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किरण १]
अनेकान्त-रस-लहरी
जाय और मध्यकी उस नं. १ वाली लाइनको ही स्वतन्त्र ही होते हैं, स्वाभाविक नहीं। बोटेके अस्तित्व विना बड़ापन रूपमें स्थिर रखा जाय दूसरी किसी भी बड़ी-छोटी चीज और बड़े अस्तित्व विना छोटापन कहीं होता ही नहीं। के साथ उसकी तुलना या अपेक्षा न की जाय. तो ऐसी एक भपेचासे जो वस्तु बोटी है वही दूसरी अपेक्षासे बड़ी हालतमें तुम इस लाइन नं. १ को स्वतन्त्र भावसे-कोई है और जो एक अपेक्षासे बदी है वही दूसरी अपेक्षासे छोटी मी अपेक्षा अथवा दृष्टि साथ न लगाते हुए-छोटी कहोगे है। इसी लिए कोई भी वस्तु सर्वथा (विना अपेक्षाके) या बही?'
छोटी या बद्दीन तो होती है और न कही जासकती है। विद्यार्थी--ऐसी हालतमें तो मैं इसे न छोटी कह किसीको सर्वथा छोटा या बड़ा कहना 'एकान्त' है-एक दृष्टि सकता है और न बड़ी!
से छोटा और दूसरी दृष्टिसे बड़ा कहना 'अनेकान्त' है, जो अध्यापक--अभी तुमने कहा था 'इसमें दोनों (छोटा- मनुष्य किसीको सर्वथा छोटा या बड़ा कहता है वह उसको पन और बड़ापन) गुण एक साथ हैं फिर तुम इसे छोटी सब पोरसे अवलोकन नहीं करता-उसके सप पहलचों या बद्दी क्यों नहीं कह सकते? दोनों गुणोंको एक साथ अथवा अंगोंपर दृष्टि नहीं डालता- सबोरसे उसकी कहनेकी वननमें शक्ति न होनेसे यदि युगपत् नहीं कहसकते तुलमा ही करता है, सिक्केकी एक साइड (Sida)को तो क्रमसे तो कह सकते हो ये दोनों गुण कहीं चले तो देखनेकी तरह वह उसे एक ही ओरसे देखता है और इस नहीं गये? गुणोंका तो प्रभाव नहीं हुआ करता-भले ही लिये पूरा देख नहीं पाता। इसीये उसकी दृष्टिको सम्यग् तिरोभाव (भारवादन) हो जाय, कुछ समयके लिये उनपर दृष्टि नहीं कह सकते और न उसके कथनको सबा कथन पदों पड़जाय।
ही कहा जासकता है। जो मनुष्य वस्तुको सब ओरसे विद्यार्थी फिर कुछ रुका और सोचने लगा ! अन्तको देखता है, उसके सब पहलुओं अथवा अंगोंपर दृष्टि डालता उसे यही कहते हुए बन पड़ा कि-'बिना अपेक्षाके किसी है और सब ओरसे उसकी तुलना करता है वह अनेकान्तको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है? पहले जो मैंने दृष्टि है--सम्यगष्टि है। ऐसा मनुष्य यदि किसी वस्तुको इस लाइनको 'छोटी' तथा 'बदी' कहा था, वह अपेक्षासे छोटी कहना चाहता है तो कहता है-'एक प्रकारसे छोटी ही कहा था, अब आप अपेक्षा को बिल्कुल ही अलग है, 'अमुककी अपेक्षा छोटी है, 'कथंचित् छोटी है अथवा करके पूछ रहे हैं तब मैं इसे छोटी या बड़ी कैसे कह 'स्यात् छोटी है। और यदि छोटी-बड़ी दोनों कहना चाहता सकता है, यह मेरी कुछ भी समझ नहीं पाता ! आप हैतो कहता है-'छोटी भी है और बड़ी भी' एक प्रकारसे ही समझाकर बतलाइये।'
छोटी है-दूसरे प्रकारसे बड़ी है, अमुककी अपेक्षा छोटी और अध्यापक--तुम्हारा यह कहना बिल्कुल ठीक कि
अमुककी अपेक्षा बही है' अथवा कथंचित् छोटी और बड़ी 'बिना अपेक्षाके किसीको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है?' अर्थात् नहीं कहा जासकता । अपेक्षा ही छोटापन या
दोनों है। और उसका यह वचन-व्यवहार एकान्त-कदाप्राह बड़ेपनका मापदण्ड है-मापनेका गज़ है? जिस अपेक्षा
की ओर न जाकर वस्तुका ठीक प्रतिपादन करने के कारण गज़से किसी वस्तुविशेषको मापा जाता है वह गज़ यदि उस १
सच कहा जाता है। मैं समझता हूँ अब तुम इस विषयको वस्तुके एक अंशमें भाजाता है-उसमें समाजाता है तो
और अच्छी तरहसे समझ गये होगे।
विद्यार्थी-(पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए) हाँ, बहुत वह वस्तु बबी' कहलाती हैं। और यदि उस वस्तुसे बढ़ा
अच्छी तरहसे समझ गया है। पहले समझने में जो कचाई रहता-बाहरको निकता रहता है तो वह वस्तु 'छोटी
रह गई थी वह भी भव भापकी इस व्याख्यासे दूर होगई कही जाती है। वास्तव में कोई भी वस्तु स्वतन्त्ररूपसे अथवा
है। आपने मेरा बहुत कुछ अज्ञान दूर किया है, और इस स्वभावसे छोटीया बदी नहीं है-स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभाव
लिये मैं आपके भागे नत-मस्तक से छोटी या बड़ी होनेपर बह सवालोटीया बनी ही रहेगी।
अध्यापक वीरभद्रजी भभी इस विषयपर और भी का क्योंकि स्वभावका कमी प्रभाव नहीं होता। और इस लिये
प्रकाश डालना चाहते थे कितनेमें चंय बज गया और किसी भी वस्तुमें छोटापन और बबापन ये दोनों गुण परतन्त्र, उन्हें दूसरी कक्षामें जाना पड़ा। पराश्रित, परिकल्पित, भारोपित सापेक्ष अथवा परापेक्षिक
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०३१-८-४३