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________________ सिंहभद्रको वीरोपदेश* [ले०-बा० कामताप्रसाद जैन D. L., M. R. A.S.] बैशालीमें गणनायक चेटकका आवास था। मानते ? क्या मृतमांस खाना विधेय है ? भूल गये, सिहभद्र उनके पुत्र थे। वह इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थे जब तुमने बौद्ध संघके लिये मांस भोजनका प्रबन्ध और संभवतः लिच्छवि गणराज्यकी सेनाके अधि- किया, तब वैशाली में कैसा क्षोभ फैलाथा १२ वैशाली नायक थे। एकदा सिंहभद्र भ० महाबीरकी वन्दना में सड़क-सड़क और चौराहे-चौराहेपर धर्मश्रद्धालु करनेके लिये गये। उन्होंने भ० महावीरको नमस्कार जनताने उस कर्मका विरोध किया था। सबने एक स्वर किया और विनयपूर्वक पूला, "प्रभो ! लिच्छवि राज- से कहा था कि श्रमण गौतम जान बूझकर औदेशि कुमार शाक्यमुनि गौतम बुद्धकी प्रशंसा करते हैं। मांसभोजन करता है, इस लिए उस हिंसाका पातकी उनके मतको अच्छा बताते हैं, यह क्या बात है?" वही है। धर्मात्मा कभी भी जानबूझकर प्राणिवध सिंहभद्रने उत्तर में जो सुना उमका सारांश था:-“गौतम नहीं करते।" सिंहने बीचमें कहा, "नाथ ! यह कैसे? बुद्धके वचन मनको लुभाने वाले इन्द्रायण फलकी जब गौतमने प्राणिवध किया नहीं और न मुझसे बैसा तरह सुंदर है; परन्तु सिंह ! तुम कर्मसिद्धांतके श्रद्धानी करनेको कहा तो वह पातकी कैसे ?" सिंहने समझा कि श्रावक हो; तुम्हें अ.क्रयावादी गौतमके मतसे क्या "मुग्ध जीव हिंसा और अहिसाके स्वरूपको न जानने प्रयोजन ? मुग्ध लिकविकुमार इस भेदको नहीं के कारण ही ऐसा कहते हैं। सिंह ! यह बताया कि चीनते। जो कमों के फलको भोगने वाले आत्माके तुम मेरे पास कैसे आये १ऐसे ही न कि पहले तुम्हारे अस्तित्वको भी स्पष्ट नहीं बता सकता' और जो प्रकट मनमें यह भाव उदय हुआ कि चलो सातपुत्र महावीर हिंसावाद-मांसलोलुपताका संवरण नहीं कर सकता, भगवानसे इस शंकाको निर्वृति करें ? इस भावके वह गुरु कैसा? क्या तुम आत्मद्रव्यमें विश्वास नहीं अनुरूप ही तुमने कमें किया। यह तुम्हारी भावकिया रखते और क्या तुम जीवों के पातमें हिसा नहीं का स्थूलरूप था-उसकी सूक्ष्म प्रतिक्रिया तुम्हारे मानसक्षेत्रमें उस भावके उदय होते ही हो ली! अत*लेखकने जैन मित्रमंडल दिल्लीक. श्राग्रहसे भ. महा एव प्रत्येक कर्म भाव और द्रव्य रूपसे दो तरहका वीरका जीवन-चरित्र पुन: लिखा है। उस ही अप्रकाशित होता है। हिंसा और अहिंसा भी दो तरह है (१) भावहिंसा (२) और द्रव्याहिंसा। इनमें भावहिंसा पुस्तकका प्रस्तुत लेख एक अंश है। बौडग्रंथ 'विनयपिटक' में सिंह सेनापति द्वाग बौद्धसंघको मांसाहार कराने और प्रधान है । उसके होते हुये द्रव्य हिंसा की जावे, चाहे निन्ध जैनियों द्वारा उसका विरोध करनेका उल्लेख है न की जावे; परन्तु व्यक्ति हिंसाका अपराधी होजाता स्योंकि प्रमत्त चित्त-क्रोध, मान, माया, लोभके उसमें सिंहके भ. महावीरक निकट जानेका भी उल्लेख है। इस घटनाको पल्ववित-रूप देखकर लेखकने यह प्रकरण वश होकर वह अपने व अन्य प्राणीके भाव प्राणोंका लिखा है। आशा है, यह क्रम उपयोगी और रोचक प्रति हनन करता है-उसके परिणाम उतने ही फर हो भासित होगा। सिंहके निमित्तसे अहिंसा-तावका निरूपण जाते हैं, जितने कि प्राणिवध करते समय एक हत्यारे के होते हैं। सम्राट् श्रेणिककी बात, सिंह! तुमने सुनी जिनेन्द्र महावीरने किया हो तो आश्चर्य ही क्या ?-ले. १बौद्ध ग्रंथों में मात्माके अस्तित्वको 'प्रवक्तव्य' कहकर टाल होगी। राजगृहमें कालसौकरिक नामक कसाई रहता दिया गया है। २ इस समय सिंह बौद था।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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