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________________ चरवाहा [१] दशम्यारह वर्षका बदबूदार चिथड़ोंमें लिपटा हुआ एक बच्चा रास्ते के रेतमें खेल रहा है ! शरीर से दुबला, घिनावना, बदसूरत ! और भी दो तीन बच्चे साथ हैं, ज्यादह सुन्दर वे भी नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि वे इतने दुबले, घिनावने और दयनीय नहीं है ! जितना कि अकृतपुण्य ! —— अकृतपुण्य बद्द है, जो दस ग्यारह सालका होते हुए भी सात-आठ सालसे अधिकका नहीं मालूम देता ! जबकि उसके संगी छोटे होते हुए भी, सबल आनन्दी और बड़े दिखाई देते हैं ! वह खेल रहा है ! दूसरोंकी तरह ही रेत उछालता है, मेंढ़ बनाता है, कुए खोदता है, चिलाता है, हँसता है, सब कुछ है, पर, एक बात ऐसा है जिसे वह भुलाए नहीं भूल रहा, कि वह भूखा है ! दूसरे झिड़क देते हैं और वह खड़ा रह जाता है एक आर ! अनुभव करता है शायद — कि मैं छोटा हूँ — दीन हूँ ! मेरे भीतर वह तेज नहीं है, वह उल्लास नहीं है, जो मेरे संगी-साथियोंमें है !-विवश, निरुपाय, दुखित !!! और उस खण्डहर में बैठी मिष्टदाना सोच रही है— कितना अभागा है, यह अकृतपुण्य ! गर्भ में आया कि धीरे-धीरे परिवार खत्म हुआ । सिर्फ दो ही बच रहे- मैं और इसके पिता - कामवृष्टि ! मैं अधिक दुःखित नही हुई तब ! खुश थी कि चलो 'यह' तो हैं ! और बरक़रार है इनके पास पूरे गांव का स्वामित्व ! शायद नारीकी सारी महत्याकाँक्षाएँ इन्हीं दो चीजोंपर अवलम्बित रहती हैं—-सुहाग और समृद्धि !.... [ लेखक – श्री 'भगवत्' जैन ] मेरी ही रोटियोंपर गुज़र करने वाले सुकृतपुण्य के अधिकार में चला गया ! इस दुखद परिवर्तनने तिलमिला दिया मुझे ! मैं हताश, जीवनसे विरक्त - क्रुद्ध ! चाहा कि श्रात्म-हत्या कर, भविष्य के संकटोंसे निश्चिन्त हो जाऊँ ! पर, न हो सका यह ! सीनेमें माँ का दिल धड़क रहा था। बच्चे के आर्तस्वरनं मनमें ममताका दरिया उमड़ा दिया था ! और आजमें इसी मगधदेशके अंचलपर बसे हुए भोगवती गाँव में कूट-पीसकर, मिहनत-मजदूरी कर पेट पाल रही हूँ-जहाँ एक दिन मेरा स्वामित्व सिर झुकाकर माना जाता था !........ उस समय मेरा दिल चूर-चूर होगया जब मैंने देखा कि मेरी गोदमें दुध-मुँहा बच्चा है, और मैं इतने बड़े संसार में निपट अकेली हूँ ! पासमें एक सिक्का, और रहने के लिए बालिस्त-भर स्थान भी नहीं हे ! मेरा सुहाग पुंछ चुका था ! गाँवका नामित्व आज भूखा प्यासा, नंगा-धड़ंगा, गली-गली ठोकरें खाने वाला मेरा बच्चा बदनसीब न होता तो कौन कह सकता है इन्हीं गलियों में उसके प्यार करने और गोद में उठाने के लिए लोग लालायित न होते ?.. बच्चेका दुर्भाग्य !' मिष्टदानाकी आँखें सावन-भादोंसी बरस रही हैं ! भीतरका दुख उमड़ रहा है ! वह देख रही है-दूसरे बच्चे अकृतपुण्यको मार-मारकर दूर हटा रहे हैं, और वह रो रहा है-दीन, गरीब ! मिष्टदाना दौड़कर आई-पैर जो उधर बद आए थे अपने आप शायद मनने ललकारा था उन्हें ! 'न मारो बच्चेको, इसका पिता नहीं है ! दुखिया है— बेचारा !' X x x x [ २ ] दासत्वसे स्वामित्व मिला है-सुकृतपुण्यको ! सुखी है वह, कि वह आज गाँवपति है ! जहाँ कुछ दिन पहले वह एक नोकरके रूपमें बसा था, आज वह वहाँका सर्वेसर्वा है ! नीचे से ऊपर चढ़ा है ! ग़रीबीके अनुभव, आज अमीरी में साझीदार बन रहे हैं! ग़रीबीकी अभिलाषाएँ, आज अमीरी के आँगनमें पनपनेके लिए मचल रही हैं ! लम्बा-चौड़ा कृषि कर्म आज उसके अधीन है ! 28044
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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