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________________ नाग-सभ्यताकी भारतको देन (लेखक -- श्री बाबू ज्योतिप्रमाद जैन विशारद, एम० ए०, एल. एल. बी.) 'नाग' शब्दसे हमारा अभिप्राय पशओंकी पप-जाति सुजानचरित्रमें कवि सूदनीने 'मर्पवाणी' का संस्कृतसे मे वा पाताल लोक-निवासी भवनवामी नागकुमागे अथवा भिन्न उल्लंग्व किया है। अरबी ग्रन्थ 'तोहफतुल्हिन्द' में तीर्थकरोंके शासनदेवता यक्ष-यक्षियोंमसे किसी नहीं है। मिजी खां साहिबने लिखा है कि , 'प्राकृन दूसरी भाषा है, नागजाति, जिसकी भारतीय सभ्यनाको देन प्रस्तत इसका प्रयोग गजा मन्त्री और मामन्तोंकी प्रशंसामं होता लेखका विषय है, प्राचीन भारतकी एक सुमभ्य मानव है। यह पाताल लोककी भाषा है और इसे पाताल-वाणी जाति थी। आज मनुथ्योंकी उस प्रमिन्द्व नागजानिका या नागभाषा कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नचे प्रकटरूपमें नामशेष हो गया और साथ ही साथ नमकी दर्जेके श्रादमी इसका व्यवहार करते हैं। स्मृतिका भी लोप हो गया है। इने-गिने ही व्यकि कदा- ईस्टइंडया कम्पनीके एम माटिन साहिबने अपने प्रथ चित् इस बातको जानते हैं कि 'नाग' नामक एक प्रसिद्ध ईस्ट इंडिया भाग तीसरे नागभाषा विषयमें लिखा ऐतिहासिक भारतीय मनुष्यजाति थी, जिसने कि इतिहास- है कि---- 'गवण वाती लकाकी भाषा प्राकत है और पाताला कालमें ही प्रबल पाम्राज्य स्थापित किये और जिसके लोककी नागभाषा है।' माटिन माहबको इस भाषामें राज्योंकी सत्ता मध्ययुगमक किसी न किसी रूपमें बगवर पिंगल शास्त्रपर भी पक ग्रन्थ मिला है, जिसकी टीका बनी रही। अाज भी अनेक रूपों में नाग-सभ्यताके अवशेष देवभाषा संस्कृत में की गई है। उन्होंने लिखा है कि यह हमें उपलब्ध हैं-भले ही हम उनका महत्व मुलार्थ भाषा पिंगलकी भाषा है और संस्कन-कवि इसका तथा उद्गम भूल गये हों। प्रयोग अपनी कल्पनाकी अभिव्यक्ति में करते हैं। 'नाग-भाषा'को ही लीजिये, मासिक पत्रिका 'सरस्वती' कार्वेस आदि पुराने यूरोपियन कोषकारों ने भी नागके नवम्बर सन् १६५३ के अंकमें इसी शीर्षकम एक लेख भाषाका अर्थ प्राकतभापा किया है । किन्नु नये भारतीय छपा है । उस लेख में विद्वान् लेखकने कतिपय प्रमाणोंस कोपकारांने इसका कहीं उल्लेख तक नहीं किया । यह तो निष्कर्ष निकाल लिया कि प्राकृत भाषाका ही दूसरा प्राका अतिरिक्त अपभ्रश भाषाके लिये भी नागनाम नागभाषा था और सम्भवत: पिछली शताब्दीक मध्य भाषा शब्द प्रयुक्त होता रहा है। वैयाकरणी मारकडेयने तक उसका चलन भी रहा, किन्तु यह उनकी समझमें न अपने 'प्राकृतमवस्व' ग्रन्थमैं अपभ्रश भाषाके नागर, उपपाया किकृतका नाम नागभाषा कैसे पहा। यह गुत्थी नागर और वानर-ये तीन भेद गिनाये हैं। और अपभ्रंश उन्होंने अन्य विद्वानोंको सुनमानेके लिये छोड़ दी है। भाषाविशेषज्ञ प्रो. हीरालालजीके अनुसार अपभ्रंशका जून सन् १८७७ ई. में स्व. भारतेन्दुजीन हिन्दी. वह विशेषभेद जो शौरसनी-महाराष्ट्रीमिश्रित अपभ्रश था बर्द्विनी सभा प्रयागके अधिवेशन में भाषण देते हुए कहा 'नागर' नामसे वख्यात था। यह अपभ्रंश भाषाका वह था "हममें तो कोई सन्देह नहीं कि खड़ी बोली पश्चिमी भेद है जिसकी सर्वाधिक साहित्यिक उन्नति हुई और प्रो. भाषाओं, वृजभाषा और पञ्जाबी प्रादिसे बिगडकर बनी हीरालालजी मतानुसार जिसके उपलब्ध साहित्यका है, पर इन भाषाओंका भी मूल नागभाषा रहा होगा।" लगभग तीन चौथाई जैन है। भिग्वारीदामजान पड़भाषाओंमें, वृज, मागधी संस्कृत, भाषा-विज्ञान-वेत्ताओंमें यह बात छुपी नहीं है कि यावनीके साथ साथ नागभाषाकी भी गणना की है। भगवान पार्थ और महावीर व बुद्धके ममयसे ही भारतवर्ष
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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