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________________ वर्तमान संकटका कारण (ले० - बा० उग्रसेन जैन, एम० ए० एल० एल० बी० ) >>>*< आज संसार एक महाभयानक युद्धमें फंसा हुआ है । प्रत्येक देशमें त्राहि २ की पुकार सुनाई पड़ती है, जिसे देखो वह ही युद्ध की समाप्तिके लिये अपने हृदयस्थल में प्रबल इच्छा को लिये हुए हैं। परन्तु हम यह विचार नहीं करते कि इस सारे संकटका कारण क्या है ? जब तक ल काराको जान कर उसके निर्मूल करनेका उपाय नहीं सोचा जाता और उस पर अमल नहीं किया जाता. उस समय तक युद्धका मिलसिला जारी ही रहता रहेगा। कभी कुछ दिनोंके लिये बंद हुआ तो फिर फटसे द्वेषकी अभि प्रज्वलित होने पर युद्ध छिड़ जाता है. प्रजा दुःखी होती रहती है । हमारी वर्तमान सभ्यता ही इस संकटका मूलकारण है। वर्तमान सभ्यता की नींव विषय कषायकी पूर्ति पर ही रखा है, जबबाद इसकी तहमें है. चारों ओर आध्यात्मिक अराजकताका साम्राज्य छाया हुआ है, शिक्षित होते हुए भी हमें यह मान नहीं कि हम क्या है ? हम संसारमें क्यों है ? हमारे इस मनुष्य जीवनका उद्देश्य क्या है ? यथार्थमें वस्तुस्वरूपका ज्ञान ही नहीं है। नवीन विचार धाराओंने हमारे दिल और दिमाग़ पर अपना कुछ ऐसा सिक्का जमाया है कि हमारे दैनिक श्राचार-विचार में बड़ा भारी परिवर्तन होता जारहा है। श्रमज्ञान-विहीन कुछ ऐसी विचार धारायें आज प्रचलित हो रही हैं, कि जिनके निमित्तसे आध्यात्मिक एकता तथा पारस्परिक प्रेम और सहानुभूतिको सद्भावनायें मनुष्यजातिले लुप्त ही हो गई हैं। स्वार्थान्धताने एक विकराल रूप धारण किया है । व्यक्तिवाद दिन-ब-दिन बढ़ता जारहा है, इसीसे सामाजिक संगठनके दृढ़ बन्धन नितप्रति ढीले पड़ते चले गये और वे सब धार्मिक तथा नैतिक भावनायें नष्ट होगई जिनके कार या समाज एकताके सूत्रमें बँधा हुआ था। सत्य, अहिंसा, विश्वप्रेम, दया, सेवा, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ. स्वार्थत्याग, दान तप शील भावना आदि अनेक गुण जो हमारे दैनिक जीवनके खास सहारे थे और जिन पर कि सामाजिक और धार्मिक एकताकी गहरी नींव टिकी हुई थी, जाते रहे; इनको ढकोसला समझा जाने लगा, पौद्गल भावोंकी गृद्धि बढ़ती गई, भोग-विलासका जीवन व्यतीत करना ही अन्तिम ध्येय बनता गया, मौज-शौककी सामग्रीका अधिकाधिक मात्रा में संग्रह कर लेना ही जीवन की सफलता समझी जाने लगी । फल क्या हुआ ? यही कि अपने निज स्वरूप के भुला कर परके पीछे हाथ धोकर जापबे धर्म, अर्थ और वाम-पुरुषार्थका साधन यथायोग्य नहीं रहा, धर्मकी तो चर्चा तक भी नहीं अगर कहीं हो भी तो लोकलाज के लिये और केवल बाहरी दिखावटकी खातिर । मोक्ष-पुरुषार्थ का को प्रश्न ही नहीं । संसारी विभूतिको हथिया लेनेकी धुनमें प्रत्येक राष्ट्र लगा हुआ है, वह विभूति मीमित है, प्रत्येककी इच्छाओं की पूर्ति उसके द्वारा कैसे होवे ? हां, यद यह अहिंसात्मक सद्भावना प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें होवे कि मैं भी सुख और सन्तोषके साथ रहूं और दूसरे भी सुखी रहें तो वेशक समाजको काया पलट हो सकती है। इसके लिये आवश्यता है कि हम यह समझें कि संसार क्या है और हमारा इसके साथ कैसा सम्बन्ध है ? हमें अपने अंतिम ध्येयको अधिक स्पष्टता के साथ समझने की जरूरत है। हमें अपना आदर्श स्पष्ट रूपसे अपने सामने रखना चाहिये, क्यों कि जैसी भावना होती है वैसा बननेका ही सर्व प्राणियों का उद्देश्य हुआ करता है। यदि हमारी अपनी भावना सुख और शान्तिमय जीवन बिताने की होती है और हम उस ध्येय की ओर प्रयत्न शनि होते हैं तो अवश्य हमारा जीवन सुख-शान्तिमय हो जाता है। इस भावनाको निश्चित कर इसकी मृति हमें अपने हृदय में निर्मित कर लेनी चाहिये, उस मूर्तिके निर्माण होने पर ही हमारी प्रवृत्ति उस ओर चलती है । इस लिये जो संसारसे प्रशांतिको मिटाना चाहते हैं और इसके लिये प्रयत्नशील है उन का कर्तव्य यह है कि वे प्राणीमात्रको अपने बराबर समर्के, सबके प्रति प्रेमकी भावना अपने में जागृत करें, विषय-कषाय
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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