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________________ ३४४ अनेकान्त [ वर्षे ६ और महावक्यको निश्चयनय और व्यवहारनय कहना व्यवहारनयका विभाग जहां कहीं भी किया गया हो वह असंगत नहीं है। फिर भी जैनधर्म प्रधानतया माध्यात्मिक सब आध्यात्मिक दृष्टिले ही किया है। इन सभी कथनों में धर्म होमेकी वजहसे उसके कथनका प्रतिपाद्य विषय लप- प्रमाण, प्रमाणाभाष, नय और नयाभासकी प्रक्रिया घटित भूत मारमाकी मुक्तिके उपादान और निमित्त कारणभूत की जा सकती है। लेखका कलेवर बढ़ जानेके सबब अना. निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म ही रहे है। इसलिये इनका वश्यक समझकर यह पर इसका विवेचना नहीं किया गया है। प्रतिपादन करनेवाले निश्चयनय और व्यवहारनयको 'नयों प्रारमा और शरीरादिकमें आध्यात्मिक दृष्टि से ही स्व का माध्यामिकवर्ग" नाम दिया है। और श्रामिकताम और परका भेद करके स्वको नित्य और सत् तथा परको नयोंकी इस प्रक्रियाको अपनाने के सबब ही जैनधर्म दूसरे अनित्य और असत् बतलाया गया है। तथा स्व-अर्थात आध्यात्मिक धौके बीच में अद्वतीय बनकर खड़ा हुना है। श्रारमाको नित्य और मत होनेकी वजह उपादेय चौर पर जैनधर्ममें प्राध्यात्मिक दृष्टिसे जिस प्रकार उपादान अर्थात शरीरादिकको अनित्य और असत होनेकी वजहसे और निमित्तकारको क्रमसे निश्चय और व्यवहार पदों स्याज्य बतलाया गया है। यहाँपर नित्यका बर्य ही रुत का वाच्य स्वीकार करके इनका प्रतिपादन करने वाले पद, और अमित्यका बर्थी अमत् समझना चाहिये । चकि वाक्य और महावाक्यको निश्चयमय और व्यवहारनय माना प्रारमा जन्म-जन्मान्तरमें भिन्न २ शरीर धारण करते हुए गया है उसी प्रकार प्राध्यात्मिक दृष्टिसे ही मुक्ति और उस भी एक रहता है. इसलिये निस्य माना गया है और शरीके कारणों में कार्य और कारण. उद्देश्य और विधेय, प्राप्य रादिक बदलते रहते हैं, इसलिये अनित्य माने गये हैं। और प्रापक तथा साध्य और साधनका भेद घटित करके इन इन अनित्य और असत् शशीरादिकके संयोग ही पारमामें मेंसे प्रथम अर्थात कार्य, उद्देश्य, प्राप्य और साध्यको मनुष्य, पशु, पक्षीमादिका व्यवहार होता है। प्रात्मामें बाल, निश्चयपदका तथा द्वितीय अर्थात कारण, विधय, प्रापक युवा और वृद्ध अवस्थाओंका व्यवहार भी शरीराश्रित है। और साधनको व्यवहारपदका वाच्य मानकर इनका प्रति- इसी तरह जन्म और मरणा भी शरीराश्रित ही है, कारण पादन करनेवाले पद, वाक्य और महावाक्योंको भी निश्चय कि नित्य यात्माकी ये सब अनित्य, स्थूल अवस्थायें स्वीकार नय और व्यवहारनय स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह नहीं की जा सकती हैं। इसलिये इन सब अवस्थाओं है कि एक वस्तु में कार्यता प्रादिका व्यवहार दूसरी वस्तुम __को जो आत्माकी अवस्थ ये स्वीकार किया गया है इसको विद्यमान कारशता सादिके अधीन है। इसी प्रकार एक वस्तु व्यवहारनय माना गया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु में कारयाता भादिका व्यवहार दूसरी वस्तुमें विद्यमान में एक तो स्वतंत्र स्वाभाविक धर्म रहता है और एक श्राकार्यता भादिके अधीन है इस तरह कार्य, उदेश्य, प्राप्य रोपित धर्म भी उसमें रहा करता है । लोक व्यवहारकी . और साध्यका प्रतिपादन करने वाले पद, वाक्य और महा- दृष्टिये भी वस्तुम स्वाभाविक और कारोपित धर्मों के विभावाक्य कारण, विधेय, प्रापक और साधनका प्रतिपादन जनकी आवश्यकता रहा करती है। ये आरोपित धर्म चकि करने वाले पद, वाक्य और महावाक्यकी अपेक्षा रहते हैं पराश्रित होते हैं इसलिये इन्हें व्यवहारनयका प्रतिपाच और कारण, विधेय, प्रापक और साधनका प्रतिपादन करने विषय माना गया है और स्वाभाविक धर्म चूंकि स्वाचित वाले पद, वाक्य और महावाक्य कार्य, उद्देश्य, प्राप्य रहा करते हैं इसलिये इन्हें निश्चयनयका विषय माना और सायका प्रतिपादन करने वाले पद, वाक्य और महा गया है। तात्पर्य यह है कि स्वामाविक धर्मको निश्चयपद वाक्यकी अपेक्षा रखते हैं। इसलिये ऐसे पदों, वाक्यों और का धौर पराश्रित धर्मको व्यवहारपदका वाच्य स्वीकार महावाक्योंको नयकोटिमें अन्नभूत किया गया है और किया गया है। इसलिये इनका प्रतिपादन करनेवाले वचनी कि ये सब विभाग जयसिद्धिमें ही प्रयोजक होते हैं. को भी क्रमसे निश्चयनय और व्यवहारनय कहा गया है। इसलिये इनको भी माध्यात्मिक वर्गमें ही अन्तर्भूत . इस कथनसे यह बात भली भांति स्पष्ट हो जाती है समझना चाहिये । कारण कि जैनधर्ममें निश्चयमय और कि नयाँका दण्यार्थिक और पर्यायार्थिकरूपसे जो विभाजन
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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