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________________ ३४८ अनेकान्त [वर्ष ६ इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि नागजाति धर्म और वास्तवमें नागजातिका इतिहास और जैनधर्मके साथ संस्कृतिकी अपेक्षा सदैवसे अवैदिक रही और अनेक विद्वानों उक्त जातिका संबंध तथा किन किन प्राचार्यों और महा के मतसे तो वह एक प्राग्वैदिक 'अनार्य भारतीय जाति पुरुषांके इतिहासपर उन सम्बन्धसे क्या प्रकाश पड़ता है थी। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि जैनधर्म के साथ उक्त इत्यादि स्वतंत्र लेनीके विषय हैं, जो यथासमय प्रका नागजातिका एक दीर्घकालीन और घनिष्ट संबंध रहा है। शित होंगे। प्रस्तुत लेख में तो मात्र गह दिग्दर्शन कराना नाग-भाषा, नागरी लिपि, नागर शैली मादि, जिन्हें भार- था कि नागजाति भारतीय इतिहामकी एक प्रसिद्ध भारतीय तीय समाजमें जैनोंने ही विशेषकर प्रारम्भमे और अन्त मानव जाति रही है, उसकी सभ्यता बहुत कुछ बड़ी चढी तक अपनाया, इस बातके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अनेक जैना- थी जिम्पके स्मारक और अवशे२ भारतीय सभ्यताके अभिन चार्य और महापुरुषोंने नागवंशमैं ही जन्म लिया था, इस और प्रशंसनीय अहहैं. भले हो भारतवासियोंके हृदयसे अनुमानके लिये भी प्रबल कारण उपलब्ध है। उक्त जातिकी स्मृति भी आज लोप होगई हो। लख.ऊ, ना. १५-१२-४३ कौनसा क्या गीत गाऊँ ? [ओमप्रकाश 'आकुल'] सलाह [ श्री शरदकुमार मिश्र 'शरद'] कौनसा क्या गीत गाऊँ ? या हृदयकी वेदनाओंको हगोद्वारा बहाऊँ ! आज है उद्गार कुन्ठित और नीरव भाव मेरे ! विश्वके वरदान बन अभिशाप मुझको श्राम घेरे ! किस तरह हृत्तंत्री-तारोंमें मधुर झकार लाऊँ! दग्ध-उपवन-कुञ्ज-पुजों में मदिर संगीत कैसा? त्रस्त विहगोंके स्वरों में हाँ, प्रफुल्लित गीत कैसा ? औ' विषादिनि कोकिलाके कण्ठ में क्या नान पाऊँ ! दो दिन हैं, भवसागर नरले !! एक दिन श्राना, एक दिन जाना; इननेघर है क्या इतराना? अपने उरमें साहस भर कर, पाप-पुण्यका मन्थन करले! मोह-मायाकी झिलमिलनामें-- सुध-बुध खोकर नश्वरतामें ! पागल बनकर भटक रहा क्यों ? अपने पथको सोचसमझन्ने ! जिस सुन्दरतार त् मोहित, वह क्षणभंगुर हे कलिका-सी ! मायाका यह जाल अनोखा, इससे बचकर साफ निकलले ! लख-चौरासी जन भटककर , तूने पाई यह नर काया ! मूरख फिर भी भटक रहा क्यो नर होकर नारायण भजले ! भूलभुलैंयाके झंझटमें - खो मत देना यह शुभ अवसर ! फिर पछताए हाथ न आए, जो कुछ करना हो अब करले! दो दिन है, भवासगर तरले !! ढालते थे प्यारको जो-दा! वही नयना बरसते ! मजु-मानसमें अनेको-भाव रद्द रहकर तरसते ! कौनसी पिय साधना है, जो इन्हें रोते हँसाऊँ ? एक रोटीके लिये मरते हुओंका श्राद कन्दन! होरहा विश्वस्थलीपर दानीका नग्न नतंन । फिर भला मैं किस तरह 'श्राकुल' सुमंगल गान गाउँ !! कौनसा क्या गीत गाऊँ ?
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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