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________________ -किरण ३] विश्वको अहिंसाका संदेश ११३ यदि यह सचमुच ही पीर पूजाका उपासक है, और-विश्वके सर्ववेदा न तत् कुयुः स यज्ञाश्च भारत । माधुनिक इतिहासके प्रात:स्मरणीय वीरोंमें अपना नाम मवे तोभिषकाश्च यत् कुर्यात् प्राणिनां दय ।। अंकित करनेका इच्छुक है, तो अपने ही दय स्थित अहिंसा लक्षणो धर्मो धर्मः प्राणिनां बधः। क्रोधादि बैरियोंके हमनमें अपनी वीरताका परिचय देना तस्माद् धर्मार्थभिलाकः कर्त्तव्या प्राणिनां दया । चाहिये । प्रात्मा ही परमात्मा है, जिसने अपने आपको अर्थात्-हे अर्जुन जो क्या फल देती है, वह फल जीत लिया, उसीने परमात्माको जीत लिया ! और जिसने चारों वेद भी नहीं देते, और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा परमात्माको जीत लिया फिर उसे अशांति कहाँ ? सब तीयोंके स्मान बंदन भी वह फल नहीं दे सकते हैं। यद्यपि अहिंसा जैनधर्मका प्राण है, पर विश्वका कोई अहिंसा ही धर्म है, और प्राणियोंका बध ही अधर्म है. इस ऐसा धर्म नहीं जिसने अहिंसाका विरोध किया हो। चाहे लिये धार्मिक पुरुषों को हमेशा धार्मिक सिदान्त दया पर वह हिन्दू धर्म हो, चाहे सलाम हो, चाहे बौख हो अथवा ही चलना चाहिये। क्रिश्चियन। उन भित्र-भिख मतानुयायियोंने अहिंसा जैसे । अहिंसाके सम्बन्धमें लोग नाना प्रकारकी शंकाये उठाते बस्नको पाकर उसके मालोकसे संसारको पालोकित किया है, कि अहिंसा संसारकी वस्तु नहीं, स्वर्गका मादर्श है, अथवा केवल धार्मिक ग्रन्थों पृष्ठोंको सुशोभित करने तक तथा जीवनके सब प्रसंगोंपर इसका उपयोग नहीं हो सकता ही उसे सीमित रक्खा या गुदादियों में छिपाकर उसकी स्वयं इस सबका कारण इसके बापक अर्थको ही नहीं समझना की प्राभाको भी विकृत करनेका असफल प्रयत्न किया, है। अहिंसाका अर्थ केवल हिसा हीन करना हो, तब तो यह दूसरी बात है, और इसके समुचित उत्तर देनेका पूर्ण उसे कायरताकी पोषक और सब अवसरों पर काममें न उत्तरदायित्व उन्हीं पर छोक, अपना रास्ता नापना अधिक पाने वाली वस्तु समझा जा सकता है। पर निश्चयरूपसे श्रेयस्कर दीखता है ! अहिंसाके सम्बन्धमें व्यासजीके वाक्य पशुबलका द्वेषरहित विरोध अहिंसाके सिद्धान्तका मुख्य स्मरण रखने योग्य हैं ! वे कहते हैं: अंग है। अहिंसा निषेधात्मक गुण नहीं है। यह मनुष्यों की अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य बचनद्वयम् । शक्तियों में सोंच है। वास्तवमें अहिंसक वृत्ति ही मनुष्य परोपकारः पुण्याय पापाय पर-पीड़नम ।। को पशुसे ऊपर उठाती है। अहिंसाका मूल प्रेम है। शत्रुके कषाय-पशुभिर्दुधर्मकामार्थनाशकैः। प्रति क्रोध न करना, केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, पर राममंत्रहतैयज्ञं विधेहि विहितं बुधः।। सच्चे हिंसकके हृदयमें तो उसके प्रति प्रेम और सनावका प्राणघातात्तु योधर्ममीहते मूढमानप्तः। संचार होना चाहिये। सच तो यह है कि विश्वके इस स वांछति सुधावृष्टि कृष्णाहि-मुखकोटरात् ।। संघर्ष के बीच प्रेम ही वह तत्व, जो इसको टिकाये हुये अर्थात् अठारह पुराणों में अनेक बातें रहते हुए भी है। क्योंकि 'Love is god and god is love दो ही हैं, पहिली यह है कि दया यानी अहिंसारूपी अर्थात् प्रेम परमात्माका रूप है और परमात्मा प्रेमरूप है। परोपकार होनेसे पुण्य होता है। और हिंसा अर्थात दूसरों भतः ऐसी अहिंसा कायरताकी कनक खोजना था उसे को कष्ट पहुंचानेसे पाप होता है। इसलिये क्रोध, मान, निष्कर्म और स्वप्नलोकका भादर्श बतलाना यह हमारे माया, लोभ आदि कषायरूप दुष्ट पशुओंको, जो धर्म, दिमागोंका ही परिणाम है। आजकल हर एक प्रकारकी अर्थ, काम और मोषको नष्ट करने वाले है. शमरूप मंत्रसे नैतिकताकी खिल्ली उखाना एक फैशन हो गया है। पर मारकर पंरिसेि किये हुए यज्ञको करो। जो प्राणियोंकी यदि समानताकी रष्टिसे देखा जाय, तो भाजकक्षके वाताहिंसासे धर्मकी इच्छा करता है, वह श्याम वर्ष सर्पके मुंह बरयाम मानवजातिके निस्तारका यदि कोई साधन है, तो से मस्तकी बुष्टि चाहता है। वहन हिंसा। महाभारत शान्तिपर्व प्रथम चरबमें मी भर्जुनको विश्वकी वर्तमान विभूति महात्मा गांधीने जो सबसे समझाते हुए कहा बली पात की और जिसने मात्र संसारके समी विचारकों
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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