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दैव
और पुरुषार्थ
[ले०-पुरशोत्तमदास मुरारका साहित्यरत्न] .
देवसे यहां हामरा तात्पर्य माक्षात् परमात्म्ग अथवा कल्पना माधुर्यमें अविश्वास करना एवं उसे अकर्मण्यता ईश्वरसे नहीं, हमें इसे अधिक व्यापक दृष्टिकोण अर्पण कर प्रदान करना है। इसकी अनुभूति प्राप्त करना होगी। देवमें वे ममस्त अदृश्य मनुष्य के दैव उसके पुरुषार्थके अधीन है। दैव मनुष्य शक्तियाँ तथा प्रेरणाएं एवम् विशेषताएं अंतर्भूत होती हैं का दास है। देवत्व मनुष्यकी चेरी है। मनुष्यका देवत्वमें जिनका संबंध स्पष्टतः मनुष्यकी कृतिसे नहीं। देवका तात्पर्य विकास होता है। शक्तिशाली मनुष्य दैवत्वके विश्शस पर भाग्यसे भी है। मनुष्य जीवन में उसके जीवनकी सफलता बैठ अपनी शक्तियोंका लोर करनेकी मूर्खता नहीं करते । अथवा असफलता, उसका उत्थान और पतन, उसकी संमार में महान्से महान् मनुष्य जो आज देवत्वकी उपाधिसे उन्नति अथवा अवनति कुछ तो उसके भाग्य पर अवलं बिन विभूषित किए गए है, वे मनुष्य ही थे। उन्हें भी हमारे रहती है और कुछ उसके पुरुषार्थ पर। परंतु यदि सूक्ष्म जैसा ही हदय था, मस्तिष्क था, गग-द्वेष थे, काम, क्रोध, दृष्टिसे तथा वास्तविक परिस्थितियोंका अवलोकन तथा लोभ मोह इत्यादि विभिन्न प्रकारके विकारोसे ये भी परिपूर्ण अध्ययन किया जाय तथा संसारके इतिहासमें वर्णित उन थे. परन्त उन्होंने अपने परुषार्थ के बल पर, अपनी असामहान् श्रात्माश्रोके चारित्रिक विकासका अध्ययन किया धारण लगन तथा असामान्य अध्यव्यवसायके द्वारा परिस्थिजाय जिन्होंने केवल अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपनी श्राध्या-तियोंको अपने अनुकल बना लिया और देवत्व के दिव्य त्मिक एवं मानमिक शक्तियोंके बल पर समस्त विश्वसे देव आसन पर श्रारूढ़ हो विश्व ही नहीं अखिल मानवताके नामक किसी भी शक्तिका--देव नामकी किसी भी अदृश्य लिए ग्राह्य श्रादर्श बन गए। वे परिस्थिातयों द्वारा प्रभासमर्थताका नाम शेष की कर दिया, उसका विलोप ही कर वित नहीं होते अपितु परिस्थितियाँ उनके अनुरूप प्रभावित दिया, तब कहना पड़ता है कि देवकी अपेक्षा पुरुषार्थ होती है। ऐसी शक्ति है इस मानवकी, उसके पुरुषार्थकी, सामथ्य-सम्पन्न है।
उसके अध्यव्यवसाय, लगन तथा जान-तकी । मनुष्य शक्तिसंमारमें दैव नामक किसी भी विभिन्न शक्तिका अस्ति- शाला होकर भी अपनी शक्तियोंस अपरिचित है, अपने में स्व है अथवा नहीं, इस सम्बन्धमें भिन्न २ विचारधाराएँ सामर्थ्य रखकर भी दुर्भाग्यसे अाज उसे विस्मृत कर बैठा है दृष्टिगोचर हती है। मानव-समुदायका अधिकांश भाग दैव- और भाग्यके भगेसे बैठ, अकर्मण्यताका परिधान धारणकर, वादी है। सत्य तो यह है कि देव अथवा भाग्यको ही सब श्रालस्यको निमंत्रित कर, अपने स्वर्णतुल्य जीवनकी राखकुछ मानना मनुष्यकी दैविक शक्तियोंको ही लांछित करना गेली कर रहा है। आज वह दैवत्व में ही अपने समस्त है । यह मनुष्यका, उसकी बौद्धिक प्रतिभा ता.मानसिक कायौंका आरोप करता है । श्रास्तिकताके इस विषने विकाशका ही अपमान है। देवनामक कार्यकी उत्पत्ति तथा साम्राज्योंको खण्डहरों में परिणत कर दिया, प्रसादोंके प्रासाद उपयोग भी यदि मनुष्यकके लिए है तो यह भी स्वीकार मिट्टीमें मिला दिए, संसारसुख और श्रानन्द त्याग विरक्तिकरना होगा कि वे उसीका आधिपत्य स्वीकार करती हैं। मय तथा जीवनशूल्य जीवन व्यतीत करनेका आदेश और यदि भाग्यके ही विश्वास पर रहा जाय तो विश्व यह अक- उपदेश दे जीवन के प्रति तिरस्कारको प्रोत्साहित किया तथा मण्य मनुष्योंका, आलसी पुरुषोंका तथा जंगली मनुष्योंका अपने विषैले प्रभावसे मनुष्यको नशेमें चूर कर उसे जमघट हो जाएगा। क्यों कि देव पर विश्वास मनुष्यकी पतनोन्मुख बना रहा है । श्राज श्रावश्यक है कि हम अपनी स्वाभाविक शक्तियों तथा उसकी विकसित बुद्धि और सच्ची और वास्तविक शक्तियों को पहचाननेका प्रयास करें।