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________________ १०४ अनेकान्त [वर्ष ६ है। इस पाठका शब्दार्थ इस प्रकार है-जो जीव सभ्य- इस प्रकार कर्मकाण्डकारके निजी मतानुसार तो सासास्वलक्षण रसके भास्वादन सहित है, अर्थात सभ्यक्रवका दन गुणस्थानमें आहारक प्रकृतिकी सत्ता होती ही नहीं है। रस अभी भी चल रहा है, वह सास्वादन है। जैसे कोई अर्थात् जिस जीवने चाहारक प्रकृतिका बन्ध कर लिया पुरुष हीरभोजन कर लेने के पश्चात् ब्याकुल चित्त होकर वह सासादन गुणस्थानमें जा ही नहीं सकता। किन्तु उसका वमन करने लगता है और बमनकालमें भी उस कर्मकाण्डकारको एक ऐसे मतका भी परिचय है जिसके चीरानका स्वाद पाता है, इसी प्रकार जीव सम्यक्त्व पाकर अनुसार सासादन गुणस्थानवी जीव माहारक सत्ता भी व्याकुल चित्त हो सम्यक्त्वका वमन करता हुश्रा उसके वाला हो सकता है। यह मत हमें श्वेताम्बर कर्मग्रंथोंमें रसका मास्वादन करता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव सास्वादन मिलता है। कर्मप्रकृतिकी गाथा . में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि है और उसके गुणस्थानको सास्वादन गुणस्थान पाहारक प्रकृतिकी सत्ता सभी स्थानोंमें विकरूपसे हो कहते हैं।" सकती हैद्वितीय गुणस्थानके नामकी इस व्युत्पत्तिमें सम्यक्रवके "आहारग-तित्थयरा भज्जा दुसुणस्थि तित्थयरं।" स्वाद पर जोर दिया गया है और उसी पर उस संज्ञाकी यही बात पंचसंग्रहकी गाथा ३४८ में भी कही सार्थकता अवलम्बित की गई है। अतएव इस दृष्टिकोण से गयी हैसासादन जीवमें सम्यक्त्वके स्वादको सत्ताको स्वीकार करते "सव्वाण विहारं सासण-मीसयराण पुण तित्थं । हुए उसके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा जाय तो कोई विरोध उभये संति न मिच्छे तित्थगरे अंतरमुहुर्त ॥" नहीं पाता। इस प्रकार सासादनके ज्ञानको मिथ्याज्ञान या पंचम कर्मग्रन्थ 'शतक की गाथा १२ में भी यही मत सम्यग्ज्ञान मानने वाला मतभेद सासादनसंज्ञाकी सार्थकता सम्बन्धी मतभेद या दृष्टिकोण-भेद पर अवलम्बित हो तो स्थापित किया गया हैपाश्चर्य नहीं। "आहारमत्तग वा सव्वगुणे वितिगुणे विणा तित्थं । सासादन गुणस्थानमें आहारक प्रकृतिकी सत्ता नोभयसते मिच्छो अंतमुहुत्तं भवे तित्थे ।" कर्सकाण्डकी गाया ३३३ में बतलाया गया है कि सासा- इस प्रकार हम देखते हैं कि एक मतके अनुसार दनगुणास्थानमें माहारक प्रकृतिकी सत्ता नहीं हो सकती- चाहारक प्रकृतिकी सत्तावाला जीव सासादन गुण स्थान में तित्थाहारा जुगवं सव्वं तिथं ण मिच्छगादितिए।" जा सकता है और दूसरे मतके अनुसार नहीं जा सकता। किन्तु भागे गाथा ३७२-३७३ में कहा गया है कि सासा- यदि यहाँ भी युक्तिके बल पर विवेक किया जाय तो यह दन गुणस्थानमें कोई प्राचार्य सात प्रकृतियाँ हीन मानते हैं कहा जा सकता है कि चूंकि श्राहारक कृतिका बन्ध और कोई तीन प्रकृतियाँ हीन मानते हैं। अर्थात् किसीके केवल विशेष संयमी जीव ही कर सकते हैं, अतएव जिस मतसे उस गुणस्थानमें माहारकादि चार प्रकृतियाँ हो मतके अनुसार उपशमश्रेणीसे उतरा हुमा जीव सासादन सकती हैं और किसीके मतसे नहीं हो सकती-- हो सकता है उस मतके अनुसार तो सासादन गुगास्थान "सत्ततिगं आसाणे मिस्से तिगसक्सत्तएयारा। में आहारक प्रकृतिकी सत्ता संभव मानी जा सकती है। परिहीण सम्बसत्तं बद्धस्सियरस्स एगूणं । किन्तु जिस मतमे उपशमश्रेणी बाला जीव सासादन तित्थाहारचउई अण्णदरा उगदुर्ग च सत्तदे । नहीं हो सकता उस मतके अनुसार सासादन गणस्थानमेंहारचउकं वज्जिय तिरिण य केई समुहिट" माहारक प्रकृतिकी सत्ता भी नहीं मानी जा सकती। संशोधन-इस लेख में गत किरणके पृष्ठ..के दूसरे कालमकी २४ वीं पंक्तिमें प्ररूपणा'के पहले जो 'स्पर्शन' शब्द चपा है उसके स्थान पर पाठक 'अन्तर' बना ले।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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