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________________ अनेकान्त [वर्ष ६ देखने में आता हमारा ध्यान कभारण करना के साथ देखने में आता ही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और मान और मायाको क्रमसे घटायें, फिर लोभको घटाने भावकी व्यवस्था पर तो हमारा ध्यान कमी पहुँचता ही के लिय सत्य बोलनेका अभ्यास कीजिये, इसके बाद ही नहीं है। किसके प्रेत हमें क्षमा धारण करना लोभ घट जानेपर इन्द्रियोंकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको चाहिये किसके प्रति नहीं, किसके प्रति हमें मृदु वनना रोकिये, फिर शरीरको कष्ट-सहनके योग्य बनाइये, चाहिए, किसके प्रति नही, किसके साथ हमें सरल तत्र कहीं अपने आरामके लिये संग्रहीत वस्तुओंका बर्ताव करना चाहिये और किसके साथ शाम, दाम, दान (त्याग) कीजिये और अन्तमें अकिंचन बनकर दण्ड तथा भेद रूप नीतिका बर्ताव करना चाहिये, अर्थात् ऐश-आरामकी चीजोंमें ममत्व घटाकर पांचों किसके प्रति हम सच बोलें क्सिके प्रति नहीं, इत्यादि इन्द्रियों के विषयोंसे सर्वथा विरक्त हो जाइये; बस प्रकारसे दश धर्मोंके पालनमें हम द्रव्यको और इसी आपकी आत्माका विकार नष्ट हो जायगा और वह प्रकार स्थान, समय और अपनी शक्तिको बिल्कुल अपने स्वाभाविक धर्मको पाकर चमक उठेगा। धर्मउपेक्षितकर बैठते हैं। यही कारण है कि अहिंसक पालन करनेका मकसद (उद्देश्य) भी सिर्फ इतना ही और क्षमाधारी जैनी कायर और बुज़दिल कहे जाते है। इस लिये यदि दरअसल हम इस मकसद तक हैं। यही बात बाकीके नौ धर्मों के विषयमें भी है। पहुँचना चाहते हैं तो हमें ऊपर बत्तलाई हुई दर्शन और इसीका परिणाम है कि केवल धर्मका ढांचा ही ज्ञान-चारित्रमय धामिक व्यवस्थाको अपनानेका पूरा हमारे पास रह गया है उसमें सात्विकता अथवा प्राण प्रयत्न करना चाहिये। इसीसे व्यक्तिका, समाजका नाम मात्रको भी अवशेष नहीं हैं। साथ ही इन दशों और देशका भला होगा , आजका निष्पारण थोथा धर्म धों के विकासक्रमको भी हम भुला चुके हैं, हम दश- ही हमारे लिये समाजके लिये और देशके लिये भी लक्षण पर्वमें एकाशन, उपवास व नीरस भोजन करके अभिशाप बना हुआ है और इसीसे हम, हमारा शरीरको कांटा सा तो बना डालेंगे लेकिन कषायोंकी समाज और हमारा देश सभी पतनके गर्त में गिरते मात्रामें नाम मात्रकी भी कमी नहीं आने देंगे! जा रहे हैं। यह दशा अब और अधिक सा (क्राबिल वास्तवमें धर्मके भेदोंको जिस क्रमसे गिनाया बर्दाश्त) मालूम नहीं होती, इसका शीघ्र अन्त होना गया है वह बड़ा ही महत्पूर्ण है। पहिले श्राप क्रोध, चाहिये। कीके नी धर्मोके विषका ढांचा ही ज्ञान-चारना चाहिये । इसीसे व्यापण थोथा धर्म अन्तर [रचयिताः-जैन मुनि अमृतचन्द्रजी 'सुधा'] मानस मानसमें अन्तर है। बड़ी खड़ी है आज हमारे सन्मुख कैसी जटिल समस्या । झंकृत था जोवर देश कभी अपने गौरवके गानोंसे । सुलझनसकती अरे कहो क्या? विफल हुई सम्पूर्ण तपस्या । वह श्राज शून्य होता आता नित नितके नव अपमानोंसे । सुप्त पड़ी है वही भूमिका जिसपर उन्नति पथ निर्भर है। नाम हमारा कभी अपर था काम हमाग आज अपर है। मानस मानसमें अन्तर है। मानस मानस में अन्तर है । रह करके परतन्त्र हमारा क्या कुछ जीनेमें है जीना । वीरोंका वह खून अरे क्या? निकल गया बन पतित पसीना। कही प्राज पास्तित्व हमारा क्योंकर तुलालचरता पर है। मानस मानसमें अन्तर है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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