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________________ एक सरस कवि (ले० विचारल पं० मूलचन्द्र 'वत्सन' साहित्य शास्त्री) - उस समयकी काव्य-प्रगति उस समय शृङ्गाररस की धारा अवाचित रूपसे बह रही यी विज्ञाकी मदिरा पिता २ कविलोग अपनेको कृत-कृष्ण समझते थे वे कामिनीके अङ्गले बुरी तरह उसके हुए थे उन्हों ते कटि, कुच, केशों और कटाचोंमें ही अपनी कल्पनाशक्तिको समाप्त कर दिया था पतिवत और ब्रह्मचर्यका मजाक उड़ाने में ही वे अपनी कविताकी सफलता समझते थे और 'इहपाखे' पतिव्रत ताखे घरी" के गीत गाने में ही उन्हें आनंद छाता था । कोई नवीन कवि दंपतिकी प्रेम लीलाओं, मानअपमान और आँख मिचौनी में विचरण करता था तो कोई कुशल कवि कुलटाओंके कुटिल कटाचों, दाव-भाव विवासों और नोक-झोकमें ही मस्त था । कोई विज्ञाली कवि परपति पर भ्रामक हुई कामिनियों के संकेत स्थानोंके वर्णनमें और कोई विरही, बिरहिणियोंके करुणा रुदन, आक्रंदन और बिलाप में ही अपनी कल्पनाएं समाप्त कर रहा था । कोई संयोगियोंके 'कपटाने रहें पट ताने रहें' के पिष्टपोषण में ही अपनी कविताकी सफलता समझता था, देवस्व और अमरत्वकी भावनाएं समाप्त हो चुकी थी, मुक्ति और जीवन शक्तिकी याचनाके स्थान पर कुलिताने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था । उस समय उनकी दृष्टिमें मुक्तिके अतिरिक अन्य ही कोई दुर्लभ पदार्थ समाया हुआ था कविवर देवजी उस दुर्लभ पदार्थकी तारीफ करते थे आप कहते थे 'जोग हू तें कठिन संजोग परमारीको' परनारीके संयोगको आप योगसे भी अधिक दुर्लभ बतलाते थे आपकी दृष्टिमें पत्नी सचरित्रताका तो कोई मूल्य ही नहीं था । और उस समयके भक्त कवि भी श्रीकृष्ण और राधिकाके पवित्र मार्गका आश्रय लेकर उनकी चोटमें अपनी मनमानी वासनामय कल्पनाओंको उदीप्त किया करते थे वासनाओं और गारमें वे इतने ग्रस्त हो गए थे कि अपने उपास्य देवताको लंपट बनानेमें भी उन्होंने किसी प्रकारका संकोच नहीं किया । एक स्थान भक्तवर नेवाज कवि वन कविताओंको नीतिकी शिक्षा देते हुए कहते हैं 'बावरी जो पै कलंक लग्यो तो निसंक है काहे न अङ्क लगावति कलङ्क भोगेका कविवर क्या ही अच्छा उपाय बतलाया। रसखान सरीखे भक्क कवि भी इस अनूठी भक्तिलीलासे नहीं बचे थे आपका क्या ही सुन्दर पश्चाताप था 'मो पछितायो मौजु सखी कि कलङ्क लग्यो पर ग्रह न जागी" कृष्णजीकी लीलाका वर्णन करते हुए एक स्थान पर आप कहते है 'गाल गुलाब लगाइ लगाइकै भट्ट रिकाह विदा कर दीनी' । इस तरह भारतकी महान आत्माओंके साथ मद्दा मज़ाक किया गया और उनके पवित्र चारित्रको वासनाओंके नग्नचित्रोंसे सजा कर सर्व साधारण के सामने रखा गया और उनकी प्रोटमें अपनी वासनाओंकी पूर्ति की गई। इस भक्तिमार्गके अन्दर परनारी सेवन और मदिरा पानकी भावनाओंको प्रचण्ड किया गया और भारतीय प्रजा में नपुंसकताके बीज बोये गए। ऐसे समय में कुछ सचरित्र कवि ही अपने काव्य के आदर्शको सुरक्षित रख सके। जैन कवि तो अछूते रहे उन्होंने नीति, चरित्र चौर संयमकी सरस फुलबादी लगाई वे अध्यात्म कुंज में समाधिके रसमें निमग्न रहे और आत्मतत्वमें उन्होंने अपनी सो लगाई । उन्होंने अपनी कवितामें अमरताका संगीत प्रज्ञापा और वे जनताके पथ प्रदर्शक बने । उनका काव्य संसारका गुरु बना धन्य उनका कवि और धन्य उनकी अभिलाषा । पवित्र हृदय कवि- केशवदासजी हिन्दीके प्रसिद्ध श्रगारी कवि हो गए हैं
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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