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________________ किरण ३] सासादन मम्यक्त्वके सम्बन्धमें शासन-भेद अर्थात-यद्यपि सासादन गुणस्थानमें जीव विपरीना सासादन संज्ञाकी निरुक्ति भिनिवेशसे दूषित हो जाता है, फिर भी उसे भूतपूर्वन्याय सासादन जीवके ज्ञानको सत्व असत् मानने में भेदका एक से सम्यग्दृष्टि कहते हैं। यदि यही बात है तो उसी न्याय और कारण भी होसकता है और वह यह कि सासदनके स्वरूप से उसकी मति और श्रुतको भी शानरूप मानना कोई संबंध यद्यपि यथार्थतः कहीं कोई भारीमतभेद नहीं है तो अनुचित नहीं। नामों में एकरूपताकी दृष्टिपे भी वैषा मानना भी सासादन संज्ञाका अर्थ भिन्न भिन्न प्रकारसे किया गया भयुक्तिसंगत नहीं है। आखिर यहाँ शान और अज्ञानमें पाया जाता है। दिगम्बर सम्प्रदायमें इस नामकी जो सार्थकोई भान्तरिक भेद तो होता नहीं है।वही ज्ञान सम्यक्त्वके कता प्रचलित है वह पवनाकारके शब्दोंमें इस प्रकार हैसद्भावमें सदशान और मिथ्यात्वके समाबमें मिथ्याज्ञान "आसादनं सम्यक्त्वपिराधनम् । सह आसादनेन कहा जाता है। वतेते इति सासादनो विनाशितसम्यग्दर्शनोऽप्राप्तश्वेताम्बर मागमका यह दृष्टिकोण निम्न अवतरणसे मिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः स्पष्ट हो जाता है। भगवती शतक, उदेश ५ के सूत्र सासादन इति भण्यते । (सत्प्ररूपणा १,१० टीका) अर्थात--"भासादनका अर्थ सम्यक्त्वका विनाश । ४६ की टीका करते हुए अभयदेव कहते हैं इस विनाशसे सहित जो जीव होता है वह सासादन है "ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादन जिस जीवने सम्यग्दर्शनका विनाश कर डाला है, किन्तु भावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रंथेष्वभ्युपगम्यते, तत एव च अभी भी मिथ्यात्व कर्मके उदयसे उत्थक परिणामोंको प्राप्त ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञ नं चxxनव पृथिव्यादिषु नहीं किया है, पर मिथ्यात्वके अभिमुख है वह सासादन सास्वादनमावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात् , तत कहा जाता है।" एवोच्यते "उभयाभावो पुढवाइसु विगलेसु होज्न इस अर्थ में सम्यक्रवके बिनाश पर जोर दिया गया है उववरणो।" और सासादन संज्ञाकी सार्थकता भी इसी पर निर्भर की अर्थात् यहाँ प्रश्न हो सकता है कि कर्मग्रंथों में गयी है। अतः सम्यक्स्वके विनाश पर जोर होने के कारण दर्शनद्वारमै पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पति- उस जीवके ज्ञानमें भी समावके विनाश पर जोर देकर उसे कायिक जीवोंके सासादनभावसे सम्यक्त्व स्वीकार किया प्रसज्ञान मानना स्वाभाविक है। गया है जिसके अनुसार ज्ञानद्वारमें उक्त पृथिवीकायिक किन्तु सासादन प्राकृत रूपका एक संस्कृत रूपान्तर पादिमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञ न भी मानना चाहिये, इसका सास्वादन भी किया जाता है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय उत्तर यह है कि वैसामाना नहीं है, क्योंकि पृथिवीकायादि यह संज्ञा विशेष रूपसे प्रचलित है। इसकी सार्थकता पंच संग्रह टीकाकारने इस प्रकार बतलायीहै-- एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादनमाव अत्यन्त विरल रूपमें पाये सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः । जानेसे उसकी विवक्षा नहीं की गई। और इसी लिये कहा तत्रायं शब्दाथेः-सह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वागया है कि "पृथिवीकायादिमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों दनेन वर्तते इति सास्वादनः। यथा हि भुक्तक्षीरान्नका प्रभाव है तथा विकलेन्द्रियों में उनका सनाव मानना विषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरामरसमाउचित है।' स्वादयति, तथैषाऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वयहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सासावन गुग्ण स्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन् तद्रसमास्वाको सम्यक्त्व रूप ही स्वीकार किया है और सासादनोंके दयति । ततः स चासी सम्यग्दृष्टिश्च स सास्वादनसम्यज्ञानको पूपिवीकायादिमें केवल इसी लिये सज्ञान रूप ग्दृष्टिःतस्य गुणस्थानं सास्वादनसम्यग्ष्टिगुणस्थानम्।" स्वीकार नहीं किया क्यों कि उनमें सासादनभाव इतना (पंचसंग्रह १, पृ०१८) कम पाया जाता है कि सामान्य कथनमें उसकी विवचा अर्थात-"सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानकी जगह नहीं की जाती। सास्वादन सम्परधि गुणस्थान, पेसा पाठ भी पाया जाता
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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