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________________ समन्तभद्र की अहनक्ति (लेन्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) Desk भगवान महावीरके बाद जैनशासनके प्रभावक कांशरूपमें एक परीक्षा-प्रधानी महान तार्किक ही एवं प्रमारक आचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका एक खास जानते हैं, उन्हें अस्त के रूपमें कम पहचानते हैं। स्थान है। उनके वचनोंको वीरभगवानके वचनों इसका कारण शायद यह है कि वे उनके पूरे साहित्यसे जैसा प्रकट किया गया है और उन्हें वीरभगवानके . परिचित नहीं हैं । समन्तभद्रके उपलब्ध साहित्यमें शासनकी हजार गुणी वृद्धि करने वाला कहा गया है। स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुशासन और जिनस्तुतिशतक महान् जैन तार्किक अकलंकदेव उन्हें कलिकालमें सर्व- (स्तुतिविद्या) ये तीन ग्रन्थ तो ऐसे हैं, कि जिनका पदाथे-किषयक स्याद्वाद रूप कल्याणकारी महासमुद्रके प्रचार और प्रसार (पठन-पाठन, स्वाध्यायादि) बहुत तीर्थका प्रभावक कहते हुए गौरव एवं गर्वका अनुभव ही कम होनेसे वे परिचयमें नहीं के बराबर पा रहे करते हैं और उनके प्रति श्रद्धासे प्रणामाञ्जलि अर्पित हैं। वस्तुतः इन्हीं में समन्तभद्रकी स्तुति-विद्याके पूरे करते हैं। इस तरह स्वामी समन्तभद्रको जो गौरव दर्शन होते हैं। शेषके दो ग्रन्थ देवागम और रत्नप्रतिष्ठा प्राप्त है वह अवर्णनीय है। उन जैसा गारव- करण्डश्रावकाचार ऐम हैं जिनसे क्रमशः परीक्षाप्रधा और प्रतिष्ठा उनके उत्तरवर्ती अन्य किसी आचार्यको नता अथवा वस्तुनिरूपणकी दिशा और आचार-मार्ग प्रायः प्राप्त नहीं है। का परिचय ही प्राप्त होता है। समन्तभद्र कितने और मा० समन्तभद्र परीक्षा-प्रधानी और तार्किक तो कैसे ऊँचे दरजेके अईक्त थे, इस बातका यथेष्ट स्पष्ट थेही. पर वे मच्चे और महान आईडत भी पता इन दो ग्रंथोंसे प्रायःनहीं चलता और यही वजह है कि अद्भक्ति उनकी नस नसमें समाई हुई थी । यही आजकलके हमारे कितने ही बंधु समन्तभद्रकी परीक्षा कारण है कि उन्होंने प्रायः तमाम ही कृतियाँ अन्त प्रधानताकी ओर ही लक्ष्य देते हैं और उसके सहारे के स्तवनमें रची हैं और अपनेको 'सुस्तुत्यां व्यसनं भक्ति, स्तुति, पूजन आदिको अनावश्यक और अनुपजैसे शब्दों द्वारा उत्तम-उत्तम स्तुतियोंके रचनेका योगी कहकर उनकी ओर उपेक्षाभाव रखते हुए नज़र व्यसनी प्रकट किया है। साथमें उन सभी स्तुतियों में आते हैं। इसमें एक प्रकारसे उनका दोष भी नहीं है। तार्किकताका पुट देते हुये जैनसिद्धान्तके तत्वोंका समन्तभद्रके 'स्तुतिविद्या' एवं अईक्तिसे पूर्णफलबाबहुत ही सुन्दर मार्मिक निरूपण किया है। लब भरे हुए-उपर्युक्त ग्रन्थ यदि सुन्दर सम्पादन और हमारे कितने ही भाई स्वामी समन्तभद्रको अधि- तलस्पशी अनुवादादिके साथ उन्हें स्वाध्यायके लिये १'बचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजभते' (जिनसेनाचार्य) मिलते तो वे समन्तभद्रके प्रन्थोंपर से ही अर्हक्ति , २ देखो, वेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नं०१७, जो शक स्तुति तथा पूजादिकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं सं. १०५६ में उत्कीर्ण किया गया है (E. C. ) तथा महत्ताको अच्छी तरह हृदयंगम कर सकते और साथ 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० ४६ ही परीक्षा-प्रधानी रहते हुए सान्तभद्रकी ही तरह ३ तीर्थ सर्वपदार्थ तत्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे, अहमक्ति, स्तुति आदिके योग्य व्यसनी बन जाते। भन्यानामकलकभावकृतये प्रामावि काले कलौ। - अकलकुदेवने प्राप्तकी परीक्षा करने में उद्यत परीक्षक येनाचार्यसभन्नभद्रय तना तस्मै नमः संततं। (अष्टशती) के लिये श्रद्धा और गुणलता इन दो गुणोंसे युक्त
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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