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किरण ५]
हमारे सभापतिः एक अध्ययन
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इस उत्मबसे जहां उनके सामने यह प्रश्न आया कि मूंछों में ताकी प्रतिध्वनि, पैनी अांखोंमें सूक्ष्मदर्शन और समाजके दूसरे विद्वानोंका भी उपयुक्त मम्मान हो, वहाँ गहरे पैठनेकी प्रवृत्ति और श्रोठोंमें स्वभावकी सरल मधुरता स्वर्गीय साधकोंकी स्मृतिरक्षाका प्रश्न भी उनके निकट का प्रतिबिम्ब । सजीव हो उठा। स्व.श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, वैरिस्टर प्रीवामें लचक है. कन्धों में उभार और पैरोमें एक चमतगयजी और श्रीबा. ज्योतिप्रसादजीकी स्मृति में वार' सधी हुई चपलता, यह दर्शनका उत्तरार्ध है। ग्रीवाकी ने जो तीन विशेषांक प्रकाशित करनेकी घोषणा अब की है, लचक में नम्रता है-पूज्योंके सामने झुकनेकी प्रस्तुतता, ससका श्राधार यही है।
पर कन्धोंका उभार साक्षीहै उस स्थिरताका, जो सुनती
सबकी, पर करती। अपने ही मनकी। और यह सचे उन्हें सामने देख कर कोई विशेष प्रभाव मन पर नहीं हुए पैर ? जो समय और स्थानको देख कर चलते हैं, जहां पड़ता, पर जग बारीक नजर से देखने पर उनका चरित्र उन चलना , चले ही चलना है, पर जिन्हें जहां नहीं चलना की प्राकृनिमें झलक श्राता है। ऊंचा मस्तक, भरी मूंछे, है, वहां नहीं ही चलना है। पैनी आँखें और मुस्करानेको उत्सुकसे श्रोठ, यह दर्शनका पूर्वाध है। ऊंचे मस्तक पर उनके चिन्तनकी छाया है, भरी बस, एक दिन में मैं उन्हें इतना ही देख पाया।
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मुख्तार महोदय और उनका सर्वस्व-दान
(ताम्बर गुजराती साप्ताहिक 'जैन'-भावनगरकी दृष्टिमें) "पं० जुगलकिशोर जैन शासनके एक मूक सेवक हैं। इनके द्वारा सम्पादित होते हुए भनेकान्तके अंकोंको जिन्होंने देखा होगा और पंडितजीकी अपनी विचार शैलीका अभ्यास किया होगा. उन्हें इन विद्वान स्वधर्मी बन्धुकी बारीक छान-बीन और न्यायाधीश जितनी तटस्थताके लिये बहुमान उत्पन्न हुए बिना नहीं रहा होगा। कितने ही जैनसंघसेवक जो शासनहितके पक्के रंगसे रंगे हुए हैं उनमें पंडित जुगलकिशोरजीका नाम भी मप्रस्थान धारण करता है। जैन शास्त्रीय और ऐतिहासिक साहित्य के संशोधनमें इन्होंने अपना उत्तम योग प्रदान किया है। परन्तु सबसे महत्वकी बात तो यही है कि अंतरंगके संतोष सिवाय समाज तरफको कीर्ति या वाहवाहीकी इन्होंने कमी मी परवा नहीं की तमा समाजके नेताओं में स्थान प्रास करने और उन्हें रिझानेको भी हममें बासना नहीं रही। इनका क्यावन हजार रुपयोंका वान वस्तुत: सर्वस्व समपंश ही कहा जाता है। बड़े उद्योगपति या सहाके खिलादी ही ऐसा दान दे सकते हैं.स मान्यताको पंडितजीने दूषित ठहरा दिया हैजो बालों कमाते है और समाज-सेवामें हजारोंका दान करते है.वे पादरक योग्य है. परन्तु जिम्होंने दबद संग्रह किया है और दूसरीरीतिसे मी संघ और शसनकी सेवा करते रहते हैं उनका इस प्रकारका सर्वस्व दान अत्यन्त मूल्यवान ठहरता है। श्री मुख्तारजीने ओ सुंदर समीक्षाएँ
और संशोधन जैन समाजको विरासत में दिये हैं उनकी कीमत तो विद्वान ही प्रकिंगे। उनके इस दानका गौरव तो सामान्य पाठक और श्रोता भी कर सकेंगे।
वीरसेवामन्दिरका उद्देश्य तथा व्यवस्था प्रायः प्रसिद्ध है। यह संस्था पदि अधिक प्राणवान बने तो जैनसमाजके लिये भारी उपकारक बने, इतना ही नहीं कि.म्तु एक नई ही दिशाका सूचन करे।"
[१७-१-४२ के सम्पादकीय ग्रनोटका अनुवाद]
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