SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्यकी महत्ता (लेखक-विद्यारत्न पं. मूलचन्द्र 'वत्सल' साहित्यशासी) ने अपने समयागी है। बहुत प्रकाश संसारमें किसी प्रकारकी प्रगति उत्पन्न करनेके लिये ग्ध हुए है और सब जैन विद्वानोंके बनाये हुए हैं। ऐसी दशा में साहित्य प्रमुख कारण होता है और किसी भी युगका सष्ट है कि हिन्दीकी उत्पत्ति और कम-विकासका ज्ञान प्राप्त निर्माण करने में साहित्यका अव्यक्तरूपसे प्रधान हाथ रहता करने के लिये हिन्दीका जैन साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। है।संसारमें जब जब जेसा युग परिवर्तन हुना। उसकी हिन्दीके जैनसाहि.यने अपने समयके इतिहास पर भी मूलमें बैंसी प्रगतिका साहित्य अवश्य रहा है। बहुत प्रकाश डाला है। कविवर बनारसीदासजीका 'श्रात्मसाहित्य वह खतम कला है जो संसारकी समस्त चरित' अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक घटनाओंसे भरा कलानों में शिरोमणि स्थान रखती है। जीवनको किसी भी हुावा अपनी कोटिकी हिन्दी साहित्यमें अकेली ही रूपमें दालनेके लिये. साहित्य एक महान साँचेका कार्य बस्तु है। अन्य कई ऐतिहासिक ग्रंथ भी जेनकवियों द्वारा करता है। साहित्य के होड़ेसे ही जीवन सुडौल बनता है लिखे गये हैं। और साहित्यके द्वारा ही प्रात्माकी आवाक संसारके प्रत्येक हिन्दी जैनसाहित्य अत्यन्त महत्वशाली होनेपर भी कोने में पहुँचती है। भारतके विद्वानोका लक्ष्य उसपर नहीं गया, इसके कई जैनसाहिल्यने प्रत्येक युगमें अपने पनित्र और विशाल प्रधान कारण हैं। जिनमें सबसे मुख्य कारण तो बंगोंद्वारा संसारको भारतीय गौरव के दर्शन कराये है- जैनियोका अपने ग्रन्थोंका छिपाये रखना है। अन्य धर्मियों प्राणीमात्रको सुखशान्ति श्रीर कर्तव्यके पथपर प्राषित । द्वारा जैनग्रन्थों को नष्ट कर देनेके आतंकने जैनोके हृदयोको किया और असंख्य प्राणियोको कल्याण-पथका पथिक अत्यन्त भयभीत बना दिया था और परिस्थिति के परिवर्तन बनाया है। हो जानेर भी हृदयोंमें जमी हुई पूर्व आशंका से वे अपने समयानुकूल साहित्यके निर्माण में जैन विद्वानोंने अपनी प्रयोको बाहर नहीं निकाल सके और न सर्वसाधारण के गौरवशालिनी प्रतिभा और विद्वत्ताका पूर्ण परिचय दिया सम्मुख पहुँचा सके। है। संस्कृत-साहित्यके निर्माणमें तो जैनाचार्योने वैराग्य, जबसे देशमें छापेका प्रचार हुना तबसे जैनसमाजको यौन्ति और तत्व निर्णयपर जो कुछ भी लिखा है वह अद्वि- भय हुश्रा कि कहीं मारे ग्रन्थ भी न छपने लगें और तीय है, किन्तु हिन्दी साहित्य के निर्माण में भी जेन विद्वान् उन्होंने जी-जानसे उन्हें न छपने देनेका प्रयत्न किया। किसी भी भारतीय कविसे पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने काव्य- इधर कुछ नवीन विद्वानों पर नया प्रकाश पड़ा और उन्होंने द्वारा अपनी जिस पवित्र प्रतिभाका परिचय दिया है वह जैन ग्रंथोके छपानेका यत्न किया जिसके फलस्वरूप जैन ग्रंथ' अत्यन्त गौरवमय है। हिन्दीका जैनसाहित्य अत्यन्त विशाल छपने लगे। ऐसी दशामें जबकि स्वयं जैनोंको ही जैनमाहिऔर महत्वशाली है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे तो उसमें कुछ त्य सुगमतासे मिलनेका उपाय नहीं था तब सर्वसाधारणके ऐसी विशेषतायें है, जो जैनेनर साहित्यमें नहीं है। निकट तो वह प्रकट ही कैसे हो सकता था? हिन्दीकी उत्पत्ति जिस प्राकृत या मागधी भाषासे दूसरा कारण जैनधर्मके प्रति सर्वसाधारणका उपेक्षामानी जाती है। उसका सबसे अधिक परिचय नैनविद्वानों भाव तथा विद्वेष है। अनेक विद्वान् भी नास्तिक और वेदको रहा है। और यदि यह कहा जाय कि प्राकृत और विरोधी प्रादि समझकर जैनसाहित्य के प्रति अरुचि या मागधी शुरूसे अबतक जेनोंकी ही संपत्ति रही तो कुछ विरक्तिका भाव रखते है और अधिकांश विद्वानोको तो यह अत्युक्ति न होगी। प्राकृत के बाद और हिन्दी बनने के पहले भी मालूम नहीं कि हिन्दीमें जैनधर्मका साहित्य भी है और जो एक अपभ्रंश भाषा रह चुकी है उसपर भी जैनोंका वह कुछ महत्व रखता है। ऐसी दशामें जैनसाहित्य अप्रकट विशेष अधिकार है। इस भाषाके अभी कांपन्य उपल- रहा और लोग उससे अनमिश रहे। जेनसमाजके विद्वानों
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy