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________________ ३६ अनेकान्त [वर्ष ६ वान श्रद्धालु जिज्ञासुकी तरह सदैव अपने ज्ञानमें नम्रता, दयालुता तथा प्रेमको अपनाएँ, सरल बढ़ोतरी करनेके लिये तय्यार रहें। अपने पथप्रदर्श- व्यवहार करें, सादा रहन सहन हो, विचार उच्च हों कोंके प्रति श्रद्धा और भक्तिका भाव बनाये रक्खें, दीन-दुखी जीवों के प्रति करुणा स्रोत बहता हो,जोबीत पारस्परिक विश्वास बनाये रखें । जैसे युद्ध-स्थल में एक गया उसका राम न करें, कलकेलिये फ्रिकरन करें,वर्त सैनिक विना किसी प्रकारकी चूंचराके अपने कमानके मानमें रहना सीखें,परिश्रमसे डरें नहीं। जैसे एक चालक हुक्मको मानकर आगे बढ़ता चला जाता है उसीप्रकार अपने खेलमें मग्न होकर रंजायमान होता रहता है एक कार्यकर्ताको अपने कप्तानकी आज्ञाका पालन ठीक उसी तरह अपने कार्य में संलग्न होकर हर्षभाव. करना चाहिये, जहाँ बह हुक्म दे जाना चाहिये, जो के माथ उसे पूरा करें, निराशाको अपने पास फटकने बह हुक्म दे बजालाना चाहिये । इस प्रकारक विश्वास न दें। यदि इन विचारों के साथ किसी संस्थाके संचातथा भाज्ञा-पालनके बिना संसारके अन्दर कोई भी लक गण कार्य करते हैं तो अवश्य सफलता उनको बड़ा कार्य कोई भी व्यक्ति तथा कोई भी संस्था नहीं प्राप्त होगी, उनकी शुभ मनोकामनायें पूर्ण होंगी और कर सकती। उनकी शुभभावनाओंकी पूर्ति ही उनका पुरस्कारहोगा। समझे, पहले सुख-दुख क्या है? दम्भ-द्वेष से कट-कट मरतेजग में सुन्दर जीवन क्या है? रक्त पान करते जो पल-पलइस छोटे से एक प्रभ की- मानवता की इस प्याली से- श्रात्म-शान के नरु पर लटकेछोटी सी परिभाषा क्या है? आओ कवि! कुछ रस बलकाएँ! उन्हें मिलेंगे यहाँ अमर-फल ! 'माया, तृष्णा-अहंकार 'दुग्व' उल्टे-पैरों आँख मीच करत्याग-तपस्या 'सुन्द' कहलाएँ ?? पश्चिम से पूरब को श्राएँ! मानवता की इस प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि! कुछ रस छलकाएँ ! श्राश्रो कवि! कुछ रस छलकाएँ! माया-मकड़ी का सा जाला श्राज विश्व-संकट फैला है, हद करता ही जाना बन्धन !. मानवता का मन मैला है। और स्याग से मिलना, मानव ! मानव ! ज्ञान कहाँ पर खोया, परमानन्द मोक्ष का साधन ! काशीगम शर्मा 'प्रफुल्लित' अंधकार का भ्रम फैला है। स्यों न दु:ख के कंटक पथ को 'बो कर बीज बबूल-खोजते, त्याग परमसुख-पथ पर श्राएँ! मीठे श्राम' कहाँ से खाएँ! मानवता की हम प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि ! कुछ रम छलकाएँ! आश्रो कवि! कुछ सुख छलकाएँ ! 'सत्य' शान्ति का सुन्दर सागर, करनी का सब फल पाते हैं, जीवन में नव-संदन भरना। पाप, पुण्य से जल जाते हैं। और 'अहिंसा' धर्म मान कर शील-क्षमाके उस विवेक सेमानव भव-सागर से तरता! दुख भी तो सुस्व बनजाते हैं! हिंसा के इस घोर कष्ट से काँटों में प्रसून हँस उठते, सारे जग का पिंड छुड़ाएँ ! पण्डित दुख में सुख झलकाएँ ! मानवता की इस प्याली से मानवता की इस प्याली सेश्रामो कवि ! कुछ रस छलकाएँ। आयो कवि! कुछ रस छलकाएँ!
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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