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________________ किरण २] स्वाधीनताकी दिव्यज्योति उपसंहार] चाकीने तभी भालको धरतीसे लगाया । जाकरके बाहुबलिने तपोवनमें जो किया । पद-रजको उठा भक्तिसे मस्तक चढ़ाया । उस कृत्यने संसार सभी दंग कर दिया । गोया ये तपस्याका ही सामर्थ्य दिखाया। तप ब्रत किया कि नाम जहाँमें कमा लिया। पुजना जो चाहता था वही पूजने माया ॥ कहते हैं तपस्या किसे, इसको दिखा दिया । फिर क्या था, मनका द्वन्द सभी दूर होगया। कायोत्सर्ग वर्ष-भर अविचल खड़े रहे । अपनी हा दिव्य-ज्योतिसे भरपूर होगया ।। ध्यानस्थ इस क्रदर रहे,कवि किस तरह कहे? | कैवल्य मिला, देवता मिल पूजने पाए। मिट्टी जमी शरीरसे सटकर, इधर-उधर । फिर दूब उगी, बेलें बढ़ी बाँहोंपै चढ़कर ॥ नर-नारियोंने खूब ही श्रानन्द मनाए ॥ चक्री भी अन्तरंगमें फूले न समाए । वाँबी बनाके रहने लगे मौजसे फनधर ॥ मृग भी खुजाने खाज लगे हूँठ जानकर ॥ भाईकी आत्म जयपै अश्रु आँख में पाए। है वंदनीय, जिसने गुलामी समाप्त की। निस्पृह हुए शरीरसे वे आत्म-ध्यानमें वर्षाका विषय बन गए सारे जहानमें ॥ __ मिलनी जो चाहिए, वही आज़ादी प्राप्त की। पर, शल्य रही इतनी गोमटेशके भीतर। उन गोमटेश-प्रभुके सौम्य-रूपकी झाँकी। 'ये पैर टिके है मेरे चक्रीकी भूमि पर ।।' वर्षों इए कि विज्ञ-शिल्पकारने मॉकी ॥ इसने ही रोक रक्खा था कैवल्यका दिनकर। कितनी है कलापूर्ण, विशद्, पुण्यकी झाँकी । वानः वो तपस्या थी तभी जाते पाप भर । दिल मोचने लगता है, चूहाथ या टाँकी? यह बात बढ़ी और सभी देशमें छाई ।। हैश्रवणबेलगोलमें वह आज भी सुस्थित । इतनी कि चक्रवतिके कानोंमें भी आई। जिसको विदेशी देखके होते हैं चक्तिचित। सुन, दौड़े हुए आए भक्ति-भावसे भरकर । कहते हैं उसे विश्वका वे पाठवाँ अचरज । फिर बोले मधुर-बैन ये चरणों में झुका सर ।। खिल उठता जिसे देख अन्तरंगका पंकज॥ 'योगीश! उस छोड़िये जो द्वन्द है भीतर । झुकते हैं और लेते हैं श्रद्धासे चरण-रज । होजाय प्रगट जिससे शीघ्र आत्म-दिवाकर॥ लेजाते हैं विदेश उनके अक्सका काराज। हो धन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी ! वह धन्य, जिसने दर्शनोंका लाभ उठाया। प्रभु ! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी? बेशक सफल हुई है उसी भक्तकी काया। मुझसे अनेकों चक्री हुए, होते रहेंगे। ॥ उस मूर्तिसे है शान कि शोभा है हमारी। यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेंगे। गौरव है हमें, हम कि हैं उस प्रभुके पुजारी।। पर, आप सचाईपै अगर ध्यानको देंगे। जिसने कि गुलामीकी बला सिरमे उतारी। तो चक्रधरकी भूमि कभी कह न सकेंगे। स्वाधीनताके युद्धकी था जो कि चिंगारी ।। मैं क्या हूँ?-तुच्छ!भूमिकहाँ? यह तोविचारो। आजादी सिखाती है गोमटेशकी गाथा । काँटा निकाल दिलसे अकल्याएको मारो।। झुकता है अनायास भक्ति-भावसे माथा । 'भगवत्' उन्ही-सा शौर्य हो, साहस हो, सुबल हो। जिससे कि मुक्ति-लाभ लें, नर-जन्म सफल हो।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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