SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ए र -पर...जर..का.. - ए .. Registere No. A-137. 22-22-卐---- - * व्यवस्थापकीय निवेदन 9 - जिस समय 'अनेकान्त' के व्यवस्थापकत्वका भार दो महीने पहिले मैंने स्वीकार किया था उस समय मैं बहुत घबरा रहा था कि कहाँ 'अनेकान्त' जैसे उचकोटिके पत्रका व्यवस्थापन-कार्य और कहाँ मेरे जैसा अयोग्य, अनुभव तथा साधन-हीन व्यक्ति पर केवल बजुगोंके आदेश और श्रेय मुख्तार साहबके स्वास्थ्यको दृष्टिमें रखकर [क्यों किधर एक वर्षसे पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारका स्वास्थ्य बराबर गिरता जारहा है और वे प्रायः अस्वस्थ रहते हैं कुछ वृद्धावस्थाकी और कुछ अस्वस्थताकी कमजोरी उन्हें बराबर सता रही है। साथ ही, वे परिश्रम इतना अधिक करते है कि । जो एक नवयुवक और शक्तिशाली व्यक्तिको भी नहीं करना चाहिये; पर वे अपनी धुनके ऐसे है कि चिकित्सकोंके मना करने पर भी, रिलीफ्रका कोई समुचित साधन पासमें न होनेके कारण, अपनी जिम्मेदारीको महसूस करते हुए बराबर १४,१५,घंटे सम्पादन तथा लेखन प्रादिका कार्य स्वयं करते ही रहते है और दिमाग तो उनका शायद १६ या २.घंटे रोजाना कार्यमें जुटा रहता है। । इधर शरीर के प्रति निलिप्तता कुछ ऐसी बढ़ गई है कि खाने-पीने की ओर अधिक ध्यान भी नहीं देते हैं, जिसका निश्चित परिणाम है शक्तिका हास। पिछले दिनों महीनों तक जब 'पुरातन-जैन वाक्यसूची' का सम्पादन-प्रकाशनादि कार्य हो रहा था तो श्रापको प्रायः रात्रिके एक २और दो २ बजे सोना मिला है। शरीर भी एक मशीनरी है आखिर बिना ग्रीस कितने दिन खड़ी रह सकती है, अतः निरन्तर साथ रहनेके अनुभवसे मैं यह बात कह सकता हूँ कि इधर कुछ सेंसे मुख्तार साहेबकी शारीरिक शक्ति प्राधी नहीं रही है और मुझे भय है कि यदि उन्हें समाजकी तरफसे समुचित रिलीफ न दी जासकी तो शायद उनसे उनके जीवनकी वह अगाढी कमाई जो कागजके टुकड़ों में इधर-उधर बिखरी पड़ी है और अधिकांशतः उनके दिमागमें संचित है तथा समाजके लिये बहुत ही उपयोगी है उसे हम न ले सकें] और साथ ही यह सोच कर कि यदि मैंने 'अनेकान्त' के कार्य में उनको कुछ सहयोग दिया तो सम्भव है कि वे ऐसे अमूल्य कार्य जिनको वे अनवकाशके कारण पूरे नहीं कर सकते हैं कुछ पूरा कर सक, मैंने व्यवस्थापक भारको अ.ने ऊपर लिया है। मैं धड़कते हुए हृदय तथा प्राशा और निराशाकी सम्मलित भावनाओंसे अपनी योजना लेकर समाजके सामने गया और टूटे-फूटे शब्दों में अपनी प्रार्थना समाजके सन्मुख प्रस्तुत करदी। मुझे यह प्रकट करते हुए अति प्रसन्नता होती है कि मैं जिन २ महानुभावोंके पास पहुँच सका हूँ उनसे मुझ अच्छा सहयोग मिला है-धनियोंने धनसे, कार्यकर्ताथोंने समय और परिश्रमसे, विद्वानोंने लेखोंसे, बजुगोंने शुभकामना और पथप्रदर्शनसे मेरा हाथ बटाया है। और भी बहुतसे सज्जनोंसे पत्र-व्यवहार हो रहा है तथा बहुतसे महानुभाव ऐसे भी हैं जिन तक व्यस्तता या भूल-वश मैं अभी तक पहुंच भी नहीं पाया हूँ, मुझे आशा है उन सबका सहयोग मिल जाने पर हम 'अनेकान्त' को बहुत ऊंचे स्थान पर पा सकेंगे। _ 'अनेकान्त' हाथमें लेते समय मैंने यह संकल्प किया था कि हम इस वर्ष 'अनेकान्त' के एक हजार ग्राहक और फ्री भिजवाने वाले सहायक बना लेंगे। पर अब एक किरण निकलनके बाद ही मुझे ऐसा मालूम होने लगा है कि हमें तो अनेकान्तके एक हजार ग्राहक और एक हजार अजैन संस्थाओं और विद्वानोंको मुफ्त भिजवाने वाले सहायक बनाने चाहिये। चूंकि रोजाना आनेवाले बीसों पत्र यह बता रहे हैं कि अनेकान्तके संचालकोंने इस समय "समयकी पुकारका उत्तर दिया है" और समाजकी, उस मांगको पूरा करनेका संकल्प किया है, जिसकी आवश्य कता बहुत दिनसे महसूस की जा रही थी। अब आवश्यकता इस बातकी है कि अनेकान्तका अधिकसे अधिक प्रचार किया जावे। इसके लिये हमें समाजके, स्थानीय कार्यकर्ताओंके उदार सहयोगकी अधिक आवश्यकता है ताकि वे अपने २ स्थानकी जनतामें, अनेकान्तका .. अधिकसे अधिक प्रचार करें और उनमें उसके स्वाध्याय करनेकी भावना पैदा करें। ऐसे सहयोग-दानके इच्छुक बन्धुर पत्र लिख कर प्रचारका साहित्य बिना किसी खचेके यहांसे मँगा सकते हैं। A साथ ही, ऐसे दो विद्वानोंकी भी आवश्यकता है जो वेतन पर स्थान २ पर भ्रमण करके जनतामें अनेकान्तके . स्वाध्यायकी रुचि पैदा करें। उन्हें किसीसे भी चन्दा नहीं मांगना पड़ेगा। कौशलप्रसाद जैन मा. व्यवस्थापक "अनकान्त" कोर्ट रोड, सहारनपुर - ए -जए - ए -9-30->ए ए ए एमा प्रकाशक. परमानन्दशासी वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसन्दरखाव श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में मद्रित का .अर जर- एर र रजरपर-र-र पर
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy