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________________ किरण ७] नयोंका विश्लेषण ३४३ 'धर्म' नामसे पुकारता है। उसे वह दो भागोंमें विभक्त कर इन दोनों धौंका प्रतिपादन करनेवाले परार्थश्चतके देता है। एक निश्चय धर्म और दृमरा व्यवहार धर्म। भी दोभेन होजाते हैं-एक निश्चयनय और दूसग म्यवहारतात्पर्य यह है कि किसी भी कार्यके लिये हमेशा दो प्रकार मय । व्यवहारधर्म-मापेक्ष निश्चयधर्मका प्रतिपादन करने के कारणों की आवश्यकता रहा करती है। एक उपादान- पाले पद, वाक्य और महावाक्यको निश्चयनय और कारण और दूसरा निमित्त कारण । उपादानकारगाको निश्चयधर्म-सापेक्ष व्यवहारधर्मका प्रतिपादन करने वाले प्रारमभूत या अन्तरंग और निमित्त कारणको अनारमभूत पद, वाक्य यौर महावाक्यको व्यवहारनय समझना या बहिरंग कारण भी कहते हैं। ये दोनों कारण जहाँ ___ चाहिये। और इन दोनोंका प्रतिपादन करनेवाले वाक्य मिल जाते हैं वहाँ कार्य निष्पन्न हो जाता है और जहां इन और महावाक्यको परार्थप्रमाण या प्रमाणवाक्य और प्रमाणदोनों कारणोंका या दोनों से एकका अभाव रहता है वहां महावाक्य समझना चाहिये । जो वाक्य अथवा महावाक्य कार्य निष्पा नहीं होता है। लेकिन यह बात अवश्य है केवल व्यवहारधर्म या केवल निश्चयधर्मका ही कथन करते कि कहीं कहीं उपादानकारग की मुख्यता और निमित्तकारण हैं-एक दूसरे धर्मका निषेध नहीं करते हैं, तो ऐसी हालत में ये की गौणता रहते हुए कार्य निष्पन्न होता है और कहीं कहीं वाक्य अथवा महावाक्य प्रमाण माने जायंगे। और यदि वे उपादान कारणकी गौणता और निमित्त कारगा की प्रधानता परस्परमें एक दूसरे धर्मका निषेध करते हैं, तो ऐसी हालन रहते हए कार्य निष्पन्न होता है इसका सबब यह है कि में वे प्रमायााभास ही माने जायंगे । तात्पर्य यह कि जब कहीं कहीं तो निमित्त कारगा उपादानकारणका सहायक निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मोंका समुदायरूप इकाई ही बन कर कार्य किया करता है और कहीं कहीं वह मुकिम्प कार्यमें कारण मानी गयी है, तो ऐसी हालतमें ये उपादानकारणका प्रेरक बनकर कार्य किया करता है। दोनों धर्म इस इकाई के अंश ही सिद्ध होते हैं, लेकिन जब ऊपर जो मुक्तिके कारणभृन दो धर्मोंका उल्लेख किया गया एक ही धर्मको मुक्तिका कारण कहा जाता है, तो इसका है, उनमेंये पहिले अर्थात निश्चयधर्मको मुनिका उपादान- अर्थ यह होता है कि वह मुक्तिके कारणरूप इकाईका अंश आम्मभूत या अंतरंग कारण और दूसरे अर्थात् व्यवहारधर्म नहीं है, बल्कि उस रूपमें वह स्वयं ही एक इकाई है। इसलिये को निमित्त, अनात्मभूत या बहिरंग कारण समझना इस प्रकारका कथन यदि दूसरे धर्मका विरोधक न होते हुए चाहिये। अंतरंग राग, द्वेष नथा मोहरूप परिगति और सिर्फ अपने प्रतिपाय धर्ममें मुक्तिरूप कार्यकी कारयाताका अपनी आकांक्षाओंको कम करना निश्चयधर्म माना गया है विधान करता है, तो वह कथन प्रमाण माना जायगा। और और इममें सहायक अथवा इसके पोषक बाह्य भाचरणोंको यदि वह दूसरे धर्मका विरोधक होते हुए अपने प्रतिपाद्य व्यवहारधर्म कहा गया है । धर्ममें ही मुक्तिरूप कार्यकी कारणताका विधान करता है ये निश्चय और व्यवहार दोनों धर्म परस्पर सापेक्ष तो वह कथन प्रमाणाभास माना जायगा। एक एक धर्मका होकर ही मुक्तिके साधक होसकते हैं। इसलिये जो व्यवहार- स्वतंत्र स्वतंत्र प्रतिपादन करनेवाले ये वाक्य अथवा महाधर्मकी उपेक्षा करके मुक्ति प्राप्तिके लिये केवल निश्चयधर्म बाक्य पूर्वोक्त प्रकारसे नय अथवा मयाभास नहीं माने जा को पकानेकी कोशिश करते हैं, वे इसमें सफल नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार द्रव्यांश और पर्यायांशका विवेचन सकते हैं और जो निश्चयधर्मकी ओर दुर्लक्ष्य करके केवल करनेवाले पद, वाक्य और महावाक्योंकी तरह निश्चय व्यवहारधर्मका अवलम्बन करके ही संतुष्ट हो जाते है, और व्यवहारका विवेचन करनेवाले पद, वाक्य और महाउनकी प्रयोजनसिद्धि भी उनसे दूर ही रहा करती है। इस वाक्योंमें मी प्रमाण, प्रमाणाभास. नय और नयाभासका लिये ऐसे लोगोंको धर्मात्मा न मानकर जैनधर्म में होंगी, व्यवहार करना चाहिये। पाखंडी आदि नाम दिये गये हैं ! इन दोनों पोंमेंसे यद्यपि प्रत्येक कार्यमें उपादान और निमित्त दोनों निश्चयधर्म नियत अर्थात एकरूप और व्यवहारधर्म अनि- तरहके कारणोंकी आवश्यकता रहा करती है, इसलिये सभी यत अर्थात् अनेकरूप रहता है। कार्योंके इन कारणोंका प्रतिपादन करनेवाले पद, वाक्य
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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