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________________ अनेकान्त [वर्ष ६ उत्सव थे राजधानीके हर शखसके घरमें। 'रे, दूत ! अहंकारमें खुदको न दुबा तू। खुशियों मनाई जा रही थी खूब नगरमें। स्वामीकी विभव देखकर मत गर्वमें प्रातू॥ ये पा रहे चक्रोश, चक्ररत्न ले करमें। वाणीको और बुद्धिको कुछ होशमें ला तू। चर्चाएँ दिग्विजयकी थीं घर-घरमें गरमें ॥ इन्सानके जामेको न हैवान बना तू ॥ इतने में एक बाधा नई सामने आई । सेवककी नहीं जैसी कि स्वामीकी जिन्दगी । दम-भरके लिए सबको मुसीबतसी दिखाई। क्या चीज है दुनियामें गुलामीकी ज़िन्दगी।। जाने न लगा चक्र नगर-द्वारके भीतर । स्वामीके इशारे पै जिसे नाचना पड़ता। सव कोई खड़े रह गए जैसे कि हों पत्थर ।। ताज्जुब है कि वह शख्स भी,है कैसे अकड़ता? सब तक गई सवारियाँ, रास्तेको घेरकर । मुर्दा हुइ-सी रूहमें है जोश न दृढ़ता। गोया थमा हो मंत्रकी ताकतसे समुन्दर ॥ ठोकर भी खाके स्वामी के पैरोंको पकड़ता॥ चकोश लगे सोचने-'ये माजरा क्या है? वह आके अहंकारको भावाजमें बोले। है किसकी शरारत कि जो ये विघ्न हुआ है? अचरजकी बात है कि लाश पुतलियाँ खोल।। क्योंकर नहीं जाता है चक्र अपने देशको ? सुनकर ये, राजदूतका चेहरा बिगड़ गया। है टाल रहा किस लिये अपने प्रवेश को? चुपचाप खड़ा रह गया, लज्जासे गड़ गया। मानन्दमें क्यों घोल रहा है कलेश को ? दिलसे रारूर मिट गया, पैरों में पड़ गया। मिटना रहा है शेष, कहाँके नरेश को ? हैवानियतका डेरा ही गोया उखड़ गया । बाकी बचा है कौन-सा इन छहों खण्डमें ? पर, बाहूबली-राजका कहना रहा जारी । || जो डूब रहा आजतक अपने घमण्डमें ।' ___वह यों, जवाब देनेकी उनकी ही थी बारी॥ जब मंत्रियोंने क्रिक्रमें चक्राशको पाया। बोले कि-चक्रवर्तिस कह देना ये जाकर । माथा झुकाके, सामने आ भेद बताया ॥ बाहूबली न अपना मुकाएँगे कभी सर । 'बाहूबलीका गढ़ नहीं अधिकारमें आया। मैं भीतो लाल उनका हूँ हो जिनके तुम पिसर। है उनने नहीं बाके अभी शीश झुकाया ॥ | दोनों को दिए थे उन्होंने राज्य बराबर ॥ जब तक न वे अधीनता स्वीकार करेंगे। ___ सन्तोष नहीं तुमको ये अफसोस है मुझको। तब तक प्रवेश देशमें हम कर न सकेंगे' देखो, जरासे राज्य में क्या तो है मुझको । क्षण-भर तो रहेमौन,फिर ये बैन उचारा। अब मेरेराज्यपर भी है क्यों दाँत तुम्हारा ? 'भेजो अभी आदेश उन्हें दूतके द्वारा॥ क्यों अपने बड़प्पनका चलाते हो कुठारा ? आदेश पा भरतेशका तब मृत्य सिधारा। मैं तुच्छ-सा राजा हूँ, अनुज हूँ मैं तुम्हारा । लेकरके चक्रवर्तिकी भाशाका कुठारा ॥ दिखलाइयेगा मुझको न वैभवका नजारा ॥ बाचाल था, विद्वान, चतुर था, प्रचण्ड था। नारीकी तरह होती हैराजाकी सल्तनत । चक्रोके दूत होनेका उसको घमण्ड था ।। यों, बन्धुकी गृहणी वैन पद कीजिए नीयत।। 'बोला कि-'चकवतिको जा शीश झुकाओ। | छोटा हूँ, मगर स्वाभिमान मुझमें कर्म नहीं। यारखतेहो कुछ दमतोफिर मैदानमें भारो। बलिदानका बल है, अगर लड़नेका वम नहीं। मैं कह रहा हूँ उसको शीघ्र भ्यानमें लायो। 'स्वातंत्र के हित प्राण भी जाएँ तो राम नहीं। स्वामीकी शरण जामो,या वीरत्व दिखामो॥ नेकिन तुम्हारादिल हैवह जिसमें रहम नहीं। सुनते रहे बाहूबली गंभीर हो बानी । कह देना चक्रधरसे झुकेगा ये सर नहीं। फिर कहने लगे दूतसे वे प्रात्म-कहानी।। बाहूबलीके दिलपै जरा भी असर नहीं।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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