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________________ किरण ३] विश्वको अहिंसाका संदेश १५१ की पूर्तिको ही अपना ध्येय न समझे, बल्कि उसे चपनी बिताने के योग्य हो सकते हैं और इसीसे हम बार २ युद्ध गिरावटका मूल कारया जाने संपारी जीव पौद्गलिक होनेकी सम्भावनाको का कर सकते हैं। समाज व्यक्तियोंके पदार्थों का त्याग नहीं कर सकते यह ठीक है. परन्तु उसमें समुदायका ही नाम है। जब व्यक्तिगत जीवन धार्मिक नीव प्रामक्ति कम रखें. दूसरों के लिये भी जीवन-निर्वाह करनेके पर टिका होगा तो सामाजिक जीवन स्वयम् धार्मिक होगा, लिये कुछ छोड़ें, प्रकृति के नियमोंका उल्लकन न करें और धार्मिक जीवन होने पर जीवन संतोषमय होगा, न्यर्थ के श्रा-माके सत्यस्वरूको समम इस संपारके माथ अपने झगड़े किसीकोन महावंगे, साधारण जनता शान्ति स्थाषित सम्बन्धकी वास्तविकताको सममें। ऐसा होने पर ही हमारा करनेके लिये उरमुक होगी और शान्तिको स्थापित करके उत्थान हो सकता है और हम सुख और शान्तिमय जीवन ही चैन लेगी। विश्वको अहिंसाका संदेश (ले०-बा. प्रभुलाल जैन 'प्रेमी' ) मनमें यह रढ़ संकल्प कर लेने पर कि इस मारामें विश्व में शौति होने के साथ ३ हमारे प्रशांत हृदयोंको भी सम्पादकजीकी सेवामें लेख भेज कर उनकी प्राज्ञा-पालन शान्ति मिल सके। अत: प्यारे पाठको! आइये, आज लेखके करना अनिवार्य है; हृदयमें अनेक विचार-धारायें उठने विषय “विश्वको अहिंसाका संदेश" पर न केवल विचारली! किंकर्तव्यविमूढ़ता-वश नहीं। अपितु निर्वाणोत्सव वि.नमय करें, अपितु पूर्वजोंके महान स्याग और तपश्चर्यास जैसे भारतके अद्वितीय पर्वका स्वागत करनेके लिये पुष्प संग्रहीत 'अहिंसा रत्न' की शीतल धाभासे विकी अशांति वाटिकाके किन सुमन संचयोंपे माल गूथी जाय? एक नहीं को मिटा और सभी स्वार्थान्ध राष्ट्रोको उसीअमोघ रस्नको अनेक संकल्प विकल्प उठे और अन्तर्धान हो गये। कई दिव्य-ज्योनि पालोकित करदें जिसकी प्रबल भाभाके दिनकी मानसिक उधेद बुनके पश्चात् यही निश्चय हुश्रा, कि प्रकाशसं मनसा,वाचा, कर्मणा, लौकिक और पारलौकिक आज जब सारे विश्वमै अशान्ति छाई हुई है। एक देश सभी प्रकारकी अशांति मिट जाती है। दसरे देशको हपके लिये सुरसा जैमा मुंह फादे खड़ा "विश्वको अहिंसाकासंदेश" यह पानके स्वार्थान्ध और है। हमारे ही देश में जहां कभी घी, दूध, दहीकी नदियां हिंसा वृत्तिको ही साफल्य साधनाकी कुंजी समझने वाले बहा करती थीं जिसमें जन्म धारण करनेके लिये मनुष्यों लोगोंको अवश्य ही हास्यास्पद और विस्मयजम्य मालूम की कौन कहे, देवताओंका भी मन ललचाया करता था, होगा। क्योंकि भाज संसारकी सारी व्यवस्था राजनैतिक, उसी भारतमें आज आम और वस्त्र के लिये बाहि २ मंची सामाजिक और आर्थिक हिंसा वृत्ति पर ही टिकी और उसी हुई है। विनाही कारण प्रतिदिन हजाा ही नहीं लाखों पर अपलम्बित मालूम होती है ! जब मानव समाजका नर-नारी और बालक रणचन्डीकी भेंट चढ़ाये जारहे हैं। अधिकांश भाग अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो, जब सारे ऐसे समयमें अशीतिको मिटा कर शान्तिका स्थापन कराना, विश्वमै जिधर दृष्टि डाले उधर ही एक देश दूसरे देशको और भूले भटकॉवो मुपय पर लाना ही इमारी सच्ची एक जाति दूसरी जातिको हडपमेमें लगी हो छल और राष्ट्रसेवा, धर्मसेवा और समाज सेवा कही जासकती है। कपट ही अब राजनीति समझ जाते हो, सब साधारणतया मत: माज मैं पाठकोंका ध्यान ऐसे ही विषयकी ओर अधिक जनसमुदायका यही विचार हो जाता है, कि आकर्षित करना चाहता है, जिस पर माचरण करनेसे ऐसे समयमें हिंसाकी बात मूर्खता ही । पर
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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