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किरण १]
सत्ताका अहकार
कवल दैव निष्प्रयजनीय है, अर्थात् बिना एक दूमरेके वे में उतारेंगे तभी हमारे वादविवाद और झगड़े विलीन पंगु ही रहते है; अतः यह स्पष्ट है कि मानवी जी नमें होगे-'कोई भी इष्टानिष्ट कार्य यदि अबुद्धिपूर्व अथवा दोनों ही की नितान्त आवश्यकता है, फिर भी उन्हें किस श्रम-रहित सिद्ध होता है तो उसे देव-प्रधान मानना चाहिए समय किस रूपमें स्वीकार करें, यही न समझनेके कारण और मैसा ही कोई कार्य यदि बुद्धि-पूर्वक सम्पन्न होता है संसारमें मतविभिन्नता चली श्रारही है। इसी लिए, ईसाकी तो उसे पुरुषार्थ प्रधान मानना चाहिए।' प्रथम शताब्दीके प्रकाण्ड दार्शनिक स्याद्वादी श्राचाय-पुगव स्वामी समन्तभद्रका देवागभ-गत यह मूल वाक्य हम प्रकार समन्तभद्र स्वामीने अपने सारभून शब्दोंमें उनका महत्व, स्थान और श्रादर्श उपस्थित कर हमें भ्रममुक्त करनेका अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टाऽनिष्टं स्वदैवतः। प्रयास किया है। जब हम उनके इन शब्दोंको अपने जीवन बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टाऽनिष्टं स्वपौरुषात् ॥
सत्ताका अहङ्कार (ले०-श्री पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ)
तेरा भाकार बना कैसे सागर ! पतला इतना विशाल ! है बिन्दु-विन्दुमें अन्तहित,
तेरी सत्ताका क्या स्वरूप, तेरा गाम्भीर्य अपार प्रतल ।
इन बिन्दु-बिन्दुसे है विभिन्न ! इनकी समधि यदि बिखरे तो,
तुम हो अज्ञात अपरिचितसे, दीखे न कहीं वसुधामें जल ।।
इस दिग्य तथ्यसे महंमन्य ।। तेरा स्वरूप तब हो विलुप्त जोमाज बना इतना कराव! श्रेय बता किनको उनका जो कुछ भी हैं तेरे कमाल!
एकेक बिन्दुने मा भाकर, तेरा भाकार बनाया है। अपने तनको तुमको देकर .
तेरा गाम्भीर्य बढ़ाया है।
जीवन तत्व तुम्हारे है, ज्यों पट जीवन है तन्तु जान । जिनसे इतना वैभव पाया,
इनके विनाशमैं नाश, औरउनको मत फेंको हो प्रमत्त ।
इनके संरक्षण में रखा। तुम हमसे बने न ये तुमसे,
तेरी है सागर - निराबाद, इनको क्या " तेरा प्रदत्त,
बह जीवन - रसकी शिक्षा। सब हँसते है ये देख देख, उपहासजमक तेरी उचाल!
मान, निरापद यह पथ होगा, इससे तूही निहाल !