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________________ ३२२ अनेकान्न [वर्ष ६ श्राजाता है। आपने बा• बहादुरसिंहजीके पत्रको भी अनि. बा. बहादुरसिंहजी सिंघीका पत्र और उसका उत्तरकल रूपम ज्योंका त्यों नहीं छापा, किन्तु सम्पादनके चक्र नं.युत अधिष्ठाता वीरमेवामांदरकी सेवामेंपर चढ़ा कर उसमें मनमानी काट-छांट, कमी-बेशी और निवेदन । चमेकाम्तका छठे वर्षका जो विज्ञप्तिमा नन्दीली की है, जिसके दो चार नमूने म प्रकार है- अभी मेरे पास पाया है उसमें वीरशासनजयंतीका बाई पत्रके उपरी भागपर '२६-६-४३' ऐसे जो तारीख दी सहस्राब्दी महोत्पब मनवानेकी योजनासे सम्बन्ध रखने थी उसे निकाल दिया, 'और तेरापंधी सभी सहमत के वाला एक प्रस्ताव पाहै। उपमें बीरशासमजयन्तीके स्थान पर 'तथा तेरापंथी सब एक मत है' बनाया गया महोत्सवको अखिल भारतवर्षीय जैनमहोत्सवका रूप देनेकी और 'मनाया' को 'मनवाया में 'उपदेश दिया है की उप बात कही गई और उसी में अस्थायी नियोजकसमितिके देश दिया था' में 'विचारने' को 'म्बोज करने में और सभ्योंकी नामावलीमें श्वेताम्बरसमाजके अन्यतम प्रतिनिधि 'या पर्व'को 'यह पर्व' में परिवर्तित किया गया। साथ ही रूपसे मेरा भी नाम बिना ही पूछे दाखिल किया है। इस पत्रके अन्त में 'निवेदक' लिख कर उसके नीचे जो 'बहादुर कारण उक्त प्रस्ताव और वीरशासनजयन्तीकेपारमश्वेता म्बरसमाजके एक प्रतिनिधिको हैसियतसे मुमको कुछ सिंह सिंधी ऐसा पत्रप्रेषकका हस्ताक्षरी नाम था उस सबको लिखना पड़ रहा है। यद्यपि मैं अपना विचार श्वेताम्बर बदल कर 'निवेदक' के स्थान पर तो 'भवदीय' बनाया समाजके प्रतिनिधिके रूपसे लिख रहा है जिसमें किसी भी गया और शेष नामवाली पंक्तिका 'बा. बहादूरसिंहजी श्वेताम्बरम्यक्तिको भापत्ति नहीं हो सकती । फिर भी सिंधी, कलकत्ता' इस कामे रूपान्तर किया गया है। दूसरे मेरा यह विचार स्थानकवासी समाजको भी मान्य होगा; भी कुछ परिवर्तन किये गये हैं। क्योंकि मैं जो कुछ लिख रहा है उसमें श्वेताम्बर, स्थानकमालूम नही किसीके पत्रको उद्धृत करते हुए उसमें वासी और तेरापंथी सभी सहमत। . इस प्रकारके सम्पादन-परिवर्तनादि-विषयक स्वेच्छाचारके जब वीरशासमजयंती महोत्सवको अखिममारतवर्षीय लिये सम्पादकजीक पास क्या प्राधार है-किस अधिकारसे जैन महोत्सव बनाना होतब यह जरूरी हो जाता है कि सभी उन्होंने ऐसा किया है। और क्या उनका यह कृत्य अपने जैन फिरकोंप्रमाणभूत और उत्तरदाई मुख्यम्यक्तियोंसे पहले पाठकोंके प्रति एक प्रकारका विश्वासघात नहीं हैं। संभव है परामर्श किया जाय, जो वीरसेवामंदिरने किया नहीं है। सम्पादकजीने अपने इस कृत्यद्वारा सिंधीजीको यह पाठ प्रस्तावमें कहा गया है कि भागामी महोत्सव राजगृही पढाना चाहा कि उन्हें पत्रास ढंगसे लिखना चाहिये के विपुलाचवापर भीर श्रावणा कृष्णप्रतिपको मनाया जाय. जहाँ और जिस दिन भगवान महावीर प्रथम उपदेश था और अपनेको 'निवेदक' न लिख कर 'भवदीय' शब्दके विचा।मैं समझता हूँ कि प्रस्तावका यह कथन विशेषप्रयोगसे ही व्यक्त करना चाहिये था। परन्तु जब सिंधीजीने रूपसे भापतिक योग्याच्या श्वेताम्बर और क्या स्थानकयह देखा होगा कि उनके हस्ताक्षरी नामके साथ भी 'बा.' वासीकोमाज तक बहन जानता है और न मानता (बाबू) और 'जी' शब्द जोड़ कर उन्हें उन्हींकी तरफसे कि भगवान महावीरने अरू स्थानमें उक्त सिधिको प्रथम प्रयुक्त हुए सूचित किया गया तब उन्हें उसके लिये कितना उपदेश था। इसके विल्द सभी स्वेताम्बर और सभी स्थानक संकोच हुना होगा और उस परसे उन्होंने सम्पादकजीकी वासी पुराने इतिहास और परम्परामाधार पर यह मानते योग्यताका कितना अनुभव किया होगा, इसे विश पाठक हैक भगवान महावीरबजुबानीका क्ट पर प्रथम उपदेश स्वयं समझ सकते है। अस्तु । किया और सो मी वैशाख शुक्ष दशमीको।। अबमें सिंधीजीके पत्रको अविकलरूपसे, अपने उत्तरपत्र मेरे इतकबनके समर्थनमें केवबा परम्परागत भुति के साथ, अनेकान्त-पाठकों के सामने रखता है, जिससे उने हीनही बल्कि अधिकसे अधिक पुराने अन्योंका मी वस्तुस्थितिका ठीक बोध हो सके और वे जैनसत्यप्रकाशके भाचार है। वेताम्बर और स्थानकवासी समाजके सम्पादककी विरोधी-मावना और गलत प्रचारको भलेप्रकार सामने ऐसे ऐतिहासिक भाचार हों और परम्परा हो या समझ सकें। सबसमें एकमत एक ऐसी नई निराधार बात
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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