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________________ किरण ७] श्री गहुलका 'सिंह सेनापति ३५५. मना कर देते हैं। परन्तु संस्थागारमें फिर चर्चा चलती है. नरम कौषेय वोंको पहिमता तरह-तरहके स्वादिष्ट मौसों बुद्धके उपदेशकी प्रशंसा होती है। तब सिंह फिर भगवान का मास्वाद क्षेता है। उसके पास सपस्थाकीच्या गंध भी के पास जाकर वहाँ जानेकी इजाजत मांगता है। तब मिलेगी" भगवान कहते हैं : सिंह-इसीलिये तो भंते ! मैं उसे माखसे देखना "सिंह !पया उस प्रक्रियावादी [अच्छी-बुरी क्रियाको चाहता है, और मोहमें पदे लिच्छवियों को उनकी गलती न मानने वाले के पास जानोगे? पतनाना चाहता हूं।" और-और भी कितनी बातें कह, मना किया। महावीर-- और कुछ नहीं. सिंह! बस भावर्तनी (पृ. ३१३) माया (जादू) उसे मालूम है, जिससे वह दूसरोंके मनको इस तरह दुबारा मना किया गया। पर संस्थागारमें फेर लेता है। पास भी मत जाधो सिंह! उस मायानीके।" तो सदस्यों को समय समयपर जमा होना ही पड़ता था--- और संस्थागारमें बैठकर बात करनेवाले साधारण रथ्या इस बात-चीतमें भाप देखेंगे कि लेखकने भगवान (सड़क) पुरुष नहीं बल्कि बड़े बड़े सम्भ्रांत लिच्छवि महावीरके मुंहसे किस हद तक गौतम बुद्धकी निंदा करवाई होते थे। एक दिन वहां बात होते होते फिर श्रममा गौतम है. किस तरह सिद्ध किया है कि भगवान अज्ञानी है कि वे पर चली गई। सुप्रिय भगवान गौतमकी प्रशंसा करता समझते हैं गौतम जादू जानता है। बारबार सिंह वहां हुधा कहने लगा-- जानेसे रोक कर जैसे भगवानके मनके किसी भयका 'यही नहीं श्रमण गौतमके शिष्य सारिपुत्र, मौद- आभास दिया है। गल्यायन, महाकश्यप, महाकात्यायन-जैसे अद्भुत ज्ञातृपुत्रके इंकार करने पर भी सिंह भगवान गौतमके प्रतिभाशालीग्रामकुत-से प्रयजित है । वे अपनी विद्या उपदेश सुननेको जाता है। राम्तेमें अपने ही अजीजोंसे और प्रतिभामें इतने ऊँचे हैं कि चाहते तो अपना अलग उनकी तारीफ सुन प्रभावित होता जाता है। सबकीही तीर्थ (मत) चलाते और निगंठ ज्ञातृपुत्र, संजय वेल द्विपुत्र, बातचीतका निम्नलिखित उदाहरण पदिये:या मक्खलि गोसालसे भी बड़े तीर्थकर माने जाते. ......." सिंह--"और भाभी! तुमने मुझे कमी न बतलाया. (पृ. ३.५) न कभी यहां मानेके लिए कहा।" किसी व्यक्ति विचारपर कोई प्रतिबंध नहीं है। परंतु भाभी- मैं समझ रही थी कि नंगटोंका पंथ मेधावी यहां यह प्रतिपादित किया गया है कि गौतमबुदके शिष्य भादमीको कभी रोक कर नहीं रख सकता, समयकी प्रतीचा तक भी ऐसे विद्वान एवं प्रतिमा सम्पन ये कि यदि वे करनेकी जरूरत है।" अपना अलगमत चलाते तो महावीर स्वामीसे बढ़कर सिंह-"लेकिन मुझे तो निगंठ-पंथ अब भी रोके तीर्थकर होते। हाँ, तो इस चर्यासे प्रभावित होकर सिंह हुए है " जब नित्य अनुसार निगंठ ज्ञातृपुत्र (महावीर)के दर्शन माभी--"यह पाश्चर्य है देवर ! मैंने सुना है कि को गया तो उसने कहा: निगंठ अपने श्रावक या श्राविकाको किसी दूसरे धर्मका "भमय गौतमकीन भंते ! मुझे नहीं मालम। मैंने उपदेश सुननेकी कदी मनाही करते है।-अखाब हम सिर्फ उसका नाम सुना है। किंतु खिच्चवि उसकी बी कूटागारके नजदीक पागये है, अब हमें बात बंद कर देनी प्रशंसा करते हैं। मुझे विश्वास है, उसमें आप जैसा रूप-तेज चाहिये। (पृ. ३४) तो नहीं होगा। मैं चाहता हूँ. जाकर श्रमण गौतमसे भेंट यह सम्यग्दर्शनका मखौल !! और बात-चीत करूं।" कूटागारमें भगगान बुद्धसे सिंह सेनापतिमे कई तरह महावीर--"सिंह! क्या तुम उस तप-तेजहीन भावमी के सवाल किए, जो-जो भाक्षेप महावीरने गौतमके विरूद के पास जानोगे। वह तो गहों पर सीता, काशीके नरम किए थे उन सबका निवारण गौतमने कर दिया। लेखकने
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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