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किरण १]
धर्म क्या है
होना, इस भावनाको सफल बनाने के लिये विकारको बुद्धिके) अभावमें पैदा होता है। जो इन चार गुणों
नष्ट करनेके साधनोंका तथा उनके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र के प्रगट हो जानेपर कर्तव्य करनेके लिये तैयार होता
काल और भावका अपनी बुद्धि (दिमाग) द्वारा 'नर्णय है वह समीचीन उद्देश्यवाला माना जाता है और ऐसे
करना और फिर उन साधनोंपर अपनेको चलाना ये लोगोंको ही जैनधर्म में 'सम्यग्दृष्टि' कहा गया है। यह तीनों अविभाज्य अंग हैं। परन्त जैसा कि समीचीन उद्देश्य वाला याने सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यदि कुमति, हम पहिले कह पाये हैं, उद्देश्यके अनुकूल साधनों पर कुश्रन और विभंग तथा ज्ञानाभावरूप अज्ञान पूर्वक
चलना ही मुख्य धर्म मानना चाहिये; कारण कि श्राद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर योग्य-अयोग्य
त्मकल्याण की भावना और उसके साधनभूत उपायों का विचार किये बिना ही-कोई कर्तव्य करनेको तयार का परिशान रहते हझा भी जब तक इन उपायों होता है तो उसका वह काव्य सफल नहीं हो सकता।
को अमलमें नहीं लाएगा तब तक वह आत्मकल्याण इसलिये कतव्य करनके पहिले उल्लिखित अज्ञान को प्राप्त नही हो सकता।यही सब है कि धमके मिथ्यात्वके अभावमें पैदा होनेवाले सम्यग्ज्ञानका भेदोंका वर्णन कतव्य या चारित्रको ही धर्म मानकर अपने समीचीन उद्देश्यके साधक उपायों के परिज्ञान- किया गया है। का तथा उन उपायोंपर अमल करनेके लिये योग्यतम धर्मके भेद, जिनके आधार पर दशलक्षणपर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके परिज्ञानका होना भी दि० जैन समाज में प्रचलित है, क्षमा,मादेव, आजव, अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि स्वामी सम- सत्य, शीच, मंयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मन्तभद्रने धर्मका लक्षण कर चुकनेके बाद उसकी व्या- चर्य येश और ये सब क्रमसे विकसित होनेख्या "सहष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः" के वाली चारित्रकी ही विशेष अवस्थाएँ हैं। लेकिन जिस रूपमें की है।
प्रकार क्षमाका उलटा क्रोध(करता)करना,मार्दवफा सल्टा किसी भी प्रकारकी सफलताके लिये समीचीन
मान (अहंकार) करना, आजेवका उल्टा माया (छलउद्देश्यरूप सम्यग्दर्शन, उम उद्दश्यकी पूर्तिके साधनभूत
कपट) करना, सत्यका उलटा असत्य बोलना, शौचका उपायोंका तथा उन उपायोंको योग्यतन रीतिमे अमल
उलटा लोभ(यात्मभिन्न पदार्थों में तृष्णा) करना, में लानेके लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी व्यव
संयम का उलटा असंयम (पांचों इन्द्रियोंकी स्वच्छन्द स्थाका परिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और उन उपायोंको
प्रवृत्ति) करना, तपका उल्टा शरीरको सुषुमार(कष्टअमलमें लानेरूप सम्यकचारित्र इन तीनोंकी एकवा
सहनके अयोग्य) बना लेना, त्यागका उलटा पर क्यता (संगठन) जिस प्रकार उपयुक्त रीतिसे जैनधर्म
पदार्थों का संग्रह करना, आकिंचन्यका उल्टा ऐश-आराम में बतलाई है उसी प्रकार दूसरे मतावलंबी भी प्रका
की चीजोंमें ममत्व रखना, और ब्रह्मचर्यका उल्टा रान्तरसे इस बातको स्वीकार करते हैं। कर्तव्यवादियों
कुशीलमें प्रवृत्त होना अर्थात इन्द्रिय-विषयों में आसक्त की ईश्वरमें क्रमसे इच्छा, ज्ञान और कृतिकी मान्यता
रहना (मर्यादाके बाहिर पाचों इन्द्रियों के विषयोंका जैनधर्मकी उल्लिखित मान्यतासे सर्वथा भिन्न नहीं
सेवन करना), इन सबको अधर्म कहा गया है उसी कही जा सकती । सूक्ष्म विचार करनेपर मालूम होगा
प्रकार निरुद्दिष्ट अथवा दूषित उद्देश्यको लेकर-द्रव्य, कि इन दोनों मान्यताओंमें प्रायः शब्दभेद ही है
क्षेत्र, काल और भावका सम्यक् विचार किए विना अर्थभेद नहीं है।
ही-इन्हीं दश धर्मोंका पालन करना भी अधर्म माना इस तरह यद्यपि आत्मनिष्ठ विकारको नष्ट करके गया है। कभी-कभी मनुष्य बिना प्रयोजन ही क्षमा, आत्माके स्वतंत्र निजधर्मको प्राप्त करनेरूप आरम- मार्दव आदि रूप प्रवृत्ति करता है और कभी कभी अल्याण के लिये विकारको नष्ट करनेकी या यात्म- वह दूषित उद्देश्य को लेकर भी करता है। मान-बड़ाई कल्याण करनेकी भावनाका प्राणियोंके हृदयमें जाग्रत के लिए दानादि देना, व्रत-उपवास करना तो बहुतायत
कप्टो लोभ(आत्मभिम (पांचों इन्द्रिमामार(का