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________________ १६२ अनेकान्त [वर्ष ६ . बना दिया जाए । गजेन्द्रकुमारजी यहाँ खामोश न रह सके, पास ही सम्मानपूर्वक उन्होंने उनके लिये व्यवस्था कगई। उठे और बोले-"माफ कीजिये, यह सार्वजनिक सेवाका साथियोंक .नि सहृदय, उनके मानके लिये साचन्त और काम है, इसे वे ही लोग कर सकते हैं, जिनमें यह भावना अभिमानहीन सद्भावसे पूर्ण । उनके स्वभावकी एक शक्ति, है। इस लिये मामला उलझाना, या दूसरोके कहेसे नाम जो उनके प्रभावको गम्भीर और नियन्त्रणको मधुर बनाती है। लिखाना मैं पसन्द नहीं करता । नाम उन्हींका लिखा जाये, इमी श्रृंखलामें एक और भी-उनके एक सहकारीने जो काम करें। इसी उत्सबके सिलसिले में एक पत्र लिखा-उसकी बातोसे यह उनकी स्पष्टवादिताका रूप है, खरेपनकी साक्षी है, एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताके रूपमें भाई कौशप्रमाद नेतृत्वका प्रतिबिम्ब है। वे सीधे देखते हैं, सीधे चलते हैं। जीके आत्माभिमानको ठेम लगी और उन्होंने एक सख्त वे बहुत नम्र है, पर उलझते नहीं, उलझाये जा सकते उत्तर लिखा । मैं उमके कटु प्रतिफल की सम्भावनामें था. नहीं। वे काममें विश्वास करते हैं, कोरे नाममें नहीं। पर बड़ा मधुर उत्तर प्राया, और सब भूल-सुधार होगया। वे भारतीय समाजके मबसे प्रतिष्ठित व्यक्तियोंमें हैं, पर बात वर्कर्स मीटिंग समाप्त होंगई, उन्हें व्यापारी-मण्डल में बातमें सरकारी अधिकारियोंकी तरह वे प्रतिष्ठा-प्रेस्टिजके जाना है, वहांसे टी पार्टी में । - क्षण बन्धा हुआ है, पर प्रश्न खड़े नहीं करते । बान यह है कि वे लक्ष्यकी ओर वे भूले नहीं-श्रीमती चन्द्रवती ऋषभसैन जैनसे मिले। देखते हैं, निरन्तर उधर बढ़ते हैं । इस बदनेकी कुञ्जी 'संघ' समाजसुधारका आन्दोलन जैनपरिवारों में कैसे पहुँचे, इस में है । यह संघ कैसे बने, कैसे बढ़े, बनना-बढ़ता ही रहे, पर उनसे बातें की, परिषदका महिला विभाग सम्भालनेको इस कलाके वे प्रकाण्ड पण्डित हैं। उनसे अनुरोध किया और कार्यकारिणीके दूसरे सदस्योंसे उत्सव होरहा था, राजेन्द्रकुमारजी सभापनिके श्रासन उनका परिचय कराया, आत्मीयतासे पूर्ण टोन और स्नेह पर थे, प्रोग्राम मेरे हाथमें था । एक सज्जनने छोटीसी भरी मुखमुद्रा। कार्योकी यह झाला, रत्नोंकी .यह परख, उपयुक्त स्लिप मुझे भेजी कि अमुकका नाम प्रोग्राम में बढ़ादें । यह व्यक्तियों को उपयुक्त स्थानमें फिट करनेकी यह उत्सुकता नाम पहलेसे ही था, इसलिये वह स्लिप मैंने एक ओर और क्षमता ही उस विशाल सफलताकी नीव है जो प्राज डाल दी।राजेन्द्रकुमारजीने बहुत धीरेसे वह स्लिप उठा " राजेन्द्रकुमारजीके नाममें श्रोतमोत है। कर पढ़ी। वह मेरे नाम थी, फिर भी उन्होंने प्रोग्राम देखा कि वह नाम उसमें है या नहीं और बड़ी तरकीबसे वह सहारनपुर के लिये जब वे चले, तो गाड़ी छूट गई। स्लिप वहीं डाल दी। दावरसे बोले-गाजियाबाद तक वह गाड़ी पकड़ो, और यह उनकी सतर्कता है, यह उनका स्वावलम्ब है। यह सम्भव न हो तो पूरी सीड चलो और मुजफ्फरनगर छोटेसे छोटे काम पर निगाह रखना और साथियोंके कार्यों तक भी गाड़ी पकड़ो-मैं वचनबद्ध हूँ और कुछ भी हो, को भी सतर्क हो युक्तिसे जांचते चलना, उनका स्वभाव है, जो उन्हें अपनी महान संस्थाके संचालनमे पूर्णता देता है १२॥ बजे मुझे वहाँ पहुँचना है। और अनेक फिसलनोंसे बचाता है। एक साथीने या संस्मरण सुनाया, जिसका अर्थ है-अपनी जिम्मेदारियोंके प्रनि सचेष्ट, प्रनिशाके प्रति आज वे वैभवके जिस महास्तूप पर खड़े हैं, उसका सतर्क और दूसरोकी दिक्कतके प्रति सावधान । निर्माण उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिमा और पुरुषार्थ के सहारे किया है। इसलिये निर्माणकी कठिनाइयोसे वे खूब परिचित लाला विशालचन्दजीको टी-पार्टी में वे बैठे थे-लेखवती है,यही कारण है कि जीवन के दूसरे निर्माताओंके प्रति उनका जी जरा लेट पहुँची। मैंने देखा कि वे इस बात के लिये मन अगाध श्रद्धासे भरा! मुख्तार साहबके प्रति उन्होने सचिन्त थे कि उस बहन को उपयुक्त स्थान मिले-अपने जिस भक्तिभावनाका प्रकाशन किया, यह बहुत ऊँची है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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