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________________ किरण ] नयों का विश्लेषण ३३६ और उत्पादका अर्थ परिणमन किया गया है-अर्यात पर्यायाथिकनय कहा जायगा। महावाक्यके बारेमें नोंका वस्तुकी पूर्वपर्याय ही स्वाभाविक तौरपर अथवा बाझ उदाहरण इस प्रकार है-वस्मुकै सामान्य और विशेष दोनों निमित्तोंके आधारपर बदलकर उत्तरपर्याय बन जाती है। धर्मोंका प्रतिपादन करनेवाले दो प्रकरणोंका एक अन्य है। यही सबब है कि जैनधर्ममें प्रभावको भावान्तर स्वभाव यहांपर दोनों प्रकरणोंका पिंडभूत ग्रन्थ तो परार्थप्रमाण माना गया है । वस्तुके एकानेकात्मकरव. सदसदात्मकत्व । माना जायगा, कारण कि वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन दोनों मादि स्वरूप भी इन्हीं मामान्य और विशेषधर्मों के विशेष- प्रकरणोंके समुदायल्प मन्यसे ही होता है और अनेक रूप ही समझने चाहिये। पापों तथा महावाक्योंकि पिंडभूत दोनों प्रकरण कि वस्तुके एक एक अंशका प्रतिपादन करते हैं इसलिये दोनों इन परस्पर विरोधी सामान्य और विशेष दोनों धर्मों प्रकरणोंको ट्रम्पार्थिकमयवाक्य और पर्यायार्थिकनयवाक्य का प्रतिपादन करनेके लिये पूर्वोक्त परार्थश्रुतके भी जैनधर्म समझना चाहिये। में दो अंश माने गये हैं जिनको क्रमसे पूर्वोक्त द्रव्यार्थिक नय और पर्यार्याथिक नय नाम दिये गये हैं-अर्थात यदि कहीं पर सिर्फ "वस्तु नित्य "सबायकाही द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुके ग्यांशभूत मामान्यधर्मका प्रति- प्रयोग किया गया हो और इस वाक्यके जरिये बससके पादन होता है और पर्यायार्थिक नयसे उसके पर्यायांशभूत तयांशभूत नित्य धर्मका प्रतिपादन करना ही वक्ताको विशेषधर्मका प्रतिपादन होता है । इसलिये वस्तुस्वरूप अभीष्ट हो. तो वहाँ पर "वस्तु भनित्य है" इस वाक्यका विवेचनकी रष्टिसे इन दोनों नोंको "नयोंका सैद्धान्तिक आक्षेप करना अनिवार्य होगा, (भले ही वह वक्ताके लिये वर्ग" न म दिया गया है। गौण हो) कारण कि 'वस्तु भनित्य " स वाक्यके साथ ये दोनों नय पूर्वोक्त प्रकारसे पद. वाक्य और महा. एकवाक्यताको प्राप्त हुमा "वस्तु निस्य है" ऐसा पाक्य ही वाक्यके भेदसे तीन प्रकार के होते हैं। तात्पर्य यह है कि नयवाक्य कहलाने योग्य है। स्वतंत्र "वस्तु निस्य" यह परार्थ-प्रमाणके अंशभूत कोई कोई पद, वाक्य और महा वाक्य नयवाक्य नहीं कहा जा सकता है। कारण कि वाक्य वस्तुके समान्यधर्मका प्रतिपादन करते है और परार्थ प्रमाणावाक्य अथवा प्रमाणमहावाक्यके सापेक्ष अंशीका नाम प्रमाणके अंशभूत कोई कोई पद, वाक्य और महावाक्य वस्तु ही नयवाक्य कहा गया है। के विशेषधर्मका प्रतिपादन करते है । जैसे "वस्तु नित्य यदि कहींपर सिर्फ 'वस्तु निस्य है" इस वापय काही और अनित्य है" यह परार्थ-प्रमाण या प्रमाण-वाक्य है, प्रयोग तो किया गया हो. लेकिन "वस्तु अनित्य है" कारण कि यह वाक्य वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करता इस वाक्यका भाषेप करना वक्ताको अभीष्ट न हो.तो ऐसी है । इम प्रमाणवाक्यके अवयव-स्वरूप नित्य और हालतमें यह वाक्य या तो प्रमाणावाक्य माना जायगा या फिर अनित्य पद क्रमसे उस वस्तुके सामान्यधर्म प्रमाणाभास माना जायगा । तात्पर्य यह है कि यदि वस्तु और विशेषधर्मका प्रतिपादन करते हैं, इसलिये ये दोनों नित्य है इस वाक्यके जरिये वस्तुकी भनित्यताका विरोधन करते पद कमसे प्याथिकनय और पर्यायाथिकमय कहे हुए सिर्फ नित्यधर्म द्वारा निस्यात्मक वस्तुका ही प्रतिपादन जायेंगे। "वस्तु नित्य है और भनित्य है" इस प्रयोग करना बक्ताको अभीष्ट हो, तो ऐसी हालत में यह वाक्य दो वाक्योंका पिंडस्वरूप महावाक्य परार्थ-प्रमाण है क्योंकि धर्मके द्वारा धर्माका प्रतिपादक होनेकी वजहसे प्रमाणवाक्य यहां पर पूर्ण वस्तुका प्रतिपादन करनेके लिये दो वाक्योंका माना जायगा । लेकिन इस वाक्यके द्वारा यदि अनित्यताका प्रयोग किया गया है। और कि इस महावाक्य अवयव- विरोध करते हुए बस्तुकी नित्यताका ही प्रतिपादन करना स्वरूप दोनों बाक्योंसे कमसे वस्तुके सामान्यधर्म और वक्ताको अभीष्ट हो, तो ऐसी हालत में यह वाक्य प्रमाणाविशेषधर्मका प्रतिपादन होता है इसलिये महावाक्यके भास माना जायगा, कारण कि वस्तुकी अनित्यताका विरोध अवयवस्वरूप इन दोनों वाक्योंको क्रमसे न्यार्थिकनय और करनेवाले "वस्तु नित्य है" इस वायके द्वारा निस्यरूप ही
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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