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________________ ३८ अनेकान्त [ वर्ष ६ व बांध चुके हो, है। तुम पहिल नरमीका फल है।' श्रेणिकने चाहा कि वह हिंसाका व्यापार छोड़दे। है और धीवरके द्रव्यहिंसा तो नहीं है, परन्तु भात्र कालसौकरिक हिंसानन्दी है--वह बोला, 'इस काममें हिंमा जटाजूट हैं । इस लिये ही वह महापापी है। दोष ही क्या है। जो मैं इसे छोड़ दूँ । इसके द्वारा “इसी कालसौकरिकका लड़का है--वह भव्य है। मैं सहस्राधिक मनुष्योंकी रसना-तृप्ति करनेका श्रेय हिंसक व्यापार वह नहीं करता! उसके सगे-संबंधियों और अर्थलाभ पाता हूँ। ऐसा अच्छा धंधा मैं नहीं न समझाया और दबाया, पर वह तो भी विचलित न छोडूंगा । श्रेणिकने लालच दिया, परन्तु वह न माना। हुआ-कसाई न बना ! उसने स्पष्ट कहा कि यदि तुम हठात् श्रेणिकने राजदंड दिया और उसे अंधकूपमें मेरा दुःस्त्र बँटालो तो मैं समझ तुम मेरे पुण्य-पापके बन्द करा दिया । वह समझ कालसौकरिक अब हिंसा भागी बनोगे ! यह कहकर उसने भैंसेके गलेपर नहीं, नहीं कर पायगा । श्रेणिक वीरसमोसरणमें आए और अपने पैरमें कुल्हाड़ी मारी और दुखसे वेहोश होगया बोले, निम्रन्थ सम्राट् ! मैंने कालसौकरिकमे हिमाछड़ा -कोई भी उसके दुखको न बँटा पाया सबको दी; अब मेरी गति क्या होगी ? उन्होंने उत्तरमें सुना अपनी अपनी करनीका फल स्वयं भुगतना पड़ता है। -राजन् ! पूर्वमें बंधे हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल उसके सगे संबंधी चुप हो चले गए। जानते हो, उदयमें अवश्य आता है । तुम पहिले नरककी श्रायुका उन्होंने क्या कर्मबंध किया ? सगे संबंधियों के बंध बांध चुके हो, इसलिए वह हट नहीं सकता। मय भाव थे, इसलिए उन्होंने पाप कमाया और कालकालसौकरिकके भी तीव्र मिथ्यात्व और चारित्र मोह- सोरिक-पुत्र दयालुहदय था-उसने अहिंसक भावोंसे नीय कर्म उदयमें आरहे हैं। इसी लिए वह हिंसाको पुण्य कमाया ! और सुनो सिंह! तुमने प्रसिद्ध वैद्यनहीं छोड़ पाता । श्रेणिक ! अंधकूपमें तुमने उसे राज जावकका नाम सुना है-वह रोगमुक्त करने के डाला अवश्य, परन्तु वहां भी उसने मिद्रास मंस बना लिए चीरफाड़ भी करते हैं। एक रोगीक उन्होंने बनाकर मारे हैं! उन मिट्टीके भैसोंको मारते समय चीरा लगाया--बिल्कुल सावधानीसे; परन्तु भाग्यभी उसके जैसे ही करभाव थे और वही हिंसानन्द था वशात् उसकी हृदयगति क्षीण होगई और वह मर जो उसे सचमुचके भैमोंको मारते समय होता था। गया ! क्या राजा जावकको अपराधी कहेगा और उसे श्रेणिकने देखा तो यह सच पाया । इस लिए सिंह प्राणदण्ड देगा ? नहीं न ? इसीलिये कि जीवकका हिंसाकी और अहिंसाकी परख मनुष्यों के भावोंसे ही भाव रोगीको मारनेका नहीं, जिलानेका था । बस, की जाती है। एक कृषक और एक धीवर है। कृषक मीलों अहिंसाके सिद्धान्तकी कुजी यही है । भावों पर ही जमीन जोत डालता है और त्रस-स्थावर जीवोंकी वह अवलम्बित है। हिंसाके भाव हों फिर प्रगट चाहे विराधना-द्रव्यहिंसा खेत जोतनेमें होती है। दूसरी हिसा करो या न करो या दूसरे से कराओ या न करा भोर धींवर बंशीडाले तालाव किनारे बैठा रहता है- या व्यक्तिको पापबंध होगा । कृत-कारितविल्कुल सावधान, जरा खटका हुया कि समझा, दना एक समान है । मांसभक्षक भले ही प्राणिवध न मछली पकड़ ली, परन्तु मछली फंसती एक भी नहीं! करते हों, परंतु उसके भोजनके लिये प्राणियोंका वध हां, उसके भाव मछली पकड़ने में ओत प्रोत रहते हैं। हाता है। इसलिये उनको कारित और अनुमोदना बतायो, उनमेंसे कौन हिंसाका अधिक पातकी है? हिसाका दोष अवश्य लगता है। अब सिंह ! बतायो किसान नहीं, धीवर ! किसानके भाव हिंसाका अभाव क्या मृतमांस खानेवाला हिंसापापका दोषी नहीं है।" सिह ने कहा, "अवश्य है नाथ ! मैं भूला था१दिगम्बरीय 'उत्तरपुराण' में कालमौकरिकका उल्लेखमात्र लिच्छवि कुमार भी भूले थे। निर्ग्रन्थ सम्राट् ! आपकी है। उसका विशेष वर्णन श्वेताम्बरीय ग्रंथोम मिलता है। बचन बर्गणाओंसे अज्ञान मिटा है।" वहाँसे ही लिखा गया है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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