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________________ ३५६ अनेकान्त [वर्ष ६ x बहुत ही कुशलता पूर्वक यह बयान किया है और वह धीरे विद्वेषको पूर्णरूपेण व्यक्त कर रहा है कि उसने जैसे जैन धीरे गौतमको रागद्वेष हीन अपार ज्ञान युक्त गम्मिाकी साधुओं। इस रूपमें चित्रित कर तुष्टि अनुभव की हो। चोर बढ़ाता गया है और साथ ही भगवान महावीरको ऊपर मैंने उक्त पुस्तक मेंसे चद उद्धरण दिये हैं। अपने स्थानसे धीरे धीरे नीचे स्वसकाता गया है। परंतु लेखकका दावा है कि सिंह सेनापति के समकालीन समाज निम्न बातचीत में तो लेखक सीमा पर पहुंच जाता है-- को चित्रित करने में मैंने ऐतिहासिक कर्तव्य और औचित्य सिंह--''धन्य है भंते ! भगवानका मध्यम मार्ग । कल्याणकारी है भंते ! निगंठ ज्ञातृपुत्रमे मैंने पूछा था-" का पूरा ध्यान रखा है। वृद्ध --"जाने दो इसे सेनापति ! कि निगंठ शातपुत्र भगवान महावीर, जैन साधुगण एवं जैनधर्मको उप रोक्त प्रकार चित्रित करके लेखक ने ऐतिहासिक कर्तव्य और मेरे बारे में तुमसे क्या कह रहे थे. उसके कहने-सुननेसे हमें औचित्यका कहां तक ध्यान रखा है यह विद्वान व्यक्तिही तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा । सेनापति ! तुम्हें और जो कुछ पूरे प्रमाणों के साथ लेखकको बताएंगे तब श्री राहुल पूछना हो पूछो।" (पृ. ३.३) उपरोक्त बातचीत कराकर लेखकने यह घोषित कर सांकृत्यायन अपने ज्ञान और अज्ञानकी परख कर सकेंगे। समाजके शांतहासज्ञॉप मेरयही निवेदन है कि सिंह दिया है कि भगवान महावीर पर निंदा बोक्म सुक थे, वे खुज कर दूसरों की बुराई किया करते थे और भगवान बुद्ध सेनापति' द्वारा भापक ऐतिहासिक ज्ञानको चैलेज दिया दूसरों की तो बात ही दूर रही अपने विरोधीकी भी निंदाको गया है और मुझे विश्वास है कि पाप अवश्य ही इसका यथोचिन उत्तर देवेंगे। सुनना तक पसंद नहीं करते थे। और इस कारण संतुष्ट हो सिंह सेनापति बौद्ध अनुयायी हो जाता है। भगवान बुद्ध, श्री राहुल महाशय बौद्ध साहित्य प्रकाण्ड विद्वान को भोजनका निमंत्रण देदेता है। तबकी बात स्वय सना हैं. कट्टर बौद्धानुयायी भी हैं। मैं उनसे बामदब यह जानना चाहेंगा कि क्या भगवान गौतमबुद्धका यश इतना पतिके शब्दोंमें-- तूमरे दिन हमने गो-घातक, शूकर-घतकके यहांसे जो धूमिल है कि उसके पीछे बिना किसीको श्याम चित्रित किये वर धवजरूपमें प्रकाशित नहीं हो सकता । फिर तय्यार मांस था, उसे मैंगवाया और भोजन तय्यार होने पर भगवानको सूचना दी । जिस बक संघ-सहित किपी धर्मके प्रवर्तकके साथ इस तरहकी विषैली मनोवृत्ति भगवान भोजन ग्रहण कर रहे थे. उस वक्त निगंठ (जैन का परिचय किसी भी अंशमें शोभनीय नहीं। आज इस माधु) लोग वैशालीके चौरस्तोंपर दोनों हाथ उठा चिहा बीसवीं सदी में जब कि दुनिया विश्वबंधुत्वका स्वम देख : कर कह रहे थे--अधर्मी है सेनापति सिंह. पापी है सेना रही है किसी भी देशके मतप्रवर्तककी निंदा कोई भी पति सिंह, उसने श्रमण गौतमके लिए गाये मारी है. समझदार भादमी करने की हिमाकत नहीं करता। श्रीराहुल का यह जवन्य प्रयत्न हर तरह निंदनीय ही है। सूभर मारे हैं। कहां है श्रमण गौतमका श्रामण्य (पन्यास) समाजसे मेरा निवेदन है कि हमपर सदैव ही नामालूम कहां है श्रमण गौतमका धर्म जबकि वह अपने लिए मारे जगहोंसे इस तरह के प्राचेप, प्रहार होते ही रहते हैं, और गए पशुओं का मांस खा रहा है। निगंठोंका यह कहना ये इस लिये होते हैं कि अन्य लोग हमें महानिद्रा गर्क सरासर झूठ या मैंने पशुओं को मारा था मरवाया न था, न समझते हैं, प्रतिकार करनेकी शक्तिसे हीन समझते हैं। वैये माँसको भगवान को दिया: किंतु मेरे निकल जानेसे क्या यह अवस्था बांछनीय है ? बंधुनों, हमें उठकर रदता इन्हें बहुत दुख हुमा था, इसलिये बाल, मूढकी भाँति वह से इस तरह हमारे समाज एवं धर्मपर किए जाने वाले विजा रहे थे।" (पृ. ३२५) मारपीका प्रतिकार करना है, ताकि दुनिया यह मामले कि जो व्यक्ति जैन साधुसंस्थ से रंचमात्र भी परिचित है वह स्वमम भी उन्हें इस रूपमै चित्रित करने की मूर्खता युवक-जिसका पर्यायवाची नाम भाग है--क्या नहीं कर सकता । परन्तु यह वर्णन तो लेखकके हृदयके नैनयुवक-राक्षसे ही का रहेगा!
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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