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________________ परिषद अ० का निरीक्षण किरण] साहूजीने उमे लिया, पर उनके मनपर जो पहली चर्चाकी चोट थी, उसमें वे बहगये और उनका समाधान करने में करीब २ वे कातर हो उठे । उनकी उस वेदना को समछमकें ऐसी सहृदयता कम हृदयों में है । भाई परमेष्टी दामजीने बड़े संयत ढंगमे माहूजीकी सेवाओंके प्रति विश्वासपूर्ण श्रद्धा प्रकट करके यह ऐतराज किया कि हमारा अभियोग तो यह है कि परिषद समाजसुधारसे हट रही है। इस 'अभियोग' के पीछे जो गरमी थी वह भाई कौशलप्रसादजी के भाषण में फूट निकली- वे भूखेशेरकी तरह तड़ककर बोले । मैने समझा कि बस अत्र इस मीटिंगकी ट्रेजेड़ी सामने है, पर सब अभियोगोंकी उष्णताका विष पीकर इस बार जो साहुजी बोले, को हृदयकी कोमल भावनाओंके प्रवाह में ऐसे बहे कि कोई भी न टिकसका, सब उसमें बहचले । इस भाषण में उनका मस्तिष्क मूछित था और हृदय अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ जागृत । यहां तो सब साथी ही थे, पर घोर विरोधियोंका भी जमघट होता, तो मानसरोवर की इन लहरो में खोजाता ! सारा अमन्तोष समाप्त, विरोध सब सन्तुष्ट और आगे कामके लिये कमरकसे गायव, तैयार, सारा अधिवेशन कटुताके प्रदर्शनसे बच गया । सहारनपुर में मैने साहूजीफा दीक्षान्त भाषण सुनाथा, यहाँ भी सुना । दोनों भाषण एकाकर होकर जैसे मेरे कानों में रम गये हैं । ये भाषण, माहूजीकी जीवनप्रगतिके शीर्षक हैं और उन्होंने कमसे कम नंरे लिये साहूजीकी विचारधाराको एक दम स्पष्ट कर दिया है। उनके सामने न परिषद है, न नेतागिरी है, न दिगम्बरश्वेतान्वरका विवाद है और सच तो यह है कि न समाजसुधारका संघर्ष ही है। उनके सामने उनके विशाल राष्ट्रका एक सबल अंग बननेवाले महान जैन संघका नवनिर्माण है। यह जिसतरह सम्भवहो वही उनका पथहै, ध्येयहै, उधर ही वे अपनी पूरी शक्तिके साथ चलने को प्रस्तुत हैं। जब जलूसमें उन्होंने श्री अजितप्रसादजीसे कहा 'मैं तो आपकी नगरीमें आगया हूँ अब आप रास्ता दिखाइये !' तो बहबात हंसीमें उड़ाई, ३१५ पर उनके भीतर साहूजीके हृदयकी यही वेदना बोलउठी थी कि वह पथ कहाँ है ? मुझे लगा कि उनके रोमरोम में जैसे उस पथका प्रश्न है, उस पथकी प्यास है ? उनकी इस प्यासका अनुभव करके मैने सोचाकि साहूजी इस अर्थ में बड़े बदकिस्मत हैं कि वे धनी हैं । समाजने उनका धनदेखा, मन नहीं, परिषदने उनका धन लिया मननहीं। यही कारण है कि समाज उठानहीं परिषद पुष्ट हुई नहीं ! मैं तो भावुकतावश, यह सोचकर क्षुब्ध होउठा कि न पहचानने से महामानव का यह त्रिशाल मन कहीं आगे चलकर छोटा न होजाये । मैंन तो प्रार्थना ही की कि हे भगवान् ! पीडा भरा, प्यास भरा, आस भरा मन निदों दिन विकास ही ले । सचमुच उस सारे वातावरण में वे ही एक आदमी थे जिनके मन में एक इतना विशाल जागृत स्वप्न था! वे समाज सुधारके लम्बे लच्छेदार भाषण भले ही न दें, सुधार के बाद समाजमें जिस सजीवताकी सृष्टि होती है, उसके निर्माण के लिये निरन्तर सचिन्त अवश्य हैं । यह उन्हें पाकर भी यह समाज नाया जीवन न ले, तो एक दुर्भाग्य ही है। दूसरे दिन उत्साह के साथ समाजसुधारके प्रस्ताव पास हुए और परिषद का देशव्यापी संगठन करनेके लिये केन्द्रोंका नव निर्माण किया गया और प्रबन्धकोंके चुनाव में सावधानी बरती गई । इस प्रकार जहाँ ईमानदार विरोधकी विजय हुई, वहां साहूजीके नेतृत्व और दूरदर्शिताका भी दर्शन हमें मिला । साहूजीके नेतृत्व की आभा मैंने देखा कि, विरोधके समय विशेषरूप से प्रदीप्त होती है। जहां कोई विरोध आया कि वे उठे, संक्षेपमें और सरलतासे बोले और मामला समाप्त | इस समाप्तिमें वे भाषणकलाका सहारा नहीं लेते -- प्रवक्ता तो वे हैं भी नहीं, मामले को सीधा और गहराई तक देखनेवाला उनका मरतिष्क और सालर नेहका स्रोत्र बहादेनेवाली मुस्कराहट हो उनका बल है । इस मुस्कराहटके नीचे भाग भी है, कभी २ आँखें भी तन जाती है, पर यों ही और सिर्फ पालिश पर वानिस -सी ! मैंन
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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