SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म क्या है ? (लेखक-श्री ६० वंशीधर व्याकरणाचार्य) मेरे जेलकी झंझटोंसे बाहर आते ही 'अनेकान्त' प्रतिदिन अनुभवमें श्रानेवाली बात है। और तब 'पत्रके व्यवस्थापक श्री बाबू कौशलप्रसादजीके तकशास्त्रियों के दिमारा में सहसा यह कल्पना उठती है श्रामपणे पत्रोंको पाकर मैं इस विचारमें पड गया कि चूंकि विकार पर-निमित्तक है इसलिये वह नष्ट किया कि इस वक्त क्या लिखू ? इस वक्त कुछ भी लिखने जा सकता है, और इस कल्पनाके आधारपर ही वे की अपनी असमर्थताको मैं बतलाने वाला ही था कि उसके नष्ट करनेका उपाय सोचते हैं। बस, इसी उपाय समीपमें आते हुए दशलक्षण (पर्युषण) पर्वका ख्याल का नाम जैनधर्म में 'धर्म' कहा गया है। यही कारण हो पाया और मैने स्थिर किया कि धर्मकी व्याख्या है कि स्वामी समन्तभद्र धर्मका लक्षण "संसारकरनेका यह उपयुक्त अवसर है, इसलिये इसके विषय दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे" के रूप में हमारे में ही कुछ प्रकाश डाला जाय। सामने रख रहे हैं। मुझे इस समय यह लेख बहुत ही संक्षिप्त रूपमें उल्लिखित विकार क्रियाके-प्रयत्नके द्वारा ही नष्ट पाठकोंके सामने रखना है इसलिये जितना महत्व- किया जा सकता है, इसलिये प्रयत्नको ही मुख्यधर्म पूर्ण यह लेख होना चाहिये उतना तो नहीं होसकेगा, समझना चाहिये। इस प्रयत्नको ही जैनधम में करव्य, फिर भी विश्वास है कि यह धमके रहस्यको समझने पुरुषार्थ, व्यापार, आचरण या चारित्र आदि संज्ञा में एक मार्ग-दर्शकका काम करेगा और इसलिये दी गई है। परन्तु केवल प्रयत्न ही धर्म है ऐसा जैनपाठकोंको कम रुचिकर नहीं होगा। धर्म नहीं मानता । जैनधर्मका दृष्टि में बह प्रयत्न र्याद "वत्थुसहाओ धम्मो” अर्थात् प्रत्येक वस्तुका निरुष्टि है या दूषित उद्देश्यको लेकर किया गया है स्वतंत्र निजभाव-परनिमित्त-निरपेक्ष परिणमन(अव- तो वह कदापि धर्म नहीं हो सकता । उस प्रयत्नका स्थान) ही उस उस यस्तुका धर्म है, यह जैनधर्मकी उद्देश्य समीचीन होना चाहिये, तभी वह धर्म कहा जा मान्यता है । इम मान्यताके अनुसार जगतकी चेतन सकता है। उद्देश्यकी समीचीनताकी पहिचान आत्मामें (श्रात्म) अचेतन (अनात्म) सभी वस्तुएँ कोई-न-कोई क्रममे १प्रशम, रास्तिक्य, ३अनुकंपा और संवेग इन स्वतंत्र धर्मवाली सिद्ध होती हैं और इसीलिये आत्मा चार गुणोंके आविर्भावसे होती है। इनमेंसे प्रशम गुण (चेतन) नामकी वस्तुका भी अनात्म (अचेतन) वस्तु- (परमतसहिष्णुता) एकान्तमिथ्यात्व (हटग्राहिता) के ओंसे प्रथक् स्वतंत्र धर्म सिद्ध होता है । परन्तु जब अभावमें, आस्तिक्य गुण, (स्वपरभेदविज्ञान अथवा हम आत्माको मनुष्य, पशु, पक्षी आदि एक दूसरीसे सर्वप्राणिसट्टाव) संशय मिथ्यात्व (अस्थिरचित्तता) बिल्कुल विलक्षण योनियोमें कभी सुख और कभी के अभावमें, अनुकम्मा गुण (श्रात्मकल्याणकी इच्छा दुखके सागरमें गोता लगाते हुए पाते हैं तो यह मान अथवा दूसरे प्राणियोंको कष्ट न पहुँचाकर उनके उपकार लेना पड़ता है कि श्रात्माका निजधर्म विकारी बना की इच्छा) विनयमिथ्यात्व (चापलूसी-मायाचारी) के हुआ है और उसीका यह परिणाम है कि असीम सुख अभावमें और संवेग गुण (पर पदार्थों में अनासक्ति) का अनुभव करते करते ही हम अकस्मात् एक प्रक- विपरीतमिथ्यात्वके (शरीरको ही आत्मा समझना, ल्पित दुखके सागरमें गोता लगाने लगते हैं, यह दसरे प्राणियोंको सतानेमें आनन्द मानना या इसी कोई नई बात नहीं है-यह तो प्रत्येक मनुष्यके प्रकारकी और भी विविध प्रकारसे होनेवाली उलटी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy