृत्यायन अपने ज्ञान और अज्ञानकी परख कर सकेंगे। समाजके शांतहासज्ञॉप मेरयही निवेदन है कि सिंह दिया है कि भगवान महावीर पर निंदा बोक्म सुक थे, वे खुज कर दूसरों की बुराई किया करते थे और भगवान बुद्ध सेनापति' द्वारा भापक ऐतिहासिक ज्ञानको चैलेज दिया दूसरों की तो बात ही दूर रही अपने विरोधीकी भी निंदाको गया है और मुझे विश्वास है कि पाप अवश्य ही इसका यथोचिन उत्तर देवेंगे। सुनना तक पसंद नहीं करते थे। और इस कारण संतुष्ट हो सिंह सेनापति बौद्ध अनुयायी हो जाता है। भगवान बुद्ध, श्री राहुल महाशय बौद्ध साहित्य प्रकाण्ड विद्वान को भोजनका निमंत्रण देदेता है। तबकी बात स्वय सना हैं. कट्टर बौद्धानुयायी भी हैं। मैं उनसे बामदब यह जानना चाहेंगा कि क्या भगवान गौतमबुद्धका यश इतना पतिके शब्दोंमें-- तूमरे दिन हमने गो-घातक, शूकर-घतकके यहांसे जो धूमिल है कि उसके पीछे बिना किसीको श्याम चित्रित किये वर धवजरूपमें प्रकाशित नहीं हो सकता । फिर तय्यार मांस था, उसे मैंगवाया और भोजन तय्यार होने पर भगवानको सूचना दी । जिस बक संघ-सहित किपी धर्मके प्रवर्तकके साथ इस तरहकी विषैली मनोवृत्ति भगवान भोजन ग्रहण कर रहे थे. उस वक्त निगंठ (जैन का परिचय किसी भी अंशमें शोभनीय नहीं। आज इस माधु) लोग वैशालीके चौरस्तोंपर दोनों हाथ उठा चिहा बीसवीं सदी में जब कि दुनिया विश्वबंधुत्वका स्वम देख : कर कह रहे थे--अधर्मी है सेनापति सिंह. पापी है सेना रही है किसी भी देशके मतप्रवर्तककी निंदा कोई भी पति सिंह, उसने श्रमण गौतमके लिए गाये मारी है. समझदार भादमी करने की हिमाकत नहीं करता। श्रीराहुल का यह जवन्य प्रयत्न हर तरह निंदनीय ही है। सूभर मारे हैं। कहां है श्रमण गौतमका श्रामण्य (पन्यास) समाजसे मेरा निवेदन है कि हमपर सदैव ही नामालूम कहां है श्रमण गौतमका धर्म जबकि वह अपने लिए मारे जगहोंसे इस तरह के प्राचेप, प्रहार होते ही रहते हैं, और गए पशुओं का मांस खा रहा है। निगंठोंका यह कहना ये इस लिये होते हैं कि अन्य लोग हमें महानिद्रा गर्क सरासर झूठ या मैंने पशुओं को मारा था मरवाया न था, न समझते हैं, प्रतिकार करनेकी शक्तिसे हीन समझते हैं। वैये माँसको भगवान को दिया: किंतु मेरे निकल जानेसे क्या यह अवस्था बांछनीय है ? बंधुनों, हमें उठकर रदता इन्हें बहुत दुख हुमा था, इसलिये बाल, मूढकी भाँति वह से इस तरह हमारे समाज एवं धर्मपर किए जाने वाले विजा रहे थे।" (पृ. ३२५) मारपीका प्रतिकार करना है, ताकि दुनिया यह मामले कि जो व्यक्ति जैन साधुसंस्थ से रंचमात्र भी परिचित है वह स्वमम भी उन्हें इस रूपमै चित्रित करने की मूर्खता युवक-जिसका पर्यायवाची नाम भाग है--क्या नहीं कर सकता । परन्तु यह वर्णन तो लेखकके हृदयके नैनयुवक-राक्षसे ही का रहेगा! Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सरस कवि (ले० विचारल पं० मूलचन्द्र 'वत्सन' साहित्य शास्त्री) - उस समयकी काव्य-प्रगति उस समय शृङ्गाररस की धारा अवाचित रूपसे बह रही यी विज्ञाकी मदिरा पिता २ कविलोग अपनेको कृत-कृष्ण समझते थे वे कामिनीके अङ्गले बुरी तरह उसके हुए थे उन्हों ते कटि, कुच, केशों और कटाचोंमें ही अपनी कल्पनाशक्तिको समाप्त कर दिया था पतिवत और ब्रह्मचर्यका मजाक उड़ाने में ही वे अपनी कविताकी सफलता समझते थे और 'इहपाखे' पतिव्रत ताखे घरी" के गीत गाने में ही उन्हें आनंद छाता था । कोई नवीन कवि दंपतिकी प्रेम लीलाओं, मानअपमान और आँख मिचौनी में विचरण करता था तो कोई कुशल कवि कुलटाओंके कुटिल कटाचों, दाव-भाव विवासों और नोक-झोकमें ही मस्त था । कोई विज्ञाली कवि परपति पर भ्रामक हुई कामिनियों के संकेत स्थानोंके वर्णनमें और कोई विरही, बिरहिणियोंके करुणा रुदन, आक्रंदन और बिलाप में ही अपनी कल्पनाएं समाप्त कर रहा था । कोई संयोगियोंके 'कपटाने रहें पट ताने रहें' के पिष्टपोषण में ही अपनी कविताकी सफलता समझता था, देवस्व और अमरत्वकी भावनाएं समाप्त हो चुकी थी, मुक्ति और जीवन शक्तिकी याचनाके स्थान पर कुलिताने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था । उस समय उनकी दृष्टिमें मुक्तिके अतिरिक अन्य ही कोई दुर्लभ पदार्थ समाया हुआ था कविवर देवजी उस दुर्लभ पदार्थकी तारीफ करते थे आप कहते थे 'जोग हू तें कठिन संजोग परमारीको' परनारीके संयोगको आप योगसे भी अधिक दुर्लभ बतलाते थे आपकी दृष्टिमें पत्नी सचरित्रताका तो कोई मूल्य ही नहीं था । और उस समयके भक्त कवि भी श्रीकृष्ण और राधिकाके पवित्र मार्गका आश्रय लेकर उनकी चोटमें अपनी मनमानी वासनामय कल्पनाओंको उदीप्त किया करते थे वासनाओं और गारमें वे इतने ग्रस्त हो गए थे कि अपने उपास्य देवताको लंपट बनानेमें भी उन्होंने किसी प्रकारका संकोच नहीं किया । एक स्थान भक्तवर नेवाज कवि वन कविताओंको नीतिकी शिक्षा देते हुए कहते हैं 'बावरी जो पै कलंक लग्यो तो निसंक है काहे न अङ्क लगावति कलङ्क भोगेका कविवर क्या ही अच्छा उपाय बतलाया। रसखान सरीखे भक्क कवि भी इस अनूठी भक्तिलीलासे नहीं बचे थे आपका क्या ही सुन्दर पश्चाताप था 'मो पछितायो मौजु सखी कि कलङ्क लग्यो पर ग्रह न जागी" कृष्णजीकी लीलाका वर्णन करते हुए एक स्थान पर आप कहते है 'गाल गुलाब लगाइ लगाइकै भट्ट रिकाह विदा कर दीनी' । इस तरह भारतकी महान आत्माओंके साथ मद्दा मज़ाक किया गया और उनके पवित्र चारित्रको वासनाओंके नग्नचित्रोंसे सजा कर सर्व साधारण के सामने रखा गया और उनकी प्रोटमें अपनी वासनाओंकी पूर्ति की गई। इस भक्तिमार्गके अन्दर परनारी सेवन और मदिरा पानकी भावनाओंको प्रचण्ड किया गया और भारतीय प्रजा में नपुंसकताके बीज बोये गए। ऐसे समय में कुछ सचरित्र कवि ही अपने काव्य के आदर्शको सुरक्षित रख सके। जैन कवि तो अछूते रहे उन्होंने नीति, चरित्र चौर संयमकी सरस फुलबादी लगाई वे अध्यात्म कुंज में समाधिके रसमें निमग्न रहे और आत्मतत्वमें उन्होंने अपनी सो लगाई । उन्होंने अपनी कवितामें अमरताका संगीत प्रज्ञापा और वे जनताके पथ प्रदर्शक बने । उनका काव्य संसारका गुरु बना धन्य उनका कवि और धन्य उनकी अभिलाषा । पवित्र हृदय कवि- केशवदासजी हिन्दीके प्रसिद्ध श्रगारी कवि हो गए हैं Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ अनेकान्त [वर्ष ६ वृद्धावस्थामें भी आपकी गार लालसा कम नहीं हुई थी कविव.म है। क्या उनके कटानों और हाव भाव विनासोम केश सफेद होजाने पर भी चापका हृदय विलास कालिमासे ___ मन्न रहना ही कवि धर्म है? तुमने जिसकी प्रशंसा करने में काला ही बना था वृद्धावस्थाके कारण श्राप अपनी बास. अपमे अमुल्य समयको नष्ट कर दिया थांदा उनका सर्तम नामाकी पूर्ति करने में असमर्थ हो गए थे. युवती बालाएं तो देखो! नहीं! कवि कर्म महान उसके ऊपर जनताके सफेद बालोंको देख कर मापसे दूर भागती थीं इससे उद्धारका कठिन भार है कविता केवल मौज शौककी वस्तु मापकेहदयको जो कष्ट हुमा उसका वर्णन मापने निम्न नहीं है उस पर देश और समाजके उत्थानका कठिन उत्तरपचमें किया है। दायित्व है। केशव केशनि असकरी, जैसी भरि न कराय । यह था कविवर भगवतीदासजीकी कविताका मादर्श चन्द्रवदनि मृगलोचनी, बाबा कह मुरिजाय ॥ और उनकी अपूर्व पतित्रताका एक उदाहरण उनका लक्ष्य इसमे पापकी 'गार प्रियताका पूर्ण परिचय मिलता भारी निंदाकी ओर था किन्तु श्रादर्श पथभ्रष्ट हुए कविको है मापने रसिकोंका हृदय संतुष्ट करनेके लिए रसिकप्रिया उपदेश देना ही उनका उद्देश्य था। नामक एक ग्रन्थ बनाया था जिसमें नारीके नखशिख तक नारीको वह पवित्रता और महानताका प्रतिनिधि सभी अगोंकी अनेक तरह के अलंकारों और उपमाओं द्वारा समझते थे जमे वह केवल विनामका साधन नहीं मानते थे जी भरके प्रशंसा की है। किन्नु जब कोई उम पवित्र वस्तुको विलामकी ही सामग्री भैया भगवतीदासजीको उसकी एक प्रति प्राप्त हुई बना कर उसके गौरवमय शरीरको केवल धामना और भोग यी भैयाजी तो आदर्शवादी कवि थे उन्हें झूठी तथा कुत्सित विलायके साथ खिलवाद कराता है तब उनका पवित्र हृदय प्रशंसा कम पसन्द माती मापने उसके पृष्ट पर निम्न कचित चोट खाता है और वे उपकी भर्सना करते हुए जमका लिख कर उसे वापिस लौटादी। वास्तविक चित्र सामने रख देते हैं के निर्भय और सजग बड़ी नीति लघु नीति करत हैं वाय सरत बदबोय मरी। रहते हैं और सावधान करते हैं संसारको। फोदा भादि फुनगुनी मंदित, सकल वेह मनु रोगदरी। कवित्व शक्तिशोणित हा मांसमय मूरत, तापर रीफत घरी घरी। भैया भगवतीदासजी उन श्रेष्ट कवियोंमें से है जिनका ऐसी नारि निरखकर केशव ! 'रपिक-प्रिया' तुम कहाकरी? भाषा पर पूर्ण प्रभुत्व था मधुर कम्पनाओं अनूठी उक्तियाँसे केशव! तुमने सक प्रिया क्या की? तुम भ्रममें उनका काव्य मोतप्रोत हैमापने अपने काब्यकी धारा मानव.. भूल गए तुम मोह सागर में कितने नीचे उतर गए हो! जीवनके विशाल क्षेत्रमें बहाई है आपकं कायमें संमारकी कितनी अपत्य कल्पना करके तुमने अपने पापको ठगा मृगतृष्णा में पड़े हुए पथिकोंके लिए भारमशान और शांति है।भनेक भोलेभाले युवकोंके हृदयोंमें कुत्सित भावनाओं क मालभाल युवकाक हृदयाम कुत्सित भावनाथी का सुन्दर करना प्राप्त होता है। वासनाके दल दल में फंसे को प्रोत्साहित किया है झूठी प्रशंसा करके कविता देवीको हुए युवकों के लिए कर्तव्यका बोध होता है। कलंकित किया है" दुनियाकी मौज-शौक और मस्ती में पदे रहना ही भैयानीकी कवितामें कितनी सम्यता था संचारकी माया मानवका चरम उद्देश्य नहीं है किन्तु मानव-कर्तव्य इसमें में फंसे हुए मनुष्योंके लिए न रियोंके अमका अश्लील और भागे है। मानव जब दुनियाकी रंगरेलियोंमें ही कर्तव्य दंगये चित्रण करके उसकी और प्राकर्षित करने वाले की इति श्री मान बैठता है तब कवि हृदयको ठेस लगती कवियोंके प्रति उनका कैसा उपदेश था. कितनीकरणा थी वह अपना पवित्र संदेशा उसके पास भेजना चाहता है। उसके हृदयमें उन रंगारी कवियोंके प्रति ! लेकिन उसे ले कौन जाए ? उपयुक्त पात्र भी तो होना हाय ! केशव ! 'रसिक प्रिया तुम कहा करी!' चाहिए । वह सुमतिको अपना संदेशवाहक बनाते हैं और क्या नारियोंके प्रविन अङ्गों पर टि गड़ाए रहना ही अपना संदेश भेजते हैं। वह मनोरंजक संवाद साप सुनिए Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरा ७] 1 सुनो राय चिदानंद, कहो जु सुबुद्धि रानी, कहै कहा बेर बेर नैकु तोहि लाज है ? कैसी लाज ? कहो कहां हम कछु जानत न हमें इहां इंद्विनिको विषे सुख राज है। अरे मूढ ! विषै सुख सेये तू अनंतीबार, अज अधायो नांहि कामी शिरताज है । मानुष जनम पाय, चारज सुखेत आय, जो न चेते हॅमराय तेरो ही अकाज है । एक सरस कत्रि सुबुद्धि हे चैतन्य राजा सुनो । - - चैतन्य -- हे सुबुद्धि रानी ! कहो क्या कहती हो । सुबुद्धि - हे राजा ! मैं बार बार क्या कहूँ तुम्हें कुछ शर्म भी आती है । चैतन्य - सुबुद्धि ! शमं कैसी ? मैं कुछ नहीं जानता विषय-सुख-राज्य में मन होरहा हूँ । सुबुद्धि - अरे मूर्ख ! तूने अनंत बार विषय-सुखों का सेवन किया। परन्तु तुझे आज एक तृप्ति नहीं हुई । तू बड़ा कामी है --तूने मनुष्य जन्म और आर्यक्षेत्रको पाया है अब भी तू सावधान नहीं होगा और ग्राम- कल्याण नहीं करेगा तो हे चैतन्य तेरा ही बिगाड़ होगा मेरा क्या जाता है । कितनी मीठी और हृदयको गुदगुदाने वाली फटकार है, इसमें नाराजगी नहीं है केवल कल्याणकी भावना है । हॅमराय शब्द मानवके महत्वको प्रकट करता है । हंसमें विवेक-बुद्धि होती हैं विवेक-बुद्धि वाला होकर भी तू न समझे तो तेरा ही अकल्याण है । वास्तव में सत्काव्य वही है जो भूले हुए पथिकोंको सम्मार्गपर लगावे. तड़पते हुएको सान्त्वना प्रदान करे और जीवन सुधार के मार्गको प्रशस्त बनाये । वह जीवन ही क्या जो दूसरोंको सुख न दे सके और जो संसारको सुखो बनाने का प्रयत्न करेगा वह सबका नायक क्यों न होगा । कविका आदर्श एक अनूठा ही है उसके अन्दर परोपकार की कितनी भावना है उसका आदर्श व्यक्त कैसा होना चाहिए यह इस पथ में पढ़िए - स्वरूप रिझवारेले, सुगुण मतवारे से, सुधा सुधारे, प्राणिश्यात है । सुबुद्धि सपाट, सुदिपाशा सुमनके सनाहसे, महा बड़े महंत है। सुध्यानके धरैयाले सुज्ञानके करै बासे, सुप्राण परवैया, सुशकती अनंत हैं । संघनायक सबै बोधायकसे, सबै सुखदायकसे, सज्जन सुसंत हैं । ३५६ जो अपने आपपर मोहित हैं गुणोंमें मस्त रहते हैं अमृतके समुद्र हैं और प्राणीमात्रपर सुंदर दया रखने वाले हैं । अथाह बुद्धि वाले, आत्म-वैभवके बादशाह, मनके मालिक और महान है शुभ विचारोंके रखने वाले, उच्चत ज्ञान वाले, सामर्थ्यशाली, सबसे सुख देनेवाले मधुरभाषी हैं वही नायक सज्जन संत हैं । धन्य ! कवि की भावनाएँ कितनी महान हैं उसका उद्देश्य कितना पवित्र है वास्तव में कत्रि हो तो ऐसा ही हो ! आपने अपनी कविताकी रचना केवल जनताको धनुरंजित करने अथवा राजा महाराजाओं को रिझानेके लिये नहीं की थी और न आपको किसी प्रकारके पुरष्कारका ही लोभ था आपने लोककल्याण और आत्मोद्धारके लिये काव्यका आदर्श रखा था आपका काव्य श्रात्म-प्रदर्शक प्रदीप है उससे आत्मप्रकाशकी उज्वल किरयों प्रकाशित होती है वे आमाको अनंतशक्तिको समझते थे अनंत शक्ति शाली आत्मा अपनी सामर्थ्यको भूल जाय यह उन्हें पसंद न था वे उसे उत्तेजित करते हुए कहते हैं: -- कौन तुम ? कहाँ आए. कौने बौराये तुमहिं का रस राचे कछु सुध हूँ धरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों तीन लोक नाथ है के दीनसे फिरतु हो तुम कौन हो ! कहांसे आए हो तुम्हें किमने बहका रक्खा है और तुम किसके इसमें मस्त हो रहे हो तुम्हें कुछ इसका खयाल भी है। तुम तो बड़े होशियार हो परन्तु अपनी होशियारी कहां खोदी घरे ! तुम तीनलोकके मालिक होकर भिखारीकी तरह क्यों फिरते हो। मालिक और भिखारी कासा कार्य वाह ! कैसी भत्सना है । कवि मानवहृदयकी कमजोरियोंको समझता है वह जानता है कि मानवका आकर्षण क्या है वह कैसे अपनी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] एक सरस कवि ३६० और सींचा जा सकता है जब सीधी तरह उसे आकर्षित स्वीकार कर लीजिए। नहीं किया जा सकता तो वह कुछ भाकर्षण रखता अहा ! हादय वीणा एक दम अंकरित हो उठती देखिए प्रारम रहस्यमें मस्त होनेके लिए कैसा प्रबोमन कविन शब्दकोषके सभी मधुर और सरल शब्दोंको चुन दिया जा रहा है। शब्दोंका सुन्दर चुनाव सरसता और कर गूथा है। कौन कठोर हदय होगा जो सुमतिकी इस मधुरताकी विदेशी कविके इस एक ही पचम भापको रस भरी प्रार्थनाको स्वीकार न करेगा! मिलेगी भीर भापमानंद विभोर हो जायेंगे भाप कविकी सरलता पापकी कविताका जीवन है और थोडे शब्दों इस रस भरी प्रार्थना पर अवश्य ही रीक जायगे पदिए--- में अर्थका भंडार भर देना यह भापकं काग्थकी खूबी। कहाँ कहाँ कौन संग, बागेही फिरत बाबा, सरसता और सुन्दरताके साथ मारमशानका मापने इतना भावो क्यों न आज तुम ज्ञानके महल में। मनोरम संबंध जोबा है कि वह मानवोंके हृदयोंको भाकनेकहु विलोकि देखो, अंतर सुरष्टि सेती, षित किए बिना नहीं रहता। कैसी कैसी नीकी नारि खदी है टहलमें। आपकी रचनात्रोंका सुन्दर संग्रह ग्रंथ ब्रह्मविलास' एकन तै एक बनी सुन्दर सुरूप धनी, है। इसमें भापके द्वारा रचित ६. कवितामोंका संग्रह है उपमा न जाय गनी रातकी चहबमें। समी कविताएँ एकसे एक उत्तम सरस और सदयमाहिणी ऐसी विधि पाय कहूं भूमिहूँ न पाय दीजे, हैं अंतमें कविका सीधे शब्दों में एक रहस्थमय पथ सुनाकर पतो कमो वाम बीजे बीनती सहलमें। हम इस निबंधको समाल करते हैं। यदि पाठकोंकी इका हे काल! तुम किस के साथ कहाँ कहाँ बगे फिरते हुई तो कविके काव्य पर विस्तृत प्रकाश डालेंगे अच्छा हो भाज तुम ज्ञानके महलमें क्यों नहीं पाते ! अब प्रारमज्ञानका रहस्य कविके सीधे शब्दों में सुनिए । म अपने दिलके अन्दर जरा गहरी नज़रसे तो देखो. कहा मुडाए मूड, बसे कहा मटका कैसी र सुन्दर रमसिएं तुम्हारी सेवामें खदी है! कहा नहाए गंग, नदीके तहका एकसे एक सुन्दर मनोहर रूप वाली जिनकी तुलना कहा वचनके सुने कथाके पट्टका संसारकी बाखाएं नहीं कर सकती! जो बस नाही तोहि पसेरी भट्टका' इस तरह के सुन्दर साधन प्रास कर कहीं भूल कर भी पांच मत रखिए, मेरी यह इतनी सी प्रार्थना सहजमें ही १ पसेरी बहका मन Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य परिचय और समालोचन (परमानन्द जैन शास्त्री) मजन भी ब्रह्मचारीजीका अनुकरणा करेंगे। तिलोयपरणसं हिन्दी नुवाद सहिन प्रथमभाग। ग्रंथ के सम्पादन में पति परिश्रम किया। मृललेखक, प्रा. यनिवृषभ, अनुवादक पं. बातचन्दजी ग्रन्थ सभीके लिये पठनीय और संग्रहणीय है। सिद्धान्त शास्त्री। सम्पादक, ड.० ए०एन० उपाध्याय एम. ए. डी. टि. कोल्हापुर और प्रो० हीरालालजी जैन एम.ए. एल., एल. पी. किंग एडवर्ड कालेज, भारतीय सम्पादन-शास्त्र, लेखक मूलराजजी जैन अमरावती। प्रकाशक, 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' शोला एम.ए. एल. एल. बी. तिमिल, श्री श्रारमानन्द जैन कालेज, अम्बाला शहर । प्रकाशक, जैन विद्याभवन, कृष्णगुर। पट संख्या मब मिला कर १७०। मूल्य मजिल्द प्रतिका १२)पया। नगर, लाहौर । पृष्ट संख्या ७० । यह थ जैनियोंके करणानुयोगका विवेचक प्राकृत प्रस्तुत पुस्तक में लेखकने अन्योंके सम्पादन सम्बन्धमें भापाका एक प्राचीन महत्वपूर्ण भौलिक ग्रंथ है। श्रा० छह अध्यायों द्वाग:काश डाला है तथा भारतीय ग्रन्थोंके यति तपमने इस ग्रंथको संकलन करते हए 'लोक विभाग' सम्पादनमें उपयुक्त साम्रग्रीका विवे-न भी किया है और और 'लोक विनिश्चय' जैसे प्राचीन ग्रंथोंके उद्धरगा और बतलाया है कि किसी ग्रन्थका सम्पादन करते समय उसकी अन्य ग्रंथोंके पाठान्तरादि द्वारा विषयका खूब स्पष्टीकरण प्राचीन और अर्वाचीन प्रतियों और प्रतिलिपियोंकासूचमतर किया है। प्रन्थका हिन्दी अनुवाद प्रायः मूलानुगामी है अवलोकनके साथ साथ मूल पाठकी सुरक्षित रखते हुए और उसे रुचिकर बनाने का प्रयत्न किया गया है । इससे दूसरे पाठान्तरोंको जो लिपिकारोंके प्रमाद श्रादि दोषोंस हो गए हैं उन्हें नीचे फुटनोटमें अंवित कर श्रादर्श प्रतिके स्वाध्याय प्रेमी भी यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं। मूल पाठको पूर्णतया सुरक्षित रखनेवी और संपत किया है ग्रंथका प्रकाशन ब्र. जीवराज गौतमचन्दजी शोलापुर लिपि आदिक सम्बन्धमें भी विचार किया है। पुस्तक द्वारा संस्थापित 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ द्वारा किया परिश्रमके माथ लिखी गई है। इसके लिये लेखक महानु गया है। ब्रह्मचारीजीने अपने मंचित द्रव्यको जैनमाहित्यके भाव धन्यवादाई है। पुस्तक पठनीय तथा संग्रह करने के उद्धारार्थ प्रदान कर अपनी महान उदारता और जिन वाणी योग्य है। की भक्तिका अच्छा परिचय दिया है। साथ ही, दूसरोंको इस प्रशस्त मार्गका अनुकरण करनेका यह एक प्रोत्तेजन है। दि. जैन साहित्यका बहुभाग अब तक अप्रकाशित ही जीवाममोमें अह-योग, ह.खक. उपाध्याय मुनि पहा है इतना ही नहीं उसकी एक प्रामाणिक ग्रन्थ-सूची आरमारामजी प्रकाशक, लालामुन्शीराम से का अभाव भी प्राय: खटक रहा है। ग्रंथ भंडारों में कितने प्रोसवाल, मुकाम जीरा जिला फीरोजपुर । पृष्टसंख्या सब ही अप्रकाशित ग्रंथ अपनी जीर्ण शीर्ण दशामें पड़े हुए मिला कर १०४ मूल्य माठ माना। हैं-किन्ही किन्हीं ग्रंथोंकी तो दूसरी प्रतिलिपियां भी प्रस्तुत पुस्तकमें स्थानकवासियों द्वारा मान्य भागामों उपलब्ध नहीं होतीं. और सम्पादकोंको एक ही प्रति परसे द्वारा अष्टांग योगका संकलन किया गया है और उसकी उस ग्रंथका सम्पादन कार्य करना पड़ता है इस ग्रंथके उपयोगिता एवं महत्ता बतलाई गई है। साथ ही, पातंसम्पादन सम्बन्धमें जिस शैलीको अपनाया गया है उसका जलिके योग सूत्रमें वर्णित अष्टांगका मागम परम्पराके सम्पादकोंने स्वयं दिग्दर्श करा दिया है। ग्रंथकी अन्य योगानुष्ठान अष्टांग योगका तुलनात्मक विवेचन भी किया प्राचीन प्रतियोंके अवलोकन एवं मिलानकी अब भी आव- है। इस तरह इस पुस्तकको उपयोगी बनानेका प्रयत्न श्यकता बनी हुई है। आशा है दूसरे जिनवाणी भक्त किया गया है। इस दिशामें लेखकका प्रयत्न प्रशंसनीय है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731. अनुकरणीय (जिन सज्जनोंकी ओरसे अनेकान्त जहां फ्री भेजा जा रहा है उनकी सूची इससे पिछली किरणों में प्रकाशित हो चुकी है । आगेकी सूची निम्न प्रकार है-) , श्रीमंत सिताबराय लचमीचंद दि० जैनमंदिर स्टेशन ८ श्री रामस्वरूपजी वकील भेलसा (ग्वालियर)। १ श्रीमान् सबजज सा० भेजसा २ श्री दि. जैन चैत्यालय बा. पन्नालाल भैयालाल १० श्रीमान् सूगासाहब भेजसा माधौगंज भेलसा (ग्वालियर)। " श्रीमान् डिस्ट्रक्ट सेशन जज भेलसा , ३ श्री दि. जैन परवारमंदिर अंदर किला भेलसा १२ श्रीमान् सेक्रेटरी पखार जैनमरत (मन्दर किला बने (ग्वालियर)। मंदिरके पास) भेलसा (ग्वालियर)। ४ श्री दि.जैन खंडेलवाल मंदिर अंदर किला भेलसा १३ श्रीमान् सुपरिन्टेन्डेन्ट सा पुलिस भेलसा (ग्वा• स्टेट) (ग्वालियर)। १५ श्री दि. जैन मंदिर चौक बाजार भोपालस्टेट । * श्री दि. जैन चैत्यालय मा. किशनचन्द भुषालाल १५ श्रीमान् प्रेमसागरजी मार्फत मंत्री माणिकचन्द भेलसा (ग्वालियर)। दृष्टफंड १३. जौहरी बाजार बम्बई। ६ श्री श्वेताम्बर जैन मन्दिर मार्फत बा. तस्तमलजी १६ श्रीमंत सेठ सिताबराय लचमीचंद जैन हाई स्कूल, वकील भेलसा (ग्वालियर)। भेबसा ग्वालियर स्टेट । क्रमशः ७ श्री केशव शास्त्री मन्दर किला भेलसा (ग्वालियर स्टेट) व्यवस्थापक 'अनेकान्त' सहायता गतकिरणमें प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको २१. निम्न सहायता प्राप्त हुई है जिसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र है २५) श्रीमान् जा. मुन्नालालजी कागजी लखनऊ निवासी (अपनी धर्मपत्नीके स्वर्गवासके समय निकाले हुए दानमें से)। भूसुधार नयोंका विश्लेषण वाले लेखसे 'सिंह सेनापति' तक पेजोंकी संख्या गल्ती २३.रे स्थान पर ३५.अप गई, अत: पाठक सुधार कर पढ़ें। जैन प्रगति ग्रन्थमाला जैन समाजमें अनूठे प्रकाशनकी योजना समाजमें आधुनिक ढंगका जैन साहित्य प्रकाशित करनेके पुनीत विचारमे उपरोक्त प्रन्थमालाकी स्थापना की गई है, इस प्रन्थमालाका प्रथम प्रकाशन तुलनात्मक अध्ययनके प्रसिद्ध विद्वान स्वामी कर्मानन्द जी द्वारा लिखित "कर्म और फल" प्रकाशित हो गया है। इस पुस्तक में जैन धर्मके प्रसिद्ध कर्म-सिद्धान्त जैसे गूढ़ विषयको आजकी सरल भाषा में अन्य भारतीय दर्शनोंके तुलनात्मक अध्यायनके साथ दर्शाया गया है। -)आनेके टिकट मंगाकर निम्न पतेसे मंगालें कौशवप्रसाद जेन कोर्ट रोड सहारनपुर मुद्रक, प्रकाशक पं. परमानन्दजी शासी वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरखान श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तवप्रेस सहारनपुर में मुद्रित Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्त सम्पादक-जुगलकिशोर मुक्तार - - SZa akal SKS SHREERaksave विषय सूची TKAR AKHE SIK ZIKIR EHAR वर्ष ६ किरण ८ RTICSKAR ESER ML XXYYYYYYXX3 ZALL २६.IN EXEXTREATKEXEY १. समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने-[ मम्पादक पृष्ठ २६१ २. आँसूम (कविता)-पं० बालचन्द जैन विशारद ..." ३. पंडितप्रवर टोडरमलजी और उनकी रचनाएँ [4.परमानंद २६३ 092128 ४. गष्ट्रोद्धारमें पामोंका महत्व- श्री प्रभूलाल 'प्रेमी' ..." २६८ ५. नोंका विश्लेषण-पं.वंशीधर व्याकरणाचार्य .... हार-जीत (कविता)-[श्री भगवन जैन ७ बीवन और धर्म-श्री जमनालाल जैन विशारद .. 1010 . नया मुमाफिर (कहानी)-[ श्री भगवन जैन ... R m HWARINE. भ. महावीर विषयमें बौद्ध-मनोवृत्ति-पं०कैलाशचंद्र २८YN १.. गांव-विचार--[५० फूलचन्द्र मिशाली .... " ११. आवश्यक निवेदन-[श्रीदोलनराम नमत्र' .... AHI1818198818181 81981511 8151881141981819 AMH918RHIRAHASRARRIRAILERITA RSD RUSTEET ARRITTAT६. मा शासन-जयन्ती-महोत्सवको सफल बनाइये ! images अनेकान्न' के वृहत् विशेषार "वीरशाममा" के लिये रचना भेजिये। MARRIHIWRIMINIMIRIKAWAIMIMIRMIWHITENINRNMIN MHINAKAWANIN AMIN A TH Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासन-जयन्ती-महोत्सव और विशेषाङ्क इस वर्ष राजगृह (विहार) में होनेवाला वीरशासन- . पूरा समाचार नहीं मिला। कुछ बंगाली विद्वानोंका भी जयन्ती-महोत्सव अब बहुत निकट आ गया है। महावीर आप सहयोग प्राप्त कर रहे हैं, जिससे अनेकान्तके विशेषाश जयन्ती (चैत्रशुक्ल १३) से उसे कुल तीन महीने रह के लिये चोटीके जैन विद्वानोंके भी उत्तम लेखोंकी प्राप्ति जायेंगे। इस थोडेसे असेंमें हमें बहुत काम करने के लिये हो सके। गरज बाबु छोटेलालजी उत्सवको सफल बनाने हुए है और ये तभी सुसम्पन्न हो सकेंगे जब वीरशामनसे की धुनमें जी-जानसे लगे हुए हैं- दसरोंको भी इसी तरह प्रेम रखने वाले सभी सज्जन और खासकर जैन विजन लगना चाहिय । पाशा है हम महोत्सव-सम्बन्धी योजवीरशासनके प्रति अपने कर्तव्यको समझकर उसकी मेवाके नाचौंकी अनेकान्तकी अगली किरणा में प्रकाशित करने में लिये जी-जानसे जुट जाएँगे- बिना किसी प्रेरणा के स्वच्छा समर्थ हो सकेंगे। से महोत्सव-सम्बन्धी कार्योंमें हाथ बटानेके लिये भागे इधर अनेकान्तके विशेषाः 'चीरशासना' की विज्ञप्ति भाएंगे और अपनको अपनी रुचिके अनुसार सेवा कार्य के को पढ़ कर कितने ही विद्वानाने उम पर अपनी प्रयजना खिये पेश करेंगे। अकेला वीरसवामन्दिर कुछ नहीं कर व्यन की है और लेखों का वचन दिया-कुछने तो लेम्ब मकता-ऐसे महान कार्य सभीके सहयोग एवं मामूहिक भेज भी दिय है। परन्तु यह पूरी तौरस अभी तक मालूम शक्तिके प्रबल प्रयोगमे ही सम्पन्न हुथा करते हैं। जब यह नहीं हो सका कि कौन कौन मजान लेख लिख रहे हैं योगकी धावाज सुनाई पहनी है तब कामको उठाने वालों अथवा लिखनेका इरादा बने है। इसकी सूचना ना उन्हें का हदय भी उम्साहसे भर जाता है और वे बहुत कुछ कृपया शीघ्र ही दे देनी चाहिय, जिम कायंका ठाक. मादयका कार्य कर जाते हैं। अन्दाजा हो सके धार जो विषय न लिम्ब पा रहे हों उन बाब छोटेलालजी जैन रईम कलकत्ता. जो इस मही के लिम्बानकी योजना की जा सके। मवर्क प्रस्तावक और वीरवामन्दिरक प्रधान ही नहीं डा. वामदेवशरणजी अप्रवान्न एम. ए., क्युरेटर किन्तु उसके नाया है. श्राजकस्त उन्मवको सफल बनानके लखनऊ म्यूजियम श्राज कल रामनगर (Hign ) की लिये बड़ी बड़ी योजनाएं कर रहे हैं। वे इस महात्मवकी तरफ हारेपर है अत: उन्होंने सम्पादनमारको ट नमें यादगार और वीरशासनकी स्मृति एवं ठोम प्रचारकी दिशा असमर्थता व्यक्त करने हए लम्बनऊ. जाकर अपना लेख में कोई बड़ा महान कार्य कर जाना चाहते हैं। उन्हें ठाम अवश्य ही भेज देनकी स्वीकारता दी है और माथ ही काम पसन्द है और ठोम काममें ही समाजकी शकिका विशेषाङ्ककी विज्ञप्तिको पढ़ कर उमपर अपना हर्ष तथा व्यय करनेके वे इच्छुक हैं। अभी जन्होंने मुझे कलकत्ता कार्यकं साथ हार्दिक महानुभूति प्रकट की है डा० बुलवाया था और अपनी कुछ योजना बनलाई थीं, जिन्हें ए. एन. उपाध्य एम. ए. कोल्हापुर और प्रो. मालूम करक बड़ा प्रसन्नता हुई। वे मुझे साथ लेकर माह हीगलाल जी एम. ए. अमरावतीने सम्पादनमारको सहर्ष शान्तिप्रसादजीके पास डालमिया नगर गये थे-साहूजीने वकार किया है। सम्पादकमगइलम मुनि पुण्यविजयजी महयोगका पूरा वचन दिया है। बाबू निर्मल कुमारजीमे पाटन और पं. चरदामजी अहमदाबादकी योजना और मिन नेके लिये भी जाना चाहते थे परन्तु वे उस वक्त वहां की गई है, परन्तु मुनि पुग्यविजयजीने तो पाटन भण्हारों नहीं थे, बादको पत्रादिक द्वारा उनकं भी महयोगका की ग्रन्थसूचीका काम समाप्त न होने तक दूसरे किमी काम वचन मिल गया है। ये दोनों श्रीमान विहार प्रान्तकी को हाथमं न ले नेका संकल्प होने के कारण अपनी मजबूती हस्तियों है जहां उम्मच होने जारहा है। इसके सिवाय जाहिरकी और पं.बेचादाजीय अभीतक स्वीकारता प्राप्त सेठ गजराजजी मादिकी मलाहमे वे कलकत्ताके जैन न्या- नहीं हुई है। आशा है आप अपनी स्वीकारना शीघ्र पारियों का सहयोग प्राप्त करने के लिये एक मीटिंग भी करना भेजकर अनुगृहीत करेंगे। चाहते थे जो हो चुकी होगी। अभी तक अपनेको उसका (शेष टाइटिलके तीसरे पृष्टपर) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् - स्वतत्त्व-सं तत्व-प्रकाशव वार्षिक मूल्य ४) ० एक किरण का मूल्य -) नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुबनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ मार्च वर्प ६.किरगा वीरसेवामन्दिर, (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला महारनपुर चैत्रशुषण, वीरनिर्वाण संवत २४७०, विक्रम सं. २००१ १६४४ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने ' [ १६ ] श्रीमल्लि-जिन-स्तोत्र यस्य महर्षेः सकल-पदार्थ-प्रत्यवोधः समजनि साक्षात् । साऽमर-मयं जगदपि सर्व प्राञ्जलि-भूत्वा प्रणिपतति म्म ॥१॥ 'जिन महर्षि-मल्लिजिनके मकल पदार्थोंका प्रत्यनाध-नीवादि-मंपूर्ण पदाथोंको बोरसे अशेषविशेषको लिये हुए जाननेवाला परिज्ञान (केवलजान)-साक्षान (हन्द्रिय-श्रुनादि-निरपेन प्रत्यक्ष रूपमे उत्पन्न हुआ, (और इसलिये) जिन्हें देवों तथा मर्त्य जनोंके माथ सारे ही जगतने हाथ जोड़कर नमस्कार किया,(उन मल्लिजिनकी मैंने शरण ली है।) यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फूदाभा-कृत-परिवेषा। बागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यास्पदपूर्वा रमयनि साधून ॥२॥ जिनकी मूर्ति-शरीराकृति-सुवर्णनिर्मित-जमी है और अपनी म्फुगयमान श्राभाम परिमण्डल किये हप है-संपूर्ण शरीरको ध्यान करने वाला भामंडल बनाये हुए है-, वाणी भी जिनकी 'स्यात' पदपूर्वक यथावन Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनेकान्त [वर्ष ६ वस्तुतत्त्वका कथन करने वाली है और साधुजनोंको रमाती है-आकर्षित करके अपने में अनुरक्त करती है, (उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है।) यस्य पुरम्ताडिगलित-माना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते। भूरपि रम्या प्रतिपदमासीजात-विकोशाम्बुज-मृदुहासा ॥३॥ 'जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थिजन-एकान्तवाद-मनानुयायी-पृथ्वी पर विवाद नहीं करते हैं। पृथ्वी भी (जिनके विहारके समय) पद पद पर विकसित कमलोंसे मृदु-हास्यको लिये हुए रमणीक हुई है, (उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है। यग्य समन्ताज्जिन-शिशिरांशोः शिष्यक-सधु-ग्रह-विभवोऽभूत् । तीथमपि वं जनन-समुद्र-त्रासित-सस्वोत्तरण-पथोऽग्रम् ॥ ४ ॥ (अपनी शीतल-वचन-करणोंके प्रभावसे संसार-ताको शान्त करने वाले) जिन जिनेन्द्र-चन्द्रका विभव (ऐश्वर्य) शिष्य-साधु-ग्रहों के रूपमें हुअा है-प्रचुर परिमाणमें शिष्य-साधुओका समूह जिन्हें घेरे रहता था-'जिन का श्रात्मीय तीर्थ-शासन-भी संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंको पार उतरने के लिये प्रधान मार्ग बना है, (उन मल्लि-जिनेन्द्रको मैंने शरण ली है। यस्य च शुलं परमतपोऽग्निानमनन्तं दारितमधाक्षीत् । तं जिनसिंहं कृत-करणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥ "और जिनकी शुक्लध्यानरूप परम तपोऽग्निने अन्तको प्राप्त न होने वाले-परंपरासे चले श्राने वाले-दुरितको-कर्माष्टकको-भस्म किया है, उन (उक्त गुणविशिष्ट) कृतकृत्य और अशल्य-माया-मिथ्यादि-शल्यनित-मल्लिजिनेन्द्रकी मैं शरण में प्राप्त हुआ हूँ-इस शरण-प्राप्ति-द्वारा उस अनन्त दुरितरूप कर्मशत्रुमे मेरी रक्षा होवे।' आंसूसे [३] कौन पा रहा है तुम जिसका अरे वेदनाके सहचर तुम स्वागत करने आये हो। नप्त दृकयके मृदु संताप । चुन चुन मुक्कामणि सुन्दरतम उमड़ी पीड़ा की सरिता के हार सजा कर लाये हो। कैमे अभिनव अनुपम माप ॥ [४] कहो श्राज क्यों प्रकट हुए हो छलक पड़े तुम दुलकपड़े तुम भग्न-हृदयके मृदु उद्गार । मंद मंद अविरल गति धार । कैसे दुलक पड़े दो बोलो इन विपदाओंके समक्ष क्या कैसा पीड़ा का उद्धार । - मान चुके तुम अपनी हार ॥ हार नहीं यह विजय तुम्हारी सहन - शीलता के सुविचार । अाँख उठा कर देखो रोता हमददी से यह संसार ॥ पं.बाबचंदन 'विशारद Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंडितप्रवर टोडरमलजी और उनकी रचनाएँ (लेखक--पं० परमानन्द जैन शाखी) हिन्दी-साहित्य दिगम्बर जैन विद्वानोंमें पं. टोडरमल कुछ ऐमा भी ध्वनित होता है कि पंडितजीकी माताका नाम जीका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । आप हिन्दीके रमा और पिताका नाम जोगीदास था। गद्यलेखक विद्वानोंमें ऋषितुल्य समझे जाते हैं। खंडेनवाल "मैंबो जीवद्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरौ जानिके श्रार भूषण थे। विद्वत्ताक अनुरूप ही आपका स्व लग्यो है अनादित कलंक कर्ममलको, भाव भी अत्यन्त विनम्र और दयालु था । स्वाभाविक ताही को निमित्त पाय रागादिक भाव भये कोमलता और सदाचारता आपके जीवन के सहचर थे। भयो है शरीरको मिलाप जैसो खलकौ । अहंकार तो आपको कर भी नहीं गया था । आन्तरिक रागादिक भावनिको पायकै निमित्त पुनि भद्रता और वात्सल्यताका परिचय आपकी सौम्य प्राकृति होत कर्मबंध असो है बनाव कलको, को देखकर सहज ही दोजाना था । श्रापका रहन-सहन असेही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग बहुत सादा था श्राप साधारण अंगरखी, घोनी और पगड़ी बनै तो बनै यहां उपाव निज थलको ।। ३६ ।। पहना करते थे। स्वाभाविक श्रावताने उस सादगीको रमापति स्तुतगुन जनक जाको जोगीदास । और भी चार चाँद लगा दिये ये । आध्यात्मिकताका तो सोई मेरो प्रान है धार प्रकट प्रकास ।। ३७ ॥ आपके जीवनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। श्री कुन्दकुन्दादि मैं प्रातम अरु पदगल वंध मिलिके भयो परस्सर बंध । महान श्राचार्योंके आध्यात्मिक ग्रंथोक अध्ययन, मनन सो असमान जाति पर्याय उपज्यो मानुष नाम कहाय ॥२८॥ एवं परिशीलनसे आपकी बुद्धि खूब परिपक्व हो चुकी थी। मात गर्भमें सो पर्याय करिके पूरण अंग सुभाय। श्राप अध्यात्मरसके गाद रसिया थे और उसका श्रापके बाहिर निकास प्रगट जब भयो तब कुटुम्बको मेलो थयो । ३६ जीवनपर अच्छा प्रभाव पड़ा हुआ था । अध्यात्मरसकी नाम घर्र्यो तिनि हरषित होय टोडरमल्ल कहैं सब कोय । चर्चा करते हुए वे अानन्दविभोर हो उठते थे और श्रीता सोना असो यहु नानुष पर्याय वधत भयो निज काल गमाय ॥४. जन भी उनकी वाणीको सुनकर गद्गद् होजाते थे। यद्यपि श्राप घरमें रहते थे और गृहस्थोचित कर्तव्यका पालन भी तिस पर्याय विर्षे जो कोय, देखन जानन दारो सोय । करते थे; परन्तु उसमें श्रासक्त नहीं ये-जल में कमलकी मैं हों जीवद्रव्य गुन भूप एक अनादि अनंत अरूप ।। ४२ तरह सदा निलिम रहा करते थे । निस्पृहता एवं निर्भयता कर्म उदयको कारण पाय रागादिक हो हैं दुखदाय । के साथ साथ संवेग और निवेंदताकी भी आपके जोवनपर ते मेरे औगांधक भाव इनिकौं विनरों में शिवराव ४३॥ गहरी छाप पड़ी थी। यही कारण है कि आप घर में रहते वचनादिक लिखनादिक किया वर्णादिक अकादय दिया । न हुए भी वैरागी थे। ये सब है पुद्गलका खेल इनिमें नह हमारौ मेल ॥४॥ यद्यपि पंडितजीने अपना और माता-पितादि कुटुम्बी पंडितजीके दो पुत्र थे। एकका नाम हरिचन्द्र और जनोंका कोई परिचय नहीं दिया और न अपने लौकिक दूसरेका गुमानीराय या गुमानीराम था । हरिनन्द्रको जीवनपर कोई प्रकाश ही डाला है। फिर भी लन्धिसार ग्रंथ अपेक्षा गुमानीगयका क्षमोपशम विशेष था, वह प्रायः की टीका प्रशस्तिमें जो कुछ परिचय दिया हुश्रा है उससे पिताके समान ही प्रतिभासम्पन्न था और इमलिये पिताके उनके आध्यात्मिक जीवनका बहुत कुछ पता चल जाता है। कार्यों में यथायोग्य सहयोग देता रहता था । पिता के स्वर्गप्रशस्तिके कुछ पद्य इस प्रकार हैं, जिनसे ३७वें पद्यसे वासके बाद गुमानीरायने 'गुमान पंथ की स्थापना की थी। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त [वर्ष ६ जयपरमें गुमानपंधका एक मंदिर बना हुआ है, जिसमें पं. रामजीx, तिलोकचन्दजी सांगानी. मोतीराम पाटणी. हरिटोडरमल जीके सभी ग्रन्थों की स्वहस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित चन्दजी, चौखचंदजी, श्रीचंदगी सोगानी और नेनचन्दजी है। यह मंदिर उक्त पंथकी स्मृतिको आज भी ताजा कर पाटणीके नाम खासतौरसे उल्लेम्वनीय हैं । बसवानिवासी देता. पं. देवीदास गांधाको भी श्रारक पास कुछ समय तक पंडितजीको इस बातका बड़ा ध्यान रहता था कि कभी तत्वचर्चा सननेका अवसर प्राप्त हश्रा था। किसीको उनके व्यवहारसे कष्ट न पहुँच जाय-उमका पं. टोडरमल्लजी केवल अध्यात्म अन्यों के ही वेत्ता अहित न होजाय । इसीसे वे अपने व्यवहारमें सदा सावधान या रसिक नहीं थे; किन्तु साथ में व्याकरण साहित्य, सिद्धान्त, रहते थे। उनके घरपर विद्याभिलाषियोंका खासा जमघट दर्शन और जैनधर्मके करगानयोग के अच्छे विद्वान थे। लगा रहता था, विद्याभ्यासके लिये घरपर जो भी व्यक्ति आपकी कृतियों का ध्यानसे समीक्षण करनपर इस विषयमें श्राता था उसे वे बड़े प्रेमके साथ विद्याभ्यास कराते थे । मंदेहको कोई गुजायश नहीं रहती। श्रापके टीकाग्रन्यांकी इसके सिवाय तत्वचर्चाका तो वह केन्द्र ही बन रहा था । भाषा यद्यपि ढूढारी (जयपुरी) है फिर भी उसमें ब्रजभाषाकी पहा तत्वचर्चाक रासक मुमुक्षु जन बराबर अाते रहते थे। पुट है और वह इननी परिमार्जिन है क पढ़ने वालोंको और उन्हें आपके साथ विविध विषयोंगर नत्वचर्चा करके उसका सहज ही परिज्ञान हो जाता है । आपकी भाषामें तथा अपनी शंकाओंका समाधान सुनकर बड़ा ही संतोष सरमता र सरलता है, जो पाठकोको बहुत रुचिकर होता था और वे पंडितजीके प्रेममय विनम्र व्यवहारसे प्रतीत होनी है। जैसा कि मोक्षमार्गप्रकाशककी निम्न प्रभावित हुए विना नदी रहते थे। आपके शास्त्र प्रवचनमें जयपुर के प्रतिष्ठित, चतुर और विविधशास्त्रोंका अभ्यास तासू रतन दीवानने कदी प्रीतिधर येह । काग्ये टीका पूरगाा उर धर धर्मसनेह । १०। करने वाले प्रतिभासम्पन्न श्रोनाजन आते थे । उनमें दीवान रतनचन्द्रजी+ अनवरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महा तव टीका पूरी करी भाषा रूप निधान । कुशल होय चहु संघको लहै जीव निशान ११॥ इस पंथका परिचय फिर किसी समय अवकाश मिलनेपर कराया जायगा। अट्ठारहसै ऊपरै संवत् सत्तावीस ।। ___x दीवान रतनचन्दजी उस समय जयपुरके साधर्मियों मगशिर दिन शनिवार है सुदि दोयज रजनीस ।१३॥ में प्रमुख थे, बड़े ही धर्मात्मा और उदार सज्जन थे, श्राप यहाँ इतना और भी प्रकट करना उचित जान पड़ता के लघु भ्राता वधीचन्दजी दीवान थे। दीवान रतनचन्दजी है कि पं.नाथूरामजी प्रेमीने 'हिन्दी जैनसाहित्यका इतिहास' विक्रम सं. १८२७ में जयपुरके राजा पृथ्वीसिंहके समय नामक पुस्तक के पृ. ७२ पर जो यह लिखा है-'मुनते है दीवान पद पर आसीन थे। पं. दौलनगमजीने उक्त जयपर राज्यके दीवान अमरचन्द्रजीने अपने पास रखकर दीवानजीकी प्रेरणासे पंडितप्रवर टोडरमलजीकी पुरुषार्थ- विद्याध्ययन कराया था।" यह ठीक नहीं क्योंकि पण्डित सिद्ध्युपायकी अधूरी टीकाको पूर्ण की थी। जैसा कि उसकी टोडरमल जी रतनचन्द्रजी दीवानके समय में हुए हैं, और प्रशस्तिके निम्नवाक्यसे प्रकट है: रतनचंदजीके बाद उनके भाई बधीचन्दजी, फिर शिवजी"साधर्मिनमें मुख्य हैं ग्तनचन्द्र दीवान । लालजी और फिर इनके सुपुत्र अमरचंदजी दीवान हुए। पृथ्वीसिद नरेशको श्रद्धावान सुजान । ६। +''महागमजी श्रोसवाल जातिके उदासीन भावक थे, तिनकै अतिरुचि धर्मसी साधर्मिनसों प्रीत । बड़े बुद्धिमान ये और यह पं० टोडरमल्लजीके साथ नव चर्चा देवशास्त्र गुरुकी सदा उरमें महाप्रतीत । ७॥ करने में विशेष रस लेते थे।" श्रानन्दसुत तिनको सखा नाम जु दौलतराम । है "सो दिल्लीतूं पढ़कर वसुवा श्राय पा जयपुर में थोड़े .......""कुल वणिक जाको वसवेधाम । ८ । दिन टोडरमलजी महाबुद्धिवानके पासि सुननेका निमित्त मिल्या, पाछै वसुवा गये।"-देखो, सिद्धान्तसारकी टी.प्र. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] पं० टोडरमलजी और उनकी रचनाएँ २६५ - - पंक्तियोंसे प्रकट है: "तुम्हारे चिदानन्द घनके अनुभवसे सहजानन्दकी "कोऊ कहेगा सम्यग्दृष्टि भी तो बुग जानि पर द्रव्यको वृद्धि चाहिये।" त्यागे है। ताका समाधान-सभ्यग्दृष्टि परद्रव्यनिका बुग न गोम्मटसार जरकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिमार-क्षपणाजाने है। आप सगगभावकों छोरे, तातै ताकाका कारण सार और त्रिलोकसार इन ग्रन्थोंके प्रधाननया मूलका का भी त्याग हो है। वस्तुविचारें कोई परद्रव्यतौ भला प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती है। गोम्मटसार बुरा है नहीं। कोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है। तका ग्रन्थपर अनेक टीकाएँ रची गई है, किन्तु वर्तमानमें उपउत्तर-पर द्रव्य जोरावरी ती क्योंई विगारता नाहीं। अपने लब्ध सभी टीकात्रों में प्राचीन टीका मन्दप्रबोधिका है भाव विगरें तब वह भी बास्यनिमित्त है । बहुरि बाका जिसके कर्ता अभयचन्द्र हैं+ । इस टीकाके आधारसे ही निमित्त बिना भी भाव विगरें हैं । तात नियमरूप निमित्त ही ज्ञववान शक संवत् १२८१ में 'जीवतत्व प्रदीपिका' भी नाही। ऐसे परद्रव्यका तो दोष देवना मिथ्याभाव है। नामक टीका कनडी भाषामें लिखी है। जो कोल्हापुरके गगादिक भाव ही बुरे है सो याकै ऐसी समझ नाहीं। यह शास्त्रमण्डारमं सुरक्षित है। मन्दप्रबोधिका और केशवपद्रव्यानिका दोष देखि निन विष द्वेषरूप उदासीनता कर वोंकी उक्त कनही टीकाका श्राश्रय लेकर भट्टारक है। सांची उदामीनता नौ वाका नाम है, जो कोई भी नेमिचन्द्रने अपनी संस्कृत टीका बनाई हैx जो 'जीवतत्वपरद्रव्यका गुण वा दोष न भासे, ताने काहूकों भला बुग प्रदीपिका नामसे ख्यात है। इस संस्कृत टीकाके अाधारसे न जानै। श्रापको श्राप जानै, परकौं पर जानै, परनैं किछ ही०टोडरमल्लीने अपनी हिन्दी टीका बनाई है, जिस भी प्रयोजन मेग नाही, ऐमा मानि साक्षीभृन रहे, सो ऐमी का नाम मम्यग्ज्ञानचन्द्रिका है, जो संस्कृत टीकाका अनुउदासीनना शानी ही होय ।" (पृ. ३४३-४) वाद होते हए भी उसके प्रेमयका स्पष्ट विवेचन करती। रचनाएँ और रचनाकाल इसमें उन्होंने अपनी श्रोरसे कषायवश कुछ भी नहीं लिखा है:श्रापकी कुल नौ रचनाएँ हैं जिनमें ६ तो टीकापन्य “आज्ञा अनुसारी भए अर्थ लिखे या मांहि । है, एक रहस्यपूर्ण चिही है और दो रचनाएँ उनकी टीका- धरि कषाय करि कल्पना हम कछु कीनी नांहि।"३३। ग्रन्थों तथा अन्य ग्रन्थोंका अनुभव या मार लेकर रची गई है। उनके सब नाम इस प्रकार हैं:-१ गोम्मटसार जीव *बहुत सूत्रक करनते नेमिचन्द्र गुनधार । काण्ड टीका, २ गोम्मटसार कर्मकण्ड टीका, ३ लन्धिमार मुख्यपने यो ग्रन्थके कहिये है करतार ॥ १२ ॥ क्षपणासार टीका, ४ त्रिलोकसार टीका, ५ श्रात्मानुशामन कनकनन्दि पुनि माघवचन्द्र । प्रमुख भये मुनि बहुगुणवृन्द। टीका, पुरुषार्थसिड्युपाय टीका, रहस्यपूर्ण चिट्ठी, अर्थ- तिनहू की है यामें सीर । सूत्र कितेक किये गम्भीर १३ मंदृष्टि अधिकार और ६ मोक्षमार्गप्रकाशक | -लब्धिसार टी. प्रशस्ति इनमें आपकी सबसे पुरानी रचना उक्त चिही है जो + अभयचन्द्रने गोम्मटसार जीवकाण्डकी ८३ नं. को वि० सं० १८११ की फाल्गुण वदी पंचमीको मुननानके गाथाकी टीकामें एक पंचिका' टीकाका और भी उल्लेग्न अध्यात्मरसके रोचक खानचंदजी, गंगाधरजी, श्रीगलजी किया है:-"अथवा सम्मूच्र्छन गर्भोपपात्तामाश्रित्य जन्म सिद्धारथ जी श्रादि अन्य साधर्मी भाइयों को उनके प्रश्नांक भवतीति गोम्मटसारपंचिकाकारादीनामभिप्रायः ।" इस उत्तररूपमें लिखी गई थी। यह पत्र अध्यात्म रसके अनु- उल्लेवसे स्पष्ट है कि मन्दप्रबोधिकासे पूर्व गोम्मटसारपर भवसे श्रोन-प्रोत है और इसमें आध्यात्मिक प्रश्नोंका उत्तर 'पंचिका' नामकी कोई टीका और थी, परन्तु उसका कर्ता कितने सरल एवं स्पष्ट शब्दों में विनयके साथ दिया गया है कौन था, यह अभी अनिश्चित है । हो सकता है कि यह चिट्ठीको देखते ही बनता है। चिट्ठीगत शिष्टाचारसूचक चामुण्डरायकी देशी टीका ही यह पंचिका हो। निम्न वाक्य तो खास तौरसे पंडितजीकी श्रान्तरिक भद्रता x देखो, डा. ए. एन. उपाध्ये एम० ए० का गो. तथा वात्सल्यताका द्योतक है: की जीवतत्वप्रदीपिका' वाला लेख 'अनेकान्त' वर्ष ४ कि.१ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ भनेकान्त [ वर्षे ६ + सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम, भाषा मय टीका अभिराम । विवेचन स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें किया गया है और जो 'अर्थभई भले अथेनिकरियुक्त,जा विधसोसुनिये अव उक्ता" संह' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है। इसका पर्यालोचन इस टीकाकी रचना रायमल्ल नामके एक साधर्माश्रावक अथवा स्वाध्याय करनेसे संदृष्टि-विषयक सभी बातोका बांध की प्रेरणासे की गई है, जो विवेकपूर्वक धर्मका साधन करता हो जाना है। हिन्दी भाषाके अभ्यासी स्वाध्यायप्रेमी सज्जन भी था। गोम्मटसारकी टीका बननेके पश्चात् लब्धिसारकी इससे बराबर लाभ उठाते रहते हैं। आपकी इन टीकाश्रोसे ही टीका लिखी गई है। इस टीकाके पूर्ण होनेपर वेल्हादित दिगम्बर समाजमें पुनः कर्मसिद्धान्तके पठन-पाठनका प्रचार दी नहीं हुए; किन्तु प्रारभ्य कार्यक निष्पन्न होनेपर उन्होने बढ़ा है और इनके स्वाध्यायी सजन कर्मसिद्धान्तसे अच्छे अपनेको कतकृत्य समझा । साथ ही टीका पूर्ण होनेसे उन्हें परिचित देखे जाते हैं। जो आनन्द प्राप्त हुआ उसमें मंगल सुखकी कामना करते मोक्षमार्गप्रकाशक और पुरुषार्थमिड्युपायकी टीका ये हुए पंच परमेष्ठीकी स्तुति की है और उन जैसी अपनी दोनों रचनाएँ आपकी पिछली कृतियाँ मालूम होती हैं, जिन्हें दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त की है। यथा: श्रायु पूरी होजानेसे श्राप पूरी नहीं कर सके है, अन्यथा वे "प्रारम्भो पूरण भयो शास्त्रसुखद प्रासाद । जरूर पूरी की जानी। फिर भी अकेला मोक्षमार्गप्रकाशक अब भये कृतकृत्य हम पायो अति पाल्हाद ॥६० ही ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जोड़का दूसरा ग्रंथ हिन्दीमें अभी + तक देखने में नहीं पाया । यद्यपि पुरुषार्थसिद्धयुपायकी टीका अरहंत सिद्ध सूरि उपाध्याय साधु सर्व रतनचन्द्र जी दीवानकी प्रेरणासे पं. दौलतरामजीने सं. अर्थके प्रकाशी मंगलीक उपकारी हैं। १८२७ में पूरी अवश्य करदी है; परन्तु उनसे उसका वैसा तिनको स्वरूप जानि रागत भई है भक्ति निर्वाद नहीं हो सका है। फिर भी उसका अधूरापन दूर हो कायकों नमाय स्तुतिक उचारी है। ही गया है। धन्य धन्य तुमहीने सब काज भयो 4. टोडरमलजीका रचनाकाल सं० १८११ से १८१८ कर जोरि बारंबार वंदना हमारी है। तक तो निश्चित ही है । फिर इसके बाद और कितने दिन मंगल कल्याणसुख ऐसो अब चाहत है चला यह यद्यपि अनिश्चित है, परन्तु सं. १८२७ के पूर्व होह मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है। तक उसकी सीमा जरूर है । लब्धिमारकी टीका वि.सं. १८१८की माघशुक्ला +वि.सं. १८११ में रामसिंह (जोधपुरनरेश) ने पंचमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसा कि उसके प्रशस्तिपद्यसे __ एक बार फिर गए हुए राज्यको पानेकी कोशिश की और स्पष्ट है: जयपुर महागज माधवनिह प्रथम और पापाजी रावकी "संवत्सर अष्टादशयुक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त, सहायतासे मारवाइपर चढ़ाई की।" माघशुलपंचमि दिन होत, भयो ग्रंथ पूरन उद्योत।" -देखो, भारतके प्राचीनराजवंश भाग ३ पृ. २३६ परन्तु यह ज्ञात नही हो सका कि त्रिलोकसार और "जयपुर महाराज माधव सिंह (प्रथम) और जोधपुर प्रात्मानुशासनकी टीकाका निर्माण कब किया गया, तथा नरेश महाराजा विजयसिहमें शत्रुता होगई थी, इसीसे जब 'अर्थसंहष्ट अधिकार' कव लिखा गया, जो संस्कृत टीकागत वि.सं. १८२४ में भरतपुर के जाट राजा जवाहरसिंहने अलौकिक गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों और अंक - जयपुरपर चढ़ाई की तब विजयसिंहने भरतपुर वालोंकी *रायमल साधर्मी एक । धर्म सधैया सहित विवेक । सहायता की थी।" सो नानाविध प्रेरक भयो । तब यह उत्तम कारज थयो ।४७ . -भारतके पा.राजवंश भा.३ पृ. २४. -लब्धिसार टीकाप्रशस्ति ऊपरके इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि जयपुरनरेश संदृष्टियोंका स्पष्ट परिचायक और विवेचक है तथा जिसमें माधवसिंह प्रथमका राज्य वि. स. १८११ से १८२४ तक संख्यात, असंख्यात प्रादिकी संहनानी श्रादिका स्पष्ट तो निश्चित ही है । पं. टोडरमाजीकी उपलब्ध सभी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] पं. टोडरमल्ल और उनकी रचनाएँ २३७ - रचनाएँ माधयसिंह प्रथमके राज्यकाल में ही निर्मित हुई है। साता उनके लघुपुत्रमे भी सुनकर ज्ञान प्राप्तिका संकेत करते पं. दौलतरामजी भी पद्मपुराणकी टीका प्रशस्तिमें सं० हुए उनके श्रोताओके समक्ष दीवान रतनचन्द्रजीकी प्रेरणासे २८२७ में जयपुरमें पृथ्वीसिंहका राज्य बनलाते है। शास्त्रके व्याख्यानका, और दीवान रतनचन्द्रजीकी श्रायु पं. टोडरमल्लजीकी मृत्युके सम्बन्धमें निश्चिन तिथिका पूरी होने तकका भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं। ऐमी हालतमें उल्लेख प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं हो सका, और न पं. टोडरमल जीको मृत्युकं सम्बन्धमें यदि ऐमी कोई अनिष्ट यही मालूम हो सका कि उनका स्वर्गवास कब और कैसे घटना घटित हुई होनी तो वे उमका उल्लेख किये बिना न हुश्रा है? परन्तु उनकी मृत्युके सम्बन्ध में जो किम्बदन्ती रहते । दुसरे ऐसे विद्वानके सम्बन्धमें ऐसी अनिष्ट घटनाका जैनसमाजमें प्रचलित है कि उनकी मृत्यु हाथीके पैर प्रसंग भी कुछ ठीक मालूम नहीं होता, क्योंकि उनकी तलें दाब कर की गई है'--उसकी यथार्थतामें भार्ग सन्देह परणति भी ऐसी नहीं थी जिससे उन्हें वैसी अनिष्ट घटनाके है; क्यों कि इस बातका समर्थन कहींसे भी उपलब्ध नहीं लिये वाध्य होना पड़ता । अस्तु । होता । न तो समकालीन विद्वान टीकाकार पं.दौलतराम- यहां यह बनलाना भी अनुचित न होगा कि पं. जीने ही उसका कोई उल्लेख किया है और न उनके लघु सुमेरचन्दजी उन्निनीषुने १४ मार्च सन् ४० के जैनसंदेश पुत्र गुमानीगमका ही इस विषय में कोई उल्लेख प्राप्त है अंक ४६ में अपने 'तोडरमल्ल या टोडरमल्ल' नामके लेख इसके सिवाय वसवा निवासी पं. देवीदासजीने भी उनकी में गोम्मटसारकी टीकाको सं. १८२८ में समाप्त करना, मृत्युके सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया, जब कि वे अपनी और पं. देवीदासकी उक्त प्रशस्तिके आधार पर सं. टीका प्रशस्तिमें उनसे स्वयं सुनने का उल्लेख करते हैं, और १८३८ में उनके साथ धार्मिक समागममें उपस्थित रहना *"सो दिल्ली सूपढ़िकर वसुवा प्राय पाछै जायपरमें जो प्रकट किया था वह ठीक नहीं है क्योंकि मैं पहले लिख योड़ा दिन टोडरमल्लजी महाबुद्धिवानके पासि सुननेका प्राया हूँ कि गोम्मटसारकी टीका लब्धिसार क्षपणासारकी निमित्त मिल्या, पीछे वसुवै गए । बहुरि वसुवा तें जयपुरमें टीकाके सं. १८१८ में बननेसे पहले बन चुकी थी अतः गए सो दीवान रतनचन्दजीके धर्मानुगग करि मंदिर विर्षे सं० १८२८ में गम्मटसारकी टीका समाप्त करना बतलाना शास्त्रका व्याख्यान किया, सो टोडरमल्लजीके जे भोना ठीक नहीं है। दूसरे, उनकी मृत्यु भी सं. १८२७ से पहले विशेष बुद्धिवान दीवान रतनचन्दजी, अजवरायजी, निलोक- हो चुकी थी, क्योंकि उनकी पुरुषार्थ सिद्धयपायकी अधरी चन्द पाटणी, महारामजी विशेष चर्चावान श्रोसवाल टीकाको पं. दौलनरामजीने सं. १८२७ में पूग किया है, क्रियावान् उदासीन तथा तिलोकचंद सोगानी, मोतीराम अत: ऐसी हालतमें सं. १८३८ तक पं. टोडरमल्लजीका पाटनी, हरिचंद, चोखचंद, श्रीचंदजी सोगानी, नैनचन्दजी जीवित रहना और उनके साथ पं. देवीदासका धार्मिक पाटनी इत्यादि टोडरमल्लजीके श्रोता विशेष बुद्धिवान तिनके समागममें उपस्थित रहना कैसे बन सकता है। ऐसा प्रकट श्रागे शास्त्रका तो दाख्यान किया और कामा वाला रतन करना किसी भूलका ही परिणाम जान पड़ता है। पं. चंदजीका कितनेक दिन जयपुरमें सामिल रहना भया, देवीदासजी देहलीसे वसुवा होते हुए जच पहले जयपुर श्राये तिनके निमित्तते तथा तिनके पीछे टोडरमल्लजीके बड़े पुत्र तब टोडरमल्लजीसे उन्हें सुननेका अवसर करूर मिला हरचंदजी निनते छोटे गुमानीरामजी महाबुद्धिवान वक्ता था; परन्तु वसवा वापिस जानेके बाद पुन: जयपुर श्राने पर लक्षणक्षारै तिनके पासि रहस्य कितनेक सुनकर कल्लू __ उन्हें पं० टोडरमल्लनी नहीं मिले, इसीसे उनके प्रभावमें जानपना भया बहुरि फागई वाले जयचंदजी छावड़ा तिनका कर्मके उदयकारे अपना परिका द्रव्यको वाणिज्यके निमित्त संग जयपुरमें भिल्या, ऐसे गुणवान पुरुषनिकी संगति मिली, ते क्षय करि मारीठ विर्षे प्रायो"। -सि०प्र०सं० २१९ सो दीवान रतनचंदजीकी प्रायु पूरी भई निस पीछे दीवान नोट-सिद्धांतसारकी यह प्रशस्ति बा. पन्नालालजी अग्रवाल रतनचंदजीभाई वधीचंदजीप्रति प्रात्सल्यवान् तिनकी प्रीति ते देहलीसे प्राप्त हुई है, मैं उनको इस कृपाके लिये बहुत जयपुरमें कितनेक वरष रहि करि संवत् १८३८ जेठमें कोई प्राभारी हूँ। लेखक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त पंडितजीके श्रोनाचोके समक्ष दीवान रतनचंद्रर्ज की प्रेरणा से मंदिरमें शास्त्रका व्याख्यान करनेका पं० देवीदासजीको अवसर मिला था । और वहाँ कुछ समय ठहर कर दीवान रतनचन्दजीकी मृत्यु हो जानेके बाद भी कितने ही वर्ष तक जयपुर में वधीचंदजी दीवानके वात्सल्य से वे रहे फिर सं० राष्ट्रोत्थानमें ग्रामोंका महत्व ( ले बा० प्रभुनाल जैन 'प्रेमी' ) चक्रवतीनरेश बड़ंत चारों ओर अपना रथ सजाकर घूमता हुआ अपनी मीठी रागसे सुन्दर संदेश सुना रहा था। कभी पृथ्वीकी हरियाली छटामें, कभी बनके ठूठे और अधजीवी वृक्षोंमें, कभी चात्र काननकी बोरोंमें छिपकर गहरा आनन्द लेता हुआ गा रहा था । ऋतुराज एक ग्रामीण भावुक युवक और सौंदर्य परिपूर्ण युवती के मुखकमलकी प्रभाको देखकर, प्रसन्न ही हो रहे थे, कि उन्हें ग्रामके घृणित वातावरण, धार्मिक भ्रान्ति, अज्ञानता, रूढ़िवाद और बुढ़ियापुराणके अन्धविश्वासपर दृष्टिपात कर अविश्रांत अश्रुधारा बढ़ाने के लिये विवश होना पड़ा। केवल इसीलिये कि जिन ग्रामोंमें भारतकी ६० प्रतिशत जनता निवास करती है. जो संख्यामें साढ़े सात लाख हैं, जो भारतीय राष्ट्रके हाथ और पैर हैं, जो भारतसरकारके अर्थकोपके सोना और चांदी हैं, जिनकी सभ्यता प्राचीनतम सभ्यताकी द्योतक कही जाती है। जिनके शील और सदाचारका पवित्र गुरुत्व संसारके समक्ष एक अनूठा आदर्श कहा जाता था, जिनकी उद्यमशीलता और कर्मण्यता संसार का पेट भरा करती थी, जिनकी शब्द स्नेहकी मात्रा परमेश्वर तकको आकर्षित कर लेती थी, जिनके बन्धुत्वका पराग विश्वमात्रको सौरभित करता था, जिनका ऐक्य वृक्ष सुस्वा दमय मधुर फलों को प्रदानकर सुरद और अनुरागी बनाया करता था, जिनकी निष्काम कर्मकामना गीताके उपदेशकी परिपक्वता प्रदर्शित किया करती थी, जिनके कोमल हृदय भावुकता और मानवताके सच्चे हृदयग्राही थे, जिनके पास छल, कपट और पाखंडको स्थान तक नहीं मिलता था, जिनकी विदुषी महिलाएँ किसी भी युगकी नवीनताकी संचालिका और संतति-पथ-प्रदर्शिका थीं, जिनके स्वावल [ वर्ष ६ १८३८ में पं० देवीदासजी मारौठ श्राये । श्रतः फुटनोटमें मुद्रित उक्त प्रशस्तिकी कुछ पंक्तियों पर पं० सुमेरचन्दजीने जो नतीजा निकाला है वह अभ्रान्त नहीं है। वीरसेवा मन्दिर, सरसावा ता० १६ मार्च १६४४ म्बनकी मात्रापर संसार मुग्ध रहा करता था, जो पारस्परिक प्रेमाच्छादित वस्त्रोंमें दुर्बलोंको छाया दिया करते थे, हाय ! भारत के उन ग्रामोंकी आज क्या दशा है ? और उन्हींकी दुर्दशाके कारण राष्ट्रका कैमा पतन होरहा है ? आज हम अंगुलियोंपर गिने जाने योग्य भारतके शहरों की सजी सजाई, शानदार, गगनचुम्बी इमारतोंको देखकर इस देशकी आर्थिक स्थितिका पता नहीं लगा सकते हैं ! नगरों में स्थापित पुस्तकालयों, सरकारी और प्रजासंचालित शिक्षाशालाओं और उनमें प्रचारित बुरी या भली शिक्षा के माध्यमको देखकर हम ग्रामोंकी शिक्षाका अनुमान नहीं लगा सकते हैं। शहरोंकी घनी संख्या, व्यापारकी हलचल व्यवसायकी चहल पहल, रुपयेकी श्रमद तथा शिक्षासंस्थाओं व समितियोंका एकत्रीकरवा देशको सम्पत्ति तथा विद्या जाननेकी कसौटियां नहीं हैं। हमें देश के ६० प्रतिशत निवासियों और उनके श्राश्रितोंकी सच्ची हालत जानने के लिये भारत के साढ़े सात लाख ग्रामोंको देखना होगा। क्योंकि सच्चा भारत ग्रामोंमें रहता है और देशको सचीसमृद्धि ग्रामों की समृद्धिपर अवलम्बित है। भारतीय राष्ट्र के उत्थानका उत्तरदायित्व २६ करोड़ ग्रामीण जनताकं उत्थानका उत्तरदायित्व है। ग्रामीण जनताकी सेवा जनार्दनकी सेवा है । ग्राम भारतीय प्राचीन सभ्यताके निर्मल दर्पण हैं और राष्ट्र संचालनकी कुंजी है। ग्राम कर्मभूमिके द्वार और मोक्षके स्थान हैं। वे भारतीय राष्ट्रकी रीदकी हड्डी हैं । अतः हमें भारतकी प्राचीनतम सभ्यता, शिक्षा, व्यवस्था और धार्मि कताके आदर्शको स्थापित रखनेके लिये ग्रामोंको ही पूर्ववत् अपनाना होगा । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंका विश्लेषण (ले०-श्री ५० वंशीधर व्याकरणाचार्य) [गतकिरण नं. ७ से आगे] (E) नयोंका लोक-संग्राहक वर्ग व्यक्ति उसका ज्ञान जीभसे रसके जरिये करता है तो जिस जिस प्रकार एक जैनी वक्ता अपने अनुभव और तर्कके । प्रकार एक ही प्रामके बारेमें भिन्न २ व्यक्तियोंको भिन्न २ प्रकारले होने वाले इन ज्ञानोको एक ही व्यक्तिको भिख २ भाधार पर सैद्धान्तिक दृष्टिमे कभी नित्यत्वादि सामान्यरूप और कभी भनित्यत्वादि विशेषरूप तथा माध्यात्मिक दृष्टिसे कालमें होने वाले इस तहके भिन्न २ ज्ञानोंके समान लोक कभी निश्चयरूप और कभी व्यवहाररूप इस प्रकार भिन्न २ में गलत नहीं माना जाता है उसी प्रकार जैनधर्मकी मान्यता के अनुसार सैद्धान्तिक दृष्टिसे वस्तुके सामान्य-विशेषात्मक समयमें प्रयोजनके अनुसार वस्तुका भिन्न २ तरहसे प्रतिपादन करता है उसी प्रकार जैनेनर बकाम भी अपने सिद्ध हो जाने पर यदि एक जैनेतर वक्ता उसका कथन अनुभव और तर्कके आधार पर सैद्धान्तिक रस्सेि कोई सामान्यरूपसे ही करता है और दूसरा जैनेतर वक्ता उसका कथन विशेषरूपसे ही करता है तथा प्राध्यात्मिक दृष्टिले वक्ता तो वस्तुका मिर्फ नित्यत्वादि सामान्यरूपसे ही प्रति. वस्तुके निश्चय-व्यवहारात्मक सिद्ध हो जाने पर यदि एक पादन करता है और कोई वक्ता उसका सिर्फ अनित्यत्वादि जनेतर वक्ता उसका कथन निश्श्रय रूपसे ही करता है और विशेषरूपसे ही प्रतिपादन करता है तथा माध्यात्मिक रष्टिसे दूसर: जैनेतर वक्ता उसका कथन ग्यवहाररूपसे ही करता कोई वक्ता तो वस्तुका सिर्फ निश्चयरूपसे ही प्रतिपादन है तो एक ही वस्तुका भिन्न २ प्रकारसे कथन करने वाले करता है और कोई वक्ता जसका सिर्फ व्यवहाररूपसे ही मित्र वक्ताओंके उन वचनोंको भी जैनी वक्ता भित्र २ प्रतिपादन करता है। इस लिये जिस प्रकार जैनी वक्ताके एक कालमें प्रयुक्त इस प्रकारके भिन्न २ बचोंके समान जैनधर्म ही वस्तुका भित्र २ तरहसे प्रतिपादन करने वाले उन में केवल गलत नहीं माना गया है बल्कि उनमें एक भित्र २ वचनोंमें परस्पर एक दूसरे वचनके साथ समन्वय वाक्यता स्थापित करनेका महान प्रयत्न भी वहां पर (जैन करनेके लिये नवपरिकल्पना द्वारा एकवाक्यता अर्थात् एक धर्म) किया गया है। क्योंकि जैन ममें सैन्त्रांन्तक दृष्टिसे वाक्य अथवा एक महावाक्यके अवयवत्वका स्पष्टीकरण "वस्तु नित्य है" और "वस्तु भनित्य है" ये दोनों परकार जैनधर्मकी मान्यता अनुसार पहिले किया जा चुका है निरपेच-स्वतंत्र वाक्य वस्तमें क्रमसे निस्यता और अनित्यता उसी प्रकार अनेक अजैन वक्ताोंक वस्तुका भिम २ तरहसे का सझाव बत्तखानेकी अपेक्षासे गलत नहीं माने गये हैं, प्रतिपादन करने वाले पूर्वोक्त प्रकारके भिन्न २ वचनों में भी बल्कि प्रथम वाक्य यदि वस्तुमें रहने वाली अमित्यताका परस्पर एक दूसरे वक्ताके वचनोंके साथ समन्वय करनेके विरोध करता है और द्वितीय वाक्य यदि उसमें (वस्तुमें) खिये नयपरिकल्पना द्वारा एक वाण्यता जैनधर्ममें स्वीकार रहने वाली नित्यताका विरोध करता है तो ऐसी हालत में की गयी है। हीन वाक्योंको गलत म्वीकार किया गया है। स्वामी तात्पर्य यह है कि लोकमान्यता अनुसार मामके समन्तभद्रने भी जैनेतर दार्शनिकोंके वस्तुका सिर्फ नित्यरूप-स्पर्श-गंध-रसात्मक सिद्ध हो जाने पर यदि एक व्यक्ति स्वादि सामान्यरूप या सिर्फ अनित्यत्वादि विशेषरूप कथन उसका ज्ञान अखिोंसे रूपके जरिये करता है, दूसरा व्यक्ति करने वाले वचनोंको भासमीमांसाकी १०८वीं कारिका' में उसका ज्ञान हार्थीसे स्पर्शके जरिये करता है. तीसरा व्यक्ति मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न भिथ्यकान्नतास्ति नः । उसका ज्ञान नाकसे गंधके जरिये करता और चौथा निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ . Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनेकान्त [ वर्ष ६ जो सर्वथा गलत मानने से इंकार किया है उसका प्राशय भित्र रूपसे प्रतिपादन करने वाले भिन्न २ वक्ताओंके भिन्नर यही है। यही बात माध्यात्मिक एसे निश्चय और व्यव- वचन हो सकते हैं। जायइया चयणवहा तावडया चेव हारकापरस्पर निरपेक्ष स्वतन्त्र रूपये प्रतिपादन करने वाले होंति यायवाया" [सम्मति ३-४७] इस गाथांशका यही वाक्योंके विषय में भीममझनी चाहिये। अभिप्राय हैं। इस तरस जैनधर्मके दर्शन में यह निष्कर्ष निकाला यषि लोगोंके मतभेदोंको भुला कर परस्परमें ऐक्य गया है कि एक ही वस्तु सैद्धान्तिक दृष्टिये अथवा श्राध्या- स्थापित करना इस नय वर्गका मुख्य प्रयोजन है और इस रिमक दृष्टिमे जब अनेक २ रूप सिद्ध होती है तो 'भुण्डे प्रयोजनको दृष्टिमे रख करके ही जैनधर्ममें अनेकान्तवाद, मुख मनिर्मिना" की लोकोक्ति अनुसार अपनी २ भिन्न २ स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद, द्रष्यादि चतुष्टयवाद तथा नामादि बुद्धिक अनुपार वस्तुके उन अनेक रूपोंमें एक एक रूपका चतुष्टयवाद अदि वादों का वस्तृत विवेचन किया गया है प्रतिपादन करने वाले भित्र २ लोगों भिन्न २ वचनोंगे परन्तु अफ्रमोम है कि स्वयं जैनी लोग ही इनका ठीक गलत माननकी अपेक्षा अधूरा मानना ही ठीक है, और तरहसे उपयोग नहीं कर सके हैं। यही कारण है कि जैनऐसा मान लेने पर जब यह निश्चित है कि अधूरा कथन दार्शनिक प्रन्थोंमें भी दूसरे मतोंके बारे में समन्वयात्मक अर्थका समग्ररूपसे प्रतिपादन करने में असमर्थ रहता है तो पद्धतिकी अपेक्षा खण्डनात्मक पद्धनिको ही प्रश्रय दिया अर्थका समग्ररूपसे प्रतिपादन करने के लिये भिन्न २ वचनों गया है और इमीका यह परिणाम है कि जैनधर्म भी दूसरे में एक वाक्यता प्रस्थापित करने की आवश्यता है। इसका धर्मोंकी तरह दुनियाकी नजरों में एकांगी ममदाय बन अर्थ यह हुआ कि मिस मित्र वत्ताओंके उन भिन्न भिन्न गया है। इनना ही नहीं, इसके अन्दर भी कई शक्तिशाली वचनोंको एकवाक्य अथवा एक महावाक्यके अवयव स्वीकार संप्रदायाँका पोषण हुमा और हो रहा है। करना होंगे और सब उन सभी बचनोंके समुदायरूप वाक्य (६) अथनय और शब्दनय अथवा महावाक्य प्रमाण कहे जावेंगे तथा भिन्न भिन्न उल्लिखित सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक और लोकसंग्राहक वक्तामोंक भिन्न भिन्न वचन उस प्रमाणके अवयव होजाने ये सभी प्रकारके नय श्रर्थनय और शब्दनयके भेदसे दो के कारण नय कहे जावेंगे। यह तभी हो सकता है जब कि प्रकारके जैनधर्म माने गये हैं। नोंका यह अर्थनय और एक ही वस्तुका भिन्न भिन्न रूपसे प्रतिपादन करने में शब्दनय रूप विभाग भाषा-शुद्धिकी गौमाता और मुख्यता निमित्त भून भिन्न भिन्न बुद्धि, प्रयोजन और द्रव्य-क्षेत्र काल पर अवलं वित है अर्थात् वक्ताके जिन वनों में भाषाशुद्धि या भावादिके माधारपर कायम की गयी भित्र भित्र रष्टियों की ओर जय नहीं देकर सिर्फ अर्थ के प्रतिपादनकी ओर पर उन वक्ताओंका लक्ष्य दिलाय।। जावे जैनधर्मकी 'स्यात्' ही लक्ष्य दि.। गया हो वे वचन अर्थनय माने गये हैं और की मान्यता अर्थात् स्याद्वाद" का यही प्रयोजन है। अर्थात- वक्ताके जिन वचनोंमें अर्थप्रतिपादनके साथ २ भाषाशुद्धिकी इस स्यातकी मान्यताके बलपर ही भिन्न २ वक्ताओंके और भी बचय दिया गया होवे वचन शब्दनय माने गये हैं। भिन्न २ वचनोंका समन्वय किया जा सकता है और सभी तात्पर्य यह है कि मानव-समाजमें भाषाका कितना वे सब वचन एक समन्वयात्मक वाक्य अथवा महावाक्यके महत्व यह प्रत्येक व्यक्ति जानता है। लोकमें मनुष्यके पाप अवयव अर्थात नय स्वीकार किये जा सकते हैं। अपना अभिप्राय दूसरों पर प्रकट करने के लिये भाषा ही येनय यद्यपि पूर्वोक्त सैद्धान्तिक और प्राध्यास्मिक नयों मुख्य साधन माना गया है और यह भाषा अर्थक प्रतिसं भिख नहीं हैं परन्तु अनेक बक्ताओं के मिस वचनोंका पादन करने में व्याकरण, कोष तथा शाब्दिक निरुक्ति एवं समन्वय करना ही इनका मुख्य प्रयोजन होनेके सबबसे इन परिभाषा आदिके नियमोंसे बांध दी गयी इस लिये को हमने 'नयाँका लोकसंग्राहक वर्ग" नाम देना ही ठीक लोकमें यद्यपि अधिकतर व्याकरणादिके नियमानुकूल व्यव. समझा है। और इस लिये इस वर्गके भेदोंकी यदि गयाना १-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । की जाय, तो वे उतने होंगे जिसने कि एक अर्थका भित्र २-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] नयोंका विश्लेषण २७१ स्थिर भाषाका ही प्रयोग हुमा करना है फिर भी प्रायः परिमार्जित होते हुए भी जहां तक अर्थप्रतिपाक्नका यह भी देखने में प्राता है कि जिन लोगोंको व्याकरणादि सवाल है वे ग्राह्य समझे जा सकते हैं। लेकिन व्य करणादिका परिज्ञान नहीं है वे भी भान, अभिप्राय दूसरोवर प्रकट की अपेक्षाये अपरिमार्जित भाषाका प्रयोग एक तो वक्ताके करनेके लिये भाषाका प्रयोग तो करते ही हैं। इस तरहसे जिये अपना अभिप्राय दूसरोंको समझाने में बहुत ही कम भाषा अपने मार दो भागों में विभक्त हो जानी है-एक उपयोगी सिद्ध होता है दूसरे ऐसे प्रयोगों द्वारा श्रोताओं भाषा वह है जो व्याकरणादिक नियमासे परिमार्जित रहनी को अर्थ निर्णयमें भ्रम या संशय पैदा हो जानेकी अथवा है और दूसरी वह है जो व्याकरणादिके नियमोसे अपरि- उनमें (श्रोताओं में) परस्पर विचारकी मात्रा बढ़ जानेकी मार्जित रहा करनी है। लेकिन भाषा चाहे व्याकरणादिवी भी संभावना बनी रहती है। इस लिये भाषाका परिमार्जन ररिसे परिमार्जित हो चाहे न हो, उसके द्वार। वक्ता अपना श्रावश्यक बतलाते हुए उसके लिये हमारे पूर्वजोंने भाषा अभिप्राय प्रकट करता ही है। इस लिये अर्थ-प्रतिपादनकी संबन्धी नियमों की सृष्टिकी है और लोकव्यवहारमें तथा दृष्टिसे अर्थनय और शब्दनय दोनों ममान माने गये हैं। खास तौरसे शास्त्रीय पद्धति में भाषाका प्रयोग करते समय विशेषता इतनी है कि शब्दनयोंमें मापाकी व्याकरणादिकी इन नियमोंका ध्यान रखना वक्ताके लिये धावश्यक बतअपेक्षा शुद्धि, अनिवार्य मानी गयी है. इस लिये इनको भाषा लाया है। पाणिनीय व्याकरण महाभारयमें' भाषा संबंधी की प्रधानताके कारण शब्दनय नाम दिया गया है और नियमोंके बहुनये प्रयोजन बतलाये हैं। अर्थनयों में भाषाकी व्याकरणादिकी अपेक्षासे शुद्धिकी भाव- यद्यपि नोंका मुगय प्रयोजन अर्थ-प्रतिपादन करना श्यकता नहीं समझी गयी है. इस लिये भाषाकी प्रधानता ही है. इस लिये जिस प्रकार ग्राम खाना मात्र प्रयोजन रहते के कारगा इनको अर्थनय नाम दिया गया है । "अर्थनया हुए खाये हुए ग्रामीकी गुठली गिननेसे कोई लाभ नहीं अर्थप्रधान'वात्, शब्दनया: शब्दप्रधान'वान" (अष्टसहस्त्री होता है उसी प्रकार अर्थग्रहणरूप मुख्य प्रयोजनके सिद्ध पू० २८७) प्यादि वचन इसी अभिप्रायको लेकर प्रयुक्त होते हुए भाषाकी शुद्धि-अशुद्धि पर विचार करना भी बनाकिये गये हैं। वश्यक समझना चाहिये। फिर भी जिस प्रकार प्रकृतिको लोकमें प्रायः देखा जाता है कि एक हिन्दी भाषासे ठीक रखनेकी गरजसे परिमित ग्राम खाना ही जिनको ठीक तौर पर अपरिचित मनुष्य हिन्दी भाषा भाषी लोगों भर्भर है उन लोगोंके लिये श्राम काते समय उनकी के समक्ष अपना अभिवाय प्रकट करनेके लिये टूटी-फूटी। गुठली गिनना भी आवश्यक हो जाता है उसी प्रकार हिन्दी बोलने लगता है, बस यही अर्थनय ममझना चाहिये। श्रोताओंको सुगमताके साथ पदार्थ सोध कराने के लिये तथा ममे अच्छी तरह मालूम है कि स्याहा-महाविद्यालय भाषा-श के अभावमें संभावित उनके भ्रम, संशय और बनारसमें इंगलिशकी शिक्षा देने वाले एक योग्यतम विवादको मिटाने लिये शुद्ध भाषाका प्रयोग करना भी बंगाली विद्वान हम सोगोंको पढ़ाते समय "कुत्ता दौडी" वक्ताके लिये भावश्यक है। तात्पर्य यह है कि वक्ताको "बिल्ली दौड़ा" आदि हिन्दाके वाक्यों द्वारा अंग्रेजीके वाक्यों हमेशा शब्दनयों द्वारा ही अर्थका प्रतिपादन करना चाहियेका अर्थ समझाया करते थे। आजकल भी बातचीत करते उसको अर्थ-प्रतिणदनके साथ २ भाषाकी शुद्धि पर भी समय बहुतमे लोग "हम जाता है" "हम जायगा" इत्यादि ध्यान रखना ही चाहिये। लेकिन जो वक्ता शुद्ध भाषाका प्रयोग किया करते हैं। ये सब प्रयोग व्याकरणकी दृष्टिसे प्रयोग करने में अपनेको असमर्थ पाते हए भी किसी समय अपरिमार्जित है। और इस प्रकारके वाक्य-प्रयोग जो व्या अर्थका प्रतिपादन करना जरूरी समझता है उस समय वह करणादिकी दृष्टिसे अपरिमार्जित होते हुए भी लोक म्यव शुद्ध भाषाका प्रयोगरूप शब्दनयके अभाव में पूर्वोक्त प्रकारके हारमें काम माते हैं उन सबको अर्थनयों में अन्तभूत करना चाहिये। तारण स्वामीके प्रन्धोंके विषय में भी यही बात १'एकः शब्दः सम्याग्ज्ञात: स्थगें लोके च कामधुग भवति" लागू होती है। अर्थात् उनकी भाषा व्याकरणादिकी दृष्टिसे रक्षोहागमलध्वसंदेश: प्रयोजनम्" इत्यादि । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त [वर्ष ६ अर्थनयका भी प्रयोग कर सकता है। जैनधर्ममें वचन प्रयोग कर एकान्तरूपसे अपभ्रंश भाषाकी निन्दा करके सुसंस्कृत के बारेमें अयनय और शब्दनयके इस विभागको अपना- भाषाके महत्वको प्रस्थापित करनेका प्रयत्न किया है उन्होंने. कर और उन दोनोंका उबिखित प्रकारसं ठीक ठीक समन्वय केवल सर्वसाधारण बहुजन समाजके साथ जबर्दस्त करके जैनाचार्योंने अपनी व्यवहारज्ञता तथा जैनधर्मकी अन्याय किया है, कि उन लोगोंके साथ भी यह वैज्ञानिकता व उदारताका काफी परिचय दिया है। कारण म्याय है, जो एक सुसंस्कृत भाषाके प्रकाण्ड जानकार कि हर एक प्रादमीके लिये अपना अभिप्राय दूसरों पर होते हुए भी उस सुसंस्कृत भाषासे अनभिज्ञ लोगोंके प्रकट करना जरूरी होते हुए भी सवंत्र और हमेशा सभी समक्ष उनकी भाषासे अनभिज्ञ होनेके कारण अपभ्रंश भाषाओंके पूर्वोक प्रकारसे शुद्ध प्रयोग करना असंभव है। अर्थात टूटी फूटी भाषामें अपना अभिप्राय प्रकट किया करते इस लिये जिन लोगोंने ग्याकरणादिसे परिमार्जित अर्यात् हैं। अस्तु ! यह अप्रकृत बात प्रसंग पाकर लिखदी गयी सुसंकृत और व्याकरणादिसे अपरिमाजित अर्थात अपभ्रंश है। यहां पर तो हमें सिर्फ इतना बतलाना है कि जैनधर्म में भाषाके बारेमें देवभाषा और म्लेच्छ भाषाका भेद पाद माने गये अर्थनय और शब्दनयका मभिप्राय व प्रयोजन वही है, जो हमने ऊपर प्रकट किया है। (क्रमशः) १"म्लेच्छो ह वा एव यदपशब्दः, म्लेच्छा मा भूमेत्यध्येयं २"यथैव हि शब्दज्ञाने धर्म एमपशब्दज्ञानेऽप्यधर्म:, व्याकरणम्" -पाणिनीय व्याकरण महाभाष्य अथवा भ्यानधर्म: प्राप्नोति।" --पाणिनीय व्याकरण भाष्य ['श्री भगवत्' जैन] ___'प्यार' हार है, जीत नहीं है! दुर्बलता है तड़पन मनकी, रोदन है, संगीन नहीं है। देकर प्यार, प्यार मिलना है दीपक जलता है, जलता हैसौदा फिर किस तरह शानका ? प्यार-भरा उसका पतंग भी। प्यारे पर प्राणोंको देकर, मिलने पर भी जलते दोनोंकरते हैं पालन सबानका ।। सुग्वी न होता एक अंग भी ।। फिर भी देखा गया-प्यारकी करता विश्व प्रतीत नहीं है। अत: मनाना पड़ता है यह-प्यार श्राग है, शीत नहीं है। प्यार - भरी दुनिया में हमने देख चुके लाम्वों टटेल करकभी विजय-उल्लास न पाया। भली-भाँनि इसका अन्नस्तल । मिली पराजय - सी नीरवता किन्तु श्राज-तक कौन पा सकाऔर व्यथिन, चिन्तित-सी काया।। प्यार - विटप - द्वारा मीठा-फल ? मदा रिचलती आँखें देखीं, नर यद्यपि नवनात नहीं है। प्यार श्रात्माका यथार्थमें घोर शत्रु है, मीत नहीं है। जहाँ प्यार है, वहाँ कलह हैजहाँ कलह है वहाँ कष्ट है। प्यार-कलहकी दुनिया में, यो मानवपन हो रहा नष्ट है। फिर भी यह चैतन्य हीन-सा, मानव-मन भयभीत नहीं है। 'प्यार' हार है, जीत नहीं है! Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और धर्म (ले० श्री. जमनालाल जैन विशारद ) जिस समय हमारा जन्म होता है उसी क्षण से उस आदिपा होत्फुल्ल हो किलकिलाते हुए हमारे पास श्रा समय तक, जब तक मृत्यु-मुखमें हम नहीं पहुँच जाते, जाता है और उसे हमसे लेने का उपक्रम अपनी शक्ति और जीवन कहते हैं । जन्मक उपरान्त ही हमारी प्रवृत्तियां मामर्थ्यानुमार करने लगता है। एक बार उसके हाथ में उस प्रारम्भ हो जाती है । जब तक हम श्रबोध, विकारहीन वस्तुके पहुँचमके उपगन्त यह सहज सम्भव नहीं कि वह एवं सभाके माया जालमें लिप्त रहते हुए भी अनजान तत्काल ही और बिना किमी हिचकिचाहटके उसे में देदे. रहते हैं. प्रकृान हमारी सहचारिणी रहती है-खेलना, यह बिल्कुल असम्भव है कि वह, उस वस्तुके उसके पास खाना, हँसना, गेना श्राद ममस्त कार्य उसी के साथ निरंतर से छोने जानेपर न रोए अथवा अपने को दु:खित अनुभव हुमा करते हैं । लेकिन, ज्यों ज्यो हमारी शक्तियाँ बढ़ती न करे। जाती है. गग-द्वेषकी प्रवृत्तियाँ विक्रमित होती जाती है, प्रकृति के भीतर एक ऐसी अलौकिक शक्ति है, जो मोह-ममता घर करती जाती है, एक दूसरेसे परिचित होते प्रत्येक प्राणीको अपनी ओर आकृष्ट किए बिना नहीं रहती जाते हैं, अनुभवमें वृद्धि होती जाती है, सुख-दुख एवं श्राशा निराशाका हृदयमें उदय हो जाता है-जात्पर्य यह वह उसकी सुन्दरता पर मंत्रमुग्ध हो जाना और कोई दास है कि ज्यों ज्यों प्रत्येक मांसारिक बातावरणमें हमारा क्षेत्र भी बन जाता है। यही तो कारण है कि हमारा प्रेम उत्तविस्तीर्ण होना जाता है, त्यों त्यों मन:स्थिति विकृत होती गेत्तर सांसारिक वस्तुबांकी ओर जो क्षणिक एवं अस्थिर जानी है, स्वाथीलप्सा तीव होनी जाती है. ईर्षा एवं स्पर्धा अथवा अनित्य हुश्रा करनी है, प्रबल होना जाता है। जब को स्पष्ट झाँकी हमारे मुम्बमण्डलपर झलकने लगती है। तक हम संसार में रहते हैं, सामारिक वस्तुओके प्रेम के संसारके प्राणियों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति, उनके पूर्व आधिक्य के कारण, उनकी प्राति के लिए हमारी इच्छाएँ, जन्मके संस्कारोंवश होती जाती है कि उनमें "तेरा-मेरा" आकांक्षाएँ एवं अभिलाषाएँ निरंतर वृद्धिगत होती जाती हैं, और उनका हमारे जीवन में प्रभाव न हो-उनसे के कलुाबत विचार घर कर लिया करते हैं। हमाग दूरत्व स्थापित न हो इसके लिए नाना प्रकारके एक नवजात शिशुकी ओर तो पुष्टिपात कीजिये। श्रायोजन भी मोचे और किये जाते हैं। उन चेतन अथवा जब वह अपनी माताके उरसे चिपककर दूध पीना चाहता अचेनन सामग्रियोंमसे जिनके द्वारा हमाग स्वार्थ साधन है, तब वह एक स्तन पर तो हाथ रखता है और दूमरेसे विशेष रूपसे होता है, जिनके द्वाग कुछ लाभ होने की मैं लगाए रहता है। क्योंकि, उसके यह भाव उस नवजात सम्भावना रहनी अथवा जिनके प्रति हमारा प्रेम अधिक सुकुमार अवस्थामें भी, पूर्वजन्मक संस्कारवश उसके हृदय ममता और अनुरागमय रहता है, उनका बियोग अथवा में विद्यमान रहते है कि मेरी वस्तु कोई दूसरा न हथियाले अमाव हमें असहा हो जाता है, यहाँ नक कि हम उनको यद्यपि वह इस मनोदशा अथवा मनोभावको उस अवस्था अपनी प्रांखोसे अोकल भी न होने देनेके लिए सतत में वचनद्वारा व्यक्त करने में अपनेको असमर्थ पाता है। चिन्तित एवं सजग रहते है। इस बातका भी उन सभी सहृदयाको अनुभव है, और किन्तु, रातदिन मोहममताएवं गमद्वेष परिणामोंके शिकार जिन्हें नहीं है वह कर भी सकते हैं कि जब हम किसी बमे हो कारण हम यह तनिक भी नहीं सोचनेका कष्ट उठाते बालक को रुपया पैसा दिलाते हैं, तब वह उसकी सुंदरता कि प्रकृति के नियम सदा सर्वथा सबोंके लिये समान होते है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ उसके विस्तृत साम्राज्य में पक्षपातको कोई महल ही नहींवहां तो आप उनके कितने भी प्रेमी हो, परन्तु जहां उसने हमारा उद्धार होनेके लिए बचपन में हमसे स्नेह किया था, वहाँ यदि हम नहीं चेते अपने प्रति सजग नहीं हुए तो पतन अथवा विनाश अवश्यम्भावी है । क्योंकि वह हमारा साथ नभी तक देनी है, जब तक हम अपने पैरोंपर खड़े नहीं होते । अनेकान्त . लेकिन जहां धियाला है वहां उजियाला भी है, जहाँ है वहां भीति भी है और जहां अनुराग है वहां चिराग भी है-हमी नियमानुसार यह भी स्वीकार करनेको बाध्य होना ही पड़ता है कि जहां इस प्रकृतिके साम्राज्यमंसारमें स्वार्थी एवं मोदी जन निवास करते हैं-रागद्वेष, लोभ और माह दी जिनका एकमात्र उद्देश्य रहता है, वहां इन सब प्रवृत्तियोंसे प्रतिकूल विचारवाले व्यक्ति भी यहीं निवास करते हैं— जो सांसारिक मभी बातों एवं वस्तुओं तथा विषयांसे उनकी सुन्दरना चित्ताकर्षकता और लुभावने रूपरंगसे सर्वथा उदासीन तटस्थ रहते हैं । संसारी जन अपनी प्रवृत्तियों पर चर्म चक्षुश्रीसे विचार करते हैं—उन प्रवृत्तियों के मूलकारणकी खोज तक वे पहुँच नहीं पाते । इसलिये उनके विचार बाझ श्राडम्बरपूर्ण जगत तक ही सीमित रह जाते हैं तथा क्षणिक तो वे होते ही हैं । परन्तु बे विरागी उदासीन जन जी निर्मोही, निस्वार्थी एवं तटस्थ होते हैं, अपनी चर्मचक्षुओं पर तथा प्रकृतिपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं और तब अपने अंतर्चों एवं दिव्य चक्षुत्रोंसे संसार दशावर प्रकृति की वृवृत्ति पर गंभीरतापूर्वक शुद्ध एवं निर्विकारी महिनष्क विचार करते हैं-वहाँपर जहां न होता है तेरा मेराका कोलाहल, कौचांकी काँव काँव, कुत्तोंका भूँकना और चिड़ियोंका चहकना ! वे सोचते है - यह जीवन केवल आजकल या सौ-पचास वर्षोंका ही ढकोसला मात्र नहीं है, यह युग-युगीन, सनातन और चिरंतन है । इसी पर्यायके जन्म और मरणमात्रसे इसकी इतिश्री नहीं होजाती । जन्म और मृत्युपर जब तक विजय प्राप्त न की जायगी ऐसे अपूर्ण जीवन - श्राज रहे कल चले जसे क्षणिक - जीवन एक बार ही नहीं कई बार उपलब्ध हुए हैं, और यह कौन कह सकता है कि वे कब तक प्राप्त होते ही जाएंगे। आज तक सागर से भी अधिक परिमाण में माताका दुग्ध पान कर गए, आज तक इतना दाना-पानी पचा गएकि जिसकी गिनती · - [ वर्ष ६ · लगाना भी शक्ति के परेकी बात हो गई। परन्तु हमना होनेपर भी हमारी इच्छाएँ आशाएँ, हमारी आकांक्षाएँ ज्योंकी त्यों बल्कि अधिक नीरूपमें बनी हुई हैं। ज्यों ज्यों तृष्णाको शान्त करनेका उपक्रम किया जाता है त्यों त्यों तृष्णा बढ़ती जाती है--कहीं ठिकाना है इस मोड़ का ! उन विचारकोंने सूक्ष्म अध्ययन के उपरान्त हमारे कल्याण के लिए कहा- ऐ मानवो ! तृप्ति संग्रह में नहीं, संचय करनेमें नहीं और मोद अथवा प्रेम में भी नहीं। तृप्ति है त्याग में, तटस्थ मनोवृत्ति में और अपरिग्रह में। जब तक मन और पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त नहीं की जाती, उन्हीं के वश में रहा जायगा, तब तक, तृमि, उन्नति उद्धार एवं उत्थान कांठन ही नहीं असम्भव भी है। देखिए, रमना इंद्रियको प्रसन्न करने के लिए हमने उसे तरह तरहके घट् रस पकवान खिलाए परन्तु स्वादलोलुप बनी ही हुई है । धारणको देखिए, उसे भी नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों और द्रव्योंमे परिचित कराया गया, इत्र- फुलेल सुंघाए गए परंतु क्या वह आज तक भी तृम हुआ है ? इन आँखोंको देखिए, जो रूप की और वर्णकी प्यासी है— क्या क्या नहीं देखा इन्होने, परन्तु, कहीं भी यदि तनिक भी सुन्दरता दोम्बी कि श्रड़ गई बद्दोंपर ! इन्होने तो भक्त प्रवर सूरदास जीको अंधा होने के लिए वाध्य किया था न ! और ये कान, कोकिला कंठी मधुर मधुर गीत. गान और कविताएँ तथा अपमान और अभिमानपूर्ण बातें सुनते सुनते जिन्हें श्रनन्तकाल बीत गया लेकिन श्रौर भी सुननेके लिये ऐसे उत्कंठिन रहते हैं मानों उनपर आज तक पर्दा ही पड़ा रहा हां? इन्हीं इन्द्रियोंके वशवर्ती होने के कारण हमें अपने आपकी सुधि नहीं रहती और ऐसे अवसरोंसे सामना करना पड़ता है कि जीवन से हाथ धोने का समय सम्मुख उपस्थित दोजाता है। यही नहीं, इन पाचों की तो बात ही निराली है, किन्तु एक एक केवशवर्ती होनेसे भी प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़ता है । एक भक्त एवं साधक कविने इस विषयका एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो मननीय होनेके साथ ही साथ मार्मिक एवं तथ्यपूर्ण है"मीन, मतंग, पतंग, भृङ्ग, युग इन वश भये दुखारी" -दौलतराम तात्पर्य यह कि रसना के वश होकर मछली, त्वचा के - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण] जीवन और धर्म वरावा हाकर हाथो, चतुप्रांक वशाभूाही पतंगा. नासिका "काहू घर पुत्र जायो, काहू के वियोग आयो, के वश होकर भ्रमर और कानोंके प्राचीन होकर मृग काहू गग-रंग, काहू रोधारोई करी है। जब अपने अपने प्राए गंवा देते हैं तब हम लोगोंकी उस जहां भान उगत उाह गीत-गान देखे, समय कितनी दुर्दशा होगी जिस समय पाँचों इन्द्रियों का मांझ समै ताहि थान हाय हाय परी है। श्रानन्द एक साथ प्राप्त करना चाहेंगे। ऐसी जगरीतको न देवि भयभीत होय, सभी निरंतर यह देखते ही रहते हैं और स्वयं भी हा हा मूद नर तेरी मौत कौन हरी है। अनुभव करते ही रहते है कि संमारके नाना प्राणी नाना मनुष्य जनम पाय सोवत विहाय जाय, प्रकारकी, अपनी अभिलाषा पूनिके लिए क्रियाएं करते हुए खोवत करोरनकी एक एक घरी है।" भी, सुख प्राप्तिका लक्ष्य सम्मुख रख कार्य करते हुए भी - जैनशतक सुखा प्रतीत नहीं होते। एक न एक चिता, कोई न कोई इसी समस्या को दुग्ब निवारणकी जटिल समस्याका इल व्यथा, वेदना या पीड़ा उनके श्रागे नग्न तांडव करनी ही करने के लिए. सुलझाने के लिए. उन विगगी. निर्मोही अंतरहती है। आज हम जिस मोटे २ मखमली सुकोमल गहों गत्माश्राने सदुपदेश देकर जन कल्याण होने की सुविधाके पर पैर पसारते हुए पाते हैं, उसी को इन्हीं श्राँग्बोंसे एक लिए समय २ पर अपने मत प्रस्थापित किए, अपने २ एक दिन एक २ पैसेके लिए सड़को पर भिक्षा मागते हुए विचारोंको सिद्धान्तो-मन्तव्यों का स्वरूप दिया और तदनुसार देख मकते हैं। मचमुच, संमार एक विशाल एवं विराट उनका प्रचार करनेके लिए सम्प्रदायों की स्थापना भी की। रंगमंच है जिस पर हम अपने जीवन-क्षणिक जीवनका ऐसे एक दो नहीं. कई मत एवं सम्प्रदाय प्रस्थापित हुए नाटक खेलते रहते हैं। यदि हम विश्वको रंगमंच और और सवलित भी हुए। जिनके विचार कुछ महत्वपूर्ण थे, अपने जीवनम परिवर्तन होने वाली परिस्थितियांको नाटक जिनके विचारों सिद्धान्तों में कुछ तथ्याँश था, जिनके मन्तही मान कर चले तो कोई बात नहीं; हम इन्हें वास्तविक व्यों में कुछ मार्मिकता एवं हृदयकी पुकार थी, वे तो अब मानते हैं और इससे यह होता है कि हमें आनंद और भी विश्वके वक्षस्थल पर अपने अस्तित्वको बनाए बैठे हैं. विषाद होना है। इस संसार में ऐसा एक भी प्राणी उपलब्ध नहीं और जिनके मिद्धान्त महत्व हीन, कारे प्रलाप मात्र अथवा होगा जिसका मनस्थिात निगकांक्षी और निरभिलाषिणी अनुकरण मात्र ही थे वे समूल नष्ट भी हो गए। ज्यों ज्यों हो । एक कविने हमारी मनोवृत्तिका सूक्ष्मावलोकन कर समय व्यतीत होते गया त्यो त्यों उन विचारकोंने अपने जो निचोड़ निकाला है वह इस प्रकार है सिद्धान्ती एवं सम्प्रदायाँका "धर्म" नामका परिधान पहिना "दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । दिया वे अब सब धर्मसे सन्बोधित किए जाने लगे-यथा कहूँ न सुख संसारमें, सब जग देख्यो छान " जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, मुस्लिम धर्म, वैदिक -भूधरदास धर्म इत्यादि । वही कवि एक स्थान पर संसार दशाका सत्य पूर्ण लोग कहते हैं- धर्मका जीवनमे प्रगाढ सम्बन्ध है। नग्न चित्र उपस्थित कर हम लोगों के अंतरके पट खोलने धमके बिना सारा जीवन और उस जीवनसे सम्बन्धित संमार का उपदेश देते हुए कहना है कि हे मूढ़ नर ! तेरी बुद्धि सूना है। धर्म से जीवन में सौंदर्य, शान्ति और संतोषका किसने चुराली है, जरा सोच और विचार तो कर करोड़ का संचार होता है। धर्मसे इहलौकिक एवं पारलौकिक करोड़ रुपयों के बराबर एक २ घडीका मूल्य है ! संसारका जीवन प्रानन्दमय बनता है। धर्मशून्य जीवन, जीवनहीन, क्या? उसकी तो यही दशा रही है और रहेगी। अपना जीवन अर्थात् जड़ जीवन है जिसके अस्तित्वका होना न कल्याण क्यों नहीं करता? जरा पाठक भी उसीके शब्दोंमें होना भी कहा जा सकता है। यह सब वास्तवमें यथार्थ देखलें कि वह किन मार्मिक शब्दों में हृदयकी बात कह एवं महत्वपूर्ण है अथवा नहीं, या तो बादमें देखा जायगा, परन्तु, इनके पीछे एक अंधविश्वास अथवा रूढ़ि या Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ परम्परागत प्रथा भी कार्य कर रही है जो घातक हानिकारक है । अनेकान्त तथा [ वर्ष ६ परन्तु यह नितान्त असम्भव है कि उनका अभाव ही हो जाय—वे विनष्ट हो जायें अथवा शून्य में विलीन हो जायें । सो, हमें अब देखना यह है कि मानवका धर्म क्या है, जिसका कि उसके जीवनसे श्रमेद्य सम्बंध है । मानव एक चेन्न प्राणी है अर्थात् वह निर्जीव नहीं, सजीव है। दूसरे शब्दों में मानव, आत्मा, जीव तथा चेतनता यह सब पर्यायवाची शब्द हैं। हाँ, तां तात्पर्य यह कि श्रात्मा या चेतनका स्वभाव क्या है, यह मुख्य प्रश्न है । उसका धर्म प्रथम तो यह है कि वह सनत चेतनामय ही रहती है आत्मा न मारने से मरती है, जलाने से न जलनी है, न काटनेसे कटती है अर्थात् कभी भी किसी भी अवस्था में वह चेतनामय ही रहेगी, उसमें जड़ता नहीं सकती। दूसरे वह अनन्त चतुष्टय'त्मक भी है अनन्त दर्शन. ज्ञान, सुख और वीर्य उसमें विद्यमान रहते हैं। इन पर पर्दा श्रारण पड़ा रहने के कारण इनका प्रकट अनुभव नहीं किया जा सकना। जिस प्रकार सूर्य प्रखर प्रकाशमान् है और सदा उसी दशा में रहता है तथापि उस पर हम यह देखते हैं कि जिस ममय घने घन छा जाते हैं उस समय दिवाकरका दैदीप्यमान प्रकाश यहां तक नहीं पहुँचता और न हम उसे देख ही सकते हैं, उसी प्रकार श्रात्माके उन गुणों पर भी जब कमका - कार्मण शरीरका - आवरण पड़ जाता है तब हम भी उसके गुणों को देखने में असमर्थ हो जाते हैं। जब यह प्रावरण दूर हट जाता है और वह निर्मल जलबत् निरावरण हो जाती है तब आपसे आप उसके गुण जो प्रकट दिखाई नहीं देते थे, प्रकाशित हो अपने आलोक से सारे जगतको आलोकित करने लगते हैं । आज धर्म शब्द इतना सस्ता हो गया है कि चाहे जहाँ, उचित या अनुचित स्थान पर उसे प्रयुक्त किया जारहा है। कोई मम्प्रदाय अथवा समाजको ही धर्म कह बैठना है तो कोई उसे पुण्य, शुभ अथवा लाभके अर्थ में ही व्यव हग्त करते हुए दिखाई देता है । श्राज, लोग उसे अतिशय संकीर्ण अर्थमं व्यवहृत कर उसके नाम पर आपस में खूनखराबियाँ भी करने लगे हैं। इसी कारण कई व्यक्ति तो ऐसी भीषण घटनाओ से महन होकर धर्म के नाम पर होने वाले घोर अत्याचारोंको देख कर धर्म और ईश्वर श्रादिकी कटुसे कटु शब्दों में निंदा, भर्त्सना तथा श्रलोचना भी करने लगे और यहाँ तक कहने लगे हैं कि धर्म केवल ढौंग, बदमाशी, कायरता और स्वार्थ मात्र है । उमने हमें परतंत्रता सिखाई, कायरताका पाठ पढ़ाया और खूनको नदियां बहाने में भी सहायक हुआ । सचमुच धर्मके नाम पर होने वाले अन्याय, अत्या चारों और रक्तपानोंको देख कर यदि कोई ऐसी कटु भर्त्सना करे तो आश्चर्य ही क्या ! श्राज जैन, बौद्धसे, बौद्ध वैष्णव से वैष्णव, मुस्लिमसे मुस्लिम, ईसाईसे और ईसाई आपस में ही अपने २ सिद्धान्नों की रक्षा करने एवं दूमरोंसे अपने को महत् प्रमाणित करनेके लिए लड़ मर और कट रहे हैं। परंतु वास्तव में देखा जाय तो यह सब पक्षपात, दुराग्रह एवं अज्ञानताका विषैला परिणाम ही है। भला, हमारे जीवनसे इन बातोंका क्या सम्बन्ध ? ऐसी असंख्य घटनाएं तो हमारे दैनिक व्यवहारिक और सामाजिक जीवन में ही घटित हुआ करती हैं, उन्हींसे निवृति पानेके लिए तो "धर्म" का श्राविष्कार हुआ ! और वहाँ भी यही दुष्प्रवृत्तियाँ ! हाय !! "वस्तुके स्वभावका नाम ही है धर्म" एक धर्माचार्य जैनका मन्तव्य है । पानी सजीव हो अथवा निर्जीव, जड़ हो या चेतन कोई भी वस्तु हो, उसका जो स्वभाव होगागुण होगा, वही उसका धर्म कहा जायगा । और जो वस्तु होती है, वह बिना गुण अथवा स्वभावके तो हो ही नहीं सकती। हां, यह होता है कि परिस्थिति विशेष अथवा पर्याय विशेषमें उन गुणों धर्मों अथवा स्वभावोंका तिगेभाव भले ही हो जाय वे दृष्टिगोचर अथवा अनुभवगोचर न हो, तो कहनेका तात्पर्य यह है कि मनुष्य ही नहीं प्रत्येक सचेतन प्राणीका धर्म अपने ही पास है, उसे प्राप्त करनेके लिए किसी दूसरेकी शरण में सहायतार्थ जाकर हाथ फैलाने और मुँह खोलने की आवश्यकता नहीं । मानवजीवनकी सफलता भी इसमें है कि वह अपने अविकसित, दबे पड़े हुए गुणां को प्रकट करे और अनन्त आनन्दमय जीवनका जन्ममृत्युविहीन जीवनका सुखोपभोग करे । परन्तु एक प्रश्न है। यह अनन्त ज्ञान, दर्शन आदि जो आत्मा गुण हैं, उन्हें प्रकट किस प्रकार किया जाय ? हमारी आत्मा के चारों ओर कुछ ऐसे पुद्गल परमाणु Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] जीवन और धर्म पाकर घिर जाया करते हैं कि वह मानों कारागृहकी अंध- यह परमामृत, जन्म-जरा-मृति-रोग-निवारण।" कारमय कोठरीमें ठूस द गई हो । इसका कारण हैं इमारी गगदषपूर्ण और मोहाच्छन्न दुष्प्रवृत्तियाँ। यदि हम धन, समाज, गज, वाज, राज तो काज न आवै । मान, माया, लोभ, रागद्वषादि करना त्याग दें. ज्ञान प्रापको रूप भये, फिर अचलरहा वै॥छादाला शुभाशुभ प्रवृत्तियोंसे मुख मोड़ लें और "तेग मेरा" की हम प्रत्यक्ष अनुभव में भी देखते हैं कि अधिकांश खटाईमें न पड़ें तो बहुत कुछ बच सकते हैं, इन्हींके कारण बालक पाठशालामें जानेक नामसे नाक भौं सिकोड़ते हैं आत्माका पिड पुद्गगल परमाणु स्वागते नहीं और ऐसा न लेकिन माता-पिताके डर के मारे पट्टी-दफ्तर लेकर घरग होनेसे श्रावरण कुछ दूर होना नहीं । परन्तु यह कार्य तो निकल जाते हैं परन्तु बाहर अानेपर वृक्षोंपर चढ़कर करना उतना ही कठिन है जितना सरल कहना । "कथनी इमलियां तोड़ कर खाना, गोलियां खेलना श्राद कायं बड़े मीण खाँडसी, करती विषकी लोथ ।" का यही अनुभव ही उत्साह, उमंग और लगन से करते हैं। जब वह होता है। ये पुद्गल परमाणु कई तरह के होते हैं, परन्तु जो पाथियों के शान प्राप्त करने में ही इतना बोझ और कष्ट प्रतीत आत्मासे चिपकते हैं, वे कामीण शरीर के अंतर्गत कहे जाते होता है तब संपूर्ण ज्ञान-केवलज्ञानको प्रकट करने में कैसा हैं । हम कार्माण शरीरसे दूर होने क लिए, उसे भस्मीभून और कितना परिश्रम अपेक्षित होता होगा, कौन कल्पना करने के लिए, एक करके शब्दोंमें कर सकता है। एक कविने एक ऐसे ही साधुका जो ज्ञान "ज्ञानदीप, तप-तेल भर, घर शोघे भ्रम छोर ।। साधनाम जंगलके भीतर नल्लीन होकर अपने ध्यानमें निरत या विधि बिन निकसे नहीं, बैठे पूरब चोर ।" थे, बड़ा सुंदर, सजीव ए मार्मिक चित्र चित्रित किया है, -भूधरदास जिमे अवलोकन कर कल्पना होती कि यह वास्तवम प्रयत्न किया जाय, तप किया गय तो ही सफल ना कितना दु:सह कार्य होगा। वह कहता हैप्राप्त हो सकती है। हमारा उद्देश्य जीवनमें ज्ञान गुणको, “तिन सुधिर मुद्रा देख मृगगण, उपल खाज खुजावते" जो अात्माका मुख्य गुण है, उसीकी अखण्ड और अवि- बस जहाँ केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय, कमौके नाशी ज्योतिको प्रकट करनेका प्रमुख रूपेण होना चाहिए। प्रावरणरूपी घनोंको तपरूपी अांधी द्वाग इटा कर, हो जाता क्योंकि हम धन-सम्मांत्त, राज-पाट, कुटुम्ब-कबीले, मान- है वही जीवनका धर्म प्रस्फुटित हो जाता है और जब वे सन्मानको तो सरलतासे थोड़ेसे ही पुरुषार्थसे या भाग्यसे दोनों एकाकार हो अनन्तकाल तक हमेशा के लिए सुखी बन भी प्राप्त कर सकते है, परन्तु ज्ञानधनका प्राप्त करना, जाते हैं। और इसी में मानवताका अथवा मानव-जीवनका यद्यपि वह हमारे समीप ही है. बड़ा ही कठिन कार्य है। चरम लक्ष्य और मंगलमय व्यक्तित्व संनिहिन है। एक कविने तो उसकी महिमा-गानमें यहाँ तक कह डाला- धर्मकरत संसार सुख, धर्मकरत निर्वाण । "ज्ञान समान न ान जगतमें सुखका कारण। धर्मपंथ साधे बिना, नर तियेच-समान ।। ज़रूरी सूचना अनेकान्तकी सहायता और चन्देका सय रुपया वीरसेवामन्दिरको निम्न पते पर भेजा जाना चाहिये। व्यवस्थापक 'भनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, पो. सरसावा जि. सहारनपुर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया मुसाफिर [ लेखक-श्री भगवत्' जैन ] -be:सवा सात आने हाथमें थामे, कच्ची ईटोंसे बनी सुहावनी सन्ध्या समाप्त हो चुकी थी। अँधियारी हई सरायकी एक छोटी-सी कोठरी में बैठा, शेखर घिरती आ रही थी । घएटे-भर पहले जिस पार्कम सोचता जा रहा है-'आखिर कितने दिन काट कोई भी बैंच खाली नहीं किम्वलाई देती थी। वहाँ सकता हूँ इस तरह ? और चार-छः दिन ! फिर ? अब सिवा बेकार-शेखरके और कोई मौजूद नहीं है। गाँवसे पाया था तब तीन रुपए, सवा पाँच आने थे। हरी-हरी मुलायम घासपर पड़ा, शेखर सच और आज.-सिफ सवा सात आन ! यानी दिन-पर रहा है-आजका दिन भी गया । अब क्या होगा दिन दरिद्रता काबू पाती जा रही है। भगवान ?? पिछले इन बीस-पच्चीस दिनोंमें एक दिन भी विह्वल-सा, निराश-सा मशीनसे कटी हुई चपर ऐसा सामने नहीं आया, जिस दिन कहीं जगह मिलने । हाथ फेरता हुआ शेखर बोला-'इस दूबकी देख-रेख की जरा-सी भी आशा बँधी हो । नित्य आशा लेकर करने वाला भी कोई है, जो जमीनसे मिली हुई है, उठा और निराशा लेकर ही सोया। जो पैरोंसे लूँ दी जाती है। लेकिन मुझे, जो डिगरियों और आज यह सवाल और भी गहरा हो रहा की लालसामें रात रात भर किताबोंम सिर खपाता है, जबकि सवासात पाने ही शेष हैं-कि भविष्य रहा, आज कोई नौकरी देनेवाला भी नहीं है। न जाने क्या छिपाए बैठा है अपने में ? --बदनसीबी!' मोबने.मोन पता नहीं कब शेखरकी आँख बड़ी देर तक पड़ा रहा शेखर, चप-गमसम । लग गई। जब उठा तो सबेरा था । सरायका शान्त- और फिर गुनगुनाता हुआ उठ खड़ा हुभा-'भगवातावरण, चहल पहल में बदलता जा रहा था। कोई वान ! किनारेसे लगा दो मेरी नैया!' आ रहा था, कोई जा रहा था। मुसाफिरोंका बाजार 'पर्स"? अरे, पसे ही तो है, इसे कौन गिरा गर्म था, मुल्ला 'अजान' दे चुका था, मन्दिरोंके घड़ि- गया यहाँ ?'-बटुआ हाथमें लेकर उलटते पुलटते याल गूंज रहे थे। हुए शेखर बोला। आवाजमें तृप्ति थी, सन्तोष था, हवा-खोरी के लिए निकला हश्रा कोई नौजवान प्रसन्नता थी। गाता हुश्रा भला जा रहा था और वह लम्बे-लम्बे डग धरता हुश्रा बढ़ा, 'भगवान् ! किनारेसे लगादो मेरी नैया !! सरायकी ओर । पैरोंमें जैसे 'पर' लग गए थे। आँखें मींड़ता हुश्रा शेखर विस्तरसे उठ रहा। बहुत दिन पीछे आज उसके चेहरेपर खुशीकी सुखर्जी था, कि रसीले-कण्ठसे निकली हुई पंक्ति उसके हृदय दौड़ी थी। नस-नसमें जैसे बिजली भर रही थी। से जा टकरा बड़ी अच्छी लगी। उसका हृदय भी दिल धक-धक कर रहा था। रातकी अँधियारी उसे गुहार उठा बड़ी भली लग रही थी। 'भगवान !" कोठरीमें आकर उसने दिया जलाया । भीतरसे भगवान ! किनारेसे लगा दो मेरी नैया!' सांकल चढ़ा दी। और काँपती-सी उंगलियोंसे बटुआ खोला। मन भगवानसे प्रार्थना कर रहा था Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] 'भगवान ! ऐसा न हो कि बटुआ खाली निकल जाय !' मुँह से गुनगुनाता जा रहा था-- काँपती आवाज में- 'भगवान ! किनारेसे ! एक मुसाफिर सचमुच, शायद भगवानको उसपर तरस आया हुआ था । बटुआ खाली नहीं निकला । दरिद्र शेखर की आशा से अधिक पैसा उसमें मौजूद था। सोनकी सुर्ख नगसे जड़ी हुई अँगूठी और डेढ़-सौके खुदरा नोट ! हृदय उसका आनन्दसे भर उठा । लालायित-नज्जरोंसे नोटों को देखता और अंगूठी को उँगली में अटकता हुआ, शेखर सोचने लगा-'वर्षो सकता हूँ इतनेसे । न मिले नौकरी, पर्वाह नहीं। आज शेखर की आवाज में वह करारापन था, वह अकड़ थी, जैसे वह दुनिया में सच कुछ कर गुजरने की ताकत रखता है । पुरुषार्थसे भरा-पूरा है । चारों ओर उसके आशाओंके सुनहरे सपने बिखरे पड़े थे । शायद आधी रात तक यों ही बैठा रहा, हिला तक नहीं । न जाने कहाँ-कहाँ तक उसके विचार छलाँगें भर रहे थे । सराय निस्तब्ध थी। सरायके पिछवाड़ेकी सड़क भी खामोश होती जा रही थी। पर, शेखर जाग रहा था, शरीरका अणु-अणु जाग रहा था, और जाग रहीं थीं उसकी अभिलाषाएँ ! सोच रहा था-डेढ़सौ रुपये से क्या व्यापार खोला जा सकता है ?" अंगूठी उँगली में पड़ी, फल-झल कर रही थी । शेखरने हाथ फैलाकर देखा, बड़ा सुन्दर हाथ लगता है । और मुस्करा उठा । पर, दूसरे ही क्षण, उसके उदासीने स्याही फेर दी । पर चिन्ताकी 'अँगूठी किसीने देखकर पहिचान ली तो ? पकड़ा गया तो ?" तिलमिला-सा गया शेखर ! सोचने लगा-'सचमुच, चोरी ही तो है यह ! जिसका खोया होगा वह क्या दुआएँ देगा - मुझे ? पाप ! --- बगैर दी हुई चीजका प्रहण करना पाप २७६ नहीं तो क्या है ? उफ ! कितना अनर्थ कर बैठाअब तक इस सिद्धान्तपर कायम रहा कि जो अपना नहीं, वह धन नहीं। लेकिन आज ? अंगूठी शेखरने उतारकर अलग रख दी । दिया तेज़ किया। जैसे अपने भीतर के अँधेरेको भी मिटा डालना चाहता हो । 'यह दरिद्रताका अभिशाप है, कि वह मानवीयता को नष्ट किए दे रही है । मुझे रास्ते में किसी की पड़ी हुई चीज़ उठानेका अधिकार क्या था ? - निश्चय ही भूल हुई है ! और भूल सुधारी भी जा सकती है !" शेखरने बटुएका एक्सरे करना शुरू किया। दो मिनटवाद ही उसका चेहरा खिल उठा। बटुएसे एक कार्ड मिला -- जिस पर लिखा था- 'मि० नत्रलकिशोर गुप्त' और नीचे बारीक-टाइप में पता नोट था । X x x x ढूंढने वाली नजरों से कभी कोई छिप नहीं सका । शेखरको इस पर विश्वास था । और इसी विश्वासको लेकर वह मिन्नवलकिशोर गुप्तकी तलाशमें निकला। उसका अनुमान था कि इस लम्बे-चौड़े महानगरसे गुप्तजीको पा लेना सहज नहीं होगा। हो सकता है, दो-चार दिन इसमें लग जाँय । लेकिन वह इस पर तुला हुआ था--' पर्वाह नहीं, कितना ही घूमनाफिरना पड़े पर गुप्तजी को ढूंढना अवश्य है !' किन्तु शेखरका अनुमान सही नहीं बैठा । घन्टे - भरको दौड़-धूपमें ही मि० नवलकिशोर गुप्तकी कोठी में जा पहुँचा! ढूढना कठिन नहीं रहा, इस लिए कि गुप्तजी ख्यात प्राप्त व्यक्तियों में से एक थे । वे एक कपड़े की बड़ी मिलके जनरल मैनेजर थे । सब कोई उन्हें जानते बूझते थे । कागज पत्रों से नज़र हटा कर वे बोले - 'हाँ, क्या चाहते हैं आप ? कहिए ?” शेखरने देखा - आदमी बड़ा, पैसे वाला, ज़रूर है, पर घमण्डी नहीं है । मुँह पर मुस्कराहट है, वाणी में मिठास ! पर्सको जेब से निकालते हुए शेखरने कहा- 'जी, यह आपका पर्स मुझे पार्क में पड़ा मिला था -- शायद Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त [वर्षे ६ थ बदाया और देखते हूँ शेखरने गुप्त जी आपका ही है-देख लीजिए, इसमें एक लार्ड है-- फिर जैसे निर्णयको छू कर बोला-'इन कागज उस पर आपका पता है।' के टुकड़ोंसे आप मेरी मानवता खरीदनेकी चेष्टा कर, गुप्तजीने बटुएके लिए हाथ बढ़ाया। और ऊपरसे मुझे दुःख पहुँचा रहे हैं गुमजी ! मैं क्षमा चाहता नीचे तक, एक बार गहरा दृष्टिसे शेखरकी ओर देखते हूँ......!'हुए, अचरज-भरे-स्वर में बोले-'ओह ! श्राप पर्स नोट शेखरने गुप्त जीकी ओर सरकादिए । और मुझे देने आए हैं ? बढ़ा दर्वाजेकी ओर। शेखरने धीमे-से कहा-'जी!' गुप्तजी चकित, स्तब्ध ! गुप्तजीने बटुआ खोला-नोट देखे, अँगूठी 'कैमा आदमी है यह ? पैसे की जरा भी ममता देखी और अपना कार्ड भी। फिर ऐमी नज़रसे देखते नहीं है, इसके हृदयमें ! आखिर क्यों ??--गुप्तजीने हुए जैसी नज़रसे देवता देखे जाते हैं, मुस्कराते हुए पलक मारते सोचा। पर, शेखर तत्र तक आफिसके बोले--'धन्यवाद ! पर्स मेरा ही है । असावधानीसे बाहर हो चुका था। कल कहीं गिर गया था। कहाँ, पार्क में मिला श्रापको ? गुप्तजीने एलार्म दिया। दर्वान पाया शेखरको 'जी, वहीं जमीन पर पड़ा था-घासमें। .. बुलानेका हुक्म दे, वे उमीके बारेमें सोचने लगे। अच्छा तो, इजाजत है, चलूगा "!' शेखरने दोनों अँगूठी बटुपके ऊपर ही रखी हुई थी, रटा कर देखने हाह जोड़े और चलनेको हुथा, मुड़ा भी थोड़ा कि लगे उलट-पलट कर-साढ़े चारसौकी खरीदी थी, गुप्तजीने टोका--'अरे, चल दिए मिष्टर ! यह अपना अब तो शायद मँहगाईमें दुगनी कीमतमें भी ऐसा पुरस्कार तो लेते जाइए ।,-गुप्तजीने कुछ नोट उठा 'नग' मिलना मुश्किल होगा?' कर शेखरकी ओर बढ़ाए। शेखर आया। शेखरने बगैर श्रागा-पीछा किप तत्काल जरा 'क्या आपने मुझे बुलाया ?' मज़बूत-स्वरमें कहा- 'नहीं, पुरस्कारके लायक तो 'बैंठिए-मिष्टर, बैंठिए ऐसी भी क्या जल्दीमैंने कुछ किया नहीं है-गुप्तजी! पुरस्कार कैसा? गुमजीने खड़े होकर शेखरको बैठाला, आत्मीयताके यह तो मानव-कर्तव्य ही है न?' साथ, श्रद्धाके साथ। और शेखर फिर चला। शेखर बैठ गया। गुप्तजीने फिर बुलाया। बोले-'कह तो आप नौकरने बायकी ट्रे लाकर रखदी। ठीक रहे में मिष्टर ! लेकिन फिर भी आपने दोनोंने चाय पी।गुप्त जीने पूछा-'आपका नाम ?' वैसा कुछ जरूर किया है जैसा अक्सर देखने में बहुत 'शेखर !' कम आता है और इसी लिए मैं समझता हूँ-आप 'शेखर ? सिर्फ इतना ही को पुरस्कार मिलना चाहिए।' 'जी, इतना ही समझिए। अधिक परिग्रह भगगुप्तजीन नोट शेखरके आगे रख दिए। शेखर वानकी ओरसे ही नहीं मिला, तब अक्षरोंकी अधिकुछ क्षण मौन, खड़ा रहा । पर, उसकी दृष्टि नोटोंपर कतासे ही क्या लाभ ?' नहीं थी, गुप्तजीके चेहरे पर भी नहीं थी। न जाने गुप्तजीने तनिक गंभीरतासे कहा-'हूँ! आप वह क्या देख रहा था, क्या सोच रहा था। मुँह पर काम क्या करते हैं ? विषादकी रेखाएँ उभर रहीं थीं-शन्यसी निरर्थक- 'फिलहाल तो बेकार हूँ !' दृष्टि ! 'क्यों ? काम करना नहीं चाहते, या!' शायद वह भीतर-दी-भीतर अपनी पोजेटिव- 'मिलता नहीं है--गुप्तजी! करीब चार सप्ताहसे निगेटिव-वृत्तियोंसे उलझ रहा था। मैं कामकी तलाशमें घूम-फिर रहा हूँ, लेकिन इस Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] एक मुसाफिर २८१ मिनट तक दे काम करते जाइए इम क्षण तक कामयाबीकी सूरत सामने नहीं है।' कमीज़ वाला एक छोटासा लड़का झाडू दे रहा था। गुप्त जी कुछ सोचनेसे लगे, मौन ! बुढ़ा, मेजें, पोंछ रहा था, तारीख बदल रहा था, फिर बोले-'मुझे अपने आफिसमें एक आदमी __ कागजात सँभाल कर लगा रहा था। की ज़रूरत है, क्या श्राप काम कर सकेंगे ? ___एक घंटे बाद शेखरको काम मिला साढ़े दससे शेग्वग्ने ग सिर खुजलाते हुए कहा-'जरूर! ठीक चार बजे तक, जब तक आफिस खुला रहा, वह पर, मुझे कुछ ऐमा याद पड़ता है कि आपके आफिस हट कर बेठा रहा । खूब सावधानीसे काम किया, खूच के दर्वाजे पर 'नो वेकैन्सी' का बोर्ड लगा हश्रा है। काम किया ।" गम जी जोरसे हम पड़े! शेम्बर देग्बना रह गया। शामको घर जाते वक्त गुप्तजी पाए ! बालहमी थाम कर बोले--'ओह! मालूम होता है, आप 'कहिए मिष्टर शेखर ! कोई तकलीफ तो नहीं है? पिछले चार मप्ताहमें किसी दिन यहां भी चक्कर काम समझ गया ? काट गए हैं। शेखरने कागजात सामने फैला दिये । बोलाशेखर भी हँसा । बोला-'यही बात है! 'जी, सब ठीक है, कृग है आपकी!' गुप्त जीने खुलासा करते हुए कहा-'अरे, भैय्या! गुप्तजीने कागज देखना शुरू किया। और दस अगर बोडे न लगा हो तो इतना काम कर लेते हैं, मिनट तक देखते रहे। उठे तो मुँह पर सन्तोष था। वह भी न कर सकें। मच मानों, कोई दिन ऐसा नहीं बोले-'खूब काम करते हैं-आप! राइटिंग भी होता, जिस दिन चार छ: बदनसीबोंको यहाँसे सुंदर है। अच्छा है, किए जाइए इसी तरह, भविष्य झिड़की खा कर न निकलना पड़ता हो। क्या करें, आपका साथ देगा। हर वेकारको काम तो दे सकते नहीं हैं न ?' शेम्बर जब सरायको लौट रहा था, तब अनेक शेखरने कुछ जवाब नहीं दिया। अनेक मधुर-कल्पनाएँ उसके मस्तिष्क में लहरा रही गुप्तजी फिर कहने लगे--"हाँ, आपको फिल्हाल थी। हर कदम पर वह एक किला खड़ा करता जा चालीस रुपए मासिक और फ्री रहने के लिए मकान रहा था। आज वह बहुत खुश था, बेहद खुश ! मिल सकता है । कहिए क्या इच्छा है?' सुख किसे कहते हैं? इसे शायद आज वह शेखरको लगा. जैसे कोई जबरन उसे स्वर्गके समझ रहा था, महसूस भी कर रहा था। दुनियाकी द,जेकी ओर घसीट रहा है। वह आनन्द-विभोर हर चीज़में आज उसे उल्लाससा, रंगीनी-सी दिखहो उठा । बोला-'मंजूर है।' लाई दे रही थी। आज ऊँची-ऊँची इमारतें उसे बुरी 'तो, देखिए कलसे आ जाइए। काम वुछ ऐसा नहीं लग रही थीं । गद्दी-तकियों पर पड़े लक्ष्मी-पुत्रोंके ज्यादा नहीं है-दससे चार तक, बस! फिर छट्टी।'- प्रति मनमें जलन भी नहीं थी। उसे आज बाजार गुप्तजीके मुँह पर मुस्कान बिखरी हुई थी, आत्म- अच्छा लग रहा था ! बाजारकी प्रत्येक दुकान उसे सन्तोषसा प्रकट हो रहा था। रौनकदार मालूम पड़ रही थी। और सच तो यह है, शेम्बरने दृ-स्वरमें कहा--'बहुत अच्छा । कि उसे अपना अस्तित्व भी आज अच्छा लग -और चल दिया-प्रसन्नतासे पूर्ण ! रहा था।" लग रही थी। आज ऊँची-ऊँचा रंगीनी सी दिक 'टन्न!' दो बज चुके थे-- शेखरने नजर फिरा कर देखा-'साढ़े नौ !' पर, शेखरकी आँखों में आज भी नींद नहीं थी। आफिस-वक अभी प्रारम्भ नहीं हुआ था । कोई वह सरायकी उस गन्दी-कोटरीकी बात सोच रहा भी क्लर्क नहीं आया था। सब सूनसान था। फटी था। असलमें आज उसे सरायसे अरुचि पैदा हो गई Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त [वर्षे ६ है। वह सोच रहा है-गय उस जैसी श्रेणीके हे। शायद स्त्री! कितनी कातर ध्वनि है उफ् !' व्यक्तिके ठहरने लायक जगह नहीं। कितनी गलीज? फिर सुन्ग-पति समझा रहा था-रात-भर रोओ, छिः! कोलाहल गाली-गलोज, अशान्त और अधम दिन-भर रोओ, जिन्दगी-भर रोती रहो-इसी लिए मुसाफिर ! सबके सब दरिद्र, दीन !' बच रहा बच रहे हैं, नहीं और अब दुनिया में हमारे लिए नहा मार. विस्तर पर लेटा, शेखर उद्विग्न हो उठा है। क्या है ? पर, इन नादान बच्चोंका क्या होगा ? खाना कोठरी, नरककी तरह मालूम हो रही है उसे । स्वयं कहाँस लाकर इन्हें खिलाऊँ ? मैं इसी सोचसे मग चकित है, कि इतने दिन काट कैसे सका इस सँडाद- जा रहा हूँ।' भरी भागनक कोठरीमें ! जहाँ-तहां चूहोंने बिल बना शेखरका मन व्यथित हो उठा। रखे हैं। टेडी-मेड़ी लकड़ियोंसे पटी हुई छत इतनी स्त्रीने रोते-रोते पूछा-'कहीं दूसरी जगह नौकरी शिथल हो रही है, जैसे अब गिरी । हर समय घुन तलाश नहीं कर सकते ? तुम्ही हिम्मत हार जाओगे बरसता रहता है। कोई कोना ऐसा नहीं, जहां जाल तो कैसे काम चलेगा?' न तने हुए हों। चारों ओर धूल-मिट्टी. कूड़ा करकट ! पतिने खीज कर कहा--चल गया काम ? ___ दो बज रहे हैं. पर चूहोंका गदर अभी तक उसी जानती नहीं, कितनी मुश्किलसे यह नौकरी मिली रफ्तार पर है, जिस परसे शुरू हुआ था ! और यह थी-कितनी रा. कितने दिन बगैर सोये, बगैर है वह शयनागार! जहाँ मोकर-विश्राम लेकर- खाये वितानेके बाद दोनों वक्त रूखा-सूखा खानेका सुबह परिश्रमके लिए ताजगी प्राप्त करना है। बल बन्दोबस्त हो सका था !! संचय करना है या उस बलकी पूर्ति करना है, जो 'पर, नौकरी एकाएक बूटी क्यों ? गबन किया अगले दिन परिश्रममें व्यय हो चुका है।' नहीं, कुसूर किया नहीं--कुछ भूल हुई नहीं, फिर ?..." शेखरने एक लम्बी अँगड़ाई ली और आप ही में खुद नहीं जानता, कि मुझे नौकरीसे जवाब बड़बड़ाने लगा, जैसे मनकी उद्विग्न मनोवृत्तियोंका क्यों मिला? पर, कुछ आफिसके लोग कहते थेममाधान कर रहा हो-'और दो एक दिनकी बात गुपजीका कोई दोस्त इस जगह पर काम करेगा है । फिर तो 'क्वाटर' में जाकर डेरा डालना इसी लिए........!! ही है।' और इसी वक्त छोटेसे बच्चेकी रोनेकी आवाज और वह सोनेका प्रयत्न करने लगा। ने बात-चीत बन्द करदी। शायद दस मिनट बीते होंगे, कि शेखर उठ शेम्बरकी चेतना लुप्त ! देर तक वह ज्यों-का त्यों बैठा। न जाने कैपी बेचेनीमी उसे परेशान किए हुए दीवार के सहारे बैठा रहा। थी। वह कोठरीकी, बराबरकी दीवारसे सट कर बैठ गया। अर्धरात्रीकी नीरवताने उसकी सहायता की, गुप्तजी कुर्मीपर बैठे अखबार देख रहे थे। युद्ध वह सुनने लगा। आवाज़ बराबरकी दूसरी कोठरीसे की खबरों में इतने खोये हुए थे कि शेखरका पाना आ रही थी। तक उन्हें मालूम न हुमा । पूरा 'कॉलम' पढ़ने के बाद ___ 'ओह! भगवान, अब इन बच्चोंका क्या होगा? जब नजर उठाई तो शेखर ! कैसे गुजर चलेगी? नींद नहीं, भूख-प्यास सब कुछ शेखरने अभिवादन किया । अलगहोरही है। अचानक यह आफत फट पड़ेगी- गुप्तजी बोले-'अरे, तुम्हारे लिए क्वार्टर खाली खयाल तक नहीं था !' हो गया है-श्रा जाडो उसमें ।' शेखरने सुना-कोई सुबक-सुबक कर रो रहा शेखर चुप रहा। मुँह उसका बेहद रामसीन था। - दूसरी सुबहः- Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] एक मुमाफिर २८३ x आँखोंमें सुखर्जी थी । पूरी रातका जागरण झलक मुझे आपसे दूर कर दिया! अच्छा, चलता हूँरहा था। नमस्ते गुप्त जीने अनबार मोड़ते हुए पूछा-'क्यों, और गुप्तजी कुछ बोल न सके । समझ ही नहीं पा रहे कुछ कहना चाहते हो?' थे कि माजरा क्या है ? 'जी ' और शंखर आँखोंसे ओझल ! गुप्तजीने उसकी ओर ताका, जिसका अर्थ था-- अचानक गुप्त जीके मुँहसे निकला-स्तीफा xx 'क्या ?? 'समझ रहे हो, मैं किसकी बात कह रहा हूँशेखरने दृद-स्वरमें पूछा- 'क्या आप मुझपर वही जो मेरी कोटरीके बराबर वाली कं.ठरीमें नयाविश्वास करते हैं? मुसाफिर पाया है न ? उसके साथ शायद उसकी गुप्तजीन संक्षेपमें कहा-- बहुत। औरत भी है बच्चा है, है न ? शेखरने जेबसे एक काराज निकालकर, गुप्तजीके सरायवालेन बात पकड़कर जल्दीसे कहा-'हाँ, हाथमें देते हुए कहा- 'तो इसपर दस्तखत कर हाँ समझ गया! अच्छा तो उन बाबूजीको यह खत दीजिए। सिफे यह देख लीजिये कि दस्तावेज नहीं, देना.."एँ?" एक चिठ्ठी है। लेकिन पढ़िए नहीं! मुझपर विश्वास शेखग्ने चिटी देते हए कहा-'हाँ, बस! इतना कीजिए गुप्तजी!! ही काम तो है।' गुप्तजी सैकिण्ड-भर रुके । शायद सोच लिया'आदमी दगाबाज नहीं मालूम पड़ता ।' और फिर शेखरने अपनी कोटरीमें सुनापति कह रहा बरौर श्रागा-पीछा किए जेवस 'पेन' निकाल कर था-'अरे, गुप्तजी मुझे फिर वापस बुला रहे हैं ! दस्तखत बना दिए ! वेतनमें भी बीस रुपयेकी तरक्की--श्रो हो ?' शेखरके मुँहपर प्रसन्नता खल उठी । पर, गुप्तजी स्त्री कह रही थी-'भगवान ! डूबती नैय्याको थे मंत्रमुग्ध ! कागज जेबमें रखता हुश्रा, शेखर किनारेसे लगा दिया-धन्य हो प्रभु!' बोला--'धन्यवाद ! शेखरका मन प्रसन्नतासे भर उठा। वह मुग्ध हो फिर दूसरा कागज निकालकर देते हुए शेखरने गुरगुनाने लगाहाथ मिलाया और मुस्कराकर कहा-'गुप्तजी! आप भगवान !बड़े अच्छे आदमी हैं। मुझे दुःख है कि किस्मतने 'भगवान किनारेसे लगादो मेरी नैय्या !! जैन विद्यापीठका आयोजन दानवीर साहु शान्तिप्रसादजी, डालमियानगर द्वारा काशीमें जैन विद्यापीठ (Jain acadimy) का आयोजन किया जा रहा है। इसमें संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश तथा विभिन्न प्रान्तीय देशी भाषाओमें निबद्ध जैन साहित्यका मूल और यथासंभव हिन्दी अनुवादसहित प्रकाशन, विभिन्न भाषाओं में नव माहित्य निर्माण, सम्पादन शिक्षण, व्याख्यानमालायें, निबन्धप्रतियोगिता, भतरसूची आदि कार्यक्रम चालू होंगे। आवश्यकतानुसार जैनबोर्डिङ्ग स्थापन आदिका भी विचार है । उपयुक्त कार्यक्रमकी पूर्ति के लिये विशाल जैन लायब्रेरीका संघटन तथा रिसर्च विभागका भी आयोजन किया जा रहा है। सौ० रमारानीजी अध्यक्षा हैं। पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, मूकिदेवी ग्रंथमालाके प्रधान सम्पादक दतथा कार्यालय मन्त्री नियुक्त किये गये हैं। उनने काशी जाकर आफिसका कार्य सम्भाल लिया है। -अयोध्याप्रसाद गोयलीय य ए Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीरके विषयमें बौद्ध-मनोवृत्ति (ले०-६० कैलाशचन्द्र शास्त्री) जनवरीकी 'विश्ववाणी' में बुद्धकै दुःखवादका भौतिक किन्तु क्यों ? क्या महावीर दुनियासे भागनेवाले हैं. प्राधार' इस शीर्षकके साथ भदन्त शान्ति भितुका एक इसीलिये उनकी विचारधाराके अनुसार दुनियाकी समस्याएँ लेख प्रकाशित हुया है, जिसमें प्रापने कुछ वादरायण नहीं सुलझाई जा सकतीं ? यह सत्य है कि महावीर सम्बन्ध जोडकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दुनियाके जंजालमें नहीं फैमे । यह भी सत्य है कि परिणाय 'जीवनके लिये रोटीका सवाब पहला है और मनुष्यसमाज की वार्ताको उन्होंने हँसकर टाल दिया । किन्तु राजकुमार का दु:ख स्वार्थमूखक संघर्षके कारण है। इन दो बातोंके सिद्धार्थने तो विशह किया, भोग भोगे, फिर क्यों उन्हें साथ बुद्धका दुःखवाद बँधा हुधा है, इन्हें अलगकर बुद्धका उनसे विरक्ति हुई? क्यों उन्होंने यशोधरा जैसी पत्नी दुःखवाद समझा नहीं जा सकता।' पाएके इम विचारका और राहुल जैसे बालकका परित्याग करके उसी मार्गका सयुक्तिक मालोचन फर्वरीकी विश्ववाणीमें किया जा चुका अवलम्बन लिया को महावीने पहलेसे ही अपनाया था? है। भिक्षुजी बौद्धधर्म माने हुए विद्वान कहे जाते हैं अतः क्या दुनियाकी समस्याएं सुलझाने वालेको रोग और बुढ़ापे उन्होंने बौद्ध धर्मके तत्वोंका भालोडन करके यदि बुद्धके से इतना डरना चाहिये था ? कमनीय कोमलानियोंके मुख धर्मको केवल रोटीका सवाल हल करने वाला पाया हो तो से निसृत लाला जलसे इतना अस्त होना चाहिये था? हमें इसमें आपत्तिकी जरूरत नहीं । किन्तु आपने अपने प्राजका समाजवादी तीन पातीपर से बिना नहीं रह लेखमें बौद्धतर धर्मों और उनके प्रवर्तकोंके ऊपर जो कृपा सकता। की है वही यहां बापत्तिका विषय है। असल में प्राचीन भारतके सामने रोटीकी समस्या ही भिक्षुजी अपने लेखकी भूमिकामें इतर धर्मोंकी विचार नहीं थी। जो समस्या प्राजकी दुनियाको--उसमें भी धाराको तुच्छ बतलाते हुए लिखते हैं मुख्यतया भारतको बेचैन किए हुए हैं, प्राचीन भारतको "प्राचीन युगके श्रमण दार्शनिक जिनकी परम्परा बच उनका स्वम में भी भान न था। अकृष्टपच्या शस्यश्यामला रही है वे हैं जैन। इनके अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी भारतभूमिके वक्षस्थलपर क्रीड़ा करने वाले उसके पुत्रइतने अधिक दुनियासे भागने वाले हैं कि उनकी विचार- पुत्रियोंके लिये धन-धान्यकी कमी नहीं थी, इसीसे वे धाराके अनुसार दुनियाकी समस्याएं सुलझाई नहीं जा सर्वदा उस ओरसे उदासीन रहते थे। किन्तु सुखकी नदी सकतीं। हाँ,कठोर तपद्वारा कायपीवन ही किया जा सकता में किलोलें करते हुए जब कभी किसीको रोग, बुढ़ापा है। इन श्रमणों और मााणोंने त्याग और अपरिग्रहकी जो और मृत्युरूती मगरमख भाकर प्रस लेता था तो वे बनी बनी बातें की है उनको प्रादर्शवाद कहकर चाहे ___ लाचार होजाते थे। उनके पास सब कुछ था किन्तु इन जिसना सराहा जाए पर दुनियाके लिये उनका मूल्य बहुत मगरमच्छोंकी समस्या मुंह बाये उनके मामने खड़ी रहती ही कम है। भाज वेदोंका कर्मकाण्ड, उपनिषदोंके विचार थी। पता नहीं, कब किसको कोई मगरमच्छ ठाकर ले सांस्योंका ज्ञानमार्ग और तीर्थकरोंकी दुःखमयी चर्याका जाय । यही उस समयकी प्रधान समस्या थी और उसी सुझाव हमारे कौतुकको भले ही कुछ शान्त कर सके पर ___ को सुलझानेका प्रयत्न उस समयके महापुरुषोंने किया था। उससे हमको इस प्रकारकी दृष्टि नहीं मिल सकती जोपाज सबका एक ही लक्ष्य था--प्रशाश्वत सुखकी पोरसे हमारी उलझनोंको सुलमाने में मदद दे।" मनुष्यकी चित्तवृत्तिको हटाकर शाश्वत सुखकी और लगाना Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] भ० महावीरके विषयमें बौद्धमनोवृत्ति २८५ या दु:खोंसे मुक्ति । बुद्ध के क्षणिकवाद और शून्यवादका भी समाजमें इस भावनाका उदय हुए विना समाजवाद स्थायी प्रारम्भमें यही प्रयोजन था। इसी प्रयोजनकी सिद्धि के लिये रह ही नहीं सकता। अत: दुनियाको 'जियो और जीने दो' बुद्धने घर-बार छोड़ा और कठोर साधनाके द्वारा बुद्धत्व-पद- का शुभमन्देश देनेवाले व्यक्तिवादी महावीरकी विचारधाराको को प्राप्त किया। महावीर स्वामीका भी यही लक्ष्य था, न यदि दुनिया अपना सके तो उसे अपनी समस्याएँ सुलझाने कि कायपीदन । उनका कहना था के लिये नर-रक्तसे होली न खेलनी पड़े। न दुःखं न सुखं यद्रत हेतुईष्टो चिकिति ते। शान्ति भिक्षु लिखते हैं--'बुद्धने स्वार्थमूलक संघर्षको चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुरुम।। दुःखका कारण कहा है। आगे लिखते हैं-'पर यह स्वार्थ न दुःखं न सुखं तद्वत हेतुर्मोक्षस्य साधने । कैसे दूर हो इसके लिये बुद्ध व्यक्तिगत भाचरणापर मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा मुखम् ॥ ही जोर देते हैं।' किन्तु वे व्यक्तिगत आचरण कौनसे हैं अर्थात्--जैसे रोगके इलाज में न दुःख ही कारण है यह उन्होंने नहीं बताया। वे लिखते हैं--बुद्ध भिक्षऔर न सुख ही कारण है किन्तु इलाज शुरू करनेपर संघमें व्यक्तिगत सम्पत्ति रखनेसे मना किया है किन्तु दुःख हो या सुख, उसे सहा ही जाता है। वैसे ही मोक्षकी अधिकसे अधिक कितना रख सकता है इसके लिये विनय साधनामें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है। में नियम हैं। और इसका कारण वे बुद्धकी विचारधाराका किन्तु एक बार जब मोक्षके मार्ग में कदम रख दिया जाय समाजवादी होना बतलाते हैं। किन्तु महावीरने तो अपने तो फिर दुःख हो या सख, उपकी पर्वाह नहीं की जाती। श्रमणोंके लिये किसी भी प्रकारकी सम्पत्तिको अग्राम यही महावीरकी साधनाका मार्ग है। करार दिया है। उनके श्रमण केवल एक मयूरपिच्छी और महावीर दुनियासाङ्गीसे दूर थे किन्तु दुनिया उनकी एक कमंडलु ये दो ही उपकरण अपने पास रख सकते हैं। अन्तष्टिसे बची हुई नहीं थी । वे व्यक्तिवादी जरूर थे भोजन गृहस्थके घर कर पाते है और जहां कहीं भी स्थान किन्तु उनके व्यक्तित्व में दुनियाका प्रत्येक जंगम और स्थावर मिलता है अपना भासन लगा लेते हैं । न उन्हें चीवर प्राणी समाविष्ट था। तभी तो वे दुनियाको 'अहिंसा परमो की चिन्ता है, न पीठफलक की. न सूची की और न सोयरे धर्म:' का उच्च सन्देश दे सके और उन्होंने उसके सम्बन्ध की। महावीरने अपने प्रहस्थों तकके लिये यह नियम रखा में किसी भी प्रकारका समझौता करना उचित नहीं है कि वे अनावश्यक परिग्रहका संचय न करें और अपने समझा, जैसा कि बने किया। यद्यपि उनके धर्मविस्तार कुटुम्बकी आवश्यकतानुसार यावज्जीवन के लिये परिग्रहका का क्षेत्र परिमित होगया, किन्तु उन्होंने इसकी पर्वाह नहीं परिमाण करलें, ताकि वह अनावश्यक रूपसे एक जगह की। 'जियो और जीने दो' यही उनका मूल मंत्र था संचित न हो जाय । क्या हम भितुजीसे यह पूछनेकी यदि प्रत्येक व्यक्ति के प्रति, प्रत्येक समाज अन्य समाजीक पृष्टता कर सकते हैं कि इन दोनों विचारधाराओं में कौन प्रति, प्रत्येक वर्ग दूसरे वर्गोंके प्रति और प्रत्येक राष्ट्र दूसरे समाजवादक अधिक निकट है? राष्ट्रोंके प्रति इस मूल मंत्रका भ्यान रखकर व्यवहार कर प्रायः प्रत्येक सम्प्रदाय के मानने वालों में एक बड़ा सके तो भाजकी दुनियाकी अनेक भारी समस्याएँ स्वयमेव दोष यह होता है कि वे दूसरे सम्प्रदायोंके सिद्धान्तोंको सलम जाय। पर होरहा था कि प्रत्येकके अन्दर जीनेकी बिना देखे, बिना जाने ही उनकी मालोचना कर डालते हैं। तो बलवती भावना है किन्तु जीने देनेकी भावना कतई अन्य सम्प्रदायोंके बारेमें उन्हें जो कुछ ज्ञान रहता है वह नहीं है। फलतः व्यक्ति-संघर्ष, समाज-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष या तो साम्प्रदायिक जनश्रतिके माधार पर रहता है या और राष्ट्र-संघर्ष चालू हैं। और ये संघर्ष तब तक शान्त अपने सम्प्रदायके ग्रंथों में दूसरे सम्प्रदायोंका जो चित्रण नहीं हो सकते जब तक इस भावनाका उदय नहीं होता। किया गया है उसके प्राधारपर रहता है। और साम्प्रदाप्राजके समाजवादके मूल में भी यही भावना काम करती है, यिक ग्रंथों में दूसरे सम्प्रदायोंका जो चित्रण रहता है वह Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अनेकान्त [ वर्ष ६ प्रायः द्वेष और पचपात-मूखक रहता है। इसका प्रत्यक्ष करने वालोंने अन्य धर्मोंके सम्बन्ध में जो गलत मार्ग उदाहरण पौग्रंथोंके सीह-सुत्त', 'चूल सुकुनदायि-सुत', अपनाया बौद्ध भिक्षु आज भी उसी मार्गका अनुसरण कर उपाक्षि-सुत्त आदि अनेक सुत्त है, जिनका एकमात्र उद्देश्य रहे हैं और दूसरे धर्मोके प्रवर्तक और उनके सिद्धान्तोंका बुद्धका बड़प्पन और महावीरका धोखापन प्रकट करना है। गलत रूपसे न केवल चित्रया ही कर रहे हैं किन्तु उनका इस प्रकारको मनोवृत्तिको खिये हुए साहित्यके अध्ययनसे परिहास भी कर हे है. जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण राहुल अन्य सम्प्रदायोंके सम्बन्धमें जो गलतफहमी होजाती है, जीका सिंह सेनापति' है, जिसमें महावीरके 'अहिंसा' वही सब अनयोंकी मूल होती है। प्रतः भित शान्तिसे सिद्धान्त और 'नग्नता' का वीभत्स चित्रण करके उनकी हमारा अनुरोध है कि वे समाजवादी होकर समाजका हनन मधील उदाई गई है। यह एक बड़ी ही क्षित मनोवृत्ति न करें और जैनशाबोंका अध्ययन करके तब उनके संबंध है। क्या इस तरहसे स्वधर्मका हितसाधन किया जा में अपनी धारणाको बनावें। सकता है ? सूरजपर थूकनेमे थूकनेवालेकी ही दुर्गति होती हमें इस बातका बड़ा खेद है कि पिटकोंको निबद्ध है. सूरजका कुछ नहीं बिगड़ता। गोत्र-विचार (लेखक-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) गोत्र विषयमें अभी तक बहुतमे विद्वानोंने लिखा जब तक एक भवमें गोत्रपरिवर्तन न स्वीकार किया जाय है। इससे गोत्र और उसके उच्च, नीच भेदोंपर पर्याप्त तब तक सभी पागम वाक्योंको एक पंक्ति में ला बिठाना प्रकाश भी पड़ा है। पर सबके सामने एक प्रश्न खडा ही कठिन है। प्रसन्नताकी बात है कि मैंने अब ऐसे भागमरहा कि एक पर्यायमें गोत्रका परिवर्तन होता है या नहीं? प्रमाय संग्रह कर लिये हैं जिसमें एक भवमें भी गोत्रकुछ विद्वानोंने गोत्रपरिवर्तन माना और कुछने नहीं। जिम परिवर्तनकी बात स्वीकार की गई है। अतः अब मेरी विद्वानों ने माना के गोत्रविषयक समस्याके सुलझाने में बहुत इच्छा है कि मैं इस विषयको पाठकोंके सामने प्रस्तुत कर कुछ सफल भी हुए हैं। उन्हें प्रागमवाक्योंकी बहुत तोर- दूं। पर मेरे खयालसे इसपर सर्वात विचार करना ठीक मरोब नहीं करनी पडी। पर जिन विद्वानोंने एक भवमें होगा। इससे लेखका डांचा कुछ बढ़ तो जाएगा पर उससे गोत्रपरिवर्तन नहीं माना वे गोत्र-विषयक समस्याके अनुकूल व प्रतिकूल चर्चा होकर सारा विषष साफ हो सुलझाने में उतने सफा न हुए । परिणाम यह हुमा कि जायगा, ऐसी मुझे भाशा है। तदनुसार ही प्रयत्न किया बहुत कुछ लिखनेके बाद भी समस्या जहांकी तहां बनी जाताहै:रही। जिस समय इस विषयपर विविध विचार प्रकट किये (१) गोत्र और उसके भेद जारहे थे। मुझसे भी मेरे बहुतसे परिचित मित्रोंने लिखने- सर्वार्थ सिद्धि में लिखा कि उचगोत्र कर्मक उदय का प्राग्रह किया था। उनका कहना था कि 'कर्मविषयक जीव लोकपूज्य कुसमें और नीचगोत्र कर्मक उदयसे ग्रंथोंके स्वाध्याय आदिमें आपकी रुचि भी है और थोना गर्हित कुलमें जन्म लेता है। यह उच्चगोत्र और नीचबहुत प्रवेश भी, अतः भापको अवश्य लिखना चाहिये।' गोत्र कर्मका कार्य हुना। इससे यह भी मालूम होता है पर मैं लिखनेसे बचता रहा, क्योंकि मैं जानता था कि कि लोकमान्य कुखको उस्चगोत्र और गहित कुलको नीच. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] गोत्र-विचार गोत्र कहते हैं। तथा सामान्य कुलका नाम गोत्र है, यह था तब बहुतसे राजपूतोंने मुसलमानोंसे सम्बन्ध स्थापित निष्कर्ष भी इससे निकल पाता है। तस्वार्थ राजवार्तिकका कर लिया था और मुसलमान हो गये थे । यही बात यही अभिप्राय है। इतनी विशेषता है कि उसमें उच्च कुल वृटिश साम्राज्य में भी देखी जाती है। वर्तमानमें .. लाख और नीच कुलके कुछ प्रकार बता दिये हैं। तस्वार्थाधिगम ईसाई अधिकतर हिन्दू ही है। अतएव यहां सम्तान शब्दभाष्यमें उचगोत्रकर्मको देश, जाति, कुल, स्थान, माम, का अर्थ विवक्षित सखोंके माश्रयसे की गई व्यवस्थाको सरकार और ऐश्वर्य प्रादि सभीके उत्कर्षका निर्वतंक और मानने वाले और न मानने वाले मनुष्योंकी परम्परा ही लेना नीच गोत्रको चाण्डाल, मुष्टिक, व्याध, हत्यबन्ध और चाहिये। किसी संस्थामें नये आदमी प्रवेश पाते हैं और दास्य भादिका निर्वतंक बताया है । तस्वार्थाधिगम भाष्यमें पुराने निकल भागते हैं तो भी जिन प्राधारों पर संस्था उच गोत्रके जितने कार्य लिखे है वे सब उच्चमोत्रके हैं स्थापित की जाती है सस्था उन्हीं भाधारोंपर चलती रहती इसमें विवाद हो सकता है। है। कुछ नये भाव मियों के प्रवेश पाने और पुराने प्रादवीरसन स्वामीने भी जीवस्थान चूलिका-अधिकार- मियोंके निकल भागनेसे संस्थाका मरण नहीं है। संस्थाका की धवला टीकामें गोत्र, कुल, वंश और सन्तानको एका- मरण तो तब माना जा सकता है जब उसके मानने वाले र्थक माना है। यथा उसके मूल प्राधारोकोहीबदल दें। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि संस्था व्यक्तियोंसे भिन्न है । वास्तवमें 'गोत्रं कुलं वंशः सन्तानमित्येकोऽर्थः। संस्थाको स्थापित करनेवाले महापुरुषके मूल सिद्धान्तोको इस जपर्युक्त कथनसे सना निश्चित हो जाता है कि जिन व्यक्तियोंने अपने जीवन में उतार लिया और भागे ऐसे सन्तान या परम्पराका नाम गोत्र है। अब यदि यह परम्परा उथ अर्थात लोकमान्य होती है तो वह उच्च गोत्र शब्दके व्यक्तियों की परम्परा चलानेको फिकर रखी वे व्यक्ति ही द्वारा कही जाती है और गर्हित होती है तो वह नीच गोत्र संस्था है। इसीलिये तो स्वामी समन्तभवने यह कहा है शब्दके द्वाग कही जाती है। इन दोनों परम्पराओंका कि धर्म धार्मिकोंके बिना नहीं होता । इस प्रकार हमने खुलासा निम्न उल्लेखसे हो जाता है। यह उल्लेख प्रकृति ऊपर सन्तान शब्दका जो अर्थ किया है वह कुछ हमारी अनुयोगद्वारका है : निरी कल्पना नहीं है किन्तु उपर उच्च गोत्रका जो साक्षण दिया है उसीसे यह अर्थ फलित होता है। मनुष्यों के चार्य और अनार्य इन दो भेदोंके करनेका कारण भी यही मम्वन्धानां आयेप्रत्ययाभिधानविहानबन्धनाना स प्रकार इतने सक्तम्यसे यह निश्चित हुना कि सन्तानः उच्चैर्गोत्रम् । xxतद्विपरीतं नीगोत्रम् ।” जिन्होंने जैनपरम्परा अनुसार की गई सामाजिक व्यवस्था जो दीशायोग्य साधु भाचार वाले हों. जिन्होंने साधु को मान लिया वे आर्य कहलाये और शेष अनार्य । ब्रहाण प्राचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिया हो तथा और बौद्ध परम्परा भी इसी व्यवस्थाको मानती हैं। अन्तर जिनमें यह 'पाय' है इस प्रकारके ज्ञानकी प्रवृत्ति होती हो केवल जन्मना और कर्मणाका है और भारतके ये ही तीन और यह 'चार्यस प्रकारका शाब्दिक म्यवहार होने धर्म मख्य हैं। अतः इन तीन धर्मोकी छत्रछायामै मार्य हुए लगा हो उन पुरुषोंकी परम्पराको 'उगोत्र' कहते हैं सब मानव उनके द्वारा सुनिश्चित की गई सामाजिक व्यव. और इससे विपरीत 'नीचगोत्र' है। स्थाको माननेके कारण आर्य कहलाये। किन्तु इन मार्योंकी यद्यपि सन्तान शब्द पुत्र, और प्रपौत्र भादिक अर्थ में परम्परामें नाच गानसे भाजीविका करने वाले, शिल्प कर्म भी भाता है। पर यहां सन्तानसे इसका ग्रहण नहीं करना वाले और सेवावृतबाले पुरुषों को कभी भी सामाजिक ऊँचा चाहिये, क्योंकि एक तो यह व्याप्य है और दूसरे ऐसी स्थान नहीं मिला। अत: थे और अनार्य नीच गोत्री माने परम्परा अपने पूर्वजोंकी परम्परासे भाई हुई व्यवस्थाका गये तथा शेष तीन वर्णके मार्य और साधु उचगोत्री। यही त्याग भी कर सकती है। जब भारतमें मुसलमानोंका राज्य उपर्युक सक्षणका सार है। किन्तु जैन और बौद्ध परम्रा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त [ वर्ष ६ में कर्मणा वर्णव्यवस्था स्वीकार की गई है अत: इपके तचक्रवर्ती धवलाके उक्त लक्षासे कुछ अपरिचित थे यह अनुसार अनार्य भी भार्य और मार्य भी अनार्य हो सकते बात नहीं है। फिर भी उन्होंने गोत्रके सामान्य लक्षणमें है। यही इन परम्पराभोंकी विशेषता है। जैसा कि भगव- परिवर्तन किया है। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने धवलामें जिनसेनके निम्न वाक्यसे भी प्रकट -- पाये हुए उच्चगोत्रके लक्षणको देखकर किया है फिर भी स्वदशऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः। इससे स्थितिमें बड़ा अन्तर पर गया है । धवलाके अनुकुलशुद्धिप्रदानाद्यः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः ॥ सार जब कि प्राचार वालोंकी परम्परा गोत्र शब्दका अर्थात्-अपने देशमें जो प्रजाको बाधा देनेवाले वाच्यार्थ होता है तो कर्मकाण्डके अनुसार कुलक्रमसे माया अनारम्लेच्छ हों उनकी कुलशुद्धि करके उन्हें अपने प्राधीन हुथा प्राचार गोत्र शब्दका वाच्यार्थ होता है । इस प्रकार करे। एक जगह परम्परा मुख्य रही जो कि गोत्रकी प्रात्मा है दीवायोग्य साधु प्राचारके सम्बन्धमें सांगारधर्मामृतमें और दूसरी जगह प्राचार मुख्य हो गया जो कि चारित्रलिखा है मोहनीयके उदयादिका कार्य है। इस परिवर्तनसे जो दूसरा यऽप्यूत्पद्यकुहक्कुल विधिवशाहीक्षोचिते स्वं गुणः। दोष पैदा हया वह यह है कि इससे कर्मणा वर्ण के स्थान विद्याशिल्पांवमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्यन्वीरते तेऽपि तान।। में जन्मना चौकी पुष्टि हुई। अनेक जानियों और उप "टाका-xx किं विशिष्टिते, दीक्षाचिते । दीक्षा जानियों और तद्गत अवान्तर श्राचारोंसे चिपके रहना भी व्रताविष्करणं व्रतान्मुखस्य वृत्तिरिति यावत् । स इसका फल है। श्रागममें उचगोत्रके उदय और उदारणा चात्रोंपासकदीक्षाजिनमुद्रा वा उपनात्यादिसंस्कारो वा। को जो गुणप्रत्यय कहा है उसका यहां कोई स्थान न रहा। पुनः किं विशिष्ट विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि । विद्यात्रा- यहां गुणसे सकल संयम और संयमासंयमका ग्रहण किया जीवनार्थ गीतादिशास्त्र शिल्पं कारुकर्म नाभ्यां है। इसका यह तात्पर्य है कि कोई नीचगोत्री यदि सकल विमुक्ता तताऽन्या वृत्तिर्वार्ता कृष्यादिलक्षणां जीवनी- संयमको धारण करता है तो वह नियममे उरचगोत्री हो पायो यत्र तस्मिन। जाता है तथा यदि कोई नीचगोत्री मनुष्य संयमासंयमको इसका भाव यह है कि जिम कुलमें विद्यावृत्ति-नाच- धारण करता है तो उसके भी उरचगोत्रका उदय होना गानसे माजीविका और शिल्पकम नहीं होता वह कुल सम्भव है। अब जब कि हम कुलधर्मको ही गोत्र मान दीक्षोचित माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीरसेन लेते हैं और उच्चकुलधर्मके अनुसार उपगोत्रकी तथा स्वामीने भाचारके पहले दीक्षायोग्य साधु' यह विशेषण नीचकुलधर्मके अनुसार नीचगोत्रकी व्यवस्था करते हैं तो लगाकर इस प्रकारकं प्राचारका निषेध किया है। संयमासंयम या संयमको ग्रहण करते समय नीच गोत्रसे संताणकमेणामयजीवायरणस्म गोर्दादि सरणा। उचगोत्र कैसे होगा क्योंकि कुलधर्मके अनुसार तो जन्मना उच्च णीचं चरणं उछ णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥ ही उच्च और नीचगोत्र होगा और वह पर्याय भर कायम अर्थात्-सन्तान कमसे पाये हुए जीवके आचरमको रहेगा। पर बागमग्रन्थ ऐसा नहीं कहते । इसका सबत गोत्र कहते हैं। इसमें उसमाचरणको उच्च गोत्र और यही है कि भागममें उरच गोत्रको गुणप्रत्यय भी माना है नीच पाचरणको नीचगोत्र कहते हैं। और गुणासे संयम या संयमासंयम लिये गये हैं। पर अब जब हम कर्मकाण्डके इस गोत्रविषयक बक्षणका मनुश्योंके इनकी प्राप्ति माठ वर्षसे पहले होती नहीं, अत: धवनाके बचणसे मिलान करते है तो यह स्पष्ट हो जाता। सिद्ध हुमा कि एक भवमें गोत्रका परिवर्तन होता है। इस है कि कर्मकाण्डमें गोत्रका सामान्य लक्षण करते समय से मालूम होता है कि कर्मकाण्डका उक्त लक्षण धवलाकी उसमें बदल किया गया है क्योंकि धवलामें केवल सन्तान परम्पराके विरुद्ध है। बात यह है कि प्राचार उच्च, नीच को ही गोत्र कहा है जबकि कर्मकाण्डमें सन्तानक्रममे भाये गोत्रमें निमित्त हो सकता है पर वह उनका भेदक नहीं है हुए प्राचार या कुलधर्मको गोत्र कहा है। नेमिचन्द्र सिद्धा- पर कर्मकाण्डकारने भाचारको ही उच्च नीचका भेदक मान Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] गोत्र-विचार २८९ कर गोत्रका सामान्य लक्षण कह दिया। उल्लेखों यह प्रतीत होता है कि अन्तर्वीपज और कर्मयहां इतना खुलासा करना और आवश्यक है किवीर- भूमिज म्लेच्छोंको छोर कर शेष सब मनुष्य भार्य है। इन सेन स्वामीने प्रकृति अनुयोगद्वारमें जो उरच और नीच टीका ग्रन्यास तथा मूल तत्वार्थसूत्रसे यह ध्वनित नहीं गोत्रका स्वरूप निर्देश किया है वह उपलक्षाकी मुख्यता होता कि भरत क्षेत्रके जोछह भेद हैं उनमें पांच म्लेच्छ से किया है। खण्ड और मध्यका एक मार्यखण्ड है। इस प्रकार तत्वार्य(२) मनुष्योंकेमैदोर उसका माघार सत्र और उनकी टीकाचौक-माधारसे जो व्यवस्था फक्षित स्वार्थसबमें मनुष्योंकि मार्य भीर म्लेच्छ ये दो भेद होती वह निम्न प्रकार हैबताये हैं। पर कौन मार्य हैं और कौन म्लेच्छ यह इससे देवकुरु, उत्तरकुरु, हैमवत हरिवर्ष, रम्यक, हरण्यवत प्रकट नहीं होता । इसकी टीका सर्वार्थसिद्धिमें इसका और अन्तींप ये भोगभूमियां हैं। इनमेसे अन्तद्वीपोंक खुलासा किया है। वहां लिखा है कि जो गुणों और गुण- मनुष्य म्लेच्छ हैं और शेष भोगभूमियों के मनुष्य मार्य हैं वानोंके द्वारा माने जाते हैं वे भार्य हैं। इनके ऋद्धि प्राप्त भरत, ऐरावत और देवकुरु तथा उत्तरकुरुसे रहित विदेह और अनृद्धि प्राप्त ऐम दो भेद हैं। तथा म्लेच्छ मनुष्य दो ये कर्मभूमियां हैं। इनमें जो शक, यवन माविक मनुष्य प्रकारके है-मन्तदीपज और कर्मभूमिज । लवणादि रहते हैं वे म्लेच्छ है। तथा शेष कर्मभूमिज मनुष्य मार्य हैं। समुद्र में १६ अन्तींप हैं। जिनमें एक पल्यकी भायु वाले ऊपर जो लिखा है वह तत्वार्थसूत्र और उसकी मनुष्य रहते है। ये अलीपज म्लेच्छ हैं। तथा पांच टीकात्रोंके आधारसे लिखा है। अब मागे त्रिलोकप्रज्ञप्ति भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरु तथा उत्तरकुरुको छोद यादि ग्रन्थोंके आधारसे लिखते हैंकर पांच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं। इनमें रहने वाले त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें भरत, ऐगवत और विवेहक्षेत्रके वह मनुष्यों में मात नरक में लेजाने वाले पापके और सर्वार्थ खगडॉमसे पकार्यखण्ड और पांच ग्लेस खराब बतलाये मिद्धिम लेजाने वाले पुण्यके उपार्जन करनेकी योग्यता है। हैं। म्लेच्छ खगोंमें म्लेच्छ मनुष्य रहते हैं उनमें एक नथा पात्रदानादिके साथ कृषि यादि छह प्रकारकी व्यवस्था । मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है तथा छयानवे अन्तपिमें का प्रारम्भ यहीं पर होता है अत: ये कर्मभूमियां कहलाती कुभोग भूमियां मनुष्य रहते हैं। यथाहैं। इन पन्द्रह कर्मभूमियों में जो शक, यवन, शबर और उत्तरदक्खिरणभरहे खंडाणि तिणि होंति पक्कं । पुलिंद भादिक मनुष्य रहते हैं वे भी म्लेच्छ हैं। दक्खिातियखंडेसुंअब्जाखंगे त्ति मज्झिम्मो ॥४-२६७ सर्वार्थ सिद्धिके इस अभिप्रायसे तत्वार्थ राजवार्तिकके संसा वि पंच खंडाणामेणं होंति मेन्द्र खंडं ति। अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं है। रलोकवार्तिकके कथनमें उत्तरतियखंडेसुं माझमखंडस्स बहुमज्झे ।। ४-२६८ थोडा अन्तर है। वह केवल अन्तर्वीपोंके विभागस सम्बन्ध सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं । ४-२६३७ रखता है। वहाँ लिखा है कि जो अन्तर्वीप भोगभूमियोंके वेधणुमहस्सतुंगा मंदकसाया पियंगुसामलया। समीप हैं उनमें रहने वाले मनुष्योंकी भायु प्रादि भोग- सब्वे ते पल्लाऊ कुभोगभूमीए चेट्ठति ।। २५१३१४॥ भूमिज मनुष्योंके समान है तथा जो अन्तद्वीप कर्मभूमिके इससे इतना जाना जाता है कि पांच म्लेच्छसमीप हैं उनमें रहने वाले मनुष्यों की मायु मादि कर्मभूमि खण्डोंके मनुष्य म्लेच्छ ही होते हैं। अतः इसके अनुसार मनुष्यों के समान है। यथा यह व्यवस्था फलित होती हैभोगभूम्यायुरुत्सेधवृत्तयोभौगभूमिभिः। म्लेच्छ मनुष्य तीन प्रकार होते हैं--म्लेच्छ खण्डमें समप्रणिधयः कर्मभूमिवत्कर्मभूमिभिः ॥ ७॥ उत्पन्न हुए, अन्तर्वीपज और प्रार्यखण्डमें रहने वाले शक, श्लो०वा०३-३७ यवनादिका तथा इनसे अतिरिक्त शेष सब मनुष्य मार्य है। पर श्लोकवार्तिकके इस कथनकी पुष्टि त्रिलोकप्रशप्तिकी भागेके सभी ग्रंथोम मुख्यरूपसे इसा व्यवस्थाका कथन पुष्टि त्रिलोकमज्ञप्ति प्रादिसे नही होगी। इन तीनों प्रन्योंके किया है। हमारे इस कथनकी पुष्टि अमृतचन्द्र के तत्वार्थ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त [वर्ष ६ सारसे भी होती है वहां लिखा है-- वहाँ कर्मभूमिको सब बातें पाई जाती हैं। यथा-(१) प्रायम्बएडावा अर्या म्लेच्छाः केचिकादयः। वहां अवमर्पिणी काल में चतुर्थकाखके प्रारम्भमे अन्त तक म्लेच्छबण्डावा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ।। हानि और उत्सर्पिणी कालमें तृतीय कालके प्रारम्भसे अर्थ-जो मनुष्य भार्यखण्डमें उत्पन्न हुए हैं वे पार्य अन्त तक वृद्धि होती रहती है। ये दोनोंकाल कर्मभूमिसे हैं। तथा भार्यखण्डमें रहने वाले शक भादिक म्लेच्छ हैं। सम्बन्ध रखते हैं । (२) वहाँ विकलत्रय और अंसही जीव तथा म्लेच्छखाडोंमें उत्पन्न हुए और अन्तर्वीपज मनुष्य भी उत्स होते हैं जो कर्मभूमिमें ही पैदा होते हैं। (३) भी म्लेच्छ हैं। वहाँ सातवें नरकके योग्य पापका संचय किया जा सकता (१) यहां पाठक यह शंका कर सकते हैं कि सर्वार्थ- है। तथा वहांसे आर्यखगडमें आकर सर्वार्थसिद्धिके योग्य सिखि भादिमें पूरे भरत आदिको कर्मभूमि कहा है और पुण्यका भी संचय किया जा सकता और वहाँ उत्पन हुमा जयभवलामें भार्य खण्डको कर्मभूमि और पांच म्लेच्छ जीव मोक्ष भी जा सकता है। (५)वहां षट्कर्मव्यवस्था खण्डोंको अकर्मभूमि कहा है, सो इसका क्या कारण है? भले हीन हो तो भी वहांके मनुष्य कृषि प्रादिसे ही (२)दूपरी यह शंका होती है कि सर्वार्थसिद्धि मादि माना निर्वाह करते हैं। (२) यहाँके समान वहां अकाल में प्रान्तीपज और शकादिक ये दो प्रकारके ही म्लेच्छ मरण भी होता है। ये या इसी प्रकार की और भी बात हो मनुष्य बतलाये हैं और त्रिलोकप्रज्ञप्ति प्रादिमें इनसे अति- सकती है जिनसे जाना जाता है कि पांच म्लेच्छ खण्ड भी रित पांच म्लेच्छ खण्डोंके मनुष्योको भी म्लेच्छ कहा है। कर्मभूमिके भीतर हैं। इस प्रकार यह पहली शंकाका समाअतः इस कथनमें परस्पर विरोध क्यों न माना जाय? धान हमा। अब दसरी शंका पर विचार करते हैं-- पाठकोंकी ओरसे ऐसी शंकाएं होना स्वाभाविक है। (२) मार्य और अनार्य या म्लेच्छ ये भेद अधिकतर पर ये प्रश्न इतने जटित नहीं कि इनका समाधान नहीं हो षट्कर्म व्यवस्थाकी समाज रचनाका मूल आधार है। अत: सकता । भागे इमीका प्रयत्न किया जाता है जिन्होंने इस व्यवस्थाको स्वीकार करके उसके अनुसार (१)पांच म्लेच्छ खण्डीको कर्मभूमि और अकर्मभूमि अपना वर्तन चालू कर दिया वे आर्य और जिन्होंने इम कहना मापेक्षिक वचन है। कर्मभूमि न कहनेका कारण यह व्यवस्थाको स्वीकार नहीं किया वे अनार्य या म्लेच्छ कहे है कि इनमें धर्म और कर्मकी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। गये। पूज्यपाद स्वामीने कर्मभूमिज जिन म्लेच्छोंके नाम जैसा कि भगजिनसेनने भी कहा है दिये हैं वे जातियां इसी प्रकारकी है। अभी तक वे जातिया धर्मकर्मबह ता इत्यमी म्लेच्छकाः मताः। षट्कर्म म्यवस्थाको नहीं मान रही है। भरतादि क्षेत्रोंके इसका तात्पर्य यह है कि इन खण्डों में तीर्थंकराविका मध्यके एक खण्डको छोड़ कर शेष पाँच खण्डके मनुष्य विहार नहीं होता और न वैसे बोकोत्तर पुरुष यहां जन्म इसी प्रकारके हैं। उनमें षट्कर्म-व्यवस्थाके अनुसार कसी ही लेते हैं अत: न तो वहांक मनुष्य बन्ध-मोक्ष, भारमा- प्रकारकी भी सामाजिक व्यवस्था नहीं है यह देख कर परमात्मा, लोक-परलोकसे परिचित रहते हैं और न वहां त्रिलोक-प्रज्ञाति प्रादिमें उनको म्लेच्छ कहा। पर सर्वार्यकिसी भी प्रकारके व्यवहार धर्मकी प्रवृत्ति होती है। मेरे सिद्धि प्रादिमें इस प्रश्नको गौण कर दिया गया। या ज्यालसे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इसी अभिप्रायसे इनको मिथ्या उनका समावेश 'शकयवनशवम् पुलिन्दादयः' में आये हुए इष्टि भी कहा है। तथा वहांके मनुष्य यद्यपि कृषि प्रादिसे आदि पदसे म्लेच्छोंमें कर लिया। हमारे इस अनुमानको ही अपना उदर पोषण करते हैं फिर भी वहां षट्कर्म वय- पुष्टि इससे हो जाती है कि सर्वार्थ सिद्धि प्रादिमें भरतादिके वस्था नहीं होनेसे वे वहाँ सामाजिक या वैयक्तिक उन्नतिके छह खण्ड कर्मभूमि और अकर्मभूमिरूपसे विभक्त नहीं अनुकूल साधन-सामग्री एकत्र नहीं कर सकते हैं। यह दोष किये गये। उन सबको कर्मभूमि माना गया है। अत: जहां वहाँके क्षेत्रका है अतः ये अकर्मभूमि या म्लेच्छ खराब कहे षट्कर्मव्यवस्था दीखीवे मार्य और शेष शक, यवनादिक जाते हैं। तथा इन्हें कर्मभूमि कहनेका कारण यह है कि अनार्य या म्लेच्छ ठहरते हैं। अतः विचार करने पर यही Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] गोत्र-विचार २११ मालूम हो कि इस विषय में सार्थसिद्धि चादि और . यहां बन्ध्यपर्याप्सक मनुष्योंका विचार करना ही त्रिलोक-प्रज्ञप्ति मादिमें दो मत नहीं हैं। विवक्षाभेदसे निष्फल है। यह सब व्यवस्था तो गर्भज मनुष्यों की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि प्रादि में दो प्रकार म्लेच्छ और त्रिलोक-प्राप्ति से की गई है। ये तो केवल मनुष्यगसि सम्बन्धी कर्मक आदिमें तीन प्रकारके म्लेच्छ बतलाये हैं। उदयसे मनुष्य कहे जाते हैं। हम समझते हैं कि मनुष्योंके दो भेद किस प्राधारसे किन्तु यहां एक बातका निर्देश कर देना और इष्ट किये गये हैं इसका कथन इस उपर्युक्त पमाधानसे हो जाता मालूम होता है। यह बात यह है कि त्रिलोक-प्राप्ति और है, अतः इसका हम अलगसे विचार नहीं करते हैं। तात्पर्य जीवकाण्डमें बताया है कि प्रार्यखण्डके मनुष्योंके शरीरों यह है कि भगवान् भादिनाथने षट्कर्मके अनुसार कर्मस में ही लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य होते हैं म्लेच्छण्डके मनुष्यों जिस वर्णव्यवस्थाका प्रारम्भ करके उसके अनुसार समाज के शरीरों में नहीं। इसका अभिप्राय तो यही मालूम होता रचना की थी उसके अनुसार वर्तन करने वाला मनुष्य है कि म्लेच्छरूण्डोंमें भी लब्ध्यपर्याप्तक तिथंच और मनुसमुदाय मार्य कहलाया और शेष अनार्य कहलाया। भोग- प्य उत्पम नहीं होते। पर इस सम्बन्धमें जब तक पूरे भूमि और कुभोगभूमिमें यद्यपि यह व्यवस्था नहीं हैं पर प्रमाण नहीं मिल जाते तब तक किसी एक निर्णय पर यहांके सारूप्य वर्तनसे वहाँ भार्य म्बेच्छ विभाग मान पहुंचना कठिन है। लिया गया है। . आवश्यकता मूर्तिदेवी अन्धमाल में निम्नलिखित ग्रंथ प्रकाशित करनेकी योजना की जा रहीहै: (१) राजवार्तिक (अकलंकदेव) (२) सिधिविनिश्चयटीका ( मूल अकलंक टीका अनन्तवीर्य) (३)न्यायविनिश्चय विवरण (मूल प्रकलंक टीका वादिराजसूर ) (५) अमोघवृत्ति (५) शाकटायनन्यास (६) जैनेन्द्र महावृत्ति (७) शब्दाम्भोजभास्कर () लोक विभाग (6) त्रिभंगीसार (१०) दशभक्ति (वर्धमान) (1) तत्वार्थ-तात्पर्य वृत्ति (श्रुतसागर) (१२) रत्नकरण्ड (अपनश श्रीवन्द) चादि। रमागौरव माता (हिन्दी) का कार्यक्रम शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इसी तरह कनक, तामिन सीरीज, इंगलिश सीरीज, जैन पुरातत्व सीरीजके लिये योग्य सम्पादकोंका चुनाव किया जा रहा है। आवश्यकता-ऐसे विद्वानोंकी, जिमने सम्पादन संशोधन अनुवाद बारिक क्षेत्र में कार्य किया हो, अथवा इस क्षेत्रमें दिलचस्पीसे कार्य करनेकी इच्छा रखते हों। अपनी योग्यता प्रादिके विवरण के साथ पत्र लिखें। वेतन योग्यतानुसार उतना अवश्य दिया जायगा जिससे वे साधारणतया निराकुल होकर कार्य कर सके एकेडेमोकी मुख्य कार्यालय काशीमें है। अतः नियमित माफिपके कार्यके बाद उन्हें अपनी योग्यता बढ़ानेका सुअवसर है। जो विद्वान वैतनिक कार्य न करके अन्य प्रकारसे पारिश्रमिक लेकर या अवैतनिक ही इस साहित्य यज्ञमें अपना सहयोग देना चाहते हैं वे भी कृपया सूचित करें। . भंडाराध्याय और भंडारोंसे परिचय रखने वाले महानुभाष प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश या देशी भाषाओं में निषद्ध उन अन्योंकी सूचना देनेकी कृपा करें जो अभी तक प्रकाशित है। नवीन साहित्य निर्माणमें रुचि रखने वाले विद्वज्जन अपनी कार्यकी दिशा लिखनेकी कृपा करें ताकि उन्हें अपेक्षित सहयोग दिया जा सके और उनके साहित्य प्रकाशनकी व्यवस्था की जाय। पत्रव्यवहारका पता-पं. महेन्द्रकुमार शास्त्री, न्यायाचार्य कार्यालय मंत्री श्रीजैन विद्यापीठ भदैनीघाट बनारस Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक निवेदन हर्षका विषय है कि श्री पं० जुगल किशोरजी मुख्तार अपने 'अनेकांत' पत्रका 'वीरशासनाङ्क' नामसे एक वृहत विशेषाङ्क आगामी वीरशासन- जयन्तीके महोत्सव पर (श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वि० संवत् २००१ को) निकाल रहे हैं। उपमें 'वीरशासन की वर्तमान सम्पत्तिका संक्षिप्त परिचय' नामक विभागके अन्तर्गत समस्त जैन पारमार्थिक संस्थाओंका परिचय भी रहेगा, जिसका कार्य मेरी चिर इच्छाके अनुसार मुझे सौंपा गया है। अतः प्रत्येक स्थानके जैन भाईयोंसे मेरा सानुरोध निवेदन है कि वे अपने यहांकी ऐसी सभी पारमार्थिक संस्थाओंका संक्षिप्त परिचय नीचे लिखे मुताविक भर कर मेरे पास शोघ्र ही निम्नलिखित पते पर भेज देनेकी कृपा करें। साथ ही संस्थाकी जो अन्तिम रिपोर्ट प्रकाशित हुई हो उसे भी साथ में भेज कर अनुगृहीत करें । समय थोड़ा हैं. इसमे सभी स्थानोंके सेवाभावी सज्जनोंको हम शासनसेवाके पुण्य कार्यमें अपना कर्तव्य समझ कर जल्दी ही हाथ बटाना चाहिये। उनकी इस कृपाके लिये मैं बहुत आभारी हूँगा । दिगबर या श्वेतांबर नंबर संस्थाका नाम स्थापनाका सन् या सवत् (क) ज्ञान दान देने वाली संस्थाएँ - १ विद्यालय, पाठशाला, स्कूल, कालिज ! २ बोर्डिंग हाउस, छात्रालय । ३. छात्रवृत्ति फंडक - कोष । ४ रिसर्च इंस्टिट्यूट ( अनुसंधान विभाग)। २ श्राविकाश्रम | ६ परीचालय, परीक्षाबोर्ड • उद्योगशालाएँ । ८ ग्रंथमालाएँ ट्रैक्ट प्रकाशन । भवफंड यदि है तो कितना पारमार्थिक संस्थाओंके कुछ प्रकार इस प्रकार हैं, जिनका परिचय भेजना श्रावश्यक है :-- पुस्तकालय, वाचनालय | १० पत्र (अखबार) प्रकाशन । ११ ग्रंथालय, शास्त्रभंडार १२ मंदिर, चैत्यालय, स्थानक । १३ धर्म प्रचारक संघ । १४ उपदेशक विभाग । (ख) अभय - आश्रय दान देने वाली संस्थाएँ --- १ जीवदया सभाएँ । २ पींजरा पोलें । संस्थाका वार्षिक खर्चा किसी एक व्यक्तिकी ओर से चलता हो तो उसका नाम, अन्यथा चंदे से ३ धर्मशालाएँ । ४ तीर्थक्षेत्र कमेटियाँ, सभाएँ (प्रान्तिक, जातीयादि) । ५ स्वयं सेवक मंडल | ६ उदासीन आश्रय । ७ विधवाश्रम । म अनाथालय । ६ वस्तिकाएँ, उपाश्रय । १० सेवाश्रम, सेवामंदिर । (ग) आहार दान देने वाली संस्थाएँ १ अनाथ सहायक फंड । २ भोजनालय क्षेत्र । ३ विधवा सहायक फंड । ४ जंगलों में जलाशय, प्याऊ । (घ) औषध - आरोग्य-दान देने वाली संस्थाएँ - १ औषधालय | २ धातुरालय, चिकित्सालय । ३ व्यायामशालाएँ । संस्था का उद्देश्य ४ खास २ औषधियां बांटने वाली पेड़ियां । निवेदकदौलतराम 'मित्र', १३० जूनापेठा, इन्दौर Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यका अनुपम आयोजन 'अनेकान्त' का टहत् विशेषांक वीरशासनाङ्क' भागामी वीरशासनजयन्तीपर प्रकाशित (१) अनेकान्त संचालक मंडलने आगामी वीरशासनजयन्तीके राजगृहपर होनेवाले महोत्सबके अवसरपर लगभग ५०० पृष्ठका एक वृहत विशेषाङ्क प्रकाशित करनका जो आयोजन किया है उसका कार्य श्रारम्भ होगया है। समाज के उच्च कोटि के कई विद्वानोंने इसकी तैयारी शुरू करदी है । अतः साहित्यसे प्रेम रखनेवाल सभी विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे 'सम्मान-समारोह अंक' भ प्रकाशित विज्ञप्तिपरसे अपनी अपनी रुचिके अनुसार लेखोंक विषय चुनकर उनकी सुचना शीघ्र ही देने की कृपा करें, जिससे एक ही विषयकी तैयारीमें अनेक व्यक्तियोंकी शक्ति न लग सके । (२) विशेषाङ्कके संकलन और सम्पादनका कार्य कई विद्वान कर रहे हैं अतः मभी व्यक्तियोंका कर्तव्य है कि वे उन विद्वानोंकी प्रेरणापर उन्हें वीरशासन-सम्बन्धी साहित्य व अन्य जानकारीके संकलनमें अपना पूरा सहयोग प्रदान करें। (३) विशेषाङ्ककी पृष्ठसंख्या अधिक होनेके कारण छपने में समय अधिक लगनेकी मम्भावना है अतः जिन लेखक महोदयोंने अभी तक अपने लेख नहीं भेजे हैं उन्हें अब शीघ्र ही १५ अप्रैल तक भेजनेकी कृपा करनी चाहिये और यह सूचना तो तुरन्त ही दे देनी चाहिये कि उनका लेख कच तक पहुँच जायेगा। (४) युद्धके कारण कागज आदिको भारी मॅहगाई और बहुत बड़ी कठिनाई होनेसे यह विशेषाङ्क ग्राहक-संख्या के अनुरूप परिमित संख्या में ही छपाया जायेगा. अतः जो मज्जन अपने तथा अपनी ओरसे दृसगेको भेंट करने या फ्री भिजवाने के लिये जितनी कापियाँ रिज़र्व कराना चाहे वे उनका आर्डर १५ अप्रैल तक अवश्य भेज देवे । अंक छपना प्रारम्भ होजाने के बाद फिर अधिक कापियाँ किमीको देने में हम अममर्थ हो जाएँगे। मूल्य विशेषांकका पूर्व सूचनानुसार ५)रुपयेसे कम नहीं होगा। हाँ, इसी मुल्यमें वर्तमान छठे वर्पका पूरा चन्दा देने वाले ग्राहकोंको सातवें वर्ष के शेष अंक फ्री दिये जायेंगे । अनः इस वर्प अनेकान्तके प्राहक बनने वालोंको विशेष लाभ रहेगा। आशा है जैन साहित्यके इस अनुपम आयोजनके प्रोग्राममें हमें मारी ममाजका पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा। चिनीतकौशलप्रसाद जैन, मानरेरी व्यवस्थापक कोटे रोड, महारनपुर (टाइटिल के दूसरे पृष्टका शेषांश) श्री भाई दौलतरामजी 'मित्र' इन्दौने समस्त जैन प्राभार पारमार्थिक संस्थानोंके परिचयका गुरुतर काम अपने हाथमें लिया- चुनाचे उनकी तरफसे एक 'श्रावश्यक निवेदन' मेरे ज्येष्ठ भ्राता चौधरी ला हींगनलालजीका, कुछ भी इसी किरण में प्रकाशित होरहा है। उनके कार्य में ममी महीनोंकी बीमारी के बाद, गत ता. ३ मार्च सन् १६४४ स्थानोंके दिगम्बर-श्वेताम्बर भाइयोंको पूरा सहयोग देना को ७२ वर्ष की अवस्थामें चित्तकी पूरी सावधानीके साथ चाहिये। इसी तरह दूसरे उत्पाही सज्जनोंको भी कुछ देहावमान होगया है। इस दुःखद समाचारको पाकर जिन कार्योंका भार अपने ऊपर लेकर उसकी शीघ्र सूचना देनी मित्रों एवं मजान मेरे इस वियोगजन्य दुःखमें अपनी चाहिये। समवेदना और सहानुभूति प्रकट करते हुए मुझे पत्र भेजे श्राशा है वीरशासन-सेवाके इस महान पुण्य यज्ञमें हैं और भाईजीकी पात्माके लिये परलोक में सुख-शान्तिकी वीरभक्त होड बोध-बोधकर भागे भाएँगे और अपने पुरु. कामना की है उन सबका मैं हृययसे आभारी हूं। पार्थद्वारा कठिन कार्यको भी सुगम तथा बहुसमय-साध्यको जुगलकिशोर मुख्तार Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registere N.. A-731. का कर नेगार होगया दि० जैन-मंघ ग्रन्थमालाके प्रथम पुष्पका प्रथम दल भगवदगुणधराचार्यप्रणीत कमायपाहड भा. पतिवृषभकृत चूर्णिमूत्र और स्वामी धीरमनन जयपषला टीका तथा उनके हिन्दी अनुवाद महिम मी वर्ष पूर्व अपनी धमंगाना म्ब मनिदीको निमें श्रीमनी ग्मागनी धर्मपन्नी दानवीर मा शान्तिप्रवारी बालमियानगरक द्वारा विनीय मिद्वान्न प्रन्य श्री जयधवलजाक प्रकाशनाथ दिग -0000) के दानम मंचने काम जो श्री जयधवलजीक प्रकाशनका काम प्रारम्भ किया था जमका प्रथम भाग एप कर नेगार हागया है । इसका सम्पादन अपन विषयक स्याननामा विद्वान पं. फलचंदजी मिदान्न शादी. पं०कलाशचन्द्रजी मिद्वान्त शास्त्र और न्यायाचाय पं. महेन्द्रकुमारजीने किया है। प्रारम्भम.प्रत्रको विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना है। विश्यको स्पष्ट करनेके लिये १५४ विशेषार्थ और मकड़ों टिप्पणी दी गई हैं। कागजक इमकान में भी ६५ पागर के पुष्ट कागज पर छापा गया है। खहरकी मुन्नर जिल्द है। -मुख्य-- पुस्तकाकार - शाहाकार पाम्टेज बच अलग। कृपया कमीशन या किसी प्रकारको ग्यायनकी मांग न करे रेव पामलको जिम्मेदारी खगदारकीहोगी। बिल्टीवार परम भजी जायेगी। मन्त्रा-जगधवलाकागालय, मानापमानय मदनाचाट बनारम ज़रूरत वारमधामन्दिर के लिये कोटयात समान जी कायम नन्पर हानेक माघ माथ म्यमारका मा हायका मचा भार मंत्रा-माहा। चनन माना नमार दिया जायगा। जो भाई पाना चाहन.भप्रदा नाच लिव पते पर पत्रव्यवहार करना चाहिये। मम्यान प्रेम सम्बन वाले जिम मानांकी दाट म को भाका मारयाहीना का गम शान मूचित करना नाहिये भौर मंस्थाका अमका प्रान कगनमगाद करना ना । यदि उनकी दृष्टि में क. गगाम विश को 41 पचिन मन रमाइया हो और वे उम संयाक लिये ३पयोगी समझनो उमभावा ना सकता है। अधिष्ठाना 'वीरमवामन्दिर मम्मावा जि. सहारापुर Holdeluredfirmirman - VEER SEWA MANDIR, SARSAWA, ISAHARANPUR) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार - - - - --- - - --- --- - . . . . . . . . IMWARI . Sauk विषय-मृचा ! 1203 SAMKR FOR ६ समन्तभद-भारतीके कुछ नमूने--[सम्पादक 2०२३ नार्थ र क्षत्रिय ही क्यों ?-[श्री कर्मानन्द नयोंका विश्लेषण-[पं. वंशीधा प्याकाणाचार्य ४ कर्मवीर (कहानी)-[भा. महावीरप्रसाद बी.. ५ जैनागम और यज्ञोपवीन-[4. ममेर चन्द्र दिवाकर ६ सम्पादकीय विचारणा-[सम्पादक ७ गोत्रविचार-[पं. फनचन मितान्नशानी ८ कलाप्रदर्शनीकी उपयोगिता---[श्री गाय नाहटा . भाषण--[श्रीमती रमागनी जैन 1. परिषद्के लम्बनऊ-प्र.नि.--[धी कमीयानाम मिश्र 'प्रभाकर' "केवल ज्ञानकी विषय मर्यादा--[भ्या.. माणिक्यचन्द्र १२ सम्पादकीय - (1) जैनमत्यप्रकाशकी विरोधी भावना (क)पं.वरनामजीका अनोखा पत्र ! . . . . . . . . . . . . SOUR H SIK K AKAK URAAN RUANG PERLU MENETRENURUTAN SELALUIMIERUL ARMASTURNERNATORIAUS TRENERIERTEN ERANTUANANHUSIKEIK K शासन-जयन्ती-महोत्सवको सफल बनाइये अनेकान"वीग्शामना"कलियरममाएँ भेजिये। RAMRITAMI TRA INTERESIREHREE: किरगाह Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप कर तैयार होगया दि० जैन-संघ ग्रन्थमालाके प्रथम पुष्पका प्रथम दल भगवद्गुणभराचार्यप्रणीत कसायपाहुड चा० यतिवृषभकृत चूर्णित्र और स्वामी वीर मेनकृत जयबबला टीका तथा उनके हिन्दी अनुवाद सहित Registere No. A- 731. वर्ष पूर्व अपनी धर्ममाता स्व० मूर्तिदेवीकी स्मृतिमें श्रीमती रमारानी धर्मपत्नी दानवीर माहू शान्तिप्रसादजी डामियानगर के द्वारा द्वितीय सिद्धान्त प्रन्थ भी जयधवलजी के प्रकाशनार्थं दिये गये -५०००) के दानसे संघने काशी में जो भी जयधवलजीके प्रकाशनका काम प्रारम्भ किया था उसका प्रथम भाग छप कर तैयार होगया है । इसका सम्पादन अपने विषयके ख्यातनामा विद्वान पं० फूलचंदजी सिद्धान्त शाखी, पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने किया है। प्रारम्भ में ११२ पृष्ठको विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना है। विषयको स्पष्ट करनेके लिये १५४ विशेषार्थ और सैंकड़ों टिप्पणी दी गई है। कागजके इस दुष्कालमें भी ६४ पौएडके पुष्ट कागज पर छापा गया है। खरकी सुन्दर जिल्व है । --मूल्यपुस्तकाकार १० ) शाखाकार १२ ) पोस्टज खर्च अलग। कृपया कमीशन या किसी प्रकारको रियायनकी माँग न करें रेल्वे पार्सलकी जिम्मेदारी द्वारकी होगी। बिल्टी बी० पी० मे भेजी जायेगी । ज़रूरत बामन्दिर के लिये एक ऐसे उन रसोइयाकी अरूरत है जो कार्य में तत्पर होने के साथ साथ स्वभावका अच्छा, हाथका सथा और सेवा-भावी हो। बेतन योग्यतानुमार दिया जायगा। जो भाई आना चाहें उन्हें शीघ्र ही नीचे लिखे पते पर पत्रव्यवहार करना चाहिये। संस्थाम प्रेम रखने वाले जिन सज्जनोंकी दृष्टि में ऐसा कोई भा रसोइया हो तो उन्हें उसमे शीघ्र सूचित करना चाहिये और संस्थाको उसका प्राप्ति कराने में मदद करनी चाहिये । यदि उनकी दृष्टि में उक गुणोंमें विशिष्ट कोई अच्छा परिचित अजैन ग्मोइया हो और वे उसे संस्थाके लिये • उपयोगी समझें तो उसे भी रखा जा सकता है। पिता 'वीरमेवामन्दिर मरमावा जि० सहारनपुर मन्त्रो -- जयभवला कार्यालय, स्याद्वाद जैनविद्यालय भदैनीघाट बनारस If not delivered please return 18: VEER SEWA MANDIR, SARSAWA, (SAHARANPUR) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासन-जयन्ती अर्थात् श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्यतिथी यह तिथि-इतिहास में अपना नाम महत्व रखता है और एक से 'मर्वोदय' तीर्थकी जन्मतिथि है, जिसका लाय 'सर्वप्राथहिन । हम दिन--अहिंसाके अवतार श्रीमन्मनि बढुंभान महावीर आदि नामोंसे नामानि वीर भगवानकातीर्थ प्रवर्तित हुश्रा, उनका शासन शुरू हुश्रा, उनकी दिव्यध्वनि वाणी पहलेण्हल विरी, जिसके द्वारा सब जीवोंको उनके हितका वह मन्देश मनाया गया जिमने उन्हें दुग्योंग्मे छूटनेका मार्ग बनाया, दुःखकी कारभृत भृल सुमाई, वहाँको दर किया. यह स्पष्ट करके बतलाया किमाचा मुख भहिंसा और अनेकान्तरष्टिको अपनाने में है. ममताको अपने जीवनका श्रज बनाने में है, अथवा बन्धनम--स्तन्त्रतामे--विभावपरिणनि टन में है, साथ ही रूप प्रामाश्रीको ममान बतलाने हुए, श्रामविकामका सीधा तथा मरल उपाय सुझाया और यह स्पष्ट घोपित किया कि अपना उत्थान श्रीर पतन अपने हाथमें है, उसके लिये नितान्त नमरों पर श्राधार रखना, मर्वथा पावलम्बी होना अथवा दुमकी दोष देना भारी भूल है। इसी दिन---पीडित. पशित और मार्गच्युन जनताको यह श्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है। यह पुजय दिवस ---उन कर बलिदानीक मानिशय रोकका नियम है जिनके द्वारा जीवित प्राय नियतापूर्वक घाट जनारे जाने थे अथवा होमके बहाने जन्नती हुई भागम फर दिये जाते थे । इसी दिन--लोगोंको उनके प्राचार्गको यथार्थ यरिया मगाई गई और हिमा अहिमा तथा धर्म अधर्मका नाव गुर्णरूपसे बतलाया गया। इमी दिनमे---सीजाति तथा शद्वापर होनेनाले कालीन याचारों में भारी रकावट पैदा हरीरममा तन ययंट रूपमे विया पढने नया धर्ममापन करने श्रादिके अधिकारी ठहराये गये। हमी तिथिमे---भारतवर्ष पहले वर्षका प्रारम्भ हुश्रा करता था जिसका पना हाल में उपलब्धग अतिप्राचीन ग्रंथलेग्बामे---तिलोयपणशानी' या 'धवल' श्रादि मिन्दाnी परमे---चना है। मावनी- आपादीके विभागरूप क्रमली माल भी डमी प्राचीन प्रथाका सूचक जान पबना है जिसका मंग्या आजकल गलत प्रचलित हो रहा है। सतरह यह निशि:--जिस दिन वीरशापनकी जयन्ती (ध्वजा) लोकशिवा पर फहराई, संपारके हित नया समाचार APATन और कल्याणके माय अपना मीधा एवं न्याय सम्बंध रखती है और मनिये मभीक द्वारा जम्मषमाथ मनाये जानेके योग्यमीलिय इसकी यादगारमें कई वर्ष वीरसेवामग्निर परमावाम 'वीरशाम नजयन्ती ममानेका भायोजन किया जातामन्य स्थानों पर भी किया जारहा। इस वर्ष--यह पावन तिथि- जुलाई मन को शुक्रवारके दिन अवतरित हुई।बकी बार वीमेवा. मन्दिरने उमी राजगिर (राजग्रह) स्थानपर वीरशासनजयन्ती मनानेका सायांत न किया है जहोम कीशासकी सबोंदव तीर्थ-धारा प्रथम प्रवाहित दुई थी। उत्सवकी नारीम्ब ७, ८, .. जलाई है। अत: पब स्थानों भाईयोंको इस सर्वानिशापी पावन पर्वको मनानेके लिये अमीमे सावधान होजाना चाहिये श्रीर राजमह पहुंचकर उन्लवमें भाग लेना चाहिये जो भाई वहा नपचारमके उन्हें अपने २ स्थान पर उसे मनानेका पूर्ण बायोजन करके कर्मका पालन करना चाहिये। निवेदक-- जुगलकिशोर मुख्तार Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासन-जयन्ती अर्थात् श्रावण-कृष्ण प्रतिपदाको पुण्य-तिथी यह तिथि-इतिहासमें अपना खाम महत्व रखती है और एक से 'सर्वोदय' तीर्थकी जन्मतिथि है, जिसका लाय 'मर्वप्राथहित'।। इस दिन--अहिंसाके अवतार श्री सन्मति वर्द्धमान महावीर प्रादि नामोंसे नामाकिंत वीर भगवानकातीर्थ प्रवर्तित हुमा, उनका शासन शुरू हुश्रा, उनकी दिव्यध्वनि वाणी पहलेपहल खिरी, जिसके द्वारा सब जीवोंको उनके हिसका वह सन्देश सुनाया गया जिसने उन्हें दुःखोंमे छूटनेका मार्ग बताया, दुःखकी कारणीभूत भृल सुमाई, वहमोंको दूर किया, यह स्पष्ट करके बतलाया कि सच्चा सुख अहिंसा और अनेकान्तरष्टिको अपनाने में है; ममताको अपने जीवनका अकबनाने में है. अथवा बन्धनसे--परतन्त्रतासे--विभावपरिणतिय टने में है. साथ ही.ब श्रमाचीको समान बतलाते हुए, प्रारमविकासका सीधा तथा सरल उपाय सुझाया और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और पतन अपने हाथमें हैं, उसके लिये नितान्त दूसरों पर श्राधार रखना, सर्वथा परावलम्बी होना अथवा नुसगेको दोष देना भारी भूल है। हमी दिन--पीडित, पतित और मार्गच्युत जनताको यह प्रश्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है। यह पुण्य-दिवस--उन कर बलिदानोंके मातिशय रोकका दिया है जिनके द्वारा जीवित प्राणी निर्दयतापूर्वक के घाट उतारे जाते थे अथवा होमके बहाने जलती हुई भागमें फेंक दिये जाते थे । इसी दिन---लोगोंको उनके अत्याचारोंकी यथार्थ परिमाया ममझाई गई और हिमा-श्राहिमा तथा धर्म अधर्मका तख पूर्णरूपसे बतलाया गया। इसी दिनसे--स्त्रीजाति तथा शृद्रोंपर होनेवाले तत्कालीन श्रन्याचारों में भारी रुकावट पैदा हुई और ने सभी जन यथेष्ट रूपसे विद्या पढ़ने तथा धर्मसाधन करने श्रादिके अधिकारी ठहराये गये। इसी तिथिसे--भारतवर्ष में पहले वर्षका प्रारम्भ हुआ करता था. जिम्मका पना हाल में उपलधदुए कुछ अतिप्राचीन ग्रंथलेखों से--'तिलोयपण्णत्ती' तथा 'धवल' आदि सिद्धानमग्रंथों परसे--चला है। सावनी-भाषाहीके विभागरूप फसली साल भी उसी प्राचीन प्रथाका सूचक जान पड़ता है जिसकी संख्या आजकल ग़लत प्रचलित हो रही है। इस तरह यह तिशि--जिस दिन वीरशासनकी जयन्ती (ध्वजा) लोकशिखर पर फहराई, संसारके हित तथा सर्वसाधारणके जत्थान और कल्याणके माथ अपना मीधा एवं ग्वाम सम्बंध रखती है और इसलिये मभीके द्वारा उस्मयके साथ मनाये जानेके योग्य है। इसीलिये इसकी यादगारमें कई वर्षसे वीरसेवामन्दिर सरसावामें 'वीरशाम नजयन्ती' के मनानेका प्रायोजन किया जाता है। अन्य स्थानों पर भी किया जारहा । इस वर्ष--यह पावन तिथि . जुलाई सन् १६५४ को शुक्रवार के दिन अवतरित हुई है। अबकी बार वीरसेवामन्दिरने उसी राजगिर (राजग्रह) स्थानपर वीरशासनजयन्ती मनानेका आयोजन किया है जहाँ श्रीशासकी सर्वोदय तीर्थ-धारा प्रथम प्रवाहित दुई थी। उत्सवकी तारीख ७, ८, ९, जुलाई है। अत: सब स्थानोंके भाईयोंको इस सर्वातिशायी पावन पर्वको मनानेके खिये अभीसे सावधान होजाना चाहिये और राजग्रह पहुंच कर उत्सव में भाग लेना चाहिये जो भाई वहां न पधारमके उन्हें अपने २ स्थानोंपर उसे मनानेका पूर्ण आयोजन करके कम्पका पालन करना चाहिये। निवेदक-- जुगलकिशोर मुख्तार Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * तत्व-प्रकार वार्षिक मूल्य ४) ० (Auttinkaja नीतिविरोषवतालोकव्यवहारवर्तक-सम्मा। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यानेकान्तः। अप्रेल वर्ष ६ किरण वीरसेवामन्दिर, (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर वैशाखशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७०, विक्रम सं० २०.. ११४४ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने श्रीमुनिसुव्रत-जिन-स्तोत्र अधिगत-मुनि-सुव्रत-स्थिति,निवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः । मुनि-परिषदि निवेभो भवानपरिषत्परिवोतसोमवत ॥१॥ 'मुनियों के सुव्रतोंकी-मूलोत्तर गुगणोंका--स्थतिको अधिगत करने वाल-उसे भले प्रकार जानने वाले ही नहीं किन्तु स्वतःके पाचरण-द्वारा अधिकृत करने वाले -(और इस लिए) 'मुनि-सुव्रत' इस अन्वर्थ संज्ञाक धारक हे निष्पाप (पानिकर्म-चतुष्टयरूप पापसे रहित) मुनिराज ! श्राप मुनियोंकी परिषद्म-गणधराांद जानियो की मभा (समवमरण) में-उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि नक्षत्रों के मूहस परिवेग्रिन चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है।' परिणतशिखिकएठरागया कृतमद-निग्रह-विग्रहाऽऽभया । लव जिन तपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुव शोभितम् ॥ २॥ 'मद-मदन अथवा अहंकारके निप्रहकारक-निरोधहचक-शरीरके धारक हे मुनिमवत जिन : आपका शरीर तपसे उत्पन्न हुई तरुण-मोरके कण्ठवर्ण-जैसी आभामे उमी प्रकार शोभित हुश्रा है ज़िम प्रकार कि प्रहपरिवेषकी-चन्द्रमाके परिमण्डलकी-दीप्ति शोभती है।' Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بع: अनेकान्त शशि-कवि-शुचि-शुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ॥ ३ ॥ 'हे यतिराज ! आपका अपना शरीर चन्द्रमाकी दीप्ति के समान निर्मल शुक्ल रुधिर से युक्त, श्रुतिसुगन्धित, रजरहित, शिवस्वरूप (स्वपर वल्याणमय) तथा अति आश्चर्यको लिये हुए रहा है और आपके वचन तथा मनकी जो प्रवृत्ति हुई है वह भी शिव-स्वरूप तथा अति आचार्यको लिए हुए हुई है ।" स्थिति-जनन-निरोधलक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । [ वर्ष ६ इति जिन मकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतांवरम्य ते ॥ ४ ॥ 'हे मुनिसुव्रत- जिन ! आप वदतांवर हैं-प्रवक्ता श्रेष्ठ है आपका यह वचन कि 'चर और अचर (जंगम-स्थावर) जगन प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध लक्ष्य को लिये हुए है'- प्रत्येक समय में श्राव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश ) स्वरूप है- सर्वज्ञताका चिन्ह है - संसारभर के जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल और मूर्तअम्र्त सभी पदार्थोंमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रौव्यको एक साथ लक्षित करना सर्वशना के बिना नहीं बन सकता, और इस लिए आपके इस परम अनुभूत वचनसे स्पष्ट सूचित होता है कि आप 'सर्वज्ञ' है ।' निरूपमयोगबलेन दुरितमलकलङ्कमष्टक निर्दहन् । अभवदभव-सौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशांतये ॥ ५ ॥ ' (हे मानमुक्त जिन !) आप अनुपम योगवल मे - परमशुक्ल ध्यानामिके तेजसे- माठों पाप-मलरूप कोंको जीवात्माकं वास्तविक स्वरूपको श्राच्छादन करने वाले ज्ञानावरण, दर्शन घग्गा, मोहनीय, अन्तराय, चंदनीय, नाम, गोत्र और आयु नामके घाटों कर्ममलोको - भस्मीभूत करते हुए, संसार में न पाये जाने वाले माख्यको—परमश्रतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको प्राप्त हुए हैं। आप मेरी-मुझ स्तोताकी - भी संसारशान्तिके लिए निमित्तभूत हृजिये – आपके श्रादर्शको सामने रखकर मैं भी योग बलसे श्राटों कर्म-मनोंको दग्ध करके ग्रतीन्द्रिय मसौख्यको प्राप्त करूँ, ऐसी मेरी भावना अथवा श्रात्मप्रार्थना है ।' [ २४ ] श्रीनमि-जिन स्तोत्र स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल- परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायमपथे, स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमि-जिनम् ॥ १ ॥ 'स्तुति के समय स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी उसके द्वारा हाती हो या न होती हो, परन्तु साधुस्तोताकी - विवेक के साथ भक्तिभाव पूर्वक स्तुति करने वालेकी स्तुति कुशल- परिणामकी - पुण्यप्रसाधक परिणामोंकी —— कारण जरूर है; और वह कुशल- परिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेयफलका दाता है । जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतासे श्रेयोमार्ग सुलभ है - स्वयं प्रस्तुत की गई स्तुतिके द्वारा प्राप्त है— तत्र, हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान - प्रेक्षापूर्व कारी अथवा विवेकीजन है जो आपकी स्तुति न करे ? करे ही करे ।' Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] ममन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने स्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्म-निगलं, समूलं निर्भिन्नं त्वमसि विदुर्षा मोक्षपदवी । स्वपि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणैर्भाति भगवन् अभूवन खद्योता इव शुचिग्वावन्यमतयः ॥ २ ॥ २६५ 'हे बुद्धि ऋद्धिसम्पन्न भगवन ! आपने परमात्म ( शुद्धात्म) - स्वरूप में चित्तको एकाग्र करके पुनर्जन्म के बन्धनको उपके मूलकारण सहित नष्ट किया है, अतएव आप विद्वज्जनोंक लिए मोक्षमार्ग अथवा मोक्षस्थान हैं - आपको प्राप्त होकर विवेकीजन अपना मोक्षसाधन करनेमें समर्थ होते हैं। आपमें विभव (समर्थ) किरणों के साथ केवलज्ञानज्योतिके प्रकाशित होने पर अन्यमती -- एकान्तवादी - जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए हैं जिस प्रकार कि निर्मल सूर्य के सामने खद्योत (जुगनू ) होते हैं ।' विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयैश्चापरिमितैः । सदाऽन्योन्यापेक्षैः सकलभुवन ज्येष्ठगुरुणा, स्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ॥ ३ ॥ 'हे संपूर्ण जगत के महान गुरु श्रीनमिजिन ! आपने वस्तुतत्वको बहुत नयोंकी विवक्षा अविक्षाके वशसे विधेय, वार्य ( प्रतिषेध्य ) उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग - विधेयाऽनुभय, प्रतिषेध्याऽनुभय और उभयाअनुभव (ऐसे मतभंग ) रूप निर्दिष्ट किया है। साथ ही अपरिमित विशेषों (धर्मों) का कथन किया है जिनमें से एक एक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये रहता है और सप्तभंगके नियमको अपना विषय किये रहता है— कोई भी विशेष अथवा धर्म सर्वथा एक दूसरेकी अपेक्षा से रहित कभी नहीं होता और न सप्तभंग के नियम से बहिर्भूत ही होता है।' अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोऽस्स्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तस्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभर्य, भवानेवात्यादीन्न च विकृतवेषोपघिरतः ॥ ४ ॥ 'प्राणियोंकी हिंसा जगतमें परमब्रह्म-ग्रत्युच्च कोटिकी श्रात्मचर्या - जानी गई है और वह श्रहिंसा उस आश्रमविधि में नहीं बनती जिस श्रश्रमविधिमें अणुमात्र - थोड़ा सा भी आरम्भ होता है । अतः उस अहिंसा परमब्रह्मकी सिद्धिके लिए परमकरुणाभावसे सम्पन्न आपने ही बाह्याभ्यन्तर रूपसे उभय-प्रकारके परिग्रहको छोड़ा है - बाह्यमें वस्त्रालंकारादिक उपधियोंका और अन्तरंग में रागादिकभावोंका त्याग किया हैफलतः परमब्रह्मकी सिद्धिको प्राप्त किया है। किन्तु जो विकृतवेष और उपधिमें रत हैं- यथाजातलि विरोधी जटा मुकुट धारण तथा भस्मोद्धूलनादिरूप वेष श्रौर वस्त्र, श्राभूषण, अक्षमाला तथा मृगचर्मादिरून उपधियोंमें श्रासक्त है— उन्होंने उस बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है। और इस लिए ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकी है।' Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अनेकान्त [वर्ष ६ धपु षा-वेष-व्यवधिरहितं शान्तकरणं, यतम्तै संचष्टे स्मरशरविषान्तक विजयम्। विना भीमः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलयं, ततस्त्वं निर्मोहः शरणामसि नः शान्तिनिलयः॥५॥ '( हे नाम-जिन !) आभूषण, वेष तथा व्यवधान (वन-प्रावरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको-अपने अपने विषयों में वांछाकी निवृत्तिको-लिये हुए आपका नग्न दिगम्बर शरीर चूंकि यह बतलाता है कि आपने कामदेवके याणोंके विषस होने वाली चित्तको पीडा अथवा अप्रतीकार व्याधिको जीता है और बिना भयंकर शाखोंके ही निर्दयहृदय क्रोधका विनाश किया है इस लिग आप निर्माह हैं और शान्ति-सुखके स्थान हैं अतः हमारे शरण्य हैं-हम भी निर्मोह दाना और शामिग्वको प्राप्त करना चाहते हैं, इमसि हमने श्रापकी शरण ली है।' तीर्थङ्कर क्षत्रिय हो क्यों ? (लेखक-श्री कर्मानन्द) वर्तमान समय में जैनधर्मके प्रवर्तक २४ तीर्थकर होकर कहने लगे कि इस राजान हमाग अपमान माने जाते हैं। वे सभी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं। किया है। राजा जनक बहाँसे चले गये। उन ब्राह्मणोंयहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ये तीर्थकर क्षत्रिय- मेंसे याज्ञवल्क्यने उनका पीछा किया और अपनी कुलमें ही क्यों उत्पन्न हुए ? इसका उत्तर हमें इति- शंका निवारण की । तभीसे राजा जनक ब्राह्मण हामसे मिलता है। इतिहासका पालोचन करनेसे कहलाने लगे (शतपथ १०६।२१) । यही याज्ञवल्क्य पता चलता है कि पूर्व समयमें आत्म-विद्या केवल ऋषि यजुर्वेदके संकलनकर्ता तथा प्रसिद्ध महाविद्वान क्षत्रियों के पास ही थी, ब्राह्मण लोग इससे नितान्त कहे जाते हैं। उपरोक्त गाथासे यह ध्वनित होता है अनभिज्ञ थे, ब्राझणोंने क्षत्रियोंकी सेवा करके एवं कि क्षत्रिय लोग आत्म-विद्याके ही पारगामी नहीं थे शिष्य बनकर यह आत्मविद्या प्राप्त की है । चुनॉचे अपितु यज्ञ आदि विषयोंके भी अद्वितीय विद्वान थे। बृहदारण्यकोपनिषद् ११३१ में लिखा है कि महाराज जिनसे याज्ञवल्क्य जैसे महर्षियोंने भी शिक्षा प्राप्त जनकका प्रताप इतना फैल गया था कि काशीराज की थी। अजातशत्रने निराश होकर कहा कि "सचमुच सब छान्दोग्योपनिषद ५-३ में लिखा है कि एक लोग यह कहकर भागे जाते हैं कि हमारा रक्षक समय श्वेतकेतु पारुणेय पांचालोंकी एक सभामें गया जनक है"। यह अजातशत्रु स्वयं भी अध्यात्म-विद्या तो प्रवाहन-जयबलीने जो क्षत्रिय था, उमसे कुछ का महान् विद्वान् और तत्ववेत्ता था। शतपथब्राह्मण प्रश्न किये। परन्तु वह एकका भी उत्तर न दे सका। में लिखा है कि जनककी भेंट ऐसे तीन ब्राहाणोंसे उसने उदास-भावसे घर आकर अपने पितासे उन हुई । जनकने उनसे अग्निहोत्र-विषयक प्रश्न किया, प्रश्नोंका हाल कहा । उसका पिता गौतम भी उन प्रभों परन्तु ग्राहक्षण उसका ठीक उत्तर न दे सके । जनकने को न समझ सका, वे दोनों उस प्रवाहन-जयबलीके. जब उनके उत्तरमें भूल बताई तो ब्राह्मण क्रोधित पास गये और उनके शिष्य बन कर उस आत्म-विद्याको Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] तीर्थकर क्षत्रिय ही क्यों ? २६७ प्राप्त किया। उस समय राजाने उनसे कहा कि आज तक इन्हीं महागज भद्रसेनपर आरुणी ऋषिने अभिचार यह विद्या क्षत्रियों की ही थी। आज यह पहिला ही कर्म किया था। अवसर है जब मैं इस विद्याको एक ब्राह्मणके लिए दे ब्राह्मण-ग्रंथों में आया है कि "प्रजापति क्षत्रम । रहा हूँ। "न प्राकत्वतः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति"। शतपथ ग३।११अर्थात प्रजापति (ब्रह्मा) क्षत्रिय शतपथ १०-६-१ तथा छान्दोग्य उपनिषद् ५-२ में हीथा। यही बात यजुर्वेद १४।में लिखी हैं तथाचलिखा है कि ५ वेदज्ञ ब्राह्मणोंको इस बातकी जिज्ञासा यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुदः। हुई कि आत्मा क्या है ? वे लोग जाननके लिए उद्या- पर्जन्यो यमो मृत्यु ईशान इति क्षत्रात्परं नास्ति ।। लक-श्रारुपी ऋषिके पास गये परन्तु उसको भी इस - शत०१४।४।२३ में सन्देह था। वह उनको कैकेयगज (अश्वपति) के अर्थात उपरोक्त जितने भी यम, वरुण, सोम, पास ले गया। वे लोग हाथमें समिधा लेकर शिष्य- रुद्र, ईशान, इन्द्रादि देव हैं वे सब क्षत्रिय हैं। इस वत उस राजाके पास गये। राजाने आत्मज्ञानका लिए क्षत्रियसे उत्तम कोई नहीं है। इसी प्रकार वैदिक उपदेश देकर उनकी सब शंकाओंका समाधान कर साहित्यमें क्षत्रियोंकी महिमाका कथन है। दिया। यह कैकेय देश नेपालकी तलैटी में श्रावस्तीस उपरोक्त प्रमाणोंसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि उत्तर-पूर्व में था, इमकी राजधानी श्वेताम्बिका नगरी पूर्वसमयमें आत्मविद्याको जानने वाले क्षत्रिय ही थे। थी। ईसाके अनुमान १००० वर्ष पूर्व यहांका राजा ब्राह्मणोंका धर्म क्रियाकाँर (याक्षिक) धर्म था। वर्तप्रदेशी श्रमणोपासक था। बौद्ध ग्रंथोंसे ज्ञात होता है मान समयके ऐतिहासिक विद्वान आर० सी० दत्तने कि श्रावस्तीस कपिलवस्तुको जाते हुए श्वेताम्बी बीच अपनी 'सभ्यताका इतिहास' नामक पुस्तकमें लिखा है में आती थी ! जैन-प्रन्थों में भी इसकी पुष्टि होती है। कि अवश्यमेव क्षत्रियोंने ही इन (आत्मज्ञानक) उत्तम वर्तमान सीतामढ़ी शायद श्वेताम्बीका ही रूपान्तर विचारोंको चलाया। है। वर्तमान समयके कुछ इतिहासज्ञोंका यह कथन उपनिषद् शास्त्र अध्यात्मविद्याके शाख हैं। उनमें कि कंकेय देश व्यास और सतलजके बीचका देश था स्थान स्थान पर यज्ञादिक व्यर्थक क्रियाकाँडोंका भ्रमपूर्ण है। विरोध किया गया है। यथाइसी प्रकार कौशीतिकी उपनिषद्में लिखा है कि "प्लवा एते अहढा यज्ञरूपाः"-मुण्डकोपनिषद् चित्रगांगयनी राजाके पास दो ब्राह्मण समितपाणि अर्थात्-यह यज्ञरूपी क्रियाकांड जीर्ण शीर्ण गये और आत्मज्ञान प्राप्त किया। उसी उपनिषद् में टूटी हुई नौकाओंके समान हैं, जिन पर चढ़कर पार भारतके प्रसिद्ध विद्वान गाग्यं बालाकी और काशीराज उतरने की इच्छा वाला मनुष्य अवश्य ही डूब जाता है। अजातशत्रुके वादविवादका वर्णन है। इस अभिमाना जहां अध्यात्म-विद्याके विषयमें क्षत्रियोंका महत्व ब्राह्मणने राजाको शाखार्थके लिये ललकारा। अतः था वहां पूर्वदेशको ही यह गौरव प्राप्त था । जैसा कि राजाको भी मैदानमें आना पड़ा। परिणाम यह हुआ ऊपर हम प्रमाणोंमे सिद्ध कर चुके हैं। वे राजा कि बालाकीने महाराजका शिष्य बनना स्वीकार किया, आत्म-विद्याके महान ज्ञाता थे। वे सब विदेह, काशी, परन्तु राजाने एक विद्वानका अपमान करना अनुचित मगध, पांचाल, कैकेय आदि पूर्व देशोंके थे। इनमें समझा, अतः उन्होंने बिना ही शिष्य बनाये बालाकी केवल कैकेयको ही ऐतिहासिक लोग पंजाबका देश को आत्म-विद्याका रहस्य बतलाया। इन्हीं अजातशत्रु मानते हैं, परन्तु हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि उनकी के पुत्र महाराज भद्रसेन थे। जैनशाखोंमें इन्हींका यह धारणा गलत है। यही कारण है कि वैदिक नाम अश्वसेन लिखा है जो कि भगवान पार्श्वनाथजी साहित्यमें अंग, वंग, कलिग आदि देशोंकी निदा की के पिता थे। शतपथ ब्राह्मण ५-५-५ में लिखा है कि गई है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनेकान्त [वप६ ऋग्वेद में "किं कुर्वन्ति कीकटेशु गात्रः" कह कर हिमा काण्डोंके विरोधी थे । यह घटना भी इमी बात मगध देशकी निंदा की गई है। इसमें भी यह सिद्ध को सिद्ध करती है कि उन देशोंमें क्षत्रिय-धर्म (श्रात्महोता है कि वैदिक ममयमें मगध देशमें वैदिक क्रिया- धर्म) प्रचलित था-अन्य देशोंमें यज्ञ श्रादि । और कांडोंका घोर विरोध होता था। जैन तीर्थंकर प्रायः इस लिये जैन तीर्थकर सभी क्षत्रिय ही थे। इन्हीं देशों में हुए हैं। और वे वैदिक यज्ञादिक नयोंका विश्लेषण (ले०-६० बंशीधर जैन व्याकरणाचार्य) [गकिरण नं. ८ से श्रागे] (१०) अर्थनय और शब्दनयके भेद सब इम नयकी ही कोटिमें प्राता है। कभी २ वका अपने जैनधर्ममें उल्लिखित अर्थनय और शब्दनयके निम्न- विवक्षित पदार्थको प्रगट करने के लिये अविवक्षित पदार्थको लिखित मात भेद स्वीकार किये गये हैं--(१)नैगमनय, (२) छोर कर सिर्फ उस विवक्षित पदार्थ का ही कथन किया संग्रहनय, (३)व्यवहारनय, (४, ऋजुसूत्रनय (२)शब्दनय, करता है। उममें भी यदि वह कथन संक्षेप अर्थात सामान्य(६)समयिरूवनय और (७) एवंभतनय'। इनमें से प्रादिके रूपसे मात्र उस विवक्षित पदार्थके स्वरूपका प्रदर्शन करने चार नय अर्थनय और अंतके तीन नय शब्दनय कहे जाते ___ वाला हो. तो उस कथनको संग्रहनय समझना चाहिये । हर तात्पर्य यह है कि नय वचनरूप होता है यह स्पष्ट यदि वह कथन विस्तार अर्थात विशेषरूपसे विवक्षित पदार्थकिया जा चुका है और वका वचनों द्वारा अपने अभिप्राय के भेद-प्रभेदोंको ध्यानमें रख कर किया गया हो तो उसे गत-अर्थात् विवक्षित पदार्यको प्रगट करनेके लिये निम्न व्यवहारनय और यदि वह कथन उस विवक्षित पदार्थके लिखित चार प्रकारकी कथनशैलीका उपयोग किया करता पावश्यक उपयोगी अंशको ध्यानमें रख कर किया गया हो है। वक्ताकी इसी चार प्रकारकी कथनशैलीके आधार पर तो उसे ऋजुसूत्रनय समझना चाहिये। इस तरह इन ही अर्थनयके पूर्वोक्त चार भेद घटित होते हैं--अर्थात् चारों ही नयों द्वारा भिन्न २ तरहसे चूकि अर्थका ही कभी २ वक्ता अपने विवक्षित पदार्थको प्रगट करनेके लिये प्रतिपादन हुआ करता है इसलिये इन्हें अर्थनय मान उस विवक्षित पदार्थ साथ २ उसके अनुकूल अविवक्षित लिया गया। इन चारों प्रकारके अर्थनयों द्वारा वक्ताके पदार्थका भी कथन किया करता है इस प्रकारके कथनको विवक्षित पदार्यको समझने में श्रोताओंको भ्रम, संशय नगममय समझना चाहिये। उपमा, उध्यक्षा, दृष्टान्त आदि अथवा विवादके उत्पन होनेकी संभावनाका जिक्र पहिले अलंकार पूर्ण जितना साहित्यिक वर्णन किया जाता है वह किया जा चकास लिये बक्ताके विधक्षित पदार्थको १-नैगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशन्दमममिरूद्वैवंभूना नयाः॥ समझनेमें श्रोताओंको भ्रम, संशय अथवा विवाद पैदा न --तत्वा० सू०१-३३ हो सके, इसका ध्यान रखते हुए वक्ताके लिये पदार्थका २-तत्रर्जुसूत्रार्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मताः । प्रतिपादन करते समय इन चारों ही प्रर्थनयों में व्याकरया, प्रयः शन्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचरा: ॥१॥ शब्दकोष और निरुक्ति या परिभाषाका सहारा लेना भाव -नाबा.लो. पृष्ठ २७४ श्यक हो जाता है और इस तरह इन व्याकरणादि निमित्ती Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] नयाँका विश्लेपगा के आधारपर ये चारों ही अर्थनय यथायोग्य पूर्वोक्त तीनों शब्दनयों की कोटि में पहुँच जाते हैं अर्थात अनयों में जब व्याकरण सम्मन वाक्यप्रयोग किया गया हो तब उन्हें शब्दनय, जब कोष सम्मत शब्दप्रयोग किया गय हो तब समभिरूदन और जब निरुक्ति या परिभाषाके आधार पर शब्दप्रयोग किया गया हो तब एवंभूतनय समझना चाहिये। इस कथनसे यह भी निष्कर्ष निकल आता है कि जब पूर्वोक्त सैद्धान्तिक आध्यात्मिक और लोकसंग्राहक नयोंकी प्रथं प्रतिपादनकी अपेक्षा अधंनय और व्याकरणादिद- सम्मत चचनप्रयोगकी अपेक्षा शब्दनय मान लिया गया है तो सैद्धान्तिक नयके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, आध्यात्मिक नयके निश्चय और व्यवहार तथा लोकसंग्राहकनय के पूर्वोक्तप्रकारसे वचनोंके विकल्प प्रमाण जो भेद पहिले बतलाये गये हैं उन सभी भेदोंको अर्थनयत्वको दृष्टिसे नैगम आदि चार और शब्दनयत्वको दृष्टिसे शब्द आदि नीन भेदरूप समझना चाहिये। इस लिये जैन ग्रन्थोंमं जहां कहीं नैगम आदि सात नयोको सिर्फ सैद्धान्तिक नयके भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों में संघटित करनेका प्रयत्न किया गया है' वह ठीक नहीं है। साथ ही द्रव्यार्थिक नयको सिर्फ नैगम, संग्रह और व्यवहाररूप तथा पर्यायार्थिकनको सिर्फ ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूद और एवंभूत-रूर बताना भी भ्रमपूर्ण है। कारण कि पूर्वोक्त प्रकार से द्रव्यार्थिक नयके समान पर्यायार्थिक नय भी नैगम संग्रह तथा व्यवहारनय सिद्ध होता है और पर्यायार्थिक नय के समान द्रव्यार्थिकनय भी ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद तथा एवंभूतरूप सिद्ध होता है। स्वामी विद्यानन्द आदि किन्हीं २ आचार्योंने नैगमनयके तीनभेद स्वीकार किये हैं इयनैगमनय पर्याय नैगमन और इम्यपर्याय इसमें स्पष्ट मालूम होता है कि स्वामी विद्यानन्दी आदि आचार्योंके लिये ऋजुसूत्रादि चार नयोंके अतिरिक्त नैगम१] विशेषेण २८ २६८ 1 २- द्रव्यार्थी व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततो परः ॥ ३- यद्वा नैकं गमी योत्र स सतां नैगमो मतः । धर्मयार्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणः ॥ २१॥ स. २६६ धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्रव क्षणं स नैकंगमो नैगमः ॥ प्रमाणयनतत्वालांक ७-७ २६ नयको भी पर्यायार्थिक नय मानना अभीष्ट है और यह जैन ग्रन्थोंके उल्लिखित कथनको भ्रमपूर्ण माननेमें जबर्दस्त प्रमाण है । इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे किया जायगा । यहां पर एक बात और ध्यान में रखने लायक है कि जब शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयों को शब्दनय स्वीकार किया गया है तो शब्दनयत्यकी से इन्हें पर्यायार्थिकनय मानना की असंगत ही है कारण कि द्रव्य और पर्याय तथा निश्चय और व्यवहार आदि सभी अपने अपने रूप में एक प्रकारके अर्थ ही तो हैं. इस लिये इनका प्रतिपादन करने वाला कोई भी नय अर्थनय ही माना जायगा, शब्दनय नहीं । और यह बात बतलायी जा चुकी है कि अर्थनयके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजुसूत्र ये चार ही माने गये हैं। इस प्रकार द्रव्य अथवा पर्याय तथा निश्चय अथवा व्यवहार आदि विषयका प्रतिपादन करने की दृष्टिसे शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयाँका अंतर्भाव हमें यथायोग्य नैगम, संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चारों नयोंमें ही करना होगा । जैनधर्म में व्यवहारनयके भी सद्भूत व्यवहारनय, भ्रमद्भूत व्यवहारमय और उपचरितासद्भूत व्यवहारनय आदि भेद किये गये है परन्तु साथमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि सद्भूत असद्भूत और उपचरितासभूत आदि भेद प्राध्यामिकनयके भेद व्यवहारनयके ही होते हैं. अर्थनयके भेद व्यवहारनयके नहीं । श्राध्यात्मिकनयके भेद व्यवहारनय में इन भेत्रोंकी संभावनाका प्राभास पूर्व में किये ये आध्यात्मिकतय के विवेचनमें मिल जाता है बाकी अर्थनयके भेद व्यवहारनयमें इन भेद्रोंकी संभावनाका स्पष्टीकरण इस व्यवहारनयका विवेचन करते समय किया जायगा । इन सातों नयोंके स्वरूपके बारेमें श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें जो मान्यतायें पायी जाती हैं वे करीब करीब समान ही हैं । श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें खोज करनेका तो मुझे अवसर नहीं मिल सका है फिर भी दिगम्बर ग्रन्थोंके देखनेसे पता चलता है कि यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो उपलब्ध ग्रन्थोंमें से पूज्यपाद प्राचार्यकृत सर्वार्थसिद्धि प्रन्यमें ही सबसे पहिले इन सात नयोंके स्वरूपका संकलन किया गया है और तत्वार्यराजवार्तिक, तस्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमेषकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंमें उक सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थका ही प्रायः Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अनेकान्त [ वर्ष ६ अनुसरण किया गया है। प्रमाणनयतस्वालोक मामक अपनानेकी ही प्रेरणा करते हैं। तया स्वामीसमन्तभद्रने भी श्रेताम्बर प्रथमें भी इन सात नयोंके स्वरूपका संकलन भागमकी प्रमाणता अर्थात् सत्यताके लिये उसमें श्रोताके उक्त विगम्बर प्रन्धोंक अनुरूप ही किया गया है। परन्तु मैं अनुभव और तर्ककी अविरोधिताको कारण बताकर इसी अभी यह नहीं कह सकता हूं कि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों श्राशयको पुष्ट किया है। अजैन विद्वान म० कालीदासकीकी कितनी प्राचीन परम्पराका प्राधार मौजूद है। "पुराणांमत्येव न साधुमन चापि काव्यं नवमित्यवचम्। बहुत विचार करनेके बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ सन्तः परध्यान्यतरमजन्ते मूहःपरप्रत्ययनेयबुद्धिः।" किइन प्रन्यों में पाया जाने वाला उक्त सात नयाँके स्वरूप यह उin. उनकी नजरोमें द.शनिक पद्धतिके महत्वको का यह संकलन प्रायः दोषपूर्ण है। परन्तु किसी भी उत्तर प्रस्थापित कर रही है । सभी दर्शनकारोंकी भी मान्यता विद्वानकास और सच्य नहीं जानेका प्रधान कारण यह यही है कि प्रत्यक्ष सर्वप्रमाणसे बढ़कर प्रमाण है और है कि कि पूर्व पूर्वके विद्वान कालगणनाकी अपेक्षा भग वही अनुमान प्रमाण माना जा सकता है जो प्रत्यक्ष प्रमाण बान महावीरके. जिन्हें कि सर्वज्ञ स्वीकार किया गया है, का विरोधीन हो। अनुमानके बाद मागमकी प्रमाणताका निकटतर या निकटतम ठहरते हैं। इस लिये उनकी श्रुति नंबर माता अर्थात जो भागम प्रत्यक्ष और अनुमान और धारणाको जैन परम्परामें उत्तर उत्तरक विद्वानोंकी दोनोंका विरोधी न हो वही प्रमाण माना जा सकता है. अति और धारणाकी अपेक्षा अधिक सही और निर्दोष दूसरा नहीं। इसका मतलब यह हुश्रा कि अनुभव और माना गया है और यही सबब है कि उत्तर उत्तरके विद्वानों तर्कके द्वारा निीत बातके बारेमें 'भागममें यह बात है ने पूर्व पूर्वके विद्वानों की मान्यताचोंके संरक्षणका ही अधिक या नहीं? अथवा भागममें तो इससे विपरीत कथन मिलता ध्यान रखा है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि है।" इत्यादि प्रश्न उठाना व्यर्थ है। यदि अनुभव भीर जैनपरम्परामें तत्वमान्यताके बारेमें दो प्रकारकी पद्धतियों तर्कसे निति कोई बात भागममें नहीं पाई जाती है से काम लिया गया है-एक प्रागमिक पद्धति और दूसरी अथवा वहाँ पर वह अमुभव और तर्कके विरुद्ध प्रतिपादित दार्शनिक पद्धति । तस्वमान्यतामें प्राचीन परम्पराको आधार की गयी है तो दोनों ही हालतों में वह गलत नहीं ठहरायी मानना भागमिक पद्धति कहलाती है और प्राचीनताको जा सकती है. प्रत्युत ऐसी हालतमें वह भागम ही दोषपूर्ण महत्व न देते हुए अपने अनुभव और तर्कके आधार पर सिद्ध होता है। प्रस्तु, प्रकृतमें अब हमें इस बात पर तत्वनिर्णय करना दार्शनिक पद्धति समझना चाहिये । इन विचार करना है कि प्राचीन विद्वानोंने सात नयोंके स्वरूप : दोनों पद्धतियोंमेंसे प्रागमिक पद्धति उन लोगोंके लिये का जो संकलन किया है वह कहो तक अनुभव और तर्क के उपयोगी है जो स्वयं अपने अनुभव और तर्कके भाचारपर विरुद्ध है कि जिसके माधार पर उसे दोषपूर्ण माना जा परीक्षा-द्वारा तत्वनिर्णय करने में असमर्थ हैं। लेकिन जो सके। इस लिये अब हम सातों नयोंके स्वरूपपर मालोलोग अपने अनुभव और तर्कक आधार पर परीक्षा करके चनात्मक पद्धतिसे विस्तृत प्रकाश डालना आवश्यक तत्वनिर्णय कर सकते हैं उनके लिये प्रागमिक पद्धतिका समझते हैं। (क्रमश:) कुछ भी महत्व नहीं रह जाता है, ऐसे लोगों के लियं २ प्राप्तोपशमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ॥र० श्रा० श्लो दार्शनिक पद्धति ही श्रेयस्कर बतलायी गयी है। इस लिये स्वामी समन्तभद्रने इस श्लोक के द्वारा शास्त्रका लक्षण प्रागमिक पद्धतिकी अपेक्षा दार्शनिक पद्धतिको अपने पाप बतलाते हुए उसमें दृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और ए अर्थात् महत्वपूर्ण स्थान मिल जाता है और यही सबब है कि अनुमान की अविरोधिताको आवश्यक बतलाया है। शेताम्बर विद्वान् हरिभद्रसूरिवचन अर्थात् मागमकी माझताके बताक ३ न हि दृष्टाज्येष्ठ गरिष्ठमिष्टं, तदभावे प्रमाणान्तगप्रवृत्ते: लिये उसमें युक्तिमत्ताका समर्थन करके दार्शनिक पद्धतिको ' समागेपव्यवच्छेदविशेषाच xxx १-पक्षपातो न मे वारे न देषः कपिलादिषु । ४ 'श्रष्ठेष्टविरोधकम् । "शास्त्र' रत्नक.पा. युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ हरिभद्रसूरिः Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-वीर (ले०-बा. महावीरप्रमाद जैन. बी० ए० एल. एल. बी.) तारों की छायामें तड़के ही उठ, विजली जला, मिरको दुलकाये, विलासताकी गोदमें संज्ञा-हीन, मैं मेज पर पड़े सम्पादकजी के तीन-चार आग्रह-पूर्ण कर्तव्यम दूर, रंगरेलियों के समीप, ऊपर बतपर लगे पत्रों को देखने लगा। हर एक पत्रमें कहानी भेजने धीमे नीले वल्वकी विद्रूपसे भरी मुस्कराहटसे अनका तकाजा था । पर कहानी थी कहाँ ? बहुत दिमारा भिज्ञ, वर्ग ले रहे थे ! लड़ानेपर भी मुझे कोई साट नहीं सूझ रहा था । दो पूर्वाकाश एकदम लाल हो उठा था । सूर्य नित्य तीन सप्ताहसे यही कशमकश जारी थी । किन्तु जैस की भाँति अपने असंख्य हाथों में किरणों के हल लिये दिमाराका खेल बिलकुल बँजर पड़ा हो! आकाश-खेतको जोतने अग्रसर होरहा था। प्रकाश इस। धुन में लोटा ले मैं छतपर चढ़ गया । शौच- का वह किसान !! गृहसे निकल, यकायक मेरी दृष्टि पूर्वकी ओर आकाश पर जा पड़ी । मैं स्तब्ध, लोटा लिये ज्यों का त्यों उसी दिनकी दोपहरीखड़ा रह गया । आकाश चमक रहा था। सूर्यके प्रखर-प्रतापक आकाशपर कहीं कहीं कोई हल्का सा बादलका सामने अांखें नहीं उठाई जाती थीं। वह महा-विजेता टुकड़ा इधर उधर घूम रहा था । गहरा नीला तहखानों के बंद द्वारोंकी झीरियों तकसे प्रकाशकी आकाश। एक-दो फीकी मी हँसी हुमते हुये तारे । और पूर्व में उषाको गोदमें बाल-रवि मुषा और छुरियां घुसेड़कर अन्धकार-शत्रुका नाश कर रहा था। सौन्दर्य चारों ओर बखेरता हुआ शुभ-भाग्य की नाई प्रत्येक ओर व्यस्तता थी। पसीना था । धुन थी। उदय होरहा था। धुनमें मस्ती थी । सब लगे हुये थे । कोई नालीन था। ___ कानों में टुन-टुनकी प्यारी आवाज आई। नीचे फुर्ती पर चहल पहलके इस ज्वारक बीच हमारे सड़क परम बल खेतों की ओर जा रहे थे । तड़के संठजी दोपहरका कई गरि पदार्थोसे युक्त भोजन की गुलाची सका आनन्द लेता हुआ, गाढ़ेकी माटी करके, जिन्हें पचानेम सर्वथा असमर्थ मेदा लिये वह दोहरस निकले एक हाथमें हुक्का और दूसरे में बलों पाराम कुर्सी पर भारा-फ्रान्तस पसरे पड़े थे । सामने की रस्मी लिये किसान 'कँवर निहाल के सांगकी मेजपर रेडियो मधुर संगीतकी लहरें छोड़ रहा था। कड़ी धीमे २ गुनगुनाता हुषा, कर्तव्य-पथपर आरूढ किन्तु उनान्दे संठजीको उससे अधिक दिलचस्पी किन्तु कर्तव्यकी मजबूरीस दूर-प्रकृति । पुत्रकी नाई मालूम नहीं होती थी। स्वाभाविकतया अपने उपकार संसारपरबखेरने-श्रोस इस एक अपवादको लेकर, सूर्यका तेज-पूर्ण से भीगे मोटे मोटे सुगंधित ढेलोंका ध्यान मनमें प्रभुत्व और भी अधिक व्याप्त और भी प्रभावशाली लिये, खेतोंकी ओर बढ़ा चला जारहा था। जान पड़ने लगा । कर व्यका वह अग्रदूत संसारभरको मेरे घरसे थोड़ी दूर एक धनिक-परिवारकी कमे में प्रवृत्त कर, कर्म-क्षेत्रकी शिखापर पहुँच कर हवेली थी । उसकी दीवारोंके उसपार मुझे दिखाई पूर्णरूपेण चमक रहा था। दिया-सेठजी टाँगपर टाँग धरे, मुलायम तकियेपर Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अनेकान्त [वर्ष ६ पत्रीनका वर्णन पाया जाता है, वह संकट कालकी देन नहीं (Hymbol) या रत्नत्रयका सूचक है। जैन-यज्ञोपवीत में है; किन्तु जैनसंस्कृतिका अंग है। कारण, वह व्रतका चिन्ह जैनीदृष्टि निहित है। अतएव उसे जैनधर्मका श्रावश्यकभंग भी कहा गया है । यज्ञापत्रीत व्रतों के धारण का प्रत'क अंगीकार करना शास्त्रीय मर्यादाके अनुकूल कहना होगा। सम्पादकीय-विचारणा पं० सुमेरचन्द्रजी दिवाकर सिवनीका जैनागम और यज्ञोपवीत' नामका जो लेग्ब अनेकान्तकी इसी किरणमें प्रकाशित हो रहा है उस पर सम्पादकीय-विचारणा इस प्रकार है इस लेखमें विद्वान लेखकने भगवजिनमेन-प्रणीन विधिः। यत्र सम्यक्रवहानिर्न यत्र न वतदूषणम्" ऐसे ऐसे आदिपुराणके जिन वाक्योंको भागमप्रमाणाके रूपमें उपस्थित वाक्योंकी सृष्टि हुई है। प्रस्तु, यदि विद्वान लेखकको इस किया है वे विवादापा-कोटिमें स्थित हैं और इस लिये उस विषयमें दूमगेको चेलेंज करना इष्ट हो तो वे खुले तथा वक्त तक प्रमाणमें उपस्थित किये जानेके योग्य नहीं जब स्पष्ट शब्दोंमें चैलेंज करें, तभी दूसरे विद्वान उस पर तक विपक्षकी भोरसे यह कहा जाता है कि दक्षिणदेशकी गंभीरता तथा गहरे अनुसंधानके साथ विचार कर सकेंगे तत्कालीन परिस्थितिके वश मुख्यतः श्री जिनसेनाचार्यने और साथ ही भागम, भागममें मिश्रण तथा महावीरयज्ञोपवीत (जनेऊ) को अपनाकर उसे जैनाचाग्में दाखिल वाणीकी परंपरा इन सबके मर्मका उद्घाटन भी कर मकंगे। किया है--उनके समयसे पहले प्रायः ऐसा नहीं था और न कविवर पं. बनारसीदासजीके मर्धकथानक वाक्योंको दूसरे देशों में ही वह जैनाचारका कोई प्रावश्यक अंग उद्धृत करके जो कुछ कहा गया है और उसमें चारित्रसमझा जाता था। मोहनीयके उदय तककी कल्पना की गई। वह भी ऐसा श्रीमिनसेनाचार्यके विषय में दूसरे पक्ष कथनका ही कुछ अप्रासंगिक जान पड़ता है। अर्धकथानके उन उल्लेख करके जो यह कहा गया है कि- 'इस कथनके वाक्योंपरसे और चाहे कुछ फलित होता हो या न होता बारेमें क्या कहा जाय जो भगवत् जिनसेन जैसे महापुरुषकी हो पर इतना तो स्पष्ट है कि कविवर जनेउको विप्रवेषका बातको भी अपने पक्षविशेषके प्रेमवश उड़ादेनेका अद्भुत अंग समझते थे--जैनवेषका नहीं, और जिस देश (यू. तरीका अंगीकार करते हैं। वीतराग निस्पृह उदात्तचरित्र पी.) में वे रह रहे थे वहां जनेऊ विप्रसंस्कृतिका अंग महापुरुष अपनी ओरसे भागममें मिश्रण करके उसे महा- समझा जाता था--जैनसंस्कृतिका नहीं। तभी उन्होंने वीर-वाशीकी परम्परा कहें यह बात तो समझमें नहीं अपनेको बाक्षाण प्रकट करने के लिये जनेउको अपनाया था। . श्राती" इसे यदि लेखक महोदय न कहते तो ज्यादा अच्छा फिर उनकी कयनीके इस ध्रुव सत्यको यही धर उधर होता। क्योंकि इस प्रकारके अवसर पर ऐसी श्रद्धा-विषयक की बातों में कैसे उडाया जा सकता है? बातें कहना अप्रासंगिक जान पड़ता है और वह प्रायः विना मादिपुराणके वाक्योंको अलग कर देने पर लेखमें युक्तिके ही अपनी बातको मान लेनेकी भोर अपील करता केवल एक ही भागमप्रमाश विचारके लिये प्रवशिष्ट रह है। कमसे कम जिन विद्वानों ने जैनाचार्यों के शासन-भेदके जाता है भी यह है तिलोयपरणातीका वाक्य । इस वाक्य इतिहासका अध्ययन किया है वे तो ऐसा नहीं कहेंगे। में भोगभूमियोंके भाभरणोंका उल्लेख करते हुए 'ब्रह्मसूत्र' उन्हें तो इतिहासपरसे इस बातका अनुभव होना भी स्वा- नामका भी एक प्राभरणा (माभूषय)बतलामा है और वह भाविक है कि समय समय पर कितनी लौकिक-विधियों मकुट, कुयाल, हार. मेखमाथि जिन जेवक सापमें उजिको जैनाचारमें शामिल किया गया है और फिर बादको खित है उन्हींकी कोटिका कोई जेवर मालूम होता है, सूत उनके संरकणार्थ 'सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको के भागोंसे विधिपूर्वक बना हुमा यज्ञोपवीत (जनेऊ) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] सम्पादकीय-विचारणा ३०५ नहीं-भले ही ब्रह्मसूत्र यज्ञोपवीतको भी कहते हों, क्यों उनके शरीरपर जिनसेनके शब्दों में यज्ञोपवीत था" और कि भोगभूमियों में उपनवन अथवा यज्ञोपवीत संस्कार नहीं इसके द्वारा यह बतलाना चाहा है कि प्रतावरण-कियाके होता है। मोंगभूमियोंमें तो कोई मत भी नहीं होता और अवसर पर भरतने यज्ञोपवीत नहीं उतारा. वह कुछ संगत, यज्ञोपवीतको स्वयं जिनसेनाचार्यने तचिन्ह बतयाया है, मालुम नहीं होता। क्यों किस कथनसे पहले यह सिद्ध जैसा कि मादिपुराण (पर्व ३८.३.) निम्नवाक्योंसे होना भावश्यक है कि दिग्विजयको निकलनेसे पहले भरतका प्रकट है यज्ञोपवीत संस्कार हुमा था, जो सिद्ध नहीं है। जब यशो. "मतचिन्हं दधत्मत्रं .............. ............" पवीत संस्कार ही नहींहब भरतके प्रतावरणाकी बात ही कैसे "व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतीस्मि साम्प्रतम् ।" बन सकता है। जिनसेनने तो उक्त अवसर पर भी भरतके "वतचिन्हं भवेवस्थ सूत्र मंत्रपुरःसरम् ।" शरीर पर (प. २५-६६) दूसरे स्थानकी तरह उसीमाऐसी हालत में "केयूर महासूत्रं च तेषां शश्वविभूषणम्" सूत्र नामके भाभषयका उल्लेख किया है। (३-२०)स वाक्यके द्वारा जिनसेनापयंने भोगभूमियों इसके सिवाय, लेखकने व्रतावरण क्रियामें सार्वकालिक के आभूषणों में जिस ब्रह्मसूत्रका उल्लेख किया है वह बत- प्रत-नियमोंके अक्षुण्ण रहनेकी जो बात कही है वह तो चिन्ह वाला तथा मंत्रपुरस्सर दिया-लिया हुमा यज्ञोपवीत ठीक, परन्तु उन प्रतनियोंमें यज्ञोपवीतकी गयाना नहीं नहीं हो सकता। वह तो भूषणा जातिके कल्पवों द्वारा है--उनमें मधुमासादिके त्यागरूप केही त परिगृहीत है दिया हुमा एक प्रकारका भाभूषण है-जेवर है। जो गृहस्थश्रावकोंके (भष्ट) मूखगुण कहलाते हैं. जैसा कि भगवान ऋषभदेव और भरतेश्वरके आभूषणोंका वर्णन जिनसेनके ही निम्मवाक्यों से प्रकट है:करने वाले श्रीजिनसेनके जिन वाक्योंको लेखमें उरत "यावद्विचासमाप्तिः स्यात्तावदस्येशं व्रतम् । किया गया है उनमें भी जिस मसूत्रका उल्लेख है वह ततोऽप्यूचं व्रतं तस्याचन्मूलं गृहमेधिनाम्" ॥ १८ ॥ भी उसी प्राकार-प्रकारका जबर है जिसे भोगभूमिया लोग "मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बर - वर्जनम् । । पहनते थे। श्रीकृषभदेवके पिता और भरतेश्वरके पितामह हिंसाविषिरहिवास्य व्रतं स्यात्सार्वकालिकम्"। १२३॥ नाभिराप भोगभमिया ही थे-कर्मभूमिका प्रारम्भ यहाँ ऐसी हालतमें लेखक महोदयने उन सार्वकालिक व्रतों वृषभदेवमे हुमा। भवृषभदेव और भरतचक्रीके यज्ञो- में यज्ञोपवीतकी कैसे और किस आधारपर गणना करती पवीत संस्कारका तो कोई वर्णन भगवजिनसेनके आदि- वह कुछ समझ में नहीं पाता!! दूसरोंकी मान्यताको प्रमपुराणमें भी नहींी।भाविपुराण कथनानुसार भरतश्चक्रवर्ती पूर्ण बतखाने में तो कोई प्रबल माधार होना चाहिये. ऐसे ने दिग्विजयादिके अनन्तर जब वृषभदेवकी वर्शभ्यवस्थासे कल्पित भाचारोंसे तो काम नहीं चल सकता। भित्र प्रामण पर्वकी नई स्थापना की तबसे प्रतचिन्हके इस तरह जिनसेनके जिन वाक्योंको लेखमें भागमरूपमें यज्ञोपवीतकी सृष्टि हां। ऐसी हालत बतावतरण- प्रमाणरूपसे उदृत किया गया वे विचारकी हसरी रति विषयक मान्यताको भ्रमपूर्ण बतलाते हुए विद्वान लेखकने से भी प्रयास है. और इस लिये उनसे लेखककी हर-सिदि जो यह लिखा है कि "भरतमहाराजमे गृहस्थका पद स्वी- प्रयवा उनके प्रतिपाच विषयका समर्थन नहीं होता। कार करके जब दिग्विजयके लिये प्रस्थान किया था तब भी त्रिलोकप्रज्ञप्तिका प्रमाण भी प्रकृत विषयके समर्थन में असमर्थ है। उन्हें तो इसके लिये ऐसे प्रमाणोंको उपस्थित *इसीसे भ० वृषभदेवके श्राभूषणोका वर्णन करते हुए यह करना चाहिये था जिनका यज्ञोपवीत संस्कारके साथ सीधाभी लिखा है कि उन श्राभूषणोंसे वे भूषणाक कलावृक्षके स्पष्ट सम्बन्ध हो और जो भावजिनसेनसे पूर्व साहित्यमें समान शोभते थे पाये जाते हो। इति प्रत्यङ्गसकिन्या बभौ भूषणसम्पदा । विपक्षकी भोरसे यह कहा जाता है कि उक्त जिनसेन भगवानादिमो ब्रह्मा भूपणाजवाधिपः ॥१६-२३८ से पहले बने हुए 'पचपुराणमें श्रीरविषेणाचार्यने गावाबों Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ अनेकान्त [ वर्षे ६ को 'सूत्रकबठा:-- गले में सागा दाखने वाले-जैसे उपहा मूलाचार, कुन्दकुन्दाचार्यका प्रवचनसार तथा चारितसास्पद या हिकार शब्दों में उल्लेखित किया है। यदि उस पाहुबादिक, स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार, समय तक जैनियों में जनेऊका रिवाज हुआ होता अथवा उमास्वामीका तत्वार्यसूत्र, शिवार्यकी भगवती अराधना, बहनसंस्कृतिका अंग होता तो श्रीरविषेण माझोंके लिये पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धि, अकलंकदेवका तत्वार्थराजवासिक ऐसे हीन पदोंका प्रयोग न करते, जिससे जनेउकी प्रथा और विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक, ये ग्रंथ खास तौरसे अथवा जनेऊ-चारकोंका ही उपहास होता हो। इसके उत्तर उस्लेखनीय है। इनमें कहीं भी मुनिधर्म अथवा श्रावकमें विद्वान लेखकने अपने लेखमें कुछ नहीं लिखा और न धर्मके धारकोंके लिये प्रतादिकी तरह यज्ञोपवीतकी कोई रविषेणाचार्यसे भी पूर्वके किसी जैनागममें यज्ञोपवीत विधि व्यवस्था नहीं है। श्रीरविषेण पमपुराण और द्वि. संस्कारके स्पष्ट विधानका कोई उल्लेखही उपस्थित किया है। जिनसेनके हरिवंशपुराणमें सैंकड़ों जैनियोंकी कथाएँ है उनमें लेखके अन्तमें यज्ञोपवीतको "जैनसंस्कृति और जैन- से किसीके यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत होनेका उल्लेख धर्मका प्रावश्यक अंग" बतखाया है। लेकिन वास्तवमें तक भी नहीं है। ऐसी हालत में यज्ञोपवीतको जैनधर्मका यज्ञोपवीत यदि जैनसंस्कृति और जैनधर्मका भावश्यक कोई आवश्यक अंग नहीं कहा जा सकता और न वह अंग होता तो कमसे कम जैनधर्मके उन पाचारादि-विषयक जैनसंस्कृतिका ही कोई आवश्यक अंग जान पड़ता। प्राचीन ग्रंथों में उसका विधान जरूर होता जो उक्त जिन- वीरसेवामन्दिर, सरसावा सेनाचार्यसे पहलेके बने हुए है। ऐसे प्रन्यों में श्रीवट्टकरका ना.१२-४-१९४४ गोत्र-विचार (लेखक-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) >>ee[गतकिरण नं. ८ मे आगे] (३) मनुष्योंके भेदों में गोत्रविभाग __'नेक्ष्वाकुकुलाछुत्पत्ती, काल्पनिकानां तेषां परमाअवता प्रकृति अनुयोगदारका उग्य देकर यह तो र्थतऽमत्वान , द्विब्राह्मणमाधुष्वपि उकगोत्रस्योहम पहले ही बतला भाये हैं कि जो साधुमाचार वाले दयदर्शनान् ।' मार्च मनुष्य है या जिन्होंने इनसे पूरी तरहसे मामाजिक ___इक्ष्वाकुलादिकी उत्पत्तिमें उस गोत्रका व्यापार नहीं सम्बन्ध स्थापित करके मार्यत्व प्राप्त कर लिया है उनके होता, क्योंकि वेषवाकुमादि फल काल्पनिक है वास्तव उच्च गोत्र होता है। इससे यह भी निष्कर्ष निकम में वे नहीं हैं। दूसरे वैश्य, प्राक्षण और साधुनों में भी भाता कि जो भार्य साधुमाचार वाले नहीं उनका उपच गोत्रका उदय देखा जाता। तथा म्लेच्छोंका मीच गोत्र होता । भन यहाँ इसका यद्यपि यह वाक्य गोत्रकर्मक विचारके समय पूर्वपक्ष विचार करना है कि शिक्षायोग्य साधुनाचार वाले कौनसे रूपमें पाया है पर इससे इतना तो पता चल ही जाता है मार्य पुल्प माने गये है। इस प्रमके निर्णयके लिये हम कि नब गोत्रका उदय माझया, पत्रिय, वैश्य और साधुचों पाठकोंका ध्यान अपना प्रकृतिमनुयोगद्वारके निम्न वाक्यांश में माना गया है। अतः इससे यह निष्कर्ष सहनही निकाला की ओर खींचते है जा सकता है कि इनके अतिरिक्त जो समाज विद्या Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] गोत्रविचार नाचगामवृत्ति, शिल्पपत्ति और सेवावृत्ति प्राधारसे बाँकी अलग अलग व्यवस्था नहीं की। अब रह गई गुणानिर्मित हुई, जिसब कहते हैं ये मार्य होते हुए भी स्थानों की बात सो जब तक म्लेच्छ मनुष्य भार्य हो सकता नीचगोत्री होते हैं। हो उसे मायके संसर्गसे सम्बरि भादि गुणस्थानों इस उपर्युक्त कथनका यह सारांश है कि शूद्र भार्य प्रास करने में कौनसी बाधा मासकसीत कोई नहीं। और म्लेच्छ ये नीचगोत्री होते हैं और शेष भार्य उचगांत्री दूसरे प्रश्नका निर्णय करना थोका कठिन है। उसमें होते हैं। किसी भी प्रकारके नर्कको भाश्रय देना हर नहीं । सम्भव __ यहाँ दो महत्व प्रश्न उपस्थित होते हैं। जो निम्न अनुसन्धानसे कभी इसपर अधिक प्रकाश गक्षा जा सके। प्रकार है-- (४) एक भषमें गोत्रपरिवर्तन होता है। (1) जब सभी म्लेच्छोंके नीचगोत्रका उदय रहता है तो पर्यास मनुष्यके सामान्यसे जो १.२ प्रकृतियो उदय गोत्रपरिषर्तनके विषयमें हम कुछ युक्तियों इसके योग्य पतलाई है उनमेंसे एक उच्चगोत्र कम होकर इनके पहले पालम प्रमाण उपस्थित कर देना चाहते हैं। एकसी एक प्रकृतियाँ ही उदययोग्य होगी। और यदि यह प्रमाण धवला उदीरणा-अनुबोगद्वारके है। ठीक है तो इनकी उदयादि व्यवस्थाका कथन अक्षगसे क्यों 'अजसकित्तिदुम्भगमणादेजणीचागोदारणं उक्कनहीं किया। इसी प्रकार इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही स्सपदेसउदीग्त्री को होदि ? सबबिसुद्धो असंजद सम्माइट्ठी से काले संजमं पडिबिहिदि त्ति'। कहना था? (२) उदयादिका कथन करते समय कुभोगभूमियों के अयशाकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी मनुष्योंका किनमें अन्तर्भाव किया है। भोगभूमिके मनुष्यों जस्कृष्ट प्रदेश उदीरा किसके होती? बोतदनन्तर में या पर्याप्त मनुष्यों में कहीं भी अन्तर्भाव करनेपर बाधा समयमें संयमको प्राप्त होगा ऐसे सर्ववियुव असंयतसम्य पातीहै? यदि भोगभूमिके मनुष्यों में अन्तर्भाव किया गरष्टिक होती है। जाता है तो उनके उच्चगोत्रके उदपकी प्राप्ति होती है और ___ पाठक कर्मकाण्डके उदय-प्रकरणको देखकर जाम यदि पर्यास मनुष्यों में अन्तर्भाव किया जाता है तो भी सकते हैं कि इन चार प्रकृतियों में से प्रारम्भकी तीन प्रकृतियों जिस प्रकार म्लेच्छोंके निमित्तसे दोष दे पाये हैउसीप्रकार की चौथे गुणस्थानके अन्तमें और नीचगोत्रकी पाँच गुणयहां भी दोष उत्पन होते हैं? स्थानके अन्त में उदय या उदीरणा म्युच्छित्ति होती है। अब ये दोनों प्रश्न महत्व है यह बात स्वीकार कर लेने में को संयल्सम्यगाष्टिीच, जिसके चार प्रकृरियोंका हमें कोई भापति नहीं प्रतीत होती है। पर पहले प्रश्नका उदय हो रहा है. सकल संयमको स्वीकार करे तो उसके इनके समाधान हो सकता है जो निम्न प्रकार है-- म्यानमें यश:कीर्ति, सुभग, प्रादेय और उचगोत्रका उदय बात यह है कि मनुष्यों के प्रार्य और म्लेच्छ भेद हो जायगा ! इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक भवमें गोत्रसामाजिक परम्पपासे सम्बन्ध रखते हैं। कुत्ता और विही में बम्ध रखते हैं। कुत्ता और विकीमें परिवर्तन होता है। जिस प्रकार तिर्यक होते हुए भी जातिगत भेद है उस 'गीचागोदस्स जहा एगममयो उपचागोदादो प्रकार भार्य और म्लेच्छ मनुष्यों में नहीं । त्रिकालमें भी णीचागोदं गंतूणबत्थ एगसमयच्छिय बिदियसमय कुत्ता विही नहीं हो सकता और विही कुत्ता नहीं । पर उच्चागोदे उदयमागदेण्गममनो लम्भदे । उनका असंमनुष्योंकी ऐसी बात नहीं है । जो भाज म्लेड है वह खेज्जा पोग्गलपरियट्टा। उचागोदस्म जह० एगसमझो। अपने संस्कार्ग और परम्पराको बोरकर कालान्तरमें उत्तर-मरीरं विग्विय एगममाण मुदस्स तदुवलम्मामार्य हो सकता है। जो भार्य है वह उसी प्रकार म्लेच्छ दो। एवंणीचागोदरम वि उक्क सागरोवमसदपुधत्तं'। हो सकता है। यही सब है कि करणानुयोगमें मनुष्यों में नीचगोत्रकी उदीरणाका जघन्यकाल एक समय है। प्रकृतियोंका उदय बतलाते हुए इनमें उदय-योग्य प्रकृति कोई जीव उचगोत्रमे नीचगोत्रमें गया और वहां एक Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ अनेकान्त [वर्ष ६ समय तक रहा। पुनः दूसरे समयमें उसके उच्चगोत्र उदय 'गोउत्तमस्म देवा' सि उच्चागोयस सम्वे में माजाने पर मीचगोत्रकी उदीरणाका एक समय प्राप्त देवा उदीरगा । 'णराय' त्ति मणुयाण वि कोति उचाहोता है। तथा नीचगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्टकाल असं. गोयं उदीरति । 'वइणो' य त्ति जो वि पीजाति तो ज्यात पुगपरिवर्तन है। उचगोत्रकी उदीरणाका यती सो वि उपचागोयं उदीरेति । टीका जघन्यकाल एक समय है। जैसे किसीने उत्तर शरीरकी इसका भाव यह है कि सब देव उच्चगोत्रकी उदीरणा विक्रिया की और वहां एक समय रह कर मर गया तो करते हैं। मनुष्यों में कोई उच्चगोत्रकी उदीरणा करते हैं। उसके उचगोत्रकी वीरणाका एक समय काल पाया तथा जो नीच जातिसे प्राकर वती होता है वह भी उच्चजाता है। इसी प्रकार नीचगोत्रकी अपेक्षा भी एक समय गोत्रकी उदीरणा करता है। आनना चाहिये । उचगोत्रका उत्कृष्टकात सौ पृथक्श्व- सौभाग्यकी बात है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर परंसागर है। इससे भी यही निश्रित होता है कि एक भवर्म परामें कर्मविषयक साहित्य प्रायः समानरूपसे चला था गोत्रका परिवर्तन पाया जाता है रहा है। ऊपर जो कर्मप्रकृतिका उदाहरण उपस्थित किया 'उच्चाणीचागोदाणं जह० एगसमभो । उक्क० है उससे धवलाकी मान्यताकी ही पुष्टि होती है। धवला णोचागोदस्स सागरोवमसदपुधत्तं । उचागोदस्स पुदी का जो सबसे पहला उद्धरण हमने उपस्थित किया है उस रणंतरमुक्क० असंखे० पो० परियट्टा । से भी यही सिद्ध होता है कि एक नीचगोत्री जीव सकल संयमी हो जाता है। पर जिस समय उसके संयमकी प्रासि उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी उदीरणाका अघन्य अन्तर होती है उस समय उसका गोत्र. बदल जाता है और नीच एक समय है। नीचगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर सौ गोत्रके स्थानमें उच्चगोत्रका उदय होने लगता है। कर्मपृथक्त्वसागर और उबगोत्रकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिके उक्त उद्धरणसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। किसी एक उच्च गोत्र परिवर्तनके इतने उल्लेखों की रोशनी में अब हम गोत्रीके एक समय तक नीचमीत्रका उदय होकर पुनः युक्तिसं भी यह सिद्ध कर देना चाहते हैं कि एक पर्यायमें दूसरे समयमें उच्चगोत्रका उदय हो गया तो उसके उच्च गोत्र बदल जाता है। पर यह नियम केवल कर्मभूमिके गोत्रकी उदीरखाका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हुआ। मनुष्यों में ही लागू होता है, अन्यके नहीं। अन्य जीवोंके यही बात नीच गोत्रके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये। अपनी अपनो गतिक अनुसार नीधगोत्र और उच्चगोत्रका इससे भी यही निश्रित होता है कि एक भवमें गोत्र उदय निश्चित है। केवल कर्मभूमिके मनुष्य ही ऐसे हैं जहां परिवर्तन होता है। यहाँ जघन्य और उत्कृष्टकॉल या विकल्पसे दोनों गोत्रोंका उदसम्भव है। इसका भी अन्तर ही कहा? मध्यमकान या अन्तर दो समयसे लेकर कारण है और वह यह कि जिस प्रकार अन्य गतियों में या एक समय कम उत्कृष्टकाल या अन्तर तक मध्यके जिसने भोगभूमिके मनुष्यों में उनकी वृत्ति निश्चित है उसमें कभी समय हो उतने विकल्परूप होता है। इससे यह भी भी बदल नहीं होती। कर्मभूमिके मनुष्योंकी यह बात निश्चित हो जाता है कि जिसने एक पर्याय में गोत्रपरिवर्तन नहीं। ये परिस्थितिके अनुसार अपनी वृत्ति बदलते रहते किया उसे पुन: अपने पूर्व गोत्र पर मानेका उस पर्याय हैं और उसके अनुसार उनके नीच-उप-भेदगत अनेक सम्भव है मौका न मिले या पूर्व संस्कारोंके जोर मारने प्रकारके परिणाम भी होते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि पर वह पुनः अपनी पहलेकी स्थिति में पहुंच जाय । सामाजिक व्यवस्थाके अनुसार हम व्यक्तिगत परिणामोंकी इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें भी गोत्र-परिवर्तनका ओर ध्यान न दें। पर गोत्रका जहां तक व्यक्तिगत सम्बन्ध उल्लेख मिलता है। यथा है वहां तक व्यक्तिकी गोत्रकानुसार होने वाली विविध 'गोउत्तमस्स देवाणरा य वइणो चउराहमियरामि। दशानोंको कौन रोक सकता है? यही सबब है कि इन -कर्मप्रकृति १७ । परिणामों के प्राचारसे दोगोत्रोंको शह भेदों में बांट दिया - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण गोत्र-विचार उच्चुरुच उकच तह उकापणीचणीचुकच गीचणीचं च। हो सकता है. इसमें कोई बाधा नहीं है। केवल इतनी जस्पादयेण भावा णोचुच्च विरग्निश्री तस्म। विशेषता है क संबमको प्राप्त होनेवालेके नीचगोत्रका यह उद्धरण भरला टीका खुद्दाबन्धका है। इसका उदय नहीं रहता उसके नियमसे उच्चगोत्रका उदय हो जाता यह भावहै कि जिपके उश्यये उचउ च. उचनीच, है। तथा किसी मनुष्य देशसंयमके होनेपर भी नीचगोत्र नीच रच, नीच और नोचनीच भाव होता है उस गोत्र- न रह कर उच्चगोत्र हो जाता है। इससे विदित होता है कर्मक प्रभाव होने पर मिल जीव नीच और उच्च भावसे कि एक भवमें गोत्रपरिवर्तन होता है। रहित होते हैं। (३) यतिवृषभ भाचार्यने अपने चूर्णिसूत्रोंमें अकर्मभूमिया (२) धवलाके उदय और उदारणा अनुयोगद्वारमें मनुष्यके सकल संयमका निर्देश किया है। प्रकर्मभूमियां लिखा है कि नीचगोत्र केवल भवप्रत्यय है और उच्चमोत्र मनुष्य पांच साल म्लेच्छोंको छोड़कर और कोई नहीं। गुणस्थान प्रतिपच जीवों में परिणामप्रत्यय और भवप्रत्यय पर इनके वीरसेन स्वामी द्वारा की गई उपचगोत्रकी म्या धोनों प्रकारका और गुणप्रतिपक्ष जीवमि केवल भव- सपा अनसार नीचगोत्र होता है। और यह अपर पतला मस्पयो। यहाँ परिणामोंसे देशसंयम और सकलसंयमका पाये है कि सकल संयमीके नीचगोत्र नहीं होता। इससे ग्रहण किया है। इसमें साता और असाताको भवप्रत्यय भीयही निष्कर्ष निकलता है कि एक भवमें गोत्र बदलता है। बतलाया है। यथा इस प्रकार हमने गोत्रविचार शीर्षक चार अवान्तर ___xxxणीचागोदागामुदीरणा एयंतभवपच्चइया। विभागों द्वारा गोत्रका विचार किया है। इसमें हमने अभी xxx उचागोदाणमुदीरगा गुगपरिवरणसु परिगणा- चरणानुयोग और करणानुयोगके पायंग्य दिखानेका चल मपकचइया । अगुणपडिवएणेस भव.कचाइया । को पुण नहीं किया है। पचपि उसके बिना यह खेल अभी अधूरा गुणो मंजमो संजमासंजमो बा । ही है। पर हम सोचते है कि इस पर अनुकूल और प्रतिकूल भाशय यह है कि जिस प्रकार अहो साता और असाता विचार होजाने के बाद जो प्रमेय निष्पन्न हो उनके माधारसे दोनोंका उदय सम्भव है वहाँ सातासे असाताके होने में और इस विषयका एक व्यवस्थित निबन्ध तैयार किया जाय जो भसातासे असाताके होने में वह भव ही मुख्य कारण है। सर्वबाके लिये उपयोगी होगा। इस लिये हम इतना ही उसी प्रकार नीचगोत्र और उच्च गोत्रके उदय और उदीरणा लिखकर वर्तमान में इस लेख को समाप्त कर रहे हैं। केविषयमें जानना। यह हम पर ही बतखा भाये कि भाशा है दूसरे विद्वान् तस्वमीमांसाकी ष्टिसे सप्रमाण कर्मभूमि मनुष्य ही ऐसे हैं जहाँ एक पर्याय में दोनों का उदय अपने विचार व्यक्त करनेकी का करेंगे। __ कला-प्रदर्शनीकी उपयोगिता [भारतीय मित्रपरिषद्के प्रथमाधिवेशनमें 'कक्षा-प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए श्रीनगरचन्दजी नाहटाबीकानेरका भाषण] सबसे पहिले मैं अपने सम्बन्धमें यह स्पष्टीकरण कलाका उद्गमकर देना उचित समझता हूँ कि मैं न तो कोई कला- कलाका विवेचन करने के पूर्व मवसे पहिले हमें विद् विद्वान और न वक्ता ही हूँ। अतः कलाके विषय कलाके उद्गमके सम्बन्धमें विचार करना भावश्यक में मेरी जानकारी सीमित है इम लिए इस सम्बन्धमें क्योंकि जहां तक हम किसी भी वस्तुको उत्पत्ति किस आप लोगोंको मेरेसे कोई नई बात प्राप्त करनेकी परिस्थितिमें किनके द्वारा और किन साधनोंसे हुई श्राशा नहीं रखनी चाहिये कलाविशारदों व विषेशज्ञों यह न जानलें तब तक हम उसके सम्बन्धमें अन्य के लिए मेरा अनधिकार वक्तव्य सतव्य है। पाप विचार करने में अपूर्ण रहेंगे। न-परम्पराके अनुसार लोगोंने स्नेहवश प्रस्तुत कला-प्रदर्शनीके उद्घाटनका कलाका सर्वप्रथम उद्गम इस अवसर्पिणीकालमें प्रथम भार मुझे सौंपा है इस लिए अपने एतद् विषयक तीर्थंकर श्रीऋषभदेव भगवानसे हुमा। उनके पूर्व विचारोंको संक्षेपसे प्रकट करता हूँ यहां युगलिक लोग रहते थे जोकि अपना निर्वाह Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. अनकान्त [ वर्ष ३ प्रकृति या देवप्रदत्त वस्तुभोंसे करते थे । जैनागमों में कला और दूसरी ललित कला । इनसे जीवन-यापन कहा है कि उनके मनोरथ कल्पवृक्षों के द्वारा पूर्ण होते में आवश्यक विविध काकी उपयोगी कला और ये। कालप्रभावसे कल्पवृक्ष कृपण हो गए और युग- सौन्दर्य प्रधान कलाको ललित कला कहा जाता है। लियोंकी आकांक्षाएँ बढ़ने लगी उस समय भगवान ललित कलामें प्रधानतया साहित्य, काव्य. संगीत, ऋषभदेव अवतरित हुए और उन्होंने आवश्यक नृत्य, चित्र, मूर्ति बास्तु आदिका आकर्षक और सुचारु ममझ कर पुरुषों की ७२ कलाएँ और खियोंकी ६४ निर्माण माना जाता है । कलाके कुछ प्रकागेको शिल्प कलाएँ लोगोंको बतलाई। एवं कारीगरीके नामसे भी कहा जाता है समवायाज कलाकी व्यापकता सूत्रके ७२ वें समवायमें व राजप्रश्नीयोपाङ्गक दृढ प्रतिज्ञकी शिक्षाके प्रकरणमें पुरुषकी ७२ कलाओं एवं इन ७२ एवं ३४ कलाके भेदोंपर ध्यान देनसे जम्यूद्वीप प्रज्ञप्तिकी टीकामें स्त्रियोंकी ६४ कलाओंकी हमें कलाके तत्कालीन व्यापक अर्थ-भावका बोध नामावली पाई जाती है। इसी प्रकार जैनंतर कामसूत्र होता है। आजकल हम कला, शिल्प, साहित्य एवं संस्कृतिरूप भिन्न-भिन्न नामोंका भिन्न-भिन्न अर्थ में के विद्या ममुद्देश प्रकरणमें ६४ कलाओंकी तालिका प्रयोग करते हैं किन्तु तब ये बातें कलाक हीअन्तर्गत उपलब्ध है। ये कलाके विशेष प्रकार हैं। मानी जाती थी, क्योंकि ७२ एवं ६४ कलाओं में वेद, कलाकी उपयोगितास्मृति, पुराण, इतिहास, तके, ज्यातिष, छंद, अलङ्कार कला जब कि मानवी सृष्टिका ही उपनाम है इम व्याकरण, काव्यादि साहित्यका नाम आता है। इसी का उपयोग जीवनके पल पलमें होता है, क्योंकि प्रकार रंधन, खांडन, शिल्प एवं नित्योपयोगी कार्यों मनुष्य प्रतिसमय कुछ न कुछ सृष्टि करता ही रहता को कलामें माना गया है। विश्व में जितनी भी वस्तुएं है चाहे वह बोलनके रुपमें हो, लिरूने के रूप में हो, एवं कार्य हैं वे दो प्रकारक हैं एक प्रकृतिजन्य और रांधन या किसी वस्तुके निर्माण रूपमें हो। इसी लिए दूसरे मनुष्यादि प्राणीके सर्जित। इनमें से कलाका कलाके बिना जीवन-यापन दुष्वार है । अतः कला व्यापक अर्थ है मनुष्यकी कृति, जिसमें सत्यं, शिवं, की उपयोगिताके विषय में विशेष कुछ कहने की सुन्दरम् तीनोंका समावेश होता है, पर वर्तमानमें आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। साधारणतया इनमें से सुन्दरको ही कलाका वाचक कलाके उत्कर्षमें जैनोंकास्थानएवं द्योतक समझा जाता है। व्यापक अर्थमें विश्वमें जैनसमाज सदासे ही कलाका प्रेमी और उसके जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला उत्कर्षमें प्रगतिशील रहा है। उनके ग्रंथ-लेखनकी भी है, फिर चाहे वह साहित्य हो, शिल्प हो या ललित एक कला है जो दूसरोंसे अपनी खास विशेषता रखती कला हो। इसी लिए महात्मा गाँधी आदि मनाषियों है। अक्षरोंकी सुन्दरता, त्रिपाठ, पंच पाठ, स्वर्णने कहा है कि कला विहीन जावन पशुके समान है। रौप्यायाक्षरी, लिखते हुए स्थान रिक्त छोड़ कर स्व'गाँधीजीका कथन है कि कर्म में कुशलताका नाम कला स्तिक, वृक्ष, नाम आदि विविधरूपमें कलाप्रदर्शन है "कला कर्मसु कौशल्यं" गीतामें कर्ममें कौशलको जैनलिखित प्रतियोंकी खास विशेषता है। इसी प्रकार योग कहा है, यही सम्पूर्ण कला है। सच्ची कला सदा चित्रकलाके संरक्षण और अभिवर्द्धनमें जैन समाजका सरस होती है, इसके बिना जीवन निस्सार एवं नीरस है। बहुत बड़ा हाथ है। जैन चित्रकलाको छोरनेसे भारत के चित्र कलाका इतिहास तैयार हो ही नहीं सकता। कलाके प्रकार कुछ भित्तिचित्रोंको छोड़ कर कपड़े, साड़पत्र एवं काष्ट कलाके भेद मुख्यतः दो माने जाते हैं एक उपयोगी पर भालेखित प्राचीन चित्र जैनसमाजको छोड़कर Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरण] कला-प्रदर्शनीकी उपयोगिता ३१२ एठसेक पोरवात्य जिनकी स्थानिके जैन बहुत कम मिलेंगे। जैसलमेर एवं पाटणके भण्डारों इसलिए ऐमी प्रदशिनीयें जिनमें शिविध संग्रहालयों के में कई ताडपत्रीय प्रतियों में सुन्दर चित्र पाये जाते विभिन्न कला उपादानोंका एकत्रीकरण होता है बहुत हैं। जिनका रंग इतना ताजा है कि आजके से बने ही आवश्यक एवं उपयोगी सिद्ध होती है। भारत हुए प्रतीत होते हैं। जैसलमेरके पंचायती भंडारक मरकारने इनकी उपयोगिता अनुभव करके ही स्थान दो काष्ट फलक पर आलेखित चित्रोंकी चमकको देख स्थानपर संग्रहालय (म्यूजियमा स्थापित किये हैं जिन कर हम दंग रह गये। इसी प्रकार इसके पीछेके के महत्वके सम्बन्ध में कभी दो मत नहीं हो सकते। चित्रितग्रंथ, जिनमें कई बेलबूटे कई सुन्दर चित्रोंमें लंदन, कलकत्ता आदिके म्यूजियम दर्शकों के लिए ही अपनी सानी नहीं रखते, जैन ज्ञान भंडागेंमें सुरक्षित नहीं किन्तु पुरातत्त्व-अन्वेषण की दृष्टिसे भी अजोड़ हैं। अहमदाबादकी एक सचित्र कल्पसूत्रकी प्रतिका माने जाते हैं। सिक्कों एवं शिलालेखोंका संग्रह इतिहास मूल्य लाख रुपयेसे भी अधिक माँका गया है। के प्रसिद्ध उपादान हैं। चित्रकला, मूर्तिकलाके इतिहास शिल्प एवं मूर्ति निर्माण कलामें तो जैनोंने अरबों निर्माण में भी इन संग्रहालयोंका अत्यन्त महत्व है। स्वरबों रुपये व्यय किए हैं। जिनके प्रमाण स्वरूप इन प्रदर्शनीयोंने अनेक कलाकारोंको उत्पन्न किया, श्रारासगण, राणकपुर, देवगढ़ इत्यादिके जैन मन्दिर प्रोत्साहन दिया एवं अनेकों सहदय व्यक्तियों के आजभी विद्यमान है। जिनकी सूक्ष्म कलाकी प्रशंसा हृदयमें कलाका प्रेम एवं महत्व स्थापित किया है। शतशः पौरवात्य एवं पाश्चात्य विद्वानोंने मुक्तक- इस प्रदर्शनी में हमारे संग्रहकी बहुतसी वस्तुएँ आपके अवलोकनमें आएंगी, उनके संबहकी अभिरुचि भी कलाप्रदर्शनीकी उपयोगिता मरे हृदयमें ऐसे ही एक कला भवन को देखकर हुई मेरे खयालसे कलाप्रदर्दनीका प्रमुख प्रयोजन है थी उसकलाभवनके संग्रहकारकलाविद् अनन्य संग्राहक कलाकी ओर जनसाधारणका ध्यान आकृष्ट कर अभि स्वर्गीय वाय पूरणचन्दजी नाहर थे। इस कलाभवनकी वस्तुओंका उन्होंने स्वयं हमारे साथ चलकर कई बार रुचि उत्पन्न करना और कलाकारोंको प्रोत्माहन देना। सूक्षम परिचय दिया था तभी से हमारे हृदय मानममें अतएव कलाप्रदर्शनी एक महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य है । सौन्दर्य प्रधान एवं कलापूर्ण अनेक आकर्षक तदत कलापूर्ण वस्तुओं के संग्रहका भाव हिलोरें मारने लगा और उसीका यह थोड़ासा मूर्तरूप भाप लोगों के वस्तुएँ यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं उनका दर्शन एवं महत्व मन्मुख है। इसी प्रकार जैन कलाप्रेमी श्रीयुत् साराभाई को जानने में जनसाधारण समर्थ नहीं होता अतः वे नबाबको अपने चित्रकलपद्रम' ग्रंथके प्रकाशनकी चीजें संग्राहक या मालिकके स्वान्तःसुखायके रूपमें प्रेरणा अहमदाबादके देशविरति धर्माराधक समाज ही पड़ी रहती हैं। जनताकी रुचि तो उन विविध की प्रदर्शिनीके संयोजक बननेसे मिली थी।बीकानेरमें स्थानों में पड़ी हुई चीजोंको एक जगह उचित सजावट के कलापूर्ण वस्तुभोंकी बहुतायत है समयाभावसे प्रस्तुत साथ रखी जाने परहीमाकृष्ट हो सकती है। व्यक्तिगत प्रदर्शनी में उनका संग्रह बहुत ही कम हुया है इसलिए संग्रह किनके पास क्या है? हरेक व्यक्ति को मालुम फिर कभी इसका विशाल प्रायोजन करनेका मेरा भी नहीं होता एवं उनका दर्शन भी दुर्लभ होता है नम्र अनुरोध है। गुफाओंके भित्तिचित्रीको ऐसे छोटे विविध रंगोंसे सुसजित इतने पुराने चित्र हमारे देश में और कोई नहीं मिलते। इस लिये चित्रकत्सकके इतिहास और अध्ययनकी दृष्टिसे ताइपत्रके ये सचित्र पुस्तक बड़े मूल्यवान और आकर्षक वस्तु है। (मुनि जिनविजय जैन पुस्तक प्रशस्ति प्रस्ता०) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषण (श्रीमती रमारानी जैन, डालमियानगर ) [ दिगम्बर जैन परिषद के साथ लखनऊ में सम्पन्न हुई महिला दिकी सभानेत्री श्रीमती रमारानीका यह भाषण है । श्रीमती रमारानी दानवीर साहू शान्तिप्रसादजीकी आदर्श धर्मपत्नी है उन में समाज-संवाकी अखण्ड लगन है । साहूजीने बनारस में जैन ज्ञानपीठ नामक जो महान संस्था अनुसंधान और प्रकाशन के लिये स्थापित की है, उसकी अध्यक्षा आप ही हैं। हमें आशा है आपके नेतृत्व में समाज सेवाका उल्लेखनीय कार्य होगा ।] माननीया माताओं और बहिनो बात-वादियों से यह सुनते सुनते हमारे कान पक गये हैं कि हमारी सभ्यता संस्कृति मिटनेवाली है। हम अपनी की रक्षा नहीं कर सकती, शत्रु मौके अमानुषिक अत्या चार हमारे धर्म-कर्म सबको नष्ट कर देंगे । वास्तविक स्थिति चाहे जो हो, हमें दुनियाको एक बार फिर दिखा देना है कि भारतीय नारियों की नसों में भाज भी प्राचीन वीरांगनाओं का रक प्रवाहित हो रहा है। संसार-व्यापी युद्धके वातावरणा में उपर्युक्त भाव दिन पर दिन भारतीय नर-नारियोंके हृदयपर अधिकार किये जा रहे हैं—ऐसा होना स्वाभाविक है। युद्ध की भीषणता हमारे किये कोई नयी वस्तु नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर भारतीय स्त्रियां रथ-चडी बन सकती हैं और 'जौहर' कर अपने सतीत्वको रक्षाके लिये अपने शरीरको अग्निकुडोंमें भी होम सकती हैं। हमने युद्धका एक दूसरा अभिशाप अपने ही देश में बंगाल प्राप्त के दुर्भिचके रूपमें देखा है। हमारी आलोंके सामने उस विस्तृत प्रान्तकी लाखों निरीह प्रावाल-वृद्ध वनितायें भूखों तप तप कर मर गई। जैसे जैसे यह युद्ध निकटता प्राता जाता है, ऐसी परिस्थितियोंक सामने आने की सम्भावना बढ़ती ही जायगी। युद्धकी भीषणता और संहारलीलाकी ओरसे चां मींच कर हम रहना चाहें तो हम नहीं रह सकती। पड़ोस में आग लगी देख कर कौन समझदार नारी होगी जो अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर चुपचाप एक कोने में बैठी रह सकती है। ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य भागकी अपको बुझाकर पदोसीकी रक्षा करना और प्रतिकूल स्थिति के लिये अपने को तैयार करना मुख्य हो जाता है । उस आपसि काल में प्राय: हम अपनी छोटी-मोटी समस्याओं को भूल सी जाती हैं। ठीक वही अवस्था प्राज हमारे नारी समाजकी है। आज हमारे कर्तव्य कई गुने बढ़ गये हैं। हमें बाहरी आघातों से बचनेके साथ साथ अपनी आन्तरिक अवस्थाका सुधार करना परम आवश्यक है । यदि हम अपनी सुविधाके लिये अपने वर्तमान कर्तव्योंका वर्गीकरण करें तो वे निम्न वर्गो में विभक्त किये जा सकते हैं और उनका पालन हमारा धर्म सा हो जाता है- (१) संगठन (२) शकि-संचय (३) आन्तरिक सुधार (४) पीड़ितों की सहायता (५) सत्याचरण, सम्यक् धारणा ।। सत्याचरण के आधारपर जैन समाजकी यह विशाल इमारत बनी थी और इसी आधार पर यह सदा स्थिर रहेगी कल्पनातीत काल से जिस धर्माचरणका हमारा समाज पालन करता आरहा है, उसको इस युग में और भी उत्साह पूर्वक सम्पादन करना हमारा कर्तव्य है । सत्याचरय की भांति सम्यक् धारणा भी हमारे धर्मका विशेष अंग हैं-अनेक धर्मों और संस्कृतियोंके मेलजोलसे और पास-पड़ोस से जहां हमारी अनेक अच्छी बातें पुष्ट हुई, वहां हमारे धार्मिक जीवनमें दो चार आमक धारणाओं के और मिथ्यात्व के भाव भी आ गये हैं । मिथ्यात्व के विषय में रोज शास्त्र सभाओं में चर्चा होती है--मुझे हर्ष है कि शिक्षा के प्रचारके साथ साथ जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी वास्तविक Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर 1 भाषण सुन्दरता बहिनोंकी समझमें आने लगी है । हमारे आचरण, जप, तप, दान और पूजा-पाठके पीछे धर्मका जो तत्व है, जिसे हम सम्यक्त्वके नामसे पुकारते हैं, उसको हृदय में बिठा कर हम ज्ञान और चारित्रकी ओर बढ़ सकते हैं। हम जहां भी रहें अपसमें प्रेम और सद्भावनाको जागृत रखें । एक दूसरेके सुख-दुखमें साथी बनें और जहां कहीं कलह या दुर्भावना हमारी हडिमें आवे उसे मिटानेकी हम चेष्टा करें। संघ-भावनाएं ही शक्तिदायिनी होती हैं । संघसे ही शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । सम्भव है, ऐसी परिस्थिति भी ना सकती है जब हमारे पिता, भाई, पति या और कोई हमारी रक्षाके लिए उपस्थित न हों, उस समय हमें अपने बलपर ही आत्मरचा करनी होगी। हमें अपने मान और प्रतिष्ठाके लिये मर मिटना होगा। इसमें लज्जा या शर्मकी कोई बात नहीं कि हम व्यायाम या शस्त्र संचालन द्वारा अपनेको स्वस्थ बनावें और अपनी शक्तिकी वृद्धि करें। बजा और अपमानकी बात तो तब है, जब हम अपनी शारीरिक अथवा मानसिक कमजोरियोंके कारण किसी प्राततायोके अत्याचारका शिकार बन आत्मगौरव और प्रारम प्रतिष्ठा को बैठे । माताओंके आरमबल, प्रभिमान और स्वास्थ्यसे ही हमारे देश के बच्चे तेजस्वी और कर्तव्यनिष्ठ होंगे । शिशुओंका लालन पालन बालक-बालिकाओं की शिक्षा और परिवार का श्राहबादपूर्ण वायुमण्डल तो मुख्य रूपसे हमारे ऊपर ही निर्भर करते हैं। इन कर्त्तव्योंकी समुचित प्रकार पूर्ति कर हम राष्ट्र-निर्माण के दूसरे कार्योंमें भी हाथ बँटा सकती हैं । आत्म-विकास और सुधारकी बातें व्यक्तिगतरूपमें प्राय: कठिन प्रतीत होती हैं, किन्तु यदि उन्हें मिल कर किया जाय तो वे सरबतासे सम्पन्न हो जाती हैं। अपनी सुविधाके अनुसार हम अपने दोसमें ऐसी गोष्ठीका प्रबन्ध कर लें जिसमें सप्ताह, पक्ष या मासमें एक या अधिक बार मिल कर हम आपसमें विचार-विनिमय कर सकें। इससे हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक विकास में सहायता तो मिलेगी ही हममें संगठनका बल आयेगा । ये गोष्ठियां गांव या नगरके उप-सम्मेलनोंमें समय समय पर परियत की जा सकती है, जिनमें सम्मिलित हो हमारी माताएं और बहिनें अपने स्वाध्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और धार्मिक कृत्यों सम्बन्धमें निश्चय कर सकती है। ३१३ संगीत अथवा दूसरी ललित कलाओं में अपना शान बढ़ा सकती हैं। सबसे बढ़कर हमें यह लाभ होगा कि हम एक दूसरेके सुख-दुख और जीवनकी समस्याओंको समकेंगे और हमारी जो बहिनें दुखकी सताई हुई या उपेक्षिता सी अपने जीवनका भार बहन कर रही हैं उन्हें हम यथासम्भव सहायता पहुँचा सकेंगी। पीड़ितों और असहायोंकी सहायता करनेमें हम तभी समर्थ हो सकती हैं जब हममें सेवा और त्यागकी सच्ची भावना हो । उसके लिये हमें उदार हृदय और कर्मशील बननेकी आवश्यकता है। इसके अति रिक अपने समयका समुचितरूपसे उपयोग करना आनेपर ही हम इस योग्य हो सकेंगी कि स्त्रीके गृहसम्बन्धी जो कर्तव्य हैं उनको पूरा करते हुए भी हम समाज और देशसेवाके लिये समय निकाल सके। मनमें तत्परता और तन में स्फूर्ति आनेपर ही वह कर्तव्य हम निभा सकेंगीं । दूसरे देश या समाजकी स्त्रियोंकी जागृति से भी हमें लाभ उठाना चाहिए। किन्तु कहीं, पीतलको सुवर्ण सम नेकी भूल हम न कर बैठें, हमें सावधान रहना चाहिए । ऊपर मैंने आन्तरिक सुधारकी ओर संकेत किया है। देशमें जो कुछ होता है. समाज में जो सुधार होते हैं, धर्म की जो प्रभावना और रथा होती है उस सबके लिये व्यक्ति को पहले स्वयं योग्य बनना होता है । संसारके सारे ही राष्ट्रोंमें अभूतपूर्व उच्चति हुई है। बड़े से बड़े संघ बने हैं, परिषद बनी हैं, विज्ञानके आविष्कार हुए हैं और मनुष्यने असम्भवको सम्भव कर दिखाया है, किन्तु क्या वह उसति स्थायी है, सर्वया वाहनीय है ? धाज संसारका पतन, मनुष्यका स्वार्थ और रक्तरंजित धराका भयंकर दृश्य हमारी योंके सामने मानव समाजकी सारी उन्नति और भौतिक सफलताको व्यर्थ कर रहे हैं। इसका मूल कारण यही है कि मनुष्यने बाहरके सुधार और बाहरकी शिक्षामें उच्चति की, किन्तु अपने अंतरंगको बिल्कुल धोया रक्खा। मनुष्य के और राष्ट्रके निर्माण में नारीसमाजका ही हाथ प्रमुख रहा है। आजकी परिस्थितिके लिये संसारकी मारी मारी-समाज बहुत हद तक उत्तरदायी है। आंतरिक सुधारकी इस कमी को हमें शीघ्र ही पूरा करना होगा, यदि हम चाहती है कि संसार में सुख और प्रेमका राज्य हो । नवयुगके प्रवाह में मानवता बह रही है उसको अपने तप, संयम और त्यागसे जैन महिला समाज पार लगावे यह मेरी कामना है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदके लखनऊ-अधिवेशनका निरीक्षण (श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') मैं भी परिषद में गया था। परिषद जैनियोंकी है वे चाहते थे कि स्वर्गीय स्वागताध्यक्ष श्री ला० मुन्नालाल और भारतकी मनुष्य-गणनाके रजिष्टरमें जिन जीका फोटोही गाड़ी में रहे और वे भी सबके साथ जैनियोंकी नामावली अंकित है, उनमें मैं नहीं, तो मैं जलूममें पैदल चलें, पर इमस्वागत समितिने नहीं माना। परिषद में क्यों गया था ? मेरे मनके निकट भारतीय अध्यक्ष का भाषण संक्षिप्त भी था और सुन्दर भी। संस्कृति व्यक्तिप्रधान है और यह संस्थावाद पश्चिमके विशेषता थी उम्मका विशाल राष्ट्रीय दृष्टिकोण, पर वह प्रवाहमें बहकर पाया कूड़ा-कचग है। मेरी संस्थाओंकी हिन्दी के किसी भी दैनिकमें नहीं छपा । यह हिन्दी अपेक्षा व्यक्तियों में अधिक दिलचस्पी रही है । माहू पत्रकाओंद्वारा परिषदके बहिष्कार की घोषणा है या शान्तिप्रसादजी और राजेद्रकुमारजीको और भी परिषद आफिसकी अयोग्यता ? निकटसे देखनेकी भावना ही मुझे परिषमें ले गई। परिषद का कार्य सुचारुरूपसे चल रहा था, पर वहाँ जानेका एक और भी आकर्षणथा श्री अयोध्या- भीतर ही भीतर दो चर्चाएँ भी घुमड रही थी-एक प्रसादजी गोयलीयसे मिलने की उत्कण्ठा। उनका यह कि परिषद एक सार्वजनिकसंस्थाहोकर भी एक धनी साहित्य पढ़कर उनसे मिलने को मैं बहुत दिनमे साहू शान्तिप्रसादजीके हाथों की कठपुतली बनगई है, बेचैन था और वे परिषदमें बारहेथे ! और भी बहुतसे उमने उसे धनसे खरीद लिया है और दूसरी यह कि मित्रोंके मिलन की सम्भावना थी-स्वागतममितिका समाजसुधारका अपना मुख्य कार्य परिषद ने छोड़ आग्रह भी था। मैं ७ अप्रैल को भाई कौशलप्रसादजीके दिया है और इस प्रकार वह लक्ष्यभ्रष्ट हो गई है। साथ लखनऊ पहुंच गया। साहूजीके नेतृत्वकी यह अग्नि-परिक्षा थी ! उन्होंने अप्रैल को परिषदके सभापति साहू शान्तिप्रसाद पहले ही दिन अधिवेशन समाप्त होते ही, वहीं पण्डाल में जी सुबह पारसल ऐक्सप्रेससे आये । स्वागतसमितिके ३०-३५ कार्यकर्ताओंकी एक अनियमित मीटिंग बुलाई लोगोंका अखण्ड विश्वास था कि पारसल लेट आयेगा मैं भी उसमें था। इस प्रकार की मीटिगोंका रूप प्रायः और इसिलिये वे स्टेशन पहुंचने में लेट रहे। पर गालियोंकी बौछारमें होता है, इस लिये मैने एक पारसल लेट न हुथा। साहूजीने फर्स्ट क्लासके वेटिंग- सीमा बाधने के विचारसे प्रारम्भमें ही कहा कि सारे रूममें अपनी व्यवस्था स्वयं की। इसके बाद स्वागत प्रश्न दो भागों में बटे हुए हैं। पहला यह कि परिषद समितिके लोग पहुँचे, उनसे मिले । मैंने बहुत देर आज क्या कर रही है ? और दूसरा यह कि युवक तक, चहुत तरह देखा कि साहूजीमें इसके लिए किसी कार्यकर्ता उसमें क्या कराना चाहते हैं? परिषदके तरह का क्षोभ न था-मनके किसी भी कोने में नहीं। कर्णधार पहली बातका उत्तर दें और हम लोग दूसरी सहारनपुर के शिक्षक्ष शिविरमें जब वे दीक्षान्त थात का, इसतरह बात सुगम सरस रूपसे स्पष्ट भाषण करने आये तब भी मैंने अनुभव किया था कि होजायेगी । इसे साहजीने भी पास किया और वे इस प्रकारकी भावनाओं से बहुत दूर हैं। सार्वजनिक दूसरे साथियोंने भी। प्रदर्शनोंकी अपेक्षा काममें विश्वास-अनुगग रखते हैं। जनरल सेक्रेटरी श्री गजेन्द्र कुमारजीने परिषदके नम्रता स्वभाव भी है और जीवन का एक मार्ट कार्यक्रमपर प्रकाश सला, पर मुझे ऐसा लगा कि भी। साहजीमें उसका पहला ही रूप मैंने देखा। युवक साथियों को उससे सन्तोष न मिला । तब दूसरे साथियासक्रेटरी श्री गजेन्द्र मुझे ऐसा लगान Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद अ० का निरीक्षण किरण] साहूजीने उमे लिया, पर उनके मनपर जो पहली चर्चाकी चोट थी, उसमें वे बहगये और उनका समाधान करने में करीब २ वे कातर हो उठे । उनकी उस वेदना को समछमकें ऐसी सहृदयता कम हृदयों में है । भाई परमेष्टी दामजीने बड़े संयत ढंगमे माहूजीकी सेवाओंके प्रति विश्वासपूर्ण श्रद्धा प्रकट करके यह ऐतराज किया कि हमारा अभियोग तो यह है कि परिषद समाजसुधारसे हट रही है। इस 'अभियोग' के पीछे जो गरमी थी वह भाई कौशलप्रसादजी के भाषण में फूट निकली- वे भूखेशेरकी तरह तड़ककर बोले । मैने समझा कि बस अत्र इस मीटिंगकी ट्रेजेड़ी सामने है, पर सब अभियोगोंकी उष्णताका विष पीकर इस बार जो साहुजी बोले, को हृदयकी कोमल भावनाओंके प्रवाह में ऐसे बहे कि कोई भी न टिकसका, सब उसमें बहचले । इस भाषण में उनका मस्तिष्क मूछित था और हृदय अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ जागृत । यहां तो सब साथी ही थे, पर घोर विरोधियोंका भी जमघट होता, तो मानसरोवर की इन लहरो में खोजाता ! सारा अमन्तोष समाप्त, विरोध सब सन्तुष्ट और आगे कामके लिये कमरकसे गायव, तैयार, सारा अधिवेशन कटुताके प्रदर्शनसे बच गया । सहारनपुर में मैने साहूजीफा दीक्षान्त भाषण सुनाथा, यहाँ भी सुना । दोनों भाषण एकाकर होकर जैसे मेरे कानों में रम गये हैं । ये भाषण, माहूजीकी जीवनप्रगतिके शीर्षक हैं और उन्होंने कमसे कम नंरे लिये साहूजीकी विचारधाराको एक दम स्पष्ट कर दिया है। उनके सामने न परिषद है, न नेतागिरी है, न दिगम्बरश्वेतान्वरका विवाद है और सच तो यह है कि न समाजसुधारका संघर्ष ही है। उनके सामने उनके विशाल राष्ट्रका एक सबल अंग बननेवाले महान जैन संघका नवनिर्माण है। यह जिसतरह सम्भवहो वही उनका पथहै, ध्येयहै, उधर ही वे अपनी पूरी शक्तिके साथ चलने को प्रस्तुत हैं। जब जलूसमें उन्होंने श्री अजितप्रसादजीसे कहा 'मैं तो आपकी नगरीमें आगया हूँ अब आप रास्ता दिखाइये !' तो बहबात हंसीमें उड़ाई, ३१५ पर उनके भीतर साहूजीके हृदयकी यही वेदना बोलउठी थी कि वह पथ कहाँ है ? मुझे लगा कि उनके रोमरोम में जैसे उस पथका प्रश्न है, उस पथकी प्यास है ? उनकी इस प्यासका अनुभव करके मैने सोचाकि साहूजी इस अर्थ में बड़े बदकिस्मत हैं कि वे धनी हैं । समाजने उनका धनदेखा, मन नहीं, परिषदने उनका धन लिया मननहीं। यही कारण है कि समाज उठानहीं परिषद पुष्ट हुई नहीं ! मैं तो भावुकतावश, यह सोचकर क्षुब्ध होउठा कि न पहचानने से महामानव का यह त्रिशाल मन कहीं आगे चलकर छोटा न होजाये । मैंन तो प्रार्थना ही की कि हे भगवान् ! पीडा भरा, प्यास भरा, आस भरा मन निदों दिन विकास ही ले । सचमुच उस सारे वातावरण में वे ही एक आदमी थे जिनके मन में एक इतना विशाल जागृत स्वप्न था! वे समाज सुधारके लम्बे लच्छेदार भाषण भले ही न दें, सुधार के बाद समाजमें जिस सजीवताकी सृष्टि होती है, उसके निर्माण के लिये निरन्तर सचिन्त अवश्य हैं । यह उन्हें पाकर भी यह समाज नाया जीवन न ले, तो एक दुर्भाग्य ही है। दूसरे दिन उत्साह के साथ समाजसुधारके प्रस्ताव पास हुए और परिषद का देशव्यापी संगठन करनेके लिये केन्द्रोंका नव निर्माण किया गया और प्रबन्धकोंके चुनाव में सावधानी बरती गई । इस प्रकार जहाँ ईमानदार विरोधकी विजय हुई, वहां साहूजीके नेतृत्व और दूरदर्शिताका भी दर्शन हमें मिला । साहूजीके नेतृत्व की आभा मैंने देखा कि, विरोधके समय विशेषरूप से प्रदीप्त होती है। जहां कोई विरोध आया कि वे उठे, संक्षेपमें और सरलतासे बोले और मामला समाप्त | इस समाप्तिमें वे भाषणकलाका सहारा नहीं लेते -- प्रवक्ता तो वे हैं भी नहीं, मामले को सीधा और गहराई तक देखनेवाला उनका मरतिष्क और सालर नेहका स्रोत्र बहादेनेवाली मुस्कराहट हो उनका बल है । इस मुस्कराहटके नीचे भाग भी है, कभी २ आँखें भी तन जाती है, पर यों ही और सिर्फ पालिश पर वानिस -सी ! मैंन Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ अनेकान्त कई बार देखा कि उनके भ्रुकुटिभंगको लम्बाई एक वाक्य जितनी है। तेजीके साथ सैण्टेंस आरम्भ करते हैं और यह कि सैस्टैंस समाप्त होता है, तो तेजी भी समाप्त होजाती है । सभासंचालनके कोशलमें मैं उनकी तुलना पं० जवाहरलाल नेहरूके साथ आसानी से कर सकता हूँ। पं जवाहलाल नेहरू, एक नम्बरके दृष्टा और एक नम्बरके घाघ, जिन्हें जीता नहीं जासकता और बहकाया भी नहीं जा सकता । साहू शान्तिप्रसाद, एक नम्बरके दृष्टा और एक नम्बर के घाघ, जिन्हें जिता नहीं जासकता, पर बहकाया जा सकता है। क्या मूर्ख बनाकर ? उहूँ ! उनके अत्यन्त सम्वेदनशील और सरल हृदय को छूकर ! दोनों काले बादल; खूब बरसने वाले, पर पहला है वैज्ञानिक, जो अपने ही मनकी मौजमें बरसता है और दूसरा भावुक कविका-सा मन लिये, जो दूसरोंके सुखदुख को अपने में लेकर भी बरस पड़ता है ! परिषदके अणु २ पर आज साहू शान्तिप्रसाद का व्यक्तित्व छाया हुआ है । कुछने कहा यह अभिशाप है संस्थाके जीवनका । मैंने एक पत्रकार की आंख से देखा - यह बरदान है संस्थाके जीवनका । इस वरदान में एक अभिशाप है यह भी मैंने देखा यह अभिशाप है दूसरोंकी निश्चिन्तता का बिल्कुल वैसा कि कांग्रेसी मिनिष्टियों के समय बाहरके कांग्रेसी मिनिष्टरों की ओर देखते रहे और वह वरदान अभिशाप में बदल गया ! यहाँ इस परिणामसे सावधान रहना है और यह काम श्री राजेन्द्रकुमार जी और बाबू रतनलाल [ वर्ष ६ जीका है। मुझे प्रसन्नता है कि इन दोनों महारथियोंने इस अधिवेशनमें यह जिम्मेदारी देखी है, पहचानी है और सिरपर ली है। यही इस अधिवेशनकी सफलता है । BAHADUR SINGH SINGHI ZAMINDAR & BANKER एक श्री परमेष्ठीदास जी और श्री कामताप्रसाद जी के सभापतित्वमें जैन साहित्य परिषद और प्रेसकाम सके आयोजनको मैं मानता हूँ कि ये श्रेष्ट स्मारम्भ थे । साहित्यपरिषदको तो मेरी राय में, परिषदका वैसा ही विभाग बना देना चाहिये, जैसा चरखासंघ काग्रेस में। जैन साहित्यकी उपेक्षा कर जैन समाज के किसी सुधारकी कल्पना करना उपहासारग्द ही होगा भाई परमेष्टिदास जी और कामताप्रसाद जी यदि साहित्यपरिषद को स्थायी करनेके लिये एक योजना बनाने में थोड़ा समय लगामकें तो बड़ा उपयोगी कार्य हो । श्रीमती रमारानीजी के सभापतित्व में महिला परिषद हुई । समाजसुधार आन्दोलन का भविष्य बहुत कुछ स्त्रियों पर निर्भर करता है, इस दृष्टि महिला परिषद का काम केवल १ दिन के उत्सव तक सीमित रहना बहुत हानिकर है। इसे परिषद का एक स्थायी स्वतन्त्र विभाग होना चाहिये और उसके द्वारा पूरे वर्षभर काम होना चाहिये । श्रीमती रमारानीजीमें उत्साह है, योग्यता है, साधन है । यदि वे थोड़ा अधिक ध्यान देसकें तो यह संस्था संगठित होजाये और समाजके लिये बहुत उपयोगी काम करे । परिषद की सभानेत्री के रूपमें उन्होंने जो भाषण दिया, वह सुन्दर, संक्षिप्त और महत्वपूर्ण था । सिंघीजीके पत्रका ऊपरी भाग बा० बहादुरसिंहजी सिंघीका जो पत्र इसी किरबमें पू० ३२२ पर अविकल रूपसे छपा है उसमें पवेका अंग्रेजीमें छपा हुआ ऊपरी भाग, तारीख सहित, कम्पोजसे छूटकर छपनेसे रहगया है, जिसका हमें खेद है। अतः पाठक उसे निम्न प्रकारसे बनायें अथवा पढ़ने की कृपा करें । —मैनेजर श्रीवास्तव प्रेस Tele. Address "DALBAHADUR" Telephone NO. PARK Se 48, Gariabat Road, P. O. Ballygunge, CALCUTTA, २६-१-४३ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा (लेम्बक न्यायाचार्य पं० माणिकचन्द कौन्देय) पुरने प्रतिपत्ति इस प्रकार में जितने भी लक्षण किो प्रातः ।। कुछ महीने हुए वा. रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुरने प्रतिपत्ति इस प्रकार हैहमारे सामने एक प्रभ उपस्थित किया था, जो इस प्रकार है- शास्त्र में या लोकमें जितने भी लक्षण किये जाते है "क्या केवलशानसे कुछ ज्ञेय कूट जाता है?" उनमें प्रश्नवशात् या कल्पना ये पद कभी नहीं पाते है। यह प्रश्न गंभीर है, केवलशानकी विषय-मर्यादासे "जपयोगो लक्षएम" "शृंगसास्नाबान् गौः" जीवको सम्बन्ध रखता है और इसलिये इसपर युक्ति तथा आगम। लक्षण उपयोग है। सींग और गल कम्बल वाला बैल की सहायता साथ गहराईसे विचार करके हमने जो कुछ होता है। इन लक्षणोंमें प्रश्नके वश होकर या कल्पना मालूम किया है उसे आज हम इस लेख-द्वारा अनेकान्त- खड़ी कर लेना ऐसे लचकदार पद नहीं डाले गये हैं। अत: पाठकों के सामने रखते हैं, जिससे उक्त बाबू साहबका ही प्रतीत होता है कि सप्तभंगीएक कल्पना ही है। कुछ व्युत्पत्ति नहीं किन्तु उन-जैसी शंका रखनेवाले दूसरे सजनोंका भी बढ़ाने वाले लौकिक जन इस रचनासे लाभ उठा लेते हैं। समाधान होसके अथवा विद्वानोंद्वारा चर्चित हो कर यह स्व-चतुष्टयसे घड़ेका अस्तित्व-धर्म और पर-चतुष्टयसे विषय और अधिक प्रकाशमें लाया जा सके। घटका नास्तित्व-धर्म कोई अविभाग-प्रतिच्छेदोका घारी 'सर्वद्रव्य-पर्यायेषु कंवलस्य' यह श्री उमास्वामी महा- पर्याय अथवा गुण या द्रव्य, नहीं है। केवल कल्पित धर्म राजका निीत सिद्धान्त है। इसके अनुसार वस्तुभूत और हैं। यह ख्याल रखना कि जो सामान्य-गुणोंमें वस्तुको पर्याय-पर्यायी-स्वरूप माने गये त्रिकालवर्ती द्रव्य, गुण और तीनो कालमें स्थिर रखने वाला अस्तित्व गुण और जो पर्यायोंको केवलशान जानता है। द्रव्योंमें अशुद्ध द्रव्य और कि प्रतिक्षण परिणामी है वह अनुजीवी गुण इस अस्तित्वपर्यायशक्तियाँ तथा पर्यायोंमें अविभागप्रतिच्छेद भी गिन धर्मसे सर्वथा निराला वस्तुभून है। अस्तित्व गुणके साथ लिये जाते हैं। विशेष प्रतिपादन यह है कि प्रत्येक द्रव्य नास्तित्व गुण कथमपि नहीं ठहर सकता है। जैसे कि द्रव्यल में केवलान्वयी होकर पाये जाने वाले प्रमेयत्व गुणकी के साथ अद्रव्यत्व और वस्तुत्व के साथ अवस्तुल गुण कोई परिणति अनेक प्रकार है। मतिशान करके ज्ञेय ोजाना वस्तुमें जड़ा हुश्रा नहीं है। क्योंकि अद्रव्यत्व, अंवस्तुत्व या पृथक् तत्व है और केवलशान द्वारा प्रमिति-विषय होजाना नास्तित्व कोई अनुजीवी गुण ही नहीं है। इसी प्रकार पदायों में जुदी बात है। मतिज्ञानी जीव इन्द्रियजन्यशानद्वारा लड्डु इष्टता अनिश्ता भी कल्पित है। जो आज इं है वही चीज रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शको जानना। किन्तु केवलज्ञान- हमको कल अनिष्ट हो जाती है, दूसरे व्यक्तिको उसी समय वह द्वारा मोदकृके रूपादिको प्रत्यक्ष कर लेना विशेषता रखता अनिष्ट पड़ जाती है। किन्तु श्रुतज्ञानी जीव पदाथों में प्रापेक्षिक है। यो ऐन्द्रियिक ज्ञानकी विषयतासे केवलज्ञान प्रश्ता है। अस्तित्व, नास्तित्व या इष्टत्व, अनिष्टत्व जान रहा है। मिथ्याशानों-अर्षमियाज्ञानोके विषय वहाँ संकलित नहीं है। केवलज्ञानी ऐसे फोकट धर्माको नहीं मानता है। ऐसी नृत्य, गान, वादित्र प्रादिके लौकिक सुख-संवेदन-परि- परिस्थिति में हम श्रतज्ञानीको मिथ्याशानी या केवलशानीको यतिसे भो केवलशान रीता है। प्रागमगम्य अनंत प्रमेयोंको अल्पज्ञ होजानेका उपालंभ नहीं दे सकते हैं। क्योकि केवलज्ञान विशद जानता है। किन्तु इसी मनिशानके प्रक्रम श्री अकलंकदेवने "यावन्ति कार्याणि तावन्तः स्वभावअनुसार भुवज्ञान के विषय माने गये कतिपय स्वभावों और धमों भेवा" और श्रीविद्यानन्दने "यावन्ति पररूपाणि पर केवलशानका अधिकार नहीं है। सप्तमंगी, स्याद्वाद, तावन्त्येव प्रत्यात्मम् स्वभावान्तराणि तथापरिणामापेक्षिक-धर्म, नयवाद अन्य व्यावृत्तियां श्रारोपित स्वभाव ये मात्" इत्यादि वाक्यों द्वारा बस्तुकै सिरपर अनेक स्वभाव सब भी अनशानके परिकर हैं। श्रीराजबार्तिक में सप्तभंगीका लाद दिये हैं। उन्हें जैसे हो। तैसे मानना ही चाहिये । लवण "प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रति- 'देवदत्तक सिरपरसे एक क्षणको भी अन्यभाष, सोभाव धविकल्पना समभंगी"ऐसा किया गया है। इसकी सिंहाभावको हटा दिया तो उसी समय जाज्वल्यमान बाग, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ फणा उठाए काला मार तथा दहाड़ता हुश्रा सिंह मस्तक की चाशनी चढ़ा चढ़ा कर आपको अमृत औषध खिला पर चढ़ बैठेगा। श्रन: ये धर्म मानने पड़ते हैं। इधर केवनी देते है। पहिले उसी प्रक्रियासे वे स्वयं अमृतत्वको प्रत भी अग्ने नियत सम्पूर्ण द्रव्य-पर्यायों को विश्वरूपसे जान ही कर सके हैं। वैद्य स्वयं कड़वे, चिरायता, कुटकी. गिलोय रहे हैं। अब इनमें उतारने की बात कोई रहती ही नहीं को नहीं खाना है. किन्तु सैकड़ोंको उसको खानेका उपदेश है। थोथे विषयोंको न छूना उनके लिये अच्छी बात है। देकर नीरोग कर देता है। प्रथम ही द्विभाषित्वका कार्य आपका घर मन्दिरजीसे पांच सौ गज दूर है एक गज चलने अतीव कठिन है अतः अर्हन्तकी महत्ता बढ़ जाती है। पर चार मौ निन्यानवे गज रह जाना है अापके घरमे आपने अपुनरुक्त अ, श्रा, क, ख, यो एक एक अक्षर या हजारों लाग्यों घर अपेक्षाकृत दोसौ. चारमौ. पाँचमी गज, द्विसंयोगी, माठ संयोगी, सठिसंयोगी, चौस ठिसंयोगी ऐसे या छहमी, बारहसौ, पन्द्रामौ फुट दूर है। अथवा बहत्तरसौ, कोरे एक कम एकांटुपमाण अक्षरों में सोलहमी चौंतीस एकसौ चवालीससौ, अठारह हजार इन हट कर है यों अनेक करोड अक्षरोंका भाग दे देने पर बन गये एकमौ बारह घर परस्सर में अपेक्षाकृत दूर दूग्नर हैं। श्राने जाने वालोंकी करोड़ पदों के बने द्वादशाङ्गपर भी विचार किया होगा विवक्षाके अनुसार दूर दूरनर निकट निकटनर या दिक् परि- और केवल एक मध्यम पद के दौसौवें भाग शेष रहे । घर्तन अथवा इंच, फुट, गन, विश्वांश. विश्वा, वीघाकी पाठ करोड़ अक्षरोंसे बना दिये सामायिक आदि चौदह अङ्गअसंख्य नापोंको धार रहे है । संकर, व्यतिकर रूपसे नापांकी बाह्य श्रुतका परामर्श किया है। यही केवलीका अतिशय गिनती यहुत बढ़ जाती है इत्यादि गणनामें श्राई हुई कोई है। अच्छा अब उसी विषय पर आईये किकल्पनाएँझूठीभी नहीं है--व्यक्तियों के. श्रुतज्ञानोद्वारा उनको केवलज्ञानी किस शेयको नहीं जानते हैं। इस प्रश्नसया जाना जा रहा है किन्तु ऐमी रद्दी बानोको सर्वश नहीं के सम्बन्धमें कहना यह है कि श्रादीश्वरके श्रात्मा या जानते हैं। जहाँ जहाँ लोका काशके नियत प्रदेशोपर गृह शरीरकी ऊँचाई ५.. धनुष है। यह आजकलके शास्त्रज्ञ बने हुए हैं वे उनके शानमें निर्विकल्पक झलक रहे हैं। बता रहे है। किन्तु स्वयं श्रादिनाथ भगवानके हायसे वे घर, होम, श्रालय ये शब्द भी मैंने श्रापको समझानेके एक धनुषसे भी कमती मात्र धनुषके थे और बाहुबलिलिये कह दिये है। वस्तुतः केवल शानका विषय श्रवक्तव्य है। केवलीकी सभामें उनका नाप इससे भी कमती यानी छद्मस्थ जीव ठलुवा बेठे वेल्जियम, हालैण्ड, जापान, धनुषका कहा गया था। दाईसौ धनुषकी अवगाहना वाले प्रास्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका, इंगलैन्ड श्रादिकी भाषाओं पद्मप्रभु भगवानके समवसरणमें ईधनुषका उपदेशित में या विभिन्न नापोंसे कल्पित पैमाइशें करते फिरें। अपने २ किया था। वस्तुतः ये नापकी लतें आपको समझानेके परमें अपेक्षाकृत गढ़ ली गई अनन्तानन्त दूर-निकटताओं लिये लगादी जाती हैं धनुषों, हाथों, अंगुलोंको कहाँ तक यानापोंको सर्वश कराठोत नहीं जानते हैं प्रत्यक्षशानमें शब्द लगानोगे। फिर देश, देशान्तरोके न्यारे न्यारे फुट, इंच योजना नहीं चलनी है। प्रत्यक्षशान अविचारक होता है। श्रादिके हजारों लाखों प्रकारोंकी कहाँ तक कल्पना करोगे। अमीर-गरीब किसीका भी विचार किये बिना सूर्य के समान केवलशानीके ज्ञान में तो मात्र रतनाही झलकता था कि भड़ाक संदे पदायाँका प्रनिभास कर देता है। हां, परोपकार प्रादीश्वर महाराज उतने नियत प्रदेशोंपर स्थित है। श्री स्वभाव वाले केवलशानीको पुरुषार्थ कर दुभाषियाके महावीर स्वामीने हैं धनुष श्रादिकी कल्पनासे रहित अव. सहश द्वादशांग वाणी द्वारा प्रारको अतीन्द्रिय सिद्धान्त क्तव्य नियत अन्गाहनाधारी ऋषभदेवको अपने क्षायिकशान समझा देना पड़ता है। जैसे कि हिन्दी अंग्रेजी दोनोका से जान लिया था। किसीने प्राग्रह कर पूछा तो स्वके हाथ पढ़ा हुभा दुभाषिया पंडित हिन्दीभाषीको अंग्रेजकी बात से २५. धनुषकी लम्बाई बता दी। फिर सैकड़ों वर्ष पीछेके और अंग्रेजको भारतीयका अभिप्राय शन्दान्तर बोल कर प्राचार्योंने शाहाय के स्वशरीर अनुसार ५०० धनुषकी समझा देता है उसी प्रकार केवलज्ञानी बिना इच्छाके समझा दी। पंचमकालके अन्त में होने वाले भी बीराजद पुरुषार्य द्वारा निर्विकल्प प्रमेय, पर व्यवहारमें माहेशन्दी मुनि महाराज अपने दो हाथोक शरीर अनुसार अमिल Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानकी. विषय-मर्यादा ३१६ नामक भावकको उपदेश देवेंगें तो वे ८७५ धनुषकी बता इन खोखले नि:सार विकलोंको वे नहीं जानते हैं क्यों किये देंगे। क्या ये अपेक्षाकृत नागोंकी मब संख्यायें व ज्ञानीको प्रापेक्षिक परिवर्तनशील धर्म न तो कोई गुर हैन वस्तुभूत प्रतीत हो रही है? कथमपि नहीं। किन्तु प्राप लोगोने पर्यायें हैं और न द्रव्य है। सर्व द्रव्यपर्यायेषु केबलस्य" अपने विचारात्मक श्रतज्ञानमें शात करली है। मास्विर इसकी ही पकड़े रहो अधिक के लियेथन पसारो। श्रोताओं को किसी न किसी ढंगसे वस्तुस्थितिका ज्ञान तोहोवे। नव्य नैयायिकोंके यहा चौसठ विशेषणोंसे सहित कहा अापके पास एक लोटा दृघ है। अापकी श्रुत-हष्टमें गया जहाँ जहाँ धुश्रा है वह वहां अग्नि अवश्य होती वह एक सेर है। कोई दो पौएड कर रहा है। तसरा ही है ऐमा विचारात्मक, व्यामिशान केवलज्ञानीक नहीं न्यारे सेरसे १५ छटांक बता रहा है। यो उम दूधकी पाया जाता है। इधर व्यामिशानका विषय माना गया, सैकड़ों हजारों तोल है। अनेक जीव दूधको मिल्क, क्षीर, अविनाभाव-सबन्ध कोई चीन नोही, बम इसी कारण पयः, स्तन्य श्रादि शब्दोंसे जान रहे हैं। क्या केवलज्ञानी श्राप सच्चे है। वस्तुत: भगवान के प्राविनाभाष, शत्रु-मित्रभी उक्त विकल्पोंके साथ दूधको जान रहे हैं? कदाचित भाव, स्वस्वामी सम्बन्धये क्षण क्षण में बदलने वाले कांस्पत नहीं। वे न तो हिन्दी शब्द दूध लगा रहे हैन अग्रेजी मिल्क बहुरूपिया पोले सम्बन्ध भी शेय नहीं है। थोड़ी थोड़ी देर बईकी योजना कर रहे हैं। वे मब नयशान है-"यावन्तः मान कर पुन: कट मेंट देने वाले खिलाड़ी छोकरोंकी तोताशब्दास्तावन्तो नया:" सहारनपुरमें ८६ का सेर है, बम्बई में चस्म दोस्तीके गढन्त नातोको भगवान् पग्शिात नहीं करते २८ रुपये भरका से है। चन्दौमीमें ८८ तोलेका मेर है हैं। वहां छत्र है अतः लाया होना ही चाहिये ऐसे अनुमान कहीं८. या ७८ तोलेका सेर है। धी मनका ३६ सेर शान भी आपके ही पास हैं। होना चाहिये, भगवान् सेर तुलता है। सहारनपुरमें सैकड़ा श्राम एक सौ चारह क्या किया जाय, हो सकता, चांदी तेज हो जायगी ऐसा गिने जाते हैं। कहीं १२. का सैकड़ा है इत्यादि झंझटोंमें क्याल दौड़ता है। दो और दोचार होते है, ऐसे संभाव्यमान केवली नहीं पड़ते है जैसा कि विचार-विनमय व्यापारी जन उल्लेख्य विषयोको जो परसंग्रहनयसे सब सत् है, केवली नहीं करते रहते हैं। हाँ, ये विकल्पकशान भूठे या मच्चे या छूते हैं। अनुमेयल और व्यामिशानगम्यत्व धौंको भी कयली उभय, अनुभय यदि आपकी आत्मामें उपज गये हैं तो उन नहीं जान पाते हैं। हमें कोई अनुमानशान या व्यतिज्ञानको आपके शानोंको भगवान् जान लेंगे। वे उन शानोंके फोकस अपनी यात्मामें उपजावेगा उस शानको अवश्य जान विषयोंक झमेलेमें नहीं पड़ते हैं। हमारे सामने कपड़ेका जावेंगे। क्योंकि यह शान नो परोक्षशानी चैतन्य गुणकी एक थान रमवा है वे उम कपड़ेकी अशुद्ध द्रव्य, गुण, वास्तविक पर्याय है जो केवलीको जाननी ही है। पर्यायशक्तियां, पर्यायों और अविभागप्रतिच्छेदोको जान रहे यों तो केवली भगवान सब झूठे शानोको जान रहे है-प्रत्येक परमाणु तककी तीनों कालोंकी अवस्थाश्रोंका है। सीपको चान्दी समझे हुये मिथ्याज्ञानीके विपर्ययज्ञानको साक्षात् प्रत्यक्ष कर रहे हैं। किन्तु वह थान पाँच वर्ष प्रथम सर्वश अवश्य जानते हैं। कल्पनाशानोका भी या प्रत्यक्ष कर ५) रुपयका था, दो वर्ष प्रथम १०) में बिका था। अब रहे हैं परंतु उनके शेय अंशका नहीं। जैसा कि जज साहब १६)का भाव निकाला है दिल्ली में मृल्य १४).अह- चोर, हत्यारे, डाकू, व्यभिचारीके दोषोंका मात्र शान कर मदाबादमें १२॥) है यहाँ सहारनपुरमें ही दूसरा दुकानदार लेते हैं अन्तरा अनुभव नहीं। विषयका शान नहीं होते १५) रु. में देता है येही बजाज दूसरे ग्राहको अभी १५॥) हुये भी विषयीका ज्ञान हो सकता है। देखो "प्रमेयकमल में दे चुके हैं। केवली किस मूल्यको ठीक श्रा, तुम्ही बताओ? मार्तण्ड ७२ वां पत्र। जयपुरका रुपया १००) में, दीका १०)में, कोटाका १०)में, एक चौकी हमारे सामने रक्ली है। उसके त्रिकालबती अमेरिकाका डालर )में, यो जोधपुर, बीकानेर, कोलापुर, द्रव्य, गुण, पर्यायोंको केवली आमूलचूल मान रहे है। रूस, जर्मन, जापान प्रादि कहांके रुपयोंसे मूल्यकोमध्य केन्द्रित अनन्त पर्यायों में से एक एकके अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेद करें? ये भाव (रेट)बहुत शीघ्र बदलते भी राते है। वस्तुत उनके शानमें अविकल मालक रहे है, किन्तु वह चौकी Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० भनेकान्त [वर्ष लाखों पदाचोंसे भारी है, करोडो वस्तुओंसे हलकी है, वे तो बास्तविक सद्भून द्रव्य, गुण, पर्यायोंको प्रवक्तव्य अनेकोंसे बड़ी, फलानी फलानी कतिपयोंसे छोटी है असं रूपसे जान रहे हैं। जबकि तत्व निर्विकल्प है "स्वसहार्य ख्या अधिक चिकनी, दस काये ग्यारहाने तीन पाई निर्विकल्पं"। (पंचाध्यायी) की है सुन्दर है, फहर है और न जाने कितनी भूत, वर्तमान यत् परैः प्रतिपाद्योइं यत्परान् प्रतिपादये । भविष्य कालीन अनन्तानन्त पुद्गल पर्यायोंकी अपेक्षा खुर- उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः॥ खुर्ग है, कम कीमत है, बहुमूल्यवान् है इत्यादि प्रापेक्षिक (समाधितंत्र) विषयोको वे नहीं देंगे। श्राप लोग इन थोथे धोको तब तो उसका साक्षात् शान भी निर्विकल्पक ही है शुतज्ञानसे जानते रहो । श्रानन्स्य नामके दोषका भी लक्ष्य कतिपय कल्पित शब्दयोजनायें, निन्दा प्रशंसाये सापेक्षरखना चाहिये। शानियोंने लगाली है। निर्बलता या इस आततायीपनका “अत्थादो अत्यंतर मुभलंमंत भणन्ति सुदणा- उत्तरदायित्व केवलशानी नहीं भुगत सकते है। रणम्" यों ये सब अयंसे अर्थान्तरोंके ज्ञान है। कुछ इन केवल सम्यक्त्व गुणके लिये ही “यस्माद् वक्तुंच में पोंगापन भी है। इसी प्रकार श्री महावीर स्वामीने ओणक श्रोतुंच नाधिकारी विधिक्रमात्" (पंचाध्यायी) यानी रानाकी भूत सौवीं पर्याय जानी, वे मनुष्य थे। वीरने उनके असली सम्यक्त गुणको कहने और सुननेका अधिकार किसी गुग्यो, सुख, दुःखो मादिका अन्तःप्रवेशी केवलशान कर को नहीं मान बैठे हो. भाईयों अकेले सम्यकल गया लिया। किन्तु वह मनुध्य सौका तो भानजा था, पाँचसो । लिये ही यो क्यों कहते हो । सभीके लिये कहो। हाँ, गुरु का मामा, चाचा, ताऊ था। दस हजार आदमियोंसे शिष्यके प्रतिपाद्य-प्रतिगादक भावमें लानेके लिये वस्तु भित्ति छोटा था। अमुक अमुक से बड़ा था। यदि वह अमुक पर कुछ स्वभाव, आपेक्षिक धर्म, नेय विषय भी माने गये औषधि खा लेता तो बच सकता था । उचित औषधि है। तभी तत्वनिर्णय हो सकता है। और श्रवक्तव्य प्रयेय मूल्यवान् होनेसे नहीं मिल सकी थी, अतः मध्यमें मर गया पर भी उसी मार्गसे पहुंच पाते हैं। होगा इत्यादि विचारणायें केवलीके शानमें नहीं होपाई है प्रथम ही "देवशास्त्रगुरुश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" कहा बोलना, चाल, शारीरिक चेष्टाये (अदायें) अक्षर लिखना जाता है। कुछ व्युत्पत्ति हो जाने पर "तत्त्वार्थश्रद्धानं मादिके परिवर्तन बील आपेक्षिक टेढ़े बाँकुरेपनका बैंकका सभ्यग्दर्शन" समझाया जाता है। पचात् "स्वानुभूतिः सा ऐकाउन्ट उस शानमें उल्लिखित नहीं है। त्रिकालवती सम्यग्दर्शन" कह कर तत्वबोध कराया जाता है। बढ़िया अनन्तर जीवोंकी विभिम सूरतोंकी . परस्पर विलक्षणताका व्युत्पत्ति होजाने पर सभ्यग्रष्टि स्वयं अपने सम्यक्त्वको हिसाब बहुत बड़ा है। स्थाद्वाद-सिद्धान्त या नयवाद तो निर्विकल्पक प्रवक्तव्य अनुभवन करता रहता है यो वाच्यशानियोंके लिये है, केवलशानियोंके लिये रत्तीभर भी उप- वाचक भाव भी यथार्थशानमें उपयोगी है। हम क्या करें योगी नहीं। शुक्लध्यान . द्वारा कोका क्षय करने वाले ऐसे कार्यकारणभावपर कुचोद्योंका आक्रमण नहीं हो पाता है। .लम्बे लम्बे समीचीन नयज्ञान जो श्रेणियों में होते हैं वे सब परमेष्ठीकी भक्तिके बिना मोक्ष नहीं मिलती है। यह नशान है भत्रिचारक सर्वशके नहीं उपज पाते हैं। न्याय परमरया निमित्तिनैमित्तिकमाव बहुत बदिया है। किन्तु छात्रोंमें प्रत्यक्ष ज्ञानको अविचारक कहा है। नित्यानित्यात्मक पाठवें, नौवें बारहवें गुणस्थानोमें तो परमेष्ठीकी भक्तिको बस्तु है। अस्तिवनास्तित्व स्वरूप पदार्थ है।अनामिका अंगूठी छोड़ो, कहां तक परको पकड़े रहोगे। वहीं तो प्रवक्तव्य कनिहासे बड़ी और मध्यमासे छोटी तथा न जाने कितने आत्मतत्वका संचेतन करे जाओ। तद्वत् नयज्ञानोंसे नेय अनन्त-पदायोसे. छोटी बड़ी है ये सब पापको यथाशक्ति या उसभंगी स्थाद्वाद् एवं तर्कवितर्कात्मक विषयोपर भी कल्पनायें हैं। केवलशानीको मत झुकानो। इस कार्यको बारहवें गुणस्थान सर्वशके शानमें इन रदी चीजोका प्राकार नहीं पड़ता तकतम कर दो। (क्रमशः) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tarp सम्पादकीय. १ जैनमत्यप्रकाशकी विरोधी भावना- यह निबित (वर्ष अंक) रसके बाद से 'जनसत्य. अनेकान्तकी गत सितम्बर मामी किरया (नं०.२) में प्रकाशने वीरसेनामन्दिरमें अपना मानाही बन्द कर दिया। बने 'वार-शासन स्त्पत्तिका समय और स्थान' नामका अब तीन महीने तक वह नहीं पाया तबमार्थकों अनेकान्त 'श्राफिमसे उसे पत्र लिखकर न ानेका कारण एक लेख ऐतहानिक टिसे लिखा था, जिसे पढ़कर और इस बात से क्षुब्ध होकर कि वीरशासन-जयन्तीक महोत्सव पूछा गया और अंकको शीघ्र भेजने की प्रेरणा की ममभी प्रस्ताव में "कुछ श्वेताम्श विद्वानोंके मम भी. गई। परन्तु उत्तरमें न तो कोई 'पत्र' पाया "और 'न उक अंक'ही' प्राप्त हो सके। हाल में २३ अप्रेलको अकस्मात् अस्थायी समिति में चुने गये है जिनसत्यप्रकाश के सम्पादक ७पैकका दर्शन हुआ है। उसके प्रथम लेख श्रीकांतशोह चामन नाल गोकलदासजी 'बहुत ही" विचलिन हो ना सम्पादकनुं श्वेताम्बरो प्रत्येर्नु मानस' को पढ़कर यह उठे थे और उन्होंने 'उसे श्वेताम्बगे ती स्थानकवासियों स्पष्ट हो गया कि उसके सम्पादकका हृदय अंमी तक विरोधी की आँखों पर पट्टी बांध कर उन्हें कुाँमें धकेलनेका प्रयल बतलाया था। साथ ही, अपने श्वेताम्बर भाइयों को यह भावनासे भरा हुआ है। सम्पादकीको जब कोई और बात' प्रेरणा भी की थी कि वे गनगृह पर होने वाले वीरशासन कहनको में मिली तब उनाने ६-७ महीने पहलका"एकत्र बाबू बहादुरसिंहजी सिपीका प्रकाशित किया और इसे जयन्ती-महोत्सव में शरीक न होवें। इस पर मैने भइयोगी कोकान्तमें बापनेका भारोप लगाकर श्वेताम्बरों में मेरे जैनम्रत्यप्रकाश . विवित्र सूझ' नाम का एक लेख लिवाथा जो नवम्बर मास की किरण नं. ४) में प्रति अन्यधीमाव फैलानेकी चेष्टा की है, और ऐसा करने में प्रकाशित हुआ है. .और उसमें सहयोगीके कथकी किर उन्हें मेरे उस पत्रको छिपाना पड़ामो मैंने बाबू बहादुर पुरस्सर, भालोचना कर उसे. नि:मार, नितुक अनुङ्गिन. सिहजीको उनक उक्त पत्रके उत्तर में रजिष्टरीसे मेजा और कहर साम्प्रदायिक मनोवृत्तिको लिये हुए व्यक्त किया क्या कि मर उस पत्रकी मौजूदंगी में वसा कोई भागेप नहीं था। साथ ही सम्पादकजीसे. या अनुरोध किया था कि वे मेरे लगाया जा सकता । उममें मैंने सिंधीजीको स्पष्ट लिख दिया इस लेख तथा पूर्ववर्ती 'लेखको भी अधिकलरूपसे अपने था कि "यदि उक्त (कि.नं. २ वाले) लेखको पद कर भी पत्र में प्रकाशित करनेकी कृपा करें, जिससे उनके पाठक आप पत्रके प्रकाशनकी जरूरत समझेगे तो वह अंगली स्वयं औचित्य और अनौचिलाका निर्णय करने में समर्थ हो किरण में प्रकाशित कर दिया जावेगा। जान पड़ता सिंधी मक; परन्तु मेरे लंखको प्रकाशित करना तो दूर रहा, सम्पा- जीने लेखको पढ़ कर अपने पत्रके प्रकाशनकी जरूरत नहीं दकजीसे लेखेकी युक्तियोंको कोई समुचित उत्तर भी नहीं समझी, इसीसे मुझे नहीं लिखा' और इसी लिये यह प्रकाबन सका, तब मात्र याकहकर ही उन्होंने सन्तोष धारण शित नहीं किया गया-अन्यत्र भी उन्होंने उसे स्वयं यह किया कि अनेकन्तिको सम्पादक बहुत प्रचार कर रहा हैकह कर प्रकाशित नहीं कराया कि उसके छापनेसे इन्कार वा वीरको प्रथम देशना सम्बन्धी श्वेताम्बरीय मान्यताका किया गया है। ऐसी हालतमें न छापनेके आरोपके लिये 'जीको न लगती हुई बतलाता है और उनके वर्तमान कोई गुंजाइश नहीं सती, फिर भी सम्पादकजी मुझ पर मागमोको गणधर-रचित न बतलाकर देवबिंगणिके आरोप लगाने बैठे है और अपने पाठकोंमें मेरे विषयका श्वेताम्बरीय मागम ठहराता है, उसे अपनी गानोका गैर- गलत प्रचार करना चाहते हैं, यह देख कर बड़ा ही सेंद वाजिबीमना बाज नहीं नो कल मालूम पड़ेगा। साथ ही तथा अफसोस होता है। और इससे सम्पादकजीकी कवित रखेताम्बरो के साकारकी उसकी माशा अफल नहीं हो सकेगी मनोति और विरोधी भावनाका और भी नमकप गमने Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अनेकान्न [वर्ष ६ श्राजाता है। आपने बा• बहादुरसिंहजीके पत्रको भी अनि. बा. बहादुरसिंहजी सिंघीका पत्र और उसका उत्तरकल रूपम ज्योंका त्यों नहीं छापा, किन्तु सम्पादनके चक्र नं.युत अधिष्ठाता वीरमेवामांदरकी सेवामेंपर चढ़ा कर उसमें मनमानी काट-छांट, कमी-बेशी और निवेदन । चमेकाम्तका छठे वर्षका जो विज्ञप्तिमा नन्दीली की है, जिसके दो चार नमूने म प्रकार है- अभी मेरे पास पाया है उसमें वीरशासनजयंतीका बाई पत्रके उपरी भागपर '२६-६-४३' ऐसे जो तारीख दी सहस्राब्दी महोत्पब मनवानेकी योजनासे सम्बन्ध रखने थी उसे निकाल दिया, 'और तेरापंधी सभी सहमत के वाला एक प्रस्ताव पाहै। उपमें बीरशासमजयन्तीके स्थान पर 'तथा तेरापंथी सब एक मत है' बनाया गया महोत्सवको अखिल भारतवर्षीय जैनमहोत्सवका रूप देनेकी और 'मनाया' को 'मनवाया में 'उपदेश दिया है की उप बात कही गई और उसी में अस्थायी नियोजकसमितिके देश दिया था' में 'विचारने' को 'म्बोज करने में और सभ्योंकी नामावलीमें श्वेताम्बरसमाजके अन्यतम प्रतिनिधि 'या पर्व'को 'यह पर्व' में परिवर्तित किया गया। साथ ही रूपसे मेरा भी नाम बिना ही पूछे दाखिल किया है। इस पत्रके अन्त में 'निवेदक' लिख कर उसके नीचे जो 'बहादुर कारण उक्त प्रस्ताव और वीरशासनजयन्तीकेपारमश्वेता म्बरसमाजके एक प्रतिनिधिको हैसियतसे मुमको कुछ सिंह सिंधी ऐसा पत्रप्रेषकका हस्ताक्षरी नाम था उस सबको लिखना पड़ रहा है। यद्यपि मैं अपना विचार श्वेताम्बर बदल कर 'निवेदक' के स्थान पर तो 'भवदीय' बनाया समाजके प्रतिनिधिके रूपसे लिख रहा है जिसमें किसी भी गया और शेष नामवाली पंक्तिका 'बा. बहादूरसिंहजी श्वेताम्बरम्यक्तिको भापत्ति नहीं हो सकती । फिर भी सिंधी, कलकत्ता' इस कामे रूपान्तर किया गया है। दूसरे मेरा यह विचार स्थानकवासी समाजको भी मान्य होगा; भी कुछ परिवर्तन किये गये हैं। क्योंकि मैं जो कुछ लिख रहा है उसमें श्वेताम्बर, स्थानकमालूम नही किसीके पत्रको उद्धृत करते हुए उसमें वासी और तेरापंथी सभी सहमत। . इस प्रकारके सम्पादन-परिवर्तनादि-विषयक स्वेच्छाचारके जब वीरशासमजयंती महोत्सवको अखिममारतवर्षीय लिये सम्पादकजीक पास क्या प्राधार है-किस अधिकारसे जैन महोत्सव बनाना होतब यह जरूरी हो जाता है कि सभी उन्होंने ऐसा किया है। और क्या उनका यह कृत्य अपने जैन फिरकोंप्रमाणभूत और उत्तरदाई मुख्यम्यक्तियोंसे पहले पाठकोंके प्रति एक प्रकारका विश्वासघात नहीं हैं। संभव है परामर्श किया जाय, जो वीरसेवामंदिरने किया नहीं है। सम्पादकजीने अपने इस कृत्यद्वारा सिंधीजीको यह पाठ प्रस्तावमें कहा गया है कि भागामी महोत्सव राजगृही पढाना चाहा कि उन्हें पत्रास ढंगसे लिखना चाहिये के विपुलाचवापर भीर श्रावणा कृष्णप्रतिपको मनाया जाय. जहाँ और जिस दिन भगवान महावीर प्रथम उपदेश था और अपनेको 'निवेदक' न लिख कर 'भवदीय' शब्दके विचा।मैं समझता हूँ कि प्रस्तावका यह कथन विशेषप्रयोगसे ही व्यक्त करना चाहिये था। परन्तु जब सिंधीजीने रूपसे भापतिक योग्याच्या श्वेताम्बर और क्या स्थानकयह देखा होगा कि उनके हस्ताक्षरी नामके साथ भी 'बा.' वासीकोमाज तक बहन जानता है और न मानता (बाबू) और 'जी' शब्द जोड़ कर उन्हें उन्हींकी तरफसे कि भगवान महावीरने अरू स्थानमें उक्त सिधिको प्रथम प्रयुक्त हुए सूचित किया गया तब उन्हें उसके लिये कितना उपदेश था। इसके विल्द सभी स्वेताम्बर और सभी स्थानक संकोच हुना होगा और उस परसे उन्होंने सम्पादकजीकी वासी पुराने इतिहास और परम्परामाधार पर यह मानते योग्यताका कितना अनुभव किया होगा, इसे विश पाठक हैक भगवान महावीरबजुबानीका क्ट पर प्रथम उपदेश स्वयं समझ सकते है। अस्तु । किया और सो मी वैशाख शुक्ष दशमीको।। अबमें सिंधीजीके पत्रको अविकलरूपसे, अपने उत्तरपत्र मेरे इतकबनके समर्थनमें केवबा परम्परागत भुति के साथ, अनेकान्त-पाठकों के सामने रखता है, जिससे उने हीनही बल्कि अधिकसे अधिक पुराने अन्योंका मी वस्तुस्थितिका ठीक बोध हो सके और वे जैनसत्यप्रकाशके भाचार है। वेताम्बर और स्थानकवासी समाजके सम्पादककी विरोधी-मावना और गलत प्रचारको भलेप्रकार सामने ऐसे ऐतिहासिक भाचार हों और परम्परा हो या समझ सकें। सबसमें एकमत एक ऐसी नई निराधार बात Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] सम्पादकीय ३२३ को मानकर, उसमें भाग लेकर इतिहास तथा परम्पराके वीरसेवामन्दिर मसम्मपर हरतान कैसे फेर सकते है इसलिये मैं आपसे सरसावा जि. सहारनपुर जानना चाहता हूँ किमापके पास पुरानेसे पुराने प्रमाण ता०२१-10-11 क्या है जिनमें भगवान महावीरने विपुखाचलपर श्रावण श्रीमन्महानुभाव सिंघीजी, मादर जयजिनेन्द्र । कृष्ण प्रतिपदको प्रथम उपदेश देनेको बात कही गई हो। ता. २६ सितम्बरका रजिटई पत्र मुझे पथासमय जहाँ तक मैं जानता, दिगम्बर समाजमें भी उक्त स्थान मिल गया था। अस्वस्थता और अवकाशसे बगातार पर उस तिथिको प्रथम उपदेश दिये जानेकी परम्परा और घिरा रहनेके कारण उत्तर कुछ विलम्बसे रहा। जयंतीमहोत्सवकी परम्परा बिल्कुल मई और निराधार भी। मा कीजिये। फिर मी दिगम्बरसमाज अपना निर्णय करने में स्वतंत्र भापका पत्र प्राप्त होनेसे पहिले 'मेकान्त' के लिये है, किन्तु श्वेताम्बर समाज और स्थानकवासी समाज तो एक खेलकी योजना होगई थी, जो भाप पत्र मुख अपनी पुरानी-सप्रमाण परम्पराको तब तक छोड नहीं विषयसे सम्बन्ध रखता। यह खासी द्वितीयकिरामें सकते जब तक उन्हें मालूम न हो कि उससे भी अधिक मुद्रित कुना है, जो दो तीन दिन बाद ही संबामें पहुंचे पुराना और अधिक प्रमाणभून माघार विद्यमान है। गी। इस लेखको पद मानेकपाव, मैं समझता है भाप __ यदि आपके पास अपने विचारके समर्थक पुराने प्रमाण अपने पत्रको प्रकाशित करनेकी पावश्यकताको महसूस हों तो उन्हें शीघ्रातिशीघ्र प्रसिद्ध करना चाहिए जिससे महीं करेंगे, क्यों कि लेखम उभयसम्प्रदायोंकीररिसे विषय दमरे लोग कुछ सोच भी सके। मेरे प्रस्तुत विचारका भाप का स्पष्टीकरण किया गया और उसमें पुराने प्रमाद खुलामा करें या न करें तो भी मेरा यह पत्र माप अगले भी मौजूद है जो मापने मुझसे चाहे। सीसे पत्रको अनेकान्तमें कृपया अवश्य प्रकाशित कादं जिससे हर एक प्रकाशित कामेकी जरूरत नहीं समकी गई। पदिक विचारवान्को इस बारे में सोचनेका, विचारनेका और कहने लेखको पढ़कर भी भाप पत्र प्रकाशमकी जरूरत मममंगे का तथा मिर्डब करनेका यथेष्ट अवसर मिल सके। तो वह अगली किरणमें प्रकाशित कर दिया जायेगा । पत्र पापको मालूम होगा कि जहाँ जहाँ संभव हो वही में "बिल्कुल गई और मिराचार" जैसी कुछ भारपपरक समी जगह मैं सब फिरकों को एक जगह मिखानेका पच- बातें भापत्तिके योग्य है और इस बातको सूचित करती पाती। इसी कारण कलकत्ता-जैसे विशाल शहरमें और है कि विषयका स्वयं मनन करके उन्महीं खिला गया विशाल जैनबसती वाले स्थानमें सभी किरके वाले हम एक है। पत्रके प्रकाशनसे एक नया विवादस्थान पैदा होगा जगह मिलकर पर्व विशेष ममाते है। परंतुबह पूर्व हममे मीसंभव ,बिसेमापनहीं चाहते औरतीचाहता ऐसा जुना जिसमें किसी फिरोका मतमेद नहीं। वह हूँ। पत्र प्रकाशनके बिना भी सब माममा परस्परम पर्व गुपन यौवशी-महावीरका जन्म दिवस । यदि सहाय-पूर्वक सब हो सकता है कि महोत्सव किन किन ऐसा ही महावीरके प्रथम उपदेनाका स्थान और दिन सभी कामों में किस हद तक श्वेताम्बर समाजका सहयोग प्राप्त पिरकों में निर्विवावरूपसे मान्य हो तो उस स्थान पर हो सकेगा अथवा 'ममेकान्त' सिद्धान्त कही तक जस दिनको मबे जयंती महोत्सवकी पोजनाका विचार अपना रास्ता निकालने में समर्थ हो सकेगा। खासकर ऐसी संगत हो सकता पर जहाँ मूला में ही मेद और विरोध हातमें अब कि भाप जैसे उदार महानुभाष ताम्बरहैवहां सभी चिरकीका सम्मिखित पसे भागना से समान एक मान्य प्रतिनिधिहै। बहरहा उत्सव लिस सोचा गया वह मेरी समकमें नहीं पाता। यह एक तो शासनमारके पवित्र उद्देश्यको लेकर किया जा रहा भुमे बैन किरकों में एकमवा विवादस्यान पैदा कराने उसमें किसीको भी चापति नहीं हो सकती में वोहरसाद बाबीवीपाती है। निवेदक तीनोंडीसम्मवाओं सनोको रसबमें सम्मिलित होने बहादुरसिंह सिंघी लिये निमंत्रित करता बारा भनेक सजन शामिज भी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व हुए 1-एकवर्ष.तो उत्सब एक प्रमुख स्थानकवासी साधु प्रकट करते आए है। समय समय पर झापसे कितना की. जीके सभापतित्व.डी.मलाया गया था, जो अगले साल प हाड हुमा, अनेकाननकेलिमे लेखोंकी प्रेरणा भी. भी अपने कुछ विचासिंगोंके साथ पधारे थे, परन्तु कहीं की.माई है, एक दोख, प्राप्त भी हुए हैं, अनेकवार अस्त्र; किसी भी प्रकार की भापत्रिका वर्णन नही हो..परमा--सब: स्कता.तथा. अत्तत्राण के कारण, लेखोंके मेजने में श्रापने. काईबहुत ही प्रेमपूर्वक- एमा। ऐसी ही माया मजबूरी:भी जाहिर की है। मार्च मन BE४९ के अनेकान्त, अपने महोत्साहित भी की जातयी। . . में प्रकाशितके, कनि गजमनका पिगल और राजा भारमल्ल', बाकी मापा मह किसना.कि फिर भी दिगम्बर नामका, मेरा लेख-पढ़ कर तो आपने बड़ी प्रसन्नता व्यक्त समाज अपना निर्वाय करने में स्वतंत्र है," इत्यादि यह की थी और स्वत: ही यह लिखा था कि मैं अनेकानाके है.और इसमें जो स्पिरिट संनिहित जान पड़ती उससे लिये इस पिंगल ग्रन्थका सम्पादनादि कर दूंगा। दी सब उत्सव-विषयमें खेताम्बर-समाजकी ओरसे किसी प्रवर परिस्थितियों एवं आपके विषयकी अपनी धारणाके वश, विरोधकी मासा नहीं की जासकती। प्रत्युव इसके...यही वीरशासन-जयन्तीक महोत्सव-सम्बन्धी प्रस्तावकी अस्थायी असा रखी जासकती है कि अब मतभेदके होते हुए भी समितिम भापका नाम भी चुना गया था और बादको शासनप्रचार, साहित्यसम्मेलन.और साहित्मिकप्रदर्शनी अनेकान्त-विशेषाङ्कके मम्गदक-मण्डल में भी आपके नामी जैसे कार्यों में प्रवेतामसारसमाजका अपरय सहयोग प्राप्त योजना की गई थी। इस योजनाकी सूचना देते हुए मैंने होगा। इतना ही नहीं, बक्षिक सह प्रायमें भापके द्वारा आपसे दो बार पत्रद्वारा अपनी स्वीकृति भेजने के लिये निवेप्रयुल हुए तबतक" और "जबतक" ये शम्दों परसे, दन किया और एक बार अनेकान्तकी पिछली किरण द्वारा। तो बहसी माया पती:कि किसी समय निष्पाता मेरे इस निवेदनके उत्तर में आपने जो पत्र भेजनेकी कृपा पूर्वक विष विचार होकर मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गये, की हे वह मुझे बड़ा ही अनोखा तथा अभूतपूर्व जान पडा प्राचीन प्रमाओं की महलाका बेतामार समाजद्वारा स्वीकार है। पत्रमें उसे अनेकान्त में प्रकाशित कर देनेका अनुरोध, भी किया जाता है। ऐसी हालत में किसी अमिय प्रसंगके भी है, और इस लिये उसे अधिकल रूपसे नीचे प्रकशित उपस्थित होने की भी कोई बात नहीं है....... किया जाता ह . . , .. . भवदाय. ... . .....जगलकिशोर ... .. ... प.पचरदासजीका अनोखा " पं. मेचरदासजी श्वेतावर जनसमाज एक प्रसिई विज्ञान है, संस्कृत-प्राकृतादि भाषाप्रोके पंडित है, अध्यापन तथा अन्य सम्पादनादिका कार्य करते है और व्याकरणादि: विषयक कुछ स्वतंत्र प्रन्योंका आपने निर्माण भी किया है। माजसे कोई १५-१६ वर्ष पहले, अहमदाबाद रहते हुए, श्राप मेरे कुछ विशेष सम्पक में पाए हैं और तबसे में आप को एक संबनस्वभाव तथा उदार-विचारका त न समझता पारा, आँपके व्यक्तित्वके प्रति मेरा दर तथा प्रेमभाव है और आप भी, जहाँ तक मुझे मालूम हैं, मेरे और मेरे कार्याक प्रति अपनी"दिर तथा प्रेमभाव .... .१२व, भारती निवास सोसायटी, भाई जुगलकिशोरंजी ........ एलिस विज वन्दे मातरम : मैंने माना है कि भाप इतिहासका विपर्यास करने में गे हुए है और दिगंबर तथा तार इन दोनों बंधु." समाजमें ऐक्यकी का बस्य बदनिका भूमिटवलमें चंप्रसर होते जा रहे . ... . .."Sजी भापकी ऐसी परिस्थितिमान मिले हा और पिके प्रति सर्वबा" उपेचम्भाव" भागबाट सी करिशसे 'मापर्कका पत्र निपर भी में एकको भी उत्तर नहीं दे सका। .. में समंजतायााप मेरी पेशामाव" वर्ष समज (शेष अंश टाइटिस तीसरा Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० का शेष अंश) सम्बम्बन राना। इन भारोपोंके समर्थनमें किसी भी जायंगे और फिर फिर पत्र लिखकर सामाजिक बनकोबर- हेतुका प्रयोग नहीं किया गया और मलिहासाविक विषबाद नहीं करेंगे, परंतु मेरी धारणा गलत हुई और मापके सिको स्पट करके ही बतलाया गया है, तब ये नादिरपत्र फिर फिर पाते ही रहे और मापके अनेकान्तमें भी शाही मारोप कहाँ तक डीक है, इसे मैं उन विचारशीव मेरा नाम भाप बार बार छापते ही रहे. अतः यह पत्र पाठकोंके निर्णय पर ही चोदता हूं मो मेरे साहित्य और जिम्बका पापको भापके कार्यकी प्रति मेरा सर्वथा उपेवाभाव कार्योंसे परिचित हैं। साथ ही, इतना और भी बतक्षा देना है इसकी सूचना देता हूं ताकि श्राप मेरा मनोभाव स्पष्ट चाहता हूं कि पं. बेचरदासजीने माज तक, मेरी जानसमज जाय. कारीमें, मेरे किसी भी ऐतिहासिक लेखका प्रतिवाद नहीं मानवनाके नाते माप हमारे भाईतो भी सत्यकी किया-उसे विपरीत अथवा अन्यथा मिद करना तो दूरकी रष्टिये भाप हमारे लिए उपेक्षणीय है अतः भापकी किसी बात है। मात्र अपनी मान्यताके विख्य किसी बातको देश भी प्रकारकी साहित्यिक वा धार्मिक प्रवृत्तिमें मेरा देश भी कर उसे इतिहासका विपर्यास बतखाना ऐसा ही जैसा सहकार व सजाव नहीं है। इसकी श्राप नोंच कर लेना कि कोई सीपके टकको चांदी समझकर मोहवश अपना और यह समाचार अनेकोसमें छाप भी देना. रहा हो, स्वयं उसे चाँदी सिद्ध न कर सकता हो और मापके अनेकांसमें चाप कई वफे मेरा नाम लिखकर वसरोंके सीप सिह कर देनेको सत्यका विपर्यास बतलाता हो। लिखते हैं कि "अमुक कमिटिमें पंडित बेचरवासजी मुझे तो इस पत्रको पढ़कर अब ऐसा भाभास होता नियुक्त किये गपवाभुक कार्य पंडित बेचरदामजीको कि मई सन् की अनेकान्त किरवा नं.४ में मैंने पोपा गया" इत्यावि, अब आप ऐसा लिम्बनेका काटन जी लेखा--'क्या तत्वाधसूत्र अनागम-समन्वय में तत्वार्थउठावं और मेरा नाम लिखकर समाजमें भ्रम फैलानेका मनके बीज'--4. चन्द्रशेखरजी शासीका प्रकाशित अयानको खोदेखें किया था इस परसे भाप मुझसे कट हो गये है, यो कि इस पारे पत्रको अनेकांनमें अवश्य प्रकट कर देवें उममें शाखीजीने भापकी तटस्थताको चैलेंज करते हुए जिममे पमम्त निर्गवर बंधुओंको और समस्त श्वेताम्बर भापकी साम्प्रदायिक मनोवृत्तिको कुछ ना करके बनवाया बंध को मेरे विषयमें मचा हात मालम हो जाय था। तमामे आपने जिस पिंगल मन्थके सम्पादनादिका आपका बेचग्दास स्वयं वचन दिया था इसके प्रेरणात्मक पचों पर भी कुछ मालूम नहीं यह पत्र चिन और मस्तिष्ककी कमी ध्यान नहीं दिया। बादको चापकी मान्यता विषयक स्थिनिमें लिखा गया ! सब बात काय नायव जैसी मयुनिक लेख भी अनेकामसमें प्रकाशित हुए है, जिनका जान पाती है--विचार और विवेकके साथ उनका कोई श्रापमं माज तक कोई उसर नहीं बन सका और इस लिये बाप सम्बन्ध मालूम नहीं होता। पत्रमं एक बम पूर्वके भापकी वह कहना उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई, जोपन्तको मन सम्बन्धों पर ही पानी नहीं फेरा गया बलिक शिष्टता उन पत्रके रूपमें फूट पड़ी है!!! अच्छा होता यदि पंडित मन्यना और सुजनताको भी जलाअलि दी गई है!!! जी उसी समय मुझे अपने उपेक्षाभावसे सूचित कर देते। इतिहायज्ञमा और एकताका दम भरने वालोंकी प्रेमी मा होने पर नतो उन्हें मेरे पत्रको पढ़नेका कष्ट उठाना वाकपग्विाति और प्रेमी उदार लेखनी अवश्य ही ऐति परता, न महोगमवकी समिनि मध सम्पादकमंसमें उनका हामिकों तथा एकता-प्रेमियों के लिय चिन्ता और विचारकी नाम चुना जाता और न उन्हें इस पत्रके लिखनेकी नौबत वस्तु है ! मेरे जैमोंके प्रति “मर्वथा उपेक्षाभाव" की और ही पाती। उन्होंने गलनी की जो मुझे ऐसा मन: पयशानी 'मेरी किसी भी प्रकारकी साहियिका धार्मिक प्रवृत्ति में ममम लिया जो उत्तरके न श्राने मात्रसे सब कुछ भुला अपना क्षेश भी सहकार व मजाब न होनेकी घोषणा' तो कर उनके उस मधा उपेक्षाभावको समझ जाता । खैर, बनयकी कल्पनातील विशालताकी उपज मालम होगी!!! अब भापके इस पत्रने मेरी माँखें खोलदी है, मेरी गक्षत इम पत्रमें मेरे ऊपर तीन भारोप लगाये गये है फ्रडमीको दूर कर दिया है और मुझे पापके या भापकी (1) इतिहासका विपर्यास काना, (२) अनैक्य बढ़ानेक माम्प्रदायिक मनोवृत्ति एवं मण्यप्रेमको असली रूपमें ममम अनिष्ट प्रथानमें अग्रसर होना, और (३) मत्यमे कोई कामवसर मिल गया। ता. ३०-४-१६४४ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप कर तैयार होगया दि० जैन-संघ ग्रन्थमालाके प्रथम पुष्पका प्रथम दल भगवद्गुणधराचार्य प्रणीत कसायपाहुड • यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्र और स्वामी वीरसेन कृत जयधवला टीका तथा उनके हिन्दी अनुवाद सहित दो वर्ष पूर्व अपनी धर्ममाता स्व० मूर्तिदेवीकी स्मृति में श्रीमती रमारानी धर्मपत्नी दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी मियानगर के द्वारा द्वितीय सिद्धान्त प्रन्थ श्री जयधवलजीक प्रकाशनार्थ दिये गये २५०००) के दानसे संघने काशी में जो श्री जयधवलजी के प्रकाशनका काम प्रारम्भ किया था उसका प्रथम भाग छप कर तैयार होगया है । इसका सम्पादन अपने विषय के ख्यातनामा विद्वान पं० फूलचंद्रजी सिद्धान्त शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने किया है। प्रारम्भमें ११२ पृष्ठकी विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना है । विषयको स्पष्ट करने के लिये १५४ विशेषार्थ और सैंकड़ों टिप्पणी ही गई है। कागजके इस दुष्कालमें भी ६४ पौण्डके पुष्ट कागज पर छापा गया है। स्वरकी सुन्दर जिल्द है । -मूल्य-पुस्तकाकार १० ) शाखाकार १२) पोस्टेज खर्च अलग । कृपया कमीशन या किसी प्रकारकी रियायतकी माँग न करें। रेल्वे पार्सलकी जिम्मेदारी खरीदारकी होगी। बिल्टी श्री० पी० सं भेजी जायेगी । मन्त्री - जयधवला कार्यालय, स्याद्वाद जैन विद्यालय भदैनीघाट बनारस कर्मफल कैसे देते हैं प्रस्तुत पुस्तक में बहुत ही सरल भाषा में अन्य धर्मोके साथ तुलनात्मक ढंग से यह दिखाया गया है कि जीव अपने किये हुए कर्मोंका फल बिना किसी शक्ति-विशेष (ईश्वरादिके) स्वयं ही कैसे पाता है। कीमत ।) Registered No. A-731. भारतका प्रादि-सम्राट हमारे राष्ट्र भारतवर्षका यह भारतमाता आज लोगों में फैली हुई ति अनुसार शकुन्तला और दुष्यन्तके पुत्र भरतके नाम पर न होकर हमारे आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रीके नाम पर भारतवर्ष पड़ा हुआ है, इस पुस्तकमें इमी विषयको वेद, उपनिषद, आदि प्रसिद्ध प्राचीन हिन्दू मन्थोंमे सिद्ध किया गया है। कीमत 12) दोनों पुस्तकें माथ मंगाने वाले सज्जन ।।।) मय पोस्टेज के भेजें। जैन प्रगति ग्रन्थमाता फोर्ट रोड सहारनपुर यू० पी० 20 If not delivered please return to: VEER SEWA MANDIR, SARSAWA. (SAHARANPUR) मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्दशास्त्री बीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में मुद्रित । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सने कान्त सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार SIKKIKEKEKEKEL विषय-सूची KAKAR aKaKaM ११२ aKETKHIKSHIKHAREHIKAR समन्तभव-भारतीके कुछ नमूने-[सम्पादक " पृष्ठ ३२५ २ गोत्रविचार (परिशिष्ठ)-[40 फूजन्द्र सि. शास्री ३ क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक न्या.पं. दरबारीलाल ३३० ४ गांधी-गीत ( कविता )-[कमल किशोर वियोगी' . -- १ गुरुदक्षिणा (कहानी)-[श्री बालचन्द जैन विशारद मुद्रित श्लोकवार्तिककी त्रुटिपूर्ति-[पं. परमानन्द शास्त्री . बहनों के प्रति-[श्री चन्दगीराम 'विद्यार्थी' तृष्णा (कविता)--श्री घासीराम जैन 'चन्द्र' .... 'स्वाधीनताकी दिव्य ज्योति' (एक परीक्षण)-[एस. सी० बीरन ..." चांदनीके चार दिन ( कहानी )-श्री भगवत जैन " " अभ्यर्थना ( कविता )-[पं. काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' ... १२ ग़लती और ग़लतफहमी-[सम्पादक ५ शिनसवाश (प्राचीन गुफामन्दिर)-[श्री गुलाबचन्द्र अभयचन्द्र जैन ४ केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा-[ न्या. पं. माशिकचन्द्र अयपुरमें एक महीना-पं० परमानन्द शाखी ..... " वीरशासन-जयन्तीपर मुनि श्रीकृष्णचन्द्रमीका अभिमत १. साहिस्य-परिचय और समालोचम १८ राजगिरिमें वीरशामन जयन्ती-महोत्सव गाईटिन. बीरसेवामन्दिरको सहायता भनेकान्तको सहायता २. दोधारमानोंका वियोग । वीरशामना-विषयक जस्ती सूचना ........kkkk.cm. xx2.04. 01.18 E * वर्ष ६ A HATIWWHINHAIMAHAHATHMANIAHINILAMIRIANIMARWARARIANRAATHAWLAW किरण १०-११ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगिरिमें वीरशासनजयन्ती - महोत्सव (भावणकृष्ण १, २ ता० ७, ८ जुलाई सन् १६४४) अनेकान्तके पाठकों को यह तो बहुत पहलसे मालूम है कि इस वर्ष वीर-शासनजयन्तीका महोत्सव राजगृह (राजगिरि) में उस पवित्र स्थान पर ही मनाया जायगा, जहाँसे बीरशासनकी 'सर्वोतीर्थ-बारा' प्रवाहित हुई है। आज मैं इतनी सूचना और देना चाहता हूँ कि पिछले दिनों कलकत्ता में एक मीटिंग हुई थी जिसमें साहू शान्तिप्रसादजी, बा० निर्मलकुमारजी, सेठ बैजनाथजी सरावगी, बाबू बलदेवदासजी और बाबू छोटेलालजी आदि समाजके प्रमुख सज्जनोंने भाग लिया था । उसमें राजगिरिकी वर्षाकालीन स्थिति ओर कुछ जैन- श्रजैन विद्वानोंके पत्रों आदिको लक्ष्यमें रख कर यह तय किया गया है कि महोत्सवको दो भागों में बाँटा जाय-एक वार्षिकोत्सव और दूसरा 'साधे-द्वयसहस्राब्दि - महोत्सव' । वार्षिकोत्सवको वीरतीर्थकी प्रवृत्तिके नियत समय श्रावण - कृष्णप्रतिपदा को ही मनाया जाय और दूसरे महोत्सवको कार्तिक सुदिमें दीपावलिके करीब (अक्तूबर मासमें) रक्म्बा जाय तथा उसके साथ भा० दि० जैनतीर्थ क्षेत्र कमेटीका जल्सा भी किया जाय। दोनों ही उत्सव राजगिरिमें मनाये जायें और वार्षिकोत्सवके समय महोत्सव-सम्बन्धी सब योजनाओंको पूरी तौर से स्थिर कर लिया जाय । तदनुसार वार्षिकोत्सव की तारीखें ७, ८ जुलाई सन् १६४४ निश्चित की गई हैं । अतः चीरभगवान् के उपासकों और उनके शासनसे प्रेम रखने वाले सभी सज्जनोंसे निवेदन हैं कि वे इस पुण्य अवसर पर एक दिन पहलेसे ही राजगिरि पधारनेकी कृपा करें । समाजके विचारशील विद्वानों और दूसरे प्रतिष्ठित सज्जनोंको तो खास तौर से पधारना चाहिये, जिससे वार्षिकोत्सवकी सफलता के साथ महोत्सव-सम्बन्धी भावी प्रोग्रामके स्थिर करने में, जो यहुत ही महत्वपूर्ण है, उनकी पूरी मदद मिलसके । इस उत्सवका प्रोग्राम ता० ७ जुलाईको प्रातःकालसे ही प्रारम्भ हो जायगा, जब कि नगर में प्रभातफेरी करता हुआ जलूस विपुलाचल पर्वत पर उस सूर्योदय के समयसे कुछ पहले ही पहुँच जायगा जिस समय वीरभगवानकी दिव्यबाणी खिरी थी और उनका धर्मतीर्थ प्रवर्तित हुआ था । वहाँ उस वक्त पर्वत पर ध्वजारोहण, पूजन-स्तवन, वीर-सन्देश- श्रवण और एक कीर्ति स्तम्भके लिये स्मृति - पट्ट (Memorial Tablet) के स्थापन आदिका महत्वपर्ण कार्य होगा । बादको नगरमें आक रतीसरे पहर से वार्षिक अधिवेशनकी कार्रवाई शुरू होगा, जो अगले दिन तक रहेगी और जिसमें वीर जीवन और बीर- शासन पर विद्वानोंके भाषण होंगे तथा महत्वके प्रस्ताव पास किये जायँगे । -- रेलपथ से आनेवालोंको ई० आई० रेल्वेके बख्तियारपुर जंक्शन पर उतरना चाहिये, जहाँसे तीन गाडियाँ राजगिरिको जाती है-एक सुबह ६-३० पर, दूसरी दो पहरको १ बजे और तीसरी शाम को ६-२० पर - और कोई तीन घंटेमें राजगिरि पहुँचा देती है । प्रय १८ उ: ए — निवेदक जुगलकिशोर मुख्तार अधिठाता 'वीरसेवामन्दिर' जय प्रज Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वार्षिक मूल्य ४) १० - इस किरणका मूल्य ) . नीतिविरोधातासोम्यवहारवर्तकसम्पर। पत्मागमस्यबीज भुक्नेकगुरुर्जपत्पनेत 3- REFENEmaem.saacaamanarma -T amariawarram a n . बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राभम) सरसावा जिला सहारनपुर ज्ड, भाषावयष्य, बीरनिर्वाह संवत् २५.०, विक्रम सं.... किरण १०-११ 'समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ २२॥ श्रीधारिष्टनेमि-जिन-स्तोत्र भगवानृषिः परमयोग-वहम दुन-कस्मन्धनः । ज्ञान-विपुल-किरण सकलं प्रतिबुध्य बुद्ध-कमळायतेचयः ॥१॥ हरिवंश-केतुरमवय-विनय-दमतीधे-नायकः। शीब-जबधिरभवो विमवस्त्वमरिष्टनेमि-जिनकुजगेऽजगः ॥२॥ 'विकसित-कमलदलके समान दीर्ष नेत्रोंकेशरक और हरिवंशमें बजरूप हे अग्टिनेमि-जिनेन्द्र ! आप भगवान-सातिरायाज्ञानवान- ऋषि-दिसम्पन-और शीशसमुद्र-अठारह बार शीलोंके पारक-ए मापने परमयोगरूप शुकण्यानाग्निसे कामवेन्धनको-शानावरमादिरूप कर्मकारटको-भस्म किया है और जानकी विपुल (निरपशेषयोतनसमर्थ विस्लीय) किरणोंसे सम्पूर्ण जगत अथवा लोकालोकको 'जानकर पाप निदोष (मायादिरहित) विनय तथा पमरूप तीके नायक हुए-आपने सम्यग्दर्शन-शान-बारित्रतप और उपचाररूप पंचपकारके विनय तथा पंचेन्द्रियजयरूप पंचमकार दमनके प्रतिपादक प्रवचन-तीर्थका प्रवर्तन । किया है।(साव हो) आप जरासे रहिस और भवसे विमुक हुए। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अनेकान्त त्रिदशेन्द्र-मौग्नि-मणि-रस्न-किरण-विसरोपचुम्बिनम् । पाद-युगलममलं भवतो विकमत्कुरोग्य-दलारुणोदरम् ॥ ३॥ नव-चन्द्र-रश्मि-कंवचाऽतिमधिर-शिवरातिापतम्। स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्र-मुखरा महर्षयः॥ ॥ 'आपके इस निर्मल चरण-युगलको, जो ( प्रणाम करते हुए ) देवेन्द्रों के मुकुटोंकी मणियों और बनादिरलोंकी किरणोंके प्रसारसं उपचुम्बित है, जिसका उदर-पादतल-विकसित कमल-दलके समान रक्तवर्ण है और जिसकी अंगुलियोंका उन्नत प्रदेश नखरूप-चन्द्रमाओंकी किरणोंके परिमण्डलसे अति सुन्दर मालूम होता है, वे सुधी महर्षिजन प्रणाम करते हैं जो अपना आत्महित-साधनमें दत्तचित्त हैं और जिनके मुखपर सदा स्तुति-मन्त्र रहते हैं।' - चुतिमद्रयान-धि-बिम्ब-किरण-जटिलांशुमण्डलः। नोल-जलज-दल-राशि-वपुः सह बन्धुभिर्गाकेतुरीश्वरः ॥५॥ इलभृच ते स्वजनभक्ति-मुदितहदयो जनेश्वरी। धर्म-विनय-रसिकी सुतरा चरणारविन्द-युगलं प्रणेमतुः ॥६॥ 'जिनके शरीरका दीप्तिमण्डल पुतिको लिए हुए मुदर्शनचक्ररूप रधिमण्डलकी किरणोंसे जटिल है-संवलित है-और जिनका शरीर नीले कमल-दलोंकी राशिके समान श्यामवणे है उन गरुड़ध्वजनारायण--और हलधर--पलभद्र--दोनों लोकनायकोंने, जो स्वजनभक्तिसे प्रमुदितचित्त थे और धर्मरूपविनयाचारके रसिक थे, आपके दोनों चरणकमलोंको बन्धु-जनों के साथ बार बार प्रणाम किया है।' ककुद भुषः स्वधर-पोषिषित-शिवरेग्लङ्कृतः। मेघपटल-परिवीत-तटस्तष लक्षणानि लिखितानि पत्रिणा ॥७॥ बहतीतितीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽथ च। प्रीति-चित्तत-हदयः परितो भृशमूर्जयन्त इति चिअतोऽचलः॥८॥ 'जो पृथ्वीका ककुद है-लके कन्धेके समीप स्थित ककुद-नामक सोंगरभाग जिस प्रकार शोभासम्पन्न होता है उसी प्रकार जो पृथ्वीके सब प्रयवोंके ऊपर स्थित शोभासम्पच उच्चस्थानकी गरिमाको प्राप्त है-विद्याधरोंकी बियोंसे सेषित शिवगेस अलंकृतो और मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है वह विभुत-लोकप्रसिद्धऊर्जयन्त ( गिरनार .) नामका पर्वत (हे नेमिजिन ) इन्द्रद्वारा लिखे गये-उत्कीर्ण हुए-आपके चिन्होंको धारण करता है, इसलिये तीर्थस्थान है और आज भी भक्तिसे सल्लसितचित्त ऋषियोंद्वारा सब ओरसे निरन्तर अतिसेवित है- भक्तिभरे ऋषिगण अपनी आत्मसिद्धिके लिये बड़े चावसे आपके उस पुण्यस्थानका श्राश्रय लेते रहते हैं। बहिरन्तरप्युभयथा च करणमपिधाति नाऽर्थकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा स्वमिदं नलाऽऽमपनिवेदिय ॥६॥ अत एव ते बुधनुतस्य चरित-गुषमहतोदयम् । न्याय-विहितमबधार्य जिने स्पयि सुप्रसन-मनसः स्थिता वयम् १० नार ) नामका पता है और मेघपटलोंसे व्यापान उच्चस्थानकी गरिमाको प्रकार शोभासम्पन्न पतिसवित है- भास्थान है और आज भाग लिखे गये-वह विश्रुत-लोकप्रसिद्ध Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] समन्तमद्-भारतीके कुछ नमूने ३२७ - - 'हे नाथ ! आपने इस अखिल विश्वको-चराचर जगतको-सदा करतलस्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना है, और आपके इस जानने में बाटाकरण-धनुगदिक और अन्तःकरण-मन-ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते हैं। इसीसे हे बुधजन-स्तुत-अरिष्टनेमि जिन ! आपके न्याय-विहित और अमृत वय सक्ति-समयसरणादिविभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए--चरितमाहाल्यको भले प्रकार अवधारण करके हमपदेप्रसा-पिससे भाप में स्थित हुए हैं-मापके भक्त बने है और हमने आपका माश्रय लिया।' [ २३ ] श्रीपार्थ-जिनस्तोत्र तमालनीले सघनुम्लरिगुणः प्रकीर्ण-भीमाऽसमि-पायु-वृष्टिभिः। पलाहकरिवशैम्पद्रुतो महामना यो , चाल योगतः ॥१॥ 'तमालवृक्षके समान नील-श्यामवर्ण के धारक, इन्द्रधनुषों तथा विद्युद्गुणोंसे युक्त और भयर चन, बाय तथा वर्षाको सबभोर बखरने वाले ऐसे वरि-वशी -कमट शत्रुके इशारे पर नाचने वालेमेघोंसे उपद्रत होने पर-पीड़ित किये जाने पर--भी जो महामना योगस-शुक्लध्यानसे-बलायमान नहीं हुए। वृहत्फणा मण्डल मण्डपेन यं स्फुरत्तडिस्पिकचोपसनिकम्। जुगह नागो धरणो घराघरं विरागसंध्यातडिदम्युदो यथा ॥२॥ 'जिन्हें उपसर्गप्राप्त होनेपर धरणेन्द्र नामके नागने चमकती हुई बिजलीकी पीत दीप्तिको लिये हण वृहत्फणामों के मण्डलरूप मण्डपसे उसी प्रकार वेष्टित किया जिस प्रकार कृष्णसंध्यामें विक्टोपलक्षित मेच अथवा विविधवों की संध्यारूप विद्युतसे उपलक्षित मेघ पर्वतको बेष्टित करता है। स्पयोग निग्निश निशातपारया निशात्य यो दुर्जय मोविविषम् । अवापदाइन्स्यचित्यमद्भुतं त्रिलोकपूजाऽतिशयास्पदं पदम् ॥३॥ 'जिन्होंने अपने योग-शुक्लध्यान-रूप स्वकी सीण धारासे दुर्जय मोह-शवको नाश करके उस आईन्त्यपदको प्राप्त किया है जोकि अचिन्त्य है, अमृत है और त्रिलोककी पूजाके मतिराव (परमप्रकर्ष) का स्थान है। यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मष तपोषमास्तेऽपि तथा बुनूपः। बनौकमः स्वमवध्ययुद्धयः शमोपदेयं शरणं प्रपेदिरे ॥४॥ जिन्हें विधूतकल्मष-धानिकर्मचतुष्यरूप पापसे रहित-रामोपदेशक-मोक्षमार्गक उपदेष्टा-और ईश्वरके सकललोकप्रभुके-रूपमें देख कर वे (अन्यमनानुयायी) बनबासी तपस्वी मी शरण में प्रशस हुएमोक्षमार्गमें लगे-जो अपने ब्रमको-पंचाग्निसाधनादि रूप प्रयासको-विक समझ गये थे और सही (भगवान् पाई जैसे विधूतकल्मष ईश्वर) होने की इच्छा रखते थे। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अनेकान्त स सत्य विद्या- तपसां प्रणायकः समग्रधीरुकुलाऽम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते बिलीन-मिथ्यापथ दृहि विभ्रमः ॥ ५ ॥ 'वे ( उक्त विशिष्ट ) श्रीपार्श्वजिन मेरे द्वारा प्रणाम किये जाते हैं, जो कि सभी विद्याओं तथा तपस्याओंके प्रणेता है, पूर्णबुद्धि सर्वज्ञ हैं, उपवंशरूप आकाशके चंद्रमा है और जिन्होंने मिध्यादर्शनादिरूप कुमार्गकी दृष्टियोंसे उत्पन्न होने वाले विभ्रमोंको- सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप बुद्धि विकारोको - विनष्ट किया है—अथवा यो कहिए कि भव्यजन जिनके प्रसाद से सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गके उपदेशको पाकर अनेकान्तहष्टि बने हैं और सर्वथा एकान्तवादिमतोंके विभ्रमसे मुक्त हुए हैं।' गोत्र - विचार ( ले०--पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ) 90 [ परिशिष्ट ] sant गत किरण नं. ८ मैं जो मेरे गोत्रविचार' शीर्षक लेलका प्राच भाग प्रकाशित हुआ है उसे पढ़कर अनेक विद्वान् पाठकोंने कुछ और शाम्य बातोंपर प्रकाश डालने दिये हिसा है। उनकी सूचनाओंका संकलन निम्न प्रकारसे किया जा सकता है (1) सन्धानका जो आपने धर्म किया है वह मननीय है उसपर थोड़ा और प्रकाश डाकिये। [ वर्ष ६ (२) गोकर्म जीवविपाकी है, अतः उसका शरीर नोकर्मकर्म कैसे हो सकता है । (३) देवों के उप गोत्रका और तिर्वच वथा गारकियों का ही उदय होता है, अतः इनके गोत्र अवान्तर मेदोका परस्पर संक्रमण नहीं हो सकतः । हाँ मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय होता है इस लिये इनके दोनोंका संक्रमव सम्भव है। (v) सचामें स्थित इब्बका उदपावलिमें जाये हुए में संक्रमण होता है । अब आगे इनका कमसे विचार करते है (1) पचानें गोत्रका सहच करते समय एक 'चार्यप्रत्ययाभिधानम्यमनिन्दानाम् वह आया है जिससे प्राचार्यने साश्व सामान्यकी और हमारा किया है। इससे मालूम होता है कि गोत्रमें समान आचारचाकी सम्तान की गई है। यद्यपि आाचार मोहनीयके उदयादिले होता है पर कीयोंमें आधार की अपेक्षा समानता या एकरूपता बनाये रखना और उसकी परम्परा चलाना गोत्रकर्मका कार्य है। प्रत्येक जीवका आधार अपने अपने चारित्रमोहनीयके हीमाषिक उदथादिके अनुसार हीनाधिक भी होगा पर इस व्यक्तिगत हीनाधिकवाके रहते हुए जो उन जीवोंके उसकी समानता देखी जाती है उसकी उस समा. गवाकी परम्पराका प्रयोजन गोड़कर्म है और इसी अर्थ में सम्यान शब्द परिवार्य है। इससे मालूम होता है कि समान निर्मायका गोत्रकर्म मुख्य अंग है यदि गोत्रको समाजका पर्यायवाची भी कहा जाय तो कोई अष्युक्ति न होगी। फरक केवल कार और कार्यका है । गोत्र मयभाव है जो कि कारय है और समाज इश्क है जो कि उसका कार्य हैं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि वह काम यो जातिकर्मसे भी होता है। जैसे मनुष्यजातिमामकर्मके उदयसे सब मनुष्य एक हैं और इसलिये उनका एक समाज हुआ। फिर गोत्रकर्मकी क्या आवश्यकता ? सो इसका यह समाधान है कि बात तो पर्याप नियामक है और गोत्र व्यवहारकी अपेक्षा मतः इन दोनों Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र-विचार १०-११] में भेद है। यही सबब है कि हमने गोत्रका अर्थ व्यवहार की परम्परा या व्यवहारवासोंकी परम्परा किया है। (२) गोत्रकर्म जीवविपाकी है फिर भी उसका मोकर्मव्यकर्म शरीरको मान लेने में कोई आपत्ति नहीं। हाँ, एक बाधा अवश्य है कि और गोत्रका उदय भवके प्रथम समय में होता है और शरीरकी प्राप्ति प्रथम समय से लेकर चौथे समय तक किसी एक समय में होती है । अतः प्रारम्भमें शरीर उच्च और नीच गोत्र के उदयका अभ्यभिचारी कारण नहीं है। यही सबब है कि सिद्धान्तशा गोत्रको भयप्रत्यय और गुणाप्रत्यय स्वीकार किया है। गोत्रके दोनों भेदोंसे नीचगोत्र तो भवप्रत्यय ही है और उच्च गो भवप्रत्यय तथा गुणप्रस्थय दोनों प्रकारका होता है। इसका यह अभिप्राय है कि जिस में जिस गोत्र के उनकी सम्भावना है उसमें उसीका उदय होता है या नहीं। अन्यत्र तो एक एक गोत्रके उदयकी ही व्यवस्था है । पर कर्मभूमिके मनुष्य ऐसे हैं जिनके किसी भी गोत्रका उदय हो सकता है। हाँ यदि कोई उम्र गोत्री जीवनाच आचारवाले जीवोंकी परम्परामें उत्पन्न हो गया और समक दार होनेपर उसका उस परम्पराके प्रति अनुराग बढ़ गया तो उसके उब गोत्रके स्थान में मीगोत्रका उदय होजायगा । और यदि उसने उस परम्पराका त्याग कर दिया तो उसके उच्च गोत्रका ही उदय बना रहेगा। इसी प्रकार नीच गोत्र के सम्बन्धमें भी समझना चाहिये। मेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इसी अर्थ में उच्च और नीच शरीरको उच्च और ate गोत्रका जोर्मद्रव्यकर्म कहा है । यदि हम ऐसा न मानकर इसके विपरीत उनके कथनका अर्थ करें जैसा कि वर्तमान में किया जाता है तो उनकी की हुई सारी व्यवस्था टाईमें पड़ जाती है। उदाहरण के लिये नैमिषन्द्र सिद्धान्तपुरुष और वे उनके लिये स्त्री, पुरुष और नपुंसकका शरीर नोकर्मद्रव्यकर्म कहा है। अब यदि यह ऐकान्तिक व्यवस्था मान की जाय तो बेके नौ अंग ही नहीं बन सकते हैं और कारबके पहले कार्यकी उत्पत्ति माननी पडती है । यहाँ यह विषय संचेपमें लिखा है मैं इसका विस्तारसे विचार करने वाला हूं। इस जिये जितना बि उससे मारा विषय साफ़ तो नहीं होता फिर भी उससे चिन्तकको भित्य और व्यवस्थाकी + ३२६ दिशा मिल जाती है। (३) संक्रमय बन्धका ही एक भेद है। केव इतना ही है कि बन्ध नये कर्मोंका होता है मीर संक्रमवा सामें स्थित कमका । उसका प्रभाव उदयपर कुछ भी नहीं पड़ता है। अतः ओ भाई वह समझे बैठे है कि जिसका जहां होता है उसका वहां कार्य अवश्य होता होगा, उनकी यह धारणा गलत है। अब किस गतिमें किस गोत्रका संक्रमय होता है इसके लिये हमें बन्धपर ध्यान देना चाहिये; क्योंकि बम्धकामें ही उसमें अभ्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण होता है ऐसा नियम है। चारों गसिके जीवोंके दोनों गोत्रोंका बन्ध होता है दोनोंका संक्रमण भी होता है। जब गोषका बन्ध होगा तब ਕਦੋਂ ਦੀਆ ਬਾਸਵ ਜੋਧ ਜੀਵ ਬਅੰਬਾਨੀਆ *** होगा तब उसमें उप गोत्रका संक्रमण होगा । इससे यह निश्चय होगया कि संक्रमणका उदयसे कोई सम्बन्ध नहीं। यदि स्थिति और अनुभागका और कर्षक किया जाये तो इसके विषय में ऐसा नियम है कि उत्कर्ष तो बन्धकाल में ही होता है पर अपकर्षण बन्यकाल में भी होता है और बन्धकाखके बिना भी होता है। किन्तु प्रकृतियोंमें उदयभिषेक तक होता है जिसे उदीरया कहते हैं और अनुदयरूप प्रकृतियों में उदबाव बाह्य मिचेकों तक ही होता है। सो चारों गवियोंमें जिस गोत्रका उदय हो वहाँ उसीकी उदीरथा होती है अन्यकी नाहीं । इस प्रकार इस कथनसे यह विश्चित होगया कि चारों गतियोंमें दोनों गोत्रका संक्रमण होता है, पर उसका उदयसे कोई सम्बन्ध नहीं । (४) सतामें स्थित हव्यका उदबाबसमें निश्चित होना इसीका नाम उदीरया है सो यह क्रिया दवाडी प्रकृतिमें ही होती है अपनें नहीं, क्योंकि उदीरणा उदयकी मामानी है। इसे परप्रकुतिया नहीं कहना चाहिये। संक्रमण तो एक प्रकृतिके निषेकका अन्य समा ate प्रकृतिके निषेकरूप हो जाना कहलाता है। जिसका विशेष खुलासा हम ऊपर कर आये हैं। मेरी है कि इस विषयपर योग खूप विचार करें और खेलों द्वारा अपने अपने विचारोंको व्यक्त करें। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ? (ले० न्यायाचार्य पं० रदवारीलाल जैन कोठिया) हालमें श्रीमान प्रो. हीराखाबाजी जैन एम. ए. देकर केवल उनकी इस उपाधिसे ही किया है, और यह के अमरावतीने जैन इतिहासका एक विस अधराय' नामका तभी कर सकते थे जबकि उन्हें विश्वास था कि उस उपाधि निबन्ध लिखा है, जो गत जनवरी मासमें बनारसमें होने से उनके पाठक केवल समन्तभद्रको ही सममॅगे, अन्य किसी बाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलन १२वें अधि- भाचार्यको नहीं। इस प्रमाणको उपर्युक्त अन्य सब बातोंक बेशनपर अंग्रेजी में पढ़ा गया और जिसे बादको मापने स्वयं साथ मिलानेसे यह प्रायः निस्सन्देहरूपसे सिद्ध हो जाता हिन्दी में अनुवादित करके एक अलग पटक रूपमें प्रका- कि समन्तभद्र और भद्रबाहु द्वितीय एक ही व्यक्ति हैं।" शित किया है। इस निबन्धमें खोजपूर्वक जो निष्कर्ष यह माधार-प्रमाण कोई विशेष महत्व महीं रखता. निकाले गये और जो सभी विचारणीय है उनमें एक क्योंकि 'स्वामी' उपाधि भद्रबाहु और समन्तभद्रके एक निष्कर्ष यह भी है कि श्वेताम्बर भागोंकी नियुक्तियों होनेकी गारंटी नहीं है। दो व्यक्ति होकर भी दोनों 'स्वामी' केका भद्रबाहु द्वितीय और मालमीमांसा (देवांगम) के उपाधिसे भूषित हो सकते हैं । एम० ए० उपाधिधारी का स्वामी समन्तभन दोनों एक ही व्यक्ति हैं-मिला अनेक हो सकते हैं। 'व्याकरणाचार्य' मी एकाधिक मिल भिजनहीं, और यही मेरे भाजके इस लेखका विचारणीय सकते है। 'प्रेमी' और 'शशि' भी अनेक व्यक्तियोंकी विषय है। इस निष्कर्षका प्रधान पाधार है-श्रवणबेल उपाधि या उपनाम देखे जाते हैं। फिर भी इनसे अपने गोला प्रथम शिलालेखमें द्वादशवर्षीय दुर्मिक्षकी भविष्य. अपने प्रसंगपर अमुक अमुकका ही बोध होता है। अतः वाणी करने वाले भद्रबाहु द्वितीय के लिये 'स्वामी' उपाधि किसी प्रसंगमें यदि विद्यानंद और वादिराजने मात्र 'स्वामी' का प्रयोग और उपर समन्तभद्रके लिये अनेक प्राचार्य पसका प्रयोग किया और उससे उन्हें स्वामी समम्तमद्र बापयोंद्वारा 'स्वामी' पदवीका रूट होना। चुनाचे प्रोफेसर विवक्षित है तो इसमे भद्रबाहु और समन्तभद्र साहब बिसते है:-- कैसे एक हो गये? दूसरी बात यह है कि __ "दूसरा (द्वितीय भद्रबाहु-द्वारा द्वादशवर्षीय दुर्मिक विधानम्वने जहां भी स्वामी' पदका प्रयोग समन्तभद्र की भविष्य वाशीके अतिरिक्त महत्वपूर्ण संकेत इस लिये किया है वहाँ भासमोमांसा (देवागम) का स्पष्ट संबंध शिलालेखसे प्रास होता है कि भगवाहुकी उपाधि स्वामी है। प्राप्तपरीचाके 'स्वामिमीमांसितं तत्' उस्लेशमें स्परत: थी जो कि साहित्यमें प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके 'मीमांसित' शब्द का प्रयोग है, जिससे उनके विज्ञ पाठक लियेही प्रयुक्त हुई । यथार्थत: बड़े बड़े बेखकों जैसे अममें नहीं पा सकते और तुरन्त जान सकते है कि मास विद्यानन्द चौर वादिराज सरिने तो उनका उल्लेख नामम की मीमांसा स्वामीने--समन्तमदने की है, उन्हींका विचा१यह कटके भीतर का प्रशाय वाक्य लेखकका है। नन्दने उल्लेख किया है। इसी तरह वादिराजसूरिक २ स्तोत्र तीर्थोपमानं प्रथिनप्रथुपथं स्वामिमीमामितम् गत्' स्वामिनबारित उक्लेखमें भी 'देवागमेन सर्वज्ञो नाचापि -श्राप्तग्रीक्षा प्रदरर्यते' इन भागेके वाक्यों द्वारा देवागम' (पातमीमांसा) ३ स्वामिनधरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । का पर निर्देश अतः यहाँ भी उनके पाठक भ्रममें नहीं। देवागमेन सर्वशा येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥ पर सकते । लोको पूर्वार्ध में प्रयुक स्वामी पदसे फौरन -पार्श्वनाथचरित 'देवागमके कर्ता समन्तभद्रका शालकरखेंगे। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ? २३१ तीसरी बात यह है कि साहित्य में एकान्ततः' स्वामी स्वामी समन्तभद्र और दश नियुक्तियाँके कर्ता महबहु , पदका प्रयोग समन्तभके लिये ही नहीं हुआ है। विद्या- रिसीव क्या बभितt--एको व्यकिइसका डीक मन्दके पूर्ववर्ती प्रकर्षकदेवने पात्रकेसरीस्वामी या निर्णयहम जितना अधिक इन दोनों ही प्राचार्यों साहित्य सीमंधरस्वामीके लिये भी उसका प्रयोग किया है। कापाभ्यन्सर परीपक्ष द्वारा कर सकते है उसमा बसरे मित्र ताम्बर साहित्य में सुधर्म गाधर बिबे स्वामी का कालीन उल्लेख वापयों बाबमाधनों अथवा पटनामोंकी बहुत कुछ प्रयोग पाया जाता। चौर भी किसनेही कल्पनापरसे नहीं कर सकतेसीको म्याणाचार्ष4. भाचार्य स्वामि-पदमाय उल्लेखित मिलने है। स्वयं प्रो. महेन्द्रकुमारजी शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि--"दूसरे साहपने बावश्यकसूत्रवृर्षि और श्वेताम्बर पहावली में समकालीन लेखकों द्वारा लिखी गई विश्वस्त सामभीके उस्लेखित 'वनस्वामी' नामक एक आचार्यका उल्लेख प्रभावमें अन्यों मान्सरिक परीक्षबको भधिक महत्व देना किया और उन्हें भी द्वादशवाय दुर्मिक कारण सत्यके अधिक निकट पहुंचनेका प्रशस्त मार्ग । पान्तरिक दक्षिबको विहार करने वाला खिला है। यदि द्वादशवर्षीय परामसके सिवाय अन्य बाहामाधनोंका उपयोग तोबीचदुर्मिनकी भविष्यवाणी करके दक्षिणको विहार करने और साम करके दोनों भोर किया जा सकता है, तथा बोग स्वामी उपाधिके कारण वनस्वामी भी भद्रबाहु द्वितीय करते भी है"। और ममन्नभद्रमे मिल नहीं है तो फिर इन बज्रस्वामीकी मतः इस निर्णय लिये भद्रबाहु द्वितीयकी नियुक्तियों तीसरी पीढ़ी में होने वाले उन सामन्तभद्रका क्या बनेगा और स्वामी समन्तभद्रको पासमीमांसादिकृतियोंका पन्त:जिन्हें प्रो. मा.ने पहावलीके कथनपर आपत्ति न करके परीक्षण होनापावश्यक है। समन्तभद्रकी कृतियों में प्रो. बस्वामीका प्रपौत्र शिष्य स्वीकार किया और समन्तभद्र साहबलकायनावका वारको महीं मानने परन्तु मुख्तार तथा सामंतभद्रको एक मी बतलाया है क्या प्रपितामह (प. श्री. जुगलकिशोरजीके पत्रके उत्तरमें उन्होंने मासबाबा) और प्रपौत्र (पपीता) भी एक हो सकते है अथवा मीमांसाके साथ युक्तनुशासन और स्वयम्भू स्तोत्रको भी क्या प्रपौत्रकी भविष्यवाणीपर ही प्रपितामहने दक्षिणवेश ममम्तभद्रकी कृतिरूपमे स्वीकार कर लिया। ऐसी को विहार किया था ? इसपर प्रो. सा.मे शायद ध्यान हालत में समन्तभनके इन तीनों प्रन्योंके साथ नियुक्तियों नहीं दिया। प्रस्तु, पदि वनस्वामो भद्रबाहु द्वितीय और का अन्तः परीक्षण कर मैंने जो कुछ अनुसंधान एवं समन्तभद्रसे भिक और स्वामी पदका प्रयोग पाब केसरी मिर्षय किया उसे में पहाँ पाठकसामने सता जैसे दूसरे प्राचार्योंके लिये भी होता रहा तो स्वामी जिससे पाठक और मान्य प्रोफेसर साहबन दोनों भाषायों उपाधिका 'एकान्ततःसमन्तभनके लिये ही प्रयुक्त होना का अपना अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और विभिन्न समयमध्यभिचारिस तथा भ्र.स नहीं कहा जा सकता और इस वर्तित्व सहजमें ही जाम सकेंगे और साथ ही यह भी लिये 'स्वामी' स्पाधिके चाचारपर भवया द्वितीय और मालूम कर सकेंगे कि दोनों ही प्राचार्य भित्र भित्र परसमन्तभद्रको एक मिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार म्परामोंमें है:-- से सिद्धिका प्रयल बहुत कुछ श्रागत्तिके योग्य है। २ देखों, अकलंक अन्यत्रयी प्रस्तावना पृ.१४ इसमें सम्बह नहीं कि एक मामले अनेक व्यक्ति मी ३ भद्रबाहकतक दश नियुक्तिये प्रसिद्ध और ये श्वेताम्बर संभव है और अनेक नामों बाबा एक व्यक्ति भी हो सकता परम्परामें प्रसिद्ध आचारांय सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, भावहै। इसी बुनियाद पर समन्तभद्रके मी अनेक नाम हो श्यक सूत्र आदि भागमसूत्रोपर लिखी गई है। उनमेंसे सकते है और समन्तभद्र नामके अनेक व्यक्ति भी संभव सूर्यप्रशति नियुक्ति और ऋषिभाषित निर्युक अनुपलब्ध है। परन्तु यहाँ प्रस्तुत विचार यह है कि प्रातमीमांसाकार नीष नियुक्ति और संसक्त नियुक्ति वीरसेवामन्दिरमें १ देखो. सिद्धिविनिश्चयका 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामका छटा नहीं है। बाकी नियुक्तियोंका ही अन्तः परीक्षण किया प्रस्ताव, लिखित प्रति पत्र ३..। . गया है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ अनेकान्त (१) नियुक्तिकार भद्रबाहु केवली भगवान्के केवलज्ञान और केवलदर्शनका युगपत - एक साथ सद्भाव नहीं मानते-कहते हैं कि केवीके केवलदर्शन होने पर केवलज्ञान और केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन नहीं होता; क्योंकि दो उपयोग एक साथ नहीं बनते। जैसा कि उनकी आव श्यक नियुक्तिकी निम्न गाथा (नं० ३७३) से स्पष्ट है-नाणंमि दंसणंमि अ इतो एगयरयंमि उत्रजुता । सम्वरस के वलिस्सा' जुगवं दो नित्थि उवयोगा ।। इसमें कहा गया है कि 'सभी केवलियोंके -- बाहे वे तीर्थंकर केवली हों या सामान्यकेवली आदि, ज्ञान और दर्शनमें कोई एक ही उपयोग एक समय में होता है। दो उपयोग एक साथ नहीं होते' । आवश्यक नियुक्तिकी यथा प्रकरण और यथा स्थानपर स्थित यह गाया ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वकी है। और कितनी ही उनको सुलकाती है। इससे तीन बातें प्रकाशमें भाती हैं-- एक तो यह कि भद्रबाहु द्वितीय केवलीको शान और दर्शन उपयोग मेंसे किसी एक में ही एक समय में उपयुक्त बतक्षा कर क्रमपक्षका सर्व प्रथम समर्थन एव प्रस्थापन करते हैं। और इस लिये वे ही क्रमपचके प्रस्थापक एवं प्रधान पुरस्कर्ता हैं। दूसरी बात यह कि भद्रबाहुके पहिले एक ही मान्यता थी और वह प्रधानतया युगपतपक्षकी मान्यता थी जो दिगम्बर परम्पराके भूतबकि, कुंदकुंद भादि प्राचीन आचायोंके वाङ्मयमें और श्वे० भगवतीसूत्र [२४] तथा तत्वार्थ भाष्य [१-३१] में उपलब्ध है और जिसका कि उन्होंने (भद्र [ वर्ष ६ बाहुने) इसी गाथाके उत्तरार्धमें 'जुगवं दो नत्थि उपयोगा' कह कर खंडन किया है। और तीसरी बात यह कि नियुकि कार भद्रबाहुके पहिले या उनके समयमें केवलीके उपयोगइसका अमेद नहीं था । अन्यथा क्रमपक्ष के समर्थन एवं स्थापन और युगपत्पचके खंडनके साथ ही साथ अभेदपक्षका भी वे अवश्य खंडन करते । अतः प्रभेदपच उनके पीछे प्रस्थापित हुआ फलित होता है और जिसके प्रस्थापक सिद्धसेन दिवाकर हुए जान पड़ते हैं। यही कारण है कि सिद्धसेन क्रमपच और युगपत्पक्ष दोनोंका सम्मतिसूत्रमें जो खंडन करते हैं और अभेदवादको स्थापित करते हैं। हमारे इस कथनमें जिनभद्रगणि चमाश्रमणा की विशेषणवतीगत वे दोनों गाथायें भी सहायक होती हैं. जिनमें 'केई' शब्दके द्वारा सर्वप्रथम यगपत्पक्षका और 'अ' शब्द के द्वारा पश्चात् क्रमपक्षका और अन्त में दूसरे 'अथो' शब्द अभिपक्षका उल्लेख किया है, जो उपयोगवाद के विकासक्रमको ला देता है और उमास्वाति, निर्युतिकार भद्रबाहु तथा सिद्धसेन दिवाकरके समय का भी ठीक निर्णय करनेमें खास सहायता करता है। १ 'केवलिस विं' पाठान्तरम् २ यदि प्रशाग्नासूत्र पद ३० सू० ३१४ को क्रमपक्ष परक माना जाये तो सूत्रकार क्रमपक्ष के प्रस्थापक और नियुक्तिकार भद्रबाहु उसके सर्व प्रथम समर्थक माने जायेंगे । ३ प्रा० हरिभद्र, अभयदेव और उपाध्याय यशोविजयने क्रमपक्षका पुरस्कर्ता जिनभद्रर्गाणि क्षमाश्रमणको बतलाया है. पर जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जब स्वयं 'राणे' कह कर क्रमपक्ष मानने वाले अपने किमी पूर्ववर्ती उल्लेख करते हैं (देखो, विशेषणवती गा० १८४ ) तब वे स्वयं क्रमपक्ष के पुरस्कर्ता कैसे हो सकते हैं ? यहां एक बात और खास ध्यान देने योग्य है और वह यह कि दिगम्बर परंपरामें अकलांकक पहिले किसी दिगम्बर आचार्यने क्रमपक्ष वा श्रभेदपचका खंडन नहीं किया । केवल युगपत् पक्षका ही निर्देश किया है ६ । पूज्यपादके बाद अकलंक ही एक ऐसे हुए हैं जिन्होंने इतरपचों क्रमपत्र और प्रभेदक का स्पष्टतया खंडन किया है are garveer सयुक्तिक समर्थन किया है। इससे ४ देखो, सम्मतिसूत्र २-४ से २-३१ तक ५. केई भांति जुगवं जागर पासह य केवली शियमा । श्ररणे एतरियं इच्छति सुश्रवसें ॥ श्ररणे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छति जिगुवरिदस्स । जं चि य केवलणाणं तं चि य से दक्षिणं विति ॥ --विशेषणवती. १८४. १८५ ६ इस बातको श्वेताम्बरीय विद्वान् श्रद्धेय पं० सुखलार्ज भी स्वीकार करते हैं। देखो, ज्ञानविन्दु प्रस्ता० पृ० ५५ ७ देखो, अष्टशती का० १०१ की वृत्ति और राज० ६-१३-८ ८देखो, राजवार्तिक ६-४-१४, १५, १६ ६ देखो, राजवार्तिक ६-४-१२ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं। बह खित होना है कि पूज्य गदके बाद और अकलंक कमपन' और अभेदप का सबबन भी किया और पहले क्रमप और अभेदपक पैदा हुये तथा नियुक्ति- युगपत् पक्षको मान्य रखा है। इतना ही नहीं किन्तु कार भद्रबाहु और जिन भद्रमणि समाश्रम तथा भकलंक क्रमपम माननेवालोंको केवव्ययवादी तक कहा है। का मध्यकाल अमेवपक्ष स्थापन और उसके प्रतिहाता इतना प्रासनिक कहने बात अब में नियुक्तिकार (सिडसेन) का होना चाहिये। इसका खुलामा इस भद्रबाहुको उपर्युक्त गाथामे विरोध प्रकट कवाये समन्तभद्रके मातमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्रगत समापयों श्वेताम्बर परंपरामें केवीके केवलज्ञान और देवख को रहता हूँ जिनमें देवी ज्ञान और दर्शन उपयोग पर्शनोपयोग सम्बन्धमें तीन प क्रमपम २ युगपत् योगपचका कथन किया गया:पर और । अभेदपत। कुछ प्राचार्य ऐसे हैं जो केवलीके 'तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्मर्वभामनम् । ज्ञान और दर्शनोपयोगको क्रमिक मानते हैं और कुछ -प्राप्तमीका० १.१ प्राचार्य ऐसे हैं जो दोनोंको योगपच मानते हैं तथा कुछ नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवाद्विवेदिथ भाचार्य ऐसे है. दोनोंको अभिन्न-एक मानते हैं । -स्वयंभूस्तोत्र १२६ किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें केवल एकही पच और वह (घ) साकारं शानमनाकारं दर्शनमिति । नत् छद्मस्थषु बोगपचका। कमेगड वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।' मधिसिद्धि १-. भाचार्य भूतकालिके पटखंडागमम्मे लेकर अब तक 'जानन् पश्यन् समस्तं सममनुपरतं............। उप समस्त विगम्बर वाममय में योगपच पर ही एक -पूज्यपाद, सिद्धभ. ४ स्वरसे स्वीकार किया गया । प्रस्थत बकवेव (छ) 'श्रावरणारियन्नसंक्षये केवालनि युगपत् केबलशान दशेनया: साहचर्य। भास्करप्रतापप्रकाशमाचर्यवत् ।' श्रद्धेय पं. सुखलालजीने जो मिसनसे भी पहिले अभेद. -तत्वार्थगजवा. ६-४-१२ पक्षकी संभावना की है (शानविन्दु प्र. पृ. ६.) का (च) 'दंसगापुर्व गाणं दुमस्थागंगा दुरिण उवअंगा। विचारणीय है। क्योंकि उसमें कितनी आपत्तियां जुग जम्हा कंवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि । उपस्थित होती है। -द्रव्यसं.॥ २ देखो, पिछले फुटनोटमें उल्लिम्वित विशेषणवतीकी १८४, ४ 'तज्ज्ञानदर्शनयोः कमवृत्ती हि सर्वशत्वं कादचिकं स्यात् १८५ नंबरकी गाथा । -अष्टशती का.... . यथा: ५ 'नत्र ज्ञानमेव दर्शनमिति केवलिनोऽतीनानागतदशिव(क) 'सयं भयर्व उप्पएणणाणाद रिमी म... सवलोए मयुक्तं? तन, कि कारणं ? निरावरणत्वात् । यथा सबजीवे सम्बभागे मन्वं ममं जाणदि पस्सदि...." मास्करस्य निरस्तषनपटलावरणस्य यत्र प्रकाशस्तत्र -पखंडा० पयहिअणु. सू० ७८ प्रतापः यत्र च प्रतास्तत्र प्रकाशः। तथा निरावग्यास्य (स्व) जुगवं वाणाणं केवलगाणिस्म दमणं च तहा। केवलिभास्करस्याचित्यमाहात्म्यायभूतिविशेषस्य यत्र ज्ञानं दिणयरपयासनापं जह वह तह मणेयच ॥ तत्रावश्यं दर्शनं यत्र च दर्शनं तत्रच ज्ञानं । -कुंदकुंद. शियम• गा. १५६ किच -तद्ववृत्तः ॥ १५ ॥ यथा हि अमद्तमनुपदिष्टं (ग) पस्सदि जाणदि य नहा तिणि वि काले मपजए सब्वे। च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते । किच तह वा लोगमसेमं यस्मदि भयवं विगतमोहो॥ विकल्ात् ॥ १६ ॥ xxइति सिद्ध केललिनस्त्रिकालभावे समविसयत्ये सूगे जुगवं जहा पयासेह । गोचरं दर्शनं । -गजवा. ६-४ सव्वं वि तथा जुगवं केवनगाणं पयासेदि । ६ ..कालभेदवृत्तशानदर्शना: केवलिनः स्थादिपचन -शिवार्य, भगवनीबाराष. मा. २१४१,२१४२ केलिष्यवर्णवाद:'-माजवार्तिक..२६२, ६-१७-८ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ अनकान्त [ वर्ष ६ न दोनों जगह सष्टतया कहा गया है कि हे जिनेन्द्र इस गाथामें बनलाया गया है कि 'पभी चषभ भादि पापका ज्ञान एक साथ समस्त पदार्थोंको प्रकाश करता है।' महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थकर एक दूप्य-एक बनके 'मापने समस्त चराचर जगतको हस्तामलकवत्-हाथमें साथ दीक्षित हुए ।' रक्खे हुये भांपलेकी तरह युगपत--एक साथ जाना है यहाँ भद्रबाहु तीर्थकरोंको मी एक वरूप उपधि' और यह जानना भापका सदा--अर्थात नित्य और निरंतर रखनेका उल्लेख करते हैं, अन्य साधुओंकी तो बात हीण्या। है--ऐसा कोई भी समय नहीं जब भाप सब पदार्थोंको पर इसके विपरीत ममन्तभद्र क्या कहते है, इसे भी युगपत् न जानते हों।' पाठक देखें:पाठक देखेंगे कि यहां समन्तभद्रने युगपत्पक्षका जोरों अहिंसा भूनानां जगति विदितं ब्रह्म परममे समर्थन किया है। उनके 'युगपत्' अखिलं' 'च' सहा' __ न मा तत्रारम्भोऽस्त्यपुरपि च यत्राश्रमविधी। और 'तबामाकवत्' सब ही पद सार्थक और खाम महत्व ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरुणो प्रन्थमुभयम्हैं। उनका युगपत्पक्षका समर्थन करने वाला 'सदा' भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः॥ शब्द तो खास तौरस ध्यान देने योग्य है, जो प्रकृत विषय -स्वयंभूस्तोत्र ११६ की प्रामाणिकताकी रहिये और ऐतहामिक दृष्टि अपना यहां कहा गया है कि 'हे ममिजिन ! प्राणियोंकी बास महत्व रखता है और जिसकी उपेक्षा नहीं की जा अहिंसा- उन्हें घात नहीं करना प्रत्युस उनकी पसा करना सकती। वह पटना केवलीके क्रमिकज्ञान-दर्शनका विरोध लोकविदित परमब्रह्मा है-मसिा सर्वोत्कृष्ट मारमाकरता है और योगपचवादका प्रबल समर्थन करता है। परमात्मा है, वह अहिंसा उस साधुवर्गमें कदापि नहीं बन ज्यों कि ज्ञान-दर्शनकी क्रमिक दशा ज्ञानके ममय दर्शन सकती है जहां अणुमात्र भी आरंभ है। इसी लिये है और दर्शनके समय ज्ञान नही रहेगा । और इस परम कारुणिक ! मापने उस परम ब्रह्मस्वरूप अहिंसाकी लिये कोई भी ज्ञान महाकालीन-शाश्वत नहीं बन सिद्धिके लिये उभय प्रकारके ग्रंथका-परिग्रहका-त्याग सकेगा। श्रद्धेय पं० सुखलाबजीने भी, ज्ञान विन्दुको किया और विकृतवेष-अस्वाभाविक वेष (भस्मासानादि प्रस्तावना (पू. २५) में केवल प्राप्तमीमांसाके उक्त उल्लेख रूपमें) तथा उपधि--वसमें या भामरयादिमें भारत नहीं भाधारपर समन्तभद्रको एकमात्र यौगपचपक्षका समर्थक बतलाया है। इस मान्यनाभेदसे नियुक्तिकार भद्रबाहु जहां भद्रबाहु नियुक्तिमें तीथंकरोंके उमष परिग्रहको और मातमीमांसाकार समसभहमें सजीपार्थक्य स्था. छोड देनेपर भी उनके पीछे एक वच रखनेका सस्पत पित होजाता। यदि भद्रवाह और समनभद्र एक होते विधान करते हैं वहीं समन्तभद्र उभयपरिग्रहके जोर देने तो नियुक्तिमें कमवादका स्थापन और युगपतवादका खंडन भीर अणुमात्र भी भारम्भका काम न रखनेकी व्यवस्था तथा भासमीमामामें युगपतवादका कथन और फलितरूपेश करते हैं। साथ ही स्वाभाविक ननवेषके विरुव शादि क्रमिकवादका खंडन दृष्टिगोचर न होता। धारणको विकृत वेष और उपधि का धारण बतलाकर मत: स्पष्ट कि समन्तभद्र और नियुक्तिकार भद्रबाहु १ यहाँ श्रा. हारभद्रकी ट का दृष्टव्य है-"सवेंडप एक भभित्र नहीं है--मित्र भित्र व्यक्ति हैं। दूध्या' एकवलेगा निर्गना: जिनवरातुविशांत:,+ + (२) नियुक्तिकार भद्रबाहुने श्वेताम्बरीय भागोंकी कि पुन: मन्मतानुसारिणो न सोपधय:?तब य आधमान्यतानुसार चौबीसों तीर्थंकरोंको एक वस्त्रसे प्रवृजित गांवतो भगवद्भिः स साक्षादेवोक्त:, य पुनविनयभ्य: होना माना जैसा कि उनकी निम्न गाथासे प्रकट है-. स्थविरकाल्पकादिभेद भिन्नेभ्यं ऽनुशात: स खलु श्रपिशदात् सब्वेऽवि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा चवीसं। ज्ञेय इति ।-श्राव. नि. गा० २२७ । न य नाम अण्णाभिगे नो गिहिलिंगे कुलिंगं वा ॥ २ भद्रबाहको भी 'उपधि' का अर्थ वस्त्र विवक्षित है। यथा --भावश्यक निगा०२२७ 'प्रयत्नांचय वाम सव्वं उयदि धुवनि जयणाए' पिडनि.२६ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामो समन्भद्र एक हैं। ३३५ उसका निषेध करते हैं। और उनकी यह मान्यता स्वयंभू रखनेका उल्लेख करते है, जो श्वेताम्बरीय भाचारांगादि स्तोत्रकेही निम्न वाक्यसे और भी स्पष्ट होजाती है:-- मूत्रों के अनुकूल है। इतना ही नहीं पिंसनियुक्तिमें 'परसेय वपुर्भूपावेषव्यवधिरहितं शान्ति (शान्त) करणं- "चीरचोवणं चेव' (गा. २३) व प्रशासनका विधान, यतस्ते संचष्टे स्मग्शरविषातक विजयम् । उसके वर्षाकालको छोड़कर शेषकालमें धोनेके दोष और विना भीमैः शरदयहृदयामर्षविलयं 'वासासु अधोवणे दोसा' (पि.नि. २५) शब्दों द्वारा ततस्त्वं निहिः शरणममि नः शान्तिनिलयः ॥१२० अप्रचालनमें दोष भी बतलाते हैं। क्या यह भी समन्तभद्र इसमें नमिजिनकी स्तुति करते हुए बताया है कि को विवक्षित है? यदि हां. तो म्होंने जो यह प्रतिपादन हे भगवन् ! पापका शरीर भूषा-आभूषण; वेष भस्मा- किया है कि 'जिस साधुवर्गमें पल्प भी भारंभ होगा वहां छादनादिलिज और व्यवधि-वयमे रहित है, और वह अहिंसाका कदापि पूर्णपालन-निर्वाह नहीं हो सकताइस बातका सूचक है कि भापकी समस्त इन्द्रियां शान्त अहिंस रूप परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकती है' (न मा होचुकी हैं अथवा इसीलिये वह शान्तिका कर्ता है--लोग तत्रारम्भोऽस्यणुरपि यत्राश्रम विधी) बसके क्या प्रापके इस स्वाभाविक शरीरके यथाजात ननरूपको देखकर मायने हैं क्या उनके उक्त कथनका कुछ भी महत्व नहीं न तो वासनामय गगभावको प्राप्त होते है और न आपके है--और उनके 'मणु''पि' शब्दोंका प्रयोग या यों ही शरीरपर प्राभूषणादिके अभावको देखकर द्विष्ट, लुभित है किन्तु ऐसा नहीं है. इस बातको उमकी प्रकृति और अथवा खिम ही होते हैं, क्योंकि द्वेषलोमादिके कारणभूत प्रवृत्ति स्पष्ट बतलाती है, अन्यथा 'ततस्तसिदयर्थ परमश्राभरणादि हैं और वे आपके शरीरपर नहीं हैं अत: वे करुणो ग्रन्थमुभय' यह न कहते । इस मान्यताभेदमे मी मापके इस निर्मम प्रारंबराविहीन शरीरको देखकर भाप समन्तभद्र और महावाहु एक नहीं हो सकते-वेदाम्लवमें 'वीतरागतामय' शान्तिको प्राप्त करने हैं। और आपका यह भिन्न-भिन्न व्यक्ति और जुदी जुदी दो परम्पराम बनाविहीन शरीर कठोर प्रस-शस्त्रोंके बिना ही कामदेवपर हुए हैं। किये गये पूर्ण विजयको और निर्दयी क्रोधके प्रभावको भी (३) भद्रबाहुने सूत्रकृमा नियुकिम स्तुति निक्षेपके भले प्रकार प्रकट करता है।' चार भेद करके भागन्तुक (उपरमे परिचारित) भाभूषणोंक यहां विपक्षपावेषग्यवधिरहितं' और 'स्मरशरविषा- सिम 11तंकविजयं येदो पद बामनौरसे ध्यान देने योग्य हैं. जो बतलाते हैं कि जिनेन्द्रका वखादिसे अनाच्छादित अर्थात थुइणिक्वेवो चहा प्रागंतुधभूषणेहि दव्वथुई। नग्न शरीर है और वह कामदेवपर किये गये विजयको भावे संताग्ग गुणाण कित्तणा जे जहिं भगिया । घोषित करना है। अनन्न शागरमे कामदेवपर विजय प्राय: -मूत्र.नि. गा०८५ प्रकट नहीं हो सकती--वहां विकार (मिंगस्पंदनादि) छिपा यहां सायंका देखके शरीर पर माभूषण का विधान हुचा रह सकता है और विकारहेतु मिल नेपर उममें विकृति किया और कहा गया है कि जोभागन्तुक भूषणोप स्तुति (महास्वखन) पैदा होनेकी पूरी संभावना है। चुनांचे की जाती है वह व्यस्तुति है और विद्यमान यथायोग्य भूषाविहीन जिनेन्द्र का शरीर इस बातका प्रतीक है कि वहां गुणोंका कीर्तन करना भावस्तुनि । लेकिन समन्तभा कामरूप मोह महीं रहा, हमी लिये समन्तभद्रमे स्वयंभूस्तोत्रमें इससे विदा करते है और तीर्थकरके 'ततस्त्वं निमोह' शब्दोंके द्वारा जिनेन्द्रको निर्मोह' कहा शरीरकी भाभूषण, वेष और उपधि रहित रूपमे ही स्तुति है। ऐसी हालसमें यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रोंको करते. या कि पोंबित करते हैं जैसा कि पूर्वोझिखित 'वपुभूपावेषम्यधिरहित - वसादिरहित बरसाते हैं और भद्रबाहु उनके एक इसके वाक्यले स्पाइसी स्वयंभूस्तोत्रमें एक दूसरी जगह 'पत्ते धोवणकाले उति नामामए माहू' पिड न. २८ भीतीर्थकरोंकी भाभूषणादि-रहिस रूपये ही स्तुति की गई 'चासामु अघोरणे दासा। पिंडांन० २५ और उनके रूपको भूषणाविहीन प्रकट किया Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अनेकान्त [वर्ष ६ भूषावेष,युधत्यागि विद्यादमदयापरम् । केलिगो निउण जिणं तित्थपणामंच मग्गयो तस्स रूपमेव तवाचष्टे धीर दोषविनिग्रहम ।। ६४॥ -अावश्य०नि० गा०५५६ इसमें बतलाया है कि 'बडामें भाभूषणों, वेषों तथा नियुक्तिकारके सामने अब प्रश्न भाया कि केवली तो भायुधों-प्रवरात्रोंसे रहित और भाभ्यन्तरमें विद्या तथा कृतकृत्य हो चुके। वे क्योंतीयंकरको प्रणाम और प्रदक्षिणा इन्द्रिय निग्रहमें तत्पर भापका रूप ही भापके निदोषपने देगे? तो वे इस प्रश्नका समाधान करते हुये कहते हैं:को जाहिर करता- बाबमें भूषणों वेषों और मायु- तप्पुब्बिया परहया पूहयपूता य विणयकम्मं च। घोंपे सहित हैं और भाभ्यन्तरमें ज्ञान तथा इन्द्रियनिग्रहमें कयकियो वि जह कह कहए णमए तहा तित्थं ।। तत्पर नहीं हैं वे अवश्य सदोष हैं।' -आवश्य०नि० गा०५६० यहां समन्तभद्र शरीरपरके भूषणादिको स्पष्टतथा दोष लेकिन समन्तभद्र ऐसा नहीं कहते। वे कहते है बतमा रहे हैं और उनसे विरहित शरीरको ही दोषोंका कि जो हितैषी है--अपना हित गहते हैं, अभी जिनका विनिग्रहकर्ता दोषविजयी (निदोष) ठहराते हैं. अन्यथा पूरा हित सम्पत्र नहीं हुआ और इस जिये जो प्रकृत. नहीं। लेकिन भाभपनी परम्परानुसार भषयों द्वारा कृत्य है वे ही तीर्थकरकी स्तुति, वंदना प्रणामादि करते हैं। उनकी स्तुति करना बतलाते हैं और उनके शरीर पर भूषणों (१) 'भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः स्वयं० ६५ का सझाव मानते हैं। यह मतभेद भी नियुक्तिकार भद्रबाहु (१) 'स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः । और स्वयंभस्तोत्रके कर्ता स्वामी समन्तभद्रके एक स्वयं० व्यक्ति होने में बाधक है। (३) 'स्वार्थनियतमनस: सुधियः प्रणति मंत्रमुखग महर्षयः।' स्वयं० १२४ (.) भद्रबाहु मुनिको 'कंबल' रूप उपचिका दान ऐसी दशा समन्तभद्र और भद्रबाहु दोनों एक नहीं करनेका विधान करते हैं और उससे उसी भवसे मोष जाने हो सकते। का उपेक्षा करते हैं: (१) मद्रबाहु बर्द्धमान तीर्थकरके तपःकर्म (सपा) तिल्लं तेगिच्छसुत्रो कंचलगं चंदणं च वाणियो। को तो सोपसर्ग प्रकट करते हैं किन्तु शेष तीर्थंकरोंके, जिन दाउँ भिणिक्खंतो तेणेव भवेण अंतगयो।। में पारवनाय भी हैं, सपः कर्मको निरुपसर्ग ही बतलाते हैं -आवश्यक नि० गा.१७४ सम्वेसिं तबोकम्मं निरुवसमग तु वरिणय जिणाणं । जबकि समम्तमद मुनिको उभय प्रन्यका त्यागी होना नवरं तु बद्धमाणस्स सोवसम्गं मुणेयव्वं ॥ ममिवार्य और चावश्यक बतखाते हैं. इसके बिना 'समाधि' -आचारा०नि०गा. २७६ -प्रारमध्यान नहीं बन सकता है। क्योंकि पासमें कोई ग्रंथ श्वेताम्बर मान्यता है कि भगवान महावीर कुंडग्राम होगा तो उसके संरपणादिमें चित बगा रहनेसे चारमध्यान से निकल कर अप दिन अस्त होते कार माम पहुंचे तो की भोर मनोयोग नहीं हो सकता। इसीलिये कहते वहाँ उन पर बड़े भयानक और बीभत्स्य स्पद्रव ६ उप सर्ग किये गये। भागमसूत्रोंमें भगवान महावीर पर हुये "ममाधितंत्रस्तदुपोपपतये द्वयेन नन्थ्यगुणेन वायुजन' १ तथा च किल कुंडयामान्मुहूर्तशेषे दिवमे कर्माग्ग्राममाप, __--स्वयंभू०१६ तत्र च भगवानित प्रारभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् प्रांत--हे जिनेन्द्र !माप मारमध्याममें लीन हैं और रीपहोसनधिसामानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशम उस मारमध्यानकी प्रासिलिये ही बार और भाभ्यन्तर नयन् द्वादशवर्षाणि साधिकान छमस्थो मौनव्रती तपश्च दोनों निर्मन्यता गुओंसे युक्त हुए हैं। कार' -शीलौकाचाटीका पृ.२७३। (१) नियुक्तिकार भद्रबाहु कहते किवली तीर्थकर २ देखो, आचारांगसूत्र पृ. २७३ से २८३, सत्र ४६ से. को प्रणाम करते हैं और तीन प्रदक्षिणा देते है:-- तक। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं। ३३७ इन उपमोंका बहुत भयानक चित्र खींचा गया है क्या पाश्र्वनायकं तपःकम (पर्या) को निरुपसर्ग ही बतलाया तियंग क्या मनुष्य और क्या देवदानव सबने उनपर है। यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक महान् उपसर्ग किये। बारह वर्ष ६ महीने और १५ दिन होते तो ऐमा विस्त कथन उनकी बेखनीसे कदापि तक इन उपसोंको महते रहे, फिर उन्हें केवलज्ञान हुमा। प्रसूत न होता। इनमविलकथनोंकी मौजूदगी में यह भगवान् महावीर उपमोंका इतना बीभत्स्य वर्णन करते बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि समन्तभद्र और भद्रबाहु एक हुए भी भगवान् पार्श्वनायके उपसगोंका सूत्रोंमें या नहीं है, दो व्यक्ति है और वे क्रमशः दिगम्बर और रखे. नियुक्ति में कोई उबलेख तक नहीं है। जबकि समन्तभद्र ताम्बर दो भित्र परम्पराओंमें हुये हैं। इम्से विरुद्ध ही वर्णन करते हैं। वे स्वयंभस्तोत्रमें पाव. मैं समझता हूं नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी नायके उन भयंकर उपयोंका तो स्पष्ट और विस्तृत विवे. समन्तभद्रको पृथक् पृथक व्यक्ति सिद्ध करनेके लिये पर्युक पन करते हैं जो दिगम्बर परंपरा साहित्यम बहुलतया थोडेसे प्रमाण पर्याप्त है। जरूरत होने पर और भी प्रस्तुत उपसम्म यहाँनक कि भ. पारवनायकी फणाविशिष्ट किये जा सकेंगे। प्रतिमा भी उमीका प्रतीक है, किन्तु भगवान महावीरके समन्तभद्र और भद्रबाहको पृथक सिद्ध करने के बाद स्तवनमै उन उपयोंका जिनका श्वे. मागमसत्रों में अब मैं इनके भिसमय वर्तिस्वके सम्बन्धमे मीका विस्तृत वर्णन है और नियुक्तिमें जिनका सुस्पष्ट विधान देना चाहता है। एवं समर्थन भी, कोई उम्ख तक नहीं करते है। समन्तभद, दिगनाग (३.१-४२५ A.D.) और स्वयंभस्तोत्रके उन श्लोकोंको नीचे प्रकट किया जाता है पूज्यपाद (५५०-A D.)क पूर्ववर्ती हैं। बह निर्विवाद जिनमें भ. पारवनायके भयानक उपसगोंका स्पष्ट चित्रण है। बौद्धतार्किक नागार्जुन (101 A DR) के साहित्यके किया गया है और इस लिये समन्तभदने टनके ही तपः साथ समन्तभद्रके साहित्यका अन्त:पील करने पर यह कर्मको सोमर्ग बतागहै, वर्द्धमानके नहीं:-- मालूम होता है कि ममतभद्रपर नागार्जुनकातामा प्रभाव तमालनोले: धनम्नदिदगगो: पीभीमाशांमवायष्टिभिः। इस लिये वे नागार्जुनके समकालीन यापही समबनातके बलाहकै विशैरुपता महामना यो न चचाल योगन: ॥ विद्वान् हैं अतः समन्तभद्रके ममयकी उत्सरावधि तो इत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरनडिपिङ्गरुचोपगिणाम दिग्नागका समय है और पूर्वावधि नागार्जुनका समय है। जुग्रह नागा धरणो धगधरं विरागसम्ध्यातडिदम्बुदो यथा ।। अर्थात समन्तभद्रका समय दूसरी तीसरी शताब्दी जैसा स्वयोगनिविंशनिशानधारया निशात्य यो दुर्जयमोइविद्विषम् । क जनसमाजको भाम मान्यता है और प्रोफेसास अवापदाइस्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोक पूजातिशयास्पदं पदम् ॥ इसे स्वीकार करते हैं। अतः समन्तभद समय-सम्बन्धमें -स्वयंम० १३१ मे १३३ तक। इस समय और अधिक विचारकी जरूरत नहीं है। पाठक देखिये.ममतमदने भ.पाश्र्वनायके उपर अपने अब नियुक्तिकार भदबाहुके समय-संबंधों पूर्वभवके वैरी कमठके जीवके द्वारा किये गये उपयोंका विचार कर लेना चाहिये स्व.श्वेताम्बर मुनि विद्वान् कितने भयानक रूपमें बर्थन किया है. जिनका कि भद्रबाहु श्री चनुरविजयजीने 'श्री भदवाह स्वामा' शीर्षक अपने ने अपनी नियुक्तिमें नामोग्लेस तक भी नहीं किया, प्रत्युत 3 १ देखो, 'ममन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ? . प्रसिद्ध धवलाटीकाकार वारसनाचार्य भी म. पार्श्वनाथका शीर्षक लेग्व 'अनेक तिवर्ष ५ किग्गा १२ मंगला भिवादन सकलापसविजयारूपसे करते है: २ देवो, नत्वमंग्रहकी भूमिका LXVIII, वादम्याय में सकलावसम्मणिवहा संवरणे व जस्म फिट्टति । २५. A D. दिया है। कामस्म तस्स मिडं फार्माणयंअं परूवेमो॥ ३ अप्रकाशित 'नागार्जुन और ममतन्द्र' शीर्षक मेग लेख। --धवला, फासाशियोगहार. ४ देखो, स्वामी समभद्र Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ एक महत्व एवं खोजपूर्ण लेखमें' अनेक प्रभागों द्वारा यह लिन्द किया है कि 'निर्युसिकार भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दीमें होगये हैं. वे जाति ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी wisमिहर इनका भाई था xxx नियुक्तियां आदि पर्वतियां इनके बुद्धिवैभवमेंसे उत्पन्न हुई हैं' x x x बराह सिहरका समय ईसाकी छठी शताब्दी (२०५ से १८१ A. D. तक) है। इससे भद्रबाहुका समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है।' मैं पहिले यह कह आया हूँ कि भद्रबाहुने केवलीके उपयोग क्रमवादका प्रस्थापन किया है और युगपत्वादका खंडन किया है। ईसाकी पांचवी और विक्रमकी छठी शताब्दी के विद्वान् श्रा० पूज्यपादमे अपनी सर्वार्थसिद्धि में (१३) युगपत्वादका समर्थन मात्र किया है पर क्रमवाद के संबंध में कुछ भी नहीं लिखा। यदि क्रमवाद इनके पहिले प्रचलित हो चुका होता तो वे इसका अवश्य आालीचन करते । जैसा कि पूज्यपादके उत्तरवर्ती अकलंकदेवने १ मूललेख गुजराती भाषा में है और वह 'श्रात्मानन्द जन्मशताब्दी-प्रथमं प्रकट हुआ था और हिन्दीमें अनुवा दिन होकर 'अनेकान्त' वर्ष ३ किरण १२ में प्रकाशित हुआ है। [ ] गांधी श्राकर भारत में, भारतको मार्ग बताया । तुमने ही अधिकारों पर, लड़ना मरना खिलाया ॥ [२] तुमने निशस्त्र भारतको, एक दिव्य-शस्त्र दे डाला । अपना भी जीवन अर्पण, भारत के दिन कर डाला ॥ [ a ] सुमने वैभव से स्वेली, अनेकान्त लाग्बों ही बार सु होली। [ वर्ष ६ क्रमवादका खंडन किया है और युगपतवादका ही समर्थन किया है। इससे भी मालूम होता है कि नियुक्तिकार ईसा की पांचवी शताब्दीके बादके विद्वान् हैं। उधर निर्युसिकार ने सिद्धसेनके अभेदवादको कोई आलोचना नहीं की सिर्फ युगपत्वादका ही खंडन किया है इस लिये इनको उत्तरा वधि सिद्धमेनका समय है अर्थात सातवीं शताब्दी है । इस तरह नियुक्तिकारका वही समय प्रसिद्ध होता है जो श्रीमुनि चतुरविजयजीने बतलाया है । अर्थात् छठी शताब्दी इनका समय है । ऐसी हालसमें नियुक्तिकार भद्रबाहु उपयुक्त आपतियोंके रहते हुये दूसरी तीसरी शताब्दी के विद्वान् स्वामी समन्तभद्रके समकालीन कदापि नहीं हो मकतेसमन्तभद्र के साथ उनके एक व्यक्तित्वकी बात सो बहुत दूरकी है । और इसलिये प्रो० साहबने बीरनिर्वाणा मे ६०४ वर्षके पश्चात् नि में ही अर्थात दूसरी शताब्दी में नियुक्तिकार भद्रबाहुके होने की जो कल्पना कर डाली है वह किसी तरह भी ठीक नहीं है। आशा है प्रोफेसर सा० इन सब प्रमायोंकी रोशनी में इस विषयपर फिरसे विचार करने की कृपा करेंगे । वीर सेवामन्दिर, मरमावा गांधी-गीत भारत-हित कितनी तुमने, अब तक संस्थायें खोलीं ॥ [ कमलकिशोर 'वियोगी'] २१-४-४४ [ ] महलों में रहना कुटिया को ही अपनाया । छोड़ा. कृषकों की दशा सुधारी, हरिजनको गले लगाया ॥ [ * ] बस भारत में तुमने ही, हिंसा की आग बुझाई। 'खादी पहनो श्री कानी', यह तुमने प्रथा चलाई ॥ [] तुमने बापू ! भारतको, मोते से अरे जगाया । पथदर्शक बन कर तुमने, स्वातंत्र्य मार्ग बतलाया ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एक पौराणिक कहानी | ...... गुरु दक्षिणा ...... श्रीवासचन्द्र जैन विशारद "नहीं, पिताजीने ऐमा ही बताया था।" तर याद है। मुझे पिता नीन मामा विद्या पढ़ाई में "तुम भूलते हो पर्वत ! प्राचार्यपादने ऐसा कभी नहीं गलत नहीं समझ सकता!" "तुमने समझा नहीं भाई!" "तब ती तुमने पिनानीकी शिक्षा ग्रहण ही नहीं की।" मैं ठीक कहना है, यही अर्थ है। 'प्रजैयष्टव्यम शु गण देवी-देताओंको प्रिय है. उनकी मेवामें अनि "यही कि पिता जीने कहा था--'अजैर्यष्टगम्" अज करना चाहिये, 'प्रीव्यम्" माने वक। बकरे के द्वारा यज्ञ-पूजादि विधान करने "मुझे विश्वास गया पर्वत ! तुम मिच्यामतका चाहिये ।" प्रनार करने चले हाहा..... प्राचार्यने पवार का! "यही भ्रम तो तुम्हारे मस्तिष्क में पैठ गया है पर्वन!" भी था किन्तु......." 'कौन मा!" "किन्न क्या?" 'यही कि तुम्हें अज शब्द के अनेकार्थ मालूम नहीं है। "देखो. अपना महपाठी स मिहामन। अज का अर्थ होता है नीन वर्ष पृगने बाह।" अधिपति हे!" नीन वर्ष पुराने श्रीle?" "मोम्या ?" "हो मित्र ! तीन वर्ष पुगने बाहि, जो अङ्कर उत्पन्न "उसके मामने भीनी श्राचार्यपादने हम बारका करने की शक्तिमे वञ्चित हो चुक हो!" अर्थ बनाया था।" "ऐसा क्यो?" हा ठीक! वह राजा भी है न्यायपति भी है" "हिंसासे बचने के लिये ! यश पूजा पुण्य-माधनके लिये । उनीमे न्याय कगया जाय' (मोड़ा रुक कर) पर raat मा रूपी पापको किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं है।" यदि तुम झूठे निकले तो?" "क्या पूजा जैसे महान कार्यकं लिये थोड़ी मी हिमा “जो दंड तुम विधान करोगे, मैं सहर्ष स्वीकार करुंगा।" नहीं की जा सकती?" "अष्का"....( मोचकर ) जो झूठा निकले उमको 'नही पर्वत ! धर्म प्राशिमात्रका हितैषी है। यदि हम जिहाछेद हो ताकि वह अपने झूठे वचनोंमें जनताको हासन अपने पूनाकार्य के लिये अन्य प्राणियोंको कष्ट देंगे नो यह न पहुँचा सके। ठीक है न!" धर्मके विरुद्ध आचरणा होगा। धर्म ऐमी श्राझा कभी नहीं "ठीक कहने पर्वत ! म मंजूचना का दमकता, और ऐसा करने पर वह धर्म नहीं रह सकता रानमभामें उपस्थित होंगे।" चल्कि परोक्ष रूपसे स्वार्थसिद्धिका साधन बन जावेगा।" "उसमें कष्टकी बात ही क्या है ! जो पशु यशक काम . नारद और गर्वन गुरुभाई थे। नृपकुमार वसुक मा. पाता है बहनो सीधा स्वर्ग जाना है।" दानाने है। प्राचार्यप्रवर 'लोग्क दम्ब में शिक्षा पास की । "कैमी बान करते हो पर्वत ! मैं देखता हूँ तुम्हारी प्राचार्य पर्वतक गिता थे। पिना दान हुए भी उन्हें पर्वत, मिध्यामनि तीक्ष्ण होती जा रही है। कैसा वहम घुस गया प्रान प्रेम न था। उन्होंने अपने अनुभव और विशिष्ट ज्ञान है तुम्हारे मस्तिष्कमें से प्रतीत कर लिया था कि पर्षत ऋद्धि है। मद्धम "मैं ठीक कह रहा है नारद ! पिताजीने यही कहा था का परिगेषक होगा। श्रानायंने यद्यपि उसकी शिक्षामे यही अर्थ किया था उस पागम वाक्यका! मुझे अच्छी कमी प्रकार की टि न बी किन्तु वे मदेव यही प्रयत्न Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अनेकान्त [वर्ष ६ करते थे कि किस प्रकारसे पर्वतको पदार्थीका सथा रूप विश्वास नहीं होता था कि वह चेतनावस्थामें है। क्या यह दिखाया जा सके-पर्वतको सच्चे धर्मके प्रति श्राकर्षित स्च कि उसके कानोने पर्वतके मुखसं यह अर्थ सुना है? करनेकी पिताकी अभिलाषा मनमें ही रहगई। वह अपने पुत्रका नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता! पर्वत पंडित है! उसका गुरुसुधार कर पाने के पूर्व ही इस लोकसे उठ गया। भाई है। प्राचार्यने दानोंको एक साथ ही शिक्षा दी है। हो सकता है यह उसके कानोंका ही भ्रम हो ? ऐसा सोच तीनों शिष्य क्रमश: युवक हुए । नृपकुमार वसु राज- नारदने अपनी शंका निवारणार्थ पर्वतसे प्रश्न किया "क्या कुनके नियमके अनुसार मिहासनका अधिकारी हुश्रा। यह सच है कि तुमने ऐसा अर्थ कहा है?" उसने गुरुमे अच्छी शिक्षा गई थी। प्रजाको अपनी सन्तान इसके आगेका हाल पाठकोंको प्रारम्भमें ही मालूम हो के समान पालना उसने अपना कर्तव्य समझा और न्याय चका। को अपना बन्न । राजा वसुके न्याय और शामनकी मर्वत्र धूम थी। प्रजामें शान्ति थी। मनुष्योंके हृदयोंमें धर्मकी नारदको विदा कर पर्वनने गृहकी ओर प्रस्थान किया। भावना थी और मुख पर थी 'गजा वसुकी जय'1 पर्वतको अपने पाण्डत्य पर विश्वास था । वह अहंवादी था। उसे गर्व था कि उस जैसा पण्डित पुरी भरमें पर्वत अपने पिताकी गद्दीका अधिकारी हुश्रा । अपने दूसरा नहीं है। फिर यह तुच्छ नारद जो उसके पिताके पिताकेही समान वह प्रकांड विद्वान् था। वह महान् टुकड़ोसे पला और उन्हीं द्वाग प्रदत्तविद्या द्वारा कुछ समझ तार्किक था। शास्त्रोंका उसने गहरा अध्ययन किया था। ने लगा. कैसे उसकी समानता कर सकता है। वह मन ही उसके पाण्डित्यका लोहा देशभर मानना था । मन फूला जा रहा था। कल राजसभामें शास्त्रार्थ होगा, पर्वतके श्राग्रहसे नारदने एक दिन उस आश्रममें प्रवेश जिसमें उसकी जय होगी और नारदकी पराजय ! शर्तके किया। पर्वत अपनी शिष्यमंडल के बीच उच्चामन पर विराज अनुमार नारदका जिहाछेद होगा और उसका ? उसका मान था । शिष्यगण भक्ति और श्रद्धासे नम्रीभूत थे। पर्वत होगा अादर ! का प्रवचन हो रहा था-"धर्म सेवनका मुख्य साधन यश इसी प्रकार सोचता पर्वत घर पहुँचा। बेटेको प्रसन्न और पूजा है। गृहस्थोंको तो पुण्यलाभ केवल यश और देख माँ न रह सकी। प्रसन्नताका कारण जाननेके लिये पूजासे ही हो सकता है। देवगण पूजासे प्रसन्न होते हैं और पूछ ही बैठी "क्या बात है पर्वत ! आज नो फूला नहीं अपने भक्तोंक कष्टोंका निवारण करते हैं। उन्हें उबस्थान देते हैं। कीर्ति और यश देते हैं। धन और धान्यसे उनका समा रहा है।" खजाना भरते हैं। यश और पूजा करनेसे ही स्वर्गको प्राप्ति "कुछ न पूछो मां, कल गजसभामें जाना है" पर्वत ने गर्व से कहा। होती है हर गृहस्थको पुण्यार्जन और पापप्रणाशनके लिये यश पूजादि विधिवत् करने चाहिये। देवताश्रीको बलि "क्यों ? गजावसुने निमंत्रित किया होगा! बड़ा नम्र समर्पित करना चाहिये। अश्वमेध नरमेध श्रादि अनेक बालक था वह! 'मौ माँ' कहता हुआ मेरी गोद में श्रा पकारसे यशोंका विधान किया गया है। ये सभी यज्ञ स्वर्गक बैठता था ! मैने भी उसे बहुत दिनांसे नहीं देखा, कल मैं कारण होते हैं। देवी-देवताओको प्रसन्न करने के लिये उनके भी चलूंगी तेरे साथ ।" मनोनीत पशु भैसे बकरे और सुश्रर भेंट करना चाहिये । "नहीं माँ ! कल शास्त्रार्थ होगा। मेरा और नारदका!" शास्त्र में कहा भी है 'अजेयष्टव्यम्'।" गर्वमिश्रित भाषामें पर्वत बोला। . 'पर्यटव्यम्' नारदने सुना। चेहरा उसका कुम्हला "नारदका ?" माँ विस्मित हो उठी। गया। अजैर्यष्टव्यम्' का यह अर्थ । पर्वतके मुखसे ऐसा "श, हां! मेरा नारदके साथ ! जो हारेगा उसका बिरुद्ध अर्थ सुन कर नारद भौंचका सा रह गया। उसे जिहाछेद होगा।" उसी प्रकार पर्वतने उत्तर दिया। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] गुरुदक्षिणा ३४१ "जिहाछेद दागा! यह कैसा शास्त्रार्थ है बेटा और टेके बैठ गई। नारद के साथ ?" मां जिज्ञासु हो उठी। "अाजकल उसे अपनी विद्वत्ताका बड़ा घमंड हो गया प्रथम प्रहरका समय था प्रतीहारीने निवेदन किया है । कहता है 'श्रष्टव्यम्' का अर्थ है तीन वर्ष पुगने गुरुपनी पधारी है। वसु प्रमुदित हो उठा। गुरुपत्न का ब्रीहिसे पूजा करना चाहिये। मैंने कहा-नहीं अज शब्द दर्शन देना मौभाग्यकी बात थी। श्राज्ञादी सादर लिवाशब्दका अर्थ होता है बकरा । बस झगड़ बैठा। कल गजा लाश्री' स्वयं भी सेवा के लिये तैयार हो गया। गुरुपत्नीने वसु इसका निर्णय करेगा। पिताजाने भी ऐसा ही कहा था प्रवेश किया। 'मो' कहता हुश्रा वसु चरणों पर गिर पड़ा। मां!" पर्वतने अपनी निर्दोषिता प्रकट की। माँने श्राशीर्वचन दिये। उच्चासन देकर वसुने कुशल "तूने यह क्या किया पर्वन ?" मां विकल हो उठी। पछी । माने वाञ्छनीय उत्तर दिये। "क्यों मा" पर्वत मांके मुखकी ओर निहारने लगा। "श्राज कैसे कष्ट किया मां?" वसुने नम्रतापूर्वक प्रश्न "बेटा तुमने भूल की। नारद ठीक कहता है । तुम्हारे किया। पिताज'ने भी ऐसा ही कहा था। जब तुम पढ़ते थे मैं मुगार अपने बेटेको देखने के लिये" माने मुस्कुराते हुए करती थी। मुझे अच्छी तरह याद है" मा दुःखित हो उठी। उत्तर दिया। "क्या माँ " पर्वन अप्रतिम हो बोला। वमु लजित हो गया। उसे कोई उत्तर न सूझा । में "उन्होंने वही कहा था जो नारद कहता हे !" मांका मिटानेके लिये बोल पड़ा-"मैं स्वयं उपस्थित हो जवाब था। सकना था।" "माँ" पर्वतका चेहग फक पड़ गया। माँ बोली- नहीं गजाका समय अमूल्य होता है। "बेटा, कितनी भारी भूल की है तुमने ! तुम्हारे पिता मैंने सोचा मैं स्वयं ही तुमसे मिल लूं'। कहते थे नारद तीक्ष्ण बुद्धि है। बिना समझे ही तुम झगड़ा "यह आपकी कृपा भी मां!" वसुने कृतज्ञतासे कहा मोल ले बैठे। दण्डविधान भी अपने ही द्वारा कर लिया" "मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।" मांके नेत्रोंमें प्रांसू छलकने लगे। "मुझे तेरा स्नेह ही बहुत है उसु, और कुछ न "किन्तु मां शास्त्रोंमें तो..........." पर्वनने सिर झुकाये नाहिये" माने उपेक्षा की। "फिर भी मां मेरा कर्तव्य............."वसुने दीनता "वल्हेमें जाय तुम्हारे शास्त्र, तुमने कुछ नहीं पढ़ा" प्रगट की। मांने रोषांमश्रित वाणीमें प्रताड़ना की। "तुमने अपना कर्तव्य निबाहा ही कब है मेरी गुरु"फिर मां पर्वतने दीनता प्रगट की। दक्षिणा भी तो नहीं दी" मांने मुस्कराते हुए कहा। "फिर" माँ दो क्षण चुप रही। "वसु निर्णय करेगा! वरुने समझा माँ परिहास कर रही है बोला-'सभी यही न अच्छा! मां ने धीमेसे कहा । कुछ आपका ही तो है!" 'क्या माँ? पर्वतने प्रश्न किया। ___मांको यदि पर्वतकी प्राणरक्षाकी अपेक्षा न होती तो "कल मैं प्रातः ही वसुके पास जाऊंगी और किमी सचमुच यह परिहास दी था। वसुके अनेक निवेदन करने तरह तेरी रक्षाका उपाय करूंगी। पर्वत मेरा बेटा है, उस पर भी मौने कभी गुरुदक्षिणा स्वीकार नहीं की थी। किन्तु का अपमान मेरा अपमान है, मेरे पतिका अपमान है। आज अपने पुत्रकी मान रक्षा की भावनाने उस वाक्यको उसकी मृत्यु मेरी मृत्यु। मेरा बेटा 'पर्वत'। मैं उसके असहनीय सत्य बना दिया। मांने सरलतासे काम बना लिये सब कुछ करूंगी। धर्म अधर्म कुछ न विचारूंगी। लिया। तार्किककी पत्नी श्राने दावपेंच में दक्ष निकली। पर्वत जा तू ! कल सभामें तेरी विजय होगी! जा बेटा !" बोली-''देखो वसु ! अाज सचमुच मैं गुरुदक्षिणा लेने पर्वत सिर झुकाये चला गया। माँ हाथ पर मस्तक आई हूँ"। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ अनेकान्त [वर्ष ६ वसु हाथ जोड़ कर बोला-"श्राज्ञा दीजिये मां! मैं पता न था कि पर्दे के पीछे क्या हो चुका है। और पर्वन ! हर श्रावश्यकता पूरी करूंगा ! मैं वचनबद्ध हूँ।" उमकी भी सुन लीजिये । कुम्हलाये हुए पुष्पकी भाँनि उदास मांकी पांखों में आंसू आगये बोली-बेटा बसु ! तुम है उसका चेहरा । सदा उत्तेजित रहनेवाला पर्वत श्राज राजा हो! गजमुकुट तुम्हारे मस्तक पर शोभित है!न्याय गंभीर बना हुश्रा है, यह लोगों के पाश्चर्यका कारण बन तुम्हारे हाथमें है! होगी किन्तु..........."माँ इसके आगे गया । यद्यपि मांने उसे सब समझा दिया था। ढाढस कुछ न कह सकी। उनका गला भर श्राया। बंधाया था किन्तु वह काँप रहा था। उसे विश्वास ही न "कहो कहो मां मैं सब कुछ करूंगा। तुम्हारी प्राशाका होता था कि वसु जैसा न्यायी राजा श्राज असत्यका समर्थन पालन मैं प्राणान्त तक करूंगा" वसु उत्तेजित हो उठा। करेगा। "तो सुनो बेटा" माँ कहने लगी । नारद और पर्वत वादी और प्रतिवादीपने पक्षका समर्थन कर चुके । आज राजसभाम शास्त्रार्थ के लिये श्रावेंगे। तुम्हें पर्वनकी मंत्रीने निवेदन किया-"वादी प्रतिवादी महाराजका मानरक्षा करना होगी"माँने प्राज्ञा देते हुए कहा। निर्णय चाहते हैं।" वसु चौंक उठा जैसे किमीने अकस्मात् "सो कैसे माँ ? वसुने प्रश्न किया । गाढ़निद्रासे उसे जगा दिया हो। "निर्णय" उसने पृछा । माँ बोली-"अजैर्यष्टव्यम्" के अर्थपर दोनों में विवाद "हाँ महाराज ! निर्णय" मन्त्रीने निवेदन किया । होगया है। मैं जानती हूँ पर्वतका पक्ष ठीक नहीं है फिर भी "निर्णय ! हाँ ! पर्वतका पक्ष ठीक है ! "महाराज" बेटा ! वह मेरा पुत्र है। उसकी पराजय मेरी और तुम्हारे नारदने अापत्ति की। हाँ श्राचार्यने ऐसा ही कहा था ! गुरुकी प्रतिष्ठामें बाधक होगी। इसलिये मेरे लिये और मेरे पर्वतका पक्ष ठीक है । मैं निर्णय देता हूं।" वसु गरज उठा । पति लिये तुम्हें मेरे पुत्रकी रक्षा करनी होगी। उसकी जय मानके माश और विकट गर्जन मनाटीमिसे घोषित करना होगा । समके यमुमाने जोर दिया। लोकसमूह कम्पित हो उठा! अकस्मात् पृथ्वी काँपने लगी और "किन्तु माँ!" वसुका सिंहासन डोलने लगा। नारद चिल्लाया-वसु! अपने "किन्तु परन्तु कुछ नहीं ! यही मेरी गुरुदक्षिणा है।" पदकी ओर ध्यान दो! तुम राजा हो! न्यायपति हो?" कहनी हुई मां प्रस्थान कर गई । वसु चिन्तित बैठा ही Tadaan रह गया ? कथन सत्य है, यज्ञादि कार्य के लिये प्राचार्यने अज शब्द + का अर्थ बकरा ही कहा था।" वसुके अंतिम वाक्यके साथ राजसभा भवन ठसाठस भग हुअा था । प्रजा इस विचित्र कोलाहल मनाई दिया । पृथ्वी काँप उठ।। शास्त्रार्थको देखनेके लिये अत्यन्त उतावली हो रही थी। वसु सिंहासन महित मञ्चसे नीचे श्रा पड़ा!! लोग जिज्ञासु थे वसुके निर्णयके | सर्वत्र विभिन्न मतोंकी नारद चिल्ला उठा-वसु अभी भी समय है, सम्हलो, पष्टि और समर्थन हो रहे थे। पर्वत और नारद दोनों एक तम राजा हो सोचो तुम्हारे ये असत्य वचन भोली जनताका गुरुके चेले दोनोंके पाण्डिल्यपर लोगोंको श्रद्धा थी। श्राज कितना अपकार करेंगे। उन्हें आश्चर्यकी ओर प्रवृत्त करेंगे। दोनोका शास्त्रार्थ होगा यही दर्शनीय बात थी। उनके हृदयों में असद्भावनाशोंके बीज वपन करेंगे । और 'महाराज वसुकी जय' के नारेके साथ राजा बसु काल पाकर वे बीज अकरित होकर विशाल वृक्षका रूप सिंहासनपर आरूढ़ हुश्रा । वादी प्रतिवादी उपस्थित हुए। धारण करेंगे और अपनी जड़ोंको सर्वत्र फैलाकर मोटी और नारदका मुखमण्डल दमक रहा था वह प्रसन्न था । उसे मजबूत बना लेंगे अंर फिर आप जानते हो क्या होगा? विश्वास था कि उसका कथन सत्य है। सत्यकी सर्वत्र होगा सर्वत्र हाहाकार ! धर्मका लोप हो जावेगा! अधर्मका विजय होती है । राजा वसु न्यायका अधिपति है । उसके साम्राज्य छा जावेगा, त्राहि त्राहिका करुणाक्रन्दन सर्वत्र न्यायकी सर्वत्र धूम है। वह सत्य निर्णय देगा । लोगोमें सुनाई देगा! नर पशु बन जावेंगे; हिंसा प्रबल अन हो सद्धर्मकी वृद्धि होगी।" नारद यह सोच रहा था किन्तु उसे जावेगा और......"और मानवताका संसारसे लोप हो Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रित श्लोकवार्तिकी त्रुटि पूर्ति किरण १०-११ ] जावेगा, दानवा अट्टहास करती हुई ताण्डव नाचेगी । और जानते हो इन अत्याचारोंका कारण कौन होगा ? तुम ! न्यायासनपर बैठकर असत्यभाषण करनेवाले तुम ! चसु सम्हलो, सांचो ! तुम्हारे ये वचन भविष्य में क्या करेंगे, जरा विचारो ! मित्र अभी समय है" नारद विकल हो रहा था वसुकी दशा देखकर अपने मित्र की दयनीय हालत उमे असहनीय थी। उसने वसुको समझाया बुझाया-मय दिखाया किन्तु वसु बेचारा वसु अपनी रक्षा न कर सका । देश भरकी रक्षाका दम भरनेवाला नृपति चाज अपने श्राप को निस्सहाय अनुभव कर रहा था । वेदना और ग्रात्म आचार्य विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक सन् १६१८ में मुद्रित हुआ था, और सेठ रामचन्द्र नाथारंगजी गांधीने उसे प्रकाशित कराया था। जिस ग्रन्थप्रती परसे इसका उद्धार किया था वह प्रति प्रायः अशुद्ध थी और उसमें कुछ अंश टेत थे अथवा पढ़ने में नहीं आने कारया बे मुद्रित होनेसे छूट गये थे। उस समय ग्रंथ सम्पादनादिके लिये अन्य प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका मिलना भी अत्यन्त कठिन नहीं तो दुःसाध्य ज़रूर था। अतः उपलब्ध एकादी प्रतियों परसे ही सम्पादिका कार्य सम्पन्न किया जाता था । अस्तु, मुद्रित प्रतिमें कुछ सूत्रोंका भार भी उपलब्ध नहीं है। जिससे अनेक स्थलों पर कार्तिकको लगाने में बड़ी दिशत उपस्थित होती है। हाल में मुझे लोक वार्तिककी एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई है जो खतौलीके दि० जैनमंदिर सराफान्के ग्रन्थ भण्डारकी है। यह प्रति प्रायः शुद्ध मालूम होती है। इस प्रतिसे मुद्रित प्रतिका मिलान करने पर वे सब त्रुटित अंश पूरे हो जाते हैं और सूत्रस्थलोंके छूटे हुए भाग्य मी पूर्ण हो जाते हैं। सबसे महत्वको बात तो यह है कि मुद्रित प्रतिमें और कुछ हस्त ग्लानि से जला जा रहा था, किन्तु गुरुपत्नीकी ज्ञा उसके सिरपर सवार थी । वसु क्षत्रिय था । वचनका पक्का था 'प्राण जांग पर वचन न जाई' उसके कुलका नियम था । वह एक बार फिर शब्द एकत्र कर बोला- 'पर्वतका पक्ष ठीक है, मैं निर्णय देता हूँ ।' कम्पनके साथ पृथ्वी फटी और वसु सिंहासन सहित उसमें समा गया लोगोंने कहा 'असत्यभाषणका फल पाया ।' + मुद्रित श्लोकवार्तिककी त्रुटि पूर्ति ( ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) ३४३ लिखित प्रतियों में भी चतुर्थ अध्यायका 'लोकान्तिकानामी सागरोपमाणि सर्वेषां' ४२ नं० का सूत्र उपलब्ध नहीं था और न उसका भाग्य या वार्तिक ही पाया जाता था जिससे विद्वानोंने यह कल्पना करती थी कि आचार्य विद्यानंदने उतसूत्र माना ही नहीं है। परन्तु इस प्रतिमें वह सूत्रमव बार्तिक भध्यके पाया जाता है अतः पाठकोंकी जानकारी के लिये मुद्रित प्रतिके रिक्तस्थानीय त्रुटित अंशोंकी पूर्ति नीचे दी जाती है : पृष्ठ १६२ पंक्ति १८ कारिका ६ के तृतीय चरण में रिक्त स्थान पर 'मनः पर्यययां येन' पाठ है । पृष्ठ २२६ पक्ति २ के मध्यभागमें 'इति' शब्दके आगे 'नैषं मन्यन्ते' पाठ है। इसी पृष्ठकी कारिका ८ की १८ वीं *पं• माणिकचन्दजी म्यायाचार्य सहारनपुर से मालूम हुआ कि मूडविद्रीकी प्रतिमें भी उक्त सूत्र मय भाष्यवार्तिक के पाया जाता है, वहाँके विद्वान् पं० लोकनाथजी शास्त्रीने उक्त सूत्र उक्त प्रतिपरसे उद्धृत करके भेजा था। इससे स्पष्ट है कि कितनी ही प्रतियों में लेखकोंसे सावधानीवश उक्त सूत्र छूट गया जान पड़ता है । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ अनेकान्त पंक्ति में 'एतेन स्थापिता' वाक्यके श्रागे 'करी' और रिक स्थानकी जगह पर 'दीहा ड्रायिकं च वशं करी' पाठ है, जिससे वह कारिका पूर्ण हो जाती है। पृष्ठ २५२ की पंक्ति २२ में कारिका ३० के 'पचस्य नापि दोषों' पदके आगे 'यं कचित्सत्यं प्रसिद्धता' पाठ और है जिससे इस कारिका अधूरापन दूर हो जाता है। पृष्ठ १६१ को पंक्ति १ की कारिका नं० ३१ बैंका तृतीयचरण है 'संबंधि परिणामत्वे' । इस चरण के जोड़ने से यह कारिका पूर्ण हो जाती है। पृष्ठ २७६ कारिका नं० १०२ के द्वितीय चरण में 'स्तन सूचिताः' के स्थान पर 'स्वत्र सूचिता:' पाठ पाया जाता हैं जो ठीक मालूम होता है और उससे अर्थ विषयक संगति भी ठीक बैठ जाती है। पृष्ट २७७ की पंक्ति ४ कारिका १ का चतुर्थ चरणा है'ध्यासितो द्विविधो यथा पंक्ति ७ में 'समर्थ' के बाद रिक्त स्थानीय पाठ 'स च शाश्वतः' है । पंक्ति में 'विश्रुतः' के बाद 'सकलाभ्यासाद्ज्ञायमानः' पाठ रिक्त स्थानीय है । पंक्ति १३ का उत्तरार्ध इस प्रकार है :--' ज्ञेयं प्रश्नवशास्त्रैवं कथं तैरिति मन्यते' और पंक्ति १३ में वा आदिका स्थामीय पाठ है- 'चापि समुदाय मुदाहृतः । पृष्ठ ३०५ की पंक्ति ४ के 'समान कार्यासौ प्रतिषेधः विद्भिः' के स्थान पर लिखित प्रतिमें 'समानकार्यों सौ प्रतिषेधः स्याद्वादिभिः' पाठ उपलब्ध होता है । पंक्ति ११ के 'नास्तीति' वाक्यके आगे 'तत्रैव' पाठ रिक स्थानीय है। पंक्ति १३ में 'प्रद्यनस्य' के स्थान पर लिखित प्रतिमें ग्राह्य घनस्य' पाठ पाया जाता है। और पंक्ति १७ में 'ना' के आगे 'उपपद्यते' क्रियासं पूर्व'पतितव' वाक्य मुद्रित प्रतिके रिक्तस्थानकी पूर्ति करता है। ― - - 7 पृष्ठ ३३० की अन्तिम पंक्तिके अन्तिम पद 'उक्तप्रायं' के आगे और पृ० ३३१ की प्रथम पंक्तिके प्रथम पद 'जायते' के पहले अर्थात् दोनों पदके मध्य में ऐसा चिन्ह देकर हासिये पर ४२ व सूत्र मय भाष्य तथा वातिकके निम्न प्रकार दिया है ---- 'खौकान्तिकानामष्टी सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥ ब्रह्मलोक निवासिनां लौकान्तिकदेवानां समस्तानां [ वर्ष ६ सदैवाष्टौ सागरोपमस्थितिर्व्यभिचारवर्जिता ज्ञातव्या । लौकान्तिक सुराणां च सर्वेषां सागराणि वै । अष्टावपि विजानीयारिस्थतिरेषा प्रकीर्तिता ॥ १ ॥ मेरी राय में पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे यह सूत्रादिके ४१ वें सूत्र के माध्यकी समाप्तिके अनन्तर होना चाहिये और इसलिये इस मुद्रित प्रतिके पृ० ३६१ पर वार्तिक नं० १४ के बाद बनाना चाहिये। टूटका चिन्ह देते समय कुछ गलती हुई जान पड़ती है। पृष्ठ ४२३ की पंक्ति १७ में 'शब्द' के आगे के रिकस्थानमें 'सहभावित्व' पाठ है । पृष्ठ ४२४ की पंक्ति ७-८ में 'पर्धा गगं' के स्थान पर पर्यायागम' पाठ है । पृष्ठ ४४५ की पंक्ति २१ में ११ वीं कारिका जो पूर्वाध छूटा हुआ वह इस प्रकार है : 'वैभाविकी क्रिया सा स्याद्विभवो येन विद्यते' : पृष्ठ ४५३ की पंक्ति १० में 'सिद्धाः' पदके आगे के रिक्त स्थानका पाठ 'तदुभय' है । पृष्ठ ४०३ की पंक्ति २१ में 'मदत्तमपि पाठके पूर्वका स्थानीय पाठ 'तथाउस' है । ... पृ० २०७ पर वे अध्यायके ४७ वे सूत्रका जो भाष्यादिक ऋटित है वह सब इस प्रकार है :-- "आभ्यन्तरविरोधने सति च सेवनाप्रतिसेवनादोषविधानमित्यर्थः ततश्च संयमादिभिरनुयोगः साध्याः ब्यारूपेयाः । संयमनश्रुतं च प्रतिसेवना च तीर्थं च लिंगं च माओवाद अस्थानानि च संयमत प्रतिसेवनाती लिंगस्थानिय विकल्पाः भेदाः सेवनातीर्थ लिंग श्योपपादस्थानविकल्पास्तेभ्यः ततः पुढाकादयेति पंचमहर्षयः संयमादिभिरष्टभि भेदैरम्योन्यभेदेन साध्याः व्यवस्थापनीयाः व्याख्यातव्याः इत्यर्थः । तथाहि- पुजाको कुरकु छेदोपस्थापनाख्यान सामायिकमुभौस्थिरं ॥ चतुर्षु ते भवत्येते कषायसकुशीलकाः । निग्रंथस्नातको द्वौ स्तः तो यथाख्यातसंयमे ॥ पुलाकवकुशकुशीलाः प्रतिसेवना सामायिक छेदोपस्था नानामसंयमद्वये वर्तते सामायिक दीपस्थापना परा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] मुद्रित श्लोकार्तिककी त्रुटि-पूर्ति ३४५ विशुद्धिसूचमापरायनामसंयमतूर्यके कबायकुशीलाः भवंति। लक्यं च प्रोक्तमारते तापवासिमर्थदोषवरीराचपेक्षया निम्रन्थ स्नातकौ व यथासयात संयमेस्त: । पुजाकवकुश पवाद व्याख्यानेन दोषः मुमेवाधारं गृहीत्वा जैनाभासाः प्रतिमेवनाकुशीनेषु उत्कर्षेणाभिशाहरदशर्वाया श्रुतं कोर्थ- केविल्सचेलत्वं मुनीनां स्मापयत सम्मिथ्यासासामोशकार संस्थेकेनाप्यचरेणाभिचानि साचराणि वैदशपूर्वाणि संत्येव निर्ग्रन्थलिंगमितिवचनात् । तैरन्यूनानि तानि चेत ते कषाय कुशीलाब निर्धन्धा ति अपवादन्याख्यानमुपकरण वुशीलापेक्षया कर्तव्यं ५। साधवः तचतुर्दशपूर्वाणि श्रुतं धारयति मदा जघन्यतया पीतपयशुक्सास्तिस्रो लेश्याः पुलाकर भात कृष्णो पुलाक: प्राचारं वस्तुस्वरूपनिरूपकं श्रुतं परति वकुश- नीलकपोत: पीतोष शुक्लगः नयाः परपि बेश्या कुशील मिश्रन्धान प्रवचनमातृकास्वरूपामरूपकं श्रुतं निकृष्ट वकुशप्रतिसेवनाशीलयोभवत्येव कथितेयं महषिभिः । स्वेन धरंति । प्रवचनमातृका इति कोर्थ:-- ननु कृष्णा नील कापोतक्षश्यात्रय शतिसेवनाशीक्षयोः पंचसमितयस्तिस्रोगुप्तयतिमातरः । कथं भवति संत्येव तयोरुपकायााशक्तिसंभवावासंध्यान प्रवचनमातरोष्टौ कथ्यते मुनिभिः परैः। कादाचित्कं संभवति सत्संभवादादि क्षेश्याश्रयं संभवत्यति ममितिगुप्तिप्रतिपादकमागर्म जानानीत्यर्थः स्नातकानां मतान्तरं परिग्रहसंस्काराकांक्षा स्वयमेवोत्तरगुणविराधनायाकेवलज्ञानमेव तेन तेषां श्रुतं नास्ति । पंचमहाबवलक्षण मासंभवादा विनाभावि च लेश्याषटकं पुस्ताकस्वातंकलगुणाष्टाविंशतिरात्रिभुक्तविरहितेषु चान्यतमबलात्परो कारवाभावाच षटले श्या: विसत्सरासिस पव। पोसतेजः परोपाप्रतिसेवमानी पुलाको विराधको भवति रात्रिभोजन- पाशुपत लेश्याचतुष्टयं कषायमुशीलस्येवं ज्ञातव्यं दातम्य विराधकः कथमितिचेदुच्यते श्रावकादीनामुपकारोऽनेन दानीयमिति यावत् कषायवुशीलस्य या कापोतलेश्या दीयते भविष्यताति छात्रादिकं रात्री भोजयतीति विराधक: स्यात्। सापि पूर्वोक्तन्यायेन वेदितम्या: तस्याः संज्वममानान्तर वकुशोद्विप्रकारश्चेदुपकरणाशरोरभेदात, तत्र नानाविधा शंया कषायमद्रावात परिग्रहः शक्तिमात्रममावासूचमसापरायस्य रूपकारणविन्मतास्ते संस्कारप्रतीकाराकांक्षणा प्रतिभण्यते निग्रंयस्नातकयोन मिकेवनाशुक्लव लेश्यावेदिसम्या प्रयोवपुरभ्यंगसंमहनक्षालनविलेपना इत्यादि संस्कारभागांशगैर-गिकेवलिनां तु लेश्या नास्ति । उकृष्टस्थितिधुकृष्टतया वकुशोस्ति वै एनयोरुभयोर्मध्ये कषायप्रतिसेवना द्वयोमूल पुलाकस्य सहवाग्देवेप्वष्टादशसागरोषमजीवितेयुपपादो गुणाश्चैिव विराधयति पर्वथा विराधयत्यन्यतमं उत्तरं गुण- भवति । द्वाविंशति सागरोपमस्थितिपूपपादी भारताच्युत संश्रितं । निर्ग्रन्यो ग्रन्थरहितो कुशीलो द्विविधः स्मृतः। स्वर्गयो भवति सर्वार्थ सिद्धी तु कषायवु शीख मिथयोसबअस्यैषा प्रतिसेवना यः कषायकुशीलो निर्ग्रन्थ: स्नातकच विंशत्सागरोपमस्थितिषु देवेधूपपादो भवति जषम्योपपादों तेषां विराधनाकाचिन्न वर्तते ते अप्रतिसेवनाः ३ । सर्वेषां विशेषाणामपि सौधर्मकरूपे हे सागरोपमे स्थितिषु देवेषु तीर्थकराणांतीर्येषु पंचप्रकारा अपि निर्ग्रन्थाः भवंति । वेदितम्या स्नातकस्य पम्मनित्तत्वादुपपातः ॥ लिंग द्विविध म्यभाषभेदात् तत्र पंचप्रकाराऽपि निर्ग्रन्थाः स्थानान्यसंख्येयानि संयमस्थानानि तानि तु कषायदयलिंगिनो भात ग्यलिंग तु भाज्यं व्याख्येयमित्यपि कारबानि भवंशिकायतमाम भियते इति कषायकारयानि न किं चिरसमासाद्वयसमर्थाः महर्षयः शीतकालादिक तत्र सर्वनिकृष्टानि बधस्थानानीति कार्थः संयमस्थानानि वाच्यं शब्दं तत्कंचलामिधं कौशेषादिकमित्यत्र गृह्यन्ति। पुजाककषाय कुशील योर्भवति तौ च समकालमस्येयानि न च वेश्मनि झालयंति न सीच्यंति न प्रयत्नादिकं तथा संयमस्थानानि व्रजत: ततस्तदनंतरं कषायवुशीलेन मह परकालेन कुवंति हरंति परिहारकाः केच्छिरीरमुत्पादोषाः गच्छपि पुखाको विच निवर्तत इत्यर्थः । ततः कषाय लजितकारशात तथा कुर्वन्ति व्यायानं भवदाराधनोदितं कुशीलएकाचवे वाऽसंख्येवानि संयमस्थानानि गछति तदप्रोक्कामहर्षिभिस्ते यत्सर्वेषामुपकारिणः। तथैव व्यायान- नंतर कवायकुशीतप्रतिवनाकुशीलवकुशाः संथमस्थानाभ्य. माराधना भगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातम्यं संख्येयानि युगपत्सह गईinानुकीयः तत्पश्चाशी उत्सर्गापवादवोरपवादाविधिबलीय इत्युत्सर्गेण यांत.मचे. निवर्तते म्युछियत इत्यर्थः ततोपि प्रतिसेवनाकुशीला: Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ अनेकान्त [ वर्ष ६ संयमस्थानान्यसंख्येयानि जित्वाम्युच्छियते तदुपरि एकं भवति । अथाप्रमत्तकरणमपूर्वकरणं चवा निवृत्ति रहितं संयमस्थानं स्नातकोजत्वा परमनिर्वाणं लभते स्नातकस्य यस्मिनिवृत्तिश्व कथ्यते परिणामविशेषाविसीयं समुपसंयमबग्धि भवतीति सिद्धं । वर्णितः । कीरशास्तेभवत्येवा निवृत्तिकरशंतगः । विशिष्टशाचोकाः शरसंज्ञकाः ऋषिवराचारित्रसंसाधकाः परिणामेति वाच्यं शब्दमनुक्रमं । एकस्मिन्समये न्यस्यैकभन्यांभोज विकाशने दिनकरास्ते च पुलाकादयः। कस्य समय य तत् ॥ एकदालोदमानाश्व जीवस्य परिरन्छयादिषु तत्पराः सुरनता: ज्ञानाब्धिसंभाविता- समिकाः एक स्मन्समये अवलोकमानावच्छिन्नाः जीवस्य स्ते मे भूरि दुरन्तदुर्गहरणे किमोक्षमः मगः ।।" परिणामः संति नत्राप्रमत्तादिगुणस्थाने पूर्वपूर्व समये प्रवृत्ताः पृष्ठ १०८ पर दसवें अध्यायके प्रथमसूत्रकी जो यारशाः परिगामास्तारशा एव । अथानंतम्मुत्तरसमयेष्वाउत्थानिका दी है उसके स्थानपर उक्त लिखित प्रति में संमंतावृत्ताविशिष्टचारित्ररूपाः परिणामाः अथावृत्तकरणनिम्न उत्थानिका है:-- वाच्याः भवंति। अपूर्वकरण प्रयोगशा पूर्वकरणाऽपूर्वकरणा "अथेदानी मोलस्वरूप प्रतिपादपितुकामो भगवान्पयां- आपकगुणस्थान नानाभूत्वाऽभिनवशुभाभिसंधिधर्मशुक्लखोचयति मोरस्तावत्केवलज्ञानप्राप्तिपूर्वको भवति । तस्य ध्यानाभिप्रायेण कृषीकृतपापप्रकृतिस्थित्यनुभाग: सन संवर्द्धित केवलस्योत्पसिकारणम् किमिदमेवेति निर्यिसूत्रमिदमाहुः"- पुण्यकर्मानुभव: सन् अनिवृत्तिवादरतापरायचपकगुणस्थान इसी पृष्ठपर प्रथमसूत्रका जो भाष्यादिक ऋटित है वह मधिरोहति तत्राप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टकं नष्ट विधाय इस प्रकार है-- नपुंसकवेदविनाशं कृत्वा सीवेदं समूलका कषित्वा हास्य___ "मोहस्य यो विध्वंसः मोहलयः तस्मात् प्रावरण रत्यरतिशोकमयजुगुप्सालक्षणं नोकपाय षट्क पुवेदं च सवाः प्रत्येक प्रयुज्यते तेन ज्ञानावरयां च दर्शनावरणं च पयित्वा कोयंबने चक्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलने सानदर्शनावरणेतीपतरायबज्ञानवर्शनावरणातरायक्षयस्तेषां मानसंज्वलनं मायाज्वलने मायासंज्वलनं लोमसंज्वलने ज्ञानदर्शनावरणांतरायचयस्तस्मात् चकारादायुखिकनामत्रयो- लोभसंज्वलनं क्रमेण बादरकिष्टिविभागेन विनाशमानयति दशपयाचवलम् केवलज्ञानमुत्पद्यते त्रिषष्टिप्रकृतिक्षयात् बादरकिहिरितिकोथः उपायद्वारे फलं भक्त्वा निर्जीयमान केवबज्ञानं भवतीत्यर्थः अष्टाविंशतिप्रकृतयो मोहस्य पंच- मुद्धृतशेषमुपहतशक्तिकं कम्मकिहिारत्युच्यते भाज्यविहिवत ज्ञानावरयस्य नवदर्शनावरणस्थ पंच अंतरायस्य मनुष्यायु- मा किहि द्विधा भवति बादरकिहि सूचमकिट्टिभेदादिति बज्यमायुसयं साधारणपंचेन्द्रियरहितचतुर्गतिषु नरकगति किहिशब्दस्यायें वेदितम्यः तत्पश्चात् लोभसंज्वलनं कृषीनरकगत्यानुपूर्वी स्थावरसूचमतियंग्गति तिय्यंच गत्यानुपूर्वी कृत्यमूचममापराय आपकोभूखा निःशेष मोहनीयं निमूल्य उचोतनपणासयोदशनामकर्मणः प्रकृतयश्चेति त्रिषष्टिः । क्षीणकषायगुणस्थानं स्फेटितमोहनीयभारः समधिरोहति ननु मोहं च ज्ञानं च दर्शनावरणं तथा । तस्य गुणस्थानोपात्यममयस्यममयात्प्रयमसमये द्विचरमसमये अंतराय च्याप्राप्ति कंवलस्य नृणां भवेत् ।.॥ निद्राप्रचले द्वे प्रकृतीक्षपयित्वा अंत्यसमये पंचज्ञानावश्यानि वाक्यमेवःकर्मयां चण्याचपरिभाषित:। चत्वारिदर्शनावरणानि पंचातरायान् पयति । तदनतरं प्रतिपावन मुस्लिप्यानुकमस्तवकोप्यसौ ।। कंवलज्ञान केवबदशनस्वभाव केवलं संप्राप्याचिंत्यविभूतिपूर्व मेवास्ति जीवस्य विज्ञेयः कर्मणां यः । माहात्म्यं प्राप्नोति ॥ ॥" कर्मविना भम्यः नो याति परमां गतिं ॥ ३ ॥ इमी पृष्ठपर दूसरे सूत्रकी जो उस्थानिका है उसके भव्य: प्राणी सम्यग्रटिजीवः परिणामविशुभयावर्द्धमानः ___ स्थानपर विम्बित प्रतिमें निम्न उत्थानिका पाई जाती-- प्रसंपतसम्यग्राष्टिदेशसंयतप्रयत्तसंयताऽप्रमत्तसंबसगुल्म अथ केवलज्ञानोत्पत्तिप्रवितायेदानी पूर्वोदितनिर्जरा स्थानेष्वम्यतमगुणस्थाने अनंतानुबंधिकषाय चतुष्य दर्शन- निदाननां विधाने मोक्षकारसं मोक्षस्वरूपं च व्याचष्टे।" मोहत्रितय पयो भवति तत:सायिकसम्यग्रष्टिभूखा प्रमत्त- इसी पृष्टपर दूसरे सूत्रका जो भाष्यादित्रुटित है वह गुणस्थाने अथाऽप्रमत्तकारणामंगीकृत्य अपूर्वकरणाभिमुखो मब इस प्रकार है: Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रित श्लोक वार्तिकी त्रुटि पूर्ति किरण १०-११ ] "बंधस्य हेतवोमिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाय योगास्तेषामभावो नूतन कम्मरणामप्रदेशः बंधहेत्वभावः पूर्वोपार्जित कम्णा मेरुदेशसयो निज्जररा बंबद्देत्वभावश्चनिर्जंग च बंधहेत्वभावनिज्वरे ताभ्यां बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां द्वाभ्यां कारणाभ्यां कृत्वा कृतस्वानां विश्वेषां कम्मणां विशिष्टमन्यजनासाधारणं प्रकृष्ट मेकदेश कम्मच यनामा बिर्जरा या सु उत्कृष्ट माध्यंतिकं मोक्ष मोक्षः स्नकर्म विप्रमोक्षमोक्ष उच्यते एतेन पूर्वपदेन मोक्षस्यहेतुरुरुः द्वितीयपदेन मोचस्वरूपं प्रतिपादित निमित्तं वेदितव्यं । नम्वत्र सप्तसु तत्वेषु षट्तस्वस्वरूपं प्रोकं निर्जरारूपं प्रोक्तं सत्यं सर्वकर्महरयाम्मोक्षः सर्वकर्मक्षयो मोक्षः यदि प्रोक्तस्ततस्तथा सामर्थ्यादेव ज्ञायंते कर्मणां निरा मला यदैकदेशेन कर्म्मचयो निर्जरा तेन पृवक सूत्रं निर्जरालक्षण प्रतिपादकं न विहितमिति वेदितव्यं । कम्मायो द्विप्रकारो अवति प्रयत्नाप्रयत्न माध्यविकल्पात तत्राप्रमन्त संयमे अप्रयत्नः साध्यः चरमोत्तमशरीरस्य नारक तिर्थग्देवायुषां भवति प्रयत्न माध्यस्तु कर्म्मक्षयः कष्यते चतुर्थ पंचमषष्ठमसमेषु गुणस्थानेषु मध्येन्यनगगुणस्थाने नंतानुबंधिकषाय चतुटयस्य मिध्यात्वप्रकृतित्रयस्थ नवभागाः क्रियते, तत्र प्रथमभागे निद्रानिद्रा प्रचलाप्रच नास्त्यानगृद्धि नरकगति तिर्यग्गति एकेंद्रियजाति द्वींद्रियजाति श्रींद्रिय जाति चतुरिंद्रयजाति नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी तिर्य्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी श्रातपोचोतस्थावर सूक्ष्मसाधारणाभिधानकानां पोडशानां कर्मप्रकृतीनां प्रचषो भवति द्वितीय भागमध्ये कषायाष्टकं नष्टं विधीयते । तृतीयभागो नपुंसकवेनछेदः क्रियने चतुर्थभागे श्रीवेद विनाशः सृज्यने । पंचमे भागे नोकषाय पटकं प्रध्वंस्यते, षष्टेभागे पुंवेदाभावां रच्यते, सप्तमं भागे संज्वलन क्रोध विध्वंमः कल्पते, श्रष्टमे भागे संज्वलनमान विनाशः प्रणीयते, नवमे भागे संज्वचनमाया चयः क्रियते । लोभसंज्वलनं दशमगुणस्थान प्रांत विनाशं गच्छति निद्रा प्रचले द्वादशगुणस्थानस्यापत्य समये विनश्यते । पचज्ञानाचतुरचतुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्टय पंचांतशवायां तदस्य समये यो भवति । सयोगिकेवलिनः कस्माश्चिदपि प्रकृतेः चयों नास्ति चतुर्दशमगुणस्थानस्य द्विवरमसमये द्वासप्तति प्रकर्तीनां हयोभवति । कारना: प्रकृतयः चन्यतरवेदनीयम् देवगति श्रदारिकवैक्रियिका चचरा ३४७ हारकरी जसका शरीर पंचकं ७ धर्म पंचकम् १२ संघातचर्क १० तत्संहनन षट्कं २३ औौदारिक बैकियकाहारकशरीरांगोपांगत्रयं २६ संस्था षट्कं ३२ प्रशस्ताप्रशस्त व पंचकं ३७ सुरभिदुरभिषगंद्वयं ३३ प्रशस्ताप्रशस्तरसपंचकं १४ स्पशाष्टकं २२ देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्यं ५३ अगुरुलघुख २४ उपघात १६ उच्छ्वास ५० प्रशस्ताप्रशस्त बिहायोगति द्वयं २६ पर्याप्ति ६० प्रत्येक शरीर ६१ स्थिरत्वमस्थिरत्वं ६३ शुभाशुभत्वं ६२ दुर्भगत्वं ६६ दुखरत्वं ६७ प्रदेयमनादेयं च ६६ अयशस्कीर्ति ७० निर्माण ७१ नीचगोत्र ७२ मिति । अयोगकेवली चरमसमये त्रयोदशप्रकृत्यः रूयमुपयति, कास्ताः अन्यतर बेदनीयम् १ मनुष्यायु २ मनुष्यगति ३ पंचेन्द्रियजाति ४ मनुष्यानुपूर्वी त्वं ६ बादरत्वं पर्याप्तकत्वं ८ शुभगवं आदयत्वं १० यशस्कीर्ति ११ तीर्थकरत्वं १२ उच्चैर्गोत्रंचेति एतासां द्रव्यकर्म प्रकृतीनां हयान्मोच वसीयते इति निरुक्तिः पुनस्तथा च । इसके बाद 'तस्य कर्मणः' इत्यादि पंक्ति वही है जो मुद्रित प्रतिमें पाई जाती है। यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि मुद्रित प्रतिमें और भी बहुतमी अशुद्धियों हैं और किसने ही ऐमे ब्रटिस अंश भी हैं जिनकी सूचनाका कोई चिन्ह भी नहीं दिया गया है। उदाहरण के तौर पर पृष्ठ ३६० की ३४ वीं पंक्तिका पिछला अंश इस प्रकार है-"जन्मादि विकाराभावे क्रमानुपलब्धेरात्मनोऽसस्थ प्रसकेरित्युक्त प्रायं । " जब कि लिखित प्रतिमें वह निम्न प्रकारमे पाया जाता है और ठीक जान पड़ता है : "जन्मादिविकाराभावे क्रमाक्रमविरोधात् । ततः सत्यमभ्युपगता पुरुषे जम्मादिविकारोऽभ्युवगन्तभ्योऽन्यथा व्याप्यध्यापकानुपना कर मनोऽसमस के रिस्युतप्रायं ॥ " ऐसी हालत में श्लोकवार्तिकका पूरा ही संशोधन होकर उसको फिरसे प्रकाशित करने की जरूरत है। यदि कोई सज्जन इस महान् प्रन्थको मूलरूपमें प्रकाशित कराना चाहेंगे तो वीरसेवामन्दिर इसके संशोधनादिकार्य को अपने हाथमें ले सकेगा, ऐसी रढ आशा है । ता० १२-६-४४ वीर सेवामन्दिर, सरसावा Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहनोंके प्रति ( श्री चन्दगीराम विद्यार्थी) बहनों ! उठो ! बहुत सो चुकीं । अब सोनेका परन्तु इसका उल्टा अर्थ लगाकर, बेकार घर में बैठकर ममय नहीं है । जरा नजर उठाकर देखिए, पुरुषोंने पतिदेवके लिए भार-स्वरूप होना तो उचित तथा आपको अबला तथा अयोग्य प्रसिद्ध करके, आपके शोभनीय नहीं है। मच अधिकार छीन लिए हैं। आपको कायर तथा आप उठिए । सुशिक्षा प्राप्तकर, प्रत्येक काममें बुजदिल समझ लिया है। अपने पतिदेवका हाथ बटाइप-अपने अर्धाङ्गिनी बहनो! जरा विदेशोंकी ओर देखिए। वहांकी पदको जीवन में उतार कर दिग्बाइए । बहनोंने कितनी उन्नति कर डाली है तथा दिनप्रतिदिन प्राचीन समयमें आपका कितना आदर तथा मान उन्नतिकी ओर अग्रसर होरही हैं। वे किसीके आधीन था। यह हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थोंसे भली प्रकार नहीं हैं। प्रत्येक कार्यमें अपने पतिदेवके साथ २ चल प्रकट है। मनु महाराज. अपनी मनुस्मृतिमें लिम्ते हैं कर उनका हाथ बटाती है। किसी २ बात में तो पति यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। दवस भी दो कदम आगे बढ़ गई हैं। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते मस्तित्राऽफला क्रियाः॥ पुरुष-समाजने आपको सब ओरसे दवाया। यहां जिस कुल में, जातिमें, देशमें स्त्रियां पूजी जाती तक कि आपका शिक्षाका द्वार भी बन्द कर दिया। हैं-उनका श्रादर तथा सम्मान किया जाता है, वहां तो फिर रहा क्या? आपकी अवनतिका कारण- देवता वास करते हैं और जहां खियोंकी पूजा नहीं शिक्षाका अभाव ही तो है। होती-उन्हें घृणाकी दृष्टिस देखा जाता है, उनका शिक्षामे मेग प्रयोजन यह नहीं है कि आप बी० निरादर तथा अपमान किया जाता है, वहां सम्पूर्ण ए०, एम० ए० की गिरियां लेकर बेकार घर में बैठ कर्म निरर्थक हो जाते हैं-प्रत्येक कार्य असफल जायें और किसी कामको हाथ तक न लगावें; रातदिन हो जाता है। अपने शरीरको मजानेमें ही लगी रहें, वरन सुशिक्षित बहनों, यह है भी मत्य । इसमें सन्देहके लिये , होकर अपने प्रत्येक कार्यको बुद्धिमत्तास भली प्रकार कोई स्थान ही नहीं है । आज पुरुषोंने आपको केवल करें। शिक्षाके साथ साथ शिल्पकला भी सीखें, ताकि भोग-विलासकी ही सामग्री समझ रक्खा है। उनके अपने घरमें बेकार न बैठकर, अपने निर्वाह योग्य संकुचित हृदयमें यह विचार घर किए हुए है कि प्राय पैदा करके अपने पतिदेवसे किसी भी दशामें "खियाँ कुछ नहीं कर सकतीं। वे मर्वथा हमारे पीछे न रहें। अपने पेरोंपर खुद खड़े होनका पाठ प्राधीन हैं। उनका यही कत्तव्य तथा धर्म है, कि पढ़ें। आजकल बहुत मी अशिक्षित बहनोंका जीवन, दासीके रूपमें रह कर, मवंदा अपने आपको पुरुषपूर्णरूपसे अपने पतिदेवोंपर ही निर्भर है । यदि समाजस निर्बल तथा हीन समझती रहें।" परन्तु पतिदेव कमाकर न लावें तो उनको भोजन देने वाला बहनों, उनका यह विचार सवथा असत्य तथा निगफिर संसार में कोई नहीं। वे स्वयं कुछ नहीं कर दरणीय है। उन्हें नहीं मालूम कि देशकी उन्नति प्राप सकतीं । पतिदेव ही उनका सब कुछ है। माना; कि पर ही निर्भर है। यदि आप शिक्षिता होंगी, तो आप एक भारतीय महिलाकी दृष्टिमें उनके पतिदेव ही उस की संतान भी योग्य होगी । संतान-शास्त्र स्पष्ट शब्दोंमें के सब कुछ है-उसके ईश्वर हैं, उसके प्रीतम हैं। कह रहा है कि माता-वीर, धर्मात्मा, महात्मा, जैसी Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] चाहे, संतान उत्पन्न कर सकती हैं। अपनी संतानको जैसी चाहे, बना सकती हैं। आपकी इस छोटी सी सन्तानको ही एक दिन बड़ा बनकर, देशका नेता बनना है--उसे उन्नति-मोपानपर पहुँचना है । कौम को उठानेवाली, आप ही तो हैं । एक विद्वान अंग्रेज के शब्दों में देखिए- Mothers are builders of nation. कौमको बनानेवाली माताएँ ही होती हैं। संतानशास्त्र के शब्दों में, दुनियाको वीर, महात्मा, धर्मात्मा श्रोंकी प्रदान करनेवाली आप ही तो हैं । दुनिया के रंग मंचको समय समयपर भाँति भाँतिकी क्रान्तिक देनेवाली आप ही तो हैं !! सृष्टिके आदि प्रवर्तक व्यवस्था के स्थापक, भगवान ऋषभदेवके मातृत्वका सौभाग्य आप हीको तो प्राप्त हूँ । महाराज भरत जैसे गृह-बैरागी और बाहुबलि जैसे वीरयोद्धाओं ने आपको ही श्रवणप्रिय 'माता' के मधुर नामस पुकारा था। हिंसाका सन्देश सुनाकर विश्वशान्ति स्थापित करनेवाले, संसारके महान क्रान्तिकारक, भगवान् यहावीरको आपने ही एक दिन अपनी पवित्र गोद में खिलाया था । सीता, अंजना तथा राजुल आदि गौरवका श्रेय आपको ही है । अनेक वीर ललनाओं तथा असंख्य मर मिटनेवाले वीर योद्धाओं बहनोंक प्रति की पवित्र कोख से जन्म लिया है । राष्ट्रीय जगतमें हलचल मचाने वाले महात्मा गांधी तथा पं0 जवाहरलाल नेहरू आदि देशभक्तोंको आपने ही भारतवर्षको दिया है। फिर भी, आप अपनेको अबला तथा योग्य समझें ? है न यह आपके ऊपर पुरुषोंके अनवरत दबावका परिचय !! अपनी कमजोरीके भावोंका सक्रिय रूप !!! नहीं बहनों, आप कमजोर तथा अयोग्य नहीं हैं। आप पुरुषोंसे किसी भी दशा में कम नहीं हैं, वरन किसी किसी दृष्टिसे तो स्त्रियाँ पुरुषों से भी कहीं अधिक आदरणीय तथा पूजनीय हैं। संसार में सबसे प्रिय तथा पूजनीय 'मातृपद' आपको प्राप्त है । आइए, स्वाभिमानका गीत गाइए ! अपनेपनको याद करिए !! बहिनों अपनी मूर्खताका शिकार होकर, ३४६ चाँदी-सोनेके भूषणोंक लिए आग्रह न करके, अपनी श्रम सञ्जिता लक्ष्मीको बचाइए - चाँदी सोनेकी जंजीरोंमें जकड़कर अपने शरीरक स्वास्थ्यको धक्का न पहुँचाइए | यदि आपमें गुण हूँ- आप सुशिक्षिता हैं, सुशीला हैं तो आपके पास अमूल्य भूषण हैं । किसी अंग्रेज विद्वान्‌का कथन है कि Beauty requires no Ornaments सुन्दरताको भूषणों की कोई आवश्यकता नहीं है। आपको फ़ैशन की दासी न बन कर, सादगीको अपनाना चाहिए । शुद्ध स्वदेशी वस्त्रोंका उपयोग करना चाहिए | सब, शुद्ध स्वदेशी वस्तुयोंका ही उपयोग कर अपने देशका पैसा बचाना चाहिए - अपने देशकी आज़ादीकी लड़ाई में हाथ बटाना चाहिए। नित्य प्रति नियमसे चर्खा कातना चाहिए। सरलताको अपने जीवनका ध्येय बना कर, उसको पूर्ण रूपसे जीवनमें उतार कर दिखाना चाहिए । उच्च, पवित्र तथा कोमल विचारों को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए। विलासिताका वहिष्कार कर डालना चाहिए। क्यों कि बिलामिना ही अनेक दोषोंकी जननी है । इसका त्याग करके, सादगीको अपनाने से मनुष्य अनेक दोषोंसे बच सकता है । अपने जीवनके ध्येय, एक अंग्रेज विद्वान् के कथनानुसार बनाइए – Simple living and high thinking' अर्थात 'सादा जीवन और उच्च विचार' सादा जीवन बनाओ और उच्च विचार रखो । आपको अपने गृह कायोंसे घृणा नहीं करनी चाहिए। अपने प्रत्येक कार्यको स्वयं करना चाहिए । अपने घर के कामोंको स्वयं अपने हाथोंसे करनेको निर्धनता तथा गरीबी और नौकरोंमें कराकर आप बेकार बैठ जानेको अमीरीका चिन्ह समझना, एक महान भूल और मूर्खता नहीं तो और क्या है ? मैं तो कहता हूँ कि कोई चाहे निर्धन हो, चाहे धनवान, घरका काम बहनोंको घरकी पूर्ण अधिकारिणी - गृहणी को ही करना चाहिए। इसमें निरादर तथा गरीबीको कोई बात नहीं है। यदि उपरोक्त संकुचित विचारको अपनाकर आप अपने गृह-कायोंसे घृणा करेंगी, तो Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अनेकान्त [वर्ष ६ - - आप रोग-प्रस्त होकर बीमार पड़ जायेंगी-अपने दायित्व भी तो आपके ही सिर पर है। अमूल्य स्वास्थ्यको खो बैठेंगी। क्यों कि आपकी तो दुनियाकी बहुत सी जिम्मेदारियाँ आपके ही यह व्यायाम है। विदेशी स्त्रियोंकी भांति, लज्जाका ऊपर हैं । परन्तु फिर भी आप उन्हें न सममें, और परित्याग कर अपने गृह-कायको छोड़ कर, बाहर इसलिये दुनिया आपकी कृतज्ञताको स्वीकार न करेमैदानों में जाकर व्यायामकी आड़ लेकर, टैनिस, आपको अयोग्य तथा अबला समझकर घृणाकी दृष्टिसे फुटबाल और हाकी आदि खेल खेलना, हमारी भार- देखे, तो हे न यह आपकी घोनिद्राका कटु परिणाम !! तीय सभ्यताके विरुद्ध है। हाँ, आपको खुली हवाका और लगातार अपमान सहन करनेसे अपनेपनका सेवन अवश्य नित्य नियमसे करना चाहिए। बाहर भा विस्मरा !!! कुँए इत्यादिसे पानी भर कर लाना आदि इस विषय बहनों! अब निद्राको छोड़िये अपनेको पहचानिए ! में बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। अपने गौरवकी झलक जग दुनियाको दिखाइए !! अमीर घरोंकी बहनें विशेषकर रोगिन तथा कम- क्रान्तिकी आग लगाकर संसारको बताइए कि हममें जोर मिलती हैं। इसका कारण यही है कि वे गृह- स्वाभिमान है, वीरता है, धीरता है, बल है, साहस कायोंको स्वयं न करके नौकरोंसे कराती हैं। आप है और है संसारको हिला देनेकी शक्ति! हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने में ही अमीरी समझती आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले भी, है। परिणाम यह होता है कि व्यायामके अभाव में जब कि भगवान महावीरन, भारतमाताकी पवित्र शरीरमें तनिक भी हलन-चलनका कष्ट न उठानेसे वे गोदमें जन्म लेकर, उसका मस्तक संसारमें ऊंचा बीमार तथा रोगिन बन जाती हैं। हजारों रुपया, किया, आप अपनेपनको खो चुकी थीं। अपने गौरव वैद्य डाक्टरोंकी भेंट करने पर भी स्वास्थ्य रूपी महान् को भूल चुकी थीं। अपमानक प्रति मस्तक झुकाए, सुखसे वश्चित रहती हैं। ऐसी अमीरीसे वह गरीबी मौन धारणका ही अभ्यास आपको पड़ चुका था। हजार दर्जे श्रेष्ठ है, जहाँ कठोर परिश्रम द्वारा कमाई पतिदेव कहलाने वाला-पुरुष आपको अर्धाङ्गनी हुई दो रोटियाँ, स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट शरीरको सन्तोषस तथा धर्मपत्नी न समझ कर प्रायः पैरोंकी जूती ही समखानेको मिल जायें । सादा भोजन, नियत समय पर झता था-अयोग्य तथा अबला जानकर आपके सब मिलता रहे !! अमीर घरानेका मूल्यवान स्वादिष्ट कहा अधिकार छीन लिए गये थे । स्वतंत्ररूपसे आपको कोई जाने जाला-मिर्च मसालेदार चटपटा भोजन, स्वा- धार्मिक क्रिया करने तथा उसमें सम्मिलित होनेका स्थ्यके लिए अत्यन्त हानिकारक होता है। जीवनके अधिकार न था। आत्म-कल्याण करने वाले धार्मिक तत्व ब्रह्मचर्यका नाशक सर्व रागोंका घर होता है। एक ग्रन्थोंको भी आप न पढ़ सकती थी रातदिन आपको विद्वान् अंग्रेजके शब्दों में देखिए-Simplest and झिड़कना तथा अपमानित करना ही पुरुष अपना cheapest food, is the best food अर्थात् कर्तव्य एवं धर्म समझता था। उन्ही दिनों, संसार सबसे सादा कम मूल्य वाला भोजन ही सबसे अच्छा के महान क्रान्तिकारक भगवान महावीरने जन्म भोजन होता है। अमीरी कहे जाने वाले भोजनमें लेकर अपनी 'वीर' वाणीसे, आपको घोर निद्रासे स्वास्थ्य और धन दोनोंका सत्यानाश है। अधिक जाग्रत किया। वीर की दिव्य वाणीने आपके हृदय में मूल्यवान-अप्राकृतिक, गरिष्ठ भोजन स्वास्थ्यके अपनेपनका प्रकाश किया । अनुदार-हृदय, पुरुषको लिए अत्यन्त हानिकर होता है। आपकी शक्तिका परिचय कराया। पुरुषने उदारताको अतएव बहनों ! आपको भोजन-शासका भी पूर्ण अपनाकर भापकी शक्तिका स्वागत किया--आपकी ज्ञान होना चाहिए-उसके आवश्यकीय प्रयोगके प्रति महान् शक्तिका अनुभव किया--उसे स्वीकार किया। पूर्ण ध्यान रहना चाहिए । देशके स्वास्थ्यका उत्तर- आपने भी नतमस्त होकर, भक्तिसे ओत-प्रोत Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] तृष्णा अपनी हृदयवाटिकासे श्रद्धाके समन उस महान् भात्मा चीर-बाने से बनको सजा दें! -'वीर' के चरणों में कृतज्ञता-भाव प्रकट करनेके गान-वीरोंका सबको सुना दें। लिए भर्पण किए और उन्हें संसारक कल्याणकर्ता- नाम जिन्दोंमें अबवो लिखायें। गुरुके रूपमें देखा । अपने गौरवका अनुभव किया अपनी शक्तीसे जगको हिलायें। आपकी शक्तिन विश्वासका सहारा लिया। अतएव बहनों! अब उठो। स्वाभिमान तथा भाग दुनियामें ऐसी लगा दें। स्वावलंबनका पाठ पढ़ो। विलासिता-रूपी विषका जल उठे पापकी सब मुग दें। परित्याग करके, वारता-रसका पान करो। पुरुषोंक अपनी शक्कीको हमने पहचाना । पापके प्रति जमे हुए भयोग्य तथा अबलापनके भावों छोड़ें, दुनियाका अपमान सहना ।। को कुचल दो। देशमें क्रान्तिका विगुल बजा कर, कहने सुननेको करके दिखा दें! अपनी शक्तिका परिचय संसारको दीजिए । 'अबला' अपनी शक्तीका दर्शन करा दें !! के नामको शब्दकोषसे निकालकर 'सबलावीरा- सब उसे पहन केसरिया बाना। झना' को स्थान दीजिए। आइए, फिर निर्भय होकर फिर न कमजोर हमको बताना । गाइए------ सगर्व ! सारी दुनियाको मरना सिखा दें! कौन, हमको है 'अबला' बताता? नाम 'अबला'को सबला' बता दें!! __ भूल कर, सिंहको स्यार कहता !! बहिनों ! इसे गानेके पश्चात्, लोगोंको देखनेको अपनी हुंकारसे जग कँपा दें! मिलेगा-आपकी वीरताके साक्षात दर्शन ! समयके भूमि आकाशको भी मिला दें !! सुनहरे परिवर्तनकी भलक !! भारतीयत्ताका यथार्थ ऐसे जीवनसे मरना भला है। स्वरूप और मिलेगा-भारतमाताको बन्दे मातरम्का जिसमें अपमानका विष मिला है। सक्रिय रूप !!! भन्न विभाकिया जात इन बार LADAALASAHENNED एक हाथ में सुलभ सुराही एक हाथ में है प्याला, पी-पीकर मदहोश बने नर पाशा तृष्णाकी हाला! धधक उठी मनके बनमें जब नवाशाओंकी ज्वाला; भूल गये मानव सुख-साधन लगा शान्तिपर भी ताला। कितनकर विचार निशि-वासरहा! सपनोंके संसार बनाये, कितना पतन किया तन-मनका क्षणिक भावनापरहरषाये। चीती निश जब हुआ प्रात इन सपनोंका कुछ भेद न जाना, रहा हाथमें केवल मेरे बार बार मिर धुन पछताना। छोड़ भाग्य पुरुषार्थ अरे मैंने सपनोंकी राह निकारी, पाशा ही आशाने मुझको हाय बनाया एक भिखारी। खोकर सारे मानवपनको तीव्र लालसामें ललचाया , सोच रहा हूँ तृष्ण ! तुमने कितना मुझको पतित बनाया, तेरे गहन जालमें पड़कर मैंने अपनेको भरमाया । (पीसीराम जैन 'चन्द्र) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक परीक्षण 1 "स्वाधीनताको दिव्य ज्योति !" (ले०-एस०सी०वीरन) जैनी साहित्यिकोंमें श्री भगवत' जीका स्थान ऊँचा है खण्डकाव्यमें एक ही भावना विशेषतर प्रतीत होनी इसमें शक नहीं। कलाकार, कवि, और नाटककार, ये तीनों चाहिये। इस काध्यके नामसे ही उस काग्यमें स्वाधीनता भी वे हैं। जैनीकथाओंको मधुर-सरस-सरल भाषाका वन की लहरें हदयपर हिलोरती रहनी चाहिये। किन्तु कवि पहनाकर नवीनतम रूपसे समाजके सामने रखने वाले स्वयं स्वाधीनताके प्राणप्यारे बाहुबलीजीको भी विचारे' अनन्यतम कलाकार वे हैं। बना देता है!"वे अपने अपने राज्य में संतुष्ट विचारे!" किन्त काब्यकी रटिसे वे उतने सफल नहीं हुए। इस वाक्यसेमकी संतुष्टता अयोग्य थी। ये विचारी थे। सितंबरके अनेकान्तकी किरणमें 'स्वाधीनताकी दिव्यज्योति' इसके अलावा खंडकाव्यको बताते समय जिस प्रकार प्रकाशित देख मनको हर्ष हुमा । 'मराठी' साहित्यिकोने प्राचार्य ग्रंथ करते समय मंगलाचरण करते हैं, उसी प्रकार अपनी नई पुरानी वीर-रस-प्रधान कथाओंको जिसरूपसे कविने भ. महावीरजीको नमन किया है। किन्तु उस सामने रखा है या हिंदी कवियोंने भी चारुरूपसे समाजके भक्तिके रसमें वे भ. महावीरको भवतार मान बैठे हैं। सामने रखा है उतने चारुरूपसे जैनी हिन्दी या मराठी यद्यपि कवि नहीं चाहता है कि वह अवतार बन जाय। साहित्यिकोंने नहीं रखा है। इतना होते हुए भी श्रीभगवत "जिस वीरके अवतारने पाखण्ड नशाया ।' उसी प्रकार जीका स्थान कुछ कम नहीं। चरणों में सिर झुकाते झुकाते कान्यके आनंदमें उन्होंने कदमों तो भी खंडकाव्य यह काव्योमका अति उत्कृष्ट विभाग में ही सर झुका लिया। है,सभी भाषाओं में खंडकाम्यकी रचना हुई है। किन्तु खंड- इसी प्रकार इस खण्डकाव्यकी भाषाकुछ अरुचिकर है। काव्यका साहिस्थिक तंत्र अभी तक तयार नहीं हुआ है। क्योंकि वह संस्कृत-निष्ट नहीं है। इतनी सरल कथा पढ़ने तो भी संसारके जो भी अनोखे 'खण्ड-काव्य' हैं, उनके के लिए एक हिंदी छात्रको 'हिंदुस्तानी कोष'की आवश्यकता बराबरीके खंडकाव्य जैनी हिन्दी साहित्यमें उपलब्ध नहीं प्रतीत होती है। उपयोजित उर्दू शब्द भी इतमे योग्य है। कोईसी भी कथा भागका निरूपण, यह खंड-काव्य नहीं नहीं मालूम होते हैं। माना जाता है। कहता हूँ कहानी मैं सुनंदाके नंदकी" यह खण्डकाव्य लिखनेको बैठा हुमा खेखक यत्र तत्र अपने कवि-पाणी इस बातकी सूचक है, मामो कोई कथा कह रहे लेखनको कमजोर बताता है। उससे भी काम्पका सौंदर्य न है,न कि खंडकाव्य! बढ़ते हुए हीन ही प्रतीत होता है। मयूर-सिंहासनाधिष्टित इस खंडकाव्यको रचनामें अनेक दीप पाये जाते हैं। सरस्वती देवीको चढ़ाने यदि कवि यह खण्ड-काव्य-पुष्प ले कहानी लिखने में जिस प्रकार व्यक्तिदर्शन भी किया जाता आ रहा हो तो वह बड़ा ही भाग्यवान है। फूज नहीं फूल है उसी प्रकार वातावरण (Atmosphere) की जरूरत की पत्ती ले जाने वाला मेंडक श्रेणिक-जितना ही श्रेष्ठ था। रहती है। किन्तु उसकी शुरुमात इस ढंगकी नहीं होती। कवि कहता है-'महीं लेखनीमें बल', कवियोंका इस मापने देखा है कि रास्तेपरके दवाई बेचनेवाले तालियां प्रकार अपना बयान कायों में करना ठीक नहीं जंचता। बजानेको कहते हैं उसी प्रकार कवि भी "जय बोलियेगा इसी प्रकार इस खण्ड काव्य में शब्दोंके उपयोग ठीक एक बार प्रेमसे प्रियवर" कहकर अपनी कहानीको बताना तरहसे नहीं हुए है। 'दम-भरके लिए सबको मुसीबत-सी शुरू करता है। दिखाई' इसमें 'दम-भरके लिए' यह शब्द प्रयोग अनुपयुक Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] स्वाधीनताकी दिव्य ज्योति ३५३ प्रतीत होता है। उसके स्थान पर 'छिन-भरके-लिए' यह रूपसे प्रतीत होता है किन्तु वे चाहते कि जल्द बँधे भाई वाक्य-प्रयोग ठीक ऊँचता था। की प्ररथी" यह वाक्य बाहुबलीके मुँहमें न गालते तो खण्डकाव्यमें रिया हुमा दूतका भाव , असभ्यताका उतनी ही उनकी श्रेष्ठता थी। एक साधारण व्यक्ति अपदिग्दर्शक है। चक्रीशके भाईको एक साधारण दूत इतने मानित शत्रुको जितना नहीं कहेगा उतना कवितीने भरतजी कड़े शब्दों में उपदेशित नहीं कर सकता। 'भृत्य सिधारा' को सहज ही सुनादिया है। तो भी कविजीने प्रस्तावना और भृत्य यह शब्द केवल परिचर्या-सेवा आदि करने वालोंके उपसंहार बहुत अच्छा किया है। किन्तु पीछेसे उसको लिए उपयुक्त किया जाता है ऐसा मेरा खयाल है। भरतके और भी २०-२५ चरणोंकी पुच्छ जोड देनेसे भादमी मनमें यह कल्पना भी नहीं होगी कि यह मैं अपने भाईको पुच्छ होने पर जिस प्रकार दिखता था उसी प्रकार प्राज्ञा कर रहा है। फिर भी 'प्राज्ञाका कुठारा' यह वाक्य- दीखने लगा है। प्रयोग उपयोजित है। भृग्यके गुणोंका वर्णन कविने ही इस खण्डकाव्यमें अनेक दोष हैं तो भी वह उनके नये किस प्रकार किया है यह देखने सरीखा है उपक्रमके मानसे देखा जाय तो बहुत ही अच्छा जंचेगा। "वाचाल था, विद्वान, चतुर था प्रचण्ड था। ऐतिहासिक खण्डकाव्यों में पूरी तरहसे ऐतिहासिकता रहना इस चरणके दो विशेष्य बड़े ही चमत्कृति-जन्य हैं। आवश्यक है। भ. बाहुबलीजीके दिल की बात सब जगत भृत्य प्रचंड या याने क्या ? और वाचाल यह शब्त-प्रयोग में कैसे फैल गई? इसका उत्तर काग्यसे प्रतीत नहीं उपहास-जनक। उसी-प्रकार उसका भाषण भी शिष्ट- होता है। सम्मत नहीं हो सकताहै कविजीने अपनी पूरी शक्तिको लगा कर यह काव्य "या रखते हो कुछ दम तो फिर मैदान में प्रावो" लिखा है। केवल उसमें दोष-दृष्टिसे मैंने निरीक्षण या याने भरतके पहले उनके भृत्य ही बाहुबलीको अपने परीक्षण नहीं किया। जैनी कवि इस खंडकाव्यकी ओर बाहुबलसे डराने लगे। यदि इस प्रकारकी बात भरतके बढ़ें । घर घरमें जिन खंड.व्योंको भक्तामर-सरीखा मुँहसे निकली हो तो भी इतने पुण्यवान्-महारमाके मुखसे स्थान मिलेगा ऐसे खंड-काव्य जैनी माहित्य में पैदा होवें, कविका इतने शब्द कहनेको लगाना यह सब महिमा कवि- यही केवल एक भावना है। राजके सामर्यकी है! श्री मुख्तारजी साहबकी 'मेरी भावना' जैन समाजके किन्तु वही बाहुबलीके मुखसे निकले हुवे शब्द कितने हृदय में घर करके रह गई, उसी प्रकार यह खंडकाव्य मी गहरे है-- जनताका हृदय जरूर जरूर आकर्षित करेगा। कषिजीमे "सेबककी नहीं जैसी कि स्वामीकी जिन्दगी। पहला कदम रखा है। इस लिए उन्हें मैं-मैं ही क्या क्या चीज़ दुनियामें गुलामीकी जिन्दगी ! समाज धन्य कहेगा। इसी प्रकार एक वाक्य-प्रकार मुझे बड़ा ही रोचक श्री भगवतजीकी रचनाएँ समाज पसंद करता जारहा जगा--चेहरा बिगड़ गया' सचमुच में बाहुलीजीके इन है। कुछ वर्षके उपरान्त जैनी साहित्यिकोंमें ही नहीं वरन् शनोंसे उसके मुँहमें पानी न रहा होगा। हिंदी साहित्यिकों में 'भगवत्जी अच्छा स्थान प्राप्त करेंगे। इतने स्वाधीन विचारसे बोलने वाला राहुबली भागे यह खडकाब्य पढ़ते समय प्रागे भागे रुचि तो बढ़ती चल कर कहता है "मैं तुच्छ-सा राजा हूँ" "बलिदानका ही जाती है। किन्तु खंडकाव्य हृदयोंको हिला नहीं सकता बल है, अगर लड़नेका दम नहीं" । या पदनेके बाद दिलपर कुछ भी असर नहीं करता है। किन्तु हम खंडकाव्यसे बहुबलोजीकी ही श्रेष्ठता प्रतीत अनेकतर खंडकाम्य हृदयकी पकड जमा लेते हैं । अमेक होती है, भरतजीकी नहीं। वर्षों बाद भी कुखचरण हृदय-सागरपर हिलोरें मारते हैं। बाहुबलीजीकी भूमिका कविजीने अच्छे रूपमें दर्शायी कथानक गूयते समय कवियोंको चाहिये कि कथानकहै। बसाई जीतने पर भी उनका वैराग्य-भाव-समुचित सूत्रमागे बनता रहे। कभी कभी कविजी ही अपने हृदयका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ अनेकान्त [वर्ष ६ हाल सुनाने बैठते हैं जिसको पाठकगण नहीं चाहता है। तंत्रके अनध्ययन-पूर्वक ही कविको लिखनेका प्रयत्न जिस समय कथानककी महत्ता-श्रेष्ठता कवि अपने मुहसे करनेसे उसकी कृति नाप-तौलमें कम होती है। हर समय कहता तब समझना कि उसमेंके पात्रोंको अपनी कृतिसे यही सोचना चाहिये कि अपनी कृति अनोखी रहे। अपनी श्रेष्ठता दिग्दर्शित करनी नहीं पाती है। कान्यकी रचना ऐसी चाहिये कि उसमें हरएक लाईन जैनी कवियोंमे मेरी प्रार्थना है कि वे अभ्यास-पूर्वक अपनी योग्यता (Value) कायम रखे। 'मेरी-भावना'का लिखनेका प्रयत्न करें। कहानियोंको बतलाना यह खण्डकाव्य हरएक शब्द भरनी निजकी योग्यता (Belevalue) नहीं हो सकता है मेरी तो यह हार्दिक भावना है कि इस प्रकारकी कथाएँ पद्यरूपमें परिणत करके उनकी एक खंडकाव्यों में केवल वीररस 'स्टंट' न होने देनेका कवि किताब छपे और वह बालकोंके लिए ही खास कर होवे । को जरूर प्रयत्न करना चाहिये। इस लिए कवियोंको बालकोंके कोमल हृदय पर गीत ही प्रभाव कर सकते हैंचाहिये कि वे Running Literature न लिखते गद्यात्मक रचना नहीं। इस लिए ऐसी पद्य-कथाओंकी हुए Self-value रखने वाली रचनाएँ करें। बालवालयमें कमी है। उसकी पूर्ति होवे वह सुदिन ! चाँदनीके चार दिन (श्री भगवत्' जैन) पाप बुरा है ! नहीं करना चाहिए, इसलिए कि कांश जगत इसी सिद्धान्तको मानने वाला है ! और उससे दुःख मिलता है ! पर, हम करते हैं, और तुर्ग विश्वास कीजिए-इसमें वे आस्तिक भी शामिल हैं यह कि बेहिचक ! अब सवाल उठता है, कि दुम्ब जो पुर्नजन्मके अस्तित्वसे ना-मुकर नहीं है! पाते हुए भी हम उसे करते क्यों है ? भयभीत क्यों इतना सब कहनेसे, मेग खयाल है, दुख भोगते नहीं होते उससे ?"हाँ! दुखसे घबराते हैं, भयभीत भी हम पाप क्यों करते हैं ? इसका समाधान हो जाता होते हैं। लेकिन मूल चीजतो यह नहीं है न ? यह है ! लेकिन पाप बुरा है ! बुग है वह हर हालनमें हर दुसरी बात है! पहलूमे बुरा है-इम ध्रुव-सत्यमें अन्तर नहीं पड़ता ! और इस सबका उत्तर सम्भवतः यही हो सकता फिर परिणाम चाहे आज भोगना पड़े, चाहे कल ! है, कि हमको नतीजा--पापका-हाथोंहाथ नहीं भोगना तो पड़ता ही है न ? और तब यह मूर्खताके मिलता! और यों, हम परिणामकी ओरसे बेफिक अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरती, कि दुखके कारणकी रहते हैं ! पाप करते चले जाते हैं-निडर होकर ओरसे आँख मीच कर, दुम्बकी कठोरताके लिए यानी पाप आज करते हैं, दुव बादको मिलता है। रोया-चिल्लाया जाय ! परिणामके लिए यह नहीं कहा तब तक पापकी बातको भूल जाते हैं। दुखको लेकर जा सकता, कि कब सामने आए ! नियमकी पावन्दी रोते, चीखते-चिल्लाते हैं। जैसे अकारण ही किसीने उस पर लागू नहीं है! एक अर्से के लिए टलना नालाद दिया हो! और बादकी-मागेकी-बात पर मुमकिन नहीं है, उसी तरह हाथोंहाथ भी नतीजा विश्वास भी कितनोंको है ? 'हाल तो मौजमें गुजर नजरके आगे आ खड़ा हो मकता है ! जानी चाहिए, आगेकी आगे देखी जायगी!'-अधि- नीचे वर्णनमें ऐसी ही घटना श्राप देख पाएँगे, Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण १०-११ चाँदनीके चार दिन ३५२ और तब स्वयं इस बातकी गहराईको देख सकेंगे कि खास बात हो, और उसका सम्बन्ध मुझमे हो, तो पाप बुर है। नहीं करना चाहिए इमलिए कि उससे उम सम्बादको भी न गेका जाय । शेष कार्यों के लिए दुख मिलता है! मेरे पास आनेकी कोई आवश्यकता नहीं !! अयोध्याके महाराज सुरत बुरे आदमी नहीं थे! अन्तःपुर-वासी महाराज सुरतकी प्रज्ञाभोंका-सतबुरे होते हैं वे, जो सत्ताके मदमें अन्याय पर उतर कता पूर्वक पालन हो रहा है! राज्य-व्यवस्था चल आते हैं! और आप मानिए, यह बुगई उनमें नहीं रही हैन्यायके पथ पर ! और महाराज सुरत प्रधान थी-जरा भी नहीं! महिषी--महारानी--सतीके कमलाननके भ्रमर बने हाँ, एक अवाँच्छनीयता उनमें ज़रूर थी। और हुए मधुगन करते नहीं अघा रहे! वह यह कि वे इस वासना-पूर्ण सिद्धान्त पर यकीन तृप्तिका सबब भी तो हो ? वासनासे 'सृप्ति' का करने लगे थे कि राज्य-वैभव पानेका मक़सद यह है, नाता ही कब रहा है? फिर हम-तुम साधन-समृद्धिकि जी-भर कर विषय-भोगोंका स्वाद चखा जाय ! हीन जब एक स्त्रीके समाव पर दुनियाको भूले जा अपने जीवनको इसी साँचे में ढाल भी लिया था रहे हैं, तो महाराज सुरतकी तो बात क्या ? स्वयंउन्होंने ! रात-दिन अंतःपुरमें पड़े रहते ! राज-काज गजा ! दस-बीम-पचास नहीं, पूरी पांच सौ रानियाँ ! का सारा बोझ योग्य मंत्रियों के कन्धों पर था। जो और वह भी ऐमी-बैसी नहीं, कोई अप्सरा-सी, तो उचित उत्तमताके साथ वहन कर रहे थे ! महाराजकी कोई चाँदनी-सी लुभावक! महारानीके सौन्दयेके अनुपस्थिति किसीको अखर नहीं रही थी ! यों, गाहे-ब- वारेमें लिखना तो व्यर्थ-विस्तार करना होगा । सिर्फ गाहे महाराजके चरण भी दबारमें पाते ही!" इतना कहना काफी है, कि वह बहुत सुन्दर थी! पाँच सौ देवियों जैसी रमणियों के सौन्दर्यमें डूवे महाराज जी उसी पर अधिक भासक्त थे, यह किसी रहने पर भी, महाराज सुरतके अन्तःकरणकी ज्योति गुण पर ही ! और शायद वह गुण उसकी खूबसूरती बिल्कुल बुझी नहीं थी, कुछकाश शेष था ! जहाँ ही थी! विलासताको सामने रख कर जीवन-पथ तय करना महारानी सती अपने सौन्दर्यसे अनभिज्ञ नहीं उन्होंने विचारा, वहाँ मानवोचित कर्तव्यको भूलनेकी थी। उसे अभिमान था, कि वह सारे अन्तःपुरमें ही भी ग़लती उन्होंने नहीं की! नहीं, शायद मारे संमार-भरमें पहले-नम्बरकी सुन्दरी अवश्य ही वह अपनी प्यारी प्रजाके समयको है! महाराज सुरत-सा व्यक्ति जो उस पर अपने राग-रंग में व्यतीत करते हैं! वह राजसी प्रतिभा, आपको चढ़ा चुका था ! शक्ति और प्रोज, जिसे जन-हितके कार्यों में लगना पुरुषकी पराजयसे नारीमें अहंकार-मय प्रमोद चाहिए था नहीं लग रहा ! लेकिन वह इन चीजोंका प्रकट न हो, यह मम्भव नहीं! शायद-महारानी दुरुपयोग भी नहीं करते! वरन् जब समय मिलता मतीका विश्वाम था, कि मौन्दर्यसे अधिक नारीकी है, विवेककी चारी पाती है, कामाग्नि-विषय-लालसा प्रतिष्ठाका दूसग कोई हेतु नहीं हो सकता! अगर उस –ठन्डी पड़ती है तो विचारते हैं-'मैं मनुष्य हूँ ! के पास रूप है, तो किमी दूसरे गुण या भाकर्षणकी मुझे मानव जीवनसे लाभ लेना ही चाहिए ! मैं कतई उमे जरूरत नहीं! भले ही उसका अन्तरंग राजा हूँ ! मुझे प्रजाके सुख-दुख में हाथ बंटाना चाहिए, स्वस्थ न हो ! पुरुषकी महानुभूति उसे मिलेगी ही! उनकी परवरिश करनी चापिए !! "रुप नारीका जीवन है। कुरूपता उसकी मृत्यु! और वे दोनों ओरसे बेफिक्र नहीं हैं। उनकी घोषणा है-'अगर साधु-महात्मा इधर बाबें, तो बहुत दिनों बाद ! मुझे फौरन सूचित किया जाय ! अगर प्रजाकी कोई एक दिन : * x Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ अनेकान्त [वर्ष ६ ताजे म्बिले हुए फूलोंकी उत्तेजक, आनन्द-दायक महागज मौन ! सुगन्धिसे परिप्लावित विलास-भूमिमें. अनक सुंद- नारी-प्रेमको उनके ठेस लग रही थी-'उपास्य' रियोंके मधु-कटाक्ष और हृदय-बेधक वचनों के बीच, जो ऋद्ध-सा, मलिन-सा होता जा रहा था ! उपासक महाराज सुरत अपनी प्राणेश्वरी महागनी मतीके प्रसन्न कैसे रहता? चंद्राकार माथे पर तिलक खींच रहे थे ! सौन्दयेकी कुछ सोचा! और वे चलने-चलनेको हुए।".... निरख-परख, देख-भाल, सहयास और इन्द्रिय-सुग्वों कि सतीने फिर एक बाण छोड़ा-'जा तो रहे हैं, को तृप्त करनेकी कोशिश यही सब तो महाराजका जाना जो ज़रूरी है। पर, लौटिएगा-कब ? क्या कार्यक्रम हैं ! वे प्रेम-पुजारी हैं, व्यसन ही उनका प्रतीक्षा कीजाय ?? यह है!" ___ 'चित्त मत बिगाड़ो-सुन्दरी ! मैं अभी, तुम्हारा बसन्तकी मस्तानी वायु ! तिलक सूखने भी न पाएगा, कि पाया जाता हूँ ! मुझे कोयलकी कूक !! जो तुम्हारे चन्द्राननको देखे बिना चैन नहीं मिलता!' समृद्धिशालीका केलि-भवन !!! --और बरौर प्रत्युत्तर सुने, महागज विलासतरुण-सौन्दर्यका प्राधान्य ! भूमिसे बाहर हो गए। हो सकता है, उन्होंने क्रमदन स्वर्गेमें इससे अधिक कुछ होगा, पता नहीं !... उत्तर सुननेसे अपनेको बचाया हो, उत्तर जो बद महाराजकी सारी शक्तियाँ उस माथेके छोटेम जायका-कडुवा-मिलेगा, इसका अन्दाज़ा लगा चुके तिलकम केन्द्रित हो रही थीं ! वह जो रूपको आर थे-पहले ही !... भी लुभावक बनानेकी सामध्ये रखता था ! कभी _ 'यह निगदर ?-यह करारा अपमान ?'-सतीके बनाते, कभी पोंछ डालते-यह जो चाह रहे थे, कि खौलते-हृदयसे प्रकट हुश्रा! अधिक-से-अधिक सुन्दर, कलापूर्ण, आकर्षक बन जाय! पर, महाराज वहाँ नहीं थे। वे रानियाँ, संबिकाएँ कि महसा प्रहरीने प्रवेश कर निवेदन किया- वहाँ शेष थीं, जिनका मूल-विषयसे कुछ सम्बन्ध 'दो बन्दनीय दिगम्बर-माधुओंका गज-महलमें शुभा- नहीं था! गमन हुश्रा है, महाराज !, मुँह कुचली सर्पिणीकी तरह सती क्रोधमें भर महाराजकी चैतन्यता लौटी। मुँहसे निकला- रही थी! सुनने वाला कोई है या नहीं, इसकी उसे 'धन्यभाग्य !' पर्वाह नहीं थी। दर्वाजेकी ओर आरक्त आँखोंसे प्रहरी चला गया। घूरती हुई वह आप-ही-आप बड़बड़ाने लगी-तृणमहाराज उठ खड़े हुए। कुछ कहन ही जा रहे थे, हीन धरती पर पड़े अंगारकी तरह निस्सारकि सतीने टोका--'क्या तुम्हारे बिना वे भूखे लौट 'नहीं जानती थी, कि तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं; जाँयगे? ऐसा कोई बड़ा काम तो यह है नहीं, जो दम्भ है, धोखा है! मुझे विश्वास था कि तुम मुझे "तुम्हें जाना ही चाहिए।' प्रेमकी देवी मान कर, मेरा आदर करते हो, पूजते बड़ी भोली हो तुम !'-महागजने वहस करना हो; प्यार करते हो! ले कन आज जान सकी, कि व्यर्थ-सा समझते हुए, कहा-'साधु-संवामें रस लेनेस तुमने मुझे खिलौना समझा, सिर्फ खिलौना ! वह बड़ा काम दुनिया में मनुष्यके लिए और क्या हो खिलौना जिमका एक समझदारकी नज़रोंमें कोई बड़ा सकता है-रानी ? सोचो तो जरा मूल्य नहीं। जब चाहा, जब तक चाहा मनोरञ्जन . महाराजकी सरल-मुलायम वाणीने सतीके भीतर किया, नहीं तो दूर ! ' और भी तीखापन ला दिया, बोली-- ऐसी बातें क्रोधसं थर-थर-विवेकसे पिछड़ी, पापसे पूर्ण सोचने-विचारनेके लिए आप कुछ कम थोड़े ही हैं!' सुन्दरी-सती कुछ क्षण मौन रही ! मस्तिष्कमें जो Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] चांदनीके चार दिन पता कराह रहीशाली नारी मागन्धिके कारणका, पीव गदर हो रहा था, व्यवस्था जो वहाँकी भंग हो रही कैसा बीभत्स-श्य १११ थी! मस्तिष्कके मूक-भाषणोंको मुखरित करना जो अनायास उनकी वाणी फूट पड़ी-'यह क्या काठको कठिन हो रहा था! हुआ? पर उसके विद्रोही मनने उसे न रहने दिया। महाराज समीप पाए ! वह फिर आग उगलने लगी भीतरकी-फुकारते जो कुछ देखनेको उन्हें मिला, वह एक दम हुए बोली-हुम्ह! हत्याकी जड़ तो नंगे-साधु! विचित्र था कौतुकमय इन्द्रजाल!अप्सराके रूपको जिन्हें शहरभरमें मरनेके लिए दूसरी कोई जगह ही लज्जित करने वाला महारानी सतीका सारा सौन्दर्य नहीं मिली! बेहया, बेशर्म कहींके ! अपनी आनन्द कुरूप बन गया है ! कोद फूट निकला है। खन, पीव की दुनिया नहीं बसा सके तो चले दूसरेकी आबाद- की दुर्गन्धि छूट रही है ! सुन्धिके कारण भ्रमरोंसे दुनियामें आग लगाने! न जाने कबकी मुझसे दुश्मनी घिरी रहनेवाली नारी मक्खियां उड़ा रही है, वेदनासे निकालने चले आए--कम्बख्त! मेरा स्थान था जहाँ, कराह रही है-वत ! चाँदनी-सा शरीर, अमावस्या वह हृदय अपनी ओर खींन ले गए-उफ!! की रात-सा काला, डरावना लग रहा है! कुटिल प्रतिहिंसाके जहरने सतीकी बची-खुची महागज स्तब्ध! मानवताका अन्त कर दिया। विश्व-हितकारी, वंदनीय, चकित, अचम्भित !! पतित-पावन गुरुओंक लिए अनेक कुवचन कह कर बोले-'अरे, यह हुश्रा क्या तुम्हें १ इतना परिक्रोध शान्त करने लगी वह !" वर्तन, इतनी जल्दी ?' औफू !! रूप नारीका जीवन है, कुरूपता उसकी मृत्यु !" दाँत पीसते, आरक्त नेत्रोंसे खून बरसाती हुई और पाप मानिए कि सतीकी मृत्यु हो चुकी थी! रूप सती बोली, वाणीमें प्रकम्पन था, पापकी ज्वाला थी; जो उसका नष्ट हो चुका था। वह जो थब कुरूपा थी, और थी विवेक-हीनता-गनीमत समझो, कि तुम बदसूरत थी, रुग्णा थी; कोदिन थी! मेरी आँखोंसे ओझल हो-दुष्टो ! नहीं तो बोटी-बोटी वह सिसक-सिसक कर रोने लगी! मुंचवा कर कुत्तोंको डलवा देती !' महाराजने फिर पूछा-रोती हो? बताभो न ? पापकी पराकाष्ठा! बात क्या है-प्रिये सत्साधु-निन्दाका घोर-पाप !! 'कुछ नहीं है-महाराज! मुझे अपने किएका फल मिल गया है!'-दुखित, दीन और पीड़ित स्वर पात्र-दानका पावन-पुण्य प्राप्त कर जब महाराज में सतीने कहा। सुरत वापस लौटे, तब मुँह उनका अन्तरंगकी प्रस- “किया क्या था तुमने ? क्या मेरे पीछे कुछ प्रतासे उहीत हो रहा था! वह अपनेको भाग्यशाली - घटना घटी?' समझ रहे थे। अपरिग्रहत्वके आदर्श दिगम्बर- हाँ! कोधकी गुलामी में मैंने वह पाप कर डाला, साधुओंको आहार-दान करना जो साधारण चीज़ जो दुनियाके बड़े पापोंमेंसे एक था। और उसी तीन नहीं होती, न ? पापका तत्काल-हाथों-हाथ यह नतीजा मुझे मिला सोचते भारहे थे-'धन्य है आजका दिन! है-प्राणेश्वर !! साधु-सेवाका अवसर मिल सका!कितने पुण्य-कर्म 'कौन बड़ा पाप?-महाराजने उत्सुक हो पूछा ! से मिलता है ऐसी महान आत्माओंका दर्शन ? 'साधु-निन्दा! पर, जैसे ही विलास-भूमिमें उन्होंने पैर रखा, 'ऐं, साधु-निन्दाकी तुमने ?' कि वह भकषका कर दो-डग पीछे हट गए! रानी चुप ! - - पात्रदानका पावन Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ अनेकान्त [वर्ष ६ महाराजका मन साधु-दर्शनकी ओर फिर गया। एक क्षणमें कछका कुछ कर सकता है, और पाप ही आप कहने लगे-'दमदत्त और धर्मरूचि दुनियामें रह कर तुझसे बचना भी तो आसान नहीं महा-मुनि ! एक महीनेकी उपवास-अवधिको पूर्ण कर है हर किसीको ? तब ?' पाहार-नीरस आहार के लिए बनसे नगरमें पधारे पाके भयने महाराजके मुँहको म्लान कर दिया थे। सौभाग्य कि मुझे पुण्य-प्राप्त करनेका मौका मिल वे चिन्तितसे, दु:खितसे उस विलास-भवनमें चहल गया ! क्या वह तुम्हारी निन्दाके पात्र थे? जिनका कदमी करने लगे जहाँ कुछ समय पहले आनन्दकी कि जीवन ही आत्म-हित और परोपकारमय होता हँसी हँस रहे थे! है! बोलो तो? सुनूं तो, कहना क्या चाहती हो । क्षण-भंगुर-विश्व !!! इस बारेमें " अनायास महाराजके मुँहसे निकला-'पाप __पर, सतोके पास कहनेको शेष था क्या ? वह बुरा है!' बेचारी पापिनी स्वयं ही नरक-यातना भोग रही थी। सतीने घावोंकी पीड़ासे कराहते हुए कहा-'नहीं रूपका अभिमान, वह दर्प, राजसी तेज कुछ बाकी करना चाहिए इस लिए कि उससे दुःख मिलता है !" नहीं था! वह मर जो चुकी थी-अपनी मान्यताके मुताविक! रात-दिन अन्तःपुरमें पड़े रहने वाले महाराज वह निरुत्तर ! सुरत जब विलास-भवनसे निकले, तो राज-पाटकी महाराज कुछ देर क्रुद्ध-दृष्टिसे देखते रहे उसकी ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं, चल दिए आत्मओर ! फिर सहसा उनकी मुखाकृति सौम्य होती गई! हितकी कामना लेकर वैराग्यके पथ पर ! सोचने लगे-'पाप ! बड़ा शक्तिशाली है-तू! सब देखते रह गए-अवाक ! -:-- अभ्यर्थना -.". नाथ, फिर सञ्चा रूप दिखाओ ! दुराचार बढ़ता जाता है, दम्भ-द्वेषका नहीं ठिकाना , सदाचार सड़ता जाता है! स्नेह शील हो उठा पुगना । पुण्य कहीं भी नजर न श्रीता; परमारथ अब नज़र न पाता, पाप नित्य दृढ़ता पाता है ! स्वारथमय हो गया नमाना! भार बढ़ रहा मातृ-भूमिपर, भाकर इसे मिटाश्री ! | न्याय विकल होता-रोना है-उसको धैर्य बँधाश्रो ! चारों ओर क्रान्तिकी ज्वाला , जगको हुई धर्मसे ग्लानि , विश्व-शान्तिका हुभा दिवाला। भूले हैं सब कथा पुरानी । सुधा-सोमरस नहीं यहाँ श्रब रक्त मसी है खड्ग लेखनीहै केवल साकी श्री' हाला! लिम्वी जारही क्रान्ति-कहानी! जहाँ तहाँ मादक मधुशाला-पीनो और शिलानो! | भूल-प्रान्तियों मिटा, शान्तिका श्राकर पाठ पढ़ाओ! -[श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुहित' Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग़लती और ग़लतफ़हमी -[ सम्पादकीय - [ यह लेख लिखे जाने के बाद व्यवस्थाहक अनेकान्तके पास प्रकाशनार्थ जाकर 'इधर-उधर' होगया था-मथुग तक पहुँच गया था। कोई तीन महीने तक खोजके बाद गन ना. २३ मईको प्राप्त हुआ है। इससे अब प्रकाशित किया जाता है] अनेकान्तके गत विशेषाङ्ग (कि. ५-६)में जहां खटाई-ममक मिलाया हुमा अथवा यंत्रमे बिच भित्र किया छपाईकी बहुत-सी मोटी मोटी गलतियाँ हुई है वहाँ दूसरे हुमा बनस्पति द्रव्य है वह सब 'प्रासुक' (अविस) होता प्रकार की कुछ ऐसी गलतियों भी हुई हैं जो सुनने-समझने है। और फिर "प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः"-प्रामुक्के अथवा लिखनेकी गलतीये सर रखती है। उदाहरण खाने में कोई पाप नहीं. यह कहकर बतलाया गया था कि के तौरपर पृष्ठ २२२ पर 'बड़े अच्छे हैं पण्डितजी' इस तुम्हारी सीह में जो मालूका शाक तरयार है वह यंत्रसे शीर्षकके नीचे एक बालिका-द्वारा भोजनसमयकी जिस किन-भिन्न करके, खटाई-नमक मिक्षाकर और अनिमें पका घटनाका उल्लेख किया गया है वह कुछ अधूरा और सुनाये कर तय्यार किया गया हैन--करचा तो नहीं"तब उस हुए श्लोकावि-विषयक पर्षकी कुछ गलती अथवा राजत- खाने में क्या दोष फहमीको लिये हुए है। भोली बालिका शारदाको तो दो अब मैं यहाँपर इतना और भी बतखा देना चाहता हूँ एक चलतीसी बातें कहकर अपनी श्रद्धाजलि अर्पण कानी कि सचित्त-त्यागी पाँच वर्षे (प्रतिमा) श्रापकके लिये थी. उसे क्या मालूम कि जिस बातको उसने बूढी अम्मासे __ स्वामी समन्तभद्राचार्यने रखकरणाश्रावकाचारके निम्न सुना था उसका प्रतिवाद कितना महत्व रखता है और इस पचमैं बह विधान दिया है कि वह कन्द - मूललिये उसे कितनी सावधानीसे ग्रहण तथा प्रकट करना फल - फूलादिक करचे नहीं खाता, जिसका यह चाहिये लिखते समय उसके सामने नवो यह श्लोक था पर प्राशय है कि वह अनिमें पके हुए अथवा अन्य प्रकार और न उसका मेरे द्वारा कियाहुमा भई-दोनोंकी उडती से प्रासुक हुए कन्द-मूलादिक खा सकता है, और साथ ही सी स्मृति जान पड़ती है, जिसे लेखामें अंकित किया गया यह निष्कर्ष भी निकलता है कि पाँच दर्जेसे पहले चार है। और उससे सहारनपुरकी जैन-जमतामें एक प्रकारकी दो (प्रतिमाओं) बाले श्रावक कन्दमूलानिकको कामषवा मालूमों अप्रासुक (सचित) स्वमें भी खा सकते हैं:चल पी।प्रतः यहाँपर इस विषयमें कुछ स्पष्टीकरण मूल-फल-शाक-शाम्बा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि । कर देना उचित जान पड़ता है, जिससे गलतफहमी दूर हो नाऽऽमानि योऽत्ति सोऽयं मचित्तविरतो क्यामूर्तिः॥ सकेकुमारी शारदाने जिस लोकको सुनाने की बात कही भालूकी गणना कन्दोंमें होमेसे, उपरके प्राचार्यपवरहैबह गोम्मटमारादि प्रन्योंकी टीकामों में पाई जानेवाली वाक्यपरसे पह साफ जाना जाता है कि जैनधर्ममें मालूके निम्न प्राचीन गाथा है: भषयाऽमचय-विषयमें एकान्त नहीं किन्तु अनेकान्त - सुकं पक्कं तत्तं अंबिल-लवणेण मिस्सियं दब्वं । प्रथम चार बजोंके श्रावकों के लिये वह नियमित रूपसे जं जंतेण च्छिणं तं सव्वं फासुयं भणियं ॥ त्याज्य न होने के कारण कधी पक्षी आदि सभी अवस्था में इस चायाको सुनाकर बहभाशय बसखाया गया था भयरन्द्रिय संयमको लेकर स्वेच्छासे त्यागे जानेकी किलो सुखाया हुमा, अमिमें पकाया दुपा, सपाया दुचा, बात दूसरी है, उस रष्टिसे अच्छेसे अच्छे पदार्थका साना Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ६ बोका जा सकता है। शेष अपरके सात बजों काले भावकों उससे कहीं अधिक बढ़ी है। उसमें सुखाए, तपाए, के लिये वह सी दशामें अभय है किन्तु अभिपक प्रयवा सटाई-नमक मिलाए और यंत्रादिकसे विश मित्र किये हुए अन्य प्रकारसे प्रासुक होनेकी अवस्थामें अभय नहीं है। सचित्त वनस्पति-पदार्थ भी शामिल होते है, जैसा कि अपर इसके सिवाय, 'भूखाचार' नामक अतिप्राचीन मान्य दी हुई 'सुकं पर्क तत्त' इत्यादि प्राचीन गाथासे प्रकट है। ग्रन्थ और उसकी प्राचारवृत्ति टीका, मुनियोके लिये इस तरह जबस-स्थावर दोनों प्रकारकी हिंसाके पूर्व भषयामध्यकी व्यवस्था बतलाते हुए जो दो गाथाएँ दी हैं त्यागी महानती मुनि भी अभिपक अथवा अन्य-प्रकारसे के टीकासहित इस प्रकार है: प्रासुकबाखू चादि कन्द-मूल खा सकते तब पशुवती फल-कंद-मूल-बीर्य भामापर्क तु आमयं किंचि।। गृहस्थ श्रावक',जो स्थावरकायकी (जिसमें सब वनस्पति गचा असणीयं णवि य पडिच्छिति ते धीरा ।।-५ गर्मित) हिंसाकेतो त्यागी ही नहीं होते और त्रसकाय टीका-सानि कंदमूलानि बीजानि चामिपकानिन __ जीवोंकी हिंसा भी प्रायः संकल्पी ही चोदते हैं, कम्द-मूखाभवन्ति बानि मन्यवपि बामपरिकचिदनशनीयं ज्ञात्वा व दिकके सर्वथा त्यागी कैसे हो सकते हैं। इसे विचारशील प्रतीति नाभ्युपगच्छन्तिपीराइति ।यवशनीयं तवाह- पाठकोंको स्वयं समझ लेना चाहिये और इसखिये भोगोपजंहवदि अणब्बीयं णिट्टिम फासुयं कयं चेव। भोगःपरिमाण-तके कथनमें जहाँ मापकला-बहुविधातकी णाऊण एसरणीयं तं भिक्खं मुणि परिच्छति ॥ टिसे सामान्य शब्दों में ऐसे कन्द-मूलक त्यागका परामर्श टीका-पनवस्यबी निज निवर्तिमं निर्गत-मध्य- दिया गया है जो अनन्तकाय वही भी अनभिपक कई सारं प्रासुकृतं चैवशावाानीयं सजेषयं मुनयः तथा अप्रामुक कन्द-मुलक त्यागकाही परामर्श-शनिप्रतीच्छन्ति । (३-६.) पक तथा अन्यप्रकारसे प्रासुक एवं प्रचित हुए कन्द-मूलों इन दोनो गायाचोंमसे पहली गाथामें मुनिके लिये के त्यागका नहीं, ऐसा सममाना चाहिये। भागमकी दृष्टि 'चमचमण्या'और दूसरा भिषय क्या है इसका कुछ और नय-विवचाको साथमें न लेकर यों ही शब्दार्थ कर विधान किया। पहली गाथामें विस्खा है कि-जो फसा, डालना भूल तथा गलतीसे खाली नहींहै। अनिमें पके कन्द, मूखताबीज अधिसे पके हुए नहीं है और और अथवा अन्य प्रकारसे प्रासुक हुए कन्द मूब अनन्तकाय मी जो कुचकाचे पदार्थ हैं उन सबकोअनशनीव (अम- (अनन्तजीवोंके भावास)तोबा, सचित्त-एक जीवसे क्य) समककर धीरमुनि भोजन खिये प्रहब नहीं शुक्क-मी नहीं रहते। फिर उनके सेवन-सम्बन्धमें हिंसा, करते हैं। दूसरी गायामें यह बतलाया है कि-ओबीज पाप, दोष तथा अभय-भषण जैसी कल्पनाएँ कर डालना रहित है, जिनका मध्यासार (जबभाग) निकल गया है कहाँ तक न्याय-संगत"इसे विवेकीजन स्वयं समक अथवा जो प्रामुक किये गये। ऐसे सब सानेक पदार्थों सकते हैं। (वनस्पतियों ) को मय सममाकर मुनि लोग भिसामें जैनसमाजमें कन्द-मूलादिका व्याग बड़ा ही विलक्षण ग्रहण करते है। रूप धारण किये हुए है। हल्दी, सोंठ तथा दवाई मादिक मूखाचारके इस संपूर्ण यन परसे यह बिल्कुल स्पर रूपमें सूखे कन्द-मूल तो प्रायः सभी गृहस्थ जाते हैं। हैऔर अनशनीय कन्द-मूलाका 'अनग्निपर्क' विशेष इस परन्तु अधिकांश भावक अभिपय तथा अन्य प्रकारसे बायको साफ बता रहा कि जैन मुनिकच्छन्द-मूख प्रासुक होते हुए भी गीले-हरे कन्दमूव नहीं खाते। ऐसे नहीं खाते, परन्तु अधिमें पकाकर शाक-माजीमादिके रूप खोगीका त्याग शाख-विहित मुनियोंके त्याचसे भी बड़ा में प्रस्तुत किए कन्द-मूब जम खा सकते हैं। दूसरी चढ़ा है!! बहुतसे श्रावक सिद्धान्त तथा नीति पर टीक गाचा प्रामुक (वित्त) किये हुए पदायाँको भी भोजनमें दसवीं प्रतिमा (दजें) तकके श्रावक गृहस्थ भावक' कहमारकर बनेका उनके लिये विधान किया गया है। लाते हैं। म्यारहवी प्रतिमाधारी श्रावकोंके लिये 'यहनो अपि अमिपक भी प्रासुक होते है, परन्तु प्रासुककी सीमा मुनिवनमित्वा' इत्यादि बास्यों द्वारा घर छोड़नेके विधान है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] गलती और गलतफहमी ३६१ रष्टिन रखते हुए स्वेच्छापे त्याग-प्रहाका मार्ग अंगीकार की निम्नगायाधीसे भी प्रकट है, जिनमें पहली गाथा करते है-अर्थात कितने ही लोग मूली तो खाते हैं परन्तु गोम्मटसारमें भी. १८५ पर पाई जाती है:उसका सजातीय पदार्य शलजम नहीं बाते, अद्रक और मूलगापोरबोजा कंदा तह खंघबीज-बीजरूहा। शकरकन्द तो खाते हैं परन्तु भालू गाजर नहीं खाते अथवा समुच्छिमा य भणिया पत्तया णंतकाया य॥२१२।। भालूको तो 'शामराज' कह कर खाते हैं परन्तु दूसरे कितने कंदा मूला छल्ली खंधं पत्तं पवाल-पुष्फ-फलं । ही कन्दमूल नहीं खाते! और अधिकांश श्रावक कन्द-मूल गुच्छा गुम्मा वल्ली तणारिण तह पव्व काया य ॥२१४|| को अनन्तकाय समझकर ही उनका त्याग करते हैं परन्तु ऐसी हालतमें कन्द-मूलों और दूसरी वनस्पतियों में अनन्तकायका ठीक विवेक नहीं रखते-प्रायः रूढि रिवाज अनन्तकायकीरटिसे मामतौरपर कोई विशेष भेद नहीं रहता।" अथवा रूदियों बना हुमा समाजका वातावरण ही उनका साथ ही, कन्द-भूलके त्यागियोंको चेतावनी देते हुए पथप्रदर्शन करता है। यह सब देख कर माजसे कोई लिखाया लिखा था: 'मतः जो लोग अनन्तकायकी रष्टिसेकोकन्द-मूबोंका २३ वर्ष पहले,२ भक्तबर १९२० को अपने ही सम्पादकत्व में प्रकाशित होनेवाले 'जैनहितैषी'के संयुक्ता नं.१.." त्याग करते हैं उन्हें इस विषयमें बहुत कुछ सावधान होने में, मैंने 'सासीय-पर्च' नामसे एक लेखमाला प्रारम्भ की की जरूरत है। उनका संपूर्ण त्याग विवेकको लिये हुए थी, जिसमें इस विषयपर दो लेख लिखे थे--(१)क्या होना चाहिये। अविवेक-पूर्वक जो त्याग किया जाता है वह मुनि कन्द-मूल खा सकते हैं, (२) क्या सभी कन्ध-मूल कायकाटके सिवाय किसी विशेष फलका दाता नहीं होगा। अनन्तकाय होते हैं। पहले लेखका अधिकांश विषय इस उन्हें कन्द-मूलोंके नाम पर ही भखकर सबको एकदम लेखमें भागया है। दूसरे लेखमें गोम्मटसार और मुजाचार अनन्तकाय न समझ लेना चाहिये; बक्किासपातकी जांच जैसे प्रामाणिक ग्रंथोंके माधार पर यह सिख किया गया करनी चाहिये कि कौन कौन कन्द-मूल अनन्तका और था कि-- कौन कौन अनन्तकाय नहीं है, किस कन्द-भूबका कौनसा समी "कन्द-मूल जगन्तकाय नहीं होते. न सर्वानस्पसे अषयव (अंग) अमन्तकाय और कौनसा अनन्तकाच ही अनम्तकाय होते हैं और न अपनी सारी अवस्थानों में नहीं है। साथ ही, यह भी देखना चाहिये कि किस किस मनन्तकाय रहते हैं। परिकवे प्रत्येक(एक जीवामित) अवस्थामें वे अनन्तकाय होते है और किस किस अवस्थामें और अनन्तकाय (साधारण) दोनों प्रकार होते है, किसी अनन्तकाय नहीं रहते। अनेक वनस्पतियों मिट मित्र देशों की बाब ही जनम्तकाय होती भीवरका भाग नहीं और की अपेक्षा जुवा जुका रंग. रूप, आकार, प्रकार और गुणकिसीका मीवरी भाग अनन्तकाय होतातोपाबत- स्वभावको बिचे हुए होती हैं बहुतों में वैज्ञानिक रीतिसे काय नहीं होती, कोई बाहर भीतर सर्वातसपसे अनन्याय अनेकप्रकार परिषन कर दिये जाते है।नाम-साम्यादिकी होता है और कोईससे बिज विपरीत कई अनन्त- वजहसे उन सबको एक ही बाठीसे नहीं होका जासकता। काय नहीं होता। इसी तरह एक अवस्थामें जो प्रत्येक मुले कंदेछली पवाल-साल-दल-कुसुम-फल-बीजे। वह दूसरी अवस्थामें चमन्तकाय हो जाता है, और जो समभंगे सदिणंना असमे सदिहोति पत्तेया ।। १८७॥ अनन्तकाय होता है वह प्रत्यक बन जाता है। प्रायः यही कंदस्व व मुलस्सव साला-खंघस्स बावि बहुलतरी। दशा दूसरी प्रकारकी बनस्पतियोंकी भी। ये भी प्रत्येक छल्नी सा तजिया पत्तेजिया तुतणुकदरी ।।२८॥ और अनन्तकाय दोनों प्रकारकी होती है-मागममें उनके बीजे जोशीभूदे जीवो चंकमदि सो व अपणो वा। खिये भी नवोनों मेबोका विधान किया गया जैसाकि जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥१८॥ उपरके (मोम्मटसार)ी बायोसे ध्वनित और मूलाचार जैसे टमाटर और बैंगनको एक नहीं कहा जा सकता। + यहाँ गोम्मटसारके जिन वाक्योंकी ओर संकेत किया गया है गांभी' नामके कारण गांठगोभी और बन्दगोभीको फूलवे इस प्रकार है गोभीके समकक्ष नहीं रखा जा सकता। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अनेकान्त [वर्ष ६ संभव है कि एक देशमें जो बनस्पति अनन्तकाय हो दूसरे पद-विभाजनके अनुसार कन्द-मल खाने में कोई दोष भी देशमें वह अनन्तकाय न हो, अथवा उसका एक भेद नहीं समझाते, परन्तु उनमें बहुतसे ऐसे भी हैं जो घर पर अनन्तकाय हो और दूसरा अनन्तकाय न हो। इन सब तो खुशीसे कन्द-मल खाते हैं लेकिन बाहर जाने पर कन्दबातोंकी विद्वानोंको अच्छी जाँच-पड़ताल (कान-बीन, करनी मलके स्यागका प्रदर्शन करके अपनी कुछ शान बनाना चाहते चाहिये और जांचके द्वारा जैनागमका स्पष्ट व्यवहार लोगों है, यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं। दूसरे शब्दों में इसे यों कहना को बतलाना चाहिये।" चाहिये कि वे रूढि-मक्तोंके सामने सीधा खा होने में इसके सिवाय, मागमकी कसौटीके अनुसार उक्तलेखमें असमर्थ होते हैं। और यह एक प्रकारका मानसिक दौबल्य दो एक कन्द-मूलोंकी सरसरी जाँच भी दी थी और विद्वानों है। जो विद्वानोंको शोभा नहीं देता। उनके इस मानसिक को विशेष जाँचके लिये प्रेरित भी किया था। दौर्बल्वके कारण ही समाज में कितनी ही ऐसी रूढियों इस प्रकार की शास्त्रीय चर्चाओंसे प्रभावित होकर ग्या पनप रही हैं जिनके लिये शास्त्रका जरा भी प्राधार प्राप्त रहवीं प्रतिमा-धारक उत्कृष्ठ श्रावक ऐखक पन्नालालजीने नहीं है और जो.कितने ही सबूमाँका स्थान रोके हुए हैं !! अपने पिछले जीवन में प्रतिपक्व प्रातुक भालूका खाना विद्वानोंको शास्त्रीय-विषयों में तो जरा भी उपेक्षासे काम शुरू कर दिया था, जिसकी पत्रों में कुछ चर्चा भी चली थी। नहीं लेना चाहिये। निर्भीक होकर शास्त्रकी बातोंको जनता जान पड़ता है ऐलकजीको जब यह मालूम हुमा होगा के सामने रखना उनका खास कर्तव्य है। किसी भी कि यह कन्द-मूल-विषयक स्यागभाव जिस श्रद्धाको लेकर लौकिक स्वार्थके वश होकर इस कर्तब्यसे डिगना नहीं पल रहा है वह जैन भागमके अनुकूल नहीं है और भागम चाहिये और न सत्य पर पर्दा ही डालना चाहिये। जनता में यह भी लिखा है कि किसीके गलत बतलाने समझाने की हाँ हाँ मिलाना अथवा मुँहदेखी बात कहना उनका और गलत समझ लेनेके कारण यदि किसी शाखीय विषय काम नहीं है। उन्हें तो भोली एवं रूढि ग्रसित प्रज्ञ-जनता में अन्यथा श्रद्धा चल रही हो जसका शाससे मसी प्रकार का पथ-प्रदर्शक होना चाहिये । यही उनके ज्ञानका स्पष्टीकरण हो जाने पर भी यदि कोई उसे नहीं छोड़ता है तो वह उसी वक्त मिथ्यारष्टि है*. तभी उन्होंने अपने सदुपयोग है। जो लोग रूढि-मक्तिके वश होकर रूढियोंको धर्मक पूर्वके स्वागभावमें सुधार करके उसे भागमके अनुकूल किया होगा। प्रासन पर विठलाए हुप है, रूदियों के मुकाबले में शासकी उक्त शाखीय-चके लिखे जानेसे कई वर्ष पहले, बात सुनना नहीं चाहते. शाबाशाको ठुकराने अथवा उसकी अवहेलना करते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है और उनकी निवासी जब मेरी दलीलोंसे कायल हो गये और उन्हें ऐसी स्थिति निःसन्देह बहुत ही दयनीय है। उनको समवन्द-मूल-विषयमें अपनी पूर्व श्रद्धाको स्थिर रखना मागम माना चाहिये कि भागममें सम्यग्ज्ञानके बिना चारित्रको के प्रतिकूल ऊँचा तो उन्होंने देवबन्दमें मेरी रसोईमें ही मिष्याचारित्र और संसार-परिभ्रमणका कारण बतलाया है। प्रासुक भालूका भोजन करके कन्द-मूलके त्याग-विषयमें अत: उनका प्राचार मात्र बाँका अनुधावन न होकर अपने नियमका सुधार किया था। विवेककी कसौटी पर कसा हुभा होना चाहिये, और इसके जैनममाजमें सैंकों बड़े बड़े विद्वान् पंडित ऐसे हैं जो लिये उन्हें अपने हृदयको सदा ही शास्त्रीय चर्चामोंके अनेक प्रकारसे कन्द-मल खाते हैं--शासायी व्यवस्था और लिये खुला रखना चाहिये और जो बात युक्ति तथा मागम से ठीक उसके मानने और उसके अनुसार अपने मम्मा इट्टी जीवो उबटुं पवयणं तु सद्द हदि । आचार-विचारको परिवर्तित करने में मानाकानी न करनी मरादि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ मत्तदो तं सम्मं दरिसिज जदा गा सद्दादि । चाहिये तभी वे उचतिक मार्गपर ठीक तौर पर अग्रसर हो सो त्रैव हवह मिछाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।। २८॥ सकग भारतमाधम-साधनाका यथाय फल प्रासकर सका -गोम्मटसार-जीवकाण्ड वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०८-२-१९४४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शित्तन्नवाशल (दक्षिण भारतका लगभग ५वीं शताब्दीका प्राचीन गुफा मन्दिर) [ले० गुलाबचन्द्र अभयचंद्र जैन, भिल्लसा ] मदालसे लगभग २५० मीन तथा त्रिचनापलीसे लग- ममममें रहते थे। इनके पास प्राझी भाषामें कुछ मुनियों के मग ३३ मील दूर दक्षिणमें एक पुदुकोटा नामक रियासत नाम तथा दूसरी शताब्दी (B.C.)के कालका खेल। इसकी राजधानी पुदुकोटासे १० मील उत्तर पश्चिममें कुछ अन्यके पास पुरानी तामिल भाषामें ८ वीं या वीं शित्तन्त्रबाशल नामका एक गांव है। एक पहाडीके नीचे यह शताब्दीका लेख है। गुफासे कुछ दूर पानीका एक छोटासा गांव बसा हुमा।यह पहादी पूर्वीपाटका एक टुकड़ा है। गहरा कुण्ड है। कहते हैं कि इसका पानी कभी नहीं यह पहावी उत्तर दक्षिण फैली हुई है। इसके तीन स्वा- सूखता है। इसी गुफाके उपर स्टेटका सर्वोच स्थान भाविक विभाग इसमें मध्य पहाडीके पूर्वीभागमें एक (Hianest spot)है। प्राकृतिक गुफा-जिसका तामिल नाम इलेविपहम् है-है। अब हम गुफा-मन्दिरकी सरक चोंगे। यह उत्तरी उत्तरी पहाडीके पश्चिमी तरफ पहाड काट कर बनाया हुआ पहादीके पश्चिमी तरफ जमीनसे लगभग ...फुट ऊंचाई एक जैनगुफा-मन्दिरहै। इस समय तो यहाँ एक भी जैन पर है। यह पल्लव-चशीम माहाराज महेन्द्रवर्मन प्रथम नहीं है लेकिन यह मन्दिर बतलाता है कि गत शताब्दियों द्वारा वीं शताब्दीमें बनवाया गया था। महाराजा महेन्द्र में यह जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र था - वर्मन प्रथम पहिले कुछ समय तक जैन रहे किंतु बादमें प्राप! पहिले हम मध्य पहाडीके पूर्वी तरफ स्थित शैव मतानुयायी हो गये थे-ऐसा प्राप्त शिलालेखोंसे ज्ञात प्राकृतिक गुफाका निरोपण करें। गुफा तक पहुंचनेका होता है। यहाँ पास-पास उन्हींके बनवाये हुए शैवमन्दिर रास्ता बहुत खतरनाक है। जरा भी पैर चूका कि लगभग भी मिलते हैं। २०. फुट नीचे माप पहुँच जाएँगे। अाजकल स्टेटकी : इस मन्दिरकी रचना दक्षिण भारतमें महाराजा महेन्द्रतरफसे लोहेके रेलिंग लगवा दिए गए हैं, जिनके सहारे बर्मन-द्वारा निर्मित अन्य गुफा-मन्दिगैकेही समान है। पाप प्रासानीसे चढ़ सकते हैं। पश्रिमकी तरफसे हालसे इस समय मन्दिर में एक गर्भगृह, एक अर्भ-मरप है। चढ़ कर हम पूर्वकी तरफ, गुफामें पहुंचते हैं। रास्ते में कई पहिले इसके मागे एक मुखमण्डप भी था-ऐसा गुफाके जगह पत्थर काट कर पैर रखने के लिए स्णम बने हुए हैं। पास ही एक चट्टान पर खुवे हुए 'पांख्य शिक्षाखसे ज्ञात मालम होता कि पहिले गुफा निवासी मुनि इन्हींके सहारे होता. होता है। गर्भगृह लगभग १० फुट चौडा,.. innn ... गुफामें भाते जाते होंगे। फुट लम्बा तथा ७॥ फुट ऊँचा है। इसकी पिछली दीवाना 'हम गुफामें 1. पत्थरके विस्तर (Beds)इनमें पर पहाड काट कर बनाई हुई तीन मूर्तियां हैं। मूर्तियो किन्हीं किन्ही, तकिया भी लगा हुभा। इनसे कुछ पशासन तथा जगभग ३ फुट ऊंची है। ये जमीन नगपाखिशवार तथा बहुत चिकने हैं। इनमें जैनमुनिमंतिम भग फुट ऊँचाई पर है। मध्य तथा उत्तरकी तरफको * समीपस्थ ग्रामका नाम शित्तनवाशल (मिद्धएएल- मूतिके सिर पर पत्र है जो किहम मूर्तियोंको तीर्थकर वायिल-याने "सिद्ध तथा महान् पुरुषोका निवाम-स्थान" की मूर्ति प्रदर्शित करते हैं। दरिया तरफकी भर्तिके ऊपर अथवा "महान सिद्धोका निवासस्थान") भी इसी कथन एक ही पत्र। मालूम होताहै-यह किसी भाचार्य की पुष्टि करता है। अथवा चक्रवर्तिकी मूर्ति है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ अनेकान्त [वर्ष ६ नतीन मूर्तियों के ऊपर तमें विभिख रंगोंकी सहा- ममी भी अच्छी हालतमें है। यह चित्रकक्षा दीवानापर यतासे एक वरीका चित्रण किया गया है। इस वरीमें कई पहिले चनेका एक मोटा लेप कर उसके ऊपर की गई है। चोकोर व गोजखाने हैं। चोकोर खानों कमबकी तरके इमी रहकी चित्रकला प्रजन्न बासीकोनके प्राचीन फूल बनाए गये हैं। गोक्ष खानों में क्रास बने हुये हैं जिनके मन्दिरों में मिलती। अतएव यह गुफा मी अजन्ताके सिरे गोषx )। अपरकी तरफ कासके एक समकालीन है- निर्विवाद सिद्ध है। चित्रशमें काला, हरा, भागमें एकबीका चित्रण है, तथा नीचेके दोनों भागोंमें नीला, पीला, नारंगी तथा श्वेत रंगोंका उपयोग किया दो शेर बने हुये हैं। बतके बीचोंबीच एक महत्त्र , गया। भगवान पार्थनाथकी मूर्तिक उपर बतपर गोल खान में काट कर बनाया गया। दीवाहोपर कोई चित्रकारी नहीं पत्र सहित खिले हुए पुष्प (कमल) बनाए गये हैं।सामने मालूम होतीहै। अर्धमण्डपसे गर्भगृहमें प्रवेश करनेके । प्राचार्यकी मुर्तिके जर कमल कलिकामोंकी रचना है। सिसोदिया तथा एक दरवाजा । दरवाजा ॥ फुट ऊँचा तया २0 फुट चौबा है। अर्धमण्डपके मध्यमें बतपर एक तालाबकाश्य बनाया गया है। इसमें मछली, मकर, भेसा. हायी, कुछ चकोरकी. अर्धमण्डप २२॥ फुट लम्बा, ७ फुट चौबा तथा तरहके पसी, कमल व लिबीके पुष्प प्राकृतिक सुन्दरतामें 50 फुट ऊँचा है। अर्थमण्डपके सामनेकी तरफ दो वृहत् स्तंभ तथा दोनों सिरोपर दो अर्धस्तंभ है। अर्धमशवपकी बनाए गये हैं। कमलकी कांटेदार नाव बलिली चिकने मुखायम दंठल भाप स्पष्ट देख सकते है। पतका गभग । फुट वा भाग स्तंभोंके बाहिर निकला तालाबके एक तक दो पुरुष दिखबाप गये हैं। इनमें हुमा है। स्तंभोंका मध्य भाग अठकोण तथा नीचे से एक दाहिने हायसे कम तोब रहा है तथा बाएं हाथमें उपरका भाग चौकोनहै। अर्धस्तंभोंकी रचना भी एक फूल रखनेकी टोकरी बकाए हुए है। यह लाल रंग ऐसी ही। स्तंभोंके बीच महराओंकी रचना पहाव से बनाया गया है। इसका साथी नारंगी रंगका है। यह कालीन निर्माणमाका प्रदर्शन करती है। इनके पाचमें एक हाथमें कमल लिये हुए है तथा इसका दूसरा हाथ एक चौबा चिकना माग है तथा दोनों तरफ भाग लहर 'मृगीमुद्रा में है। एक और पुरुष, नारंगी रंग, भवाग बार- गर्भगृहके द्वारके दोनों तरफ दो दो दिखाया गया है। इसकी प्राकृति अत्यंत सुंबर हैसके सुंदर अर्धस्तम्भ है। . बाएँ कन्धेपर कमलोंका एक गुच्चा तथा दाहिने कंधे पर अर्थमवरपके उत्तरी तथा दक्षिणी दीवाजमें एक एक एक लिखी पुष्प है। वृहत भाखा बना हुभा है। बनमें दक्षियोमालेमें लगभग , दोनों स्तंभोके ऊपरी, सामनेकी तरकले (पबिमी). फुट ऊँची, पशासन भगवान पारवनायकी मूर्ति है। सिर चौकोर भागों में दो नर्तकियोंक-चित्र है। दाहिने स्तंभ पर पर पत्रके स्थानमें ५ सिर वाले सर्पका फन है। इसीके चित्रित नर्तकीका वामहस्त वास्ता:या सीख हस्ता मुद्रा सामने उत्तरी दीवास भालेमें भी एक मूर्ति है। यह भी. में तथा दक्षिण हस्त 'अभयमुना' में है। इसके कामों में लगभग उसी प्राकार-प्रकारकीहै। सिर पर एकछत्र है। पत्र कपडल तथा हार्यो में, को, चणादि भाभूपय. शायद यह भी किसी प्राचार्य वा चक्रवर्तीकी मूर्ति हो। किसी उसरी स्तंभकी.नर्सकीकी प्राकृति अधिक सुंदर है। इसका भीमूर्तिके नीचे कोई भीचिन्ह नहीं है। सभी मूर्तियां पूर्ण, वामहस्त गजहस्ता मुद्रामें तथा दधिवास्त अभयमुकामें सुन्दर तथा सौम्य है। उनसे शांति निकल रही है-ऐसा है। इसके शिरोभूषव पटाखों -उपर पुष्प मालूम होता है। गूथे हुए है। दोनों प्राकृतिमा, स्थूल नितंब, पतली अर्धमण्डपकी दीवारें, बल, स्वंम, महराब मादि कमर तथा वखाभूपों मादिसे अप्सराओंकी बात होती सभी स्थान चित्रकला युक्त है। स्तंभों तथा दीवारोंकी हैं। इनका कमरसे उपरकारीरका भाग बस-रहित है। कारीगरी बगभग नष्ट हो चुकी किंतुषकी.. कादीगरी दाहिने स्वंभके उपरी उचरी चौकोर भागमें एक पुरुष Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] भिचमवाल - बसीका हैि । पुरुष प्राकृतिके सिरपर मुट तथा एक बर्धमबडपके दक्षिक स्तंभपर पुरानी तामिव भाषामें कानमें प रम तथा दूसरे कानमें मकर कुंडन है। - शताब्दीका एक । .. शायद पहास गुफाके निर्माता महाराजा महेन्द्रवर्मनका. अब हम खौटते है।पहासीक दक्षिणी हिस्सेके पूर्जी चिक। इनके पीछेका श्री चित्र महारानीका है जो कि बरकके मैदान में भापको एक श्मशान दिखाई देगा। बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है। इनके सामने बोले अन्तर यह भी बगभग २...वर्ष पूर्वका।समें मुर्दै गाई पर एक और चित्रीजनके किसी सेवकका मालूम पड़ता जाते थे। इनके गायनेका दंग (Gyst burrial)। . है। अर्थमयख्य बाहिर बतके निकले हुये मागसे कमल कहलाता है। जमीनमें एक गाहा खोवा इसमें चारों पुष्पों बदो सुंदरबडे बडे हंसक चित्र हैं। तरफ पत्थर लगाकर उसमें मुबेको बैठा दिया जाता था। मन्दिरके बाहर पास ही एक चट्टानपर एक पायसीको प्रदर्शित करनेके लिये जमीन पर गोब प्राकार शिक्षा जिससे ज्ञात होता है कि पहिले इस मन्दिर में पत्थर रख दिये जाते थे। इनमेंसे कुखको महोबाई के सामने एक मुलमण्डप भी था । इसके ममावशेष मी साजिस डिपार्टमेंटने खोलाहै। उनमें कुछ बोडके भासपाल पर माजका स्टेटकी तरफसे उसी का सामान मिले। के अन्यत्र प्रास स्वंमसे एक मुखमएसप बनवा दिया गया केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा [लेखक-न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द कौन्देय) [गत किरण ..से भागे] - यहाँ शंका हो सकती है कि जब प्रमाणताकी छाप के समान भगवान् द्वादशांग-वाणीद्वारा उपदेश देते हैं। लगानेवाले केबलशानी महाराज उन कसित धापेक्षिक नाम, स्थापना, द्रव्यभाव अनुसार हमारे तुम्हारे व्यवहारोमें स्वभाषों या स्याद्वावाकान्त और शब्बयोजित वक्तव्य भागों मारहे ऐसे संकेतस्य सहजयोग्यता वाले शब्दोंको द्दद्द को नहीं जानते हैं तो इनके जानने बाले शानश विद्वान् कर पुन: उस प्रतिपाद्य प्रमेयसे जोड़कर समयसरया में भाषण झूठे हो जायंगे? स्याद्वादसिद्धान्त प्रमाझ हो जायगा? दे देते है। बौद्धों और मीमांसकोंके सिद्धान्तोका निराकरण मयचक्रका चकचलना बन्द पड़ जायगा। इस कटाक्ष करते हुये श्री विद्यानन्दस्वामीने कोकवार्तिकमें शब्दोंकी समाधानपर यह कर देना उचित है कि- वाच्यार्थप्रणालीको अधिक विस्तारसे पुष्ट किया है। बताके पमें धमेऽन्य पवाथों धर्मियोऽनन्तधर्मिणः। शब्द किस ढंगसे श्रोताको अर्थप्रनिपत्ति करा देते है। इस अनित्वेऽन्यनमान्तस्य शेषान्तामा तदङ्गता॥ के लिये उन प्रकरणोंको पदिये । श्रच्छा तो आपके पास शब्द-भंडार बहुत थोड़ा है। अत: बहुभाग निर्विक(भी समन्तभद्रस्वावी) प्रमेयकी वे विशालकाय द्वादशांग-बागी में भी नही - "अनेकाः सप्तभंग्यः" । "अनन्ताः स्वभावमेदाः"। कर पाते हैं। उन्हें इसकी कोई परवाह भी नहीं है। तभी इत्यादि बम्भीर बारमयद्वारा उन क्मों या स्वभावोंको : तो "पएमणिबा भावा अशंतभागो दुमणमिलप्पा । वस्तुपर शाद शिया-गया बताया है। तब तो उनका जान : परावणिकनाशं पुण्य प्रांतभागो सुदहिवरों" (गोमहसार) लेना समान ही यही तो कहना है। वास्तविक द्रव्य, कहना पड़ा। गिद् गिटर गिट् शब्दोंके-संकेत अनुसार गुल्या पर्याय और धर्म स्वभावो, सापेचिक, नेय, विवेभ्य तारबाबूजेसे प्रापको भाषामें शब्द रचना कर देता है या 'इन संपूर्णपदम्योको भव्य जीवों के प्रतिपावना भाषणयाभित्र संक्षिप्त लेखक स्वयं संकेतानुसार याख्यान लिल बेसारे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्य . [वर्ष ६ तत् सातिशय प्रहन्त भगवान् अपनी सर्वाजनिकल रही जैसे कि पृथ्वी विना इच्छाके करोड़ों मन अब पैदा कर दिव्य-भाषाद्वारा उपयोगी थोड़े शब्दोका जामा पहिनाकर जीवोंको मुखित करती। मेघजल सभी वनस्पति, पशुबहुतला प्रमेय कह डालते हैं। पुनः गणवरदेव अधिक पक्षियोको तृप्त करता है। वायु इच्छा बिना सबको प्रागदान शन्दोंकी चासनी चढ़ा कर भी थोडाला ही प्रमेय प्रन्थगुम्फित करती है। मैं पञ्चस्तोत्रोंका प्रतिदिन पाठ करता हूँ कभीर कर पाते हैं तो भी उनके एक एक अक्षरपर अनन्त प्रमेय अन्यमनस्क होजानेपर विना इकाके और मनोयोगको लगाये . लदो हुना है। विशजन! द्वादशांगवामय महास्कबधगया विनाही बीमों लोकोंको योनीबोल जाता है। वे ठीक मी के समान अतीव विशाल है। यो अरहन्तदेव, गणधर, प्रति- बोले गये। संदर्भ ठीक बनता चला गया है। अभिगरधर, प्राचार्यपरिपाटी अनुसार प्राम्नाय प्राप्त हो रहे लावा अन्यत्र लग रही है मन कहींका कहीं दौड़ रहा है। भागमोंको प्रमाणता है। "म' किचिदम्बरं प्राहुराता हि- इच्छा और मनोयोगके बिना केवल पुरुषार्थसे ही खाये हुये भुतदेवयोः" "सुद केवलं च गाणं, दोगिण विसरिताणि होति प्रमके शरीरमें अनेक विश्लेषण हो रहे हैं। रस, साधर बोहादो" भागमों में बहुभाग तो द्रष्य, गुण, पर्यायोंका ही आदि बन रहे है। मन कहीं लग रहा है। इच्छा अन्यत्र वर्णन है। परम्परासे सर्वशोक होनेसे वह सभी प्रमाण है। नासी। इन कार्यों में छा और मनको पूछता भी प्रापेक्षिक धर्माका सम्यग्ज्ञान भी प्रमाण है। भगवान उन कौन है? काली मिर्च प्रखिोंके पास भेज दी जाती है उन धमौका भी उपदेश देते क्या किसी किसी चीलको बादामकी डिलेवरी दिमागको होजाती है। मोती हृदयसे अन्य प्रकारसे दुखा? जाना जाता है और शब्दों द्वारा सख्यभाव करता है। वनपशा, गालमा जाकर जुखामसे दूसरे प्रकार कथन किया जाता है। घटान्त दिये जाते हैं भिड़ जाते है। खूबकला दुखारसे टक्कर लेने लग जाती शरीरचेष्टायें की जाती है। यो जानने-जनानेकी प्रकार-प्रक्रिया है।रात्रिको सोते समय अच्छा पाचन होता है, जब कि न्यारी न्यारी तीर्थकर प्रकृतिका उदय हो जाने पर किया शरीर प्रकृति तुमको निद्रामा क्लोरोफार्म ९षा देती है। गया त्रिजगारण्य श्रीअन्तिदेवका यह कार्य सर्वोत्कृष्ट है, तुम्हारेशान इच्छायें न जाने कहाँ छिपे पड़े हैं। रूखी असंख्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगादेता है, प्राप्तपरीक्षामें प्रकृतिके इन कारककारणोंको विचारे सायककारणोंकी पुछ किया है कि-"अमिमतफलसिद्धरम्युपायः सुबोधः किचित् भी माकांक्षा (परवाद)नहीं है। आगते हुये भी प्रभवति च शालात्तस्य चोत्पत्तिासात् । इति मबति इच्छासे कार्य होनेका नियम भी नहीं है। तीन मनीषा होते पूज्यस्तत्प्रसादाबबुदैर्नहितमुपकारं साधवो विस्मरन्ति" हुये भी कार्य नहीं हो रहे। मारवाड़ी किसान वृष्टिको चाहते भीजिनेन्द्रपूजाकी यह सबसे बढ़िया उपपत्ति है। है। निःसंतान स्त्रियां पुत्रोंको चाहती है। दखि धनका पांचवर्षकी छोटी लड़की अपनी बीस वर्षकी बड़ी बहिनसे तिखाया बैठा है।अनेक युवा भाजीविका खोजते फिरते है, आग्रह करती है कि जीजी बगल में क्या प्रानन्द वह स्वराज्यवादी स्वराज्यवादी स्वतंत्रताको मांग रहे है, इच्छा कुछ थोड़ा सा कहकर टाल देती है। वास्तविक रहस्यका का कार्य होजानेके साथ कोई अन्य व्यतिरेक नहीं है। मैं पता छोटी बहिनको सभी लगता है जबकि उसका विवाह, तो कहता हूँ कि एक लाख कायोंमें REEEE कार्य बिमा गौना होजाता है। यों वस्तुचोंके सक्ष्म अंशोका विशवज्ञान इच्छाके होते है। एक कार्य इच्छासे होता । कारण केवलशानी हो जाने पर ही पात होगा। प्रवेशिकाका छात्र तो मेघवर्षण, समुद्रघोष, बाबुसंबार, मङगेल्पादन, पुष्ष. शाखीय कक्षाके विषयको अपरसे कुछ टटोल लेता है बस। फलोदय प्रादिको बिना इच्छाके उपनावेही। चेतनश्रीहन्त भगवानके प्रतिपाच शानमी कम नहीं। कारणोंमें भी इच्छाकी कदर नहीं। मूलमें भांग पीली या पोपकारी केवलशानी बिना रच्छाके पुरुषार्थद्वारा यहाँ वहाँ स्वादमें बनेकी रोटीखाली, फिर काही कि नया नहोय, के शब्दोंसे मदकर भापको अमृतोपम उपदेश दे रहे। पैदमें दर्द नहीं होग, तोपा करें। मया या पीड़ा भामाश्य स्वादकेवलशाने सर्व तत्वप्रकाशने । रोगी। बोना, दांत टना, प्रालीकम बोलना, मेवा सावायचासनी. सफेद बाल होना कौन पाता। फिर भी परोसे हो ilililiitit Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण १०-११ केवलज्ञानकी विषय-पर्वाता.. - - हे है। "विमेनि मृत्योर्न ततोस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वाञ्छति लग जा । तब कही उसे तत्वज्ञान हुमा। नास्य लाभ:' (समन्तमद्र)-जीव मृत्युको नहीं चाहना प्रकरणमें यह कहना है कि समीचीन कल्पना या प्रत्युत मौनसे डरता है किन्तु मरण होजाता है। मोक्षको स्थापनासे असली तत्वपर पहुँच सकते हो राजमार्ग यही है। चाहता है पर नहीं होती। मनोरथ किसी भी प्रायः पूरे सातवें गुणस्थान तक मूर्तिपूजाका फटाटोप पकड़े रहो सब नहीं होते हैं। चाहनेसे होगये कार्यों में भी इच्छा उतनी तक यही मोक्षमार्ग है। किन्तु पाठ गुणस्थानमें द्रव्यकारण नहीं है जितनी कि बापने मान रक्खी। बिना पूजा या भावपूजाका यह ठगना, आद्रव्य, पाय, संदली, इच्छाके तद्वत् भव्योंके माग्यवश योगशक्ति द्वारा स्वाभाविक पूजा पोथी, कोलाहल, निममनोमविभाजनमारवा, इत्यादि उपकारी भगवान् अनन्त प्रमेयोपर शब्दोंका खोल चढ़ाकर ठाठ उसी प्रकार छोड़ देना होगा जैसे कि चक्रवती या हजारों वर्ष तक उपदेश देते रहते है उसी उपदेशको आप राजा जब केवली पयवा प्राचार्य महागनका दर्शन करने गतानुगतिक रूपसे पकड़े चले चलो। चाहे भूतचौबीसीके जाते है तो घोड़ा, हाथी, छत्र, चामर, पालको विमान में निर्वाणजी होय और भले ही वर्तमान चौबीसीके. आदीश्वर सब परिच्छद बाहर हो जाते हैं। तभी वे ठीक बर्शन महाराज होंय । सबको पूर्व मिथ्यादृष्टिन-वस्थासे सम्यग्दर्शन या कल्याणमार्ग पास कर पाते हैं। प्राप्त करनेके लिये देशना-लब्धि प्रास करना पड़ी थी। और विचारशीलो विद्यार्थियो! फेवलीके ज्ञानको लौकिक वह इन्हीं पूर्ववती भगवानकी कल्पित शब्दोंद्वारा वाच्य- शानोंसे मत मिलायो। हम पुनः पुनः यह कहते है कि वाचकभावको लिये हुये थी। प्रथम अवस्था में ही वस्तुका भगवान्का ज्ञान प्रापकी अनेक कपोलकल्पित सयानोंके साक्षात् शान किसीको भी नहीं हो सकता है। तुमही कोई शेयको नहीं जानता। न उस शानमें वैसा आकार या परम ज्योनिमेंसे निकले हो? उल्लेख है। यो सममिये केवलशानीके पास अनन्त सुखी जितने भी मनुष्य पैदा हुये थे, हो रहे हैं,होंगे।चाहे सर्वसख नहीं अनन्त शक्ति है सर्वशक्ति नहीं है। अनन्त वे वेसठ शलाकाके पुरुष ही क्यों न हो? सबकी उत्पत्ति दर्शनी सर्वदर्शन नहीं, तद्वत् ज्ञान भी अनन्त ज्ञान है मुत्रमार्गसेही औदारिक परमौदारिक शरीरका भी प्रापशानके साथ सर्व शब्द क्यों लगाते व्यर्थकी प्राय उपादानकारण निकट निद्य अधःस्थानसे प्राप्त हुमा ल्लतोंको पसन्द न करो। कोरी लम्बाई, चौड़ाईपर लह है। "मातपितारजवीरजसे यह उपजी मल-फुलवारी" मत होजानो।" पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमनकोत्सवविधौ” (माषाकवि) । प्राहारक शरीर जैसे उत्तमाज माने गये इसको श्रृंगार रसपर नहीं लगाकर शान्त रसमें मिढ़ादी। शिरोभागसे उत्पन्न होता है वैसा कोई मोक्षगामी जी भी "न पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमा केबलविदि" यदि क्वचित् मुखप्रदेश या मस्तकसे नहीं उपजा। सबको जननीके गर्मा- __ "सर्वशेनागमेशिना" "सर्वशोनादिमध्यान्त: लिल दिया। शयका प्राश्रय लेना पड़ा । बन्धुनो! इस उत्पत्तिप्रक्रियामें चोदन सर वाक्योंके संकड़ों वर्ष पहिले श्री अमास्वामी बुरा माननेकी कोई बात नहीं है। अफसोस करना व्यर्थ महाराजने "सर्वदम्य॑पर्यायषु केवलस्य" यो सर्व शम्दको ऐसा ही सदासे पुरिलापंक्तिसे होता चला पाया। द्रव्यों और पर्यायोंमें विशेषशाकान्त कर दिया है। चन्द्र प्रद्युम्नचरित्रमें लिखा है कि एक ममुख मरकर अपनी प्रमचरित्रमें तो "अनन्तविज्ञानमनन्तवीयंता, मनन्तबीय- . अपनी पुत्रवधूके ही पुत्र ोगया । जातिस्मरण द्वारा शांत कर वमनन्तपर्यन" ऐसा कहा गया है। प्रयन्नके छयालीस वो नक वह इसी अनुतापमें गूंगा बना निठल्लाबेठा रहा अतिशयोंमें कंठोक अनन्तशान गिनाया।। "अनन्तकि मैं स्वयं अपना नाती बन गया अपनी पुत्रबहका दूध चतुष्य"।. .. पिया बादि । एक दिन भी गुरुने उसे समझाया कि अरे इसका स्पीकस्वयोकि वैष्णवोंके भगवानमें खाने, मतिमन्द । संसारकी वही नकली कल्पित प्रक्रिया है। यह पीने, नाचने, गाने, भोग भोगने, बी, लय, नातियों के जीव स्वयं अपना पुत्र हो सकता है। बन्धु, मित्र, पिता, सुख और माधि धारण करनेपर शिवजी या विष्णु पुत्र, समानुषंगिक कल्पनाएँ। उठ और धात्महितोंमें भगवान लीनिद्रव मुख मी किये। विष्णु भगवान् Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अनेकान्त [वर्ष ६ समुद्र में शेषशय्यापर बम्नी लक्ष्मी चीके साथ भोग भोगते मखित होकर पवित्र उपदेशों द्वारा इस भारतबसुन्धराको है, कोमल गोपर पौंदते है । रसनाद्वारा रसीले व्यंजन, पवित्र कर रहे थे। स्वयं भीऋषभदेव अपने चकतनी पुत्र लाभांग श्रादिका भोग पाते हैं। चढ़ाये हुये फूल, फलों भरत और सूर्यवंशके प्रवर्तक पौत्र अर्ककीर्तिक बाहुबली या अनेक प्रगतोंके सुन्दर श्योंको प्राण इन्द्रिय और चक्षु और जयकुमारसे युद्ध में हुये घोर अपमानको टाल नहीं इन्द्रिय द्वारा उपभागमें लाते है। बगीचों में माना, बजाना, अके। श्रीमुनिसुव्रतनाथके समयमें रावण लक्ष्मणका प्रकाण्ड मार्चना भादिका मानन्द लूटते हैं। हरि-विष्णुके श्राइब हुधा जिसमें कि कतिपय अक्षौहिणियोंका विनाश बस माभूषण बहुत बढ़िया है और गायकी सवारीमें चलते हुआ। श्री नेमिनाथके तीर्थ में श्रीकृष्णका कंस और जगहै। शिवजीके स्कन्द और गणेश दो लड़के भी हैं। सिन्धसे रण हुश्रा लाखो. योबाओंका क्षय हुश्रा, द्वारिका महादेवजी बहुभाग कापनी ससुराल हिमालयपर रहते हैं। दाह हुआ, जिसमें करोड़ों यदुवंशी जलगये, खास भगवान् पार्वती उनकी प्रर्वाशिमी है। ये भगधाम् जिसपर कोष के चाचा, भाई, भतीजे, चाची, भाभी सब भस्मसात् होगये, करते उनको और उनके लड़के बचोंको मार देते है समुद्रका पानी पेट्रोल हो गया, भवितव्यको टालनेके प्रयत्न उनके सहायक सैंकड़ोंका चक्र, त्रिलोंसे कतल कर देते हैं सब फेल होगये। कौरव पाण्डवोंका भारी संग्राम हुश्रा। बन हर लेते है।कभी किसीको वरदान देते हैं। चाहे तथा अन्य भी तीर्थरोके तीर्थकाल में अनेक अनर्थ हुये वे जिमको निहाल कर देते है। कभी कभी विष्णु भगवान् रोके जा सकते थे, स्वयं तीर्थडरोंको अनेक कष्ट भोगने पड़े और शिवजीमें परस्पर मीठा भगड़ा भी होजाता है। कोई साधम आदि असख्य इन्द्र और असख्यातासख्यात दव देवोंका पक्ष लेता है और चूमरा दैत्योंकी तरफदारी करता है। जिनकी सेवामें तैयार रहते हैं उनके लिये कोई कार्य दुष्कर किन्तु भाप माने तो अपने वीतराब भापानमें मात्र नहीं है। अन्तमें यही कहना पडता है कि दोनहारको कोई मात्मोत्थ स्वाभाविक सुख मामा ऐन्द्रिक-मुख नहीं।' रोक नहीं सकता है। जबकि समवसरणमें पांचों इन्द्रियोंके भोग-उपभोगों जं जस्स जझि वेसे जेथ बिहाणेण जम्बि कालदि। की सामग्री भरपूर विद्यमान है। फल फूल सुन्दर-दश्य शादं जिणेण णियदं जम्म वा श्रहव मरयां वा ।। नाचना, माना-बाना वैसा अन्यत्र सम्भव भी नहीं है। तं तस्स तमिकाले तेण विहाणेण नम्हि कालदि। . प्रत्युत श्राप जैनोंने ऐन्द्रियिक सुख और भात्यीय सुखका को सका चालयितुं इंदो वा बह जिशिदो वा ॥ विरोधकह दिया है जबकि करोडों मनुष्य ऐन्द्रियिक और यदि जैनोंमें सृष्टिकर्तापन होता तो दयाशु जिनेश्वर अतीन्द्रिय सुखका विरोध मान रहे हैं पन्द्रियजन्य सुख तो किसी न किसी भालपर प्रसन्न होकर चाहे जिसे दूर ही हा आप वो इन्द्रियजन्य ज्ञान भी नहीं मानते हैं बड़ा बना देते। जबकि जैनोंमें चान्सलर, सेशन जज, और केवलीके परानपेक्ष अनन्त सुखपस्सी.संतोष मान कर . हाईकोर्ट जज, महामहोपाध्याय, हिनहाइनेस, चीफ कमिभर, बैठ जाते हैं। यो सर्वसुखको न मान कर अनन्तमुखको ही अरबपतिसेठ, वद्विधारी मुनि, उच्चवैद्य, डाक्टर, मन्त्रवित् - अनन्त चतुष्टयमें अपनाया। अनन्त-शक्तिका विचार यह राजा, महाराजा, अद्यमोक्षगामी, द्वादशजवेत्ता, वायुमान है कि नैयायिक या पौराणिकोंने ईश्वरको ही सर्वशक्तिमान् निर्माता, उद्भटविद्वान, प्रसिद्ध मल्ल, नामाडित अभिनेता, स्वीकार किया है। वा "कर्तुमकर्तुमन्यषाकर्व समय: । विद्याधर, ऊँचा कलाकार, डी.आई. जी., आई.जी., वृक्षोंसे मनुष्य उत्पन्न किये जा सकते है । माइली या देबीसे महान् वक्ता, लेखक, स्थपलि. अभिरूप, अर्थशास्त्रश, मणिभी मानष-शरीर उपजता है महाप्रलयमें सर्व नष्ट कर दिये .तश, उतैराका मादि नहीं है। कर्मसिद्धान्त प्रबल आते हैं पुन:श्वर नई सृष्टि रचताब्यादि सर्वशक्ति- माना गया है। “कामादिप्रभवचित्तः कर्मबन्धानुरूपतः" मान्को संभवसे असंभव और असंभव संभव करनेका (भीसमन्तभद्रः)। 'यह कर्मलिखी सोही होय मिटेगी कैसी ? पूरा अधिकार मास है। जैनों में ऐसा नहीं जबकि कठिन (पचांश)। तपस्या कर स्वयं भगवान् अनन्तवीर्य और केबलमनसे ईश्वरको सर्वशक्तिमान् मानने वालोंके यहाँ कमौकी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] केवलीशानकी विषम-मर्यादा ३६५ शक्ति फेल की जा सकती है। जैमी महेश्वरको इच्छा रोय सैंकड़ों वर्ष प्रथम ही महान दार्शनिक नकार उमास्वामी बैसा कार्य तत्काल हो जावेगा। कोई रोकने वाला नहीं है। महायजने "सर्वद्वन्यपर्यायधु केबलस्य" सूत्र कहकर सर्व किन्तु जेनोंके यहाँ यह बात नहीं है वे अपने भगवान् शब्दका अन्वय द्रव्य और पर्यायों के साथ जोड़ दिया है। में अनन्तशक्ति तो मानते हैं वैष्णवों या खुदावादियोंकी ज्ञानावरयाका क्षय यहा ज्ञानका अर्थ सर्वव्यपर्यायज्ञान सी सर्वशक्त महीं स्वीकार करते हैं जिससे कि अभव्यको है। जगत्में वस्तुभून ठोस शेय तो-द्रव्य और पर्याय दी है। भी मोक्षमें पहुंचा देते या सौ वर्षकी उम्र वालेको भगवान नकली मालको असली में क्यो मिलाते हो! चाहें तो ५०० वर्ष जीवित रख देते । "को सक्कर चाल- . सर्वसहा..सर्वधरीया. सर्वसासार्च, सर्वरस, मर्वतोमुख, यिदुईदो बा ग्रह शिथिवी वा" | विचारशील भ्राताओ- सर्वगन, सर्वभुक्, सर्वार्थमिद्धि, विश्वकेतु, विश्वम्भरा, सिद्धान्त यह है कि ऐसी गगद्ववपूर्ण सर्वशक्तियों या सर्व विरसद यहां सर्व शब्द या विश्वके अभीक्ष्ण बहुभाग, सुखोंसे तो जेनोंके श्राकुलता रहित वीतराग भगवान्की अनंत अल्प, अनेक, बाहुल्य, ये अर्थ है भशेष, अखिल संपूर्ण सुख अनन्त शक्तियाँ ही चोखी है। केवली महाराजके युक्ति,. नहों जैसे भषा, बसन, दास, दासी, सवारी,बी, बर्थ, श्रागम, अनुभवोंसे, इस परिमित अनन्त चतुष्टयकी व्यवस्था राम Tarataजादोष या प्रतिमा । प्रतिष्ठित हो रही... प्रत्युत गुण नत् संकल्पविकल्पमा ज्ञान नहीं सम्भव प्रसंभव सभी कार्योकी सर्वशक्तियाँ तथा लौकिक उपजावना.सापेक्षिक प्रतिभास नहीं होना. तायें, ध्यान, अलौकिक सभी सुख भरहन्तके नहीं है। कोई कवि भले अनजायें. स अनुप्रेक्षायें, स्मृतिसमन्वाहार, नहीं होना विशवज्ञानके ही भगवानको प्रभु यानी सर्वशक्तिमान् या सर्वसुखी, लिख लये महत्वाचायक भतशानियोंकि भारापित विषयों के देवे "निरंकुशाः कवयः" । यहाँ यदि कोई विद्वान् यो को पीछे वे क्यों पड़े कि-"शो शेये कथमश: स्यावमति प्रतिवन्धने" आनना दिगम्बस्वका मूळ. चोरी, हिसा, व्यसनों, परिच्छदोंसे स्वभावको पारने वाला जीव प्रतिवन्धकोंकेट जाने पर रहितपना बड़ा भारी पोषक गुण। पुनः पुनः कहना पुनः शेय विषयों में प्रश कैसे रह सकता है? बतायो। व्यर्थ । विचारात्मक कोई भी ज्ञान हो वह भुनशान ही इसका उत्तर इतना ही पर्याप्त है कि कर्तुमकर्तुमन्य- समझो जायेगा केवलशान तो अतीव स्वच्छतीनो कालों याकर्तु कयमशक्यः स्यादसति प्रतिबन्धने।" के पदार्थोका युमपत् प्रत्यक्ष कर रहा है। स्वामी की देदेमा वीर्यान्तरायका सर्वथा क्षय होजानेपर अनन्तवीर्यशाली तो नौकर घर जा सकेगा इत्यादि विचार तो अपूर्णकानों में भगवान असंमत्र कार्यको क्यों नहीं कर डालते हैं। कहिये पाये जाते है। तब तो सूर्याषेमान मी नीचे उतर पायेंगे। अभव्य भी मोक्ष आज शुक्रवार है ३० दिसम्बर सन् १९४३० पूम चले जायेंगे । "सौख्यकारणमामग्री.सिौ कथमसुखी मवेद- सुदी चौथ विक्रम सम्बत् दो हजार के मुसलमानी महीना सति प्रतिवन्धने।" मुहर्रमकी तारीख है। जापान, अफीका प्रादि देशोंकी समवसरनामें लौकिक सुखोकी सामग्री मिलनेर भी फलानी फलानी मिती है इत्यादि भंझटोको भगवान् कुछ अनन्त सुखद्वारा इन्द्रिय सुख क्यों नहीं ले पाते हैं ? तुम्ही नहीं जानते हैं। ये सब तुम्हारी गदन्य है। वे तो निश्य. बताओ। यदि शब्दोंको पकड़ोगे तब तो मतिज्ञानाबरण, कालको अनन्तपर्यायाकाम जानते हैं। और द्रव्य परिवर्तनअनशानावरा, भोगान्नराय. कमाका क्षय होनासे मिद्ध रूप व्यवहार कालको अथवा मात्र राशियोंपर सूर्य-संक्रमण परमेडीमें मतिज्ञान, भुतहान, भोग, उपभोग होते यनेका का अनिर्वचनीय देख रहे हैं। इससे अधिक पुरूलाओंको प्रसङ्ग भाजावेगा। .. नहीं। यो कल्पित विचारात्मक अनेक निकम्मी फोकट बातें : विजन-कहीं "सर्वशोनादिमध्यान्त:" " मना- शान नहीं झलकती है। गोवत्सको गैया मैन्याका गपेशिना" "सर्वशाय नमो नित्यं निरापरणचचुषे" ऐमा धारोष्ण शुद्ध निलेप दुग्ध ही अच्छा लगता है। दूधपर . जिस दिया परमो काना है कि प्राचार्योके झगडे लादकर बना दिये गये रबड़ी, पेड़ा. बडी तक, चाट, .. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EGO अनेकान्त [ ६ मक्खन, बड़े आदि स्वादिष्ट नहीं लगते हैं। अधिक व्याख्यान भयभाषाकी रचना कर देते हैं। यामी तुम्हारे लिये प्रमेयो की जरूरत नहीं है। मनीषियोंके लिये संकेतमात्र पर्याप्त है। पर प्रयोजनसाधक, उपयोगी शब्दों को लपेट लपेटकर . "यद्विद्या दर्पणापते" "दर्पणतल इव सकला प्रति द्वादशाङ्ग बनाते हैं गणधर रच देते है। केवली स्वयं फलति पदार्थमालिका यम" यो केवलशानके लिये दर्पण वाकार्यशान नहीं कर पाते हैं। अन्यथा केवलशानीके का शन्त बड़ा अच्छा है जैसे दर्पण किसी पंडित, मूर्ख. श्रुतज्ञान बन बैठेगा। जो कि प्राय श्रागमभद्धालुओंको माक्षण, क्षत्रिय, शत्रु, मित्र, शुद्ध, अशुद्धका विचार किये बुरा लगेगा। बिना ही पदार्थका निर्विकल्प (तिभास कर देता है तद्वत् यह दृष्टान्त स्यात् श्रापको यहां अच्छा नहीं जंचेगा केवलशान भी चिन्तना-राहत परमायौँको विशद जानता कि अभव्यमुनियोंके उपदेशसे हजारों जीव आत्मोपलब्धि रहता है। कर मोक्ष पा गये परन्तु वे श्रात्मशानशून्य दी बने रहे संसार अच्छा थोड़ा और भी सुनिये किसी किसी छात्रके लिये में रुलते फिरे। अच्छा एक ऐसा भी व्यधिकरण दृष्टान्न कई बार कहना पड़ता है। चार भनुष्योंके पास चार चार सही-"काका: सन्तश्च तनयं स्वं परं न विजानते।" कौश्रा करके १६ रूपये हैं केवली महाराज विकल्प किये बिना और सज्जन अपने और परके लड़कों को समान गिनते हैं। सब रुपयोंको जान जायेंगे। हां कोई चा पूछेगा तो लल्लू पक्षपात नहीं करते हैं । परभृत् यानी कोयल के अंडेको को समझाने के लिये चारका पहाड़ा पड़ कर चार एक चार, काकी (कौाकी स्त्री) सेवती है पालती है। ऐमा कवि चार दूनी माठ, चार तीन वारह, चार चौक सोलह अथवा सम्प्रदाय है यहाँ कौश्राको सजनका साथी बना दिया गया चारको चारसे तीन बार जोड़ कर वचन बोल देंगे । यह है। पुनः प्रकृतपर लौट आये। शब्दकी रचना सब भुतशान है, केवलशान नहीं। "ज्यों गोम्मटसारंका अध्ययन करने वाले जानते हैं कि शिशु नाचत आपन रावत" अनुसार केवल शानमें जोड़, विचार करना मनका कार्य है। भगवान् पाँचो हन्द्रिय और बाकी, गुणा, भाग, पैराशिक, पंचराशिक, लघुत्तम, मह- छठे मनके द्वारा होने वाले शानोसे रहित है। "इन्द्रियसम, दशमलव, वर्ग, वगंभूल, पन, घनमूल, व्याज नहीं णाणेणीणम्मि" भगवान्के भावमन माना भी नहीं है। है।क्योंकि ये सब विकल्प है। विचार है श्रुतज्ञानके जनक केवल "अंगोवंगुदयादो दन्बमण जिणिदचंदम्हि । मण-. है। भगवानके पास अणुमात्र भूत नहीं है। हाँ शिष्योंकों वग्गणखंचायं पागमादोदुमणजोगो।" यो मनोवर्गणाके समझानेके लिये अविनाभावी उपायोंसे उपदेश दे देते हैं। श्रागमनका लक्ष्यकर उपचारसे मनोयोग कह दिया है। चमचा, खीर, दाल, शाक, सर्वत्र, डोलता परन्तु भगवानको द्रव्यमनका काम नहीं पड़ता है। यों तो केवल-: उन व्यंजनोंके रससे जलकमलपत्रवत् अलग रहता है। ज्ञानी भगवान् के सर्शन, रसना, प्राण, आँखें, कान ये "नामस्थापनाद्रव्यमावतस्तन्न्यास:" "नयरधिगमः नैगम बाहरी इन्द्रियां भी बहुत बढ़िया है। चक्रवर्तीकी प्रास्त्रे यदि संग्रहव्यवहार ऋजुसूत्रशम्दसमभिरूढेवंभूता. नया, ४७२६३ बड़े योजनकी दूस्थित वस्तुको देखती हैं तो निर्देशस्वामित्व-प्रादि सब प्रनिहामंडप प्रोताओंके लिये है, परमौंदारक शरीरकी चक्षुर्य सैतालीस लाख बोजन दूरकेवलज्ञानी स्थापना भादिका रत्तीभर भी उपयोग नहीं करते बी पदार्यको देख सकती थीं किन्तु वहाँ द्रव्यमन, द्रव्येहै। विक्टोरिया चित्र या मूर्तिको ईग्लेण्डकी सम्राशी समझ न्द्रियाँ, सब अकार्यकारी हैं। लेना ये स्थापनानिक्षेप बालोंके विचार है निविचार प्रत्यक्ष संक्षिप्त मार्गणा बारहवें गुणस्थान तक। "सिक्खा में ऐसे प्रतिभात नहीं होते हैं। उनको ये झाल चाहिये भी फिरियुबदेसालाचग्गाही मणोवलंवेण, जो जीवो सो सराणी" नहीं। कमेटी, सभा, परिषद, विद्यालय, मन्दिर, पालामैन्ट- . मीमाद जो पुब्वं कमजमकजं च तथमिदरं च सिक्खदि कौन्सिल, यूनीवर्सिटी ये सब अशोके विचारस्थल हैं. णामेणेदि य समणो श्रमणो य विवरीदो साथी सरियप्प अविकल्पकशानियोंको इनमें हो रही चिन्तनायें श्रास्मसात् हुदी खीयकसायो सिहोदि शियमेण" . नहीं करनी पड़ती है। मात्र तत्वजिशासुमोके लिये वे अनु- यो वेशीपन यानी मीमांसा करना, विचार करना ये सब चर्चाएँ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा . . २७१ . बारहवं तक है । तेरहवें गुणस्थानमें संशोपन, असशीपन, चाचा, वालिद बोलते है, माताको बहू, भाभी, चाची, दोनोंका व्यपदेश नहीं है । सत्य, अनुभय दो मनोयोगोंको श्रध्वा कहते हैं, उन कलिन्त नानो या पदवियोंको कौन उपयोगों को उपयोगसे बिलकुल मत मिलाश्रो । कहाँ संभाले? तुम ही सोचो। यहां सहारनपुर में सब अपनी माँको श्राकार्षणशक्ति और कहाँ चेनना ? किधर जारहे हो। तब मामी करते हैं क्या भगवान् भी माताको भाभी समझले, सोयह स्पष्ट निर्णय हो जाता है कि (3) उसे यों करना चाहिये क्या बातें करते हो? था कि प्राशा देनेके पहिले प्राशा मानना सीख लेना । (२)जो देखो पदार्य अनन्त है। उनपर कल्पक नाना व्यक्तियों काम तुमको आज करना उसे कलपर मत छोड़ो (३) अच्छी की ओरसे रद्दी, पोले, भारोपे गये, कल्पिन धर्म अनन्तानन्त वृष्टि होगी तो बढ़िया सुभिक्ष होगा । (४) यदि वह स्वयं है। और परस्र चालिनीन्यायसे होगये अनन्तानन्त विक ल्पोंका पेट तो बहुत बड़ा है। नैगम नय भी कहाँ तक 'प्रागरे जाता तो देवदत्त को अवश्य लिवा लाता। (५) अमुक गाड़ी १२ बजकर ५ मिनटपर छूट जाती तो ॥ संकल्प करती फिरेगी। पूरे गांव या नगरकी ब्योनार कराने वाले सेठ तो हैं। क्या कोई राजा महाराजा अपने इन बजे दिल्ली पहुँच जाती । यो मद्रास टाईम, बम्बई टाईम, ग्रामस्थ पशु. पक्षी, कीट, पतंग सबका जीवनबार करने लिनलिथगो टाइम लगाते बैठना । (६) अमुक रोगीको बाला देला क्या? एक वार केवल मनुष्योंको जमा देने फलानी औषधि मिल जायगी तब तो वह बच जायगा से "सबका भोजन करा देने वाला" यह पदवी मिल जाती है। अन्यथा मर भी सकता है। ये पोच मीमाँमायें श्रुतज्ञानियों अस्तु इस अनन्तपनका भी इतना भीषण भय'नहीं क्यों के विकल्प है। श्री सूत्रकार महोदयने "श्रुतमनिन्द्रियस्य कि केवलशानके उत्कट अनन्तानन्त संख्या वाले अविभाग विकल्पः श्रुतं" "आशापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् प्रतिच्छेदोंके सामने यह प्रानन्त्य विचारा बहुत छोटा है वीचारोऽर्थजनयोगसंक्रान्तिः" "विपरीतं मनाशस्य"। नगप्यो।हाँ मात्र केवलशानाके विचारक या विकासको इन सूत्रों द्वारा सभी धारयायें श्रुतशानियोंके सिर मढ़ दी हैं। जानेकां प्रसनहीं आना चाहिये। श्री उमास्वामी महाराज जो कह रहे हैं, उसीको मैं दूसरी बात यह है कि प्रवेशिका छात्रगण एकबार बखान रहा हूँ। एक अक्षर भी कोई नई बात नहीं है। यवनोंने हिन्दुओंसे लड़ते समय सामने गायें खड़ी करली थीं धर्म्यध्यान - शुक्लध्यानोंके लम्बे स्मृतिसमन्वाहार या प्राप इस जघन्य प्रक्रियासे क्या ठोस वस्तुभूत केवलशानके पृथक्त्ववितर्कविचार ये सब वितकणायें भले ही कर्मक्षय सम्पूर्ण अविभाग प्रतिच्छेदों का फलोपयोग लेना चाहते का कारण है किन्तु श्रुतज्ञानियोंके ही पास है केवली इनसे है, यह तो कभी न होगा। सर्वथा अकूते हैं। विरक्त है। सर्वश भगवान् भी विचारे शास्त्रिजन ! वे तो "अविभागस्त पमाणं जहाही बो भूत, वर्तमान, भविष्य, कालमें वस्तुभून पदार्थ हैं उन्हीं पएसाणं" (गोम्टसार कर्मकरह) अनुसार बना लिए गये को तो जानेंगे इनमेंसे एक परमाणु या तदंशमात्र भी नहीं कल्पित अविभागी अंश है। उनका बहुभाग ठलुमा पड़ा कुटना चाहिये। किन्तु यदि किसीने मनुष्य घिोड़े के सींग है। कामतत्वं त्वमवैत्रिलोकीस्वामीति संख्यानियते मान राखे हैं या स्त्र के पंख लगें समझ रखें हैं। एक रमीषा बोधाधिपत्यं प्रतिना भविष्यं स्तेन्येऽपिचेद् व्याप्यस्यदम्लड़की अपनी गुड़ियाको पाँच सौ रुपयेसे मी अधिक मूल्प- नपीद" (विषारहार) तीन लोक तीन कालसे कोई अधिक वान जान रही है, तो कृपानिधान इस गपाड़वानीसे तो तय होते तो केवलशान उनको भी जानता किन्तु कोई भगवानको बचाये रक्खो,गल्ली, आधीगल्नी, सवालको करने हैही नहीं। यो केवलशानका अधिक भागबेकार है और वाले छात्रके मिथ्याविचारोपर यूनिवर्सिटीके परीक्षकको, पर थोथा, सापेक्ष, संकल्पिक शेय भी केवलज्ञानसे अमल तदनुसार हो जानेके लिये वाध्य न करो। सच्चा निरीक्षक हो रहा है। क्वचित् घन व्यर्थ पड़ा अन्यत्र धनामिलावुक परमार्थ स्थिविपर पहुँचता है। कल्पक कवियो अथवा ग्रीव दरिद्र अस्थामें रो रहे है। कहीं बनमें औषधियाँ कहानी लेखको, उपन्यासकारोंकी गल्पोंपर नहीं। गल सड़कर नष्ट हो रही है। पर उन दवाइयोंके बिना अनेक देशीय पुत्र अपने पिताको दादा, दर, भाई, अनेक रोगी अकाल मृत्युसे मर रहे है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष - सभी युवक युवनियोके सतन उपयोगार्थ “नष्टदग्धा- मनुष्य न पैदा होय ऐसा असंख्यात वर्षाका अन्तर पड़ परय न्याय कौन लगाता फिर कोई कम्ण है अन्य सकता है। इसी प्रकार ज्ञान और शेयको खाली रहने दो, देशान्तरमें है। इतर पोषितभर्तृका है। श्राखिर माइयो ? सभी शेयोंको चाहे जिम शानके द्वारा ज्ञात हो जानेके लिये ब्रह्मचर्यव्रत और पाप-कमोदय मी तो कोई चीन है। सांपकी वाथ्य न करो, इमी प्रकार अनन्नशानको भी ठलुना मत पाँचौ इन्द्रिया, विष, दान्त, मुख, सब एक इंचमें बनी बैठो, रही फोकसको भी जानते रहो" यो प्रेरित न करो शेष चार पाँच फुट अायत शरीरका क्या उपयोग करोगे? . "कै हंसा मोती चुगै के मुँखे मर जाय” “गिरीन्द्र सहश प्रत्युपयोगी भी वस्तुका बीस हजारवा भाग तुमको फलप्रद ठलुप्रा गजेन्द्रपर कूड़ा कचड़ा नहीं लादो । वस्तु शेष यों ही बह रहा है नष्ट हो रहा है। समीचीन दृष्टि वैचित्र्यपर व्यर्थ क्यों टांग अड़ाते हो" अनहोनीको पखारिय। कर लोगे क्या ? "स्थाद्वादप्रविभक्कार्थविशेषव्यञ्जको नयः" बयत्में योग पाले जीव अनन्तानन्त है और योग (समन्तभद्रः)"वस्त्वंशमाही शातुभिप्रायो नयः (प्रभाचन्द्रः) जानि अपेक्षा केवल श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण यो नयोंके द्वारा नेय हो रहे विषयोंको भी सर्वज्ञ नहीं जानते कुल प्रख्याते हैं। फिर भी असंख्याते योग खाली पड़े है है। क्यों कि ये तो भा :मन वाले या इच्छावाले संशी जीवों बअन्तर बाले.योगोंका कोई भी जीव स्वामी नहीं है। के सद्विचार है। श्रीसिद्ध भगवान्के न भावमन है इच्छायें कर्मभूमिकी किसी भी स्त्री अंगों में एक भी लब्ध्वयपर्यातक भी नहीं है। (क्रमशः) जयपुरमें एक महीना -[ पं० परमानन्द जैन शाली ] ...भामर और जयपुरके चारों विषय में यह प्रसिद्धि समपुर रामपूतानेका एक प्रसिब शहर है। इसकी .. किसासमंडार प्राचीन है, इनमें संसात माइतके प्राचीन बसासव अच्छे इंगसे.की गई। शहरमें सफाईकी प्रगमचा संग्रह और कितने ही ऐसे अपूर्व जैनब और अधिक ध्यान दिया जाता है, जो, स्वास्थ्यके लिये मी जिनका नाम बोगोंगे मालूम नही और जिन्हें मावश्यक यह मगर जैनियोंका प्रधान केन्द्र रहा है, प्रकाशमान बाकी बचीजस्तकिबीरसेबामन्दिर पर्तमानमें भी संभवतः पाँच मारकरीब नियोंकी दिगम्बर बाँकीएकमुकम्मद सूची और प्रशस्तियाका एक प्राचावी होगीकबाकी शिसे भी जबपुरका कम महत्व उत्तम संग्रह प्रकाशित करना चाहता है. जिसका बहुत कुछ नहीं संवा जैमसमाज यहां किसमेही प्रतिक्षित संसान होक, मखिये मुस्वार साहब मुझे साथ धर्मात्मा और गर मान व्यक्ति होगये हैं। कितने ही जैन सेकनपुर जाना चाहते थे और इन दोनों स्थानों 'दीवान' जैसे उस परपर मालीन रह चुके, जिनमें विशाबाको देखना हो। कारण मुन्सार अमरचंदजीका मामलासतारले उल्लेखनीय है। प्रापब सा.इस समय बापुरमा समेतबहान झुकेही ही विमपी वर्मनिट और देशसेवक थे। भापक विषयमें मेशचा उचित समझा। वहुसाह .0ोतको बहसुना जाता कि मापने अपपुरकी रक्षार्थ अपने जीवन सरसोबासे पाहवी होता हुचा .15 की माम उत्सर्ग किया है। अतः यहां कई मंदिर और शाम की जयपुर और दि. जैन महाविद्यालयमें . भंडार देखने योग्य विद्वानोका.यहाँ हार बमबह रहा मित्रवर.मुख्यालय एक महीने का स्वर्गीय पं.होडणवानीकी का विमोचन निर्माण Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण १०-११ जयपुरमें एक महीना ३७३ इसी स्थान पर हुमा । पं. जयचंदजी बावका और पता नहीं चला। दासुखदासजी मादि विद्वानों ने भी इसे अपने निवास यह भोयरा गर्मीके दिनों में ही खुल सकता है, वर्षा से अलंकृत किया है। जैनियोंका इस स्टेटसे निकट सम्पर्क ऋतुमें उसमें अत्यधिक सील और ठंडके दिनों में अत्यन्त रहा है और अब भी कितने ही जैन उक्त राज्यके कार्योंको सर्दीकी संभावना है, ऐसा वृद्धजनोंसे सुनने में पाया है। अपनी योग्यताके साथ सम्पन्च कर रहे हैं। यहां फल्टण भाशा है महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी के मंत्री, कमेटीके मेन्यनिवासी बाबा दुखीचन्दजीका शानभंडार और उसकी रान् और पं.चैनसुखदासजी इसे खुलवा कर देखेंगे कि उस व्यवस्था दर्शनीय है। बाबाचीने अपने सारे जीवनमें इसका। में क्या क्या चीज है। प्राचीन मूर्तियोंके सिवाय क्या कुछ संग्रह किया। प्राचीन ग्रंथ भी हैं। और वे वहां किस हालतमें है? ___जयपुरसे - मील की दूरी पर भामेर नगर बसा हुमा इस मन्दिरके जिस कमरे में ग्रंथोंके गट्ठप रखे हुए थे है जो जयपुरकी प्राचीन राजधानी था। यह नगर पहाडोंके वह एक छोटी सी कोठडी है। उसके किवाद अन्दरसे त्रिकोणमें नीचे बसा है। मामेरकी बस्ती भबबहुत कुछ दीमकने खालिये हैं परन्तु वे बाहरसे अपना कार्य बराबर खंडहरों में परिणत हो गई है-बी बी इमारतें धरा कर रहे थे। अब नये किवादोंकी जोदी लगानेकी व्यवस्था शायी पड़ी है-खंडहर नगरकी प्राचीनताके संयोतक तथा हो गई है। फर्शसे चार पांच फुटकी ऊँचाई पर दीवाबसे उत्थान और पतनके स्पष्ट प्रतीक हैं। यहांका किला कलाकी लगी हुई पत्थरकी पट्टियों पर गढब रक्खे हुए थे और दृष्टिसे बड़े महत्वका है। नगरके चारों ओर ऊपर नीचे कुछ गढगैके बंधे हुये प्रन्थ । सफेद टीनके सन्चूकॉमें ग? देखनेसे यह सहज ही मालूम हो जाता है कि प्राचीन समय खोल कर रख दिये गए थे। ग्रंथ टाटके एक गोलके में दूसरोंके भाक्रमबसे शहर एवं राज्यकी रक्षाके लिये अन्दर पसे हुए थे और उसके ऊपर करा तथा हक कोठे कितना सच्द प्रयत्न किया जाता था। यहाँ का अन मादर छोटे रखकर सनकी पतली डोरियोग कसे हुए थे। और एक नशियाजी है। उन सबमें प्राचीन मंदिर नेमिनाथ सिस फिर इसके ऊपर एक एक लम्बी चीनी चादर लिपटी हो स्वामीका जो 'सांवला जीके मंदिरके नामसे प्रसिद्ध है। थी और फिर उसे सूतकी मोटी रस्सियोंसे कसा हुमा था । इस मंदिरकी भीतरी शिखरका माग और एक वेदी परका इस तरह सील भादिकी हिफाजतसे उन्हें सुरक्षित रखा सोनेका कार्य दोनों ही दर्शनीय है। यहाँ जैनियोंका केवल गया था। शीतलप्रसादजीने जो सूची बनाई थी उसके एक घर ही अवशिष्ट रहा है, बाकी सब जयपुर या अन्य अनुसार गहनोंकी संख्या १३ होना चाहिये थी परन्तु देशोंमें चले गए हैं। इसी मंदिरमें भट्टारक महेन्द्रकीर्तिका नं.की गठबीका कोई पता नहीं चला, और न उनकी वह प्राचीन शानभंडार है जिसके अवलोकनकी उत्कट सूबीके अनुसार वे ग्रंथ ही पाए गए जो उस गठडी में थे। इच्छाको लेकर मैं वहाँ गया था। यह मंदिर मकानकी एक संभव है ये अन्य कहीं चले गए या किसीको दिये गए मंजिल जितनी ऊँचाई पर बना है। कहा जाता है कि इसके जिससे पुन: वापिस नहीं मंगाप, कुछ भी हुवा हो। ये नीचे एक विशाल भोयरा (तहखाना) जो बहुत भर्सेसे सभी प्रम: तीन बारमें भामेरसे जयपुर लाए गये और पेठ बंद पड़ा है। उसके द्वार पर कुछ ऊँचाई पर तीन लंबे वधीचंदजीके मकानमें रक्खे गए, जहाँ अतिशय तीर्थक्षेत्र पत्थर लगे हुए है, जिससे सहसा उसके नीचे भोयरेका महावीर कमेटीका दफ्तर है। इस भंडारकी मुकम्मल सूची परिज्ञान नहीं हो पाता। कहा जाता है कि इसमें प्राचीन भी अब तरचार हो गई है, जिसमें वे सब खाने रक्खे गए मूर्तियां और शाम रक्खे हुए हैं। पं. जवाहरलालजी जो वीरसेवामंदिरकी ग्रन्थ-सूची में नियत है। शाखीसे यह मालूम करके बना पाचर्य हुभा कि इसमें तीन इस भंडारमें उतने महत्वके प्राचीन ग्रंथ तो देखने जीर्ण वेष्टनोंमें स्वामी समन्तभद्रका प्रसिद्ध महाभाष्य भी नहीं पाये, जिनकी पाशा की जाती थी। हो, प्रन्योंकी मौजूद है, जिसका एक बहीकी लिष्टमें उत्स है। परन्तु प्रतियों अच्छी संख्या हैं । इसके सिवाय अपभ्रश और मुमे भंडारके तमाम ग्रंथ देखने पर भी उस बहीका कोई संस्कृत भाषाका पुराण साहित्य यहां काफी । भण्डारके Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ अनेकान्त [वर्ष ६ + + + जिन ग्रंथों परसे प्रशस्तियोंका नोट किया गया। उनके नाम पाठकोंकी जानकारी के लिये नीचे नीचे दिये जाते हैं, पनपुराण (कवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु) २ पारर्वपुराण (कवि पनकीर्ति) रच० वि० सं० ११ ३ जंबूस्वामिचरित्र ( कवि देवदत्तसुत कविवीर) रच. वि० सं० १०७६ " सुलोचनाचरित्र (गणिदेवरून) १ प्रद्युम्नचरित्र (कवि सिद्ध या सिंह) ६ जिनदत्तचरित्र (पं० लाखू) रच. वि. सं. १२७५ .. पाशवपुराण (भ० यशः कीर्ति) रच. वि.सं. १४१७ - हरिवंशपुराण (भ० यश:कीर्ति) रच० वि० सं० ११०. बाहुपक्षिचरित्र (कवि धनपाल) रच० वि०सं० १४५४ १. पचपुराण (कवि रह) "धन्नकुमारचरित्र, १२ श्रीपालचरित्र , ५ हरिवंशपुराण (कवि श्रुतकीर्ति) रच० वि०सं० १५५२ १५ परमेष्ठीप्रकाशसार (कवि श्रुकीर्ति),, , ११५३ १५ मशिनाथ काव्य (जय मित्रहल) + १६ श्रीपालचरित्र (4. नरयसेन) + १७ मदनपराजय (कवि हरदेव) + १८ हरिषेण चरित्र + "नागकुमार चरित्र (माणिक्यराज) रच०वि०सं० १५७४ २. मृगांकलेखाचरित्र(पं.भगवतीदास)रच.वि सं० १७०० २. भविष्यवत्तकथा (कविश्रीधर) २२ भास्मसंबोधकाव्य २५ बारस अणुवेक्खा (कवि जल्हिग) २४ बारसमणुवेक्खा (कवि ईसर) २५ बारस अणुवेक्खा (कवि सचमीचन्द) २६ जोगीचर्या २० सप्ततत्वगीत २८ मुक्तावजिरासा (म. जीबंधर) " अवध-अनुप्रेक्षा (कवि अवधु) २. चाराधनासार ज्ञानपिंकी पाचवीx ३. सुदर्शनचरित्र (नयनंदि) र. वि. सं. ".. ३३ रनकरराड (पंडित श्रीचंद) रच. वि.सं. ११२३ २१ षट्कर्मोपदेश (भ.अमरकीति)रच. वि.सं. १२. इनके अतिरिक्त जयपुरके पाटोदी चादि शाखभंडारोंसे अपभ्रंश भाषाके मेमिनायचरित्र (कवि सचमण) और चंदप्रभचरित्र (म. यश:कीर्ति)के ग्रंथों सिवाय भ. सकलकीर्तिक मादि पुराणादि "ग्रंथ, सुभीमचक्रवर्ति चरित्र (भ. रतनचन्द्र रच० वि० सं० १६८३), प्र. नेमिदत्तके भाराधनाकथाकोषको घोष कर श्रीपासचरित्र भादि चार ग्रंथ, भ. शुभचंद्रके चंदनाचरित्रादि तीन ग्रंथ । पंच. नमस्कार मंत्र (भ. सिंहनन्दी, रच० वि० सं० १६६७), होली रेणुका चरित्र (40जिनदास,रच.वि.सं.१९०८), श्वेताम्बरपराजय (पं. जगमाघर च. वि.सं. १७०३), जयकुमारपुराया (. कामराज रच. वि.सं. १५००), मुनिसुबह पुराण ( कृष्णदास रच. वि. सं. १६८१), पवार्थदीपिका (कलशा टीका) भ. देवेन्द्रकीर्ति रच०वि० सं. १७८८, श्रावकाचार पचनन्दि । यशोधरचरित्र भ.) श्रुतसागर, सपणासार गद्य (माधवचन्द विद्यदेव) सिद्धांतसार (पं. नरेन्द्रसेन), भूपाल चतुर्विशतिकाटीका यशोधरचरित्र (पनाम कायस्थ, तथा पं. वासवसेन), नेमिनाथ रासा (पdि रूपचन्द), ओपनक्रिया (कवि महागुलाल), मनरहा (ब. दीपचन्द), प्रधुम्नप्रबंध (भ. देवेन्द्रकीर्ति), समकितरास, यशोधरास, श्रेणिकरास और हरिवंश पुराण (.जिनवासके चार ग्रंथ) और जंबूस्वामि चरित्र (पांडे जिनदास); इन सब अपश, संस्कृत, गुजराती और हिंदी भाषाके ग्रंथोंकी प्रशस्तियां भी नोट की गई है। पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इन सब प्रन्य प्रशस्तियों और इनके अतिरिक्तवीरसेवामन्दिरमें प्रशस्तियों का जो बचा संग्रह है उस सबको मिला कर एक विशाल प्रशस्तिसंग्रह ऐतिहासिक हिन्दी परिचयादिके साथ, बीरसेवामंदिरसे वीरशासन-जयंतीके बाद प्रेसमें दिया जानेको है। इस संग्रहकी एक विशेषता यह भी होगी कि जो प्रशस्तियां अन्यत्र प्रकाशित हुई और अधूरी अथवा त्रुटिपूर्ण हैं उन्हें यहाँ उन त्रुटियोंको यथाशक्ति दूर करते हुए दिया जायगा। उदाहरण के तौर पर कारंजा भंडारमें स्थित पत्रकीर्तिके पाचपुराणको ही सेलीजिये । इस ग्रंथकी जो प्रशस्ति सी० पी० एण्ड बरारके फैटेखोगमें प्रकाशित हथी उसमें प्रशस्तिके अंतमें पाई जाने वाली चार गाथाएँ नहीं हैं जिनमें उसका रचनाकाल तक दिया हुमा है, किन्तु भामेरभंगारकी सं० १३की लिखित प्रतिमें + Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०-११] जयपुर में एक महीना ३७५ - २० वे करकवके बाद वे चार गाथाएं निम्न रूपमें पाहे तवा सत्वपरवी सेठी और भाई मानभद्रजी तथा पाटोदीजाती है: मंदिरके शासभंडारके मैनेजर सा. का भी मुझे पूरा पूरा अइ वि विरुद्धं एयं णियाणबंधं जिणेद उवसमए। सहयोग मिला है। इन सबके सौजन्यपूर्ण व्यवहार एवं तहं वि तहय चलणं कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ।। सहयोगके लिये मैं भाभारी। भाशा भविष्य में भी रइयं पासपुगणं भमियापुहमी जिणालया दिट्ठा। इसी तरहका सहयोग वीरसेषामन्दिरको प्रास होता रहेगा। एहिय जीविय मरणेहरिस-विसामोण परमस्स ।। राजपूतानेमें जैनियोंके पुरातत्वकी विपुल सामग्री यत्रमावयकुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कइत्तं च। तत्र बिखरी हुई पड़ी है। जैन समाजका मुख्य कर्तव्य है एयाइ तिरिण जिणवर भविभवि होउ पउमस्स ॥ कि वह इस देशके शास्त्रभंडारों, मूर्तिलेखों, प्राचीन स्थानों गवसय- उ वा पुइए कत्तिय मासे अमावसी दिवसे। और जैन वीरोंकी गौरवगाथाघोंका शीघ्र ही एक अच्छा लिहियं पामपुराणं कईणा इह परमणामेण ॥ संकलन एवं संग्रह तय्यार करके प्रकाशित करे। यह कार्य वीरसेवामंदिरके इस पुनीत कार्यमें मित्रवर .चैनसुख- अत्यंत आवश्यक है, जो जैन इतिवृत्तके लिखने में बहुत दासजी न्यायतीर्थ, सेठ रामचंद्रजी खिंदुका मंत्री महावीर कुछ सहायक होगा। प्राशा समाजके उदार श्रीमान तीर्थक्षेत्र कमेटी, तथा कमेटीके मेम्बरान् बा० सूर्यनारायण अपने पूर्वजोंकी कीर्तिके संरक्षण और भावी संतानके पथजी वकील, बा. फूलचन्दजी सोनी, श्रीर वा० फूलचन्दजी प्रदर्शनका ध्यान रखते हुए इस ओर अवश्य ध्यान देनेकी बाकलीवालके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है। पं. का करेंगे। श्री प्रकाशजी न्यायतीर्थ और पं. भवरखानजी न्यायतीर्थ, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२०मई ४४ वीरशासन-जयन्तीपर मुनि श्रीकृष्णचन्द्रजीकाअभिमत . श्रीजैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूलाके माननीय अधिष्ठाता जैनदर्शनाचार्य मुनि श्रीकृष्णचन्द्रजीने राजगृहमें होनेवाले वीरशासनजयन्ती-महोत्सबके निमंत्रणको पाकर उसमें सम्मिलित होनेकी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए, अपना जो अभिमत २२ जून ११४४ पत्रमें व्यक्त किया है वह अनेकान्त-पाठकों जानने योग्य है। माप लिखते हैं:"परममाननीय पं.जुगल किशोरजी साहेब ! वन्दे वीरम् । भापका मामन्त्रण-पत्र मिला। मेरी बबी ही हार्दिक इच्छा रही है कि मैं ऐसे शुमावसर पर राजगृह पाँच। जैसे कि भनेकाम्तमें देखने में पाया था कि वीरशासन-जयन्तीके बारेमें दिगम्बर-वेताम्बरमतमेव है-वस्तुत: वह जयन्ती बारेमें नहीं हो सकता, तिथियोंके विषयमें ही कहा जा सकताहै। ऐसे मतभेदोंके लिये मेरे उदयमें स्थान भी नहीं है--मैं तो उस भावनाको महत्व देता हूं जिससे प्रेरित होकर मापने इस पवित्र पर्वका समारम्भ किया है। वह भावना अवश्य ही प्रशस्थ है। मैं समझता है जबकि 'साय-साहसावी' उत्सव दीपावलीके अवसर पर मनानेका कमेटीने निर्णय किया है तो यह मतभेद भी नही रहवा । अब तो उस उत्सवका एकमात्र लक्ष्य वीरप्रभुके शासनकी जयन्ती मनाने का रह जाता है। ऐसी स्थितिमें दीपावलीकेशुभावसर पर यह उत्सव और भी अधिक सफल होगा ऐसा मुमे दीलवा ........ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यपरिचय और समालोचन धन्यवादके पात्र है। योग्य है। नाटक) कसायपादुड-(सचूणि-सूत्र, जयधवला टीका कर्म और कषाय, कसायपाहटका संक्षिप्त परिचय, हिन्दी अनुवाद सहित) मूल लेखक आचार्य गुणधर मंगलवाद, ज्ञानस्वरूप, कवलाहारवाद, नयनिक्षेपादि चर्णिकार, प्राचार्य यतिवृषभ और टीकाकार वीर- विचार और नयोंके निरूपण इन ७ उपशीर्षकों द्वारा सेनाचार्य । सम्पादक, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, विषय का संक्षिप्त एवं स्पष्ट विवेचन किया गया है। पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य और पं० कैलाशचन्द्र ग्रंथके अंतमें आठ परिशिष्ट दिये हुये हैं, जिनसे जी सिद्धान्तशास्त्री। प्रकाशक, भा० दि. जैनसंघ ग्रंथ की अधिक उपयोगिता बढ़गई है, सम्पादन, चौरासी मथुरा। पृष्ठ संख्या, सब मिला कर ५५००) प्रकाशन और गेट अप वगैरह सभी सुन्दर मूल्य, सजिल्द प्रतिका १० रुपया, और शास्त्राकार आकर्षक हैं। यह ग्रंथ भा० दि. जैन संघ ग्रंथमाला का १२) रुपया। का प्रथम पुष्प है। सम्पादक त्रयने इसे इसरूप में ग्रंथका नाम कषाय-प्रामृत है। यह ज्ञानप्रवाद प्रस्तुत करने में अच्छा परिश्रम किया है इसके लिये नामके पांचवें पूर्वको दशमी वस्तुमें पेज्जपाहुड़से वे धन्यवादके पात्र हैं। ग्रंथ प्रत्येक जैन मन्दिर तथा कषायप्राभृत निष्पन्न हुआ है। यह मंथ पेज-दोस- लायब्रेरीमें संग्रह करने योग्य है। क्ति स्थिति-विभक्ति आदि पंद्रह अधिकारों में २ सन्यासी या देशकी आवाज-(नाटक)विभाजित है। इनमें कषायोंकी बन्ध, जदय और लेखक भगवतस्वरूप जैन भगवत् प्रकाशक, भगवसत्वादि विविध अवस्थाओंका व्याख्यान किया गया भवन ऐत्मादपुर (आगरा) पृष्ठसंख्या ६६ । मूल्य, है। दशवें ग्यारहवें अधिकारों में दर्शन मोहकी 'उप बिना जिल्दका दश माना। शयना' विधान है और चौदह, पंद्रहवें अधिकारमें भगवत्स्वरुपजी उदीयमान लेखक और कवि हैं। चरित्रमोहकी उपशमना और उसकी क्षपणाका आपकी रचनाएं अच्छी और शिक्षाप्रद होती हैं। विस्तृत वर्णन दिया हुआ है। इन अधिकारोंमेंसे प्रस्तुत नाटक वीर-रस-प्रधान है और राष्ट्रीय नाटकके प्रस्तुत ग्रंथ 'पेज्जदोस विहत्ती' नामके प्रथम अधिकार रूपमें लिखा गया है। पढ़नेसे हृदयमें वीर-रसका को लिये हुए है। इस अधिकारको विषय-सूचीका संचार होता है साथमें करुणा, अनाथरक्षा तथा अवलोकन करनेसे इसकी प्रमेय-बहुलताका स्पष्ट बोध देशभक्तिके पाठकी शिक्षा भी मिलती है। पुस्तक हो जाता है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये ज्ञातव्य सामग्री अच्छी और परिश्रमसे लिखी गई है। छपाई सफाई अच्छी है। का खूब संकलन है। सूत्र-गाथाओंके कथनको चूर्णि ३घरवाली-यह भी उक्त भगवतजीरचना की है सूत्रों और जयधवला टीकाके साथ साथ कितने ही और भगवतभवन ऐत्मादपुरसे ही प्रकाशित हुई है। विशेषाओं द्वारा उसके ममको खोलनेका प्रयत्न किया जिसमें ५ पचोंमें घरवालीके प्रति विश्वास और गया है। अनुवाद सुन्दर और रुचिकर हुया है और प्रेमके सिवाय उसके साथ किये जाने वाले अन्यायउसे पाठकोंको सरल भाषामें रखनेका प्रयत्न किया है। अत्याचारोंका दिग्दर्शन भी कराया गया है। पढ़नेसे ___ ग्रंथके आदिमें ११२ पृष्टकी विस्तृत प्रस्तावना अच्छा मनोरंजन होता है। हृदय-मन्दिरमें उठने दी हुई है जिसमें ग्रंथ ग्रंथकार, चूर्णिसूत्र, और उसके बाले अनेक तरहके विचारोंको इसमें संकलित किण कर्ता, टीका और टीकाके समयादि विषयमें अच्छा गया है। इस छोटीसी पुस्तकका मूल्य चार आना है। प्रकाश डाला गया है विषय परिचय' शीर्षकके नीचे, परमानन्द शास्त्री साथ साथ कितना गया हया द्वारा उसके मम Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरको सहायता १ ) मा इस वर्षकी दूसरी किरण (सितम्बर ३) में प्रकाशित (चि. पुत्र रघुवीरसरनके विवाहकी खुशीमें)। सहायताके बाद, वीरसेवामन्दिर सरसावाको भनेकान्त ६)ला. माधोलाबजी बैन मई मंडी मुजफरनगर सहायता और सदस्य कीसके अलावा जो दूसरी फुटकर (चि. पुनपमप्रसावके विवाहकी शीमें)। सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमशः निम्न प्रकार है, और ५)बा. खूटेलाबजी जैन, मालिकफर्म अन्दनबाल इसके लिये दातार महोदय धम्यवादके पात्र हैं: कालूराम, पानीपत १०.) खा. बाबूराम अकलंकप्रसावजी जैन संस तिस्सा १००)मुनि श्रीसि खिसागरजी महाराज जयपुरकी तरफसे जि. मुजफ्फरनगर (लायब्रेरीके वास्ते हस्तलिखित (ग्रन्थ प्रकाशनार्थ) । ग्रंथ खरीदने के लिये, जो खरीदेजाचुके हैं)। २१) ना. दीपचन्दजी जैन (अम्बहटायाले) भोवरसियर १०) श्री पं० चदि. जैनमन्दिर वधीचन्दजी जैन जयपुर नहर कानपुर और ग. श्रीचन्द (सरसावानिवासी) (ग्रन्थप्रकाशनार्थ) जैन संगल, एटा (पुत्र चि. देवेन्द्रकुमार और १.१)श्रीमतीरामीबाई धर्ममपानी स्व.ला. सुन्दरलाल जी पुत्री चि. चन्द्रकुमारीके विवाह की खुशीमें)। जैन रईस नानौता जि. सहारनपुर। ला. शम्भूदयाल दीपचन्दजी जैन मेरठ (पुत्रविवाद: १)ला. जिनेश्वरदासजी जैन सर्राफ, देडगइन की खुशी)मार्फत खा. जोतीप्रसावजी धीवावेहली। २) बा. रत्नत्रयधारी जैन करोलबाग, देहली। ५) ला. धूमीमल धर्मदासजी जैन कागजी. देहली ४३) बाबू छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता (पफरखर्च- (पुत्रीके विवाहकी खुशीमें) मा. लालाजी। की सहायतार्थ) ४) ला. दीपचन्दजी जैन सहारनपुर और जाहीरालाल जी ६)ला. इन्द्रसेनजी जैन टिम्बरमर्चेन्ट अब्दुल्लापुर जि. जैन अजमेर (पुत्र-पुत्रीके विवाहकी खुशी में) मार्फत अम्बाला (लायबरेरी के लिये)पुत्रीके विवाहकी खुशी में उक्त लाला जोतीप्रसादजी। २)बा. जगदीशप्रसादजी जैन श्रोवर सियर. सरसावा २१) ला. गुलाबचन्द ताराचन्दजी जैन, बेलनगंज, आगरा (भाई कपूरचंदके विवाहकी घुडचढीपर)। (चि. हृदयमोहनके विवाह की खुशीमें)। ७)ला. ब्रजनन्दनप्रसाद, मुन्नीलालजी जैन, मुगदाबाद ५०१m) अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर अनेकान्तको सहायता ली जनवरीसे १५ जून सन १६४४ तक || महीने १४) बा. जगतप्र सादजी जैन, खमियानगर । के अन्दर जो सहायता 'अनेकान्त' को उसके हेमाफिस ५) पा. प्रभुलालजी जैन प्रेमी, पोहरी जि. ग्वालियर सरसाचामें प्राप्त हुई। वह क्रमशः निम्नप्रकार है, और (भाई घनसुंदरके विवाहकी खुशी में)। इसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र हैं:- ..) बा. दीपचंदजी जैन, भोवरसियर नहर कानपुर और २) बा. मनोहरनाथजी जैन वकील, बुलन्दशहर (पिता सा. श्रीचन्द्र जैन संगला, पटा(पुत्र-पुत्रीके वि०खुशी में) श्री भोलानाथजी मुख्तारके स्वर्गवासके उपक्षाचमें)। ") बा. गुलाबचन्दजी जैन, बेलनगंज, मागरा (चि. ३॥) बाबरतनचन्द हुम्बीलालजी जैन, छुटास जि. मंडला हृदयमोहनके विवाहकी खुशी में)। सा मेमचन्द अभयकुमारजीजैन बर्तनवाजे, माहिया- .) खा.शांतिकुमारजी विका, सांभरलेक(वि०कीखुशीमें) गंज लखनऊ(विवाहमें दोनों प्रोरसे निकाले हुए दानमेंसे) २)पं. श्री प्रकाशजी, जयपुर (विवाहकी खुशी में)। ) बा. मक्खनलालजी जैन ठेकेदार, दरियागंज, देखली .) सेठ सचमीचंदजी जैन बी.ए., शाहदरा वेहली (पुत्र विवाहकी खुशी में)। (धर्मपत्नीके स्वर्गवास पर) ५) बा.न्यावरमख सूरजभानजीजैन, पहाबी धीरज, देहली २०) खा. जिनेन्द्रचंद्रजीजन, खखनऊ(पिता जीके स्वर्ग०पर) .) बा. विमलप्रसादजी जैन सदर बाजार, वेहली। .00) अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-731. दो धर्मात्माओंका वियोग श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर छापीका गत ता०१७ मईको सागवाड़ामें ५५ वर्षकी अवस्था में समाधिमरण-पूर्वक स्वर्गवास हो गया है। आपके इस वियोगसे समस्त जैन समाजको बड़ा ही दुख हुमा है। आप बहुत शान्त-स्वभावी और चारित्रवान् थे। ज्ञान प्रचारकी दृष्टिसे आपने कई प्रन्थमालायें और शिक्षा-शालायें खुलवाई हैं। आपका प्रयत्न अनवरत विद्या-प्रचार, साहित्यप्रचार और धर्मप्रचारमें ही होता था। सामाजिक विवादस्थ विषयोंसे आप अलग रहते थे। आपकी चर्या और चारित्रका लोगों पर । अच्छा प्रभाव पड़ता था। दूसरा शोक जनक वियोग गत १४ मईको 'ज्ञानचन्द्रिका' भूरी बाईजी इन्दौरका ६७ वर्षकी अवस्थामें हो गया। आप बाल्यावस्थामें ही विधवा हो गई थीं । तबसे आपने जैनशास्त्रोंका खूब अभ्यास किया। शास्त्राभ्याससे आपकी इननी सूक्ष्मबुद्धि होगई थी कि आप सूक्ष्म चर्चा करने में बड़ा आनन्द मानती थीं। श्रोताओं पर आपकी ज्ञानचर्चा और प्रवचनका अच्छा और आकर्षक असर होता था। शास्त्रस्वाध्याय' करना और कराना ही समूचे जीवनका एकमात्र व्यसन था। 'गोम्मटसार' 'धवला' आदि आगम ग्रंथोंकी अच्छी जानकारी थी। वास्तव में आप सच्ची ज्ञानचन्द्रिका थीं। आपको कैंसरकी बीमारी हो गई और अन्तमें वही आठ माह तक तीव्र वेदना देकर उनकी घातक हुई !! हम इन दोनों धर्मप्राण स्वर्गीय आत्माओं के लिये शान्तिकी कामना करते हैं। वीर-शासनाङ्क-विषयक जरूरी सूचना a> 'वीरशासनाङ्क' नामसे अनेकान्तका जो विशेषाङ्क निकलने वाला है उसके लिये अधिकांश विद्वानोंने बहुत देरसे लेख-लिखना प्रारंभ किया है, इसीसे अब तक उतने लेखोंका संग्रह नहीं हो सका है जितनेकी खास जरूरत है। कितने ही विद्वानों के पत्र आरहे हैं कि उन्होंने अब लिखना शुरू किया है। कितने ही लेख भी ऐसे हैं जो बहुत समय-साध्य हैं। ऐसी स्थितिमें यह विशेषांक श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको प्रकाशित न होकर अब दीपावलीके करीब होनेवाले वीरशासनके 'सार्द्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव' पर ही प्रकट होगा । अतः जिन विद्वानोंने अभी तक लेख भेजने की कृपा नहीं की उन्हें श्रावणके अन्त तक भेज देना चाहिये, जिससे छपाईका कार्य सुविधानुमार हो सके। अब तक कोई ५० विद्वानोंके लेख भा चुके हैं, जिनके लिये हम लेखक महोदयों के आभारी हैं। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' । If not delivered please return to:VEER SEWA MANDIR, SARSAWA. (SAHARANPUR) .... - - -- -- -- मुद्रक,प्रकाशक पं.परमानन्दशासी वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरखाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तवप्रेस सहारनपुरमें मुद्रित । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् VARTIN विश्वतत्व-प्रकाशा वार्षिक मूल्य ४) एक किरणका 1) इस किरणका मूल्य ।) सूचना-सरकारी आर्डिनेंसके वश कम पृष्ठ दिये जा रहे हैं, अधिक पृष्ठोंके लिये प्रयत्न हो रहा है। नीतिक्रोिषध्वंसी लोकव्यवहारवर्तक-सम्पा। परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ६ किरण १२ सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर (समन्तभदाश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर श्रावणशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २५७०, विक्रम सं० २००१ जुलाई १६४५ विपुलाचलपर वीरशासन-जयन्तीका अपूर्व दृश्य [सम्पादकीय ] जबसे वीरसेवामन्दिरने यह प्रस्ताव पास किया था कि की और उसके द्वारा यह निर्णय कियाकि उत्सवकोदोभागामें वीरशासन-जयन्तीका भागामी उत्सव राजगृहमें उस स्थान बाँटा जाय--एकवीरशासन-जयन्तीका साधारण वार्षिकोत्सव पर ही मनाया जाये जहाँसे वी शासमकी 'सर्वोदय-तीर्थधारा' और दूसरा सार्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सव । पहला नियत प्रवाहित हुईथी तबसे लोकहदय उस पुनीत उत्सवको तिथि श्रावया-कृप्या-प्रतिपदाको और दूसरा कार्तिकमें दीपादेखने के लिये लालायित हो रहा था और ज्यों-ज्यों समय वलिके करीब रहे और दोनों राजगृहमें ही मनाये जाने। बीतता जाता था त्यों-त्यों उत्सवकी महानताका विचारकर उत्सवके करीव दिनों में इस समाचारको पाकर उत्सुक जमता लोगोंकी उत्कण्ठा उसके प्रति बढ़ती जाती थी, और वे केहदयपर पानी पर गया--उसका उत्साह ठंडा हो बार बार पूछते थे कि उत्सबकी क्या कुछ योजनाएँ तथा गपा--भीर अधिकांशको अपना बंधा-बंधाया विस्तरा तरबारियाँ हो रही है। खोल कर यही निर्णय करना पड़ा कि बड़े उत्सव के समय इधर विहार और बंगालके कुछ नेताओंने, जिन्हें उत्सव आडोंमें ही राजगृह चलेगे। परन्तु किनकेयमि वीरशासन के स्वागतादि-विषयक भारको उठाना था, राजगृहकी वर्षा के अवतारकी पुण्यवेलाका महत्व पर किये हुए था, जो कालीन स्थिति प्रादिके कारण जनताके कष्टोंकाकुछ विचारकर उसी समय विपुलाचखपर पहुंचकर वीरशासनके अवतार और अपनेको ऐसे समयमें उन कष्टोंके समाप उत्सवका समयकी कुछ अनुभूति करना चाहते थे और वीरशासनकी प्रबन्ध करनेके लिये असमर्थ पाकर कलकत्तामें एक मीटिंग उसके उत्पत्ति समय तथा स्थान पर ही पूजा करने के इछुक Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे. उन्होंने अपना निश्चय नहीं बदला और इस लिये वे जरा भी श्रमबोध नहीं होता था-मानो कोई अपविष्ट नियत समयपर विपुलाचलपर पहुँचकर उस अपूर्व दृश्यको (uplift) अपनेको ऊँचे खींचे जा रही हो। देखने में समर्थ हुए जो बारबार देखनेको नहीं मिलता। विपुलाचबके उपर पहुंचते ही सबसे पहले वीरशासन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा. जुखाईकी थी और राजगृहमें के मंडेका अभिवादन किया गया। मंडाभिवादनकी रस्मको कोई १५ दिन पहलेसे वर्षाका प्रारंभ हो गया था। पं.कैलाशचंद्रजी शास्त्री बनारसने, 'ऊँचा झंडा जिन५ अगस्तकी सुबहको जब मैं मंत्रीजी सहित राजगृह पहुँचा शासनका परमअहिंसा दिग्दर्शनका' इस गायनके साथ तो खूब वर्षा हो रही थी, वहांकी रेल्वे भी छलनीकी तरह अदा किया, जिसे जैनबाखाविश्राम पाराकी छात्राोंने मधुरटपकती थी। और चारों तरफ पानी ही पानी भरा हुभा ध्वनिसे गाया था। था। ५ जुलाईको पर्वतकी यात्रा करते समय वर्षा भागई इसी समय पर्वतपर सूर्य का उदय हो रहा था और सूयं उस समय ऐसा देदीप्यमान तथा पूर्व तेजबान प्रतीत और सारी यात्रा खूब पानी बरसतेमें ही अनन्दके साथ की होता था जैसाकि इससे पहले कभी देखने में नहीं पाया, गई और उससे कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। ६ ता. को मानों वीरशासनका अभिनन्दन करनेके लिये उसका भी बादलोंका खूप प्रकोर था। रात्रिके समय तो वे इतने घिने घिर कर आगये थे और बिजलीकी भारी चमकके साथ ऐसी अंग अंग प्रफुल्लित हो रहा हो। भयंकर गर्जना करते थे कि लोगोंको आशंका हो गई थी श्रावणकृष्ण-प्रतिपदाको सूर्योदयके समय ही वीरभग वानकी प्रथम देशना हुई थी और उनका धर्मतीर्थ प्रवर्तित कि कहीं ये कोई विघ्न बाधा तो उपस्थित नहीं करेंगे। हुमा था। अत: इस सूर्योदयके समय सबसे पहले महावीरउसी समय यह प्रश्न होनेपर कि यदि कल प्रात:काल भी सन्देशको सुननेकी जनताकी इच्छा हुई, तदनुसार 'यही है इसी प्रकार वर्षा रही तो पर्वतपरके प्रोग्रामके विषयमें क्या महावीर सन्देश. विपुलाचलपर दिया गया जो प्रमुखरहेगा ? उपस्थित् जनताने बड़े उत्साह के साथ कहा कि धर्म-उपदेश' इत्यादि रूपसे वह 'महावीर-सन्देश' सुनाया चाहे जैसी वर्षा क्यों न हो पर्वतपरका प्रोग्राम समय पर गया जिसमें महावीर जिनेन्द्रकी देशनाका सार संगृहीत है ही पूरा किया जायगा। इधर कार्यका दृढ़ संकल्प और उधर और जिसे जनताने बडे मादरके साथ सुना तथा सुनकर वर्षाके दूर होने की स्थिर हार्दिक भ वना, दोनॉने मिन्न कर हृदयंगम किया। एसा माश्चर्यजनक घटना घटी कि बदोंने प्रात:काल होनसे इसके बाद वीरप्रभुके मन्दिर में पूजनादिकी योजना की पूर्व ही अपनी भयंकरता छोड कर विदा बेनी शुरू करदी गई। अभिषेकके बाद वीरसंबामन्दिस प्रकाशित वह 'जिन और वे पर्वतारोहणके प्रोग्रामके समय एक दम छिन्न भिन्न दशन स्तोत्र पढ़ा गया जिसका प्रारंभ 'आज जन्म मम हो गये ! यह अद्भुत दृश्य देखकर उपस्थित विद्वन्मण्डली सफल हुआ प्रभु! अक्षय-अतुलित-निधि-दातार' इन और इतर जनताकेहदयमें उत्साहकी भारी लहर दौड गई शब्दोंसे होता है। इसे पढ़ते समय पढने-सुनने वालोंका और वह द्विगणित उत्साहके साथ गाजे-बाजे समेत श्रीवोब- हदय भक्तिसे उमडा पडता था। बादको पं.कैलाशकंदजी प्रभु और वीरशासनका जयजयकार करतो हुई विपुलाचनकी प्रादिने ऐसी सुरीली आवाजमें मधुरध्वनि और भक्तिभावके भोर बढ़ चली। जलूपमें बोगोंका हृदय भानन्दसे उछल साय पूजा पढ़ी कि सुनने वालोंका हृदय पूजाकी ओर रहा था और वे समवसरणमें जाते समयके रश्यका-सा प्राकर्षित होगया और वे कहने लगे कि पूजा पढी जाय तो अनुभव कर रहे थे । विद्वानोंके मुखसे जो स्तुति-स्तोत्र उस इसी तरह पढ़ी जाय जो हृदयमें वास्तविक मानन्दका समय निकल रहे थे वे उनके हृदय मन्त-स्तलसे निकले संचार करती है। अन्तमें एक महत्वकी सामूहिक प्रार्थना की हुए जान पड़ते थे और इसीसे चारों ओर मानन्द बखेर गई जिसका प्रारंभ हमें है स्वामी उस बल की दरकार' रहे थे। अनेक विद्वान वीरशासनकी अहिंसादि-विषयक रंग- इन शब्दोंस होता है। विरंगी ध्वजाएँ तथा कपडेपर अंकित शिक्षाद मोटोज पूजाकी समाप्तिके अनन्तर सब लोग खुशी खुशी उस अपने हाथों में थामे हुए थे। मेरे हाथमें वीरशासनका वह स्थानपर गये जहाँ वीरभगवानका समवसरण लगा था, जो धवलध्वज (मंडा) था जो अन्तको विपुलाचन-स्थित पीर- विपुलाचलपर समवसरहाके योग्य सबसे विशाल क्षेत्र है प्रभुफे मन्दिापर फहराया गया । पर्वतपर चढ़ते समय (शेष अंश टाइटिलके थे पृष्टपर) Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ २४ ] श्रीधीर-जिन-स्तोत्र कीर्त्या भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया । भासोडुमभाऽसितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर निन ! श्रा। उस निर्मलकीर्तिसे- ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (प्रात्म-शगर-गत) गुगान्य समुद्भत हे पृथ्वीपर उसी प्रकार शोभाको प्राम हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा अाकाशमें नक्षत्र-समा-स्थित उमदमसे शोभता है जो कि कुन्द-पुप्पोकी शोभाक समान सब अोरसे धवल है।' तव जिन शासनविभवो जर्यात कलायपि गुणानुशासनविभवः । दोषकशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभावशासनविभवः ॥२॥ 'हे वार जिन ! अारका शासन-माहात्म्य-अापके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरू। गौरवकलिकाल में भी जाको प्राप्त है-सर्वोत्कृष्टरूपसे वर्त रहा है-, उसके प्रभावसे गुणोमं अनुशासन-प्रान शियजनोंका भा निनष्ट हुअा है-संसार परिभ्रमा सदाके लिए छूटा है। इतना ही नहीं, किन्तु जी दोषम्य चाबुकोंका निराकरण करने में समर्थ है-चाबुकोकी नरद पीडाकारी काम-क्रोधादि दोषों को अपने नाम फटकने नहीं देते और अपने ज्ञानादि ने जमे जिन्होंने श्रासन-विभोको-लोक के प्रसिद्ध नायको (हरिहगदिका) की-निस्तेज किया है वे-गए. देवादि महात्माभी प्रारके इस शासन-माहात्म्यकी स्तुति करते हैं। अनवद्यः स्याद्वादम्तव दृष्टिाविरोधतः स्याद्वादः। इतरोन स्याद्वादो सद्वितविरोधान्मुनीश्वराऽस्थाद्वादः ॥३॥ 'हे मुनिनाथ ! 'स्यात्' शब्द-परस्सर कथनको लिये हुए आपका जी स्यावाद है-अनेकान्तात्मक प्रवचन हैवह निर्दोष है, क्योंकि हट-प्रत्यक्ष-और इट-भागमादिक प्रमाणोंके साथ 3मका कोई निगेध नहीं है । मग 'स्यान्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष -वचन नहीं है; क्यों कि दृष्ट और इ2 दोनों के विरोधको लिये हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट-अभिमतको भी बाधा पहुँचाना है और उसे कि.मी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता।' त्वमसि सुरासुरमहितोप्रन्थिक सत्त्वाऽऽशयप्रणामाऽहितः। लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥४॥ "(हे वीर जिन) श्राप सुरों तथा असुगेने पूजित है, किन्तु ग्रन्थिकसत्वोके-मिथ्यात्वादि-परिग्रहसे युक्त प्राणियों के -(भक्त) हृदयसे प्राप्त होने वाले प्रणामसे पूजिन नहीं हैं-भले ही वे ऊपरी प्रणामादिसे पूजा करें, वास्तव में तो सम्यग्दृष्टियोंके ही पार पूजा-पात्र हैं। (किसी किसीके द्वारा पूजित न होने पर भी) श्रार तानो लोकके प्राणियोंके लिए परमहितरूप है-गग-द्वेषादि-हिसाभावोंसे पूर्णतया रहित होने के कारण किसीके भी अहितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने अादर्शसे सभी भधिक जनोंके श्रात्म-विकाममें सहायक है-श्रावरए हित ज्योतिको लिये हुए है-केवल ज्ञानके धारक है--और उज्ज्वलधामको-मुक्तिस्थानको-प्रास हुए हैं अथवा अनावग्गा ज्योतिबोसे--केवल ज्ञान के प्रकाशको लिये हुए मुक्तजीवोंसे-जो स्थान प्रकाशमान है उसको-सिद्धिशिलाको-प्राम हुए हैं।' Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे. उन्होंने अपना निश्राय नहीं बदला और इम लिये वे जरा भी श्रमबोध नहीं होता 41-मानो कोई अपलिफ्ट नियम ममयपर विपुलाचलपर पहुँचकर उस अपूर्व एश्यको (uplift) अपनेको उँचे खींचे जा रही हो। देखने में समर्थ हुए जो बारबार देखनेको नहीं मिलता। विपुलाचबके उपर पहुँचते ही सबसे पहले वीरशासन श्रावण कृप्या प्रतिपदा जुलाईकी थी और राजगृहमें के झडेका अनिवादन किया गया। महाभिवादनकी रस्मको कोई १५ दिन पहलेमे वर्षाका प्रारंभ हो गया था। पं.कैलाशचंद्रजी शात्री बनारसने, 'ऊँचा झंडा जिन४ अगस्तकी सुबहको जब मैं मंत्रीजी सहित राजगृह पहुँचा शासनका परमहिमा दिग्दर्शनका' इस गायनके साथ तो खूब वर्षा हो रही थी, वहांकी रेल्वे भी चलनीकी तरह अदा किया, जिसे जैनवाजाविश्राम भाराकी यात्राभोंने मधुरटपकती थी। और चारों तरफ पानी ही पानी भरा हुआ ध्वनिसे गाया था। इसी ममय पर्वतपर सूर्थका उदय हो रहा था और था। ५ जुलाईको पर्वतकी यात्रा करते ममय वर्षा भागई सूर्य उस समय ऐसा देदीप्यमान तथा अपूर्व तेजवान प्रतीत और सारी यात्रा खूब पानी बरसतेमें ही अनन्दके साथ की होना था जैसाकि इससे पहले कभी देखने में नहीं पाया, गई और उसमे कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। ६ ता. को मानों वीरशासनका अभिनन्दन करने के लिये उसका भी बावलौका खूब प्रकोर था। रात्रिके समय तो वे इतने घिने अंग अंग प्रफुल्लित हो रहा हो। घिर कर आगये थे और बिजलीकी भारी चमकके साथ ऐसी श्रावणकृष्ण-प्रतिपदाको सूर्योदयके समय ही वीरभगभयंकर गर्जना करते थे कि लोगोंको आशंका हो गई थी बानकी प्रथम देशना हुई थी और उनका धर्मतीर्थ प्रवर्तित कि कहीं ये कोई विप्न वाधा तो उपस्थित नहीं करेंगे। हुमा था। अत: इस सूर्योदयके समय सबसे पहले महावीरउमी समय यह प्रश्न होनेपर कि यदि कख प्रात:काल भी सन्देशको सुननेकी जनताकी इच्छा हुई, तदनुसार 'यही है इसी प्रकार वर्षा रही तो पर्वतपरके प्रोग्रामके विषय में क्या महावीर मन्देश विपुलाचलपर दिया गया जो प्रमुखरहेगा? उपस्थिन् जनताने बड़े उत्साहके साथ कहा कि धमे-चुपदेश'इत्यादि रूपये वह 'महावीर-सन्देश' सुनाया चाहे जैसी वर्षा क्यों न हो पर्वतपरका प्रोग्राम समय पर गया जिसमें महावीर जिनेन्द्रकी देशनाका सार संगृहीत है ही पूरा किया जायगाधर कार्यकार संक्प और उधर और जिसे जनताने बजे भादरके साथ सुना तथा सुनकर वर्षाके दूर होने की स्थिर हार्दिक भ वना, दोनोंने मिल कर हृदयंगम किया। अयंजनक घटना घटी कि बदखाने प्रात:काल होनेमे इसके बाद वीरप्रभुके मन्दिरमें पूजनादिकी योजना की पूर्व ही अपनी भयंकरता छोक कर विदा बेनी शुरू करदी गई। अभिषेकके बाद वीरसेवामन्दिसे प्रकाशित वह 'जिनऔर वे पर्वतारोहणके प्रोग्रामके समय एक बम छिन्न भित्र बशन स्तोत्र' पढ़ा गया जिसका प्रारंभ 'आज जन्म मम हो गये! पह अनुत पश्य देखकर उपस्थित विद्वम्मरक्षी सफल हुया प्रभु! अक्षय-अतुलित-निधि-दातार'हम और इतर जनताके हृदयमें उत्साहकी भारी लहर दौड गई शब्दोंसे होता है। इसे पढ़ते समय पढने-सुनने वालोंका और वह द्विगुणित उत्साहके साथ गाजे-बाजे ममेत श्रीवास- हृदय भकिस उमडा पडता था। बादको पं. कैलाशकंदजी प्रभु और वीरशासनका जयजयकार करती हुई विपुलाचल की मादिने ऐसी सुरीली आवाजमें मधुरध्वनि और भक्तिभावके ओर बढ़ चली। जलूपमें बोगोंका हृदय भानन्दसे उछल साथ पूजा पदी कि सुनने वालोंका हृदय पूजाकी ओर रहा था और वे समवसरणमें जाते समयके रश्यका-सा भाकर्षित होगया और वे कहने लगे कि पूजा पढी जाय तो अनुभव कर रहे थे। विद्वानोंके मुखमे जो स्तुति-स्तोत्र उस इसी तरह पढी जाय जो हृदयमें वास्तविक मानन्दका समय निकल रहे थे वे उनके हृदयके पन्त-स्तजसे निकले संचार करती है। अन्तमें एक महत्वकी सामूहिक प्रार्थना की हुप जान पडते थे और इसीसे चारों ओर भानन्द बखेर गई जिसका प्रारंभ 'हमें है स्वामी उस बलकी दरकार' रहे थे। अनेक विद्वान वीरशासनकी अहिंसादि-विषयक रंग. इन शब्दोस होता है। विरंगी ध्वजाएँ तथा कपडेपर अंकित शिक्षाद मोटोज पूजाकी समाप्तिके अनन्तर सब लोग खुशी खुशी उम अपने हाथों में थामे हुए थे। मेरे हाथमें वीरशासनका वह स्थानपर गये जहों वीरभगवानका ममवसरण लगा था, जो अवलध्वज (मंडा) था जो अन्तको विपुलाचन-स्थित वीर. विपुलाचलपर समवसरणके योग्य सबमे विशाल क्षेत्र प्रभुके मन्दिरपर फहराया गया । पर्वतपर चढ़ते समय (शेष अंश टाइटिलके थे पृष्टपर) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [ २४ ] श्रीवीर-जिन-स्तोत्र का भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया । भासोडुसमाऽसितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर जिन ! पार उस निर्मलकीर्ति से-ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (श्रात्म-शरीर-गत) गुग मे समुद्भत है पृ-पीपर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा प्रकाशमे नक्षत्र-सभा स्थित उस दीप्ति से शोभता जा f+कुन्द-पुष्पोंकी शोभाके समान सब ओरसे धवल है।' तव जिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः। दोषकशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभावशासनविभवः॥२॥ 'हे वीर जिन! आपका शासन-मागम्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरूप गौरवकलिकाल में भी जगको प्राप्त है-सर्वोत्कृष्टरूग्से वर्त रहा है-, उसके प्रभावसे गुणोम अनुशासन-प्राप्त शिग्यजनोंका भत्र विनष्ट हुा-संसार परिभ्रमण मदाके लिए छटा है। इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप चाबुकोंका निराकरण करने में ममर्थ हैं-चाबुकी तरह पीडाकारी काम-क्रोधादि दोषोंको अपने पाम फटकने नही देते-और अपने ज्ञानादि तेजसे जिन्होने श्रासन-विभुमोको-लोकके प्रमिद्ध नायको (हरिहरादिकों) को-निस्तेज किया है वे-गाधादेवादि महात्माभी आपके इम शासन-माहात्म्यकी स्तुति करते हैं।' अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः। इतरोन स्याद्वादो सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्थद्वादः॥३॥ 'हे मुनिनाथ ! 'स्यात्' शब्द-पुरस्सर कथनको लिये हुए आपका जो स्यावाद है-अनेकान्तात्मक प्रवचन हैवह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट-प्रत्यक्ष-और इष्ट-आगमादिक प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। दूसरा 'स्यात्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं; क्यों कि दृष्ट और इष्ट दोनोके विरोधको लिये हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट-अमिमतको भी बाधा पहुंचाता है और उसे किमी तरह भी सिद्ध करनेमे समर्थ नहीं हो सकता।' त्वमसि सुरासुरमहितोप्रन्थिक सत्त्वाऽऽशयप्रणामाऽहितः। लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥ ४ ॥ '(हे वीर जिन) श्राप सुरा तथा असुरोंमे पूजित है, किन्तु प्रन्थिकसत्त्वोके-मिथ्यात्वादि-रिग्रहसे युक्त प्राणियोंके -(भक्त) हृदयसे प्राप्त होने वाले प्रणामसे पूजित नही हैं-भले ही वे ऊपरी प्रणामादिमे पूजा करें, वास्तवमै तो सम्यग्दृष्टियोंके ही पार पूजा-पात्र हैं। (किसी किमीके द्वारा पृजित न होने पर भी) श्रार तनो लोक्के प्राणियों के लिए परमाहितरूप है-ग-द्वेषादि-हिसाभावोंसे पूर्णतया रहित होने के कारण किसी के भी अहितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने प्रादर्शसे सभी भविक जनोंके श्रात्म-विकाममें सहायक है-श्रावरए रहित ज्योतिको लिये हुए हैं-केवलज्ञानके धारक है-और उज्ज्वलधामको-मुक्तिस्थानको-प्रास हुए हैं अथवा अनावरण ज्योतियोंसे--वनशान के प्रकाशको लिये हुए मुक्तजीवोंसे-जो स्थान प्रकाशमान है उसको-सिद्धिशिलाको-ग्राम हुए हैं।' Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ अनेकान्त [वर्ष ६ सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुणभूषणं श्रिया चारु-चितम् । मग्नं स्वस्यां रुचितं जयसि च मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥५॥ (हे वीर जिन !) श्राप उम गुणभूषणको-सर्वश-वीतरागतादिरूप गुणोके श्राभूषणको-धारण किये हुए हैं जो मभ्यजनों अथवा समवसरण-सभा-स्थित भव्यजनोंको रुचिकर है-इष्ट है-और श्रीसे-अष्ट प्रातिहार्यादिरूप विभूतिसेऐसे रूसमें पुष्ट है जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। और अपने शरीरकी कान्तिसे श्राप उस मृगलाञ्छनचन्द्रमाको जीतते है जो अपनी दीतिमें मग्न है और सबको सुन्दर तथा प्यारा मालूम होता है आपके शरीरका सौन्दर्य और आकर्षण पूर्ण चन्द्रमासे भी बढ़ा चढ़ा है।' त्वं जिन गत-मद-मायस्तव भावानां मुमुक्षुकामद मायः। श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः॥६॥ ''मुमुक्षीको इच्छित प्रदान करने वाले-उनकी मुक्तिप्राप्ति में परमसहायक-(हे वीर जिन!) श्राप मद और मायासे रहित हैं-अकषायभावको प्राप्त होनेसे निर्दोष है-, श्रापका जीवादि-पदार्थोका परिज्ञान-केवलज्ञानरूप प्रमाण(सकल-बाधाश्रोसे रहित होने के कारगा) अतिशय प्रशंसनीय है, और अापने श्रीविशिष्ट हेयोपादेय तत्त्वके परिज्ञान-लक्षणलक्ष्मीसे युक्त तथा कपट-रहित यम और दमका-महानतोके अनुष्ठान तथा परम इन्द्रिय जयका-उपदेश दिया है।' गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः प्रबहानवतः। तव शमवादानवतो गतमूजितमपगतप्रमादानवतः ।।७।। 'जिस प्रकार करते हुए मदके दानी, और गिरि-भित्तियों-पर्वत-कटानयोंका विदारण करने वाले (महासामर्थ्यवान्) ऐसे श्रीमान् सर्वलक्षणसम्पन्न उत्तम-जाति-विशिष्ट गजेन्द्रका स्वाधीन गमन होता है उसी प्रकार परम अहिंसा-दानअभयदान के दानी हे वीर जिन ! शमवादोंकी-रागादिक दोषोंकी उपशान्तिके प्रतिपादक प्रागमोंकी-रक्षा करते हुए श्राम्का उदार विहार हुश्रा है।-आग्ने विहार-द्वारा जगतको रागादिक दोषांके शमनरूा परमब्रह्म-अहिंसाका, सद्दष्टविधायक-अनेकाननवादका और समताप्रस्थापक साम्यवादका उपदेश दिया है, जो सब लोकमें मद-अहंकारका त्याग, वैरविरोधका परिहार और परस्परमें अभयदानका विशन करके सर्वत्र शान्ति-सुखकी स्थापना करते हैं और इसलिए सन्मार्गस्वरूप है। साथ ही वैषम्यस्थापक, हिंसाविधायक और सर्वथा एकान्तपतिपादक उन सभी वादों-श्रागमोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे।' बहुगुण-सम्पदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नयभक्तवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम ॥८॥ 'हे वीर जिनदेव ! जो पर-मत है-अापके मत-शासनसे भिन्न दूसरोंका शासन है-वह मधुर वचनोंके विन्यास से-कानोंको प्रिय मालूम देने वाले वाक्योंकी रचनासे-मनोश होता हुश्रा भी-प्रकटरूपमें मनोहर तथा रुचिकर जान पड़ता हुश्रा भी-यहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थ-वादिता और परहितप्रतिपादनादि-रूप बहुतसे गुण है उनकी शोभासे रहित है-सर्वथैकान्नवादका श्राश्रय लेने के कारण वे शोभन गुण उसमें नहीं गये जाते और इस लिए वह यथार्थ घस्तुके निरूपणादिमें असमर्थ होता हुआ वास्तवमें अपूर्ण, सबाध तथा जगत के लिए अकल्याणकारी है। किन्तु श्रापका मत-शासन नयोंके भंग-स्यादस्ति-मस्त्यादिरूप अलंकारोंसे अलंकृत है अथवा नयोकी भक्तउगसनारूप प्राभूषणको प्रदान करता है-अनेकान्तवादका श्राश्रय लेकर नयाँके सापेक्ष व्यवहारकी सुन्दर शिक्षा देना है, और इस तरह बयार्थ वस्तु-तत्त्वके निरूपण और परहित-प्रतिपादनदिमें समर्थ होता हुआ बहुगुण सम्पत्तिसे युक्त है, (हसीसे) पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब पोरसे भद्र रूप निर्वाधनादि-विशिष्ट शोभासम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ? (ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) प्रो. हीरालालजी जैन एम० ए० ने, 'जैन इतिहासका कुन्दाचार्यके उपदेशोंके पश्चात उन्हीं के समर्थनमें लिखा गया एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्धमें कुछ ऐसी बातोंको है। इस प्रन्धका कर्ता उस रनमालाके कर्ता शिवकोटिका प्रस्तुत किया है जो आपत्तिजनक हैं। उनमेंसे श्वेताम्बर गुरु भी हो सकता है जो प्राराधनाके कर्ता शिवभूति या प्रागमोंकी दश नियुक्तियोंके कर्ता भद्रबाहु द्वितीय और शिवार्यकी रचना कदापि नहीं हो सकती।" प्राप्तमीमांसाके कर्ता स्वामी समन्तभद्रको एक ही व्यक्ति यहां मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो.मा. बतलानेकी बासपर तो मैं 'अनेकान्त' की गत संयुक्त ने भाजसे कुछ असें पहले 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनकिरण नं.१०-११ में सप्रमाण विस्तृत विचार करके का अधिकार' शीर्षक लेख में, जो बादको धवलाकी चतुर्थ यह स्पष्ट कर पाया हूँ कि नियुक्तिकार भद्रबाहु द्वितीय पुस्तकमें भी सम्बद्ध किया गया है, रखकर एड-श्रावकाचारको और भाप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र एक व्यक्ति नहीं स्वामी समन्तभद्रकृत स्वीकार किया है और उसे गृहस्थोंके है-भिन्न भिन्न व्यक्ति है और वे जुदी दो भिन्न परम्पराओं लिये सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययन-विषयक नियंत्रण न करने में (श्वेताम्बर और दिगम्बर-सम्प्रदायाँ) में क्रमश: हुए हैं- प्रधान और पुष्ट प्रमाणके रूपमें प्रस्तुत किया है। यथास्वामी समन्तभद्र जहाँ दूसरी तीसरी शताब्दीके विद्वान् है ____ "श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्सम और वहां नियुक्तिकार भद्रबाहु छठी शताब्दीक विद्वान ।।... और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी ममन्तभद्र कृत रत्नकरण्ड वाज मैं प्रो. सा. की एक दूसरी बातको लेता हूँ, श्रावकाचार है, जिसे वादिराज सूपिने, 'मायसुखावह' जिसमें उन्होंने रत्नकरण्ड-श्रावकाचारको प्राप्तमीमांसाकार और प्रभाचन्द्रने अखिल सागारधर्मको प्रकाशित करने स्वामी समन्तभद्रकी कृति स्वीकार न करके दूसरे ही सम- वाला मर्य' कहा है। इस प्रथमें भावोंके मध्ययनपर कोई स्तमद्रकी कृति बतलाई है और जिन्हें मापने प्राचार्य कुन्द- नियंत्रण नहीं लगाया गया किन्तु इसके विपरीत"""" कुन्दके उपदेशोंका समर्थक तथा रत्नमाला कर्ता शिव -क्षेत्रस्पर्शन० प्रस्ता. पृ. १२ कोटिका गुरु संभावित किया है। जैसा कि आपके निबन्धकी किन्तु अब मालूम होता है कि प्रो. सा. ने अपनी निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है: वह पूर्व मान्यता छोड दी है और इसी लिये रत्नकरण्डको "रत्नकरयाश्रावकाचारको उक्त समन्तभद्र प्रथम स्वामी समन्तभद्रकीकृति नहीं मान रहे हैं। अस्तु । (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करनेके लिये जो प्रो. साहबने अपने निबन्धकी उक्त पंक्तियों में रानकुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं उन सबके होते हुए भी करण्ड श्रावकाचारको स्वामी समन्तभव-कृत सिद्ध करने मेरा अब यह मत हद हो गया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकार वाले जिन प्रस्तुन प्राोंकी भोर संकेत किया है वे प्रमाण की रचना कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने भाप्तमीमांसा है जिन्हें परीक्षा-द्वारा अनेक प्रथाको जाली मिद्ध करने लिखी थी, क्योंकि उसमें दोषका' जो स्वरूप समझाया वाले मध्तार श्रीपं जुगलकिशोरजीने माणिकचन्द-प्रथमाता गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं में प्रकाशित रत्नकाएर श्रावकाचारकी प्रस्तावमा विस्तारके सकता। मैं समझता है कि रत्नकरराड श्रावकाचार कुन्द साथ प्रस्तुत किया । मैं चाहता था कि उन प्रमाणको १शुन्य गसाजरातजन्मान्नकमयस्मयाः। " ' यहाँ उदृत करके अपने पाठकोंको यह बतलाऊँ कि वे न रागद्वेपमोहाश्च यस्यामः स प्रत्यते ।।-रत्नकरण्ड०६ *देखो, प्रस्तावना पृ०५ मे १५ तक । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ कितने प्रबल तथा पुष्ट प्रमाण है, परन्तु वर्तमान सरकारी सामायिक प्रोपधोपवासोतिथिसु पूजनम् । मार्दिनसके कारण पत्रोंका कलेवर इतना कृश हो गया है मारणान्तिकसल्लेन इत्येवं तश्चतुष्टयम् ॥ कि उसमें अधिक लम्बे लेखोंके लिये स्थान नहीं रहा और -रत्नमाला १७, १८ इस लिये मुझे अपने उक्त विचारको छोड़ना पड़ा, फिर (२) रत्नकरण्डमें उत्कृष्ट श्रावकके लिये मुनियोंके भी मैं यहाँ इतना जरूर प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो. निवासस्थान वनमें जाकर व्रतोंको ग्रहण करनेका विधान साहबने अपने निवन्धमें उक्त प्रमाणोंका कोई खण्डन नहीं किया गया है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि दि० मुनि किया-वे उन्हें मानकर ही आगे चले हैं; जैसा कि "उन उस लमय बनमें ही रहा करते थे। जबकि रत्नमाला सबके होते हुए भी मेरा अब यह दृढ़ मत हो गया है" मुनियोंके लिये वनमें रहना मना किया गया है और जिनमंदिर इन शब्दोंमे प्रकट है। जान पड़ता है मुख्तार साहबने तथा ग्रामादिमें ही रहनेका स्पष्ट आदेश दिया गया है। यथा-- अपने प्रमाणोंको प्रस्तुत कर देनेके बाद जो यह लिखा था गृहतो मुनिवमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । कि "ग्रन्थ (रत्नकरण्ड श्रा०) भरमें ऐसा कोई कथन मी भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ नहीं है जो प्राचार्य महोदयके दूसरे किसी अन्यके विरुद्ध पड़ता हो" इसे लेकर ही प्रो. साहवने 'दोष के स्वरूपमें -रत्नकरएड०१७ विरोध प्रदर्शनका कुछ यत्न किया है, जो ठीक नहीं हैं और कलौ काले वने वासो वज्यते मुनिमत्तमैः। जिसका स्पष्टीकरण आगे चल कर किया जायगा। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादपु विशेषतः॥ यहाँ सबसे पहले रत्नमाजाके सम्बन्ध विचार कर -रत्नमाला २२ जेना उचित जान पड़ता है। यह रनमाला रत्नकरगड इन बातांस मालूम होता है कि रत्नमाल। रत्नकरण्डश्रावका श्रावकाचार-निर्माताके शिष्यकी तो कृति मालूम नहीं होती, चारके कर्ताके शिष्यकीकृति कहलाने योग्य नहीं है। साथ है। कपों क दोनों ही कृतियोंमें शताब्दियोंका अन्तराल यह भी मालूम होता है कि रनमालाकी रचना उस समय जान पड़ता है. जिपसे दोनोंके कर्ताओंमें साक्षाद् गुरु-शिष्य. हुई है जब मुनियों में काफी शिथिलाचार भागया था और सम्बन्ध अत्यन्त दुर्घट ही नहीं किन्तु असंभव है। साथ इसीसे पं.प्राशाधरजी जैसे विद्वानोंको पंडित भ्रष्टचारित्रैः होमका साहित्य बहुत ही घटिया तथा प्रक्रम है । इतना वठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ ही नहीं, इसमें रनकरण्ड-श्रावकाचारसे कितने हो ऐसे कहना पड़ा। पर रत्नकरण्डरसे रत्नकरण्डकारके समय में सैद्धान्तिक मतभेद भी पाये जाते हैं जो प्राय: साक्षात् गुरु ऐसे किसी भी तरहके शिथिलाचारकी प्रवृतिका संकेत नहीं और शिष्यके बीच में संभव प्रतीत नहीं होते। नमूनेके मिलता और इस लिये वह रत्नमालास बहुत प्राचीन तौरपर यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं: रचना है । रत्नमालाका सूचम अध्ययन करनेसे यह भी ज्ञात नकायहमें शिक्षा-बोंके चार भेद बतलाये हैं होता कि यह यशस्तिलकचम्पके कती सोमदेवसे. जिन्हों देशावकाशिक २ सामायिक ३ प्रोषधोपवास और ने अपने यशस्तिलककी समाप्ति शकसं. ८. (वि०१० ४ वैयावृत्य । लेकिन रत्नमालामें देशावकाशिकको छोड़ १६) में की है और इस तरह जो विकीवीं शताब्दी दिया गया है-यहां तक कि उसको किसी भी प्रतमें के विद्वान हैं, बहुत बारकी रचना है, क्योंकि रत्नमालामें परिगणित नहीं किया-और मारणान्तिक सरलेखनाको श्रा.सोमवेवका आधार है और जिनमंदिर के लिये गाय, शिक्षा-बोंमें गिनाया है। यथा देशावकाशिकं वा सामयिक प्रोपोग्यासो वा। १ सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । वैयावृत्त्यं शिक्षा-प्रतानि चत्वारि शिष्टानि ।। यत्र सभ्यवहानिर्न यत्र न व्रत दृषणम् ।। -रत्नकरण्ड०११ -यशस्तिलक Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण १२ क्या रलकरएड-श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है? ३८१ जमीन, स्वर्ण और खेत श्रादिके देनेका उपदेश पाया जानेसे ३-मा. सोमदेव (वि.सं.१०१६)के यशस्तिनकयह भहारकीय युगकी रचना जान पड़ती है। अत: रत्न- में रत्नकरण्ड-श्रावकाचारका कितना ही उपयोग हुमा मालाका समय वि. की" वीं शताब्दीसे पूर्व सिद्ध नहीं जिसके दोनमने इस प्रकार हैं:-- होता, जब कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और उसके कर्ताके स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। अस्तित्वका समय विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्वका ही सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धौ धामिकैविना ।। प्रसिद्ध होता है। जैसा कि नीचेके कुछ प्रमाणसे प्रकट है -रत्नकर०२६ -वि. की१वीं शतानीके विद्वान् प्रा. वादि- यो मदात्समयस्थानामवह्लादेन मोदते। राजने अपने पार्श्वनाथचरितमें रत्नकरण्ड-श्रावकाचारका स नूनं धर्महा यस्मान्न धौ धामिकेविना ।। स्पष्ट नामोल्लेख किया है. जिससे प्रकट है कि रत्नकरण्ड -यशस्तिलक पृ०४१४ वि. की "वीं शताब्दी (१०२ वि०) से पूर्वकी रचना नियमो यमश्च विहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारे । है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी तभी वह नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ।। वादिराजके सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कृति रत्नकर०६७ समझी जाती रही कि प्रा. वादिराज स्वयं उसे 'अक्षय यमच नियमश्चेति द्वे त्याज्ये वस्तुनी स्मृते । सुखावह बतलाते हैं और 'दिष्टः' कह कर उसे पागम यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः।। होनेका संकेत करते हैं। __ --यशस्ति० पृ०४०३ २-१वीं शताब्दीके ही विद्वान् और वादिराजके इससे साफ है कि रत्नकरण्ड और उसके कर्मका कुछ समय पूर्ववर्ती प्रा. प्रभाचन्द्रने प्रस्तुत ग्रन्थपर एक अस्तित्व सोमदेव (वि० १०१६) से पूर्वका है। ख्यात टीका लिखी है जो माणिकचन्द्र ग्रंथमालामै रत्न. ४-विक्रमकी ७ वीं शताब्दीके प्रा. सिद्धसेन दिवाकरण्डके साथ प्रकाशित हो चुकी है और जिससे भी प्रकट करके प्रसिद्ध 'न्यायावतार' प्रन्थमें रत्नकरयड-श्रावकाचारका है कि यह ग्रन्थ १० वीं सदीसे पूर्वका है। श्रीप्र माचन्द्रने 'प्राप्तीपज्ञमनुल्लंध्य' श्लो.. ज्योंका त्यों पाया जाता इस प्रन्थको स्वामी समन्तभद्रकृत स्पष्ट लिखा है। यथा है, जो दोनों ही ग्रंोंके संदर्भोका ध्यानसे समीक्षण करने 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्न पर नि:पंदेह रत्नकरण्डका ही पच स्पष्ट प्रतीत होता है। करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरलानां पाजनोपायभूतं रन रत्नकरण्डमें जहां वह स्थित है वहां उसका मूलरूपसे करण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामी.............। होना अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु यह स्थिति न्यायावतारअतः इन दो स्पष्ट समकालीन मल्लेखोसे यह के लिये नहीं है, वहां यह श्लोक मूलरूपमें न मी रहे तो भी निश्रितहै कि रत्नकरण्ड १वीं शताब्दीके पहिलेकी अन्यका कथन भंग नहीं होता। क्योंकि वहां परोक्षप्रमाणरचना है, उत्तरकालीन नहीं। के अनुमान' और 'शाब्द' ऐसे दो भेदोंको बतलाकर स्वार्थासर्वमेव विधिजेन: प्रमाणं लौकिक: सताम् । नुमानके कथनके बाद 'स्वार्थ 'शाब्द' का कथन करने के लिये यत्र न व्रतहानिःस्मात्सम्यक्त्वस्य च खंडनम् ।। श्लोक - रचा गया है और इसके बाद उपर्युक्त प्राप्तीपज्ञ' -रत्नमाला ६५ श्लोक दिया गया है। परार्थ शाब्द और परार्थ अनुमानको २ गोभूमिस्वर्णकच्छादिदानं वसतयेऽर्हताम् ।-रत्नमाला बतलाने के लिये भीभागे स्वतंत्र स्वतंत्र श्लोक हैं अत: यह पथ ३ त्यागी स एव योगीन्द्रः येनाक्षय्यसुखावहः । श्लोक ८ में उक्त विषयके समर्थनार्थ ही नकाराखसे अपअर्थिने भव्यर्थाय दिष्टः रत्नकरण्डकः ।। नाया गया है। यह स्पष्ट है। और उसे अपना कर प्रन्थ४ इनका समय पं. महेन्द्रकुमार जीने ई०६८ से १०६५ कारने अपने ग्रन्थका उसी प्रकार बना लिया है जिस दिया है। न्यायकुमुद द्वि० भागकी प्रस्ता. विशेषकेलिये देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० १२७ से १३२ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ अनेकान्त [ वर्ष ६ प्रकार प्रकलदेवने प्राप्तमीमांसाकी 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' यह बतलाया है कि समन्तभद्रने प्राप्तमीमांसा कारिका' कारिकाको अपनाकर अपने न्याय विनिश्चयमें कारिका ४१५३ में वीतरागमुनि (केवली)में सुख-दुःखकी वेदना स्वीकार के रूपमें ग्रन्थका अंग बना लिया है। न्यायावतारके टीका- की है। इसपर मैं कहना चाहता हूँ कि 'दोषके स्वरूप सम्बन्ध कार सिद्धर्षिने, जिनका समय वीं शताब्दी है, इस पथ में रत्नकरण्डकार और प्राप्तमीमांसाकारका अभिप्राय भिन्न की टीका भी की है, इससे रत्नकरण्डकी सत्ता निश्चय ही नहीं है-एक ही है, और न स्वामी समन्तभदने केवली १ वीं और वीं शताब्दीये पूर्व पहुँच जाती है। भगवान में सुख-दुःखकी वेदना स्वीकार की है । इसका -ईमाकी पांचवीं (विक्रमकी छठी ) शताब्दीके खुलासा निम्न प्रकार है:-- विद्वान् पा० पूज्यपादने सर्वार्थ सिद्धि में रनकरण्ड-श्रावका रस्नकरण्ड-श्रावकाचारमें प्राप्तके लक्षणमें एक खास चारके कितने ही पद, वाक्यों और विचारोंका शब्दशः और विशेषण 'उच्छिन्नदोष' दिया गया है और उसके द्वारा अर्थश: अनुसरण किया है जिसका मुख्तार श्री पं. जुगलकिशोर प्राप्तको दोषरहित बतलाया गया है। मागे दोषका स्वरूप जीने अपने 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक समझानेके लिये निम्न श्लोक रचा गया हैलेखमें अच्छा प्रदर्शन किया है। यहां उसके दो नमूने दिये जाते हैं : क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मया:। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीयते ॥६॥ (क) तिर्यकक्लेशवाणिज्यहिसारम्भप्रलम्भनादीनाम । इस श्लोकमें प्रायः उसी प्रकार क्षुधादि दोषोंको गिना कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मतव्यः पाप उपदेशः ।। -रत्नक०७६ कर दोपका स्वरूप समझाया गया है जिस प्रकार कुम्न'तिर्यकक्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिपुपाप- कुन्दाचार्यने नियमसारकी गाथा' नं०६ में वर्णित किया है। संयुक्त वचनं पपोदेशः।- सवार्थ०७-२१ अब देखना यह है कि प्राप्तमीमांसाकारको भी ये चुधादि (ख) अभिसंधिकृताविरतिः"व्रतं भवति'-रत्नक०८६ दोष अभिमत हैं या नहीं। इसके लिये हमें प्राप्तमीमांसा. 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः।-सर्वार्थसि०७-१ कारकी दूसरी कृतियोंका भी सूक्ष्म समीक्षण करना चाहिये तभी हम प्राप्तमीमांसाकारके पूरे और ठीक अभिप्रायको ऐसी हालत में छठी शताब्दीसे पूर्व के रचित रत्नकरण्ड समझ सकेंगे। यह प्रसन्नताकी बात है कि प्रो. सा. ने के कर्ता ( समन्तभद्र)११ वीं शताब्दीक उत्तरवर्ती रत्न स्वयंभू-स्तोत्र और युक्त्यनुशासनको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी मालाकार शिवकोटिके गुरु कदापि नहीं हो सकते । समन्तभद्रकी ही कृतियाँ स्वीकार किया है। स्वयंभू स्तोत्रमें मत: उपर्युक्त विवेचनसे जहां यह स्पष्ट है कि रन स्वामी समन्तभदने 'दोष' का स्वरूप वही समझाया है जो करयडके कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटिके साक्षात गुरु नहीं रत्नकरणहमें दिया है। यथा-- हैं वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रत्नकरण्ड-श्रावकाचार शुदादिदुश्वप्रतिकारत: स्थितिनचेन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यतः सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपाद (४५० A. D) से ततो गुणो नास्ति च देह देहिनोरितीदमित्थं भगवान् पूर्वकी कृति है। व्यजिज्ञपत् ॥ -स्वयं०१८ अब मैं प्रो. सा.के उस मतपर भी विचार करता हैं जिसमें उन्होंने दोषके स्वरूपको लेकर रत्नकरण्ड-श्रावका १ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । चारकार और प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायोंको भिन्न वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्या निमित्ततः॥ बतलाया है और कहा है कि "रत्नकरण्ड में जो दोषका २ डा० ए०एन० उपाध्येने प्रवचनमारकी भूमिकामें श्रा० स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्राया- कुन्दकुन्दका समय ई० की पहिली शताब्दी दिया है। नुसार हो ही नहीं सकता।" इसका प्राधार भी आपने ३ छहतराहभीररोसो रागो मोहो चिना जग जामिरचू । २ देखो, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११। ___स्वेदं खेद मदो रइ विरिइयणिद्दा जगुन्वेगो॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्की कृति नहीं है? ३८३ पाठक, देखेंगे कि समन्तभद्र कितने स्पष्ट शब्दों में यहां अन्तक--मरण और उसके साथी अन्म और ज्वर प्राप्त-केवलीके श्राहारादिके प्रभावका और छुधादि सुख-दुःख (रोग) इन तीन दोषों का प्रभाव बतलाया गया है। वेदनाक अभावका प्रतिपादन करते हैं। यहां तक कह 'जन्म-जराजिहासया' (४६)'ज्वर-जरा-मरणोपशान्य' देते हैं कि इनसे प्रारमाका उपकार होना तो दूर रहा, (८) इनमें जन्म, ज्वर और मरण तो पहिले भागये। शरीरका भी कोई उपकार नहीं होता जब उनसे कोई 'जरा' का भी प्रभाव बतबारा गया है। यहां जिहासा' उपकार नहीं, तो उनका ग्रहण क्यों होगा? अर्थात् नहीं और 'उपशान्ति' शब्दोंसे केवली अवस्था पानेपर प्रभाव होगा। 'चुदादिदुःखप्रतिकारत: न स्थिति:' 'इन्द्रियार्थ- ही विवक्षित है, यह स्पष्ट है।। प्रभवाल्पसौख्यतः न स्थितिः' और 'ततो गुणो नास्ति च 'विरजो निजं वपुः' (११३) निर्मोहः(१२०) जिन देहदेहिनोः' ये तीन पद खास ध्यान देने योग्य हैं, जिनके ___ 'गतमदमाय:' (१४) 'वीतरागे 'विवान्तवैरे' (१७) द्वारा जहां प्राप्तमें सुधादि दुःखों (दोषों) और इन्द्रिय-विषय- 'स्नेहो वृथानेति' (३२) भयकामवश्यो' (३५) भूयादवसुखोंका अभाव बतलाया गया है वहां प्रतिकारस्वरूप क्लेशमयोपशान्त्यः' (20) इन पदों द्वारा कहीं शबदन: भोजनादिसे शरीर-शरीरीके उपकारका प्रभाव भी प्रतिपादन __और कहीं अर्थत: कमसे मल, मोह, मद, राग, वैर द्वेष), किया गया है। दूसरी बात यह है कि मोजनादि करना स्नेह, क्लेश और भय इन दोपोंका केवली भगवान में और इन्द्रियविषयसुखोंका अनुभव करना तोमनुष्यका स्वभाव प्रभाव प्रतिपादन किया है। है, मनुष्य-स्वभावसे रहित केवली भगवानका नहीं, वे यहाँ यह भी खास स्मरण रखना चाहिये कि ऊपर उस स्वभावसे सर्वथा छूट चुके हैं और परमोरच अलौकिक दि. परम्परा-मम्मत ही दोषोंका उल्लेख है--श्वे. परअवस्थाको प्राप्त हो चुके हैं। मनुश्य और केवतीको एक म्परा-मम्मत नहीं। श्वेताम्बरोंके यहां दोषोंमें सुधा, नृषा, प्रकतिका क्यों बतजाया जाता है? स्वयं स्वामी समन्तभद्र जन्म, ज्वर, जगको नहीं माना है। अत: यह स्पष्ट है कि क्या कहते हैं। देखिये-- रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकारको जो दोषका स्वरूप-धानि अभिमत है वही प्रासमीमांपाकारको भी अभिमत-उन मानुपी प्रकृतिमभ्यतांतवान् देवतास्वपिच देवता यतः। का भिन्न अभिप्राय कदापि नहीं है। और इस लिये विचातेन नाथ परमासि देवता श्रेयस जिनवृष प्रसीदनः।। नन्दके व्याख्यानका भी, जो उन्होंने प्राप्तमी कारिका । -स्वयंभू०७५ और ६ में किया है और जिसको फु. में प्रो०साल्ने प्रमाणरूपमें इससे यह निर्विवाद प्रकट है कि ममन्तभद्र प्राप्तको प्रस्तुत किया है, यही प्राशय लेना चाहिये। यह भी स्मरण क्षधादि-दोष-रहित मानते हैं और जिसकी प्रतज्ञा-- रहना चाहिये कि वहां उनका दृष्टिकोण दार्शनिक भी है। सामाग्य-विधान तो रस्नकरण्डके उक्त पधमें किया है और अतः उसको लेकर उन्होंने दोषका विश्लेषण किया है। युक्तिसे समर्थन स्वयंभू-स्तोत्रके प्रस्तुत पचमें किया है। और दर्शनान्तरों में भी मान्य अज्ञान, राग और द्वेषको यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि 'क्षुदादि' पदमें प्रयुक्त कण्ठोक्त कह कर 'पादि' शब्दद्वारा अन्योंका ग्रहण किया शिन्दसे शेष तपादिदोषोंका भी ग्रहण किया गया है है। यदि ऐसान होतो उन्हीके श्लोकवार्तिकगत (पृ.५३२) और उन सबका केवलीमें अभाव स्वीकृत है। महत्वकी व्याख्यानसे, जहाँ सबलता शुधादि वेदनाओंका प्रभाष बात तो यह है कि समन्तभद्रने शेप जम्मादि दोपोंको और। मिन्द्ध किया है, विरोध भावेगा, जो विद्यानन्दके लिये जनपलीमें प्रभावको स्वयम्भूस्तोत्रके दूसरे पद्योंम भी किसी प्रकार र नहीं कहा जामकता। बतला दिया है। यहाँ कुछको दिया जाना है।-- समन्तभद्रका भिन्न अभिप्राय बतलानेके लिये जो यह अन्तकः कन्दको नृणां जन्म-ज्वरसम्बा सदा। कहा गया था कि केवलीमें उन्होंने सुख-दुःखकी बेनना स्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः॥३॥ स्वीकार की है उसका भी उपर्युक्त विवेचनस समाधान हो 'ध्वंसि कृतान्तचक्रम्' (GE) जाता है, क्योंकि समन्तभदने स्परतः स्वयम्भू-स्तोत्र का Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ६ १८के द्वारा सुख-दुःखका केवली में स्वयं अभाव घोषित मैं अन्तःपरीक्षणद्वारा भी प्रकट कर देना चाहता हूँ ताकि किया है और 'शर्म शाश्वतमवाप शंकरः' (1). 'विषय- फिर दोनों के कर्तृत्वके सम्बन्धमें कोई रुदेह या भ्रम न रहे:सौल्यपराङ्मुखोऽभूत' (२) कहकर तो विरुकुल स्पट कर () रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक में शाखके लक्षणाम दिया है कि जिनेन्द्र शाश्वत--सदा कालीन सुख है-- एक स्वाम पद दिया गया है जो बड़े महत्वका है और विषयजन्य अल्पकालिक सुख नहीं। दो सुख एक साथ ह जो निम्न प्रकार है:नहीं सकते क्योंकि व्याप्यवृत्ति सजातीय दो गुण एक साथ ___...."अदृष्टेष्टविरोधकम् । ....... शास्त्र........रत्नक०६ नहीं रहते। और दुःख तो सुतमे निषिद्ध हो जाता है। ऐसी स्वामीसमन्तभद्र शास्त्रके इसी लक्षाको युज्यनुशासन, हालतमें सुखदुःखकी वेदना स्वीकार करने पर केवलीमें ___ आप्तमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्रमें देते हैं। यथा'शाश्वत-सुख' कदापि नहीं बन सकता। हमारे इस कथनकी ___ (क) दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते। पुष्टि प्रा. विद्यानन्दके निम्न कथनसे भी हो जाती है: न्युच्यनु०४६ 'पुदादिवेदनोगतो नाहतोऽनन्तशर्मता'(श्लोकवार्तिक पृ.५६२) (ख) 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाकू। अब मैं यह भी प्रकट करदूँ कि भाप्तमी० कार १३ में 'अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।'-आप्तमी० जो वीतराग मुनिमें सुख-दुःख स्वीकार किया गया है वह (ग) 'दृष्टष्टाविराधतः स्याद्वाद' स्वयभू० १२८ छट्टे आदि गुणस्थानवर्ती वीतराग मुनियों के ही बतलाया है यहां तीनों जगह शास्त्रका वही लक्षण दिया है. जिसे न कि तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग मुनि केव- रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहा है और जिसे यहां तार्किकलियो । कारण कि समन्तभद्रको वीतराग मुनि' शब्दका रूप दिया है। पाठक, देखेंगे कि यहां शब्द और अर्थ प्राय: भर्थ केवली या सरहंत नहीं विवक्षित है यह हम उनके दोनों एक हैं। पूर्वापर कथनों वर्णनों और संदर्भोके आधारपर समम (२) रत्नकरण्डमें ब्रह्मचर्य प्रतिमाका लक्षण करते हुये सकते हैं। वस्तुत: 'बीतरागमुनि' शब्दसे यहाँ समन्तभद्रको कहा गया है कि 'प्रतिगन्धि बीभत्सम् "प्रणम्' वह मुनि विवक्षित है जिसके केशलं चनादि काय- (रस्नक. १५३) और यही स्वयंभूस्तोत्रमें सुपाय जिनकी अंश संभव है। और यह निश्चित है कि वह केवलीके स्तुतिमें कहा है "जीवधुतं शरीरमा बीभरसु पूतिथि ' नहीं होता। वीतरागमुनि' शब्दका प्रयोग केवलीके अलावा (श्ली०३२)। यह दोनों वाक्य स्पष्ट ही एक ग्यक्रिकी खचादि गुणस्थानवतियोंके लिये भी साहित्यमें हुघा भावना को बतलाते हैं। है और यह तो प्रकट ही है कि वर्तमान दि. जैन साधुनों- (३) रत्नकरण्डश्रावका वार, प्राप्तका लक्षण निम्न के लिये भी होता है। स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग' जैसा विखित किया गया है. जो खास ध्यान देने योग्य है:-- ही'वीतमोह' शब्दका प्रयोग केवली-मित्रोंके लिये प्राप्तमी. प्राप्तेनोच्छिन्नदोपेण सर्वज्ञेनागमेशिना । का.15 में किया है। इससे स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड और भवितव्यं नियोगेन नान्यथा याप्तता भवेत ।। प्राप्तमीमांसाका एक ही अभिप्राय है और इसलिये वे इस श्लोकको पाठक, प्राप्तमीमांसाकी निम्न कारिका. दोनों एक ही ग्रन्थकारकीकृति है और वे हैं स्वामी समन्तभद्र। __ भोंके साथ पढ़नेका कष्ट करेंबातमीापाकार ही नकरंडके का है. इस बातको सर्वेषामप्तिता नास्ति कश्चिदेव भवेदगकः। ----- दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषाऽस्त्यतिशायनात् । १ (क) सुविदिदपदत्यमुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षयः।। समयो समसुदुक्खो भणिदो सुद्धोवोगो त्ति ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। -प्रवच.१-१४ अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥ (ख) 'सूक्ष्म साम्परायछद्भस्थवीतरागयोश्चतुर्दश' स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिास्त्राविरोधिवाक्। -तत्वार्थसूत्रह-१० अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ।। ही बीतमोऽ शबा है। इससे स्पष्ट है और इसलिये Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२] क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। ३८५ स्त्रन्मतामृतवामानां मर्वथैकान्तवादिनाम् । मीनासादिक भाषा-साहित्य और प्रतिपावन-शैलीका मेख नहीं प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।। खाता । रत्नकरण्ड-भावकाचारकी भाषा अत्यन्त सरल और -माप्त. का०३से तक स्ट प्रति गदनशैली भी प्रसन्न पर गहरी नहीं है जब यहाँ देखेंगे कि रत्नकरण्डमें प्राप्तका भागमिक रिसे किमासमीमांसादिकृतियोंकी भाषा अत्यन्त गूढ और जो स्वरूप बताया गया है उसे ही समन्तभद्रने भाप्तमीमांसा जटिल धोबेमें अधिकका बोध कराने वाली है-प्रति. की इन कारिकाओं में विभिन्न दानिकों के सामने दार्शनिक पावनशैली गंभीर और सूत्रात्मक है। अतः इन सबका एक ढंगसे अम्पयोगव्यवच्छेदपूर्वक रक्खा है और प्रतिज्ञात भाप्त कर्ता नहीं हो सकता ! यह शंका एक कर्तृकतामें कोई स्वरूपको ही अपूर्व शैलीसे सिद्ध किया है। प्राप्त' के लिये बाधक नहीं है। रस्मकरबह-श्रावकाचार प्रागमिक रष्टिसे सबसे पहिले 'उच्छिन्नदोष' होना भावश्यक और अनिवार्य लिखा गया है और उसके द्वारा सामान्य लोगोंको भी जैनहै, फिर 'सर्वज्ञ' और इसके बाद 'शास्ता'। जो इन तीन धर्मका प्राथमिक ज्ञान कराना लक्ष्य है।भासमीमांसाविवार्शबातीसे विशिष्ट है वही सच्चा प्राप्त है। इसके बिना निक कृतियों है और इसलिये वे दार्शनिक ढंगसे लिखी गई 'प्राप्तता' संभव नहीं है। समन्तभद्र भाप्तमीमांयामें इसी हैं। इनके द्वारा विशिष्ट लोगोंको-जगतके विभिन्न दार्शबातको युक्तिसे सिद्ध करते है। 'दोषावरणयोः' कारिकाके निकों को जैनधर्मके सिद्धान्तोंका रहस्य सममाना लषय है। द्वारा 'उच्छिन्नदोष' 'मूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' के द्वारा दूर नहीं जाइये, अकलंकको ही लीजिये। अकलंक.. 'सर्वज्ञ' और 'स त्वमेवासि निदोषों' तथा 'स्वन्मतामृत' इन ___ जब तत्वार्थसूत्रपर अपना तत्वार्थवार्तिकभाव्य रचते हैं तो दो कारिकाचोंके द्वारा 'शास्ता-अविरोधिवक्ता प्रकट किया __ वहां उनका भाषा-साहित्य कितना सरल और विशद हो है। सबसे बड़े महत्वकी बात तो यह है कि रत्नकरयडमें जाता है, प्रतिपादनशैली न गंभीर है और न गृह है। 'प्राप्तत्व'के प्रयोजक क्रम-विकसित जिन गुणोंका प्रतिपादन- किन्तु वही अकलंक जब लघीयनय, प्रमाणसंग्रह, न्याय क्रम रक्खा है उसे ही प्राप्तमीमांसामें अपनाया और विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय और मष्टशती न दार्शनिक प्रस्फुटित किया है। 'अन्यथा प्राप्तता न भवेतू' और कृतियोंकी रचना करते हैं तो उनकी प्रतिपादन-शैली कितनी 'सर्वेषामाप्तता नास्ति'ये दोनों पद तोप्रायः एक और इस- अधिक सूत्रात्मक, पुरवगाह और गंभीर हो जाती है। लिये जो एक दूसरेका ऐक्य प्रतलानेके लिये खास महत्वके ___ वापयोंका विन्यास कितना गूढ और जटिल होजाता है कि हैऔर जो किसी भी प्रकार उपेषणीय नहीं है। अन्यथा उनके टीकाकार बरबस कह उठते है कि प्रकर्षक गृहपदोंप्राप्तता क्यों नहीं बन सकती? इसका स्पष्ट खुलासा का अर्थ व्यक्त करनेकी हममें सामथ्यं नहीं"। अतः रत्नकरण्श्रावकाचारमें नहीं मिलता और जिसका न जिस प्रकार प्रकलंकदेवका राजवार्तिकमाण्य प्रागमिक रष्टिसे मिलना स्वाभाविक ; क्योंकि रत्नकरण भागमिक और लिखा होनेसे सरल और विशद है और प्रमाणसंग्रहादि विधिपरक रचना , साथमें संचित और विशद गृहस्था- दार्शनिकरष्टिसे लिखे होनेसे जटिल और पुरवगाह है फिर चारकी प्रतिपादक एक कृति है। सुकुमारमति गृहस्योंको भी इन सबका कर्ता एक है और वे अकलंकदेव हैं उसी वे यहां युक्तिजालमें भावद्ध करना (खपेटना) ठीक नहीं प्रकार रत्नकरयर-श्रावकाचार'मागमिक रटिकीयासे लिखा समझते, किन्तु इसका खुलासा मालमीमांसाकी 'स्वम्मता- गया और भासमीमांसा, युस्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र मृतवाशाना' भावि कारिकायोंमें करते हैं और कहते हैं कि दार्शनिक रष्टिकोबसे। अत: इन सबका को एकही और 'उच्छिमदोषस्वादि' के न होनेसे सदोषतामें पासता नहीं बन स्वामी समन्तभद्र। सकती। अत: यह स्पष्ट है कि रत्नकरबह-श्रावकाचार और वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा भातमीमांसादिकेका एक और स्वामी समन्तभद्र २२-७-४ यहां यह शंका उठ सकती है कि रनकरण्ड-श्रावका- देवस्थानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्त सर्वतः । चारक भाषा-साहित्य और प्रतिपादन-शैलीके साथ भाल- न मानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ||-अनन्तवीय, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-701, ( हि. से माम) होतीबी और पबमें मानन्दकी नहरेंगा जातीची गा. और महावीरप्रभुकी प्रथम देखनाको रस दिन १५०० वर्ष बोटेखानीने उस दिन ..-... कंगनाको भोजन हो जानेकी पावगारमें बाबोसावजी बस कलकत्ता कराया। और फिर रात्रिको वीरशासन 'जयन्तीका वार्षिक में एक कीर्ति-स्मकी स्थापना बिवामीर की थी असा हुआ जिसमें समापतिका भासन स्यागमति पंडिता और उसपर उचमसंगमर्मरपर बने एकप स्पति-पाक बाबाईजीको प्रदान किया गया। बा. बोटेलालजीके (memorial tablet) की स्थापना करनी थी। इस हृदय-प्रावक स्वागत भाषण और चन्दाबाईजीके हदयस्कृति-पाककी स्थापनाका श्रेय मुके प्रदान किया गया, स्पर्शी भाषणले अनन्तर अनेक विद्वानों महत्वपूर्ख भाषण जिसके लिये मैंबाबोदेबाबजीकागतीमामारी हुए जिनमें वीरमगवानकी खोकसेवामों और उनके शासन जिस महान ऐतिहासिक घटनाकी वादगार कायम करने पर प्रकाश डाला गया तथा वीरमासन-जयन्ती-पर्वके महत्व विधेयरपतिपटक स्थापित किया गया उसके सम्बन्ध की घोषणा की गई। उसी समय एक प्रस्ताव पास किया मैं उसी समय और स्थानपर उपस्थित सजन मिसे ग्यारह गया जिसमें सायसहस्राब्दि-महोत्सबके अवसरपर विद्वानोंने संक्षेपमें अपने जोहार्दिक उद्गार व्यक्त किये साहित्य-प्रकाशन कतिस्तम्म-स्थापन और साहित्य-सम्मेबेबीमार्मिक थे, उन्हें सुनकर ब्वय गद्गद् हुमा समादिक प्रायोजनपर जोर दिया गया। अगले दिन ८ जाता था-उमा पता था-और वीरभगवानकी उस जुखाईको सुबह 6 बजेके करीब जो.जल्ला हुमा उसमें भी प्रथम देशनाके समयका साक्षात चित्रमा अंकित हो रहा प्रस्ताव पास किये गये। बेसब प्रस्ताव जैनमित्रादि पत्रों था।मैचो प्रगल करनेपर भी अपने माँसुमोको रोक नहीं मैंप चुके हैं। पेपरके मार्टिनेस-वश होने वाले स्थानासका। इस समय चारों ओर जो प्रभाव ज्यात या और मावके कारण इस समय यहाँ नहीं दिये जारहे है। जैसा कुछ भानन्दकापा हुभा था उसे शब्दोंमें अंकित इस उत्सबके प्रायोजन, मातिथ्य-सत्कार और सर्चका करनेकी भुममें शक्ति मही-वह तो उस समय वहाँ उप. सब भार बाबु छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता, सभापति स्थित जनताकी अनुमतिकाही विषय था। ऐसा मालूम वीरसेवामन्दिरने उठाया है, इसके लिये पापको जितना होता था कि कमश्च शक्तिवही काम कर रही और __ मी धन्यवाद दिया जाय वह सब थोता है। वह सबकेशरयोंको प्रेरणा दे रही है। उस समयके भाषण जुगलकिशोर मुख्तार कर्ता विद्वानों उल्लेखनीय नाम (प्रमश:) इस प्रकार है(२)पंडिता पदाबाईजी,(604.कैलाशचन्दजीमाथी (1) पं. फूलचन्दजी सिवानवशासी, (५)न्यापं. वरारीलाल जी कोठिया, (६)पं.परमानन्दजी शासी (०)वा०शतीशचंदजी शीख (बंगाली), (क)बाबचमीचंदजी एम० ए०, (३) बाबोसावजी, (..) बा. सोशलप्रसादजी, (१)वा. अशोककुमारजी (बंगाली)। भाषणानन्धर उस स्थानसे उठनेको किसीकाजी नहीं 'चाहता था। भाकिर मनको मारकर दूसरा प्रोग्राम पूरा करनेके लिये पक्षमा पारसके बाद पहाब पर उपस्थित सारीवाकोपा.कोठेशाबानी कक्षाकचाकी भोरसे शुख मिटाचादिप प्रीतिमोज दिया गया और वह बजे भानन्दकेसाब सम्पन्न हुषा। पर्वतपरसे स्वर मन्दिरों दर्शन और भोजन कर ोनेपर भी पर्वतपरके उसमपूर्वबकी बार बार स्मृति मुबक,प्रकाशक.परमानवशासी वीरसेवामंदिर सरसावा खिये श्यामसुंदरखान श्रीवास्तव द्वाराशीवास्तबग्रेस साहारनपुरम मुंद्रित al If not delivered please return to : VEER SEWA MANDIR, SARSAWA, (SAHARANPUR)" 2. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- _