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________________ आत्म-शक्तिका माहात्म्य ( लेखक-बा. चन्दगीराम जैन, 'विद्यार्थी ) संमारमें हम दो शक्तियाँ देखते हैं-शारीरिक अधिक हो वहां आसन लगाकर बैठ जाते हैं ताकि और आत्मिक । शारीरिक शक्तिको पशुबल अथवा लोग उनकी प्रशंसा करें और उन्हें भक्त कहकर पुकारें। असुरबलकी संज्ञा भी दी जा मकती है । वे अपने हृदयमें आत्म-कल्याणकी उच्च भावनाको आज केवल लोगोंन आत्मिकमलक महत्वको स्थान नहीं देते। उनको अपनी यात्मशक्तिका भान भुलाकर पशुचलको प्राप्त करना ही अपने जीवनका । नहीं । बाह्य आडम्बरों में ही उन्हें कल्याण-मार्ग दृष्टिध्येय समझ रवाया है। आजका संसार सच्चे हीरेको गांचर होता है। यह उनकी बड़ी भारी भूल है। छोड़कर काँचक टुकड़ेकी ओर आकर्षित होरहा है। बहुतस मूखे केवल शरीरको ही धोने मांजने में जितना सम्मान आज पशुचलको प्राप्त है, उसका वह लगे रहते है, शरीरकी पूजा करना ही अपना धर्म क़तई पात्र नहीं है । पशुचल जब कुछ ही मनुष्योंको समझते हैं और गङ्गा यमुनादि नदियों तथा कूप अपनी ओर आकर्षित कर सकता है तच आत्मिक आदिमें स्नान करनेको ही आत्म-कल्याणका मागे बलसे हम संमारके हृदय-पटल पर अपना आधिपत्य समझते हैं। परन्तु वे अपनी आत्म-शक्तिके प्रति जमा सकते हैं। आत्मिकबालसे इस लोकको ही नहीं, उदासीन हैं। शरीर-सम्बन्धी क्रियाएँ ही उनके लिए परलोकको भी हम अपने वशमें कर सकते हैं। इह- सब कुछ है। ऐसे लोगोंको लक्ष्य करके कबीरजी लौकिक था पारलौकिक ऐसी कोई सामग्री नहीं, जो कहते हैंआत्मिकबलसे उपलब्ध न होसके । न्हाये धोये क्या भया, जो मनका मैल न जाय । अतएव हमें आत्मिक-शक्तिको अपनाना चाहिए मीन सदा जलमें रहे, धोये बास न जाय ॥ और आत्म-देवका ही आराधन करना चाहिए। आत्मिक शक्तिको व्याख्या करना बहुत ही कठिन गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं काम है। प्राचीन समयमें हमारे ऋषि, महात्मा इसके 'प्रातम देवहु पूजो भाई। महत्वसे भली प्रकार परिचित थे । उनके अन्दर आत्म-देवके आराधनमे ही हम इम अगाध नम हा हम इम अगाध आत्मिक शक्ति कूट कूटकर भरी हुई होती थी। इसी संसारसे पार हो सकते हैं। जिसे हम परमात्मा कहते लिए यह एक साधारण सी बात थी कि उनकी मन:है, असलमें बह हमारी आत्माका ही दूसरा रूप है, शक्ति भी अत्यन्त सबल और सुदृढ़ होती थी। मनःआत्मिक शक्तिकी ही सर्वोत्कृष्ट तथा सर्वोच्च दशा शक्ति पसलमें आत्मिक शक्तिकेही श्राश्रय जीवित है। 'प्रात्माकी परम स्वच्छ तथा निमेल अवस्थाका रहती है। जिसमें जितना आत्मिक शक्तिका ही नाम परमात्मा है। होगा, उसकी मनशक्ति उतनी ही अधिक मबल और बहुतसे मनुष्य व साधु अपनी प्रशंसाके लिये सुदृढ़ होगी । केवल इस मनःशक्तिके द्वारा ही हमारे नाना भेष बनाते हैं और भाँति भांतिके प्राव रचते ऋषि मुनि ऐसे अद्भुत कार्य करते थे, जिन्हें हम हैं। संसार-दिखावेके लिए महाहिंसाजनक पंचाग्नि दूसरे शब्दों में देवी कार्योंकी संज्ञा देते हैं और जिनका आदि तप तपते हैं। घोरसे घोर पाप कर्म करनेसे विशद विवेचन हमारे पुराण आदि धर्मग्रन्थों में नहीं हिचकते। मार्गमें जहाँ मनुष्योंका आना-जाना मिलता है। आज कलके नवीन सभ्यताके अन्धे
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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