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________________ किरण १] हिन्दीका प्रथम आत्म-चरित होता है कि मानों हम कोई सिनेमा फिल्म देख रहे हैं। 'पन्ध्याके समय कांवमें लाठी दबाये और सिर पर कहीं र आप चोरोंके ग्राममें लुटनेसे बचनेके लिए तिलक बोझ लिये हुए कोई किसान नदीके किनारे किनारे घरको लगाकर ब्राह्मण बनकर चो कि चौधरीको भाशीर्वाद दे हे लौट रहा हो। अनेक शताब्दियों के बाद यदि किसी प्रकार हैं त कहीं आप अपने साथी-संरियोंकी चौकड़ी में नंगे नाच मंत्र-बलसे अतीतके मृत्यु-राज्यसे वापस बुलाकर इस रहे हैं या जूत-पैजारका खेल खेल रहे हैं। किसानको मूमिान दिखला दिया जाय, तो आश्चर्य चकित "कुमती गरि मिले मन मेल खेला पैजारका खेल ।। होकर अमीम जनता उसे चारों ओ.से घर लेगी और सिरकी पाक लँहि सत्र छीन । एक एक म रहितीन॥" उसकी प्रत्ये कहानीको उम्सुका-पूर्वक सुनेगी। उसके एक बार घोर वर्षाके समय इटावके निकट प्रापको सुख-दुःस्व. प्रेम-स्नेह, पास-पड़ोसी, घर-द्वार, गाय-बैल, एक उदण्ड पुरुषकी खाट के नीचे टाट बिछा कर अपने खेत-खलिहान त्यादि की बातें सुनने-सुनते जनता प्रधायेगी दो साथियों के साथ लेटना पड़ा था। उस गवार धूर्त ने नहीं। आज जिसके जीवनही कथा हमें तुच्छतम दीख इनसे कहा था कि मुझे तो स्वाटके बिना चैन नही पड़ पड़ती है वह शत शताब्दयों के बाद कावस्वकी तरह सकती और तुम इस फटे हुए टाटको मेरी खाटके नीचे सुनाई पड़ेगी।" बिछा कर शयन करो। संध्या बेला लाटि काँखे बोभा बहि शिरे । एवमस्तुपनारसी कहै । जैमी जाहि परै मो मोह । नदीनारे पल्लीनाली घर जाय फिरे ।। जैमा काने तमा कुनै। जैसा बोवै तैमा लुने । शत शताब्दी परे यदि कोनो मते । पुरुप खाट पर सोया भले । न.नों जने ग्वाट के तले । मन्त्र बले, अनीतर मृत्युराज्य हैते॥ एक बार गरेको काटते हुए कुर्ग नामक ग्राममें पई चापी देखा देय ६'ये मृर्तिमान । श्राप और आपके साथियों पर झूठे सिक्के चनानेका भयंकर पई लाठि काँखे लये विम्मित नयान । अपराध लगा दिया गया था और आपको तथा श्रारके अन्य चारि दिके धिरि तारे असीम जनता । अठारह साथी यात्रियों को मृदरड देनेके लिये शूली भी काडाकाड़ करि लवे तार प्रति फथा । तैयार करकी कई थी! उस संबटका योग भी रोंगटे खड़े नार सुख दुःख यत तार प्रेम स्नेह । करने वाले नि.सी नाटक जैसा है। उस वर्णनमें भी आपने तार पाड़ा प्रतिवेशी, तार निजगह ।। अपनी हास्य प्रवृत्तिको नहीं छोड़ा। तार क्षेत तार गरु तार चाग्ब वास । सबसे बड़ी खूबी इस माम-चरितकी यह है कि वह शुने शुने बिछु तेइ मिटवे न पाश । तीनसौ वर्ष पहले के साधारण भारतीय जीवनका दृश्य आजि जारि जीवनर कथा तुच्छतम । ज्यांका त्यों उपस्थित बर देता है। क्या ही अच्छा हो यदि से दिनशुनाके ताहा कत्त्वेिग मम । हमारे कुछ प्रतिभाशाली साहिस्टिक इस दृष्टान्तका अनु मान लीजिये यदि आज हमारी मातृभाषाके बीम करण कर हार चरित लिख डालं । यह कार्य उनके लिये पच्चीस लेम्बक विस्तारपूर्वक अपने अनुभवको लिपिबद्ध और भारी जनता के लिये भी बड़ा मनोरंजक करदें तो सन २२४३ ईस्वी में वे उसने ही मनोरंजक और बकौन 'नवीन' जी-- मास्यपूर्ण बन जावंगे कितने मनोरंजक कविवर बनारसी भामरूप वर्शनमें सुख है, मृदु भाकर्षण-लीजा है दासजीके नुभव हमें भाजप्रीतहो । पादरको हुए और विगत जीवन-संस्मृति भी स्वात्मप्रदर्शनशीला है। अभी बहुन दिन नहीं हुए। प्रभ हमारे देश में ने व्यक्ति दर्पणमें निज बिब देख कर यदि हम सब खिंच जाते हैं. मौद हैं जिन्होंने सन् १८५७ का ग़दर देखा था । इस तो फिर संस्मृति तो स्वाभावत: नर-हय-हर्षणशीला" ग़दरका अांखों देखा विवरगा एक महाराणाश्री श्रीयुत स्वर्गीय कविवर श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरने तालिमें 'सामान्य विष्णु भटने किया था और सन् १९०७ में सुपसिद्ध इनिलोक' शीर्षक एक कविता लिखी है जिसका सारांश यह है:- हासकार श्री चिन्तामणि विनायक वैराने इसे लेखकके वंश
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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