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अनेकान्त
[वर्ष ६
सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुणभूषणं श्रिया चारु-चितम् ।
मग्नं स्वस्यां रुचितं जयसि च मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥५॥ (हे वीर जिन !) श्राप उम गुणभूषणको-सर्वश-वीतरागतादिरूप गुणोके श्राभूषणको-धारण किये हुए हैं जो मभ्यजनों अथवा समवसरण-सभा-स्थित भव्यजनोंको रुचिकर है-इष्ट है-और श्रीसे-अष्ट प्रातिहार्यादिरूप विभूतिसेऐसे रूसमें पुष्ट है जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। और अपने शरीरकी कान्तिसे श्राप उस मृगलाञ्छनचन्द्रमाको जीतते है जो अपनी दीतिमें मग्न है और सबको सुन्दर तथा प्यारा मालूम होता है आपके शरीरका सौन्दर्य और आकर्षण पूर्ण चन्द्रमासे भी बढ़ा चढ़ा है।'
त्वं जिन गत-मद-मायस्तव भावानां मुमुक्षुकामद मायः।
श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः॥६॥ ''मुमुक्षीको इच्छित प्रदान करने वाले-उनकी मुक्तिप्राप्ति में परमसहायक-(हे वीर जिन!) श्राप मद और मायासे रहित हैं-अकषायभावको प्राप्त होनेसे निर्दोष है-, श्रापका जीवादि-पदार्थोका परिज्ञान-केवलज्ञानरूप प्रमाण(सकल-बाधाश्रोसे रहित होने के कारगा) अतिशय प्रशंसनीय है, और अापने श्रीविशिष्ट हेयोपादेय तत्त्वके परिज्ञान-लक्षणलक्ष्मीसे युक्त तथा कपट-रहित यम और दमका-महानतोके अनुष्ठान तथा परम इन्द्रिय जयका-उपदेश दिया है।'
गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः प्रबहानवतः।
तव शमवादानवतो गतमूजितमपगतप्रमादानवतः ।।७।। 'जिस प्रकार करते हुए मदके दानी, और गिरि-भित्तियों-पर्वत-कटानयोंका विदारण करने वाले (महासामर्थ्यवान्) ऐसे श्रीमान् सर्वलक्षणसम्पन्न उत्तम-जाति-विशिष्ट गजेन्द्रका स्वाधीन गमन होता है उसी प्रकार परम अहिंसा-दानअभयदान के दानी हे वीर जिन ! शमवादोंकी-रागादिक दोषोंकी उपशान्तिके प्रतिपादक प्रागमोंकी-रक्षा करते हुए श्राम्का उदार विहार हुश्रा है।-आग्ने विहार-द्वारा जगतको रागादिक दोषांके शमनरूा परमब्रह्म-अहिंसाका, सद्दष्टविधायक-अनेकाननवादका और समताप्रस्थापक साम्यवादका उपदेश दिया है, जो सब लोकमें मद-अहंकारका त्याग, वैरविरोधका परिहार और परस्परमें अभयदानका विशन करके सर्वत्र शान्ति-सुखकी स्थापना करते हैं और इसलिए सन्मार्गस्वरूप है। साथ ही वैषम्यस्थापक, हिंसाविधायक और सर्वथा एकान्तपतिपादक उन सभी वादों-श्रागमोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे।'
बहुगुण-सम्पदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् ।
नयभक्तवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम ॥८॥ 'हे वीर जिनदेव ! जो पर-मत है-अापके मत-शासनसे भिन्न दूसरोंका शासन है-वह मधुर वचनोंके विन्यास से-कानोंको प्रिय मालूम देने वाले वाक्योंकी रचनासे-मनोश होता हुश्रा भी-प्रकटरूपमें मनोहर तथा रुचिकर जान पड़ता हुश्रा भी-यहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थ-वादिता और परहितप्रतिपादनादि-रूप बहुतसे गुण है उनकी शोभासे रहित है-सर्वथैकान्नवादका श्राश्रय लेने के कारण वे शोभन गुण उसमें नहीं गये जाते
और इस लिए वह यथार्थ घस्तुके निरूपणादिमें असमर्थ होता हुआ वास्तवमें अपूर्ण, सबाध तथा जगत के लिए अकल्याणकारी है। किन्तु श्रापका मत-शासन नयोंके भंग-स्यादस्ति-मस्त्यादिरूप अलंकारोंसे अलंकृत है अथवा नयोकी भक्तउगसनारूप प्राभूषणको प्रदान करता है-अनेकान्तवादका श्राश्रय लेकर नयाँके सापेक्ष व्यवहारकी सुन्दर शिक्षा देना है,
और इस तरह बयार्थ वस्तु-तत्त्वके निरूपण और परहित-प्रतिपादनदिमें समर्थ होता हुआ बहुगुण सम्पत्तिसे युक्त है, (हसीसे) पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब पोरसे भद्र रूप निर्वाधनादि-विशिष्ट शोभासम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी है ।