SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ७] किया गया है वह सैद्धान्तिक दृष्टि किया गया है। तथा निश्चय और व्यवहाररूपमें जो विभाजन किया गया है वह प्राध्यात्मकदृष्टि किया गया है- अर्थात द्रव्यार्थिनय और पर्यायार्थिकनयरूप विभाग वस्तुस्वरूप ज्ञानके लिये उपयोगी है और निश्चयनय तथा व्यवहारनयरूप विभाग जयमिद्धि के लिये उपयोगी है; परन्तु इन दोनोंके भेदको न समझ सकने के कारगा कहीं कहीं द्रव्यार्थिकन यको निश्चयनय और निश्चयन को द्रव्यार्थिकनय, इसीतरह पर्यायार्थिकनयको व्यवहारनय और व्यवह रनयको पर्यायार्थिकनय भी मान लिया गया है. जो कि गलत है। लेकिन इतना श्रवश्य ध्यान रखना चाहिये कि यदि श्राध्यात्मिकदृष्टि से वस्तुके द्रव्यांशको निश्चयपद- वाच्य और वस्तुके पर्यायांशको भग्न हो जातीं व्यथाएँ ! टूट उठतीं श्रृंखलाएँ !! कालिमा पुंछती, हृदय में यदि तुम्हारा प्यार होता ! [ श्री 'भगवत' जैन ' ] यदि तुम्हारा प्यार होता ! तो नहीं मेरे हृदयपर वासनाका भार होता !! यदि तुम्हारा प्यार होता ! दुम्ब नहीं मुझको रुलाता ! सुम्ब न मतवाला बनाता !! उदित होता ज्ञान, क्षमा-क्षण ज्योतिका संचार होता !! विश्व-धारामें न बहता ! साधना में मग्न रहता !! आत्म-बल के जागनेपर " पापका परिहार होता !! मुक्तिका अधिकार होता !! नव्य-सुख नव-यातिमरित भव्यतर, अतुलित, अखण्डित; मैं जहाँ विश्राम पाता वह नया संसार होता !! यदि तुम्हारा प्यार होता !! व्यवहारपद- बाध्य मान लिया जाय तो उस हालत में वस्तु का द्रव्यांश निश्चयनयका विषय और वस्तुका पर्यायांश वाग्नयका विषय अवश्य हो सकता है । और इस तरह यदि सैद्धान्तिक दृष्टि में पूर्वोक्त प्रकारकं निश्चयधर्मको द्रव्यांश और व्यवहारधर्मको पर्यायांश स्वीकार किया जाय तो उस हालत में निश्चयधर्म द्रव्यार्थिकनय का विषय और व्यवहारधर्म पर्यायार्थिक नयका विषय अवश्य हो सकता है. लेकिन इतनेमात्र से दोनों दृष्टियाँ कभी एक नहीं मानी जा सकती हैं। इसलिये मिश्र मिश्र दृष्टियों प्रतिपादित 'नयाँका सैद्धान्तिक वर्ग' और 'आध्यात्मिक वर्ग' ये दोनों वर्ग भी किसी हालतमें एक नहीं माने जा सकते हैं। ३४५ हम तुमको विभु कब पाएँगे ! ( श्री हीरक जैन, काशी ) हम तुमको का विभु पायेंगे ! अपनी स्वतंत्रता पानेको वाघाने कब टकराएँगे ! सुनगा कब गोरखधंधा जीवन-प्रयाणकी वेला मेंमुक्ति लगाएगी कंधा अपनी खेती की सीमा में, वो अमृतफल कर पाएँगे! कभ ान - निज ज्ञान-नयनसे ओझल इस अंध में महाप्रबलभूली सत्ताका कहाँ कहाँग्रामास लिये कब जीवनमें, कल्याणरूप बन जाएँगे! " संघर्ष परस्पर में सुखकर-दां पाप-पुण्य की मायाका--- श्रान्तमताका श्राधार लिये कब देखेंगे वन अचलरूप, सद्यान शुक्लको प्
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy