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________________ अनेकान्त [ वर्षे ६ अंधकारमें ही प्रकाशकी भावश्यकता पड़ती है। समुद्रका शक्ति तलवारों और बन्दूकों पर विजय न पाती होती, तो खारी पानी ही घदेके शीतज, सुस्वादमय जलका मिठास वह अशोक जिसने लाखों खून करके कलिंग विजय किया था, बना सकता है और किसी भी प्राप्त करने योग्य वस्तुका और जिसकी प्राज्ञासे चन्डीगिरिने बौद्ध भिक्षुओंके सर्वनाश वास्तविक मूख्य उसको अप्राप्त दशामें ही कूता जा सकता जैसा वृणिताचरण ही अपने जीवनका ध्येय बना रहा था, है। यदि पथभ्रान्त मनुष्य उचित पथप्रदर्शित करा देने अन्तमें अहिंसाका उपासक बन कर अपने राज्यमें अहिंसा पर भी उस पथ को छोड़कर अन्यत्र भटकता फिरता है, तो की व्योंही न पिटवाता और न अहिंसाके संदेशको विश्वयह उसीकी बुद्धिमास्तिताका परिणाम समझना चाहिये। व्यापी बनानेके लिये अपने लड़के और लडकीको विदेशों में पाशस्थ वैज्ञानिक यह सोच कर कि आजकी उनकी भेज कर अाज भारतके इतिहास में "महान् अशोक" कह. प्रगति संसारको चकाचौंध करने वाली है भले ही अपने लाता। मौर्य और गुप्त साम्राज्य अहिंसाकी ही प्रधानताके मुंह मिया मिह बनते रहें, क्योंकि वह भी उनकी वस्तु कारण घाज भी विश्वके इतिहास में स्वर्ण-युगके नामसे नहीं है। पर याद उनसे भी हृदय पर हाथ रख कर पूछा पुकारे जते हैं। जाय तो मानना पड़ेगा कि भाज समस्त विश्व प्राध्यात्मिक इन्द्रने जब प्रवृज्याके लिये उधत नमिराज से कहा कि शान्तिके लिये जलसे पृथक हुई मछली और मणिविहीन तुम अपने शत्रुको पराजित कर फिर सुख संयम धारणा सकी तरह तबफहा रहा है। पाश्चात्य वैज्ञानिक विज्ञान करो, तब उस राजर्षिने भी श-दमनका केवल एक यही की जिन गुत्थियों को माज सुलझा रहे हैं उन्हें हमारे ही उपाय बतलाया कि, संग्राममें जाकर हजारों और लाखों विज्ञानवेत्ता प्राचार्य माजसे हजारों वर्ष पहिले निश्चित योद्वानोंको जीतना भासान है लेकिन अपने पापको जं.तना कर चुके थे। पर हमारे पूर्वज बाह्यजगतके जब पदार्थोके कठिन है। प्रारमजय ही परम जय है। इस परम जयको मोहग्रस्त नहीं होते थे, वे तो सदैव अन्तरजगतके अमृत छोड़ मैं तुच्छ जयके पीछे क्या पद? आध्यात्मिक युद्ध पारावारमें ही मन्न रहते थे। प्राचीन ग्रन्थ साक्षी हैं कि वे जब मेरे समक्ष है, इस बाझ युद्ध में क्यों फंसूं? युद्धका कैसे प्रकृतिप्रेमी, अहिंसाप्रेमी और ईशप्रेमा थे । यही उद्देश्य यदि सुख ही है और यदि वह सुख भी मुझे कारण था कि वे शांतिके समुद थे, प्रेमके प्रतिनिधि थे, अपने ऊपर जय करने पर मिल सकता है तो मैं क्या व्यर्थ और दयाके अवतार थे। उनके दर्शनों मात्रमे ही पशु और ही सबको मारता फिरूं क्यों कि मैं उषों २ क्रोधावेगसे परियों तकका कल्याण होजाता था, ऐसे एक नहीं भनेक दूसरोंको मारता फिरूंगा वैसे २ क्रोध और वैर अधिकाधिक उदाहरणोंसे हमारा प्रतीत इतिहास रंगा पड़ा है। आज बढ़ता जावेगा, जो अन्त में मेरे ही विनाशका कारण होगा। भी दूसरोंकी हत्यामें रत, पथभ्रान्त, अशांत स्वार्थान्ध अत: ज्ञानवान मनुष्यको अपने ही इदय स्थित क्रोध रूपी' विश्वको प्रेम-पाशमें बांधनेके लिये किसी ऐसे ही एक गुरु बैरीको नष्ट करनेका ही प्रयत्न क्यों न करना चाहिये? क्यों मंत्रकी प्रावश्यकता है, जिसकी साधना द्वारा इसका कल्याण कि इससे किसी दूसरे व्यक्तिको तो कष्ट होता ही नहीं है हो सके। और ऐसा अचूक गुरुमंत्र जिस एककी साधनासे है और स्वयं भी सुख-शांति प्राप्त करलेता है"। यही है सभी साधनायें सुलभ हो जाये अहिंसा ही है। "अहिंसा अहिंसाका सच्चा संदेश तथा हमारे भारतीय राजकुमारोंकी परमोधर्म: यतो धर्मस्ततो जयः"-अहिंसा ही परम धर्म इन्द्रियजयता और अहिंसक आदर्शवादिताका ज्वलन्त है और धर्मकी ही जय होती है। इसकी शक्ति महान है। प्रमाण । क्या अहिंसाका ऐसा भादर्शरूप और अनुकरणीय अहिंसाका अर्थ है पशुबलका द्वेषरहित विरोध तथा विध- उदाहरण हमें विश्व इतिहास में प्रत्यत्र भी प्रास हो प्रेम जहाँ बन्तूतलवारें, तो, मशीनगनें, बम, जहरीले सकेगा ? उपर्युकभहिंसक वीके उद्धरणोंसे "अहिंसा गैसें गया वारपीडों जैसे भयानक अस्त्र-शस्त्र भी हार मान वीरस्य भूषणम्" अर्थात अहिंसा पीरोंका धर्म है कायरोंका कर बैठ जाते हैं, वहां अहिंसाका सिद्धान्त ही अपना अक्षय नहीं यह स्पष्ट हो जाता है। अत: दूसरोंकी हत्या रत बमिट और बहुत प्रभाव दिखलाता है। यदि अहिंसाकी विश्व यदिअपनी वास्तविक वीरताका परिचय देना चाहता है,
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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