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________________ ३५४ अनेकान्य अजित -- "मेरे बहुत-से गाय, घोडे, सूकार, संगे ही रहते हैं।" "अजित -- माई सुभद्र ! तुम मुझे नास्तिक कहते ही हो, फिर अब तुम्हारे व्यारू निसे श्रमण महावीर में उनके ज्ञातृपुत्र होनेपर भी मेरी श्रद्धा नहीं होसकती ।” ...तब भामाने अजितके कानमें कहा 'शाबाश, मेरे बीर ! इन नंगोंकी तूने अच्छी खबर ही ।" ( पृ० १६३ १७० ) पदा आपने, किस रूप में जैनधर्म एवं उसके तीर्थंकर के स्वरूपका परिचय दिया गया है। आगे चलिए, सुभद्र रोहिणीको जैनधर्ममे परिचित करा रहा है तब- सुभद्र - 'हाँ, मनसा, वाचा, कर्मणा, किसी चीजको मारना ही क्या, जरा-सी पीड़ा भी न पहुंचाओ।" रोहिणी - "खूनी हत्यारे शत्रु को भी ? सुभद्र --'' उसका अपना पाप उसे दंड देगा, धार्मिक निगंठ- श्रावक [ जैन ] को दre देकर पाप कमानेकी जरूरत नहीं ।" रोहिणी --"यदि कोई श्राततायी किसी भार्त अनाथ स्त्री या बचेको मारना या दूषित करना चाहे तो उस वक्त अपने श्रावक पुरुषको क्या करने की आज्ञा देते हैं ? सुभद्र--" मनपर संयम, वचनपर संयम, शरीरपर संयम । " रोहिणी" -- अर्थात् अकर्मण्यता, आततायीके हाथमें अपनी इज्जत, अपनी बजा, अपने पौरुष सब कुछका समर्पण । और, इसे आप ठीक समझते हैं ?” सुभद्र -- "ठीक तो समझता हूँ, किन्तु निगंठी धर्मका पूरे तौरसे पालन करना सबके बशकी बात नहीं है।" भामा कमसे कम जो अपनेको मनुष्य कहता है. उसके वशकी तो बात बिल्कुल ही नहीं है ।" (१०-१७२) जैनधर्मकी अहिंसाका लेखकने कैसा मनमाना अर्थ कर लोगोंकी निगाहमें उसे जलील करनेकी कुचेष्टा की हैं। x x x भगवान महावीर उल्कावेल में विहार कर रहे हैं। सेनापति सिंह भगवानके दर्शन के लिये जाने हैं, वहांका वर्णन सेनापतिके स्वतः के शब्दोंमें : "मैं शामके वक्त नंदकके साथ उस बागमें गया, [ वर्ष ६ जहां अपनी बड़ी शिष्य-मंडली के साथ तीर्थंकर निगंठ - शातृपुत्र ठहरे हुए थे। उनके शिष्यों में अधिकतर सौम्य और श्वेत मुखवाले न थे। ऊपरसे वह नंग धडंग थे, इसका प्रभुत्व सुपर अच्छा नहीं पड़ा । मैं तीर्थंकरके दर्शनके लिये आया हूं, यह बात सुननेवर हमें एक निर्गठ ने उस वृक्ष तक पहुँचा दिया, जिसके नीचे निठ ज्ञातृपुत्र भूमिपर सिर नीचे किये चिंतामग्न बैठे हुए थे । उनके छोटे छोटे रमाकेश सफेद थे और शरीरपर भी बुदापेके लक्षण प्रतीत होरहे थे...." (पृ० २५२) पड़े ।" C' एकाएक उन्होंने (महावीरने) कहा- 'सिह ! चलो उस वृक्ष के नीचे' और एक हाथमें पास में पड़ी और पंखी तथा दूसरे छोटेसे व खंढको सामने लटकाए चल ( पृ० २५६ ) क्या भगवानके केश सफेद होगए थे ? क्या बुडापा उनपर प्रभाव डाल सका था ? क्या वे वस्त्र खंड साथ ले कर चलते थे ? क्या चिंताएँ उन्हें घेरे रहती थीं ? कितना कपोल कल्पित वन लेखकने किया है। और वह भी तीर्थंकर प्रकृतियुक्त बर्द्धमानका । यदि जैन शास्त्र एवं तत्कालीन इतिहासका खुली आंखों लेखक ने अध्ययन किया होता, तो इतनी बेजबाबदारीसे वह कभी भी न लिख सकता । इस बीच सेनापति सिंह भगवानसे प्रभावित होकर उनका शिष्य होगया है । सेनापति गणका सदस्य है, संस्थागार में इन दिनों गणकी बैठकें हुआ करती हैं। और इन ही दिनों भगवान बुद्ध एवं महावीरका चातुर्मास वैशाली में ही हो रहा है । संस्थागार में दोनोंके विषय में चर्चा चलती है। बुद्धको बहुत तारीफ वहाँपर हुई है। तब सिंह भगवान महावीरके पास चाकर पूछता है : "भगवन् ! श्रमण गौतम यहां आया हुआ है, लोग बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं, किन्तु आपके सामने वह क्या हो सकता है। मैं चाहता हूँ, उसे देखू ं ।” महावीर' नहीं सिंह ! क्या जायोगे उसके पास । वह नास्तिक है, मामाको भी नहीं मानता, नहीं मानता।" परखोकको भी ( पृ० ३११ ) इस तरह गौतम के प्रति आक्षेप करते हुए भगवान
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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